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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(१) मिध्यात्व मोहनीय आदि कर्मों के उदय से वह पुरुष शराब पिये हुए पुरुष की तरह उन्मत्त सा बना हुआ है । इसी से यह पुरुष मुझे गाली देता है, मज़ाक करता है, भर्त्सना करता है, बांधता है, रोकता है, शरीर के अवयव हाथ, पैर आदि का छेदन करता है, मूर्च्छित करता है, मरणान्त दुःख देता है, मारता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद पोन्छन आदि को छीनता है । मेरे से वस्त्रादि को जुदा करता है, वस्त्र फाड़ता है, एवं पात्र फोड़ता है तथा उपकरणों की चोरी करता है । (२) यह पुरुष देवता से अधिष्ठित है, इस कारण से गाली देता है । यावत् उपकरणों की चोरी करता है ।
(३) यह पुरुष मिथ्यात्व आदि कर्म के वशीभूत है। और मेरे भी इसी भव में भोगे जाने वाले वेदनीय कर्म उदय में हैं । इसी से यह पुरुष गाली देता है, यावत् उपकरणों की चोरी करता है ।
(४) यह पुरुष मूर्ख है । पाप का इसे भय नहीं है । इस लिये यह गाली आदि परिषह दे रहा है । परन्तु यदि मैं इससे दिये गए परिषह उपसर्गों को सम्यक् प्रकार अदीन भाव से वीर की तरह सहन न करूँ तो मुझे भी पाप के सिवा और क्या प्राप्त होगा ।
(५) यह पुरुष आक्रोश आदि परिषह उपसर्ग देता हुआ पाप कर्म बांध रहा है । परन्तु यदि मैं समभाव से इससे दिये गए परिषह उपसर्ग सह लूँगा तो मुझे एकान्त निर्जरा होगी ।