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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ३२५ (१) साधु ईर्या समिति में उपयोग रखने वाला हो, क्योंकि ईर्या समिति रहित साधु प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा करने वाला होता है। (२) साधु सदा उपयोग पूर्वक देख कर चौड़े मुख वाले पात्र में आहार, पानी ग्रहण करे एवं प्रकाश वाले स्थान में देख कर भोजन करे । अनुपयोग पूर्वक विना देखे आहारादि ग्रहण करने वाले एवं भोगने वाले साधु के प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा का सम्भव है। (३) अयतना से पात्रादि भंडोपगरण लेने और रखने का आगम में निषेध है । इस लिए साधु आगम में कहे अनुसार देख कर और पूंजकर यतना पूर्वक भंडोपगरण लेवे और रखे, अन्यथा प्राणियों की हिंसा का सम्भव है । (४) संयम में सावधान साधु मन को शुभ प्रवृत्तियों में लगाये। मन को दुष्ट रूप से प्रवर्ताने वाला साधु प्राणियों का हिंसा करता है । काया का गोपन होते हुए भी मन की दुष्ट प्रवृत्ति राजर्षि प्रसन्न चन्द्र की तरह कर्मबन्ध का कारण होती है। (५) संयम में सावधान साधु अदुष्ट अर्थात् शुभ वचन में प्रवृति करे । दुष्ट वचन में प्रवृत्ति करने वाले के प्राणियों की हिंसा का संभव है। ३१८-मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महावत की पाँच भावनाएं:
SR No.010508
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1940
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size12 MB
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