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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १८२-स्थण्डिल के चार भांगे
____ मल मूत्र आदि त्याग करने अर्थात् परिठवने की जगह को स्थण्डिल कहते हैं । स्थण्डिल ऐसा होना चाहिए जहाँ स्व, पर और उभय पक्ष वालों का न तो आना जाना है और न संलोक । अर्थात् न दूर से उनकी दृष्टि ही पड़ती है । उसके चार भांगे हैं। (१) जहाँ स्व, पर और उभय पक्ष वालों का न आना
जाना है और न दूर से उनकी नज़र ही पड़ती है। (२) जहाँ पर उनका आना जाना तो नहीं है पर दूर से
उनकी दृष्टि पड़ती है। (३) जहाँ उनका आना जाना तो है किन्तु दूर से उनकी
नज़र नहीं पड़ती। (४) जहाँ उनका आना जाना है और दूर से नज़र भी
पड़ती है।
इन चार भांगों में पहला भांगा परिठवने के लिए शुद्ध है । शेष अशुद्ध हैं।
(उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २४) १.८३-चार कारणों से, साध्वी से आलाप संलाप करता हुआ
साधु 'अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ खड़ा न रहे, न बात-चीत करे, विशेष कर साध्वी के साथ'-इस निर्ग्रन्थाचार का अतिक्रमण नहीं करता। (१) प्रश्न पूछने योग्य साधर्मिक गृहस्थ पुरुष के न होने पर
आर्या से मार्ग पूछता हुआ। (२) आर्या को मार्ग बतलाता हुआ।