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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(३) चतुरङ्गीयः - मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा, संयम में पुरुषार्थ करना इन चार आत्म विकास के अङ्गों का क्रमपूर्वक निर्देश, संसार चक्र में फिरने का कारण, धर्म कौन पाल सकता है ? शुभ कर्मों का सुन्दर परिणाम ।
(४) असंस्कृत: - जीवन की चंचलता, दुष्ट कर्म का दुःखद परिगाम, कर्मों के करने वाले को ही उनके फल भोगने पड़ते हैं । प्रलोभनों में जागृति, स्वच्छन्द वृत्ति को रोकने में ही मुक्ति है।
(५) काम मरणीय :
अज्ञानी का ध्येय शून्य मरण, क्रूरकर्मी का विलाप, भोगों की आसक्ति का दुष्परिणाम, दोनों प्रकार के रोगों की उत्पत्ति, मृत्यु के समय दुराचारी की स्थिति, गृहस्थ साधक की योग्यता । सच्चे संयम का प्रतिपादन, सदाचारी की गति देवगति के सुखों का वर्णन, संयमी का सफल मरण । (६) चुल्लक निर्ग्रन्थ :
धन, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि सब कर्मों से पीड़ित मनुष्य को शरणभूत नहीं होते । बाह्य परिग्रह का त्याग, जगत् सर्व प्राणियों पर मैत्री भाव, आचारशून्य वागवदग्ध्य एवं विद्वत्ता व्यर्थ है । संयमी की परिमितता ।
(७) एलक:
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भोगी की बकरे के साथ तुलना, अधम गति में जाने वाले जीव के विशिष्ट लक्षण, लेश मात्र भूल का