________________ 386 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (5) यथासूक्ष्म निग्रन्थः-प्रथम समय आदि की अपेक्षा विना सामान्य रूप से सभी समयों में वर्तमान निर्गन्य यथासूक्ष्म निर्ग्रन्थ कहलाता है। (ठाणांग 5 उद्देशा 3 सूत्र 445) ३७१--स्नातक के पाँच भेदः (1) अच्छवि। (2) अशबल। (3) अकर्मांश। (4) संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी अरिहन्त जिन केवली / (5) अपरिश्रावी। (1) अच्छवि:--स्नातक काय योग का निरोध करने से छवि अर्थात शरीर रहित अथवा व्यथा (पीडा) नहीं देने वाला होता है। (2) अशबलः स्नातक निरतिचार शुद्ध चारित्र को पालता है। इस लिये वह अशबल होता है। (3) अकर्मांशः -पातिक कर्मों का क्षय कर डालने से स्नातक अकर्माश होता है। (4) संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी अरहिन्त जिन केवली:-दूसरे ज्ञान दर्शन धारक होने से स्नातक संशुद्ध ज्ञान दर्शनधारी होता है। वह पूजा योग्य होने से अरिहन्त, कषायों का विजेता होने से जिन, एवं परिपूर्ण ज्ञान दर्शन चारित्र का स्वामी होने से केवली है।