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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह व्रत की अपेक्षा रखते हुए कुछ अंश में व्रत का भङ्ग करना अतिचार है। व्रत की अपेक्षा न रखने हुए संकल्प पूर्वक व्रत भङ्ग करना अनाचार है । इस प्रकार अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार-ये चारों व्रत की मर्यादा भङ्ग करने के प्रकार हैं । शास्त्रों में व्रतों के अतिचारों का वर्णन है। परन्तु यह मध्यम भङ्ग का प्रकार है और इससे आगे के अतिक्रम, व्यतिक्रम और पीछे का अनाचार भी ग्रहण किये जाते हैं । वे भी त्याज्य हैं। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि यदि संकल्प पूर्वक व्रतों की विना अपेक्षा किये अतिचारों का सेवन किया जाय तो वह अनाचार-सेवन ही है और वह व्रत-भङ्ग का कारण है। प्रथम अणुव्रत के पाँच अतिचार:(१) बन्ध। (२) वध । (३) छविच्छेद। (४) अतिभार ।
(५) भक्त-पान व्यवच्छेद। (१) बन्धः-द्विपद, चतुष्पदों को रस्सी आदि से अन्याय पूर्वक
बाँधना बन्ध है। यह बन्ध दो प्रकार का है:(१) द्विपद का बन्ध । (२) चतुष्पद का बन्ध। प्रत्येक के फिर दो दो भेद हैंएक अर्थ बन्ध और दमरा अनर्थ बन्ध । अर्थ-बन्ध भी दो प्रकार का है(१) सापेक्ष अर्थ बन्ध ।