________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल मंग्रह 526 (3) दुःशीलता। (4) हास्योत्पादन / (5) परविम्मयोत्पादन / (1) कन्दर्पः--अट्टहाम करना, हमी मजाक करना, स्वच्छन्द होकर गुरु आदि से ढिठाई पूर्वक कठोर या वक्र वचन कहना, काम कथा करना, काम का उपदेश देना, काम की प्रशंसा करना आदि कन्दप है। (2) कौत्कुच्य:--भांड की तरह चेष्टा करना कौत्कुच्य है / काया और वचन के भेद से कोत्कच्य दो प्रकार का है:-- काय कौत्कुच्य--स्वयं न हमने हुए भी, नत्र, मुख, दांत, हाथ, पैर आदि से ऐमी चेष्टा करना जिमसे दूसरे हँसने लगे, यह काय कौत्कुच्य है। वाक कौत्कुच्यः--दूसरे प्राणियों की बोली की नकल करना, मुख से बाजा बजाना, तथा हास्यजनक वचन कहना वाक कौत्कुच्य है। (3) दुःशीलता:--दुष्ट स्वभाव का होना दुःशीलता है। संभ्रम और आवेश वश विना विचारे जल्दी जल्दी बोलना, मदमाते बैल की तरह जल्दी जल्दी चलना, सभी कार्य विना विचारे हड़बड़ी से करना इत्यादि हरकतों का दुःशीलता में समावेश होता है। (4) हास्योत्पादनः दूसरों के विरूप वेष और भाषा विषयक छिद्रों की गवेषणा करना और भाण्ड की तरह उसी प्रकार के विचित्र वेष बनाकर और वचन कह कर दर्शक और श्रोताओं को हँसाना तथा स्वयं हँसना हास्योत्पादन है।