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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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तरह विपरीत वृत्ति वाले पतित आत्माओं के सुधार की चेष्टा करनी चाहिए । यदि सुधार में सफलता मिलती न दिखाई दे तो सामने वाले के अशुभ कर्मों की प्रबलता समझ कर उदासीनता धारण करनी चाहिए । यही माध्यस्थ भावना है ।
( भावना शतक )
( कर्तव्य कौमुदी भाग २ श्लोक ३५ से ५५ )
( चतुर्भावना पाठमाला के आधार पर )
२४७ - बन्ध की व्याख्या और उसके भेद:( १ ) जैसे कोई व्यक्ति अपने शरीर पर तेल लगा कर धूलि में लेट, तो धूलि उसके शरीर पर चिपक जाती है । उसी प्रकार मिध्यात्व कषाय योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है तब जिम आकाश में आत्मा के प्रदेश हैं। वहीं के अनन्त - अनन्त कर्म योग्य पुद्गल परमाणु जीव के एक एक प्रदेश के साथ बंध जाते हैं। कर्म और आत्मप्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं । जैसे दूध और पानी तथा आग और लोह पिण्ड परस्पर एक हो कर मिल जाते हैं । श्रात्मा के साथ कर्मों का जो यह
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सम्बन्ध होता है, वही बन्ध कहलाता है । बंध के चार भेद
हैं।
( १ ) प्रकृति बन्ध ( २ ) स्थिति बन्ध
(३) अनुभाग बन्ध ( ४ ) प्रदेश बन्ध
( १ ) प्रकृति बन्ध - जीव के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्म पुद्गलों में जुदे जुदे स्वभावों का अर्थात् शक्तियों का पैदा होना प्रकृति बन्ध कहलाता है ।