________________ 377 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह हो तो उसे गुरु महाराज कृपा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त पदों का कथन करते हैं / उक्त साधु का गुरु महाराज से कहेहुए उन प्रायाश्चित्त पदों का धारण करना धारणा व्यवहार है। (5) जीत व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन धृति आदि की हानि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है वह जीत व्यवहार है। __ अथवा:किसी गच्छ में कारण विशेष से सूत्र से अधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित जीत व्यवहार कहा जाता है / अथवा:अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा की हुई मर्यादा का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ जीत कहलाता है। उससे प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है। इन पांच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास आगम हो तो उसे आगम से व्यवहार चलाना चाहिए / आगम में भी केवल ज्ञान, मनःपर्याय ज्ञान आदि छः भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए / पिछले मनःपर्याय ज्ञान आदि से नहीं। आगम के अभाव में श्रुत से, श्रुत के अभाव में आज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से, प्रवृति निवृत्ति रूप व्यवहार का प्रयोग होना चाहिए / देश काल के अनुसार ऊपर कहे अनुसार