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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (२) अनुयोगद्वार :-अणु अर्थात् संक्षिप्त सूत्र को महान् अर्थ
के साथ जोड़ना अनुयोग है। अथवा अध्ययन के अर्थव्याख्यान की विधि को अनुयोग कहते हैं। जिस प्रकार द्वार, नगर-प्रवेश का साधन है । द्वार न होने से नगर में प्रवेश नहीं हो सकता । एक दो द्वार होने से नगर दुःख से प्रवेश योग्य होता है। परन्तु चार द्वार एवं उपद्वार वाले नगर में प्रवेश सुगम है । उसी प्रकार शास्त्र रूपी नगर में प्रवेश करने के भी चार द्वार (साधन) हैं । इन द्वारों एवं उपद्वारों से शास्त्र के जटिल अर्थ में सुगमता के साथ गति हो सकती है । इस सूत्र में शास्त्रार्थ के व्याख्यान की विधि के उपायों का दिग्दर्शन है। इसी लिये इसका नाम अनुयोगद्वार दिया गया है । यों तो मभी शास्त्रों का अनुयोग होता है। परन्तु यहाँ आवश्यक के आधार से अनुयोग द्वार का वर्णन है । इसमें अनुयोग के मुख्य चार द्वार बताये गये हैं:(१) उपक्रम (२) निक्षेप (३) अनुगम (४) नय ।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र,काल और भाव के भेद से तथा आनुपूर्वी नाम प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार के भेद से उपक्रम के छः भेद हैं। आनुपूर्वी के दस भेद बताये गये हैं । इसी प्रकार नाम के भी एक दो यावत् दस नाम इस प्रकार दस भेद हैं । इन नामों में एक दो आदि भेदों का वर्णन करते हुए स्त्री,पुरुष,नपुंसक लिङ्ग,आगम,लोप,प्रकृति, विकार, छः भाव, सात स्वर, आठ विभक्ति, नव रस आदि