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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (निवृत्ति बादर ) नामक आठवें गुणस्थान वाला होता है।
आठवें गुणस्थान से जीव अनिवृत्ति बादर नामक नववें गुणस्थान में आता है । वहां रहा हुआ जीव संज्वलन लोभ के तीसरे भाग के अन्तिम संख्यातवें खण्ड के सिवा मोह की शेष सभी प्रकृतियों का उपशम करता है । और दसवें सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान में आता है । इस गुणस्थातन में जीव उक्त संज्वलन के लोभ के अन्तिम संख्यातवे खण्ड के असंख्यात खंड कर उनको उपशान्त कर देता है। और मोह की सभी प्रकृतियों का उपशम कर ग्यारहवें उपशान्त मोह गुण स्थान में पहुँच जाता है। उक्त प्रकृतियों का उपशम काल सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त है। एवं सारी श्रेणी का काल परिमाण भी अन्तर्मुहूर्त ही है । ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त परिमाण पूरी कर जीव उपशान्त मोह के उदय में आजाने से वापिस नीचे के गुणस्थानों में आता है।
सिद्धान्तानुसार उपशम श्रेणी की समाप्ति कर वापिस लौटा हुआ जीव अप्रमत या प्रमत्त गुणस्थान में रहता है । पर कर्मग्रन्थ के मतानुसार उक्त जीव लौटता हुआ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक भी पहुँच जाता है। यदि जीव श्रेणी में रहा हुआ ही काल करे तो अनुत्तर विमान में अविरत सम्यग्दृष्टि देवता होता है। । उपशम श्रेणी का आरम्भ कौन करता है ? इस विषय में मतभेद है । कई आचार्यों का कथन है कि अप्रमत्त संयत उपशम श्रेणी का आरम्भ करता है । तो कई