________________ 367 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह करना ब्रह्मचर्य वास है। (ठाणांग 5 उद्देशा 1 सूत्र 366) (धर्म संग्रह अधिकार 3 पृष्ठ 127) (प्रवचन सारोद्धार पूर्वभाग पृष्ठ 134) ३५२-भगवान् से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) उत्तिप्त चरक (2) निक्षिप्त चरक / (3) अन्त चरक (4) प्रान्त चरक / (5) लून चरक / (1) उत्क्षिप्त चरकः--गृहस्थ के अपने प्रयोजन से पकाने के बर्तन से बाहर निकाले हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु उत्क्षिप्त चरक है। (2) निक्षिप्त चरकः-पकाने के पात्र से बाहर न निकाले हुए अर्थात उसी में रहे हुए आहार की गवेषणा करने वाला साधु अन्त चरक कहलाता है। (4) प्रान्त चरकः-भोजन से अवशिष्ट, बासी या तुच्छ आहार की गवेषणा करने वाला साधु प्रान्त चरक कहलाता है। (5) लूक्ष चरकः-रूखे, स्नेह रहित आहार की गवेषणा करने वाला साधु लूक्ष चरक कहलाता है। ये पाँचों अभिग्रह-विशेषधारी साधु के प्रकार हैं। प्रथम दो भाव-अभिग्रह और शेष तीन द्रव्य अभिग्रह हैं। (ठाणांग 5 सूत्र 366) ३५३-भगवान से उपदिष्ट एवं अनुमत पाँच स्थान: (1) अज्ञात चरक / (2) अन्न इलाय चरक (अन्न ग्लानक चरक, अन्न ग्लायक चरक, अन्य ग्लायक चरक)।