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श्री जैन सिद्धान्त बोल'मंग्रह १६३ (२) क्षमा शूर अरिहन्त भगवान होते हैं। जैसे भगवान् ' महावीर स्वामी। । (२) तप शूर अनगार होते हैं । जैसे धनाजी और दृढ़
'प्रहारी अनगार । दृढ़ प्रहारी ने चोर अवस्था में 'दृढ़े 'प्रहार .' आदि से उपार्जित कर्मों की अन्त दीक्षा देकर तप द्वारा छः
मास में कर दिया। द्रव्य शत्रुओं की तरह भाव' शत्रु अर्थात् , कर्मों के लिये भी उसने अपने आप को दृढ़प्रहारी सिद्ध " कर दिया। । .. . . . .
(३) दान शूर वैश्रमण देवता होते हैं । वे उत्तर दिशा के • लोकपाल हैं। ये तीर्थकर भगवान् के जन्म और पारणे आदि ... के ममय रनों की वृष्टि करने हैं।। । । । ।
(२) युद्ध शूर वासुदेव होते हैं। जैसे कृष्ण महाराज । .. कृष्ण जी ने ३६० युद्धों में विजय प्राप्त की थी। . . (४)
१६४-पुरुषाण
(ताणग,४, उद्देशा ४ सूत्र ३१७ )
११४-पुरुषार्थ के चार भेदः-
, .., . .. पुरुष का प्रयोजन ही पुरुषार्थ है.।, पुरुषार्थ. चार हैं
. (१) धर्म, (२) अर्थ । ... .. . । - (३) काम (४) मोक्ष । (१) धर्मः जिससे सब प्रकार के अभ्युदय एवं मोक्ष की सिद्धि
हो, वह धर्म है । धर्म पुरुषार्थ अन्य सब पुरुषार्थों की प्राप्ति का ..मूल कारण है। धर्म से पुण्य एवं निर्जरा होती है... पुण्य
से अर्थ,और काम की प्राप्ति तथा निर्जरा से मोक्ष की प्राप्ति . होती है। इस लिए पुरुषाभिमानी सभी पुरुषों को सदा धर्म
की आराधना करनी चाहिये।