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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (२) अर्थ:-जिससे सब प्रकार के लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि हो
वह अर्थ है । अभ्युदय के चाहने वाले गृहस्थ को न्याय पूर्वक अर्थ का उपार्जन करना चाहिये । स्वामीद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वास घात, जूत्रा, चोरी आदि निन्दनीय उपायों का
आश्रय न लेते हुए अपने जाति, कुल की मर्यादा के अनुसार नीतिपूर्वक उपाजित अर्थ (धन) इहलोक और परलोक दोनों में हितकारी होता है । न्यायोपार्जित धन का सत्कार्य में व्यय हो सकता है। अन्यायोपार्जित धन इहलोक और
परलोक दोनों में दुःख का कारण होता है। (३) कामः-मनोज्ञ विपयों की प्राप्ति द्वारा इन्द्रियों का तृप्त
होना काम है। अमर्यादित और स्वच्छन्द कामाचार का
सर्वत्र निषेध है। (४) मोक्षः-राग द्वेष द्वाग उपार्जित कर्म-बंधन से आत्मा को
स्वतन्त्र करने के लिये मंवर और निर्जग में उद्यम करना मोक्ष पुरुषार्थ है।
इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष ही परम पुरुषार्थ माना गया है । इसी के आराधक पुरुष उत्तम पुरुप माने जाते हैं।
जो मोक्ष की परम उपादेयता स्वीकार करते हुए भी मोह की प्रबलता से उसके लिये उचित प्रयत्न नहीं कर सकते तथा धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में अविरुद्ध रीति से उद्यम करते हैं। वे मध्यम पुरुष हैं । जो मोक्ष और धर्म की उपेक्षा करके केवल अर्थ और काम