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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह से गौतम स्वामी को है किन्तु गौण रूप से चतुर्विध श्रीसंघ को है । इसलिए यहां गौतम स्वामी मुख्य हैं और चतुर्विध श्रीसंघ गौण है।
(तत्वार्थ सूत्र ५ वा अध्याय सूत्र ३१ ) ३६-निश्चयः-चस्तु के शुद्ध, मूल और वास्तविक स्वरूप को
निश्चय कहते हैं । अर्थात् वस्तु का निज स्वभाव जो सदा रहता है वह निश्चय है । जैसे निश्चय में कोयल का शरीर पाँचों वर्ण वाला है क्योंकि पांच वर्षों के पुद्गलों से बना
हुआ है । आत्मा सिद्ध स्वरूप है। व्यवहारः-चस्तु का लोकसम्मत स्वरूप व्यवहार है । जैसे कोयल
काली है । आत्मा मनुष्य, निर्यश्च रूप है । निश्चय में ज्ञान प्रधान रहता है । और व्यवहार में क्रियाओं की प्रधानता रहती है । निश्चय और व्यवहार परम्पर एक दूसरे के सहायक (पूरक) हैं।
. (विशेषावश्यक गाथा ३५८६)
(द्रव्यानुयोग तर्कणा अध्याय ८ वां) ४०-उन्मर्गः-मामान्य नियम को उन्मर्ग कहते हैं। जैसे माधु
को तीन करण और तीन योग से प्राणियों की हिंमा नहीं करनी चाहिए।
(बृहत कल्प वृत्ति सभाष्य ) अपवादः-मूल नियम की रक्षा के हेतु आपत्ति आने पर अन्य
मार्ग ग्रहण करना अपवाद है । जैसे साधु का नदी पार करना आदि।
(अभिधान राजेन्द्र कोष दुसरा भाग पृष्ठ ११६६-६७)