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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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कहलाता है । दर्शन के बाद व्यञ्जनावग्रह होता है । यह चक्षु और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से ही होता है । इसकी जवन्य स्थिति श्रावलिका के असंख्यातवें भाग की है और उत्कृष्ट दो से नौ श्वासोच्छ्वास तक है । ( नन्दी सूत्र ३७ )
( कर्म ग्रन्थ पहला भाग )
५६ - सामान्य के दो प्रकार से दो भेद:
(१) महा सामामन्य (२) अवान्तर सामान्य | (१) तिर्यक्सामान्य (२) ऊर्ध्वता सामान्य ।
महा सामान्य ( पर सामान्य) : - परम सत्ता जिसमें जीवाजीवादि सम्पूर्ण पदार्थों की एक सरूपता का बोध हो उसे महासामान्य कहते हैं । जैसे “सत्" कहने से सभी पदार्थों का बोध हो जाता है । इसका विषय सब से अधिक है । अतः इसे महासामान्य कहते हैं ।
:---महा
अवान्तर सामान्य (अपर सामान्य या सामान्य विशेष ) :सामान्य की अपेक्षा जिसका विषय कम हो किन्तु साथ ही जो सजातीय पदार्थों में एकता का बोध करावे । वह अवान्तर सामान्य है । जैसे जीवत्व सब जीवों में एकता का सूचक है । किन्तु द्रव्यत्व आदि की अपेक्षा विशेष है। तिर्यक्सामान्यः भिन्न २ व्यक्तियों में रहने वाला साधारण धर्म तिर्यक सामान्य है । जैसे काली, पीली, सफेद आदि गौत्रों में गोत्व । उर्ध्वतासामान्यः - एक ही वस्तु की पूर्वापर पर्यायों में रहने वाला साधारण धर्म उर्ध्वता सामान्य है । जैसे कड़ा, कंकण,