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श्री जैन सिद्धान्त बाल संग्रह पुद्गलों के द्वारा आत्मा को केवली प्ररूपित तच्चों में जो रुचि (श्रद्धा) होती है वह भावसम्यक्त्व है।
(प्रवचन सारोद्धार गाथा १४२) निश्रय सम्यक्त्वः-आत्मा का वह परिणाम जिसके होने से ज्ञान
विशुद्ध होता है उसे निश्चय सम्यक्त्व कहते हैं । अथवा अपनी आत्मा को ही देव, गुरु और धर्म समझना निश्चय
सम्यक्त्व है।
व्यवहार सम्यक्त्वःसुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर विश्वास करना
व्यवहार सम्यक्त्व है। प्रवचन सारोद्धार गाथा ६४३ की टीका में निश्चयसम्यक्त्व
और व्यवहार सम्यक्त्व की व्याख्या यों दी है। १-देश, काल और संहनन के अनुसार यथाशक्ति शास्त्रोक्त संयम पालन रूप मुनिभाव निश्चय सम्यक्त्व है। २–उपशमादि लिङ्ग से पहिचाना जाने वाला शुभ आत्मपरिणाम व्यवहार सम्यक्त्व है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के कारण भी व्यवहार सम्यक्त्व ही है।
(कर्मग्रन्थ पहला गाथा १५ वी) नैसर्गिक सम्यक्त्व:-पूर्व क्षयोपशम के कारण, विना गुरु उपदेश
के स्वभाव से ही जिनदृष्ट ( केवली भगवान् के देखे हुए ) भावों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नाम आदि निक्षेपों की अपेक्षा से जान लेना, श्रद्धा करना निसर्ग समकित है। जैसे मरुदेवी माता।