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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२४६ (१) सत्य भाषा:-विद्यमान जीवादि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप
कहना सत्य भाषा है । अथवा सन्त अर्थात् मुनियों के लिए
हितकारी निरवद्य भाषा सत्य भाषा कही जाती है। (२) असत्य भाषा:-जो पदार्थ जिस स्वरूप में नहीं हैं.। उन्हें
उस स्वरूप से कहना असत्य भाषा है । अथवा सन्तों के लिए अहितकारी सावध भाषा असत्य भाषा कही जाती
(३) सत्यामृषा भाषा (मिश्र भाषा):-जो भाषा सत्य है और
मृषा भी है । वह सत्यामृषा भाषा है। (४) असत्यामृषा भाषा (व्यवहार भाषा):-जो भाषा न सत्य
है और न असत्य है । ऐसी आमन्त्रणा, आज्ञापना आदि की व्यवहार भाषा असत्यामृषा भाषा कही जाती है । असत्यामृषा भाषा का दूसरा नाम व्यवहार भाषा है ।
(पन्नवणा भाषा पद ११) २७०- असत्य वचन के चार प्रकार:
जो वचन सन्त अर्थात् प्राणी, पदार्थ एवं मुनि के लिए हितकारी न हो वह असत्य वचन है।
अथवा:प्राणियों के लिए पीडाकारी एवं घातक, पदार्थों का अयथार्थ स्वरूप बताने वाला और मुमुक्षु मुनियों के मोक्ष
का घातक वचन असत्य वचन है। असत्य वचन के चार मेदः
(१) सद्भाव प्रतिषेध (२) असद्भावोद्भावन । (३) अर्थान्तर (४) गरे ।