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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला तथा मन से जो पदार्थों के सामान्य धर्म का प्रतिभास होता
है । उसे अचच दर्शन कहते हैं। अवधि दर्शन:-अवधि दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर
इन्द्रिय और मन की सहायता के विना आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का जो बोध होता है । उसे अवधि
दर्शन कहते हैं। केवल दर्शन:- केवल दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने पर आत्मा
द्वारा संसार के सकल पदार्थों का जो सामान्य ज्ञान होता है। उसे केवल दर्शन कहते हैं।
(ठाणांग ४ उद्देशा ४ सूत्र ३६५)
(कर्म ग्रन्थ ४ गाथा १२) २००--मति ज्ञान के चार भेदः
(१) अवग्रह (२) ईहा ।
(३) अवाय (४) धारणा । अवग्रहः--इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर
सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाले अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्व प्रथम ज्ञान को अवग्रह कहते हैं।
जसे दूर से किसी चीज का ज्ञान होना । ईहा:--अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय
को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं। जैसे अवग्रह से किसी दूरस्थ चीज का ज्ञान होने पर संशय होता है कि यह दूरस्थ चीज मनुष्य है या स्थाणु ? ईहा ज्ञानवान् व्यक्ति विशेष धर्म विषयक विचारणा द्वारा इस सशय को दूर करता है । और यह जान लेता है कि यह मनुष्य होना चाहिए । यह ज्ञान दोनों पक्षों में रहने वाले