________________ 362 श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला इसी प्रकार मूल कर्म, (गर्भ गिराना, गर्भ रखाने आदि की औषधि देना), चूर्ण योग आदि तथा शरीर विभूषादि से चारित्र को मलीन करने वाले साधु को भी चारित्र कुशील ही समझना चाहिये। (4) संसक्तः-मल गुण और उत्तर गण तथा इनके जितने दोप हैं वे सभी जिसमें मिले रहते हैं वह संसक्त कहलाता है। जैसे गाय के बांटे में अच्छी बुरी, उच्छिष्ट अनुच्छिष्ट, आदि सभी चीजें मिली रहती हैं / इसी प्रकार संसक्त में भी गुण और दोष मिले रहते हैं। संसक्त के दो भेद-संक्लिष्ट और अमंक्लिष्ट / संक्लिष्ट संसक्त:-प्राणातिपात आदि पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला ऋद्धि आदि तीन गारव में आसक्त, स्त्री प्रतिषेवी (स्त्री संक्लिष्ट) तथा गृहस्थ सम्बन्धी द्विपद, चतुष्पद, धन-धान्य आदि प्रयोजनों में प्रवृत्ति करने वाला संक्लिष्ट संसक्त कहा जाता है / / __ असंक्लिष्ट संसक्तः-जो पासस्थ, अबसन्न, कुशील आदि में मिल कर पासत्थ, अवसन्न, कुशील आदि हो जाता है तथा संविग्न अर्थात् उद्यत विहारी साधुत्रों में मिल कर उद्यत विहारी हो जाता है। कभी धर्म प्रिय लोगों में आकर धर्म से प्रेम करने लगता है और कभी धर्म द्वेषी लोगों के बीच रह कर धर्म से द्वेष करने लगता है / ऐसे साधु को असंक्लिष्ट संसक्त कहते हैं / इसका आचार वैसे ही बदलता रहता है / जैसे कथा के अनुसार नट के हाव भाव, वेष और भाषा आदि बदलते रहते हैं /