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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (४) शिथिल पुरुषों को उपदेशादि द्वारा धर्म में स्थिर करना। (५) अरिहन्त, साधु तथा गुणवान पुरुषों का आदर, सत्कार करना और उनकी विनय भक्ति करना ।
(धर्म संग्रह प्रथम अधिकार) २८५--समकित के पांच अतिचार:
(१) शङ्का (२) काँक्षा । (३) विचिकित्सा (४) पर पाषंडी प्रशंसा ।
(५) पर पापंडी संस्तव । (१) शङ्काः-चुद्धि के मन्द होने से अरिहन्त भगवान् से निरु.
पित धर्मास्तिकाय आदि गहन पदार्थों की सम्यक धारणा
न होने पर उनमें संदेह करना शङ्का है। (२) काँक्षा:-चौद्ध आदि दर्शनों की चाह करना काँक्षा है। (३) विचिकित्सा:-युक्ति तथा आगम संगत क्रिया विषय में
फल के प्रति संदेह करना विचिकित्सा है । जैसे नीरम तप आदि क्रिया का भविष्य में फल होगा या नहीं ?
शङ्का तत्त्व के विषय में होती है और विचिकित्सा क्रिया के फल के विषय में होती है। यही दोनों में
अन्तर है। (४) पर पाषंडी प्रशंसा:-सर्वज्ञ प्रणीत मत के सिवा अन्य मत
वालों की प्रशंसा करना, पर पाषंडी प्रशंसा है। (५) पर पापंडी संस्तवः-सर्वज्ञ प्रणीत मत के सिवा अन्य मत
वालों के साथ संवास, भोजन, आलाप, संलाप आदि रूप