________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 427 (4) लक्षण संवत्सरः-ये ही उपरोक्त नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित संवत्सर लक्षण प्रधान होने पर लक्षण संवत्सर कहलाते हैं / उनके लक्षण निम्न प्रकार हैं। नक्षत्र संवत्मरः-कुछ नक्षत्र स्वभाव से ही निश्चित तिथियों में हुआ करते हैं / जैसे:-कार्तिक पूर्णमासी में कृनिका और मार्गशीर्ष में मृगशिरा एवं पौषी पूर्णिमा में पुष्य आदि / जब ये नक्षत्र ठीक अपनी तिथियों में हों और ऋतु भी यथा समय प्रारम्भ हो / शीत और उष्ण की अधिकता न हो, एवं पानी अधिक हो / इन लक्षणों वाला संवत्सर नक्षत्र संवत्सर कहलाता है। चन्द्र मंवत्मरः--जिस मंवत्सर में पूर्णिमा की पूरी रात चन्द्र से प्रकाशमान रहे / नक्षत्र विषमचारी हों तथा जिसमें शीत उष्ण और पानी की अधिकता हो / इन लक्षणों वाले संवत्सर को चन्द्र संवत्सर कहते हैं। ऋतु संवत्सरः-जिस संवत्सर में असमय में वृक्ष अंकुरित हों, विना ऋतु के वृक्षों में पुष्प और फल पावें तथा वर्षा ठीक समय पर न हो / इन लक्षणों वाले संवत्सर को ऋतु संवत्सर कहते हैं। आदित्य संवत्सरः-जिस संवत्सर में सूर्य, पुष्प और फलों को पृथ्वी पानी के माधुर्य स्निग्धतादि रसों को देता है और इस लिये थोड़ी वर्षा होने पर भी खूब धान्य पैदा हो जाता है / इन लक्षणों वाला संवत्सर आदित्य संवत्सर कहलाता है।