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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला नोट:-इन तीनों, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुसकवेद का स्वरूप
समझाने के लिए क्रमशः करीषाग्नि (छाणे की आग) तृणाग्नि और नगरदाह के दृष्टान्त दिये जाते हैं। (अभिधान राजेन्द्र कोप भाग ६ पृष्ठ १४२७)
(वृहत्तकल्प उद्देशा ४)
(कर्मग्रन्थ पहला भाग) ६६-जीव के तीन भेदः
( १ ) मंयत ( २ ) अमंयत ( ३ ) मंयतामयत । संयतः-जो म मावद्य व्यापार से निवृत्त हो गया है । ऐसे ऋठे
से चौदहवे गुणस्थानवी, और सामायिक आदि मंयम वाले
माधु को मंयत कहते हैं। अमयत:-पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान वाले अत्रि
गति जीव को असंयत कहते हैं। भंयतामयनः--जो कुछ अंशों में तो विरति का सेवन करता है
और कुछ अंशों में नहीं करता ऐसे देशविरति को अर्थात् पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावक को संयतामयत कहते हैं।
(भगवती शतक ६ उद्देशा ३) ७०-वनस्पति के तीन भेदः(१) मंग्व्यात जीविक ( २ ) असंख्यात जीविक
(३) अनन्त जीविक। संख्यात जीविक:-जिस वनम्पति में संख्यात जीव हों उसे
संख्यात जीविक वनस्पति कहते हैं । जैसे नालि से लगा हुआ फूल।