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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (३) वह तत्काल उत्पन्न देवता “मैं मनुष्य लोक में जाऊँ,
अभी जाऊँ" ऐसा सोचते हुए विलम्ब कर देता है। क्योकि वह देव कार्यों के पराधीन हो जाता है। और मनुष्य सम्बन्धी कार्यों से स्वतन्त्र हो जाता है । इसी बीच उसके पूर्व भव के अल्प आयु वाले म्वजन, परिवार आदि के मनुष्य अपनी आयु पूरी
कर देते हैं (४) देवता को मनुष्य लोक की गन्ध प्रतिकूल और
अत्यन्त अमनोज्ञ मालूम होती हैं । वह गन्ध इस भूमि से, पहले दूसरे बारे में चार सौ योजन और शेष आरों में पांच सौ योजन तक ऊपर जाती है ।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२३) १३४-तत्काल उत्पन्न देवता मनुष्य लोक में आने की इच्छा करता हुआ चार बोलों से आने में समर्थ होता है।
नोट:-इसके पहले के तीन बोल तो बोल नम्बर ११० में दिये जा चुके हैं। (४) दो मित्रों या मम्बन्धियों ने मरने से पहले परस्पर
प्रतिज्ञा की कि हममें से जो देवलोक से पहले चवेगा। दूसरा उमकी महायता करेगा । इस प्रकार की प्रतिज्ञा में बद्ध होकर स्वर्ग से चवकर मनुष्य भव में उत्पन हुए अपने साथी की सहायता करने के लिए वह देवता मनुष्य लोक में आने में समर्थ होता है।
(ठाणांग ४ सूत्र ३२३)