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श्री जैन सेठिया प्रन्थमाला
तीसरा बोल
(बोल नम्बर ६३ से १२८ तक) ६३ त्तत्त्व की व्याख्या और भेदः परमार्थ को तत्व कहते हैं । तत्त्व तीन हैं:-(१) देव, (२) गुरु, (३) धर्म । देवः कर्म शत्रु का नाश करने वाले, अठारह दोष रहित, सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेशक अरिहन्त भगवान् देव हैं।
(योग शास्त्र प्रकरण २ श्लोक ४) गुरुः-निग्रन्थ (परिग्रह रहित) कनक, कामिनी के त्यागी,पंच महा
व्रत के धारक,पांच समिति, तीन गुप्ति युक्त,षटकाय के जीवों के रक्षक, मत्ताईस गुणों से भूषित और वीतराग की आज्ञानुसार विचरने वाले, धर्मोपदेशक साधु महान्मा गुरु हैं।
(योगशास्त्र प्रकरण २ श्लोक ८) धर्म:-सर्वज्ञ भाषित, दयामय, विनय मूलक, आत्मा और कर्म का
भेदज्ञान कराने वाला, मोक्ष तत्व का प्ररूपक शास्त्र धर्म
तत्त्व है। नोट:-निश्चय में आत्मा ही देव है। ज्ञान ही गुरु है। और उपयोग ही धर्म है। (धर्मसंग्रह अधिकार ३ श्लोक २१, २२, २३, की टीका)
(योग शास्त्र प्रकरण २ श्लोक ४ से ११ तक) ६४: सत्ता का स्वरूपः सत्ता अर्थात् वस्तु का स्वरूप उत्पाद,
व्यय और ध्रौव्य रूप है। आवश्यक मलय गिरि द्वितीय खंड में सत्ता के लक्षण में:
“उप्पएणइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" कहा है।