________________ 417 श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह कहलाता है / परन्तु यह सम्बन्ध तभी हो सकता है जब कि वे पुद्गल एकत्रित होकर समिहित हों / संघात नाम कर्म का यही कार्य है कि वह गृहीत और गृह्यमाण शरीर पुद्गलों को परस्पर सनिहित कर व्यवस्था से स्थापित कर देता है। इसके बाद बन्धन नाम कर्म से वे सम्बद्ध हो जाते हैं। जैसे दांतली से इधर उधर बिखरी हुई घास इकट्ठी की जाकर व्यवस्थित की जाती है / तभी बाद में वह गडे के रूप में बाँधी जाती है / जिस कर्म के उदय से गृह्यमाण नवीन शरीर-पुद्गल पूर्व गृहीत शरीर-पुद्गलों के समीप व्यवस्था पूर्वक स्थापित किये जाते हैं वह संघात नाम कर्म संघात नाम कर्म के पांच भेदः(१) औदारिक शरीर संघात नाम कर्म / (2) वैकिय शरीर संघात नाम कर्म / (3) आहारक शरीर संघात नाम कर्म। (4) तैजस शरीर संघात नाम कर्म / (5) कार्माण शरीर संघात नाम कर्म / __ औदारिक शरीर संघात नाम कर्म:-जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप से परिणत गृहीत एवं गृह्यमाण पुद्गलों का परस्पर सानिध्य हो अर्थात् एकत्रित होकर वे एक दूसरे के पास व्यवस्था पूर्वक जम जॉय, वह औदारिक शरीर संघात नाम कर्म है। इसी प्रकार शेष चार संघात का स्वरूप भी समझना चाहिये। . (कर्मग्रन्थ प्रथम भाग) (प्रवचन सारोद्धार गाथा 1251 से 75 तक)