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तपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : संस्कृत ग्रन्थांक - ३१
वादी सिंह सूरि कृत
गद्यचिन्तामणि
हिन्दी प्रस्तावना, अनुवाद, संस्कृत टोका तथा परिशिष्ट आदि सहित
सम्पादक
पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य
वीर नि० संवत् २४९५ विक्रम संवत् २०२४ सन् १९६८
परामर
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
प्रथम संस्करण मूल्य १२.००
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प्रस्तावना
सम्पादन सामग्री गद्यचिन्तामणिका सम्पादन नीचे लिखी प्रतियों के आधारपर हुआ है
१. 'क' यह प्रति श्रीमान् पं० के० भुजबलो शास्त्री मूडबिद्रीके सत्प्रयलसे श्रवणवेलगोलाके सरस्वतीभवनसे प्राप्त हुई थी। यह कन्नड लिपिमें ताड़पत्रोंपर लिखी हुई है। इसमें १४४ १४ इंचके ९७ पत्र है । प्रतिपत्रमें ८ पंक्तियों और प्रति पंक्तिमें ६६ के लगभग अक्षर हैं । दशा अच्छी है. अभर सुवाच्य है, बीच-बीच में टिप्पण भी दिये हुए है । अन्तके २ श्लोक इस प्रतिमें नहीं है। अन्तिम लेख इस प्रकार है
'परिधाविसम्बत्सरे माघमासे प्रथमपक्षे प्रतिपत्तिथी रविवासरे बहुगुलापुरे लिखितम् ।'
२. 'ख'-यह प्रति मो श्री पं० के० भुजबलो शास्त्री मूडबिद्री के सत्प्रयत्नसे प्राच्यविद्यामन्दिर मैसूरसे प्राप्त हुई थी। यह कन्नड़ लिपिमें कागजपर लिखी हुई है। इसमें १२४७१ इंचके १३१ पृष्ठ है। प्रति पृष्ठपर ३३ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्तिमें २७ के लगभग अक्षर है। रजिस्टर के रूपमें पक्की जिल्द है १८९९ दिसम्बरको नरसिंह शास्त्रीके द्वारा लिखी गयो है ।
३. 'ग'-यह प्रति श्री पं० के० भुजबलो शास्त्रो मूडबिद्रीके सत्प्रयत्नसे प्राच्यविद्यामन्दिर मैसूरसे प्राप्त हुई थी । यह कागजपर आन्ध्र लिपिमें लिखी हुई है। इसमें १२ ४७३ इंचके १३० पृष्ठ हैं। प्रत्येक पृष्ठमें २० पंक्तियां और प्रत्येक पंक्तिम २०-२१ अक्षर हैं । अन्तिम लेख इस प्रकार है___'जय सम्बत्सर आश्विन बहुल १४ तिरुवल्लर वीर राधाचार्येण लिखितम् ।'
दशा अच्छी है, रजिष्टरनुमा पक्की जिल्द है।
४. 'घ'—यह प्रति भी उक्त शास्त्रीजीके सौजन्यसे वणवेलगोलाके सरस्वतीभवनसे प्राप्त हुई थी । यह कन्नड लिपिमें ताड़पत्रोंपर लिखी हुई है। इसमें १२४१३ इंचके २१४ पत्र है। दशा अत्यन्त जीर्ण है, अधिकांश स्याही निकल जानेसे लिपि अवाच्य हो गयी है अतः इसका पूरा उपयोग नहीं हो सका है । लेखन-कालका पता नहीं चला । अन्तमें इस प्रकार लेख है... 'बासुपूज्यायनमः, कनकभद्राय नमः ।'
५. 'म'—यह प्रति टी० एम० कुप्पूस्वामो-द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित मुद्रित मूल प्रति है। इसका सम्पादन कुप्पूस्वामोने ७ प्राचीन प्रतियोंके आधारपर किया था अतः शुद्ध है। इसके दो संस्करण छप चुके हैं, पहले संस्करणको अपेक्षा दूसरे संस्करणमें प्रेसको असावधानीसे कुछ पाठ छूट गये हैं। यथा ३२ पृष्ठमें भुवन शब्दके बाद 'विवरव्यापिना--' आदि ७-८ पंक्तियाँ छूट गयी है।
दुःखकी बात है कि हमें गद्यचिन्तामणिकी नागरी लिपिमें लिखी हुई एक भी प्रति नहीं मिल सकी। आन्ध्र और कन्नड लिपिकी उक्त चार प्रतियोंसे पाठभेदोंका संकलन श्री पं० देवरभट्टजी, वाराणसीने किया है । श्रीमान् पं० अमृतलालजी जैन दर्शनाचार्य, वाराणसीने भी इसमें पूर्ण सहयोग दिया है अतः मैं इनका अत्यन्त आभारी हूँ। मैं स्वयं आन्ध्र और कन्नड लिपिका ज्ञाता नहीं अतः उक्त प्रतियोंसे स्वयमेव लाभ लेने में असमर्थ था।
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गद्यचिन्तामणिः
जीवन्धरचरितकी लोकप्रियता जीवन्धरस्वामीका चरित लोकोत्तर घटनाओंसे भरा हुआ है अतः उसके अंकनमें विविध लेखकोंने अपना गौरव समझा है। अबतक जीवन्धर चरित के प्रयापक निम्नांकित ग्रन्थ उपलब्ध हुए है
१. गद्यचिन्तामणि-वादीसिंह सूरि-द्वारा विरचित गद्य काव्य ।। २. क्षत्रचूड़ामणि - , अनुष्टुप् छन्दोमय काव्य । ३. जीवंधरचरित-गुणभद्राचार्य रचित उत्तरपुराणको ७५बें पर्वका एक अंश । ४. जीवकचिन्तामणि-तिरुतक्क देवर-द्वारा रचित तमिलभाषाका एक प्रसिद्ध काव्य । ५. जीवंधर चरिउ~-पुष्पदन्त कवि-द्वारा रचित अपभ्रंश महापुराणको ९९वीं सन्धि । ६. जीवंधर चम्पू--महाकवि हरिचन्द्र-द्वारा रचित गद्य-पद्यमय संस्कृत चम्पू ग्रन्थ । ७. जीवंधरचरित-अपभ्रंश भाषामय रइधू कवि-द्वारा रचित १३ संधियोंका एक ग्रन्थ । ८. जीवंधरचरिते-वासबके पुत्र भास्करके द्वारा लिखित कन्नड भाषाका १८ अध्यायात्मक
१००० श्लोकोंका एक ग्रन्थ । ९. जीवंधरसांगत्य-तेरक नम्बि बोम्मरसके द्वारा लिखित २० अध्यायात्मक १४४९ श्लोकोंका
एक कन्नड भाषाका प्रन्थ । १०. जीवंधर षट्पदी-कोटीश्वरके द्वारा लिखित १० अध्यायात्मक ११८ श्लोकोंका एक
कन्नड ग्रन्थ । ११. जीवंधरचरित-शुभचन्द्र के पाण्डव पुराणान्तर्गत एक अंश (संस्कृत)। १२. जीवंधरचरिते-ब्रह्मकविका कन्नड भाषात्मक ग्रन्थ । १३. जीवंधरचरित-कवि नथमल द्वारा रचित हिन्दी छन्दोबद्ध रचना ।
गद्यचिन्तामणिको कथाका प्राधार गचिन्तामणि, क्षत्रचूड़ामणि, जोवकचिन्तामणि और जीवन्धरचम्पूको कथा एक सदृश है। स्थानों तथा पात्रों के नाम एक सदृश हैं। घटनाचक्र-वृत्तवर्णन भी तीनोंका समान है । परन्तु उत्तरपुराणका वर्णन जहां कहीं समानता रखता है तो अनेक स्थानोंपर असमानता भो। उसमें स्थान तथा पात्रोंके नाम भी जहाँ कहीं दूसरे दूसरे हैं। बीच-बीवमें कुछ ऐसी घटनाएं भी उपलब्ध हैं जिनका उक्त तीनों ग्रन्थोंमें उल्लेख नहीं है । गद्यचिन्तामणिकारने यद्यपि प्रारम्भिक वक्तव्यमें
निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् ।
जीवंघरप्रभवपुण्यपुराणयोगाद्वाक्यं ममाप्यभयलोकहितप्रदायि ॥ इस श्लोक-द्वारा जीवन्धरसे सम्बद्ध पुराणका उल्लेख किया है और विद्वान् लोग उनके इस पुराणसे गुणभद्रके उत्तरपुराणान्तर्गत जीवकचरितको समझते हैं पर कथामें भेद होनेसे ऐसा लगता है कि वादोभसिंहने अपने ग्रन्थोंका आधार उत्तरपुराणको न बनाकर किसी दूसरे हो पुराणको बनाया है। पुराणका काव्योकरण तो हो सकता है और अनावश्यक कथाभाग छोड़ा भी जा सकता है। परन्तु स्थान और पात्रोंके नाम आदिमें परिवर्तन सम्भव नहीं दिखता। हाँ, जीवन्धरचम्पूकार महाकवि हरिचन्द्रनें अपने ग्रन्थका आधार जहां गद्यचिन्तामणिको बनाया है वहाँ उत्तरपुराणके वृत्तवर्णनका भी कुछ उपयोग किया है। क्षत्रचूड़ामणिकी भूमिकामें दोनों ग्रन्थोंके उद्धरण देकर श्री टी० एस० कुप्पूस्वामीने यह सिद्ध किया है कि तमिल भाषाके जोवकचिन्तामणिके कर्ता तिस्तक्कदेवने कथाभाग वादीभसिंहतो ग्रन्थों-गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणिसे
देखो, 'जीवन्धरचम्यू' की डॉ० उपाध्ये व हीरालाल लिखित अंगरेजी प्रस्तावना ( ज्ञानपीठ प्रकाशन)।
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प्रस्तावना
खकोंने
लिया है । गचिन्तामणिके 'जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगात्' इस सामान्यपदसे उत्तरपुराणको स्पष्टता होतो भी तो नहीं है। इलोकका सोधा अर्थ यह है कि जिस प्रकार फूलोंको संगतिसे कारण लोग बन्धनमें उपमत होनेवाले निःसार तन्तुओंको मस्तकपर धारण करते है उसी प्रकार चूंकि मेरे वचन भी जीवन्धर स्वाभीसे उत्पन्न पवित्र पुराणके साथ सम्बन्ध रखते हैं-उसका वर्णन करते हैं। अतः दोनों लोकोंमें हितप्रदान करनेवाले होंगे।
इस परिप्रेक्ष्यमें गद्यचिन्तामणिके आधारस्तम्भको खोज अपेक्षित है।
जोवन्धरस्वामीके चरितका तुलनात्मक अध्ययन इस स्तम्भमें गद्यचिन्तामणि, उत्तरपुराण, तथा जीवन्धरचम्पू आदिके आधारपर जीवन्धरस्वामी के चरितका तुलनात्मक अध्ययन प्रकट किया जाता है।
एक बार मगध सम्राट राजा श्रेणिक भगवान् महावीरके समवसरण सम्बन्धी आम्रादि चारों वनोंमें धूम रहे थे। वहींपर अशोक वृक्षके नीचे जीवन्धर मुनिराज ध्यानारूढ थे। महाराज श्रेणिक उनके अनुपम सौन्दर्य तथा अतिशय प्रशान्त ध्यानमुद्रासे आकृष्ट चित्त हो उनका परिचय प्राप्त करनेके लिए उत्सुक हो उठे । फलतः उन्होंने समवसरणके भीतर जाकर सुधर्माचार्य गणधर देवसे पूछा-'ये मुनिराज कौन हैं ? जान पड़ता है अभी हाल कर्मोका क्षय कर मुक्त हो जाने वाले हैं।' इसके उत्तरमें चार ज्ञानके धारक सुधर्माचार्य कहने लगे--
हे श्रेणिक ! इसी जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें हेमांगद नामका देश है और उसमें सुशोभित है राजपुर नगर । इस नगरका राजा सत्यन्धर था और उसको दूसरी विजयलक्ष्मीके समान विजया नामको रानो थी। राजा सत्यन्धरका काष्ठांगारिक नामका मन्त्री था और देवजन्य उपद्रवोंको नष्ट करनेवाला रुद्रदत्त नामका पुरोहित था । एक दिन विजया रानीने दो स्वप्न देखे । पहला स्वप्न था कि राजा सत्यन्धरने मेरे लिए आठ घण्टाओंसे सुशोभित अपना मुकुट दिया है और दूसरा स्वप्न या कि वह जिस अशोक वृक्षके नीचे बैठी धी उसे किसीने कुल्हाड़ीसे काट दिया है और उसके स्थानपर एक छोटा-सा अशोकका वृक्ष उत्पन्न हो गया है। प्रातःकाल होते ही रानीने राजासे स्वप्नोंका फल पूछा। राजाने कहा कि मेरे मरने के बाद तू शीघ्र ही ऐसा पुत्र प्राप्त करेगी जो आठ लाभोंको पाकर पृथिवीका भोका होगा। स्वप्नोंका प्रिय और अप्रिय फल सुनकर रानीका चित्त शोक और हर्षसे भर गया । उसको व्यग्रता देख राजाने उसे अच्छे शब्दोंसे सन्तुष्ट कर दिया जिससे दोनोंका काल सुखसे व्यतीत होने लगा।
उसी राजपुर नगरमें एक गन्धोत्कट नामक धनी सेठ रहता था, उसने एक बार तोन ज्ञानके धारक शीलगुप्त मुनिराजसे पूछा कि भगवन् ! हमारे बहुत-से अल्पायु पुत्र हुए है क्या कभी दीर्घायु पुत्र भी होगा ? मुनिराजने कहा कि हाँ, तू दोर्घायु पुत्र प्राम करेगा। किस तरह ? यह भी सुन । तेरे एक मृत पुत्र उत्पन्न होगा उसे छोड़नेके लिए जब तू वनमें जायेगा तब वहीं किसी पुण्यात्मा पुत्रको पावेगा। वह पुत्र समस्त पृथिवीका उपभोक्ता हो अन्त में मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त करेगा। जिस समय मुनिराज, गन्धोत्कटसे यह वचन कह रहे थे उसी समय वहाँ एक यक्षी बैठी थी। मुनिराजके बचन सुन यक्षोके मनमें होनहार की माताका उपकार करनेको इच्छा हुई। निदान, जब राजयुगको उत्पत्तिका समय आया तब वह यक्षी उसके पुण्यसे प्रेरित हो राजकुलमें गयी और एक गरुडयन्त्रका रूप बनाकर पहुंची।
.. पद्यचिन्तामणि आदिमें इस पुरोहितका कोई उल्लेख नहीं है। २. गचिन्तामणि आदिमें तीन स्वप्नोंकी चर्चा है- पहले स्वप्नमें एक विशाम अशोक वृक्ष देखा, दूसरे स्वप्नमें उस वृक्षको नष्ट हुआ देखा और तीसरे स्वप्न में उस नष्ट वृश्नम-से उत्पन्न हुए एक छोटे अशोक वृक्षको देखा जिसकी आठ शाखाओंपर आठ मालाएँ लटक रही थीं। ३, गद्यचिन्तामणिमें चर्चा है कि राजाने रानीका दोहला पूर्ण करने के लिए कारीगरसे मयूरयन्त्र बनवाया था और उसमें बैठाकर उसे आकाशमें घुमाया था ।
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गद्यचिन्तामणिः
वसन्त ऋतुका समय था । एक दिन द्रदत्त पुरोहित प्रातःकाल के समय राजाके घर गया । उस समय रानी आभूषण रहित बैठी थी। पुरोहितने पूछा कि राजा कहाँ है ? रानीने उत्तर दिया कि अभी सोये हुए हैं इस समय उनके दर्शन नहीं हो सकते। रानीके इन वचनोंको अपशकुन समझ वह लौट आया और कांगारिक मन्त्रीके घर गया । पापबुद्धि पुरोहितने मन्त्री से एकान्तमें कहा कि तू राजाको मार डाल | मन्त्री पुरोहितकी बात मानने में असमंजसता दिखायी तो पुरोहितने दृढ़ता के साथ कहा कि राजाके जो पुत्र होनेवाला है वह तेरा प्राणघातक होगा इसलिए इसका प्रतिकार कर रुद्रदत्त इतना कहकर घर चला गया और रोगसे पीड़ित हो तीसरे दिन मरकर चिरकाल तक दुःख देनेवाली नरक गतिमं जा पहुंचा ।
इधर काष्ठांगारिकने दत्त के कहने से अपनी मृत्युको आशंका कर राजाको भारनेकी इच्छा को । उसने घन देकर दो हजार शूरवीर राजाओं को अपने अधीन कर लिया। वह उन्हें साथ लेकर युद्ध के लिए राजमन्दिरकी ओर चला । जब राजाको इस बातका पता चला तो उसने रानीको गरुडयन्त्रपर बैठाकर वहाँसे शीघ्र ही दूर कर दिया। काष्ठांगारिक मन्त्रीने पहले जिन राजाओं को अपने वश कर लिया था उन राजाओं ने जब सत्यन्धरको देखा तो वे मन्त्रीको छोड़ राजाकी ओर हो गये । राजा सत्यन्धरने उन सबको साथ ले काष्ठांगारिक मन्त्रीपर आक्रमण किया और उसे खदेड़कर भयभीत कर दिया। काष्टांगारिकके पुत्र कालांगारिकने जब पिताको हारका समाचार सुना तब वह बहुत-सो सेना लेकर अकस्मात् वहाँ जा एन् । यसको पाता से काष्टांगारिकने राजा सत्यन्त्ररको मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा ।
२
विजया रानी गरुडयन्त्रपर बैठकर श्मशान में पहुँची। वह शोकसे बहुत विह्वल यो परन्तु पूर्वोक्त यक्षी उसकी रक्षा कर रही थी। उसी श्मशान में रात्रिके समय विजया रानीने पुत्रको जन्म दिया । पुत्रजन्मका रानीको थोड़ा भी आनन्द उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु भाग्यकी प्रतिकूलतापर शोक ही उत्पन्न हुआ ।
3.
"यक्षीने सारगर्भित शब्दों में उसे सान्त्वना दी ।
गन्धोत्कट सेठ भी अपने मृत पुत्रको छोड़नेके लिए उसी श्मशान में पहुँचा और शीलगुप्त मुनिराज के वचन स्मरण कर दीर्घायु पुत्रकी खोज करने लगा। रोनेका शब्द सुन विजया रानीके पुत्रकी ओर उसकी दृष्टि गयो । सेठने 'जीव जीव' कहकर उस पुत्रको दोनों हाथोंसे उठा लिया। विजया रानोने आवाजसे सेटको पहचान लिया और उसे अपना परिचय देकर कहा कि भद्र ! तू मेरे इस पुत्रका इस तरह पालन करना कि जिससे किसीको पता नहीं चल सके । 'मैं ऐसा ही करूंगा' यह कहकर सेठ उस पुत्रको घर ले आया । और अपनी पत्नी सुनन्दाको डाँट दिखलाने लगा कि तूने जीवित पुत्रको मृत कैसे कह दिया ।" सुनन्दा उस पुत्रको पाकर बड़ी प्रसन्न हुई । सेठने जन्म संस्कार कर उसका 'जीवक' अथवा 'जीवन्धर' नाम रखा । सेटके घर जीवन्धरका अच्छी तरह लालन-पालन होने लगा ।
१. गद्यचिन्तामणि आदिमें इसकी कोई चर्चा नहीं है । २. यहाँ उत्तरपुराणमें श्मशानका वर्णन करते हुए गुणभद्र स्वामीने जळती चिताओं में से अधजले मुरदे खींचकर उन्हें खण्ड-खण्ड कर खाती हुई डाकिनियोंका वर्णन किया है और इसका अनुकरण कर जीवन्धरचम्पूकारने मी अच्छी गद्य लिखी है पर गद्यचिन्तामणिकारने मात्र श्मशानका उल्लेख कर छोड़ दिया है। उसमें डाकिनी शाकिनी आदिका कोई उल्लेख नहीं किया है। डाकिनी आदि व्यन्तर देवोंका मांस भक्षण शास्त्रसम्मत भी तो नहीं है। जिन्होंने वर्णन किया है वह सिर्फ कवि-सम्प्रदाय श ही किया है । ३. गद्यचिन्तामणिकारने यक्षीको विजयारानीकी चम्पकमाला दाखीके वेषमें प्रस्तुत किया है पर उत्तरपुराण में इसकी चर्चा नहीं है । ४. गद्यचिन्तामणिकारने गन्धोत्कटके पहुँचनेपर सनीको वृक्षकी ओट में अन्तर्हित कर दिया है और ज्योंही Talese arrest उठाया त्योंही आकाशमें 'जीव' इस शब्दका उच्चारण कराया है । ५. पराया पुत्र समझ सुनन्दा इसका ठीक-ठीक लालन-पालन नहीं करेगी, इस आशंका से दूरदर्शी सेटने सुनन्दाके सामने यह भेद प्रकट नहीं किया कि यह किसी दूसरेका पुत्र है ।
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प्रस्तावना
विजया रानी उसी गरुडयन्त्रमें बैठकर दण्डकवनमें स्थित तापसियोंके आश्रम में चली गयी' और वो अपना परिचय न देकर तापसीके वेधमें रहने लगी। यक्षो बीच-बीच में जाकर उसका शोक दूर करती रहती थी।
'राजा सत्यन्धरको भामारति और अनंगपताका नामकी दो छोटो स्त्रियाँ और थीं। उन दोनोंने मघर और बकुल नामके दो पुत्र प्राप्त किये । इन दोनों ही रानियोंने धर्मका स्वरूप सुन श्रावको व्रत धारण कर लिये थे इसलिए ये दोनों ही भाई गन्धोत्कट के यहां ही पालन-पोपणको प्राप्त हो रहे थे। उसी नगरमें विजयमति, सागर, धनपाल और मतिसागर नामको चार थावक और थे जो कि अनुक्रमसे राजाके मेनापति, परोहित, श्रेष्ठी और मन्त्री थे। इन चारोंको स्थियोंके माम अनुक्रमसे जयायती, श्रीमती, श्रीदत्ता और अनुपमा थे। इनसे क्रमसे देवसेन, बुद्धिपेण, वरदत्त और मधुमुख नामके पुत्र उत्पन्न हुए थे। मधुमुख आदिको लेकर वे छहों पुत्र जीवन्धर कुमारके साथ ही वृद्धिको प्राप्त हुए थे । इधर, गन्धोत्कटको स्त्री सुनन्दाने भी नन्दाढ्य नामका पुत्र उत्पन्न किया ।
एक दिन जीवन्धरकुमार नगरके बाहर अपने साथियोंके साथ गोलो बेटा आदि खेल रहे थे कि एतने में एक तपस्वीने आकर पूछा कि यहाँसे गाँव कितनी दूर है ? तपस्वीका प्रश्न सुन जोबन्धरकुमारने उत्तर दिया कि आप वृद्ध होकर भी आसानी है ? लडकी कोमात योन ही ६० लेगा कि नगर पास हो है। जीवन्धरको उत्तर देनेको प्रणालीसे तपस्वी बहुत प्रसन्न हुआ और समझ गया कि यह कोई राजवंशका उत्तम बालक है। फिर भी परीक्षार्थ उसने कहा कि तुम मुझे भोजन दो। जीवन्धरकुमारने उसे 'भोजन देना स्वीकृत कर लिया और साथ लेकर घर आनेपर अपने पिता गन्धोत्कटसे कहा कि मैंने उसे भोजन देना स्वीकार किया है फिर आपको जो आज्ञा हो । पुत्रको विनम्रतासे गन्धोत्कट बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि त भोजन कर, यह तपस्वी मेरे साथ भोजन कर लेगा। जीवन्धर भोजनके लिए भोजनशालामें बैठे। भोजन गरम था इसलिए रोने लगे। उन्हें रोते देख तपस्वीने कहा कि त अच्छा बालक होकर भी क्यों रोता है ? इसके उत्तरमें जीवन्धरकुमारने रोनेके अनेक गुण बता दिये । जिसे सुन हास्य गूंज उठा और प्रसन्नताका वातावरण छा गया।
जब गन्धोत्कट भोजन कर चुका तब शान्तिसे बैठे हुए तपस्वोने कहा कि यह बालक बहुत होनहार है। इसे पढाना चाहता हैं। गधोखाटने कहा कि मैं धावक है इसलिए अन्य लिगियोंको नमस्कार नहीं करता। नमस्कारके अभावमें आपको बुरा लगेगा इसलिए आपसे पढ़ाईका काम नहीं हो सकेगा। इसके उत्तर तपस्थीने अपना परिचय दिया कि मैं सिंहपुरका राजा था, आर्यवर्मा मेरा नाम था, वरीनन्दी मुनिसे
1. गद्यचिन्तामणिमें चर्चा है कि चम्पकमाला दासीका वेष रखनेवाली यक्षीने रानी के सामने माईके घर चले जानेका प्रस्ताव रम्या पर सनीने विपत्तिके समय स्वयं किसीक यहाँ जामा स्वीकृत नहीं किया । तब वह उसे दण्डकवनमें भेज अायो। २. यह चर्चा गद्यचिन्तामणि आदिमें नहीं है सिफ बुद्धिपणका उल्लेख सुरमंजरीके प्रकरणमें अवश्य आया है। ३. गन्धोत्कट सेठ बढ़ा बुद्धिमान् और दादी या । उसने सोचा कि यदि काष्टांगारिकमे अलग रहते हैं तो यह राजपुत्र जीवन्धरको कभी
मी कुदृष्टिम ताइ सकता है इसलिए ऊपरमे वह उससं मिल गया और मिलकर उससे खूब धन प्राप्त किया। उसने सोचा कि राजपुत्रको रक्षाक लिए यदि अलगसे सेना रखी जायेगी तो भेद जल्दी प्रकट हो जायेगा इसलिए उसने काांगारिककी आज्ञासे उस दिन नगरमें उत्पन्न हए सब बालकों को अपने घर त्रुला किया और सबका पालन अपने ही घर कराने लगा। उसका ख्याल था कि बड़े होनेपर ये जीवन्धरक, अमिन्न मित्र होंगे और वही एक छोटी-मोटी सेनाका काम देगी।""गचिन्तामणिमें इसका भरा सकत है। ४. इस घटनाका गचिन्तामणिकारने कोई उल्लेख नहीं किया है। हाँ, जीवन्धरचम्पकारने किया है और सुन्दरता के साथ किया है। ५. इस विनोद घटनाका भी गद्यचिन्तामणिमें कोई वर्णन नहीं है किन्तु जीवघर चम्पमें बड़ी सरसताके साथ यह वर्णन किया गया है।
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गद्यचिन्तामणिः
मैंने धर्मका स्वरूप सुन सम्यग्दर्शन धारण कर लिया और अपने धृतिषेण पुत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । परन्तु मस्भक व्याघिसे पीड़ित होनेके कारण मैंने यह तपस्वीका वेष धारण कर लिया है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, तुम्हारा धर्म-बन्धु हूँ । इस प्रकार तपस्वीके वचन सुन तथा उसकी परीक्षा कर गन्धोत्कट सेठने उसके लिए मित्रों सहित जीवन्धर कुमारको सौंप दिया। तपस्वीने थोड़े ही समय में जीवन्धरकुमारको समस्त विद्याओंका पारगामी बना दिया और स्वयं फिरसे संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त किया।
तदनन्तर कालकूट नामक भीलोंके राजाने अपनी सेना के साथ नगरपर आक्रमण कर गायों का समूह चुर से आनेका उमारिने घोषणा करायी कि मैं गायोंको छुड़ानेवालेके लिए गोपेन्द्रकी स्त्री गोपीसे उत्पन्न गोदावरी नामकी कन्या दूंगा । इस घोषणाको सुनकर जीवन्धरकुमार काष्टांगारिकके पुत्र कालांगारिक तथा अन्य साथियोंके साथ कालकूट भीलके पास पहुंचे और उसे परास्त कर गायें वापस ले आये। इस घटनासे कुमारकी बहुत कीर्ति फैली कुमारने अपने सब साथियोंसे कहा कि तुम लोग एक स्वर से अर्थात् बिना किसी मतभेदके राजा काष्ठांगारिकसे कहो कि भीलको नन्दाव्यते जोता है । इस प्रकार राजाके पास सन्देश भेजकर उन्होंने पूर्व घोषित गोदावरी कन्या विवाहपूर्वक नन्दाढ्यको दिलवायी।
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भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक गगनवल्लभ नगर है उसमें विद्याधरोंका राजा गरुडवेग राज्य करता था । दैवयोग से उसके भागीदारोंने उसका अभिमान नष्ट कर दिया इसलिए वह भागकर रत्नद्वीप में चला गया और वहाँ मनुजोदय पर्वतपर एक सुन्दर नगर बसाकर रहने लगा । उसकी रानीका नाम धारिणो था और उन दोनोंके गन्धर्यदत्ता नामकी पुत्री थी। जब वह विवाह के योग्य अवस्थामें पहुँची तब राजाने मन्त्रियोंसे वरके लिए पूछा। इसके उत्तरमें मन्त्रीने भविष्यके ज्ञाता मुनिराज से जो सुन रखा था वह कहा---
"हे राजन् ! मैंने एक बार सुमेरु पर्वत के नन्दन वनमें स्थित विपुलमति नामक चारणऋद्धिके धारक मुनिराज से आपकी कन्या के वरके विषय में पूछा था तो उन्होंने कहा था कि भरतक्षेत्र के हेमांगद देशमें एक राजपुरी नामकी नगरी है। उसके राजा सत्यन्थर और रानी विजयाके एक जीवन्धर नामका पुत्र हुआ है वह वीणा के स्वयंवरमें गन्धर्वदत्तको जीतेगा। वही उसका पति होगा । राजाने उसी महिसागर मन्त्रीसे पुनः पूछा कि भूमि गोचरियोंके साथ हम लोगोंका सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? उसके उत्तरमें उसने मुनिराज से सेठ जो अन्य बातें सुन रखी थी वे स्पष्ट कह सुनायों— उसने कहा कि राजपुरी नगरी में एक वृषभदत्त रहता था, उसको स्त्रीका नाम पद्मावती था और उन दोनोंके एक जिनदत्त नामका पुत्र था। किसी एक
१. गद्यचिन्तामणि आदि में गुरुने विद्याध्ययन समाप्तिके बाद अपना परिचय दिया है और कहा कि मैं विद्याधरोंके निवासस्थळमें लोकपाल नामका राजा था आदि । ... २. गद्यचिन्तामणि आदि में वर्णन है कि तपस्वीने विधाएँ पूर्ण होनेके बाद जीवन्चरको रत्नत्रयका उपदेश दिया और साथमें यह भी बता दिया कि तुम राजा सत्यन्धरके पुत्र हो । काष्ठांगारने तुम्हारे पिताको मार डाला था। यह सुन जीवन्धरकी कगार पर बहुत क्रोध उठा और उसे मारने को तत्पर हो गये परन्तु तपस्वीने समझाकर उसे एक वर्ष तक ऐसा न करने के लिए शान्त कर दिया । ३. गद्यश्विन्तामणि आदिमें उल्लेख है कि काष्ठांगारकी सेनाके हार जानेपर नन्दगोपने घोषणा करायी थी और विजय के बाद जब वह अपनी कन्या जीवम्धरको देने लगा तो उन्होंने न लेकर अपने मित्र पद्मास्यको दिलायी । ४. गद्यचिन्तामणि आदिमें गरुडवेगका नगर निव्यालीक बतलाया है तथा उसके भाग कर रसद्वीपमें बसने का कोई उल्लेख नहीं है । वरके विषय में मुनिराजकी भविष्यवाणी न देकर ज्योतिषियोंकी बात लिखी थी। जिनदत्त सेठ के बदले श्रीदठका उल्लेख है। काष्ठांसारिक के पुत्र काळांगारिककी कोई चर्चा नहीं है। किन्तु स्वयं काष्टांगारने भागत राजकुमारोंको उत्तेजित किया है । श्रीदश समुद्रयात्राके किए गया था, कौटते समय घर विद्याधरकी मायासे उसे लगा कि हमारा जहाज डूब गया है। वह उसके साथ विजयार्ध पर्वत पर स्थित निस्याकोक नगर में पहुँचता है।
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प्रस्तावना
समय राजपरीके उद्यान में सागरसेन जिनराज पधारे थे उनके केवलज्ञानके उत्सवमें वह अपने पिताके साथ आया था । आप भी वहां पधारे थे इसलिए उसे देख आपका उसके साथ प्रेम हो गया था। वही जिनदत्त धन कमाने के लिए रत्नद्वीप आवेगा उसीसे हमारे इष्ट कार्यको सिद्धि होगी।
इस तरह कितने ही दिन बीत जानेपर जिनदत्त रत्नद्वीप आया। राजा गरुड़वेगने उसका खूब सत्कार किया और उसे सब बात समझाकर गन्धर्वदत्ता सौंप दी। जिनदत्तने भी राजपुरी नगरोमें वापस आकर उसके मनोहर नामक उद्यान में वीणा स्वयंवरकी घोषणा करायी। स्वयंवर में जीवन्धरकुमारने गन्धर्वदत्ताकी मृघोपा नामक वीणा लेकर उसे इस तरह बजाया कि वह अपने आपको पराजित समझने लगी तथा उसी क्षण उसने जीवन्धरके गले में वरमाला डाल दी। इस घटनासे काष्टांगारिकका पुत्र कालांगारिक बहुत क्षुभित हा। वह गन्धर्वदत्ताको हरण करनेका उद्यम करने लगा, परन्तु बलवान् जीवन्धरकुमारने उसे शीन ही परास्त कर दिया। गन्धर्वदत्ताके पिता गरुडवेगने अनेक विद्याधरोंके साथ आकर सबको शान्त कर दिया और विधिपूर्वक गन्धर्वदत्ताका जोवन्धरकुमारके साथ पाणिग्रहण करा दिया।
तदनन्तर इसी राजपुरी नगरी में एक वैश्रवणदत्त नामक सेठ रहता था उसकी आम्रमंजरी नामक स्त्रीसे सुरमंजरी नामकी कन्या हुई थी। उस सुरमंजरीकी एक श्यामलता नामको दासी थी, वसन्तोत्सबके समय श्यामलता, सुरमंजरीके साथ उद्यानमें आयी थी। वह अपनी स्वामिनीका चन्द्रोदय नामक चर्ण लिये थी और उसकी प्रशंसा लोगोंमें करती फिरतो थी। उसी नगरी एक कुमारदत्त सेठ रहता था, उसकी विमला नामक स्त्रीसे गुणमाला नामक पुत्री हुई थी। गुणमालाको एक विद्युल्लता नामको दासी यो। वह अपनी स्वामिनोका सूर्योदय नामका चूर्ण लिये थी और उसकी प्रशंसा लोगोंमें करती फिरती थी। चूर्णकी उत्कृष्टताको लेकर दोनों कन्याओं में विवाद चल पड़ा। उस वसन्तोत्सवमें जोवन्धरकुमार भो अपने मित्रोंके साथ गये हुए थे। जब चूर्णको परीक्षाके लिए उनसे पूछा गया तब उन्होंने सुरमंजरीके चूर्ण को उत्कृष्ट सिद्ध कर बता दिया।
नगरके लोग वसन्तोत्सवमें लीन थे। उसी समय कुछ दुष्ट बालकोंने चपलतावश एक कुत्तको मारना शुरू किया।' भयसे व्याकुल होकर वह भागा और एक कुण्डमें गिरकर मरणोन्मुख हो गया । जोवन्धरकुमारने यह देख उसे अपने नौकरोंसे बाहर निकलवाया और उसे पंचनमस्कार मन्त्र सुनाया जिसके प्रभावसे वह चन्द्रोदय पर्वतपर सुदर्शन यक्ष हुआ। पूर्वभवका स्मरण कर वह जीवन्धरके पास आया और उनको स्तुति करने लगा। अन्तमें वह जीवन्धरकूमारसे यह कहकर अपने स्थानपर चला गया कि दुःख और मुम्पम मेरा स्मरण करना ।
जब सब लोग क्रीड़ा कर वनसे लौट रहे थे तब काष्ठांगारिक अशनिघोष नामक हाथीने कूपित होकर जनतामें आतंक उत्पन्न कर दिया। सुरमंजरी उसकी चपेट में आनेवाली ही थी कि जीवन्वरकूमारने
पर पहुंचकर हाथीको मद रहित कर दिया। इस घटनासे सुरमंजरीका जीवन्धरके प्रति अनुराग बढ़ गया और उसके माता-पिताने जीवन्धरके साथ उसका विवाह कर दिया।
जीवन्धरकुमारका सुयश सब ओर फैलने लगा कि उसे काष्टांगारिक मन-ही-मन कुपित रहने लगा। 'इसने हमारे हायोको बाधा पहुंचायो है' यह बहाना लेकर काष्टांगारिकने अपने चण्डदण्ड नामक मुख्य रक्षकको आदेश दिया कि इसे शीघ्र ही यमराजके घर भेज दो। आज्ञानुसार चण्डदण्ड अपनी सेना लेकर जीवन्धरको और दौड़ा परन्तु ये पहलेसे ही सावधान थे अतः उन्होंने उसे पराजित कर भगा दिया। इस
1. गद्यचिन्तामणिमें चर्चा है कि जीवन्धरकुमारने गुणमालाके चूर्णको उत्कृष्ट सिद्ध किया था, इसलिए सुरमंजरी नाराज होकर बिना स्नान किये ही घर वापस चली गयी थी। १. गद्यचिन्तामणि आदिमें चर्चा है कि भोजनको सबने अपराधसे कुपित ब्राह्मणोंने उस कुत्तेको दण्ई तथा पत्थर आदिसे इतना मारा कि वह मरणोन्मख हो गया। ३. गधचिन्तामणि आदिमें यहाँ मुरमंजरीके साथ विवाह न कर गुणमालाके साथ विवाह करानेका उहालेख है।
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गद्य चिन्तामणिः
घटना काष्ठांगारिक और भी अधिक कुपित हुआ। अबकी बार उसने बहुत-सी सेना भेजी । परन्तु दयालु जीवन्धरकुमारने निरपराध सैनिकोंको मारना अच्छा नहीं समझा, इसलिए सुदर्शन यक्षका स्मरण कर सब उपद्रव शान्त कर दिया । सुदर्शन यक्ष उन्हें विजयगिरि हाथीपर बैठाकर अपने घर ले गया । जीवन्धरकुमारको यक्षके साथ जानेका समाचार गन्धर्वदत्ताको छोड़कर किसीको विदित नहीं था इसलिए सब लोग बहुत दुःखी हुए परन्तु गर्भदत्ताने सबको सान्त्वना देकर स्वस्थ कर दिया ।
जीवन्धरकुमार यक्षके घर में बहुत दिन तक सुखसे रहे । तदनन्तर चेष्टाओं द्वारा उन्होंने यक्षसे अपने जानेकी इच्छा प्रकट को । उनका अभिप्राय जान यक्षने उन्हें कान्तिसे देदीप्यमान इच्छित कार्यको सिद्ध करनेवाली और मनचाहा रूप बना देनेवाली एक अंगूठी देकर पर्वतसे नीचे उतार दिया तथा सब मार्ग समझा दिया |
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धनपति नामका राजा था और तिलोएक बार वनविहार के समय पद्मोसमा
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उपचार करनेपर भी जब अच्छी नहीं राज्य और वही कन्या देनेकी घोषणा
कुछ दूर चलने पर जोवन्धर चन्द्राभनगर पहुँचे। वहाँ तमा नामकी उसकी स्त्री थी। दोनोंके पद्मोत्तमा नामको पुत्री थी। को सौपने काट खाया । सर्प विष पद्योत्तमा मूच्छित हो गयी हुई तो राजा धनपति ने उसे अच्छी कर देनेवालेके लिए आधा करायी । राजा धनपतिके सेवकों के आग्रहसे जीबन्धरकुमार उसके घर गये और यक्षका स्मरण कर मन्त्रद्वारा उन्होंने पद्मोत्तमका विष दूर कर दिया। राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसने जीवन्धर के लिए अपना आधा राज्य तथा पद्मोतमा कन्या दे दी। राजा धनपतिके लोकपाल आदि बत्तीस पुत्र थे । उन सबके स्नेह वश जीवन्धर वहाँ कुछ समय तक सुखसे रहे । तदनन्तर चुपचाप बहाँसे चलकर क्षेम देशके क्षेमनगरमें पहुँचे । वहाँके बाह्य उद्यान में सहस्रकूट जिनालय देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उनके पहुँचने पर चम्पा फूल उठा, कोकिलाएँ बोलने लगीं, सूखा सरोबर भर गया तथा मन्दिर के द्वारके कपाट अपने आप खुल गये । कुमारने सरोवरमें स्नान कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा को और वहाँ के सुभद्र सेठकी निर्वृति नामक स्त्रीसे उत्पन्न क्षेमसुन्दरी कन्या के साथ नगरमें रहता विवाह किया। एक दिन प्रसन्न होकर सुभद्र सेठने जीवन्धरसे कहा कि जब में पहले राजपुर था तब राजा सत्यम्वरने मुझे यह धनुष और ये बाण दिये थे, ये आपके ही योग्य हैं अतः आप ही ग्रहण कीजिए इस प्रकार कहकर वह धनुष और बाण दे दिये। जीवन्धरकुमार धनुष बाण लेकर बहुत सन्तुष्ट हुए । यहाँपर उनकी प्रथम स्त्री --- गन्धर्वदत्ता अपनी विद्याके द्वारा उनके पास गयी और उन्हें सुखसे बैठा देख किसीके जाने बिना वापस आ गयी ।
वहाँ से चलकर जीवन्धरकुमार 'सुजन देशके हेमाभनगर पहुँचे । वहाँका राजा दृढ़मित्र था और उसकी स्त्रीका नाम नलिया था। दोनोंके एक हेमाभा नामकी कन्या थी । हेमाभाके जन्मके समय किसी निमित्तज्ञानी ने बताया था कि मनोहर नामक वनको आयुधशाला में जिसका बाण लक्ष्य स्थान से लोट
४. पाचन्तामणि आदिमें विष दूर करनेवाली, मनचाहा रूप बना देनेवाली और उत्कृष्ट मोहक संगीत करानेवाली तीन विद्याएँ दीं, ऐसा उल्लेख है । २. गद्यचिन्तामणि आदिमें चन्द्रामनगर पहुँचने के पूर्व वनमें दावानलसे झुलसते हुए हाथियों और यक्षके स्मरणसे आकस्मिक वृष्टि-द्वारा उनका उपद्रव शान्त होनेका वर्णन है । ३. गद्य चिन्तामणि आदिमें राजाका नाम छोकपाळ दिया है । ४. गद्यचिन्तामणि आदिमें कन्याका नाम पद्मा दिया है । ५. गद्यचिन्तामणि आदिमें कन्याका नाम क्षेमत्र है। क्षेमनगर पहुँचने के पूर्व गद्यचिन्तामणि आदिमें एक तपोवन में तासियोंको समीचीन धर्मका उपदेश देनेका वर्णन है । ६. गद्यचिन्तामणि आदिमें धनुष-बाण देने तथा गन्धर्वदत्ता के पहुँचनेका कोई उल्लेख नहीं है । ७. गद्यचिन्तामणि आदिमें हेमाभनगर पहुँचने के पूर्व अटवीमें एक विद्याधरीकी २. गद्यचिन्तामणि कामुकताका मी वर्णन है । ८. गद्यचिन्तामणि आदिमें मध्य देशका उल्लेख है । आदि में रानीका नाम नकिनी लिखा है ।
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प्रस्तावना
कर पोछे आवेगा वही इस कन्याका पति होगा। अन्य धनुषधारियोंके कहनेसे जीवन्धर कूमारने भी अपना बाण छोड़ा और वह लक्ष्यको वेधकर वापस उनके पास आ गया। निमित्तज्ञानीके कहे अनुसार उनका हेमाभाके साथ विवाह हो गया ।' गन्धर्वदत्ताको सहायतासे नन्दाढ्य स्मरतरंगिणी नामक शय्यापर सोकर भोगिनी विद्याके द्वारा जीवन्धर कुमारके पास पहुँच गया। राजा दृढ़मित्रके गुणमित्र, बहुमित्र, सुमित्र और धनमित्र आदि कितने ही पुत्र थे। उन सबके साथ जीवन्धर कुमारका समय सुखसे व्यतीत होता रहा। नटनन्तर उसी हेमाम नगर में श्रीचन्द्राके साथ यवक नन्दाढ्यका विवाह हुआ।' सरोवरका रक्षक एक विद्याधर मुनिराजके मुखसे सुनकर जीवन्धर स्वामीके पूर्वभवोंका वर्णन इस प्रकार करने लगा
धातकोखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुसम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती नामका देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरीमें राजा जयन्धर राज्य करता था। उसकी जयावती रानीसे तू जयद्रथ नामका पुत्र हुआ था। किसी समय जयद्रथ क्रीड़ा करने के लिए मनोहर नामके वनमें गया, वहाँ उसने सरोवरके किनारे एक हंसका बच्चा देखकर कौतुक वश चतुर सेवकों के द्वारा उसे बुला लिया और उसके पालन करनेका प्रयत्न करने लगा। यह देख, उस बच्चे के माता-पिता शोकाकुल हो आकाशमें बार-बार करुण-क्रन्दन करने लगे। उनका शब्द सन तेरे एक सेवकने कान तक धनुष खींचा और एक बाणसे उस बच्चे के पिताको नीचे गिरा दिया। यह देख, जयद्रथको माताका हृदय दयासे आर्द्र हो गया और उसने पूछा कि यह क्या है ? सेवकसे सब हाल जानकर वह पक्षीके पिताको मारनेवाले सेवकपर बहुत कुपित हुई तथा तुझे भी डांटकर कहने लगी कि हे पुत्र ! तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इसे इसकी मातासे मिला दे। इसके उत्तरमें तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञानता वश किया है। और जिस दिन बालकको पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन उसकी मातासे मिला दिया। काल पाकर जयद्रथ भोगोंसे विरक्त हो साथ हो गया और अन्त में सल्लेखना कर सहस्रार स्वर्गमें अठारह सागरको आयुवाला देव हुआ और आयु समाप्त होनेपर तू जीवन्धर हुआ है तथा पक्षीको मारनेवाला सेवक काष्टांगारिक हुआ है। और उसीने तुम्हारा जन्म होनेसे पूर्व तुम्हारे पिता राजा सत्यन्धरको मारा है। तुमने सोलह दिन तक हंसके बच्चेको उसके माता-पितासे अलग रखा या । उसीके फलस्वरूप तुम्हारा सोलह वर्ष तक माता तथा भाइयोंसे वियोग हुआ है। जीवन्धर कुमारने उस विद्याधरसे अपने पूर्वभव सुनकर बड़ी प्रसन्नता प्राप्त की।
इधर जब नन्दाढय राजपुरी नगरीसे बाहर हुआ तब मधुर आदि मित्र शंकामें पड़ गये। उन्होंने गन्धर्वदत्तासे पूछा तो उसने स्पष्ट बताया कि इस समय जीवन्धर और नन्दाढय दोनों भाई सुजन देशके हेमाभनगरमें सुखसे रह रहे हैं। गन्धर्वदत्तासे पता आदि पूछकर सब मित्र उन दोनोंसे मिलनेके लिए चल पड़े।
चलते-चलते वे मार्गमें दण्डक वन सम्बन्धी तापसोंके उस आश्रममें ठहरे जहाँ कि विजयारानो रहती थी। अन्य तापसोंके साथ विजयारानीने उन सबको देखा और यह जानकर कि ये हमारे प है कहा कि लौटते समय आप लोग जोवन्धरको भी साथ लेते माइए तथा यहाँ अबश्य ठहरिए । बिजयाको मुखाकृति जीवन्धरसे मिलती-जुलती थी इसलिए सबको सन्देह हुआ कि यह जीवन्धरकी माता है। दण्डक बनसे आगे चलनेपर उन्हें भीलोंकी सेनाने घेर लिया परन्तु अपनी शर-वीरतासे ये उसे परास्त कर आगे निकल गये । तदनन्तर दूसरी भोलोंको सेनाले साथ मिलकर वे हेमाभनगर पहुँचे और वहाँके सेठोंको
१. अन्यत्र कन्याका नाम कनकमाला लिखा है। गधचिन्तामणि आदिमें हदमित्रके सुमित्र भादि पुत्रों द्वारा एक भामका फल तोड़ना, उसमें सफल नहीं होना और जीवन्धर कुमारके द्वारा उसका तोड़ा जाना, इससे प्रभावित होकर सुमित्र आदि के द्वारा जीवन्धरको अपने घर ले जाना, उनसे शस्त्र विद्या सीखना और अन्त में कनकमाळाका विवाह कर देना मादिका वर्णन है। २. इसके पूर्व उत्तरपुराणमें एक विस्तृत कथा आती है जिसका गद्यचिन्तामणि आदिमें कोई उल्लेख नहीं है। ३. जीवन्धरके पूर्व मयों का वर्णन गधचिन्तामणि आदिमें अन्यत्र दिया है तथा उसमें नाम आदिका बहुत भेद है। ४. गद्यचिन्तामणि आदिमें उल्लेख है कि जीवन्धर पूर्व मवमें धातकीखण्ड द्वीपके भूमितिलक नगरके राजा पवनवेगके यशोधर नामके पुत्र थे। हंसशिशुको पकड़नेपर पिता जीवन्धरको उपदेश दिया।
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गद्यचिन्तामणिः
लूटने लगे । नगरवासी लोगोंकी चिल्लाहट सुन जीवन्धर कुमारने उन भीलोंका सामना किया तथा सबको परास्त कर दिया । अन्तम मधुर आदि मित्रोंने अपने नामांकित बाण चलाकर जीवन्धरको अपना परिचय दिया। सबका सुखद-मिलन हुआ।
तदनन्तर कुमारको लेकर सब राजपुरीको ओर चले, बीचमें उसी दण्डक बनके तपोवनमें ठहरे । वहाँ चिरकालसे बिछुड़ो माताके साथ जीवन्धरका मिलन हुआ । सुदर्शन यक्षने आकर बड़ा उत्सव किया। माताने आशीर्वाद देते हुए जीवन्धरको बताया कि बेटा ! काधागारिकने तर पिताको मारकर तेरा राज्य छोन लिया है उसे अवश्य प्राप्त कर । जीवन्धर माताको सान्त्वना दे राजपुर नगर वापस आ गये। वहां उन्होंने अपने आनेकी खबर नहीं होने दी । राजपुर नगरमें उन्होंने सागरदत्त सेठको कमला नामक स्त्रोसे उत्पन्न विमला नामक पुत्रीको प्राप्त किया और उसके बाद वृद्धका रूप रखकर गुणमालाको चकमा दिया और उसके साथ विवाह किया। इस तरह कुछ दिन तक राजपुर नगरमें अज्ञातवास कर किसी शुभ दिन उन्होंने विजयगिरि नामक हाथीपर सवार हो बड़ी धूमधामरो गन्धोत्कटके घर प्रवेश किया।
इस घटनासे काष्ठांगारिकको बहुत बुरा लगा परन्तु उसके मन्त्रियोंने उसे शान्त कर दिया । विदेह देशके विदेह नामक नगरमें राजा गोपेन्द्र रहते थे। उनको स्त्रोका नाम पथिवीसुन्दरी था और उन दोनोंके एक रत्नवती नामको कन्या यो। उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो चन्द्रकबेध चतुर होगा मैं उसीके साथ विवाह करूंगी अन्य पुरुषके साथ नहीं । निदान, राजा गोपेन्द्र कन्याको लेकर राजपुर आया और वहां उसने उसका स्वयंवर रचा। स्वयंवरमें जीवन्धर कुमारने चन्द्रकबेधको वेध दिया था जिससे रत्नवतीने उनके गले में वरमाला डाल दी। इस घटनासे काष्ठांगारिक बहुत कुपित हुआ। उसने युद्धके द्वारा रत्नवतीको छोननेकी योजना बनायो । जब जीवधर कुमारको इसका बोष हआ तब उन्होंने सत्यधर महाराजके सब सामन्तोंके पास दूत भेजकर सब हाल विदित कराया कि 'मैं राजा सत्यन्धरको विजयारानीसे उत्पन्न पुत्र हूँ। काष्ठांगारिकको हमारे पिताने मन्त्री बनाया परन्तु इसने उन्हें भी मारकर राज्य प्राप्त कर लिया। आप लोग इस कृतघ्नको अवश्य नष्ट करें।
जीवन्धर कुमारका सन्देश पाकर सब सामन्त इनकी बोर आ मिले। अन्तमें युद्ध कर जोवन्धरने काष्ठांगारको मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया। सुदर्शन यक्षने सब लोगोंके साथ मिलकर जीवन्धरका राज्याभिषेक किया । गन्धोत्कट राज सेठ हए। माता विजया और आठों रानियों सब एकत्रित हई। सबका सुखसे समय व्यतीत होने लगा।
एक बार जोवन्धर कुमारने सुरमलय नामक उद्यान में वरधर्म नामक मुनिराजसे धर्मका स्वरूप सुना और व्रत लेकर सम्यग्दर्शनको निर्मल किया। नन्दाहच आदि भाइयोंने भी यथाशक्य व्रत आदि ग्रहण किये। तदनन्तर किसी एक दिन अपने अशोक वनमें गये। वहां लड़ते हुए दो बन्दरोंके झुण्डोंको देखकर. संसारसे विरक्त हो गये। वहीं उन्होंने प्रशान्तवंक नामक मुनिराजसे अपने पूर्व भव सुने। उसी समय सुरमलय उद्यानमें भगवान् महावीरका समवसरण आया सुन वैभवके साथ वहाँ गये और गन्धर्वदत्ताके पुत्र वसुन्धर
मचिन्तामणि भादिमें गायोंके लूटनेका वर्णन है । २. गधचिन्तामणि आदिमें यहाँ सुरमंजरीके साथ विवाह होनेकी चर्चा है। ३. गद्यचिन्तामणि आदिमें उल्लेख है कि विदेह देशमें राजा गोविन्द रहते थे, उन की बबुति रानीसे उत्पन्न लक्ष्मणा नामकी पुत्री थी। गोविन्द महाराज जीवन्धर कुमारके मामा थे अतः काष्टांगारके ऊपर चढ़ाई करने के पूर्व वे विचार-विमर्श करने के लिए उनके पास गये थे। उसी समय काष्टांगारका एक पन भी उन्हें राजपुरी बुलानेके विषय में गया था । फलस्वरूप राजा गोविन्द पूरी तैयारीके साथ राजपुरोकी ओर चके। उनके साथ उनकी कक्ष्मणा नामक पुत्री मी थी। राजपुरी में उसका स्वयंवर हुआ था और उसने चन्द्रकवेधक बेधनेपर जीवन्धरको अपना पति बनाया था। ४. गवचिन्तामणि आदिमें गन्धर्वदत्ताके पुत्र का नाम सम्पन्धर लिखा है।
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प्रस्तावना
कुमारको राज्य दे नन्दाढ्य आदिके साथ दीक्षा धारण कर लो। महादेवी विजया तथा गन्धर्वदत्ता आदि रानियोंने भी चन्दना आर्याके पास दीक्षा ले ली।
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सुधर्माचार्य राजा श्रेणिकसे कहने लगे कि अभी जीवन्धर मुनिराज महातपस्वी श्रुतकेवली हैं । परन्तु घातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानी होंगे और भगवान् महावीर के साथ विहार कर उनके मोक्ष चले जानेके बाद विपुलाचलसे मुक्ति प्राप्त करेंगे ।
गद्य काव्य
'गदितुं योग्यं गये' इस निरुक्तिसे गद्य शब्दको निष्पत्ति 'गद व्यक्तायां वाचि' धातुसे होती है और उसका अर्थ होता है स्पष्ट कहने के योग्य । मनुष्य जिसके द्वारा अपना अभिप्राय स्पष्ट कह सके वह गद्य है । मनुष्य पद्य में मात्राओं और गणोंकी पराधीनतामें ऐसा जकड़ जाता है कि खुलकर पूरी बात कहनेकी उसमें सामर्थ्य ही नहीं रहती । कर्ता, कर्म, क्रिया और उनके विशेषणोंका जो स्वाभाविक क्रम होता है वह भो पद्य में समाप्त हो जाता है । कर्ता कहीं पड़ा है कर्म कहीं है, क्रिया कहीं हैं और उसके विशेषण कहीं हैं । बिना अन्वयको योजना किये पद्यका अर्थ लगाना भी कठिन हो जाता हूँ परन्तु गद्यमें यह
बेतुकापन नहीं रहता । हृदय यह स्वीकृत करना चाहता है कि भाषामें गद्य प्राचीन है और पद्य अर्वाचीन शिशुके मुखसे जब वाणीका सर्व प्रथम स्रोत फूटता है तब वह गद्य रूपमें ही फूटता है । पद्यका प्रवाह प्रबुद्ध होनेपर जिस किसी के मुखसे हो फूट पाता है सबके नहीं । गद्य मानवको निसगं सिद्ध वाणी है और पद्य कृत्रिम |
इतना होनेपर भी पद्यके प्रति लोगोंका जो आकर्षण है उसका कारण है उसकी संगीत-प्रियता । मनुष्य चाहे पढ़ा हो चाहे बिना पढ़ा संगीतको स्वरलहरी में नियमसे झूम उठता है। मनुष्यकी बात जाने दो पशु-पक्षी भी संगीत-सुधामें विनिमग्न हो जाते हैं । वीणाकी स्वरलहरी सुन छिपा हुआ सर्प बाहर मा जाता है और सस्यस्थलीपालक बालिकाओंके अल्हड़ गीत सुन मृग चित्र-लिखित से स्थिर हो जाते हैं । कोयल की कूकको आप बारीकीसे सुनें तो पता चलेगा — कभी वह अपनी वाणीको मधुरिमा पंचम स्वरसे बिखेर रही हैं, तो कभी साधारण स्वरमें ही कूक रही है। भले ही मनुष्य संगीतका नाम और स्वर रत्ती भर नहीं जानता हो फिर भी संगीत सुन उसका सिर हिलने लगेगा और ताल देनेके लिए कुछ नहीं होगा तो अपने हाथ की हथेलियाँ ही जंघाओंपर थपथपाने लगेगा। गद्यको अपेक्षा पद्यमें संगीत हैं, किसीमें स्वर ताल स्पष्ट है और किसी में अस्पष्ट । अपनी उसी संगीत-प्रियता के कारण मनुष्य पद्यकी ओर आकृष्ट हुआ । गद्यकी अपेक्षा रस-परिपाक भी पद्यमें अधिक दिखाई देता है । अन्त्यानुप्रास तथा अन्य अलंकार भी गद्यको अपेक्षा में ही अधिक खिलते हैं । जनताके इस आकर्षणसे पद्यकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि काव्य तो दूर रहा धर्म, दर्शन, ज्योतिष आयुर्वेद, गज, अश्व-विज्ञान तथा शकुन आदि सभी शास्त्र पद्यमें ही लिखे जाने लगे । व्याकरण-जैसा नीरस विषय भी कहीं-कहीं कारिकाओंसे अलंकृत किया गया। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में पद्यने गद्यको पीछे धकेल दिया | हिन्दी साहित्यका प्रारम्भिक युग भी पद्यसे ही प्रचलित हुआ । फल यह हुआ कि शारदाका सदन पद्य ग्रन्थ रूप असंख्य दोपकोंके आलोकसे जगमगाने लगा और गद्य-ग्रन्थ-रूप दीपक उसमें निष्प्रभ हो टिमटिमाने लगे ।
'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति'
पद्य साहित्यकी इतनी प्रचुरता और लोकप्रिय के होनेपर भी गद्य-साहित्य ही स्थिर ज्योति:स्तम्भ के समान कल्पनाओंके अन्तरिक्षमें उड़नेवाले कवियोंको मार्ग-दर्शन कर रहा है। विद्वानोंकी विद्वत्ताको परख कवितासे न होकर गद्यसे ही होती देखी जाती है। अब भी संस्कृत-साहित्यमें यह उक्ति जोरोंसे प्रचलित है— 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' अर्थात् गद्य ही कवियोंको कसौटी है । कविके वैदुष्यकी कमी कविताकामिनी अंचल में सहज ही छिप सकती है पर गद्य में कविको अपनी कमी छिपाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती । कविता छन्दको परतन्त्रता कविकी रक्षा के लिए उन्नत प्राचीरका काम देती है पर गद्य लेखककी रक्षा के लिए कोई प्राचीर नहीं रहती । उसे तो खुले मैदान में ही जूझना पड़ता है। गद्य साहित्यकी विरलता
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गद्य चिन्तामणिः
में उसको कठिनाई भी एक कारण हो सकती है। क्योंकि गद्य लिखनेको क्षमता रखनेवाले विद्वान् अल्प हो होते आये हैं। यही कारण है कि संस्कृत, साहित्यमें काव्यको शैलीसे स्वतन्त्र गद्य लिखनेवाले लेखक अँगुलियोंपर गणनीय है । यथा वासवदत्ताके लेखक सुबन्धु कादम्बरी और हर्षचरित के लेखक बाण, दशकुमार चरित लेखक दण्डी, गद्यचिन्तामणिके लेखक वादीभसिंह सूरि तिलकमंजरीके लेखक धनपाल और शिवराज विजयके लेखक अम्बिकादत्त व्यास | चम्पू- साहित्य के रूपमें पद्योंके साथ गद्य लिखनेवाले लेखक इनकी अपेक्षा कुछ अधिक हैं ।
गद्य के भेद --- साहित्यदर्पणकार विश्वनाथने साहित्यदर्पणके पष्ठ परिच्छेद में श्रव्यकाव्यके भेदोंका वर्णन करते हुए गद्यकी निम्न प्रकार चर्चा की है—
वृत्तगन्धोज्झितं गद्यं मुक्तकं वृत्तगन्धि च । भवेयुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम् ॥ बाद्यं समासरहितं वृत्तभागयुतं परम् । अभ्यद्दीर्घसमासादयं तुर्यं चाल्पसमासकम् ॥ जिसमें छन्दको गन्ध भी — लेश भी न हो उसे गद्य कहते हैं । इसके मुक्तक, वृतगन्धि, उत्कलिकाप्राय और चूर्णक के भेदसे चार भेद हैं । जो लम्बे-लम्बे समासोंसे रहित है उसे मुक्तक कहते हैं । जैसे---- 'गुरुवचसि पृथुरुरसि' इत्यादि
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जिसमें वृत्त - छन्दको गन्ध हो उसे वृत्तगन्धि कहते हैं । जैसे
'समरकण्डूल निबिडभुजदण्डकुण्डलीकृतकोदण्डशिञ्जिनीटङ्का रोज्जागरितवैरनगर - ' इत्यादि । यहाँ 'कुण्डलीकृतकोदण्ड - यह अनुष्टुप् वृत्तका पाद प्रतीत होता है ।
जो उठती हुई तरंगोंके समान एकके बाद एक लम्बी पदावलीसे युक्त हो उसे उत्कलिकाप्राय कहते हैं । जैसे
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'अनिश विस्मरनिशितशर विसरविदलितसमरपरिगतप्रवरपरबल -' इत्यादि ।
असमस्त अथवा छोटे-छोटे समस्त पदोंसे युक्त गद्यको चूर्णक कहते हैं । जैसे
'गुणरत्नसागर, जगदेकनागर, कामिनीमदन, जनरञ्जन' – इत्यादि ।
गद्यकाव्य के भेद - गद्यके उक्त चार भेदोंको प्रयोगात्मक रूप देनेवाले गद्य-काव्यके दो भेद हैं१ कथा और २ आख्यायिका । कथाका लक्षण साहित्यदर्पणकारने इस प्रकार माना है
कथायां सरसं वस्तु गद्येरेव विनिर्मितम् । क्वचिदेव भवेदाय पचिद्वक्त्रापववत्रके ॥ आदी पद्यनमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम् ।
कथा में समूची वस्तु सरस शैलीसे गद्यमें ही लिखी जाती है । परन्तु कहीं-कहीं आर्या और कहीं-कहीं वक्त्र तथा अपववत्र छन्दोंका भी प्रयोग रहता है । ग्रन्यके प्रारम्भमें अनेक पद्यों द्वारा इष्टदेवको नमस्कार तथा सुजनप्रशंसा और दुर्जननिन्दाका भी अवतरण रहता है। जैसे कादम्बरी, गद्यचिन्तामणि, तिलकमंजरी आदि ।
आख्यायिकाका लक्षण इस प्रकार है
आख्यायिका कथावत्स्यात्क देवंशानुकीर्तनम् । अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्यं क्वचित् क्वचित् ॥ कथांशानां व्यवच्छेद अश्वास इति बध्यते । आर्यावववक्त्राणां छन्दसा येन केनचित् । अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यर्थ सूचनम् ॥
आख्यायिका भी कथाके ही समान होती है परन्तु उसमें कविके आख्यायिका में अन्य कवियोंका चरित्र तथा पद्य भी कहीं-कहीं संदृब्ध रहते हैं।
वंशका भी वर्णन रहता है । इसमें कथांशोंके विरामको
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प्रस्तावना.
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श्वास कहते हैं और माश्वासके प्रारम्भमें आर्या, वक्त्र तथा अपवस्त्र छन्दोंमें से किसी छन्दके द्वारा अन्यके बहाने भावी अर्थको सूचना दी जाती है। जैसे - हर्षचरित आदि ।
कथा मोर आख्यायिकामें अन्तर बतलाते हुए किन्हीं - किन्हीं लोगोंने कहा है कि 'आख्यायिका नायकेनैव निबद्धव्या' - आख्यायिकाको रचना नायकके द्वारा ही होती है और कथाकी रचना अन्य कविके द्वारा। परन्तु दण्डीने 'अपि त्वनियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरणात्' इस उल्लेख द्वारा उक्त अन्तरकरणका निषेध किया है। गद्य आख्यान, परिकथा, खण्डकथा आदि अनेक भेद हैं परन्तु उनका कथामें ही अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिए दण्डीका निम्न वचन द्रष्टव्य है
'अवान्तर्भविष्यन्ति शेपाश्चाख्यानजातयः' ।
आख्यानमें पंचतन्त्र आदि आते हैं ।
गद्यकी धारा - गद्यको धारा सदा एक रूपमें प्रवाहित नहीं होती किन्तु रसके अनुरूप परिवर्तित होती रहती है । रौद्र अथवा वीररसके प्रकरण में जहाँ हम गद्यकी समासबहुल गौडोरीतिप्रधान रचना देखते हैं वहाँ शृंगार तथा शान्त आदि रसोंके सन्दर्भ में उसे अल्पसमाससे युक्त अथवा समासरहित वैदर्भीतिप्रधान देखते हैं । संस्कृत गद्य साहित्य में बाणको कादम्बरीका जो बहुमान है वह उसकी रसानुरूप शैलीके ही कारण है । नाटकोंमें और खासकर अभिनयके लिए लिखे हुए नाटकों में गद्यका दीर्घसमास रहित रूप ही शोभा पाता है । संस्कृत-साहित्य में भवभूतिके मालतो माघव और हस्ति मल्ल के विक्रान्तकौरवका गद्य नाट्य साहित्यके अनुरूप नहीं मालूम होता । जिस गद्यको सुनकर दर्शकको झटिति भावावबोध न हो वह रसानुभूतिका कारण कैसे हो सकता है ? भास और कालिदासकी भाषा नाटकों के सर्वथा अनुरूप है ।
गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादोर्भासह सूरि
गद्यचिन्तामणिके प्रत्येक लम्भके अन्तमें दिये हुए पुष्पिकावाक्यों ( इति श्रीमद्वादोर्भासह सूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्भ: आदि) से निर्भ्रान्ति सिद्ध हूँ कि यह महनीय कृति श्रीवादिर्भासह सुरिकी रचना है । गद्यचिन्तामणिके सम्पादनार्थ प्राप्त चार हस्तलिखित प्रतियों में से तीन प्रतियों के अन्त में निम्नलिखित दो इलोक और पाये जाते हैं
श्रीमद्वादीनि गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषणः || स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिलोंके चिन्तामणिरिवापरः ॥
इन श्लोकोंमें प्रकट किया गया है कि श्रीमद्वादीभसिंह उपाधिके धारक ओडयदेवके द्वारा रची हुई यह गद्यचिन्तामणि जो कि सभाओंका आभूषण है चिरकाल तक विद्यमान रहे । '
यादसिंह थोडयदेव के द्वारा रचित यह गद्यचिन्तामणि जो कि लोकमे अद्वितीय चिन्तामणिके समान है चिरकाल तक स्थिर रहे ।
समग्र प्रतियोंमें न पाये जानेके कारण सम्भव है कि ये श्लोक स्वयं वादीभसिंह सूरिके द्वारा रचित न हों, पोछेसे किसी विद्वान्ने जोड़ दिये हों परन्तु जब 'वादीभसिंह' इस नामको निरुक्तिपर ध्यान जाता है तब ऐसा लगता कि यह इनका जन्मजात नाम न होकर पाण्डित्योपार्जित उपाधि है । अतः 'बोडयदेव' यह इनका जन्मजात नाम है और 'वादीभसिंह' ( वादीरूपी हाथियोंको जोतनेके लिए सिंह ) यह उपाधि है । उक्त श्लोकोंमें उनके यथार्थ नामका उल्लेख उपाधिके साथ किया गया है अतः पीछेसे किसी अन्य विद्वान्के द्वारा उल्लिखित होनेपर भी ग्राह्य जान पड़ते हैं ।
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गद्यचिन्तामणिः
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ५४ की मल्लिषेण प्रशस्ति में वादी भसिंह उपाधिसे युक्त एक आचार्य अजितसेनका उल्लेख किया गया है, बहुत कुछ सम्भव है कि यह उपर्युक्त वादीभसिंह हो हों और 'अजितसेन' यह उनका मुनि अवस्थाका नाम हो, क्योंकि अधिकतर दीक्षा के समय जन्मजात नामको परिवर्तित कर दूसरा नाम रख देनेकी परम्परा साधुओंमें बहुत समय से प्रचलित है। प्रशस्ति में दिया हुआ 'वादीभसिंह' पद उपाधि-सूचक ही है विशेषण-सूचक नहीं, क्योंकि 'मदवदखिलवादी भेन्द्रकुम्भप्रभेदी' - 'मदयुक्त समस्त वादीरूपी गजराजोंके गण्डस्थलोंको विदीर्ण करनेवाले' इस तृतीय पादसे विशेषणका कार्य गतार्थ हो चुकता है । श्री टी० एस० कुप्पुस्वामी, श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और पं० के० भुजवली शास्त्री ने भी उक्त अभिप्राय प्रकट किया है।
१४
गद्यचिन्तामणिकारने पूर्वपीठिका के छठे श्लोकमें अपने गुरुका नाम पुष्पसेन घोषित किया है और कहा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभावसे मूढबुद्धि मनुष्य वादीभसिंहता और श्रेष्ठमुनिपनाको प्राप्त हो सका है। श्लोक इस प्रकार है-
श्रीपुष्पसेन मुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुहृदि सदा मम संविदध्यात् । कलक्तितः अङ्कतिसूक्ष्मतिनाऽपि वादोमांसहमुनिपुङ्गवतामुपैति ॥ ६ ॥
ओडयदेव - अजित सेनको 'वादोभसिंह' यह उपाधि अपनी तार्किक प्रतिभा के कारण ही प्राप्त हुई होगी। उनकी तार्किक प्रतिभा उनके द्वारा रचित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित 'स्याद्वादसिद्धि' ग्रन्थसे स्पष्ट हो जाती है । प्रत्यके अन्तर्विलोडनसे विदित होता है कि वे दर्शनशास्त्र के अद्वितीय विद्वान् थे और अपनो वादशक्ति से अन्य वादियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले थे । इन्होंने जिन पुष्पसेन गुरुका उल्लेख किया है उनका निर्देश उसी मल्लिपेण "प्रशस्ति में अकलंकके सधर्मा — गुरुभाईके रूपमें किया गया है। ऐसा जान पड़ता है। तार्किक लोगोंसे काव्यकी रचना होना असम्भव नहीं है । यशस्तिलकचम्पूके कर्ता सोमदेवने लिखा है कि मेरी इस बुद्धिरूपी गायने जन्म से लेकर सूखे तृणके समान तर्कशास्त्रका अभ्यास किया है तो भी पुण्यात्माओं के पुण्यसे उससे यह सूक्तिरूपी दूध उत्पन्न रहा है। वादीभसिंह भी यद्यपि न्यायशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे और उसी रूपमें उनकी प्रसिद्धि थी फिर भी यह 'गद्यचिन्तामणि' और 'क्षत्रचूडामणि' नामक गद्य और पद्य काव्य उनकी दिव्य लेखनीसे प्रसूत हुए इसमें आश्चर्यको क्या बात है ? पहले अधिकांश शास्त्रार्थ राजदरबार में हुआ करते थे अथवा निश्चित बादशालाओं में सम्पन्न होते थे और विजेता विद्वान् राजाओं के द्वारा सम्मान पाता था। जब वादीभसिंह प्रचण्ड वादीरूपी हस्तियोंको पराजय के गर्त में गिरानेवाले थे तब राजाओंक द्वारा उनकी मान्यता स्वयं सिद्ध थी। इस तरह श्रद्धेय प्रेमीजीकी उन मान्यताओंका आंशिक समाधान हो जाता है जिन्हें उन्होंने अजितसेन और वादीभसिंहके एक होने में उपस्थित किया है।
मदवखिलवादीभेन्द्र५४ । २. टी० एस०
१. सकलभुवनपादानत्रमूर्धवबद्ध स्फुरित मुकुटचूडालीढपादारविन्दः । कुम्भप्रभेदी गणभृदजितसेनी भाति वादीभसिंहः || ५७|| शिलालेख संख्या कुप्पुस्वामी- गद्यचिन्तामणिकी प्रस्तावना । ३. न्याय कुमुदचन्द्रोदय प्र० भा० प्रस्तावना पृष्ठ १११ । ४. जैन सिद्धान्त मास्कर, भाग ६, अंक २, पृष्ठ ७६ - ८० और भाग ७, अंक १, पृष्ठ १-८। ५. श्रीपुष्प पेणमुनिरेव पदं महिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान् धर्मा। श्रीविभ्रमस्य मवनं ननु पद्ममेव पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहत्वधामा ॥ मल्लिपेण प्रशस्ति । ६ आजन्मसमभ्यस्ताच्छुष्कातर्कात्तृणादिव ममास्याः । मतिसुरमेरभवदिदं सूतिपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥ १७॥ य० ६० ॥ मायभूषणं परिहरेतौद्ध त्यमुन्मुखतः स्याद्वादं वदता नमेव विनयाद्वादीभकण्ठीरवम् | नो चेत्तद्गुरुगर्जित७. मिथ्याश्रुतिमय भ्रान्ताः स्थ सूर्यं यतस्तूर्णं निग्रहजीर्णकूपकुहरे वादिद्विपाः पातिनः ||५५|| महिलषेण प्रशस्ति । ८. जैन साहित्य और इतिहास 25 ३२२, द्वितीय संस्करण |
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प्रस्तावना
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वादोभसिंहका जन्मस्थान - पद्यपि वादीर्भासह के जन्मस्थानका कोई उल्लेख नहीं मिलता तथापि आपके ओडदेव नामसे श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने अनुमान लगाया है कि आप मद्रास प्रान्ताप्रदेश निन्दामी हैं और बी० शेषगिरि राव एम० ए० ने कलिंग (तेलुगु) के गंजाम जिलेके आपका निवासी होना अनुमित किया है। गंजाम जिला मद्रासके एकदम उत्तरमें है और कब उड़ीसा में जोड़ दिया गया है । वहाँ राज्यके सरदारोंको ओडेय और गोडेय नामको दो जातियाँ हैं जिनमें पारस्परिक सम्बन्ध भी हैं अतएव उनको समझमें वादीभसिंह जन्मतः ओडेय या उड़िया सरदार होंगे'।
श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने लिखा है कि यद्यपि आपका जन्म तमिल प्रदेश में हुआ था तथापि इनके जीवनका बहुभाग मैसूर प्रान्त में व्यतीत हुआ था और वर्तमान मैसूर प्रान्तान्तर्गत पोम्बुच्च ही आपके प्रचारका केन्द्र था। इसके लिए पोम्बुच्च एवं मैसूर राज्य के भिन्न-भिन्न स्थानों में उपलब्ध आपसे सम्बन्ध रखनेवाले विलालेख ही ज्वलन्त साक्षी हैं ।
वादीभसिंहका समय - ( १ ) वादीभहिने गद्यचिन्तामणिको पूर्वपीठिका श्रीपुष्णसेनको अपना गुरु घोषित किया है। मस्लिपेण प्रशस्ति में अकलंक - विषयक श्लोकोंके बाद ही निम्नलिखित श्लोक भाता है-
'श्रीपुष्पेणमुनिरेव पदं महिम्नो देवः स यस्य समभूत्स महान् सघर्मा | पुष्पेषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा ॥'
श्रीविभ्रमस्य भवनं नतु पद्ममेव
वह पुष्पपेण मुनि ही महिमा के स्थान थे जिनके कि वह महान् अकलंक देव सधर्मा गुरुभाई थे । निश्चयसे पोंमें वह कमल ही लक्ष्मी के विलासोंका घर होता है जिसका कि सूर्य मित्र होता है ।
इस श्लोक में पुष्पणको अकलंकका सघर्मा — गुरुभाई बतलाया है । सम्भवतः यह पुष्पषेण मुनि वही हैं जिन्हें गद्यचिन्तामणिके प्रारम्भमें वादीभसिंहने अपना गुरु बतलाया है । उसी मल्लिषेण प्रशस्ति में वादसिह उपाधि धारक गणभृत् ( आचार्य ) अजितसेनका उल्लेख मिलता है जो वादीर्भासह ही जान पड़ते है यह पीछे लिख आये हैं । पुष्पपेण अकलंकके गुरुभाई थे और वादीभसिंह उनके शिष्य थे अतः वादसिंहका अस्तित्व अकलंकके बाद सिद्ध होता है ।
(२) दादी सिंहको गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर के लिए उनके विद्यागुरु-द्वारा जो उपदेश दिया गया है वह बाणभट्टको कादम्बरीके शुकनासोपदेश से प्रभावित । यही नहीं, गद्यचिन्तामणिके और भी कुछ स्थल उन्हीं बाणभट्ट के श्रीहपंचरित के वर्णन के अनुरूप है अतः यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि वादीभसिंह बाणभट्टके परवर्ती हैं। बाणभट्ट भी राजा हर्षके समकालीन [ ६१०- - ६५० ई० ] थे ।
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(ङ) अकलंक देवके न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी वादीभसिंहको स्याद्वादसिद्धिपर प्रभाव है अतः यह उनके उत्तरवर्ती विद्वान् है ।
(४) वादको स्याद्वादसिद्धि के छठे प्रकरणको १९वीं कारिकामें भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत-भावना नियोग रूप वेदवाक्यार्थका निर्देश किया गया है तथा कुमारिल भट्टके मोमांसाश्लोक वातिकसे कई कारिकाएं उद्धृत कर उनकी आलोचना की गयी है । कुमारिल भट्ट और प्रभाकर सम कालीन विद्वान है तथा ईशाकी सातवीं शताब्दी उनका समय माना जाता है अतः वादीभ सिंह उनके परवर्ती है "। इन सब कारणोंस वादीभसिंहका समय आठवीं शतीका अन्त और नोवोंका पुत्र सिद्ध होता है । विष्ट उहापोहके लिए पं० दरवारीलालजी न्यायाचार्य एम० ए० के द्वारा सम्पादित स्थाद्वाद - सिद्धिकी प्रस्तावना देखें ।
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१. जैन साहित्य और इतिहास पृष्ठ ३२४, द्वितीय संस्करण | २. क्षत्रचूडामणि उत्तरार्धकी प्रस्तावना, पृष्ठ 1 ३. देखो, स्याद्वादसिद्धिको प्रस्तावना, पृ० १९ । ४. वही, पृ० १०-२०
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गचिन्तामणिः
- वाधकोंका परिहार-वादोमसिंहका उक्त समय स्वीकृत करनेमें निम्नलिखित बाधक कारण उपस्थित किये जाते है
(१) गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणिमें जो जीवन्धर चरित्र निबद्ध है वह गुणभद्राचार्यके उत्तरपुराणसे लिया गया है और उत्तरपुराणको रचना शकाब्द ७७० ईसान्द ८४८ के लगभग हुई है अतः वादोभसिंह गुणभद्रसे परवर्ती हैं।
(२) बल्लाल कविने भोजप्रबन्धमें उल्लेख किया है कि एक बार किसीने कालिदासके सामने धारानरेश भोजको झूठी मृत्युका समाचार सुनाया जिसे सुनकर कालिदासके मुखसे निकल पड़ा
'अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिता: सर्वे भोजराजे दिवंगते ।' इसी झलकको लिये हुए वादोभसिंहने गचिन्तामणिमें काष्ठांगारके द्वारा हस्तिताडनके अपराधम जीवन्धरस्वामीको प्राणदण्ड घोषित किये जाने और श्मशानसे सुदर्शन यक्ष-द्वारा उनके गुसरूपसे स्थानान्तरित किये जानेपर परवासियोंकी च के रूप में एक गद्य लिखा है
'अद्य निराश्रया थीः, निराधारा घरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलोचनविधानम, नि:संसार: संसारः, नोरसा रसिकता, निरास्पदा बोरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम्...' गद्यचिन्तामणि, पृ० १३१ ।
इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह भोजके परवर्ती हैं। धारानरेश भोजका समय १०१०१०५० ई० निश्चित है।
(३) श्रुतसागर सूरिने सोमदेवकृत यशस्तिलक चम्पू ( आश्वास २, श्लोक १२६ ) को अपनी टोकामें वादिराज कविका एक श्लोक उद्धृत करते हुए वादोभसिंह और वादिराजको गुरुभाई तथा सोमदेवका शिष्य बतलाया है । उल्लेख इस प्रकार हैउक्तं च वादिराजेन कविना
'कर्मणा कवलितोऽजनि सोऽजा तत्पुरान्तरजनङ्गमवाटे ।
कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ।' 'स्वागतैति रनभादगल्यग्मम' इति वचनात स्वागता छन्द इदम । स वादिराजोऽपि श्रोसोमदेवाचार्यस्य शिष्यः 'वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः घोबादिराजोऽपि मदोयशिष्यः' इत्युक्तत्वात् ।'
इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह सोमदेवसे परवर्ती है । सोमदेवने यशस्तिलकको रचना शकाब्द ' ८८१ ( ई० ९५९) में की है और वादिराजने अपना पार्श्वचरित शकाब्द ९४७ ( ई० १०२५ ) में समाप्त किया है।
उपर्युक्त बाधकोंका समाधान इस प्रकार है
(१) 'जीवन्धर स्वामीके चरितका तुलनात्मक अध्ययन' नामक स्तम्भमें उत्तरपुराणको संक्षिप्त कथावस्तु देकर यह स्पष्ट किया गया है कि वादीमसिंहको गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणिका आधार गुणभद्रका उत्तरपुराण नहीं है। क्योंकि स्थान, पात्रोंके नाम आर वृत्तवर्णनमें यत्र-तत्र भेद है। यह कथा उपन्यासकी तरह काल्पनिक नहीं कि लेखक अपनी इच्छानुसार पात्रोंके नाम आदि परिवर्तित करने स्वतन्त्र हो; किन्तु सत्यकथा है। इसमें कवि अपना कवित्व हो प्रकट कर सकता है नाम, स्थान आदिमें परिवर्तन नहीं कर सकता। फुटनोटमें गद्यचिन्तमणिकी कथाका अन्तर भी दिया गया है जिससे उक्त कथनका समर्थन होता है। यद्यपि वाण कविने बृहत्कथामंजरीसे कादम्बरीकी कथा लेकर बहुत-से नामोंमें परिवर्तन किया है परन्तु वह कोरी काल्पनिक कथा है उसका इस सत्य कथामें उदाहरण ग्राह्य नहीं हो सकता।
(२) बल्लाल कविका भोजप्रबन्ध बहुत पीछेका (१६०० शताब्दीका) ग्रन्थ है और उसमें ऐतिहासिकताको जो दुर्दशा दी गयो उसे देखते हुए कोई भो इतिहासज्ञ उसके उल्लेखको प्रमाणकोटिमें रखने में हिचकिचाता है। क्या यह सम्भव नहीं है कि बल्लालके उक्त वचनोंपर वादोभसिंहका ही प्रभाव हो?
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प्रस्तावना
(३) श्रुतसागर सूरिके यशस्तिलक चम्पूको टीकावाले उद्धरणका जबतक कहीं अन्य स्थलोंसे समर्थन नहीं होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमें नहीं लिया जा सकता। न्यायविनिश्चयालंकारको प्रशस्तिमें वादिराजने अपने गुरुका नाम मतिसागर बतलाया है और वादीभसिंह पुष्पसेनका स्मरण करते हैं तब उनको सोमदेवको शिष्यता निर्धान्त कैसे हो सकती है?
इनके शिवाय श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६ किरण २ में प्रकाशित 'क्या वादीसिक अवलंक देवके समकालीन है ?' शीर्षक लेखमें 'मद्रास और मैसुर प्रान्तके जैन स्मारकके १० शिलालेख उद्धत कर उनमें उल्लिखित 'अजितसेन पण्डित देव', 'मुनिवादीसिंह अजितसेन', 'अजितसेन पतिदेव वादिघरट्र', 'अजित मनिपति', 'अजितसेनभट्टारक और मुनि अजित सेन देव' को गद्यचिन्तामणिकार वादोभसिंह मूरि स्वीकृत कर उन्हें ११वीं शताब्दीका विद्वान् प्रकट किया है परन्तु उन उल्लेखोंमें एक भी उल्लेखसे उल्लिखित अजितसेनोंका गद्यचिन्तामणिका कर्तत्व सिद्ध नहीं होता। क्या यह सम्भव नहीं है कि वे अजितसेन दूसरे हों। उक्त शिलालेखोंमें 'उन्हें चरण धोकर भूमि दो' आदिका ही अधिकांश उल्लेख है अतः घे मठाधीश ही जान पड़ते हैं गणभृत् अथवा नि:स्पृह सुरि नहीं । साथ ही उनमें उनके द्राविडसंघ तथा अरुंगलान्वय आदिका उल्लेख है जब कि वादी भसिंहके संघ तथा अन्वय आदिका कहीं उल्लेख नहीं है।
वादोभसिंहको निःस्पृहता-वादोभसिंहका समग्र जीवन अत्यन्त पवित्र जान पड़ता है। उन्होंने अपने साहित्यमें जहां-तहाँ स्त्री पात्रका जो वर्णन किया है उससे विदित होता है कि सम्भव है वे बालब्रह्मचारी रहे हों और छोटी अवस्थामें ही उन्होंने गुरुजनोंके सम्पर्कमें रहकर अध्ययन किया हो। वादीसिंह-जैसे बहमुखी पाण्डित्यके लिए बाल्पावस्थासे ही गुरुजनोंका सम्पर्क अपेक्षित है। वावीसिंहकी रचनाएँ
वादीभगिह बहुत ही प्रतिभाशाली प्राचार्य थे। आपके वाग्मित्व कवित्व और गमकत्वकी प्रशंसा जिनसेनाचार्य-जैसे महाकावन को है। मापक 'वादाभासह' नामसे जो कि एक उपाधि जान पड़ती है आप एक बरे ताकिक जान पड़ते हैं । 'क्षत्रचूडामणि' और 'गचिन्तामणि' इन दो ग्रन्थोंके प्रकाशमें आनेपर भी आपके नामको सार्थकताके लिए प्रत्येक विद्वान्के हृदयमें यह आशंसा विद्यमान थी कि आपका कोई न्यायका भी प्रत्य होना चाहिए। पर सौभाग्यसे आपका वह न्यायग्रन्थ 'स्याहादसिद्धि' उपलब्ध हो गया है और उसके द्वारा आपके नामको सार्थकता सिद्ध हो गयी है। इस तरह अब आएको कृतियोंमें 'स्याद्वादसिद्धि', 'क्षत्रच डामणि' और 'गद्यचिन्तामणि' ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं। 'प्रमाणनौका' और 'नवपदार्थविनिश्चय' ये दो ग्रन्थ भी वादोभसिंहके माने जाते हैं, पर सामने न होनेसे उनके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता। हाँ, 'नवपदार्थ निश्चय' के विषय में बनेकान्त वर्ष १० किरण ४-५ के आधारपर यह कहा जा सकता है कि वह इन, वादीसिंह सूरिकी रचना नहीं है। उसके समातिपुष्पिका बाक्यमें 'भद्रारक वादोभसिंहमूरि' को कृति प्रकट भी किया गया है।
उपलब्ध तीन कृतियोंका परिचय इस प्रकार है
१. स्याद्वादसिद्धि-ग्रन्थके नामकी सार्थकता उसके प्रतिपाद्य विषयोंसे स्पष्ट है । इसके १ जीवसिद्धि, २ फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि, ३ युगपदनेकान्तसिद्धि, ४ क्रमानेकान्तसिद्धि, ५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि, ६ सर्वज्ञाभाव. मिद्धि, ७ जगलतत्वाभावसिद्धि, ८ अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि, ९ अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि, १० वेदपौरुषेयत्वसिद्धि, ११ परत:प्रामाण्यसिद्धि, १२ अभावप्रमाणदूपण सिद्धि, १३ तर्कप्रामाण्यसिद्धि और १४ गुणगुणो अभेदसिद्धि इन १४ अधिकारों द्वारा अनुष्टप् छन्दमें प्रतिपाद्य विषयोंका निरूपण किया गया है। अधिकारों के अन्तमें जो पुस्तिकावाक्य हैं उनमें वादीभसिंह-द्वारा रचित होनेको स्पष्ट सूचना है, ग्रन्थ अपूर्ण है । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला
१. देखो, न्यायकुमुद चन्द्रोदयको प्रस्तावना, पृष्ठ : पार और 'जनसाहित्य और इतिहास' पृष्ठ २२३, द्वितीय संस्करण ।
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गधचिन्तामणिः
बम्बईको ओरसे इसका प्रकाशन हुआ है। समाजके प्रतिष्टित विद्वान् श्रीदरबारीलालजी न्यायाचार्य, एम. एक-द्वारा पाण्डित्यपूर्ण सम्पादन हुआ है। मागचन्द्र ग्रन्थमालालयमानुसार यह मूलमात्र ही प्रकाशित हुआ है किसी अन्य प्रकाशन संस्थाकी ओरसे इसका हिन्दी अनुवाद-सहित प्रकाशन होना अपेक्षित है।
२. क्षत्रचूडामणि-यह भगवान महावीर स्वामीके समकालीन राजा सत्यन्धरको विजयारानीके पुत्र जीवन्धर कुमारका वृत्तवर्णन है । इनका जीवनवृत्त अनेक घटनाओंसे भरा हुआ है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंका फल प्रदर्शन करने में अद्वितीय है। ग्रन्थको रचना ग्यारह लम्बोंमें अनुष्टुप छन्द-द्वारा हुई है। खास विशेषता यह है कि प्रायः इसके प्रत्येक पद्यके पूर्वाध कथाका वर्णन क उत्तरार्धमें अर्थान्तरन्यास-द्वारा नीतिका वर्णन करता चलता है। इस शैलोसे लिखा हुआ यह नीतिका ग्रन्य समग्र संस्कृत-साहित्य में बेजोड़ है। कोआ, चहा, मग आदिकी काल्पनिक कहानियों के द्वारा बालकोंमें मोतिको भावना भरनेवाले पंचतन्त्र आदि अन्य जहाँ बालकों तक ही सीमित रह जाते हैं वहीं सत्य घटनाके द्वारा नीतिको भावना उत्पन्न करनेवाला यह अन्य आबालवृद्ध-सबके लिए उपयोगी बन पड़ा है। सर्वप्रथम टी० एस० कुप्पुस्वामी-द्वारा इसका तुलनात्मक टिप्पण के साथ मूलरूपमें प्रकाशन हुआ था। पीछे चलकर पाठ्यग्रन्थ हो जानेसे स्व. पं० निद्धामल्लजी तथा पं० मोहनलालजी काव्यतीर्थ-द्वारा इसके अनुवाद भी प्रकाशित किये गये हैं पर इन अनुवादोंमें भी यदि कुप्पुस्वामीको सम्पादन-शलोको ही स्थान मिलता तो वे अधिक हितावह होते।
३. गद्यचिन्तामणि-गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूड़ामणिका कथानक एक है, कथानायक एक है, पात्र, स्थान आदि एक हैं। यहांतक कि लम्भ भो दोनों के ग्यारह-ग्यारह ही हैं । घटनाका सादृश्य भी दोनों का मिलता-जुलता है । इसके प्रारम्भमें जिनेन्द्रदेव, गणधर, जिनधर्म और स्यात्पदसे चिह्नित जिनवाणीको मंगल स्तुति करनेके अनन्तर समन्तभद्रादि पूर्व मुनियोंका स्मरण किया गया है । वादीभसिंह स्वयं वाद-कलामें निपुण थे और स्याद्वादवाणीकी गर्जनासे बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानोंका मदध्वंस करनेवाले थे अतः उन्होंने समन्तमद्रादि मुनियोंके अन्य गुणोंको गौण करते हुए 'वाग्वजनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः' विशेषणद्वारा उनकी वादनिपुणताका ही उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि वे समन्तभद्रादि मुनीश्वर जयवन्त हों जो सरस्वतीके स्वतन्त्र विहारकी भूमि हैं और जिन्होंने अपने वचनरूप बनके निपातसे विरुद्ध सिद्धान्तरूपी पर्वतोंके शिखरोंको विदीर्ण कर दिया है । तदनन्तर अपने गुरु पुष्पसेनका स्मरण कर सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन निन्दाको पद्धतिको पूरा करते हुए श्रेणिकके प्रश्नपर सुधर्म गणनायकके द्वारा जीवन्धरको कथाका पोद्धात किया गया है।
___ गद्यचिन्तामणि गद्य काव्य है और पूराका पूरा प्रौढ़ गद्यमें लिखा गया है। दो-तीन स्थलोंपर कुछ पद्य भी दिये गये है जो स्तति आदिके रूपमें आवश्यक प्रतीत होते हैं। गद्यचिन्तामणिके विशिष्ट गणोंकी चर्चा करते हुए इसके प्रथम पुरस्कर्ता श्रीकुष्णस्वामोने बड़ो सुन्दर पंक्तियाँ लिखी है--
'अस्य काव्यपथे पदानां लालित्यं श्राव्यः शब्दसंनिवेशः निरर्गला वाग्वैखरी सुगमः कथासारावगमश्चित्तविस्मापिकाः कल्पनाश्चेतःप्रसादजनको धर्मोपदेशो धर्माविरुद्धा नीतयो दृष्कर्मणो विषमफलावासिरिति विलसन्ति विशिष्टगुणाः" ।
अर्थात् 'इनके काव्यपथमें पदोंको सुन्दरता, श्रवणीय शब्दोंकी रचना, अप्रतिहत वाणी, सरल कथासार, चित्तको आश्चर्य में डालनेवाली कल्पनाएँ, हृदयमें प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला घर्मोपदेश, घमसे अविरुद्ध नौतियां और दुष्कर्मके फलको प्राप्ति आदि विशिष्ट गुण सुशोभित है ।'
1. सरस्वतीस्वरचिहारभृमयः ममन्तमप्रमुखा मुनीश्वयाः I जयन्तु वाग्वज्रनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ॥५॥ग चि० । २. गद्यचिन्तामणि-प्रस्तावमा ।
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प्रस्तावना
लेप उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या, विरोधाभास तथा उल्लेख आदि अलंकारोंके पटने गद्यकी सभा चार चाँद लगा दिये है। बाणने श्रीहर्षचरितम आदर्श गद्य के जिन गुणोंका वर्णन किया है वे नवीन अर्थ, अग्राम्य जाति, स्पष्ट श्लेष, स्फुटरस और अक्षरकी विकटबन्धता गद्यचिन्तामणिमें सबके सब अवतीर्ण है। अटवीमें झाड़-झंखाड़ोंका कोई व्यवस्थित क्रम नहीं रहता परन्तु मनुष्यकृत उद्यानमें पुष्पितपल्लवित लताओं, हरे-भरे वृक्षों और आवश्यकतानुसार निर्मित पादपकेदारिकाओंका एक व्यवस्थित और सुन्दर क्रम रहता है जिससे उसकी शोभा निखर उठती है। गद्य और पद्य काव्यमें भी कवि अपनी वर्णनीय उत्तओंको इस सून्दर क्रमसे सजा-सजाकर रखता है कि वह एकदम सहृदय मनुष्योंके हृदयको आह्लादित करनेवाली हो जाती है। हम प्रतिदिन देखते है कि प्राचीमें सूर्योदय हो रहा है, आकाशमें रात्रि के समय असंख्य तारोंका समूह और उज्ज्वल चन्द्रमा चमक रहा है, कल-कल करती हुई नदियाँ बह रही हैं, वनके हरे-भरे मैदानों में हरिणोंके झण्ड चौकड़ियां भर रहे हैं, मकानके छज्जोंपर बैठे कबूतरोंको पकड़नेको घातमें बिल्ली दुबककर बैठी हुई है, पूँछ हिलाता और लोद करता हुआ एक घोड़ा हिनहिना रहा है और बिजलीको कौंधसे बच्चे तथा स्त्रियाँ भयभीत हो रही हैं, पर उन सब दृश्यों में आह्लाद कहाँ ? दर्शकके हृदय में रस कहाँ उत्पन्न होता है? किन्तु यही सब वस्तुएं जब किसो कविकी लेखनीरूपी तुलिकासे सजाकर रख दी जाती है तो काव्य बन जातो है और श्रोताओंके हृदयमें एक अजीब-सा रस-आह्लाद उत्पन्न करने लगती हैं। गद्यचिन्तामणिमें भो कविने इन सब चीजोंको ऐसा संभालकर रखा है कि देखते ही हृदय आनन्दसे भर जाता है। कवि जहाँ स्त्री-पुरुषोंका नख-शिख वर्णन करता हुआ उनके बाह्य सौन्दर्यका वर्णन करता है वहां उनकी आभ्यन्तर पवित्रताका भो वर्णन करता चलता है। 'राजा सत्यन्धरका पतन उनकी विषयासक्तिका परिणाम हैं। यह बतलाकर भो कवि उनकी श्रद्धा और धार्मिकताके विवेकको अन्त तक जागत रखता है। युद्धके मैदान में भी वह सल्लेखना धारण कर स्वर्ग प्राप्त करता है ।
गद्यचिन्तामणिको रीढ-जो विजया प्रातःकाल राज्य-महिषीके पदपर आरूढ थो वही राजा सत्यन्धरका पतन हो जाने पर सायंकाल स्मशानभं गड़ा है और राक घनघोर अन्धकारमें मोक्षगामी कथानायक जीवन्धरको जन्म देती है। रानी विजयाको आँखों में अपने पुत्रके जन्मोत्सवको सकी झल रही है और वर्तमानकी दयनीय दशापर भेत्रोंसे मांस बरस रहे है। उस समयका बह दृश्य कितना करुणाबह और कितना वैराग्यजनक बन पड़ा है इसे प्रत्येक सहृदय व्यक्ति समझ सकता है। अपने सद्योजात पुत्रको दूसरेके लिए सौंपनेपर भी उसके हृदयमें वह विकलता कविने नहीं आने दी है जो अन्य माताओंमें देखी जाती है। विजया अपने भाई विदेहाधिप गोबिन्दके घर जाकर अपमानके दिन बिताना पसन्द नहीं करता है किन्तु दण्डक वनके तपोवनमें तापसोके वेपमें रहकर अपने विपत्तिके दिन काटना उचित समझती है। क्षत्रचड़ामणि कविने बहत सन्दर कहा है कि. 'जो रानी पहले शय्यापर पडे फुलको बोंडोसे भी कराह उठती थी वह आज घास-फूसकी शय्याको बड़ा मान रही है। और तो क्या अपने हाथरो काटा हुआ नीवार.-जंगलो घान्य ही उसका आहार है।'.."यह सब विपत्ति बह भोग रही है फिर भी अपने मनोमन्दिरमें जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंका ध्यान करती रहती है। माताका वात्सल्यसे परिपूर्ण हृदय चाहता है कि मैं अपने पुत्रको खिला-पिलाकर आनन्दका अनुभव करूं । दण्डकवन में विजया माता हरोहरी दूबके अंकुरोंको उखाड़कर हरिणोंके बच्चोंको खिला-खिलाकर हृदयमें यथा-कथंचित् सन्तोष धारण करती है। आगे चलकर उसी दण्ड कवनों जीवन्धरके सखा-साथियोंसे जब काष्ठांमारके द्वारा उसके प्राणदण्डका अपूर्ण समाचार सुनती है तब उसका हृदय भर आता है; आँखोंसे सायनको झड़ी लग जाती है और दण्डकवनका तोवन एक आकस्मिक करुण क्रन्दनसे गूंजने लगता है। पुत्रके प्रति माताको ममताको मानो कविने उडेल
1. नवोऽर्थी जातिरग्राम्या श्लेषः स्पष्टः म्फुटो रमः । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ॥ इपंचरित । २. अनल्पतूलतल्पस्य सन्तपसवादपि । निर्भरं हन्त सदस्य भशस्याप्यरोचत १०३|| स्वहस्तलूननीवारोऽप्याहागेऽस्याः परेण किम् । अवश्यं हनुमोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥१४॥
-क्षम्रचूडामणि, कम्ब।
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गश्चिन्तामणिः
कर रख दिया है। अन्तमें पूर्ण समाचारके सुननेपर उसका हृदय सन्तोपका अनुभव करता है। सखाओंद्वारा माताके जीवित रहनेका समाचार प्राप्त कर जीवन्धरका हृदय भी माताका पवित्र दर्शन करने के लिए अघोर हो उठता है। वे सास-श्वसुर और श्वसुरालयके सभी लोगों के रोकनेपर भी अपने सखाओंके साथ माताके पास दुतमतिसे आते हैं और माताके दर्शन कर गद्गद हो जाते है। यह प्रकरण गचिन्तामणिकी रोढ़ है । कविने इतनी कुशलतासे इसका वर्णन किया है कि पाठकका हृदय आनन्दसे विभोर हो जाता है।
गद्यचिन्तामणिका प्रकृति-वर्णन-संस्कृत साहित्यमें प्रकृति-वर्णनके लिए महाकवि भवभूतिकी प्रसिद्धि है, परन्तु जब हम गद्यचिन्तामणिका प्रकृति-वर्णन देखते हैं तब कहीं उससे भी अधिक आनन्दका अनुभव होता है। निर्मल 'अन्तरिक्षमें फैली हुई चाँदनी, रात्रिका धनघोर अन्धकार, सूर्योदय, सूर्यास्त, राणा हुआ मुर, पाताना मन्द तीनल और सुगन्धित समीर, पक्षियोंका कलरव, हरे-भरे कानन, आकाशमें छायी हुई श्यामल घनघटा; दावानल और उसके बीच में रुके हुए हाथियोंके झुण्ड, जन-जनके मानसमें आनन्द उत्पन्न करनेवाला वसन्त, मेघटिके बाद बहता हआ पानीका प्रवाह, ग्रीष्मके रूक्ष दिन और पावसके सरस दिन-इन सबका कविने जितना सरस वर्णन किया है उतना हम अन्यत्र कम पाते हैं। सबके उद्धरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी कुछ पंक्तियां उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सक रहा हूँ। देखिए छठे लम्बमें जीवन्धर कुमार एक तपोवनसे आगे चलकर कतिपय काननोंको दृष्टिगोचर कर रहे हैं।
'विहितप्रगेतनविधिस्ततो विनिर्गत्य सात्यन्बरिरन्धकारितपरिसराणि-क्वणदलिकदम्बकबलितशिखरकुसुमतुङ्गतरुसहस्राणि, विशृङ्खलखेलत्कुरङ्ग-खुर पुटमुद्रितसिकतिलस्थलाभिरम्याणि, स्वच्छसलिलसरःसमुद्भिन्नकुमुदकुवलयमनोज्ञानि, विमलवनापगापुलिनपुज्जितकलहंसरसितरञ्जितश्रवणानि, दृप्यच्छावरशृङ्गकोटिविघटनविषमिततुङ्गकच्छानि, विचित्रसुमनःपरिमलमांसलसमीरसंचारसुरभोकृतानि, कानिचित्काननानि नयनयोरुपायनीचकार।
गद्यचिन्तामणिका रस परिपाक-शब्द और अर्थ काव्यके शरीर है, तो रस उसको आत्मा है । साहित्यमें श्रृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वोर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ रस हैं। मरत मनिने वात्सल्य नामक दसवा रस भी माना है। इन सभी रसोंका गद्यचिन्तामणिमें अच्छा परिपाक हा है । कथानायक जीवन्धर कुमारको गन्धर्वदत्ता आदि आठ नयी नवेलो वधुएं हैं। उनके साथ पाणिग्रहणके बाद शृंगारका अच्छा परिपाक हुआ है पर खास बात यह है कि कविने उस शृंगारवर्णनमें कहीं भी अश्लीलता नहीं आने दो है। नवम लम्भमें जीवन्धर कुमार एक जर्जरकाय वृद्धका रूप बनाकर जब सुरमंजरीके घर पहुंचते हैं और 'कुमारीतीर्थको प्राप्तिके लिए घूम रहा हूँ' इन शब्दों-द्वारा अपने आगमनका प्रयोजन बताते हैं तब मानो हास्यका झरना ही फूट पड़ता है। वे अपने दिव्य संगीतसे सुरमंजरीको प्रभावित कर तथा मनचाहा वर प्रदान करनेका प्रलोभन दे अनंगगहमें ले जाते हैं और अनंग प्रतिमाके सामने सुरमंजरीके द्वारा चिरकांक्षित जीवन्धरके प्राप्त होनेको प्रार्थना की जाती है तथा छिपे हुए बुद्धिषेणके द्वारा 'लब्धो घर:' का उच्चारण होनेपर जब जर्जर-शरीर वृद्ध, जोबन्धर कुमारके वेषमें प्रकट होता है तब रोनी मुद्रावाले मनहूस पाटक भी एक बार खिलखिला उठते हैं । विजया माताके चित्रण तथा द्वितीय लम्भमें भीलों-द्वारा मोपोंकी गायोंके चुरा लिये जानेपर कविने जो गोपोंवी वसतिका वर्णन किया है तथा माताओंके अभावमें भूखसे पीड़ित गायोंके दुधमुंहे बछड़े जब गोपियोंके स्तनोंपर अपने मुख लगा देते हैं तब करुष्य रसका परिपाक सीमाके बाँधको लांघ जाता है और बवादपि कठोर मनुष्यके नेत्रोंसे शोकके गरम-गरम
आँसू निकल पड़ते हैं । काठांगारकी क्रूरता जब हितावह मार्गका प्रदर्शन करनेवाले धर्मदत्त आदि सचिवोंका वध करता है तथा अपने उपकारी राजा सत्यन्धरको मारकर अपनो कृतघ्नताका परिचय देता है तब रौद्ररस अपनी रुद्रतासे सत्पुरुषों के हृदयमें भय उत्पन्न कर देता है। गन्धबंदत्ता तथा लक्ष्मणाक स्वयंवरके बाद जोवन्धर कुमारने युद्धोंमें जो अपनी शूरता दिखायी है और काष्टांगारको मारनेके बाद भी उसके परिवारको
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प्रस्तावना
जो राजमहल में ही रहनेको उदारता प्रदर्शित की है उससे वीररसका उत्तम परिपाक हुआ है । चतुर्थ लम्भमें वनक्रीडासे लौटते समय काष्ठांगारका अशनिघोष हायी रुष्ट होकर गुणमालाके प्रति झपटा चला आ रहा है । भयसे भोत हो उसके सखा-साथी तथा शिविकाके बाहक भी भाग गये है, और भयसे काँपती हई गुणमाला एक बड़ा धायके पीछे खड़ी-खड़ो अनाशंसित मृत्युकी प्रतीक्षा कर रही है"यह भयानक रसका कितना पार वर्णन है। श्मशान में जलती हुई चिताओं और उनकी लपट में जलते हर नर-शवोंका वर्णन बीभत्स राका दश्य सामने रखता है तो लक्ष्मणाके स्वयंवर में जीवन्धर कुमारके द्वारा सहसा चन्द्रकबेधका होना अदभत रसको उपस्थित कर देता है । अन्तिम लम्भमें वनपालके द्वारा वानरीके हाथसे तालफल छीन लिया जाता है इस दश्यको देखकर जीवन्वरके मुखसे निकल पड़ता है-'मद्यते वनपालोऽयं काष्टाङ्गारायते हरिः' और उनका हृदय संसारकी दशा देख वैराग्यसे सराबोर हो जाता है। मुनिराजके मुखसे धर्मोपदेश होता है और जोबन्धर स्वामी सब राज्यपाट छोड़ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं यह सब शान्त-रसका परम परिपाक है। इस तरह गद्यचिन्तामणिमें अंगोरस शान्तरस है और अंगरूपमें शेष आठ रस स्थान-स्थानपर अपनी गरिमा प्रकट कर रहे हैं। विजयाके चरित्र-चित्रणमें वात्सल्य रस भी अपनी आभा दिखला
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गद्यचिन्तामणि तथा क्षत्रचूडामणिपर अन्य कवियोंका प्रभाव-चिन्तामणि तथा क्षत्रचूड़ामणिको देखनेसे लगता है कि कान्यके विषयमै इनपर पूर्ववर्ती कालिदास, बाण, सुबन्धु तथा दण्डी आदि. का प्रभाव है तो धर्म और दर्शनमें समन्तभद्र, पूज्यपाद, शिवायं और अकलंकका प्रभाव परिलक्षित है। यहां कुछ तुलनात्मक उद्धरण देखिए१. 'प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्धरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः' ।।
-रघुवंश सर्ग, १, श्लोक २४ सुझादुले प्रजानी लाभूतां प्रजापतेः । प्रजानां जन्मवर्ग हि सर्वत्र पितरो नृपाः ।।'
-क्षत्र०, लम्भ ११, श्लोक ४ 'रात्रिदिवविभागेषु यदादिष्टं महीक्षिताम् । तसिषेवे नियोगेन स विकल्पपराङ्मुखः ।'
-रघुवंश सर्ग, १७, श्लोक ४९ 'रात्रिदिवविभागेषु नियतो निर्यात व्यधात् । कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ॥'
क्षत्र०, लम्भ ११, श्लोक ७ 'स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् । अनन्यशासनामुरु शशासकमहीमिव ।'
-रघुवंश, सर्ग १, श्लोक ३० 'प्रबुद्धेऽस्मिन् भुवं कृत्स्ना रक्षत्येकपुरोमिव । राजन्वती च भूरासीदन्वयं रत्नसूरपि ॥'
–क्षत्र, लम्भ ११, श्लोक ९ २. 'अनित्याः शत्रयो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः । अतः सोऽभ्यन्तरान्नित्यान् घट्पूर्वमजाविता ॥४५॥
कातर्य केवला नीति: शौर्य' श्वापदचेष्टितम् । अत: सिद्धि समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः ॥४७॥ न तस्य मण्डले राज्ञो न्यस्तप्रणिधिदीधितेः । अदृष्टमभवत्किचिचभ्रस्येव विवस्वत: ॥४८॥ रात्रिदिवविभागेषु यदादिष्टं महीक्षिताम् । तसिषेवे नियोगेन स विकल्पपराङ्मुखः ॥४९॥ कामं प्रकृतिवैराग्यं सद्यः समयितुं क्षमः ! यस्य कार्यः प्रतीकार्यः सः तन्नवोदपादयत् ।।५०॥'
-रघुवंश, सर्ग १७ 'असौ राजा बाह्यममित्रजातमध्रुवमतिविप्रकृष्टं चेत्यात्मनिष्ठमरिषड्वर्ग व्यजेष्ट । असहाया नीति: कातर्यावहा शोर्य' च श्वापदचेष्टितमित्यभीष्टसिद्धिमन्विताभ्याममभ्यामाकाङ्क्षीत् । सप्रणिधानं प्रहित
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गथचिन्तामणि:
प्रणिधिनेत्रः शत्रुमित्रोदासीनमण्डलेषु तैरज्ञातमप्यज्ञासीत् । राज्ञां रात्रिंदिवविभागेषु यदनुष्ठेयमिदमित्यमवतिष्ठत् । जातमपि सद्यः शमयितुं शक्तोऽपि सदा प्रबुद्धतया प्रतीकारयोग्यं नाजीजनत् । किं बहुना राजन्वती मवनिमतानीत् ॥ "
---गद्य चिन्तामणि, लम्ब ११, पैराग्राफ ३ ३. ‘सेकान्ते मुनिकन्याभिः कारुण्योज्झितवृक्षकम् । विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपायिनाम् ॥५१॥ आतपात्ययसंक्षिप्त नोवारामु निषादिभिः । मृगैर्वतित रोमन्यमुटजाङ्गणभूमिषु
॥५२॥
-- रघुवंश, प्रथम सगं 'वासरावसानसंक्षिप्तनोवाराङ्गणनिषादिमृगगण निवर्तित रोमन्थम्, आलवालाम्भःपान लम्पटविह्गपेटकविश्वासकृते सेकान्तविसृष्टवृक्षमूलमुनि कन्यकावि वृत्तकारुण्यम्, दण्डकारण्याश्रममधिवसन्तीम् ।
गद्यचिन्तामणि, लम्भ ८, पैराग्राफ १३
४. 'मात्रा स्वत्रा दुहिया वा न विविकासनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति || तप्ताङ्गारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान् । तस्माद् घृतं च वह्नि च नैकत्र स्थापयेद् बुधः ॥' मानवीयधर्मशास्त्र
'अङ्गारसदृशी नारी नवनीतसमा नराः । तत्तत्साग्निध्यमात्रेण द्रवेत् पुंस हि मानसम् ॥४१॥ संलापवासहासादि तद्वज्यं पापभीरुणा । बालया वृद्धया मात्रा दुहित्रा वा व्रतस्थया ॥४२॥' — क्षत्र चूड़ामणि, लम्भ ७
५. 'तात चन्द्रापीड ! विदितवेदितव्यस्याधीत सर्वशास्त्रस्य ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति । केवलं च निसर्गत एवाभानुभेद्यमतिगहनं तमो योवनप्रभवम् । दारुणो लक्ष्मीमदोऽत्यन्ततीव्रो दर्पदाहज्वरोष्मा । कादम्बरी, पृष्ठ २२१ अमन्त्रगम्यो विषयो विषयविषास्वादमोह इत्यतो विस्तरेणाभिवीयसे'
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'वत्स, बलनिषूदन पुरोधसमपि स्वभावतीक्ष्णया धिषणया धिक्कुर्वति सर्वपथोनपाण्डित्ये भवति पश्यामि नावकाशमुपदेशानाम् । तदपि कलश भवसहस्रेणापि कवलयितुमशक्यः प्रलयतरणिपरिषदाप्यशोष्यो यौवनजन्मा मोहमहोदधिः । अशेषभेषजप्रयोगवैफल्य-निष्पादन दक्षो लक्ष्मीकटाक्ष विक्षेपविसर्पीदर्पज्वरः । पुरोवार्त्यपि वस्तु न विलोकयितुं प्रभवतः प्रभूतैश्वर्यमदकाच कञ्चुकित रोचिषी चक्षुषी । मन्दोकृतमणिमन्त्रीषधिप्रभावः प्रभावनाटकनटनसूत्रधारः स्मयापस्मार इति किचिदिह शिक्ष्यसे ।
— गद्यचिन्तामणि, लम्भ २, पैरा० १३
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उसे निर्णयसागर बम्बईसे प्रकाशित अष्टम कादम्बरी का शुकनासोपदेश अत्यन्त प्रसिद्ध प्रकरण संस्करण के पृष्ट २२१ से पृष्ठ २३८ तक देखें और उसके बाद गद्यचिन्तामणिके पैराग्राफ ५९ से ६७ तक आर्यनन्दी गुरुके द्वारा जीवन्धर के लिए दिया हुआ उपदेश देखें। दोनों में विश्व प्रतिबिम्बभाव होनेपर भी एक विभिन्न प्रकारकी विचित्रता अनुभव में माती है ।
वासवदत्ता और गद्यचिन्तामणि - संस्कृत गद्य लेखकों में सुबन्धु कालको दृष्टिसे प्रथम गद्य लेखक माने जाते हैं । आपकी 'वासवदत्ता' राजकुमार कन्दर्पकेतु और वासवदत्ताको प्रेम कथा है । कथानक अत्यन्त संक्षिप्त है फिर भी कविने अपने काव्य कौशलसे उसे अलंकृत और विस्तृत किया है। वासवदत्ताका श्लेष संस्कृत साहित्य में अत्यन्त प्रसिद्ध है । वाणभट्टने उसको आलोचना में लिखा है किए 'वासवदत्ताके द्वारा कवियोंका गर्व निश्चित ही गल गया था । यह सब होनेपर भी कथाकी अत्यल्पता और अलंकारोंको
१ 'कवीनामगक नूनं वासवदस्या । शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कर्णगोचरम् ।।'
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प्रस्तावना
भरमारने उसके सौन्दर्यका घात विया है परन्तु गद्यचिन्तामणिमें हम यह बात नहीं देखते। उसकी कथा सोचक और उत्तम घटनाओंसे युक्त है। जिस प्रकार किसी शुभ्रवदना युवतीके शरीरपर परिमित और उज्जवल अलंकार शोभा देते है उसी प्रकार गद्यचिन्तामणिकी सरस गद्य-धारापर सारगर्भित अलंकार सुशोभित हो रहे है । आखिर अलंकार अलंकार ही है प्राण नहीं ।
कादम्बरी और गद्यचिन्तामणि-बाणभट्टका संस्कृत गद्य-लेखकोंमें कालको दृष्टिसे दूसरा नम्बर
नक हपंचरित और कादम्बरी-दो अन्ध अत्यन्त गौरबको प्राप्त है। इनके देशाटनने इनका अनुभव बनाया था। मा राजा हरवर्धनके सम्मान्य कवि थे। आपकी उज्ज्वल और सरस गद्य-दौलीसे वादीसिंह प्रभावित जान पड़ते हैं और ऐसा लगता है कि इनके उक्त ग्रन्थोंसे ही बादीभसिंहको गद्यचिन्तामणि लिखनेकी प्ररणा मिली होगी। परन्तु कादम्बरीकी बल्पकाय कथा, लम्बायमान विशेषण बहुल गद्योंमें उलझी हुई जान पड़ती है। बाणने बिन्ध्याटवी, राजद्वार, इन्द्रायुध, अश्व, अच्छोद सरोबर, महारवेता तथा कादम्बरी, आदि जिम-किसका भी वर्णन किया है उसे विशेपणोंकी तहमें इतना तिरोहित कर दिया है कि पाठकको जसकी बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । भाषाके द्वारा रसको अभिव्यक्ति होना चाहिए न कि उसका तिरोभाव । 'वंबरने बाणको शैली को आलोचना करते हुए लिखा है कि 'यह एक भारतीय जंगल है। इसमें यात्री जब. तक अपन लिए स्वयं झाड़ियों को काटकर मार्ग न बनावें, तबतक उसके लिए मार्ग मिलना असम्भव है। इसके बाद भी अप्रचलित शब्दोंके रूपसे भयंकर जंगली पशु उसको भयान्वित करते हुए प्राप्त होते है। गनिन्तामणिम हम यह बात नहीं देखते। कविने उसके भापाके प्रवाहको उतना ही प्रवाहित किया है जिससे रसवक्ष सींचा तो गया है परन्तु डुबाया नहीं जा सका है।
दशकुमारचरित और गद्यचिन्तामणि-संस्कृत-साहित्यमें दण्डी कवि अपने पद-लालित्यके लिए प्रसिद्ध है। इनका 'दशकुमार चरित' यह एक ही ग्रन्थ उपलब्ध है। इसमें दशकुमारोंका चरित्र-चित्रण है। जिनमे अपहारवा आदिवा चरित्र इतनी घटनाओंगे भर दिया है कि पाठकको उसका अवधारण करना भी कठिन हो जाता है । ग्रन्थके प्रारम्भमे भाषाका जो प्रवाह प्रदर्शित है वह उत्तरोत्तर क्षीण होता गया है और अन्तम तो सिर्फ कथानका अस्थिजाल हो शेष रह गया है परन्तु गद्यचिन्तामणिमें इस बातका ध्यान रखा गया है। इसका कथानक पौराणिक होनेपर भी कविने उसे काव्यको ललित वेष-भूषामें ही प्रस्तुत किया है और भापाके प्रवाहको महानदीके प्रवाहके समान प्रारम्भसे लेकर अन्त तक अखण्डधारामें प्रवाहित किया है।
गद्यचिन्ताणिका शब्द-वैभव-पद्यमें नपे-तुले शब्द रहते हैं अतः लेखकका शब्द-भाण्डार सीमित होनेपर भी वह अपने कार्य में सफल हो जाता है परन्तु गद्य-काव्यके लेखकका शब्द-माण्डार जबतक अपरिमित नहीं होता तबतक उसे अपने कार्य में सफलता नहीं मिलती। शब्दोंकी पुनरुक्तता लेखककी ण। ब्दिक दरिद्रताका मूचित करती है और रसके प्रतिकूल शब्द-विन्यास भक्त-कवलके साथ दाँतोंके नीचे आये हुए कंकड़ो समान खटकने लगता है। शब्दोंकी पुनरुक्ततासे बचने के लिए गद्य-लेखकको नये-नये शब्द पने पढ़ते हैं। वादीमिहको भो गचितामणिकी शाब्दिक सुषमा सुरक्षित रखने के लिए नयेनये शाः गढ़ने पड़े हैं। जैसे चन्द्रमाके लिए यामिनीवल्लभ, निशाकान्त, गुर्य के लिए नलिन-सहचर, इन्द्रके लिए चरनिदन, पृथिवीके लिए अम्बुधिनेमि और मुनिके लिए यमधन आदि । ऐसे शब्दोंके अर्थ समझनेकमिा मात्र कोपके सहारे संस्कृत पढ़नेवाले कठिनाईका अनुभव करते हैं पर जो काव्य-विषयक पठनपारनमे अपम्न हैं उनके लिए कुछ भी कठिनाई नहीं रहती। गद्यचिन्तामणिमें कुछ ऐसे भी शब्द आये हैं जिनका उपरत्र सिद्ध कोपों में उल्लेख नहीं है सिर्फ प्रकरणकी संगति देखते हुए उनका अर्थ करना पड़ता है जेस खलूग, तिरोफल नाफल चिक्रोड, कृतज्ञ, शोफर प्रतिष्क आदि परन्तु ऐसे शब्द अत्यन्त
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१ देवी, संस्कृत साहित्यका इतिहास, पृष्ट १५६ ( रामनारायण काल, इलाहाबाद)
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गधचिन्तामगिः
गद्यचिन्तामरिसके प्रमुख पात्र १. महाराज सत्यन्धर-हेमांगद देश और राजपुरी नगरीके राजा थे। कथानायक जीवन्धरके पिता हैं। प्रजा तथा मन्त्री आदि मूलवर्गको अपने अधीन रखते थे, अत्यन्त शूर-बीर थे, यशस्वी ये और अपनी दान-वीरतासे कल्पवृक्षकी गरिमाको भी मन्द करनेवाले थे, कुरुवंश शिरोमणि थे। शत्रुओंको जीतकर जब अपने राज्यको स्थिर कर चुके तब विषयासक्तिके कारण राज्य-कायंसे विमुख हो गये । राज्यका कार्य काष्ठांमार मन्त्री के स्वायत्त कर आप राग-रंगमें मस्त हो गये । राजाके भविष्यको समझनेवाले धर्मदत्त आदि मन्त्री राजाको हितावह उपदेश देते हैं और काष्ठांगारका भरोसा न करनेकी प्रार्थना करते हैं परन्तु विषयासक्तिकी प्रबलता और काष्ठांगारके ऊपर जमे हुए अपने विश्वासके कारण मन्त्रियोंके हितकर उपदेशको उपेक्षित कर देते हैं। अन्त में काष्ठांगारकी दुरभिसन्धिके शिकार हो मृत्युको प्राप्त होते है। राजाको धर्म, अर्थ और कामका पारस्परिक विरोध बचाते हुए प्रवृत्ति करना चाहिए । जहाँ इनके विरोधको उपेक्षा होती है वहाँ पतन निश्चित होता है। राजा सत्यन्धर इसके उदाहरण है।
२. विजयारानी-विजयारानी विदेहके राजा गोविन्द महाराजकी बहन और राजा सत्यन्धरकी प्रमुख रानी थी। 'यद्यपि राजा सत्यन्धरकी भामारति और अनंगपताका नामकी दो रानियां और भी थों 'परन्तु पतिका अगाध प्रेम इसे ही प्राप्त था। इसने तीन स्वप्न देखे जिनमें प्रथम स्वप्नका फल राजाकी मृत्यु थी। उसे सुनकर बहुत दुःखी हुई परन्तु राजाके उपदेशसे प्रणय-लोला पूर्ववत् चलती रही। राजा सत्यन्धरका पतन होनेपर श्मशानमें पुत्रकी उत्पत्ति हुई। विजयारानीका जीवन बड़ा कष्ट सहिष्णु और वित्तिय व्यग्र नहीं होनेवाला दिखता है। यात्मगौरवको तो वह प्रतीक ही जान पढ़ती है। राजाकी मत्यु और सद्योजात पूत्रका गन्धोत्कट सेठके यहां स्थानान्तरण होनेपर जब यक्षी उसे अपने भाईके घर जाने की सलाह देती है तब वह आत्मगौरवकी रक्षाके लिए उस सलाहको ठुकरा देती है और दण्डक वनके एक तपोवनमें तापसोके वेषमें रहना पसन्द करती है। उसमें एक नीति यह भी मालूम होती है कि सुदूरवर्ती प्रदेशमें वेषान्तरसे रहने में काष्ठांगारको उसका पता न चल सके। अन्यथा उसके रहते काष्ठांगार सदा संशयालु रहता और उसके नाशका प्रयत्न करता रहता । अन्तम पुत्रके साथ माताका मिलन होता है। पुत्र, पिताका राज्यसिंहासन पुनः प्राप्त करता है और विजयारानी पुनः अपने महलोंमें प्रवेश करती है। अन्त में विजयारानी आपिकाके व्रत धारण करती है। विजयारानीके जीवनमें सुख और दुःखका बड़ा सुन्दर समन्वय दिखाई पड़ता है।
३. काष्टांगार-काष्ठांगार बड़ा कुतघ्न मन्त्री है। राजा सत्यधरने जिसे मन्त्री पदपर आसीन किया और अन्त में अपना सारा राज्य-पाट भी जिसके स्वाधीन कर दिया उसका इस तरह कृतघ्न होना नोचताकी पराकाष्ठा है। केवल राज्य प्राप्त कर स्वायत्त होनेकी आकांक्षा मनुष्यका इतना पतन नहीं करा सकती इसका दूसरा कारण भी होना चाहिए, जिसे उत्तरपुराणमें गुणभद्राचार्यने स्पष्ट किया है। महाराज सत्यन्धरका एक रुद्रदत्त नामका पुरोहित था. जो भविष्यवक्ता भी था। -माने काष्ठांगारको बतलाया था कि राजा सत्यन्धरकी विजया रानीके गर्भसे उत्पन्न हुआ पुत्र तुम्हारा प्राणघातक होगा। राजा सत्यन्धरके रहते वह विजया और उसके भावी पुत्रको नष्ट करने में समर्थ नहीं था अतः उसने सर्वप्रथम राजा-सत्यन्धरको ही नष्ट करनेका उपाय रचा। सत्यन्धरको मारकर वह उनके राज्यका अधिकारी हो गया । श्मशानमें उत्पन्न पुत्र उसी रात्रिको गन्धोत्कट सेठके आधीन हो गया और रानी विजया सुदूरवर्ती दण्डक बनमें तापसीके वेषमें रहने लगी। काष्ठांगारने समझा कि राजाको मैंने मार डाला है और रानी मयूर यन्त्र में बैठकर गयी थी अतः गिरनेपर उसका और उसके गर्भस्थ बालकका प्राणघात स्वयं हो गया होगा। इस प्रकार वह निश्चिन्त होकर अपना राज्य शासन चलाता है। आतंकसे किसीकी अकीति दबती
१. उत्तरपुराणके आधारपर ।
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प्रस्तावना
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नहीं है उलटी फैलती है। काष्ठांगारकी भी अकोति राजघातकके रूपमें सर्वत्र फैल गयी अतः वह अन्तमें विजयारानीके भाई गोविन्द महाराजके पास सन्देश भेजता है कि राजाका धात एक उन्मत्त हाथीने किया है बौर उसका कलंक मुझे लगाया जा रहा है बाप आकर हमारे इस कलंकका परिमार्जन कर दीजिए। तबतक जीवन्धर भी वयस्क होकर अपने मातुल गोविन्द महाराजके घर पहुंच चुके थे। काष्ठांगारके कपट पत्रका उपयोग करते हुए मित्र के नाते एक बड़ी सेना साथ लेकर गोविन्द महाराज काष्ठांगारके यहाँ आये। वहीं उन्होंने अपनी पुत्री लक्ष्मणसेनाका स्वयंवर रचा । जीवन्धरने चन्द्रकवेधको वेध कर लक्ष्मणाकी वरमाला प्राप्त की। इससे उत्तेजित हो काष्ठांगार भड़क उठा । इधर युद्धकी तैयारी पूरी थी अत: यद्ध हआ और काष्ठांगार उसमें मारा गया। गद्यचिन्तामगिमें काष्ठांगारका उल्लेख प्रतिनायकके रूपमें है।
४. जीवन्धर-आप महाराज सत्यधर और विजयारानीके पुत्र हैं। उत्तर पुराणके उल्लेखानुसार पूर्वभवमें इन्होंने एक हंसके वच्चेको उसके माता-पिताके पाससे पकड़वा लिया था। बच्चे का पिता हंस इस दुःखसे दुःखी होकर आकाशमें केंकार कर रहा था अतः उसे इन्होंने अपने किसी सेवकसे मरवा दिया था। पीछे चलकर गद्यचिन्तामणिके अनुसार पिताके और उत्तर पुराण के अनुसार माताके उपदेशसे इन्होंने सोलह दिन बाद उस हंसशिशुको उसकी माताके पास भेज दिया। करनीका फल सबको मिलता है, जीवन्धरको भी उसके फलस्वरूप उत्पत्तिके पूर्व ही पिताकी मत्यु तथा मातासे सोलहवर्ष तकका विद्योह सहन करना पड़ा। जीवन्धर मोक्षगामी पुरुष थे, करुणा इनकी रग-रगमें भरी थी। कालकूट भीलके द्वारा गायोंके चरा लिये जानेपर जब गोपोंके परिवार काष्ठांगारके द्वारपर रोते हैं और उसकी अकर्मण्य सेना जब पराजित होकर लौट आती है तब आप अपने सखाओंके साथ जाकर भोलको परास्त करते हैं और गोपोंका पशुधन वापस लाकर उन्हें देते हैं। एक मरणोन्मुख कुक्कुरको देखकर उनकी करुणा जाग उठती है और वे उसे पंचनमस्कार मन्त्र सुनाकर कृतकृत्य करते हैं। कुत्तेका जीव मरकर सुदशन यदा होता है चोर वह कृतज्ञके रूपमें जीवन्धर कुमारके साथ बड़ा उपकार करता है। कृतघ्न काष्ठांगार और वश सुदर्शन यक्ष दोनोंके जीवनमें स्वर्ग और नरकके समान अन्तर दिखाई देता है । भीतमूर्ति गुणमालाकी रक्षाके लिए अकेले ही एक उन्मत्त हाबीसे जूझ पड़ते हैं। सर्पदंशसे मूच्छित कन्याका विषहरण करनेके लिए एक मान्त्रिकके रूपमें सामने आते हैं तो काष्ठांगारकी मृत्युके बाद बारह वर्ष तक प्रथिवीको करभारसे मुक्त कर देशवासियोंके लिए एक कल्पवृक्षके रूप में दिखाई देते है। आप बहा ही पवित्र और परोपकारमय रहा है। इनके जीवनकी विशेषतासे प्रभावित होकर ही वादीभसिंहने इन्हें क्षत्रचूड़ामणि-क्षत्रियोंके शिरोमणि अथवा राजराज-राजाओंके राजा जैसे शब्दोंसे संजित किया है। कालाकापुरुप न होनेपर भी पुराणकारोंने अपने पुराणों में इनका चरित्र अंकित किया है और कवियोंने इनपर गद्य-पद्यात्मक काव्य लिखे हैं। जीवन्धर चम्पूकारने तो स्पष्ट ही घोषित किया है-'जीवन्धरस्य चरितं दुरितस्य हन्त'-जीवन्धरका चरित पापको नष्ट करनेवाला है। आपने भगवान महावीरके समवसरणमें दीक्षा धारण कर राजगृहीके निकटवर्ती विपुलाचलसे मोक्ष प्राप्त किया है। जीवन्धर गद्यचिन्तामणिके नायक हैं।
५. गन्धोत्कट-जीवन्धरके जीवन में गन्धोत्कटको उनके पिताका स्थान प्राप्त है जिसे उसने बड़ी कुमलतासे निभाया है । यह राजपुरीका एक बड़ा सेठ था। इसके पुत्र अल्पायु होते थे अतः मुनिमहाराजसे इसने पूछा-क्या कभी हमारे भी दीर्घायुपुत्र होगा? मुनिराजने उसे सन्तोष दिलाया और कहा कि जब तुम अपने मृत पुषको छोड़ने के लिए श्मशान जाओगे तब तुम्हें एक भाग्यशाली उत्तम पुत्र प्राप्त होगा। ऐसा ही हुआ । जीवन्धरके बाद उसकी सुनन्दा स्त्रीसे एक स्वयंका भी नन्दाढ्य नामका पुत्र हो गया पर उसके जीवन में कभी यह देखनेको नहीं मिलता कि नन्दाढय उसका निजका पत्र है और जीवन्धर दसरेका। उसकी स्त्री सुनन्दा भी बड़ी उदात्त महिला है। इसके नीति-कौशलके विषयमें पीछे पादटिप्पणमें लिख आया है । इसके विषयमें एक लोकोक्ति याद आती है-'वानियोंसे सयानो सो दीवानो जानियो' ।
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गधचिन्तामणिः
६. गन्धर्वदत्ता-यह जीवन्धरकी प्रथम और प्रमुख पत्नी है । विद्याधर गरुडवेगकी पुत्री है, संगीतकी मर्मज्ञ है और जीवन्धरके भ्रमणकालमें अपनी विद्याओंके उपयोगसे सबको सान्त्वना देती रहती है । गन्धर्वदत्ता के कारण जीवन्धरका विद्याधरोंके साथ सम्बन्ध बढ़ा है ।
७. गुणमाला----यह राजपुरीके सेठकी पुत्री थो । हाथोके उपद्रवसे जीवन्धर कुमारने इसकी रक्षा की थी। उसी समयसे इसका जीवन्धरके प्रति और जीवन्धरका इसके प्रति अनुराग बढ गया था। अनुरागकी पूतिके लिए जीवापरने एक द्वार प्रापपजा और उसने भी प्रतिपत्र भेजा। अन्तमें दोनोंका विवाह हआ। श्रीहपके द्वारा नैषध काव्यमें नल और दमयन्तीके बीच में हंसका दूत बनाया जाना इसी शुक-दूतकी कल्पनाका प्रसार है ।
८. सुरमंजरी-यह राजपुरीके एक सेठ की पुत्री है। और अपने सुगन्धित चूर्ण के विषयमें गुणमालासे पराजित होनेपर जीवन्धर में इसकी आस्था बढ़ गयी । इतनी अधिक कि उसने अपने अन्त:पुरमें अन्य पुरुपोंका प्रवेश भी निषिद्ध कर दिया। परिभ्रमणसे वापस आनेपर जीवन्धरको इस बातका पता चला तब वे एक वृद्धके रूपमें उसके घर गये। गद्यचिन्तामणिका वह प्रकरण हास्यरसका अच्छा उदाहरण है । अन्त में दोनोंका विवाह हुआ।
जहाँ जीवन्धर और नन्दाढचमें सौभ्रात्र है वहाँ जीवन्धरकी आठों रानियों में भी सौमनस्य दृष्टिगोचर होता है। पारिवारिक सुख-शान्तिके लिए इसका होना अत्यन्त आवश्यक है। समग्र पात्रोंका परिचय परिशिष्ट में दिया गया है। यहां कुछ प्रमुख पात्रोंके जीवनपर हो विचार प्रकट किया गया है।
गद्यचिन्तामणिका धर्मोपदेश
कथा ग्रन्थों में दिया हुआ धर्मोपदेश अल्पपरिमाणमें ही शोभा देता है। जहाँ-कहीं वह आवश्यकतासे अधिक बढ़ जाता है वहाँ कथाकी सरसता खण्डित हो जाती है और पाठकका मन उस प्रकरणको छोड़ देना चाहता है, जैसा कि वरांगचरित और जिनसेनके हरिवंश पुराणमें हला है । चन्द्रप्रभचरितके द्वितीय सर्गका न्यायवर्णन भी इसी प्रकारका है। किन्तु गद्यचिन्तामणिमें बीच-बीच में और खासकर अन्तिम लम्भमें चारणषियुगल द्वारा भवभोरु जीवन्धरके लिए जो धर्मोपदेश दिया गया है तथा उसके अन्तर्गत नरकादि गतियोंकेदुःखका वर्णन किया गया है वह कथाग्रन्थके सर्वथा अनुरूप है। सरल, संक्षिप्त और भाववर्धक । चतुर्गति के दुःखोंका वर्णन भगवती आराधनाके चतुर्गतिवर्णनसे प्रभावित जान पड़ता है । भगवती आराधना प्राचीन ग्रन्थ है, जानाणवके कर्ता शुभचन्द्र ने उसके कितने ही प्रकरण अपने ज्ञानार्णवमें आत्मसात् किये हैं।
जीवन्धरका हेमांगददेश और उनका भ्रमणक्षेत्र इस स्तम्भमें हम हेमांगददेश राजपुरी नगरी चन्द्रोदयपवत तथा दक्षिणके उन देशोंका अाधुनिक नामोंके साथ परिचय देना चाहते थे जिनमें जीवधर कुमारने भ्रमण किया है, परन्तु सहायक सामग्रीके अभावमें पूर्ण निर्णय नहीं हो सकनेसे असमर्थता है। फिर भी इस दिशामें विद्वानोंने जो अबतक प्रयत्न किया है उसकी संक्षिप्त जानकारी देना उचित समझते हैं।
सर्व-प्रथम कनिंघम साहबने 'एंशिएंट जागरफी शॉब इण्डिया में हेमांगद देशपर प्रकाश डालते हुए उसे मैसूर या उसका निकटवर्ती कोई भूभाग हो हेमांगददेश बतलाया है। उसीके आधारपर बाबू कामताप्रसादजीने भी 'संक्षिप्त जैन इतिसास' द्वितीय भागके प्रथम खण्डमें मैसूर या उसके निकटवर्ती भूभागको हेमांगद देश कहा है । कनिंघम साहबके कथनमें हेमांगदके पास सुवर्णकी खाने, मलय एवंत सथा समुद्र आदिका होना कारण बतलाया गया है। परन्तु पं० के० भुजबली शास्त्री मुडबिद्रीने इसपर आपत्ति करते
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प्रस्तावना
हए अपना मन्तव्य जाहिर किया है कि हेमांगददेश दक्षिण में न होकर विन्ध्याचलका उत्तरवर्तो कोई प्रदेश होना चाहिए । यहाँ मेरा तुच्छ विचार है यदि क्षत्रचूडामणिके
. 'इहास्ति भारत खण्डे जम्बुद्वीपस्थ मण्डने । मण्डलं हेमकोशाभं हेमांगदसमाह्वयम् ।।४॥प्रथम लम्भ' इलोकके 'हेमकोशाभं इस विशेषणपर जोर दिया जाये और इसका समास 'जैसा कि स्व० विद्वान् गोविन्दरायजी काव्यतीर्य' किया करते थे 'हेम कोशानां स्वर्णनिधानानामाभा यस्मिस्तत्-जहाँ सुवर्णके खजानोंखानोंकी आमा है' की जावे तो कनिंघमकी युक्तिका समर्थन प्राप्त होता है। साथ ही राजपुरीके सेठ
श्रीदत्त की समुद्र-बात्राका वर्णन क्षत्रचूडामणि, जीवन्धर चम्प, मद्यचिन्तामणि और उत्तरपुराणमें समानरूपसे पाया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि राजपुरी समुद्र के निकटस्य होना चाहिए। विन्ध्योत्तर प्रदेश में न सूवर्णकी खाने हैं और न समुद्रकी निकटता। मैसूरसे दण्डक वन भी न अति दूर न अति समीप है। दण्डक वनमें विजया रानीका तापसीके वेषमें अपना परिचय दिये बिना छिपकर रहना राजनीतिका विषय है। क्योंकि उत्तरपुराणके अनुसार रुद्र दत्त पुरोहितने काष्ठांगारिकको बतलाया था कि राजा सत्यन्धरकी विजया रानीसे जो पुत्र होनेवाला है वह तुम्हारा प्राणघातक होगा । इसी प्रेरणासे काष्ठांगारिकने सत्यन्धरका घात किया था और उनकी रानी विजया तथा उसके पुत्रका घात करना चाहता था। विजया अपने भाईके घर नहीं गयी इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठांगारिक वहाँ उसे अनायास खोज सकता था। गद्यचिन्तामणिमें हेमांगदका वर्णन करते समय सुपारीके बाग तथा उपजाऊ जमीनकी अधिकताके कारण सदा उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके धानोंसे-गावोंके उपशल्यों-निकटवर्ती प्रदेशोंका भो वर्णन किया गया है। श्रेष्ठ सुपारीके बाग दक्षिण में ही हैं विन्ध्योत्तर प्रदेशमें नहीं। और जलकी अधिकतासे दक्षिणमें ही सदा धानके हरे-भरे खेत दिखाई देते है विन्ध्योत्तर प्रदेश में नहीं। यदि जोवन्धर उत्तर भारतके होते तो समकालीन राजा श्रेणिक उनसे अपरिचित न रहते और न मुनि अवस्थामें देख उनमें देवकी शंका कर सुवर्माचार्यसे प्रश्न करते -यह वर्णन मात्र कवि-संप्रदायके अनुसार नहीं है किन्तु यथार्थ रूपमें है क्योंकि कवि-संप्रदायके अनुसार तो किसी भी वृक्षका वर्णन हो सकता था पर अन्य वृक्षोंका वर्णन न कर खासकर कविने सुपारी ही के वृक्षोंका वर्णन किया है। मिथिलाके राजा गोविन्द महाराजकी बहन विजयाका विवाह दूरवर्ती राजा सत्यन्धरके साथ होना असंभव बात नहीं है क्योंकि जब विद्याधरोंके साथ भी विवाह सम्बन्ध हो सकते हैं तब उत्तर और दक्षिण भारतकी कोई बड़ी दूरी नहीं है । यही बात दक्षिणसे जीवन्धरकी विपुलाचल तक पहुंचने की है । ''जो कुछ भी हो विद्वद्गण विचार करें 1 दुःख इस बातका है कि हम २५०० वर्ष पूर्ववर्ती देश और नगरका पता लगाने में भी समर्थ नहीं हो सक रहे हैं।
सुदर्शन यक्ष जीवन्धर कुमार को अपने निवास स्थान चन्द्रोदय पर्वतपर ले गया है और वहाँसे उतरकर उन्होंने पल्लव आदि देशों में परिभ्रमण किया है, इससे पता चलता है कि चन्द्रोदय पर्वत दूर नहीं
१. देखी, जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग २, किरण ३ 'महाराज जीवन्धरका हेमांगददेश और क्षेमपुरी' शीर्षक लेख। २. उत्तरपुराणकी अपेक्षा जिनदत्त । ३. 'वचिदिवाप्पन्धकारितपरिसरामिः मरकतपरिधपरिभावुकरम्मापरिरम्भरमणीयाभिः पूगवाटिकाभिः प्रकटी क्रियमाणाकाण्डप्रावृहारम्भेण सर्वकाकमुवरामायतया प्रथमान बहुविधसस्य सारण ग्रामोपशल्येन निःशल्य कुटुम्विधर्ग:' गर्याचन्तामणिप्रथम लम्भ, पैराग्राफ १ । १. नानामागपयोधिमग्नमतयो वैराग्यदूरोजिझता
देवा न प्रमवन्ति दुःसहतमां वो मुनीनां धुरम् । इत्याहुः परमागमस्य परमां काष्ठामधिष्ठास्नव
स्तद्देवो मुनिवेषमेष कल यन्दृश्येत कस्मादपि ।।...-चिन्तामणि पीठिका
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द्यचिन्तामणिः
है । क्या यह सम्भव नहीं है कि दक्षिणका चन्द्रगिरि हो चन्द्रोदय हो सुदर्शन यक्ष व्यन्तर देव है, व्यन्तरोंका निवास जहाँ कहीं भी होता है और उनकी इच्छानुसार मनुष्योंकी दृष्टिके अगोचर भी रह सकता है ।
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जीवन्धर कुमारके विहार-स्थलों में से क्षेमपुरी के विषय में श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीने अपने उसी लेखमें प्रकट किया है कि यह वर्तमान बम्बई प्रान्तान्तर्गत उत्तर कन्नड जिलाका गेरुसोप्पे हो प्राचीन क्षेमपुरी या क्षेमपुर था । रुसोप्पेका दूसरा नाम भल्लातकीपुर है। यह होणावर कार मील दूरपर अवस्थित है। जो भी हो शास्त्रीजी दक्षिण प्रान्तके हैं और वहाँके स्थानोंसे अत्यन्त परिचित है ।
गद्य चिन्तामणिसे ध्वनित सामाजिक स्थिति
वैवाहिक - १. एक पुरुष के अनेक विवाह होते थे ।
२.
क्षत्रिय और वैश्यवर्णके बीच विवाह होते थे ।
३. शूद्रवर्ण के साथ उच्चवर्णवालोंका विवाह नहीं होता था ।
४. अपरिपक्व अवस्था में भी विवाह होते थे ।
५. पिता के द्वारा कन्याका दिया जाना तथा स्वयंवर प्रथाके द्वारा वरका चुनाव होना.'' ये विवाहकी रीतियां थीं। कदाचित् गन्धर्व विवाह भी होता था ।
६. वरके अन्वेषण में लोग प्रायः निमित्तज्ञानियोंकी भविष्यवाणी को ही महत्त्व देते थे । ७. विवाह अग्निको साक्षीपूर्वक होता था, लकड़ीके खामकी आवश्यकता नहीं रहती थी।
८. मामाकी लड़कीके साथ भी विवाह होता या । इस तरह विवाह में सिर्फ़ एक सांक बचायो जाती थी ।
परिधान - वस्त्र, अल्पसंख्या में उपयुक्त होते थे । पुरुष अधोवस्त्र और उत्तरच्छद रखते थे । राजा-महाराजा आदि मुकुटका भी उपयोग करते थे। स्त्रिय अधोवस्त्र और उत्तरच्छदके अतिरिक्त स्तनवस्त्र भी पहनती थीं। दक्षिणके कवियोंने स्त्रियोंके अवगुण्ठन - घूंघटका वर्णन नहीं किया है और न पादकटकका | हाथमें मणियोंके वलय और कमरमें सुवर्ण अथवा मणिखचित मेखला पहनती थीं। गमें अधिकांश मोतियोंकी माला पहनी जाती थी । स्त्रियोंके हाथोंमें काँचकी चूड़ियोंका कोई वर्णन नहीं मिलता ।
राजनयिक - राजा अपनी आवश्यकता के अनुसार ४-६ मन्त्री रखता था, उनमें एक प्रधान मन्त्री रहना था, धार्मिक कार्यके लिए एक पुरोहित या राजपण्डित भी रहता था । राज्यदरबारमें रानीका भी स्थान रहता था। राजा अपना उत्तराधिकारी युवराजके रूपमें निश्चित करता था । खास अपराधोंके न्याय राजा स्वयं करता था ।
१. जीवनधरके स्वयं आठ विवाह हुए। २. जीवन्धरने क्षत्रियवर्ण होकर गुणमाका, क्षेमश्री, fanet और सुरमंजरी इन चार वैश्य कन्याओंके साथ विवाह किया । ३. जीवन्धरने नन्दगोपकी कन्या गोदावरीके साथ स्वयं विवाह न कर पद्मास्य मित्रके साथ उसका विवाह किया। क्षत्रचूडामणिमें वादो सिंहने 'नायोग्य स्पृहा सताम्' इस सूक्ति से उनकी इस क्रियाका समर्थन किया । ४. जीवन्धर कुमारका १६ वर्षकी अवस्थामें माता के साथ मिलान हुआ था पर उसके पूर्व उनके पाँच विवाह हो चुके थे । ५. जीवन्धरने गन्धदत्ता और लक्ष्मणाको स्वयंवर - विधिसे प्राप्त किया था और शेषको पिता या अग्रजके दिये जानेपर | पद्मा कन्याको जीवन्धरने पहले गन्धर्व विवाहसे और बादमें अग्रज - लोकपाळके द्वारा प्रदत्त होनेपर विवाहा था । ६. लक्ष्मणा, जीवन्धर के माम्सकी बड़की थी ।
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प्रस्तावना
यद्ध-आवश्यकता पड़नेपर युद्ध होता था और अधिकतर धनुष-बाणसे शस्त्रका काम लिया जाता था। खास अवस्थामें तलवारका भी उपयोग होता था। युद्धमें रथ, घोड़े और हाथियोंकी सवारीका उल्लेख मिलता है। अन्य समय शिविका-पालकीका भी उपयोग होता था। इसका उपयोग बधिकांश स्त्रिया करती थीं।
शैक्षणिका-बालक-बालिकाएं दोनों ही शिक्षा ग्रहण करती थीं। शिक्षा गुरु-कृपापर निर्भर रसीधी। विद्यार्थी गुरुभक्त रहते थे और गुरु सांसारिक माया-ममतासे विरक्त ।
यातायात-यातायातके साधन अत्यन्त सीमित थे। मार्गमें भीलों आदिके उपद्रवका डर रहता या अतः लोग सार्थ-ण्ड बनाकर चलते थे।
धार्मिक वैदिक धर्म और श्रमणधर्म-दोनों ही प्रचलित थे।
आभार प्रदर्शन
भारतवर्ष में भारतीय ज्ञानपीठ एक सच्चकोटिकी प्रकाशन संस्था है और अपने उच्चकोटिके प्रकाशनोंसे उसने कल्पसमयमें ही बड़ी ख्याति प्राप्ति की है। यह सब उदारमना साहु शान्तिप्रसादजीकी उदारताका फल है। इसी संस्थाकी ओरसे इसका प्रकाशन हो रहा है। अतः संस्था सम्पादक और संचालक धन्यवादके पात्र है। लम्बे-लम्बे समासोंसे युक्त संस्कृत गद्य-काव्यको...-संस्कृत टीका लिखना उतना कठिन नहीं है जितना कि हिन्दी टोका । यदि समासके अनुसार अर्थ किया जाता है तो भाषाका सौन्दर्य नष्ट होता है और भाषाके सौन्दर्य की ओर रष्टि रखी जाती है तो प्रन्थका हार्द प्रकट नहीं हो पाता। हिन्दी टीका लिखते समय में बड़े असमंजस में पड़ा, फिर भी जैसा कुछ बन सका मैंने दोनोंको संभालनेका प्रयत्न किया है।
पामारके प्रकरणमें मैं सर्वप्रथम टी० एस० कुप्पु स्वामीके प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने कि जीवन्धरसे सम्बद्ध संस्कृत-साहित्यको सुसम्पादित कर प्रकाशमें लानेका सर्वप्रथम उपक्रम किया था। सन् १९२५ में जब मैंने क्षत्रचूडामणि पड़ी थी तब अबोध दशाके कारण मैं आदरणीय कुप्पु स्वामीके सम्पादन-श्रमका मूल्य नहीं क सका था पर बाज मुझे लगता है कि उसके सम्पादनमें उन्होंने भारी श्रम किया था। आज उनको सम्पादित क्षत्रचूडामणि उपलब्ध नहीं। क्या ही अच्छा हो कोई प्रकाशन संस्था उसे हिन्दी अनुवादके साथ पुनः प्रकाश में लानेकी उदारता दिखावे ।
गचिन्तामणिके इस संस्करण के तैयार कराने में श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीका महान् प्रयत्न है। चारोंकी चार हस्तलिखित प्रतियां आपने ही जुटाकर भेजनेकी कृपा की थो तथा प्रस्तावना कादिके विषयमें उचित परामर्श हमें आपसे प्राप्त होते रहे हैं। आप सुदूरवर्ती स्थानमें रहकर भी प्रत्येक पत्रका उत्तर देते हैं और महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया करते हैं। वादीभसिंह तरिके समय निर्धारण करने में श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको न्यायकुमुद चन्द्रोदय प्र०भा०की प्रस्तावना, और पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्यकी स्याद्वावादसिद्धिको प्रस्तावनासे पर्याप्त साहाय्य प्राप्त हुआ है। इसी विषय में श्रीभुजबली शास्त्रीके जैन सिद्धान्त भास्करमें तथा स्व० आदरणीय प्रेमीजी के जैन-साहित्य और इतिहास में प्रकाशित लेख कम सहायक नहीं हुए हैं। जीयन्घर चम्पमें प्रकाशित आदरणीय डॉ० ए०एन० उपाध्ये जी तथा डॉ० हीरालालजीकी अँगरेजो प्रस्तावनासे भी मुझे उचित दिशा प्राप्त हुई है। संस्कृत कर्णाटक और आन्ध्र भाषाके विद्वान् श्रीदेवरभट्ट तथा हमारे अनन्य स्नेही पं० अमृतलालजी जैन दर्शनाचार्य, वाराणसीने भी इसके पाठभेद संकलित कर उचित सहायता पहुंचायी है अत: मैं उक्त समस्त विद्वानोंके प्रति अपनी नम्र कृतशता प्रकट करता हूँ। .
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गचिन्तामणि:
समय बादिके निर्धारणमें मैंने उपलब्ध सामग्रीके आधारपर मात्र अपने विचार प्रकट किये है बाग्रह नहीं। अपनी योग्यता और साधन-सामग्रीके अनुसार मैंने इस संस्करणको संस्कृत-हिन्दी टीका, प्रस्तावना, तथा परिशिष्टोंसे लाभदायक बनानेका प्रयत्न किया है। मेरे इस साहित्यिक अनुष्ठानसे अध्येता और अध्यापकोंको अध्ययन और अध्यापनमें कुछ भी सहायता प्राप्त हई तो मैं अपने प्रयासको सफल समझंगा।
अन्तमें अपनी अल्पज्ञ ताके कारण हुई त्रुटियोंपर क्षमा याचना करता हुआ प्रस्तावनालेख समाप्त करता हूँ।
'सरिर्वादीसिंहोऽसावखिलागमवारिधिः । काव्यशास्त्ररहस्यज्ञः क्षमता स्खलितं मम ॥
वर्णीमवन, सागर दीपमालिका वीरनिर्वाण संवत् २४९३
विनम्र पन्नालाल जैन
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सम्पादनमें उपयुक्त ग्रन्थ तथा पत्र-पत्रिकाएं
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ख प्रति ग प्रति
घ प्रति ५. म प्रति ६. अमर कोष (निर्णय सागर, बम्बई) ७. मेदिनी कोष (वाराणसोसे प्रकाशित) ८. विश्वलोचन कोष (निर्णय सागर, बम्बई, १९१२) ९. सिद्धान्त कौमुदी (निर्णय सागर, बम्बई) १०. मूलाराधना-भगवती आराधना (सोलापुरका संस्करण) ११. सर्वार्थसिद्धि (कोल्हापुरका संस्करण, द्वितीयावृत्ति) १२. राजवार्तिक (जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता सन् १९१५) १३. अष्टशतो-आत्म-मीमांसा (जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता सन् १९१५) १४. न्यायकुमुद चन्द्रोदय प्रथम भागको प्रस्तावना-पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री
(मारिणकचन्द्र प्रन्यमाला, बम्बई) १५. स्याद्वादसिद्धि और उसको प्रस्तावना-पं० दरबारीलालजी कोठिया
(माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई) १६. क्षत्रचूड़ामणि 'कुप्पुस्वामी' (बम्बई) १७. क्षत्रचूडामणि उत्तरार्ध (पं० मोहनलालजी, जबलपुर) १८. कादम्बरी, (निर्णय सागर, बम्बई) १९. श्रीहर्षचरित (निर्णय सागर, बम्बई) २०. रघुवंश (निर्णय सागर, बम्बई) २१. वासवदत्ता (चौखम्भा सं० सीरिज, वाराणसी) २२. दशकुमार चरित (निर्णय सागर, बम्बई) २३. यशस्तिलक चम्पू (निर्णय सागर, बम्बई) २४. अनेकान्त (वर्ष १०, किरण ४-५, वीर सेवा मन्दिर, (भाग ६, किरण ३), (भाग २
किरण ३ सरसावा) २५. जैन सिद्धान्त भास्कर, पं० के० भुजबली शास्त्री, (जैन सिद्धान्त भवन, आरा २६. कादम्बरी : एक अध्ययन, (वासुदेव शरण अग्रवाल, वाराणसी)
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३२
गद्यचिन्तामणिः
२७. अपभ्रंश महापुराण; महाकवि पुष्पदन्त (माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला, बम्बई) २८. जीवन्धर चम्पू और उसकी अँगरेज़ी प्रस्तावना, डॉ० हो० ला० जैन, आ० ने०
उपाध्याय २९. जैन साहित्य और इतिहास स्व० प्रेमीजो(हिन्दी प्रन्थ रत्नाकर, बम्बई) (द्वि० संस्करण) ३०. संस्कृत साहित्यका इतिहास : डॉ० बलदेव उपाध्याय ३१. संस्कृत साहित्य का इतिहास, रामनारायण लाल (इलाहाबाद) ३२. भोजप्रबन्ध : बल्लाल कवि, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई (सन् १९२१) ३३. मनुस्मृति (बम्बई) ३४. जैन संदेश शोधांक १४ (मथुरा) ३५. उत्तरपुराण (भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी) ३६. वराङ्ग चरित (माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला, बम्बई) ३७. हरिवंशपुराण (भारतीय ज्ञानपीट, वाराणसी) ३८. चन्द्रप्रभचरित (निर्णयसागर, दम्बई)
उक्त साहित्य एवं उसके निर्माताओं के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता है।
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विषयानुक्रमणिका
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प्रथम लम्भ मंगलाचरण तथा ग्रन्थाक्तारकी पीठिका
१-८ १-२. जम्बूद्वीपके दक्षिण भागमें स्थित भारत खण्ड में हेमांगद नामका देश है
4-१५ ३-४. हेमांगददेशमें राजपुरी नगरी है
१५-२६ ५-६, राजपुरी नगरीमें राजा सत्यन्धर राज्य करते थे
२७-३१ ७. उनकी रानीका नाम विजया था।
३१-३७ ८. रानीमें विषयासक्तिके कारण राजा सत्यन्धर काष्ठाङ्गार नामक मन्त्रीको राज्य देने लगे। ३७-३८ ९. अन्य मन्त्रिोंने इसका विरोध किया, राजाको समझाया, पर वह कुछ समझ नहीं सका। ३८-४१ १०-१४. राजा रानीके साथ भोग-विलासमें निमग्न हो गया। रानीने तीन स्वप्न देखे और पतिसे उनका फल पूछा।
४१-४७ १५-१६. राजाने कहा कि तुम्हारे पुत्र होगा और उसकी आठ स्त्रियां होंगी, पर अशोक वृक्षके गिरनेका फल राजाने नहीं बताया। इससे रानी शंकित हो मूच्छित हो गयी, राजाने उसे समझाया।
४७-५२ १९-२०. रानी विजयाने गर्भ धारण किया तथा राजाने भावी पुत्रको रक्षाके उद्देश्यसे शाकाशमें चलनेवाला मयूर यन्त्र बनवाया।
५२-५४ २१-२६. काष्ठांगारने अपने मन्त्रिमण्डलमें राजद्रोहका प्रस्ताव रखकर उससे संमति मांगो, पर धर्मदत्त मन्त्रीने इसका डटकर विरोध किया।
५४-६१ २७-३१. काष्ठांगारने राजभवनको घेर लिया, प्रतीहारीने राजाको सूचना दी, राजा युद्धके लिए चलने लगा, पर रानीको भूच्छित देख समझानेके लिए बाध्य हुआ। मूच्छित अवस्थामें हो वह उसे मयूर यन्त्रमें बैठा भाग्यके भरोसे छोड़ युद्धके लिए निकल पड़ा। शत्रुको पीछे हटाया, परन्तु युद्धकी विभीषिका देख विरक्त हो संन्यास लेकर बैठ गया और काष्ठांगारने उसे मार डाला।
६२-६९ ३२-३६. काष्ठांगार राजा बन गया, रानी विजयाने रात्रिके निविड़ पन्धकारके बीच राजपुरीके श्मशानमें पूत्रको जन्म दिया। एक देवीने चम्पकमाला दासीका देष रख विजयाने सान्त्वना दी।
. . ७०-७६ ३७-३९. गन्धोत्कट वैश्य, अपने मृतपुत्रको छोड़ श्मशानमें मुनिराजके पचनानुसार अन्यपुत्रकी खोजमें था । वहाँ विजया रानीके पुत्रको पाकर प्रसन्न हुआ और जीवन्धर नाम रखकर घर ले गया । और रानी दण्डकवनके तपोवनमें रहने लगी। ४०-४३. गन्धोत्कटने पुत्रोत्सव किया और मूर्ख काष्ठांगारने समझा कि यह उत्सव राज्य. प्रापिके उपलक्षमें हो रहा है इसलिए उसने राज्यकोषसे उसे बहुत-सा धन दिया। बालक जीवन्धर बाल्यक्रीड़ा करता हुआ पाँच वर्षका हुआ ।
७९-८३ ४४-४५. गन्धोत्कटने शुभ मुहूर्तमें जीवन्धरका विद्यारम्भ कराया।
८४-८८
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१४
गद्यचिन्तामणिः
द्वितीय लम्भ ४६-४८. विशाल विद्यामण्डपमें आर्यनन्दी गुरुने जीवन्धरको अनेक विद्याएं प्रदान कर अल्पकालमें ही श्रेष्ठ विद्वान् बना दिया।
८९-९३ ४९-६६. एक दिन एकान्तमें बार्यनन्दी गुरुने जीवन्धरको अपना वृतान्त बतलाते हुए कहा कि मैं विद्याधर लोकमें लोकपाल नामका राजा था। संसारसे विरक्त हो मैंने मुनिदीक्षा घारण की परन्तु भस्मकव्याधि मुझे हो गयी । तब मुनिपद छोड़ एक अन्य साधुके वेषमें रहने लगा। गन्धोत्कटकी भोजनशालामें तुम्हारे हाधसे दिये हए ग्रासको खाकर मैं रोग रहित हुवा बौर प्रत्युपकार के रूपमें तुम्हें विद्या प्रदान कर कृतकृत्य हुआ हूँ। साथ ही उन्होंने जीवन्धरको राजा सत्यन्धरका पुत्र बतलाया तथा एक वर्ष तक शान्त रहनेका उपदेश देकर राजनीतिका सुन्दर उपदेश प्रदान किया ।
९४-११८ ६७-६/ मार्गगल्ती गुल्ले पुनः मुग्लिीनर लेकर मोक्ष प्राप्त किया
११८-१२० ६९-७७. इसी बीचमें भीलोंके एक दलने राजपुरीके गोपालोंको गायोंका अपहरण कर लिया। दे रोते-चीखते काष्ठांगारके पास आये । द्वारपालने काष्ठांगारको सूचना दी और काष्ठांगारने . . रक्षाके लिए सेनाको आदेश दिया, पर बकर्मण्य सेना भीलोंके दलसे पराजित होकर वापिस आ गयी। इस घटनासे गोपालोंमें बहुत बेचैनी बढ़ गयी । गोपालोंके प्रमुख नन्दगोपने नगर में घोषणा करायी कि, 'मैं हमारी गायोंको वापिस ला देनेवालेके लिए सूवर्णकी सात पुतलियों के साथ अपनी पुत्री दूंगा।
१२१-१३२ ७८-८८. इस घोषणाके बावजूद भी जब कोई वीर आगे नहीं आया तब जीवन्धरने अपने मित्रोंके साथ जाकर भीलोंके दलको परास्त कर उनसे गोपालोंकी गायें वापिस छीन ली। इससे जीवन्धरका सुयश सर्वत्र फैल गया। नन्दगोपने घोषणाके अनुसार अपनी पुत्री जीवन्धरको देनी चाही पर उन्होंने स्वयं पुत्रीको न ले पद्मास्य मित्रको पुत्री प्रदान करायी। पचास्य । गोविन्दाको प्राप्त कर प्रसन्न हुआ ।
१३३-१४४ तृतीय लम्भ ८९-९१. जब पास्य गोविन्दाको प्राप्त कर प्रसन्न था और जीवन्धर कुमार अपनी शौर्यशक्तिको बढ़ानेमें संलग्न थे तब राजपुरीका रहनेवाला श्रीदत्त वैश्य अर्थोपार्जनको भावनासे लहराते हुए समुद्र में जहाज-द्वारा यात्रा कर रत्नद्वीप गया और वहाँसे बहुत भारी सम्पत्तिका संचय कर वापस लौटा। वह इस किनारेपर आनेवाला ही था कि समुद्र में जोरदार तूफान उठा । जहाजके यात्री उद्विग्न हो उठे। श्रीदत्तने सबको सान्त्वना दी। अन्त में जहाज डूब गया और श्रीदत्त एक लकड़ीके मस्तूलके सहारे तैरकर किसो द्वीपमें पहुंचा।
१४५-१५० ९२-९५ संसारकी असारताका विचार करता हा श्रीदत्त वहाँ बैठा था कि उसकी दृष्टि एक घर नामक विद्याधरपर पड़ी। उसकी प्रेरणासांवत्त एक मायामयी ऊटपर बैठकर आकाश. मार्गसे चला और विजया पर्वतपर जा पहुँचा । घर विद्याधरने उसे समुद्र में तूफान उत्पन्न करनेकी माया तथा विजयापर लाये जाने का प्रयोजन बतलाया। उसने कहा कि यहाँ नित्यालोक नगर के राजा गरुड़वेगकी धारिणी नामक स्त्रीसे उत्पन्न हई गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री हैं। निमित्तज्ञानियोंने उसका विवाह सम्बन्ध राजपुरीमें बीणा वादनके द्वारा विजय प्राप्त करनेवाले किसी युवाके साथ बतलाया है, राजपुरीका श्रीदत्त वैश्य राजा मरुड़वेगका परिचित है इसलिए उसे तफानके छलसे यहाँ लाने का उपक्रम किया गया है। राजा गरुडवेगने श्रीदत्त वैश्यका बहत सत्कार किया और अपनी कन्या उसे सौंपते हुए कहा कि आप वीणास्वयंवरका आयोजन कर इसका विवाह कर दें।
१५०-१६१
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- ९३
१८
२०
३२
to
६१
विषयानुक्रमणिका
९९ - १०९. श्रीदत्त, शुभमुहूर्त में प्रस्थान कर गन्धर्वदत्ता के साथ राजपुरी आया ओर वोणा स्वयंवरको तिथि निश्चित कर राजकुमारोंके पास निमन्त्रण भेजने लगा । निमन्त्रण पाकर अनेक राजकुमार स्वयंवर मण्डप में लाये । सजधज के साथ गन्धर्वदत्ता भी स्वयंवर मण्डप में पहुँची । उसने परिचारिका के हाथसे वीणा लेकर बजायी तो सब राजकुमार चकित रह गये । कोई भी उसकी तुलना नहीं कर सका । जीवन्धर कुमार भी स्वयंवर में सम्मिलित होनेके लिए घरसे निकले ।
११०-११४. जीवन्वरकी सुन्दरता और चाल-ढालसे सब राजकुमार प्रभावित हुए। जीवन्धर - ने गन्धर्वदत्त की बीणाम अनेक दोष बताकर उससे दूसरी निर्दोष वीणा बुलवायी और उसे बजाकर सबको चकित कर दिया । यन्धर्वदत्ताने अपनी पराजय स्वीकृत कर जीवम्बर कुमारके गले में वरमाला डाल दी ।
११५-१२० काष्ठांगारने ईर्ष्याविश उपस्थित राजकुमारोंको जीवन्धरके विरुद्ध उकसाया, फलस्वरूप युद्ध हुआ पर जीवन्धरने सबको परास्त कर दिया । जीवन्धर, गन्धर्वदत्ता के साथ गन्धोत्कट के घर पहुँचे । वहाँ उत्तम मुहूर्तमें पाणिग्रहण संस्कार हुआ और श्रीदत्त वैश्य के द्वारा प्रदत्त गन्धवंदत्ताको प्राप्त कर कृतकृत्य हुए ।
१६१ - १७७
चतुर्थ लम्भ
१२१ - १२६. जीवन्धर, गन्धर्वदत्ता के साथ सुखानुभव करने लगे। इसी बीच वनन्तऋतु आ गयो । वनकी शोभा निराली हो गयी । वनक्रीडाके लिए नागरिक लोग अपनी-अपनी प्रेयसियोंके साथ विविध वाहनोंपर आरूढ़ होकर घरोंसे निकले । जीवन्धर कुमार भी अपने सखाओके साथ वन महोत्सवमें गये । वहाँ एक कुत्ताको कुछ ब्राह्मणोंने इतनी निर्दयतापूर्वक पीटा था कि वह मरणोन्मुख दशा में कराह रहा था । जीवन्धरने उसे पञ्चनमस्कार मन्त्र सुनाया। उसके प्रभावसे वह चन्द्रोदय पर्वतपर सुदर्शन यक्ष हुआ । उसने आकर जीवन्धरकुमारको अपना परिचय देते हुए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की और विपत्तिके समय स्मरण करने की प्रार्थना की। प्रार्थना कर यक्ष चला गया ।
३५
१८१ - १८८
१२७- १२८. उसी समय राजपुरीके प्रमुख सेठोंकी पुत्रियों --- गुणमाला और सुरमंजरी में अपनेअपने चूकी उत्कृष्टताको लेकर विवाद चल पड़ा और शर्त यह हुई कि जो इसमें पराजित होगी वह नदी में स्नान नहीं करेगी। चूर्णो की परीक्षाका अन्तिम निर्णय देते हुए जीवम्बर ने गुणमाला चूर्णको सर्वोत्कृष्ट बतलाया | शतके अनुसार सुरमंजरी स्नान के बिना वापस लोट गयी । उसे लगा कि जीवन्धरने गुणमालाका पक्ष लिया है। फलस्वरूप उसने अपने अन्तःपुरके पुरुषमात्रका आना बन्द कर दिया । उसकी आन्तरिक इच्छा जीवन्धरको हो वल्लभके रूपमें प्राप्त करने की थी ।
१७७-१८०
१९८-१९१७
१२९ - १४१. काष्ठागारका उपद्रवी हाथी गुणमालाकी ओर बढ़ा आ रहा था। उसके सब साथी उसे छोड़ भाग गये थे । मात्र एक वृद्धा धाय उसके आगे खड़ी रह गयी | इस दयनीय अवस्थाको देख जीवन्धरने हाथीसे द्वन्द्व कर उसे वशमें किया और गुणमालाको प्राणरक्षा की 1 इस संदर्भ में गुणमाला और जीवन्धरका परस्पर अनुराग हो गया । दोनों विप्रयोग श्रृङ्गारका अनुभव करने लगे। गुणमालाने जीवन्धर के पास क्रीडा शुकके द्वारा पत्र भेजा । जीवन्धरने उसका उतर दिया। चर्चा दोनोंके माता-पिता तक पहुंची । अन्त में सबकी संपतिसे शुभ मुहूर्त में दोनोंका पाणिग्रहण संस्कार हुआ ।
१९७ - २०१
२०१-२१४
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गधचिन्तामणिः
पंचम लम्भ १४२-१४७. इधर गुणमालाको पाकर जीवन्धर कामकलाका अनुभव करने लगे। उधर काष्ठागारका हाथी जीवन्धरके हायकी कगामी नोट वार महीमा नाम दुःखी हो रन था। उसने खाना-पीना सब छोड़ दिया। महावतोंने इसकी शिकायत काष्ठांगारसे की। काष्ठांगारने जीवन्धरको पकड़नेके लिए योद्धा भेजे। योद्धाओंने गन्धोत्कटका घर घेर लिया, परन्तु अकेले जीवन्धरने सब योद्धाओंकी अच्छी मरम्मत की। अन्त में गन्धोत्कट जीवन्धरको लेकर स्वयं काष्ठांगारके पास गया । काष्ठांगारने गन्धोत्कटकी क्षमा याचनाकी उपेक्षा कर दी और जीवन्धरके प्राणघात करनेका आदेश किंकरोंको दे दिया। किंकर जीवन्धरको बध्य स्थानपर ले जाने लगे। इस घटनासे समस्त राजपूरीमें शोक छा गया।
२१५-२२२ १४८-१४९. जीवन्धरने सुदर्शन यक्षका स्मरण किया और वह एक आकस्मिक रीतिसे जीवन्धरको अपहृत कर अपने निवास स्थानपर ले गया। किकरोंने जीवन्धरके प्राणघातका झूठा समाचार देकर काष्ठांगारको प्रसन्न किया । सुदर्शन यक्षने महोपकारी जीवन्धर कुमारका बड़ा सम्मान किया। कुछ दिन वहाँ रहकर जीवन्धर कुमारका तीर्थयात्राके उद्देश्यसे चल पड़े। यक्ष उन्हें मार्ग बतलाकर अटवीके बीहड़ पथसे बाहर कर गया।
२२२-२२६ १५०-१५२. आगे चलकर जीवन्धरने घनघोर जंगल में दावानलसे घिरे हुए हाथियोंके मुण्डको देख उनकी रक्षाके अर्थ सुदर्शनयक्षका स्मरण किया । स्मरण करते ही यक्षने मेघोंसे जलवर्षा कर हाथियोंकी प्राणरक्षा कर दी। अब जीवन्धर एक पर्वतपर स्थित जिनमन्दिरकी वन्दना कर तथा वहाँ रहनेवाली यक्षीके द्वारा भोजनवस्त्र प्राप्तकर पल्लव देश पहुंचे ।
२२७-२३३ १५३-१५७. जब जीवन्धर पल्लव देशके चन्द्राभनगरमें पहुंचे तब वहाँके लोगोंको शोकनिमग्न देख जीवन्धरने शोकका कारण पूछा। लोगोंने बतलाया कि यहाँके राजा लोकपालकी एक पना नामकी छोटी बहिन है उसे साँपने काटा है। प्रयत्न करनेपर भी विषका प्रभाव कम नहीं हो रहा है। राजाने घोषणा की है कि जो पनाको अच्छा करेगा उसे आधे राज्यके साथ पमा दी जायेगी। लोगोंकी प्रार्थना तथा दीनतासे द्रवीभूत हो जीवन्धर राजभवन में गये और सुदर्शन यदरके द्वारा प्रदत्त विषापहारी मन्त्रके द्वारा उन्होंने पद्माको उत्काल निविष कर दिया। पचाने उठकर पास बैठे हए सब लोगोंको पहचान लिया । लोकपालने जीवन्धरके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। परस्परके स्पर्श तथा अवलोकनसे जीवधर और पगाके हृदय में कामबाघाका संचार हआ। लोकपालने मन्त्रियोंके साथ कन्या विवाहकी मन्त्रणा की।
२३३-२३९ १५-१६०. मन्त्रियोंने लोकपालके इस प्रस्तावका कि 'कि जीवन्धरने कन्याको निविष किया है तथा इसके शरीरका स्पर्श किया है इसलिए यह कन्या इनके लिए ही दी जाये' समर्थन किया । अन्तमें बड़े समारोहके साथ दोनोंका पाणिग्रहण संस्कार हो गया।
२३९-२४२
षष्ठ लम्भ
१६१-१६६. नववधू पद्माके साथ ग्रीष्म ऋतुके दिनोंको सुखसे व्यतीत करते हुए जीवन्धर कुछ दिन लोकपालके राजभवनमें रहे । तदनन्तर बिना कुछ कहे ही अन्तःपुरसे रात्रिके समय बाहर निकल पड़े। पति के विरहमें पद्मा चोख उठी। उसकी चीख सुन परिवारके लोग एकवित हो गये। सबने सान्त्वना दी। लोकपालने जीवन्धरको खोजके लिए आदमो दौडाये पर कोई उन्हें प्राप्त न कर सका।
२४३-२५३
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विषयानुकमणिका
१६७-१७२. चलते-चलते जीवन्धर तापसोंके तपोवनमें पहुंचे। वहां उन्होंने उन्हें हिंसामय तपसे विरक्त होनेका उपदेश दिया। तापसोंने उनका उपदेश सुन जैनधर्म स्वीकृत किया। उन्होंने यहीं रात्रि व्यतीत की। तदनन्तर अनेक सघन वनोंको देखते हुए वे एक मन्दिरमें पहुंचे। उनके पहुंचते ही मन्दिरके किवाद स्वयं खुल गये। भक्तिविभोर होकर जीवन्धरने जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की।
२५३-२५९ १७३-१७८. ज्यों ही ये पूजन कर बाहर गाये में ही एक समुन्ध :न करणोमें आ पड़ा। पूछनेपर उसने अपना परिचय दिया कि यहाँसे समीप ही क्षेमपुरीमें नरपतिदेव राजा रहते हैं। उनके राजथेष्ठीका नाम सुभद्र है । सुभद्रके क्षेमश्री नामकी पुत्री है। निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि जिसके आनेपर मन्दिरके किवाड़ स्वयं खुल जावें वही इसका पति होगा । उसीकी खोज में मैं यहाँ रहता हूँ। मेरा नाम गुणभद्र है। अब मैं राज्यश्रेष्ठीको खबर देनेके लिए जाता है। गुणभद्र-द्वारा जीवन्धरके आनेका समाचार सुनकर राज्यश्रेष्ठी सुभद्र सपरिवार मन्दिर में आया और जीवन्धरसे मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुमा तया बड़े वैभवके साथ उन्हें अपने घर ले गया। वहाँ सुभद्रने अपनी पुत्री क्षेमश्रीका जीवन्धरके साथ पाणिग्रहण कराया। २५९-२६९
२२
सप्तम लम्भ १६९-१८४. जीवन्धरकुमार क्षेमश्रीके साथ सुखोपभोगमें निमग्न हो गये। धीरे-धीरे पावस ऋतु आ गयी। आकाशमें घनघटा छा गयी। जीवन्धरका अनुराग क्षेमश्रीके प्रति और भी अधिक बढ़ गया। एक दिन जीवन्धर रात्रिके तृतीय प्रहरमें क्षेमधीको छोड़ अचानक बाहर निकल पड़े। उनके विरहमें क्षेमश्री बहुत दुःखी हुई, परन्तु अन्तमें माता-पिताके आश्वासनसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंका हृदय में ध्यान करती हुई रहने लगो।
२७०-२७७ १८५-१९०. जीवन्धर कुमार एक हरे-भरे वनमें पहुंचे। वहकते हुए पक्षियोंकी बोली-वारा वह वन मानो इनका स्वागत ही कर रहा था। वहाँ एक किसान मिला। उसे उन्होंने गृहस्थ धर्मका उपदेश देकर अपने सब आभूषण दानमें दे दिये। आगे चलकर एक विद्याधरी मिली जो कि जीवन्धरको सौन्दर्यसुघाका पान कर उनपर मोहित हो गयी थी। उससे बचकर तथा उसके असली पतिको हितका उपदेश देकर जीवघर आगे बढ़े।
२७७-२८५ १९१-१९५ तदनन्तर हेमाभपुरी नगरीके निकट पहुंचे। वहाँ एक राजपुत्रको उन्होंने देखा कि वह बाणोंके द्वारा एक आम्रफलको तोड़ना चाहता है पर तोड़ नहीं पा रहा है। जीवन्धरने उसके हायसे धनुष-बाण लेकर अनायास ही आम्रफल तोड़ दिया। राजपुत्र इनके कौशलसे बहुत प्रभावित हुआ और किसी तरह प्रार्थना कर अपने घर ले गया। वहाँ राजपुत्रके पिता दृढ़मिश्ने जीवन्धर कुमारको बड़ी विनयके साथ रखा तथा उनसे अपने पुत्रोंको कोण विद्याकी शिक्षा दिलायी। राजा दृढ़मित्र जीवन्धरसे इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि उसने अपनी पुत्री कनकमालाका इनके साथ विवाह कर दिया।
२८५-२९२ अष्टम लम्भ १९६-२०१, जीवन्धर वहाँ सुखसे रह रहे थे। नन्दादय भी वहीं जा पहुंचा। नन्दाढयके द्वारा जीवन्धरके वंश वैभवको जानकर राजा घमित्रके यहाँ बड़ी प्रसन्नता हुई। जीवन्धरके पूछनेपर नन्दाढयने बताया कि मैं गन्धर्वदत्ताको मन्त्रशय्यापर शयन कर यहाँ आया हूँ। नन्दाढयके साथ गन्धर्वदत्ताने एक पत्र भी भेजा था, जिसमें गुणमालाको विरह दशाके व्याजसे अपनी बिरह दशाका वर्णन किया था। उस पत्रको पढ़कर उन्होंने अपने घर वापिस जानेका निश्चय किया।
२९३-३०१
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गद्यचिन्तामणिः
२०२-२०९. इसी बीच जीवन्धरके मित्र पद्मास्य वगैरह गायोंके अपहरणका व्याज करते हुए वहां आ पहुंचे। सब मित्रोंसे मिलकर जीवन्धरको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन मित्रोंसे उन्हें यह भी मालूम हुबा कि मेरी माता विजया दण्डक वनकेतपोवनमें विद्यमान है। माताका समाचार पाकर जीवन्धरका हृदय मात-दर्शनके लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो उठा और वे सब मित्रों के साथ चलकर माता विजयाके पास जा पहुंचे। चिर विमुक्त माता पुत्रके मिलनने तपोवनका वातावरण आनन्दमय कर दिया। तदनन्तर माताको अपने मामाके घर भेजकर जीवन्धर राजपुरीकी ओर चल पड़े। २१०-२१३. तदनन्तर राजपुरीमें एक सेठके घरके सामने निकलते समय उन्होंने मकानकी छत से किसी कन्या हायसे नीचे पड़ती हुई गेंद देखी। गेंदको देखकर ज्यों ही उनकी दृष्टि उस कन्यापर पड़ी त्योंही उसके प्रति उनका अनुराग बढ़ गया। वे वहीं रुक गये। उनके पुण्य प्रभावसे कन्याके पिता सागरदत्त सेठके वह रत्न जो बहुत समयसे पड़े थे बिक गये । सेठ सागरदत्त उन्हें बड़े सम्मानके साथ भीतर ले गया और कहने लगा कि मेरी कन्या विमला है। निमित्तज्ञानियोंने कहा था कि जिसके आनेपर तुम्हारे रत्न बिक जायेंगे वही इसका पति होगा। आपके भवनके निकट आते ही मेरे सब रल बिक गये । इसलिए आप इस कन्याको स्वीकृत कीजिए। सागरदत्त सेठ की प्रार्थना स्वीकृत कर उन्होंने विमलाके साथ पाणिग्रहण किया।
३१३-३१७ नवम लम्भ २१४-२२४. विमलाके साथ रात्रि पतीत कर जब जीवन्वर अपने मित्रोंके पास पहुंचे तब सब मित्र इनके सौभाग्यकी प्रशंसा करने लगे। परन्तु एक बुद्धिषे मित्रने व्यंग्य कसते हुए कहा कि जिन्हें कोई नहीं पूछता था ऐसी लड़कियों के विवाह लेने में क्या सोभाग्यकी बात है। यदि ये सुरमंजरीको विवाह लें तो इन्हें सोभाग्यशाली समझा जाये । जीवन्धरको बुद्धिषेकी बात लग गयी और वे एक वृद्धका रूप बनाकर सुरमंजरीके घर पहुंचे। प्रतिहारियोंके रोकने पर भी ये भवनके भीतर घुस गये। प्रतिहारियोंने सुरमंजरीके पास इसकी खबर भेजी। सुरमंजरीने वृद्धवेषो जीवन्धरको प्रेमसे भोजन कराया। भोजनके बाद वह वहीं सो गये । मध्यरात्रिके समय इन्होंने मधुर संगीत छेड़ा। इनके संगीतसे प्रमावित होकर सुरमंजरीने पूछा कि जिस तरह आपका संगीतपर अद्भुत अधिकार है इसी तरह अन्य कार्योंपर भी होगा? उन्होंने कहा कि है । तब सकुचाती हुई उसने कहा कि जीवन्धरके साथ मेरा सम्बन्ध होना क्या शक्य है ? जीवन्धरने उत्तर दिया कि यदि मेरी बात माननेमें तत्पर होओ तो अवश्य शक्य है और बात यह है कि समस्त वरदानोंके देनेमें दक्ष कामदेवका मन्दिर है। वहाँ आप चलें। वहाँ तुम्हारा सब मनोरथ पूर्ण होगा। जीवन्धरकी बात सुनकर सुरमंजरी कामदेवके मन्दिर में जाने के लिए तत्पर हो गयी।
३१८-३३३ २२५-२२८. वृद्धवेषी जीवन्धरके साथ सुरमंजरी कामदेवके मन्दिरमें पहुंची शौनामदेवकी प्रतिमा के समक्ष विनीतभावसे प्रार्थना करने लगी कि मुझे जीवन्धरकी प्राप्ति हो । वहां पहले से ही छिपे हुए एक मित्रने आकाशवाणीके रूपमें प्रकट किया कि तुम्हें 'तुम्हारे इष्ट वरकी प्राप्ति हो चुकी' इसी समय वृद्धवेषी जीवन्धर अपना वृद्धवेष छोड़ असली वेष में प्रकट हो गये। सुरमंजरी जीवन्धरको सामने खड़ा देख सहम गयी। अन्तमें सुरमंजरीके साथ जीवन्धरका विवाह उल्लासपूर्वक हुआ । सुरमंजरीका पिता कुबेरदत्त सेठ भी अपनी पुत्रीके इस सम्बन्धसे अत्यन्त प्रसन्न हुआ। ३३३-३३६ दशम लम्भ २२९-२३२. तदनन्तर जीवन्धर सुमतिकी पुत्री सूरमंजरीको सुखोपभोगसे सन्तुष्ट कर अपने मित्रोंसे प्रशंसित होते हुए गन्धोत्पाट और सुनन्दासे मिले। गन्धर्वदत्ता और गुणमालाको प्रसन्न
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विषयानुक्रमणिका
किया । राजपुरोमें कुछ दिन रहनेके बाद जीवन्धरने अपने मामा गोविन्दराजके पास जानेका विचार किया और गन्धोत्कटसे आज्ञा लेकर विदेह देशको ओर प्रस्थान कर दिया। गोविन्दरामने अपने भानजेका आगमन सुन बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और बड़े वैभवके साथ उनका धरणीतिलक नामक राजधानी में प्रवेश कराया ।
२३३ - २४० धरणीतिलक राजधानीके लोगोंने जीवन्धरके प्रति बहुत भारी अनुराग प्रकट किया । इसी बीच गोविन्द महाराजके पास काष्ठांपारका पत्र आया कि सत्यन्धर के मरणके विषय में राजपुरीकी जनता मुझे व्यर्थ ही कलंकित करती हैं। एक उन्मत्त हाथीके द्वारा यह कुकृत्य हुआ था । आप हमारे मित्र हैं अतः राजपुरी आकर हमारे इस कलंकका परिमार्जन करें। इस पत्रका गोविन्द महाराजकी सभा में वाचन हुआ थोरू राजपुरीके पहुँचनेका यह अति निमन्त्रण स्वीकृत कर लिया गया। गोविन्द महाराज अपने भानजे जीवन्धरको साथ ले युद्धको पूरी तैयारी के साथ हेमांगद देशकी ओर चल पड़े।
३३७-३४३.
२४१-२४५. काष्ठांगारने बड़े सम्मान के साथ गोविन्द महाराजकी अगवानी की। वहाँ जाकर गोविन्द महाराजने अपनी पुत्री लक्ष्मणा के स्वयंवर करनेका विचार किया और इस स्वयंवरके व्याज से देश-देशके राजाखौंको बुलाकर राजपुरी में एकत्रित कर लिया। स्वयंवर में कन्या प्राप्तिको शर्त चन्द्रक यन्त्र से नियन्त्रित वराहोंके तीन पुतलोंको बाणसे एक साथ वेध देना था। साढ़े छह दिन तक स्वयंवर मण्डपमें राजकुमारोंके उद्योग चलते रहे पर कोई भी इस शर्तको पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो सका। अन्त में जीवन्धर कुमारने शतंके अनुसार एक ही बाणके द्वारा वराहोंके तीनों पुतलोंको वेधकर नीचे गिरा दिया।
३४३-३५३
२४६ - २४९. इस कार्यसे जीवम्बर कुमारका शौर्य वृद्धिगत हो गया। इसी अवसरपर गोविन्द महाराजने सब राजाओंके सामने प्रकट किया कि यह जीवम्वर राजा सत्यन्धरका पुत्र है । काष्ठागारने राजद्रोह कर छलसे इनका घात किया था। गोविन्दराजकी इस घोषणाको सुनकर काष्ठांगार को लेने के देने पड़ गये । सब राजांबोंने जीवन्बरके प्रति बड़ा सम्मान प्रकट किया और पद्मास्य आदि जीवन्धरके मित्रोंने काष्ठाङ्गारसे राज्य परित्यागका आग्रह किया । राज्य परित्याग न कर वह युद्धके लिए तैयार हो गया। निकृष्ट राजा काष्ठांगारकी ओर और विशिष्ट राजा जीवन्वरकी ओर हो गये । तदनन्तर भयंकर युद्ध हुआ और उसमें जीवन्धर ने काष्ठागारको मार डाला । जीवन्धरकी विजय पताका फहरा उठी। उन्होंने गोविन्द महाराज तथा अन्य राजाओंको प्रसन्न किया ।
२५९ - २६३. प्रजा में सुमंगलकी घोषणा की गयी। लक्ष्मणाके विवाहको तैयारियाँ होने लगीं । माता विजयाका हृदय अपार आनन्द में निमग्न हो रहा था। वह बड़ी लगनके साथ विवाहकी
1.९.
३५३-३६३
२५० - २५८. तदनन्तर जीवन्धरने बड़े वैभवके साथ राजपुरी में प्रवेश किया। सर्व प्रथम जिनालयमें जाकर भगवान् जिनेन्द्र के दर्शन किये। उनका महाभिषेक कराया । यश्चकों को मनचाहा दान दिया। उसी समय सुदने आकर जीवन्धर कुमारको सिंहासनारूढ कर उनका राज्याभिषेक कराया । तत्पश्चात् जयलक्ष्मी नामक हस्तिदीपर सवार हो राजमार्गसे नगरी में परिभ्रमण कर उन्होंने राजभवन में प्रवेश किया। जीवन्धरके दर्शन के लिए नगरीकी समस्त स्त्रिय उमड़ पड़ीं। उन्होंने काष्ठांगारके अन्तःपुरके लोगों की रक्षा की जाये, उन्हें किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाये यह घोषणा की तथा अन्य कैदियोंको बन्धन से मुक्त कराया । गन्धोत्कटको राजश्रेष्ठीका पद दिया, नन्दायको युबराज बनाया और पद्मास्य आदिको महामन्त्री आदिके पद दिये तथा बारह वर्ष तक के लिए लगान माफ कर दिया।
३६३-३७२
३७२-३८३
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गद्यचिन्तामणिः
तैयारियां करा रही थी। शुभ मुहूर्तमें जीवन्धरने लक्ष्मणाका वरण किया। लक्ष्मणाकी माताका नाम नवुति था ।
१०
एकादश लम्भ
२६४-२६८. राजा जीवन्धर निष्कण्टक राज्यका उपभोग करने लगे । सब देवियोंको बुलाकर उन्होंने प्रसन्न किया । तदनन्तर विजया महादेवी और सुनन्दाने आर्यिका की दीक्षा ले ली इसलिए ant इष्टवियोगका दुःख हुआ परन्तु धीरे-धीरे संसारका प्रवाह अपनी धारासे चलने लगा । ३९५ - ४०१ २६९ - २७४. किसी समय जीवन्वर क्रीडासरसीमें जलक्रीड़ाके लिए गये। स्त्रियोंके साथ जलकोड़ा करनेके बाद उन्होंने वानरोंकी लोला देखी । एक वानरी वानरसे रुष्ट हो गयी तब वानर यह कहकर अचेत पड़ गया कि यदि तुम मुझे नहीं चाहती हो तो मैं मरता हूँ। वानरी उसे सचमुच मृत समझ उसका आलिंगन करने लगी । प्रणयकोप समाप्त होनेके उपलक्ष्य में वानरने एक पनसफल तोड़कर वानरीके लिए दिया, किन्तु वनपालने आकर वानरीसे वह पनसफल छीन लिया। इस घटनासे जीवन्धरको वैराग्य आ गया । उन्होंने समझा कि जिस प्रकार इस वनपालने वानरीसे पनसफल छीन लिया है उसी प्रकार मैंने काष्ठांगारसे राज्य छीन लिया है। विषय-भोगोंसे उनका वित्त विरक्त हो गया। उन्होंने मुनिराजके मुख से धर्मोपदेश श्रवण करनेकी भावना प्रकट की तथा कर्मचारियोंको जिनपूजाको सामग्री तैयार करनेका आदेश दिया ।
२७५ - २८२. मन्दिर में जाकर उन्होंने गद्गदवारणीसे भगवान्का स्तवन कर पूजा की तथा दो मुनिराजोंके दर्शन कर उनसे धर्मोपदेशकी प्रार्थना की। प्रधान मुनिराजने चतुर्गति रूप संसार के दुःखोंका वर्णन करते हुए उससे छूटने का उपाय बतलाया। इसी संदर्भमें जीवन्धर महाराजने मुनिराज से अपने पूर्वभव पूछे 1
२८३ - २८६. मुनिराजने कहा कि तुम पूर्वभवमें धातकीखण्ड द्वीपके भूमितिलक नगर के राजा पवनयेमके यशोधर नामक पुत्र थे। तुमने अज्ञानवश हंसके एक बच्चे को पकड़वाकर उसे मातापितासे वियुक्त किया था। पीछे पिता के कहने से तुमने उसे छोड़कर माताके पास भेज दिया था । इसी पापके कारण तुम्हें प्रारम्भसे ही माता-पिताका वियोग सहन करना पड़ा है। मुनिराज - के मुखारविन्दसे अपने पूर्वभव तथा धर्मोपदेश सुनकर जीवन्धरका वैराग्य प्रवाह और भी तीव्रवेग से बहने लगा | उन्होंने गन्धर्वदत्ता के पुत्र सत्यन्वरको राज्य दिया तथा सब स्त्रियों को संसारको स्थिति परिचित कराया । इससे सब स्त्रियाँ भी दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक हो गयीं । अन्त में नन्दा और अपनी सब स्त्रियोंके साथ उन्होंने भगवान् महावीर स्वामीके समवसरण - की ओर प्रयाण किया ।
२८७ - २९७. समवसरणमें पहुंचकर उन्होंने भगवान् महावीर स्वामी की स्तुति की तथा दीक्षाकी प्रार्थना की। तदनन्तर दीक्षा धारण कर उन्होंने परमसंयम स्वीकृत किया। उसी समय सुदर्शन यक्षने लाकर इनकी स्तुति की। अन्तमें कठिन तपश्चर्या कर इन्होंने निर्वाण प्राप्त किया और देवियोंने यथा योग्य स्वर्गपद प्राप्त किया ।
परिशिष्ट
१. क्षत्रचूडालंकार २. सूक्तिसंचय
३. व्यक्तिवाचक सूची
४३९-४४२ ४४३
४४४-४४५
३८३-३९४
४०१-४०८
४. भौगोलिक शब्द सूची
५. पारिभाषिक शब्द सूची
६. कतिपय विशिष्ट शब्द सूची
४०८-४२०
४२०-४२७
४२७-४३७
४४५ ४४६–४४७ ४४७-४५७
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[प्रथमो लम्भः] श्रियः पतिः पुष्यतु वः समीहितं त्रिलोकरक्षानिरतो जिनेश्वरः । यदीयपादाम्बुजभक्तिशीकरः सुरासुराधीशपदाय जायते ।।१।। प्रणम्रगीर्वाणकिरीटभानुभिः प्रफुल्लपादाम्बुरुहान् गणेश्वरान् । प्रणौमि येषां स्तुतिरेव भारती कवित्वशक्त्यै भुवि कल्पते नृणाम् ।।२।।
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[संस्कृत-टीका ] श्रेयः श्रियं दिशतु में वीरो विज्ञानमासितस्वात्मा। रागद्वेषविमुको निरिखस जनानन्दहितदेष्टा ॥५॥ शेषा अपि तीर्थकराः संसारध्यान्तनाशने रक्यः । तिमिरं हन्तु सद्यो मन्मानसमन्दिरावसथम् ॥२॥ स्थारपदभ्राजिता जीयाज्जैनी वाणी सुखावनिः । तत्त्वोपदेशनिष्णाता सर्वकल्याणकारिणी ॥३॥ गुरवः कुन्दकुन्दाद्या रत्नत्रयविभूषिताः । दर्शयन्तु सदा पथ्यं पन्थानं मां शिवश्रियाः ॥४॥ गद्यचिन्तामणिरयं सत्यं चिन्तामणीयते । जीवकोदन्तविभ्राजी काव्यपीयूषपायिनाम् ॥५॥
___वादीमसिंहो जितनादिसिंहो जीयादसौ वादकलामवाणः ।
निर्माय यो ह्येकमिमं महान्तं ग्रन्धं बुधश्लाघ्यसमो बभूव ॥६॥ गधचिन्तामणिमहं विवृणोमि समासतः । वादीमसिंहसूर्यारमा साहाय्यं विदधातु मे ॥७॥
अथानवद्यगद्यपद्यरचनानुपमचातुरीचमत्कृताखिलसूरि श्रीवादीमसिंह सूरिः प्रारिप्सितम्रन्थ- १५ निर्विघ्नसमाप्त्यर्थ स्पेष्टदेवताममिष्टोतुमाह-नियः पतिरिति-श्रियः अनन्तचतुष्करूपाया अन्त. रङ्गाया अष्टप्रातिहार्यरूपायाश्च बहिरङ्गाया लक्ष्म्याः पतिः, त्रिलोकरक्षायां निरतस्तत्परः स जिनेश्वरोऽहन्पर. मामा, वो युगमाकं समीहितं मनोरथं पुष्यतु यदीयपादाम्बुजयोक्त्याः शीकरः कणः सुरासुराधीशपदाय देवदानवेन्द्रपदप्राप्तये ( तादध्ये चतुर्थी ) जायते ॥१॥ प्रणति-प्रणम्रगीर्वाणानां नतामराणां किरीटभानुमिम कुटमरीचिमिः प्रफुलरे पादाम्बुरुहे येषां तान् विकसितचरणारविन्दान् गणेश्वरान् वृषभसेनादि- २० गणधरान् प्रणामि प्रकर्षण रतौमि येषां गणधराणां स्तुतिरेव मारती स्तुत्यात्मिका वाणी भुवि पृधियां मृणां लोकानां कवित्वशक्त्यै कविता निर्माणशक्त्य कल्पते जायते ॥२॥
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[हिन्दी अनुवाद]
महाबीरपदद्वन्द्व चन्दिस्वा पश्मनिभम् । गमचिन्तामणिग्रन्थं सटीक विदधाम्यहम् ।।
जो अनन्त चतुष्टय रूप अन्तरंग लक्ष्मी और अष्टप्रातिहार्य रूप बहिरंग लक्ष्मीके । स्वामी हैं, तीनों लोकोंकी रक्षामें तत्पर हैं और जिनके चरणकमलोंकी भक्तिका एक कण मुरेन्द्र एवं असुरेन्द्रका पद प्रदान करनेवाला हैं, वे जिनेन्द्र देव तुम सबके मनोरथको पुष्ट कर ।। १ नम्रीभूत देवों के मुकुटरूपी सूर्योसे जिनके चरणकमल विकसित हो रहे थे एवं जिनकी स्तुतिरूपी वाणी पृथिवीपर मनुष्योंके लिए कवित्व-शक्ति प्रदान करती है. उन गण
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गद्यचिन्तामणिः
शो० ३-. अतिस्थिरं स्वस्य पदं मनोगृहे स धर्मचिन्तामणिरातनोतु मे। यदाश्रिताः शाश्चतसंपदं बुधाः श्रयन्ति भव्या गतसंमृतिश्रमाः ||३|| अशेषभाषामयदेहधारिणी जिनस्य वक्त्राम्बुरुहाद् विनिर्गता। सरस्वती मे कुरुतादनश्वरी जिनश्रियं स्यात्पदलाञ्छनाश्चिता ।।४।। सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जग्रन्तु वाम्बजनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ||५|| श्रीपुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो दिव्यो मनुर्मम सदा हृदि संनिदध्यात् ।
यच्छक्तितः प्रकृतिमूढमतिर्जनोऽपि वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ।।६।। अतिस्थिरमिति-स प्रसिद्धी धर्मचिन्तामणिम मनोगृहे स्वस्यातिस्थिर हद तमं पदं स्थानं 'पदं व्यवसित याप्रस्थानलक्ष्माविवस्तुपु' इत्यमरः, आतनोतु करोतु यदाश्रिता यद्धर्मचिन्तामणिशरणं प्राप्तः बुधा विवेकिनो भव्या भव्यप्राणिनो गता विनष्टः संस्तिश्रमश्चतुर्गतिभ्रमणक्लेशो येषां ते तथाभूताः सन्तः शाश्वतसंपदं स्थायि संपत्ति मुन्तिमित्यर्थः श्रयन्ति प्राप्नुवन्ति ॥३॥ अशेषेति--अशेषभाषामयदेहधारिणी निखिलभाषारूपपरिणमनस्वभावा, जिनस्याहतो बननाम्बुरुहान्मुखकमलाद् विनिर्गता विनिःस्मृता प्रकटीभूता स्यारपदलाञ्छनंन कथंचिदर्थकस्यास्पदचिह्वेनाञ्चिता शोभिता स्याद्वादरूपेत्यर्थः सरस्वती १५ वाणी दिध्यपनिरिति यावत् में मम अधिनश्वरामविनाशिनां जिनाश्रय पारश्च विभूरि कुरुतात् ॥४॥
एवं देवगुरुधर्मशास्त्रस्तवनानन्तरं वर्तमानसूरीन् । स्तोतुमाह-सरस्वतीति----सरस्वत्या दाण्याः स्वैरविहारभूमयः स्वच्छन्दविहारावमयो विविधवाणीविज्ञा इति यावत् । वागेव वन्नमिति वाग्वनं वचनदम्भोलिस्तस्य निपातेन पाटिता बिदारिता प्रतीपराद्धान्तमहीध्राणां विरुद्ध सिद्धान्तपर्वतानां कोटि
यस्ते तथाभूताः । समन्तभद्रः प्रमुखो येषां ते तथाभूता मुनीश्वरा यतीन्द्रा जयन्तु जयवन्तो भवन्तु । २० उत्कर्षेण वर्तन्तामिति यावत् ॥५॥ अथ स्वगुरुं स्तोतुमाह- श्रीपुष्पसेनेति-श्रीपुष्पसेनश्चासौ मुनिनाथ
श्रेति श्रीपुष्पसेनमुनिनाथः । इतीत्यं पूर्वोकनाम्ना प्रतीतः प्रसिद्धो दिग्योऽलौकिको मनुर्मम ग्रन्थकर्तुः - हृदि हृदये 'चित्तं तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः' इत्यमरः, सदा संनिदध्यात् संनिहितो भूयात् ।
यच्छतितो यस्य सामर्थ्यात् प्रकृत्या मूढमतिरिति प्रकृतिमूहमतिः निसर्गमूर्योऽपि जनः । वादिन एवेभा
बादीमास्तेषां सिंह इति वादीमसिंहः स चासो मुनिपुङ्गवश्चेति वादीमसिंहमुनिपुङ्गवस्तस्य भावस्त २५ वादिगजविदारणकण्ठीरवस दशश्रेष्ठमुनिताम् । उपैति प्राप्नोति । यत्रभावेण स्वमावदुर्बुद्धि
स्यहमोदयदेवो महाविद्वानभूवं स पुष्पसेननामा गुरुः सदा मम हृदये वर्ततामिति भावः ॥ ६ ॥ धरौंको मैं बार-बार स्तुति करता हूँ ।। २ ।। वह धर्मरूपी चिन्तामणि मेरे मन-मन्दिर में अपना अत्यन्त स्थिर पद स्थापित करे जिसकी शरणमें पहुँचे हुए विवेकी भव्यजीव
संसार भ्रमणका श्रम दूर कर शाश्वतपद-निर्वाण धामको प्राप्त करते हैं ।। ३ ।। जो समस्त . भाषारूप शरीरको धारण करनेवाली है, जिनेन्द्र भगवान के मुखकमलसे निकली है और
'स्यात्' पदरूप चिह्नसे सुशोभित हैं वह सरस्वती-जिनवाणी मेरे लिए जिनलक्ष्मी-वीतराग विज्ञानरूपी लक्ष्मी प्रदान करे॥४॥ जो सरस्वतीके स्वच्छन्द विहार करनेकी भूमि हैं और जिनके बचनरूपी वनके गिरनेसे विरुद्ध सिद्धान्तरूपो पर्वतोंके शिखर चूर-चूर हो गये हैं वे समन्तभद्र आदि मुनिराज जयवन्त हो ।। ५ ।। स्वभावसे मन्दबुद्धि मनुष्य भी, जिनकी शक्तिसे वादीरूपी हाथियोंको नष्ट करने के लिए सिंहको समानता रखनेवाले मुनियोंमें श्रेष्टताको प्राप्त हो जाता है (पश्नमें जिनकी सामर्थ्यसे मुझ-जैसा मन्द बुद्धि मनुष्य भी 'वादीम सिंह' पदका धारक श्रेष्ठ मुनि बन गया ) वे श्री पुष्पसेन मुनीन्द्र नामसे प्रसिद्ध दिव्य मनु
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प्रथमो लम्भः
स्नेहप्रयोगमनपेक्ष्य दशां च पात्रं धुन्वंस्तमांसि सुजनापररत्नदीपः । मार्गपकाशनकृते यदि नामविष्यसन्मार्गगामि जनता खलु नाभविष्यत् ।।७।। त्यक्तानुवर्तनतिरस्करणौ प्रजानां श्रेयः परं च कुरुनोऽमृतकालकूटी। तद्वत्सदन्यमनुजावपि हि प्रकृत्या तम्मादपेक्ष्य किमुपेक्ष्य किमन्यमेति ।।८||
अथ मुजनं स्नानुमाह-स्नेहप्रयोगमिति--स्नेहप्रयोगं प्रीतिप्रयोगं पक्षे तैलप्रयोगम् । दशामवस्थी ५ पक्ष वनितम् । पागं शिष्यं पझे भाजनम् । अनपश्यापेक्षितमकृत्वा तमांसि अज्ञानानि पक्षे तिमिराणि धुन्धन नाशयन् सुजन एवापरस्त्रदीप इलि सुजनापसलदीपः सजनापरमणिमयदीपः । मार्गप्रकाशनकृत चिरन्तनकविमार्गप्रदर्शनाय यदि नाभविप्यहि स्लु नियूयेन सन्मागंगामिनी चासी जनता चेति सन्मार्गगामिजनता निदापमार्गगमनशीलो जनसमूहो नामविष्यत । हेतुहं तुमद्भावे लङ । यथा किल मणिमयी दीपस्तलप्रयोगं वर्तिका पात्रं चानप्रेक्ष्य स्वक्रीयप्रभाभारेण तिमिरं नाशयति तथा सुजनोऽपि १० म्नेहप्रयोगादिकमनपेक्ष्य सर्वेषामज्ञानतिमिरं नाशयतीति भावः ॥७॥ अथ सजनेन सह दुर्जनस्यापि निसर्ग वर्णग्रिनुमाह---त्यक्तति-अनुवर्तनं च तिरस्करण चेत्यनुवर्तनतिरस्करणे त्यक्त अनुवर्तनतिरस्करणे ययोस्ता यतानुवर्तनतिरस्करणी दुरीकृतसमादरतिरस्कारी । अमृतश्च कालकूटश्चेत्यमृतकालकूटी पीयूषगरलौ प्रजानां जनानाम् । श्रेयः कल्याणं परम् अकल्याणं च कुरुतो विधत्तः । यद्वदिति शेषः । तद्वत संश्च अन्यवेति मदन्यो, सो च तो मनुजी चेति सदस्यमनुजौ, सजनदुर्जनावपि त्यक्तानुवर्तनतिरस्करणौ सन्तौ १५ प्रकृया स्वभावेन श्रेयोऽश्रेयश्च कुम्तः । तस्मात किम् अपेक्ष्य, किम् उपेक्ष्य, अन्यं जनम् । एति प्राप्नोति जन इति शेषः। यथा किलामृग यनानुबानमपि लोकानां कल्याणमाकलयति कालकूटश्च त्यतिरस्करणोऽध्यकल्याणमाकलयति तथा सजनोऽपि स्यफानुवर्तनोऽपि जनानां हितमुत्पादयति दुर्जनश्च त्या निररकरणोऽयहित मुम्पादयति । अत पुत्र दुर्जनमुपेक्ष्य सज्जनस्यापेक्षणं प्यर्थमस्तीति भावः ॥ ८ ॥
'सदा मेरे हृदयमें विद्यमान रहे ॥ ६ ॥ जो स्नेह प्रयोग-प्रीतिका प्रकृष्ट संयोग ( पक्षमें तेलका २० संयोग) दशा-अवस्था ( पक्षमें बत्ती) और पात्र-व्यक्ति ( पक्ष में भाजन ) की अपेक्षा न कर अजानान्धकारको नष्ट करता है ऐसा सज्जनरूपी श्रेष्ठ रत्नमय दीपक, मार्गको प्रकाशित करने के लिए यदि नहीं होता तो निश्चयसे जनता सन्मार्गमें गमन करनेवाली नहीं होती। भावार्थ-यहाँ कपकालंकार द्वारा सज्जनको रत्नमय दीपक बतलाते हुए कविने कहा है कि चकि सजन रूपी रत्नदीपक अन्य दीपकों के समान तेल बत्ती तथा पात्रकी अपेक्षा न रख २५ ( स्नेह अवस्था और व्यक्तिका होनाधिकताका विकल्प न कर ) सबको अज्ञान-तिमिरको दूर करता है इसीलिए जनता समीचीन मार्गपर च।।७।। जिस प्रकार अमृत और काल. कृट विप, आदर तथा तिरस्कार की अपेक्षा छोड़ क्रमसे प्रजाका कल्याण और अकल्याण करते हैं उसी प्रकार सज्जन और दुर्जन भी आदर और तिरस्कारकी अपेक्षा न कर प्रजाका कल्याण और अकल्याण करते हैं। अतः किसकी अपेक्षा कर और किसकी उपेक्षा कर ३. किस को प्राप्त होऊँ ? भावार्थ- अमृतका कोई आदर न करे तब भी वह लोगोंका कल्याण करता है और कालकूटका कोई तिरस्कार न करे, सन्मान करे तब भी वह लोगोंका अकल्याण ही करता है। इसी प्रकार सज्जनका कोई सत्कार न करे तब भी वह स्वभावसे ही दूसरोका कल्याण करता है और दर्जनका कोई तिरस्कार न करे, सन्मान करे तब भी वह स्वभावसे ही दसरोका अकल्याण करता है। ऐसी स्थिति में किसीकी अपेक्षा या उपेक्षा कैसी
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गद्यचिन्तामणिः
[ श्लो०निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् ।
जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगाद्वाक्यं ममाप्युभयलोकहितप्रदायि ।।९।। गीर्वाणाधिपचोदितेन धनदेनास्थायिकामादरात्सृष्टां द्वादशयोजनायततला नानामणिद्योतिताम् ।
अध्यास्त त्रिदशेन्द्रमस्तकमिलत्पादारविन्दद्वयः प्राग्देवो विपुला चलस्य शिखरे श्रीवर्धमानो जिनः।।१०।। ५ तत्रासीनममुं त्रिलोकजनतासंसारजीर्णाटवीदावं दुर्मतघर्मतापहरसद्धर्मामृतसाविणम् ।
राजा श्रेणिक इत्यशेषभुवनप्रख्यातनामा मगदुरानकिरीटताडितनामस्तुपाल हरायः ॥११॥
अथाभिधेयप्रभावमाविर्भावयितुमाह-निःसारेति-~हि यस्मात् कारणात् जनः प्रसवानुषङ्गात् पुप्पसंबन्धात् निःसारभूतमपि बन्धनतन्तुजातं बन्धनसूत्रसमूहमा शिरसा वहति । ततो ममापि वाक्यम् ।
जीवन्धरः प्रभवो यस्थ तदिति जीवन्ध्ररप्रभवम् , तच्च तत् पुण्यपुराणं चेत्ति जीवन्धरपुण्यपुराणं तस्य १. योगस्तस्मात सात्यन्धरिकारणकपवित्रपुराणयोगात उभयलोके-इहागामिनि च लोक हितं प्रददातीत्यवं
शीलम् । वर्तत इति शेषः ॥ ॥ अथ प्रारिप्सितग्रन्थोपोदयातं वर्णयितुमाह-गीर्वाणति-प्राक पूर्व त्रिदशेन्द्राणां देवेन्द्राणां मस्तकैमूर्धमिमिलत् पादारविन्दद्वयं चरणकमलयुगलं यस्य तथाभूतः । श्रीवर्धमानी जिनः पश्चिमतीर्थकरः । विपुलाचलस्य-पृतनामगिरः शिखर शृङ्गे गीर्वाणाधिन पुरन्दरेण चोदितेन
प्रेरितेन धनदेन कुत्ररेण आदरासादरं सृष्टां रचिताम्, द्वादशयोजनायतं तलं यस्यास्तां द्वादशयोजन१५ विस्तृताम् । प्रथमतीर्थकरस्य वृषभदेवस्य समवसरणविस्तारो द्वादशयोजनपरिमिनो बभूव श्रीवर्धमानस्थ
खेकयोजनपरिमित एवासीदतोऽत्र द्वादशयोजनायततलामिति विशेषणं चिन्त्यम् । नानामणिमिरनेकरत्नयोतितां प्रकाशिताम् । आस्थानिकां समवसरणभूमिम् । अध्यास्त तन्त्र स्थितोऽभूत् । 'अधिशीङ्स्थास कर्म' इत्याधारे कर्मत्वम् ॥१०॥ तत्रेति-सत्रास्थायिकायाम् । आसीनमुपविष्टं निलोकजनताया जा
धोमध्याभिधलोकत्रयजनसमूहस्य संसार एव चतुर्गतिसंसरणमंत्र या जीर्णाटवी पुराणावनी तस्या दावं २० दावानलं तथाभूतम् ‘दव दायी बनानले' इति हैमः ! दुर्मतमेव मिथ्यामतमेव यो धर्मस्तस्य तापस्तस्य
हरं यत्सद्धर्म एचामृतं तत्वावयतीति तथाभूतम् । अमुं श्रीवर्धमानजिनम् । 'श्रेणिक' इति, अशेषभुवने निखिलसंसारे प्रख्यातं नाम यस्यासौ तथाभूतो राजा नमन् नमस्कुर्वन् दूरानमेण दूरबिनतेन किरीटेन मकुटेन ताडितं तलं येन तथाभूतः सन् , किं च हृष्ट आशयो यस्य तथाभूतः सन् । तुष्टाव स्तवनं चकार ॥११॥
की जाये ? ॥ ८ ॥ बन्धनके तन्तुओका समूह यद्यपि निःसार होता है. तथापि फूलोंके २५ सम्बन्धसे मनुष्य उसे शिरपर धारण करता है इसी प्रकार मेरे वचन यद्यपि निःसार हैं
तथापि जीवन्धर स्वामीसे उत्पन्न पवित्र पुण्यके साथ संयोग होनेसे वे दोनों लोकोंमें हित प्रदान करनेवाले हैं ।।९।। पहले की बात है कि श्री वर्धमान जिनेन्द्र, विपुलाचलके शिखरपर इन्द्र के द्वारा प्रेरित कुबेरसे आदरपूर्वक निर्मित बारह' योजन विस्तृन एवं नानाप्रकार के
मशियांसे प्रकाशित समवसरण सभामें विराजमान थे। उस समय उनके दोनों चरणकमल ३० इन्द्र के नम्रीभूत मस्तकसे मिल रहे थे ।।१०।। समवसरणमें विराजमान भगवान , तीन लोककी
जनताके संसाररूरी जीर्ण अटवीको नष्ट करने के लिए दावानल थे और मिथ्यामनरूपी घामके सन्तापको हरनेवाले सद्धर्मरूपी अमृनको झराने वाले थे । उसी समय समस्त संसार में जिसका 'श्रेणिक' यह नाम प्रसिद्ध था, दूरसे ही नम्रीभूत मुकुटसे जो पृथिवीतलको ताड़ित कर रहा था और जिसका हृदय अत्यन्त हर्षसे युक्त था ऐसा राजा. नमस्कार कर उनको स्तुति करने
१
१
. समवसरणका यह विस्तार सामान्य समवसरणको अपेक्षा लिखा जान पड़ता है क्योंकि वर्धमान स्वामीके समवसरणका विस्तार एक योजन प्रमाण था वारह योजन प्रमाण नहीं ।
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-१५]
प्रथमो लम्मः तत्रस्थं चतुराश्रमस्थपुरुषानुष्ठेयधर्मस्थितिव्याख्याध्यापृतिदृश्यमानदशनालोकं गणाधीश्वरम् । वन्दित्वा मकुटावतंसकुसुमामोदेन लिम्पन्महीमप्राक्षीकिमपि क्षमापतिरथ स्पष्टीभवत्कौतुकः ।।१२।। नानाभोगपयोधिमग्नमतयो वैराग्यदूरोज्झिता देवा न प्रभवन्ति दुःसहतमां वोढुं मुनीनां धुरम् । इत्याहुः परमागमस्य परमां काष्ठामधिष्ठास्नवस्तद्देवो मुनिवेषमेष कलयन्दृश्येत कस्मादिति ॥१३॥ इत्थं पृच्छति पार्थिवे गणधरस्तद्वृत्तमाख्यातवान् राजन्नैष सुर: पुरा नरपतिविश्वंभराविश्रुतः । । वैराग्येण तृणाय राज्यमतुलं मत्वा विमुच्याशु तत्प्राविक्षत्पदवीं तपोधनगतां गीर्वाणतुल्याकृतिः।।१४॥
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तत्राथमिति-अथ वर्धमान जिनस्तवनानन्तरम् । स्पष्टीमवत्कोतुकं यस्य तथाभूतः। क्षमापतिः श्रेणिकः। सन्नस्थं समक्सरणस्थितं । चनुर्वाश्रमपु तिष्टन्ति चतुराश्रमस्थास्ने च पुरुषास्तरनुष्टेया या धमंस्थितिस्तस्या व्याख्याव्याप्ती वर्णनकार्ये दृश्यमानो दशनालोको दन्तप्रकाशो यस्य ने तथाभूतं गणाधीश्वर गौतमगणधरं वन्दित्वा मकुटावतंसकुसुमामोदेन मौल्यलङ्कारपुष्पसुरभिणा महीं लिम्पन् १० सन् किमपि । अप्राक्षीत् ॥ १२ ॥ नानाभोगेति-नानाभोगपयोधौ विविधोगसागर माना मतियेषां तं तथाभूताः । वैराग्येण दूरोज्झिता वैराग्यं धर्तुमसमर्था इति यावत् । देवाः सुराः, दुःसहतमामतिकटिनां मुनीनां धुरं यतीनां भारं वोढुं धतुं न प्रभवन्ति न समर्था जायन्ते । इतीत्थं परमागमम्योत्तमजिनशास्त्रस्य परमां चरमा काष्टां सीमानम् अधिक्षस्नवोऽधिष्टानशीलाः परमशास्त्रपारंगता इति यावन आहुः कथयन्ति तत् पुनः, एष देवो दृश्यमानः सुरो मुनिवेषं यनिमुद्रां कलयन् दधत कस्मावतोः दृश्यते । इति श्रेणिको महीपाली गौतम गणीन्द्रं पप्रच्छेति संबन्धः । इत्थमिति-इन्थमनेन प्रकारेण पृथिच्या अधिपः पार्थिवस्तस्मिन् श्रेणिकभूपती पृच्छति सति गणधरो गौतमः, तद्वृत्तं पूर्वोकमुन्युदन्तम् आख्यातवान् । हे राजन् , एष दृश्यमानो मुनिः सुरो देवो नास्ति । अयं पुरा दीक्षा ग्रहणात्पूर्वम् । विश्वम्भरायां विश्रुत इति विश्वम्भराधिश्रुतः पृथिवीप्रसिद्रो नरपती राजा । आसीदिति शेषः । वैराग्येण विरागस्य भावः कर्म धा वैराग्यं तेन । अतुल मनुपमं राज्यं तृणाय मरवा तृणवत्तच्छं मत्वा 'मन्यकर्मण्यनादरे . इति चतुर्थी । आशु भगिति तद् राज्यं विमुच्य त्यक्त्वा तपोधनगतां मुनिगता पदवी मार्ग प्राविक्षत् प्रचिवेश । गीर्वाणेन देवेन तुल्याकृतिर्यस्य स इति मुनि विशेषणम् । नायं सुरः किंतु सुर इव भातीति
लगा ।।११।। उसी समवसरणमें ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु इन चार आश्रमों में स्थित मनुष्यों के द्वारा करने योग्य धर्मस्थितिकी व्याख्या करते समय जिनके दाँतका प्रकाश दिखाई दे रहा था ऐसे गणधर भगवान् विराजमान थे। राजा श्रेणिकने मुकुट-सम्बन्धी मालाके फूलोंकी सुगन्धसे पृथिवीतलको व्याप्त कर उन्हें भी नमस्कार किया और २५. कौतूहल प्रकट करते हुए कुछ पूछा ।। १२ ।। भगवन् ! 'नानाप्रकारके भोगरूपी सागर में जिनकी बुद्धि निमग्न है तथा बैराग्यने जिन्हें दूरसे ही छोड़ रखा है ऐसे देव मुनियोंका अत्यन्त दुःसह भार धारण करने के लिए समर्थ नहीं है। ऐसा परमागमको परम: सीमाको प्राप्त उत्कृष्ट ज्ञाता आचार्य कहते हैं फिर यह देव मुनि वेधको धारण करता हुआ क्यों दिखाई दे रहा है ? ॥१३।। इस प्रकार राजा श्रेणिकके पूछनेपर गणधर भगवान्ने उन ३० मुनिका वृत्तान्त कहा और बतलाया कि हे राजन् ! यह देव नहीं है। दीक्षा लेनेके पूर्व यह समस्त पृथिवीमें प्रसिद्ध राजा था। इसकी आकृति देवों के तुल्य है। यह वैराग्यसे अतुल्य गज्यको तृणके समान तुच्छ समझ उसे शीघ्र ही छोड़ तपस्वियोंके मागमें प्रविष्ट हुआ है ।।१४||
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गद्यचिन्तामणिः
[ श्लो०१५इत्येवं गणनायकेन कथितं पुण्यासूब शृण्वतां तज्जीवन्धरवृत्तमत्र जगति प्रख्यापितं सूरिभिः । विद्यास्फूतिविधायि धर्मजननीबाणी गुणाभ्यर्थिनां वक्ष्ये गद्यमयेन वाङ्मयसुधावर्षेण वाक्सिद्धये।।१५॥
१. अस्ति खलु निखिलजलधिपरिक्षेपविलसदनेकद्वीपकमल कणिकारूपस्य जम्बूद्वीपस्य दक्षिणभागभाजि भारते खण्डे पुण्डरीकासनाया: क्रीडागृहमिव लक्ष्यमाणः, प्रक्षीणमोहजनितजिन५ चरणपक्षपातैः अक्षुणमतिमन्दरमथितविद्यासागरसमासादिततत्त्वावबोधसुधारसः अहरहरूपचितसुकृत
मुकुलितपरलोकभयः अभ्यागतसंविभक्तविभवविज़म्भमाणवितरणगुणगरिमनिमीलदमरमहीरहमाहात्म्यै: ममतामर्थेष्वनाकलयद्भिः आत्मचरितापहसितकलिविलसितैः, आवसद्भिः सद्भिरारोपितभावः ॥१४॥ इत्येवमिनि-इन्यत्रमनेन प्रकारण गणनायकन गणस्वामिना गौतमेन कथितं ख्यातं शृण्वतामाकर्णयता पुग्यास पुण्यकर्मास्रथकारणम् । अत्र जगति संसारेऽस्मिन् सूरिभिराचार्य: प्रख्यापितं प्रसिद्धि प्रापिनम् । धर्मस्य जननी या वाणी तस्या गुणाभ्यर्थिनो गुणाभिलाषिणाम् । विद्यायाः स्फति विदधातीत्येवं शीलमिति विद्यास्कृतिविधाथि विद्याविकासकारणं तत् जीवन्धरवृत्तं जीवन्धरचरितं गद्यमयेन गयरूपेण . वाङ्मयसुधावर्षेण वाङमयपीयूषवृष्टया वाचां सिद्धिस्तस्य वाक्सिद्धये । वक्ष्ये कथयिष्यामि ॥१५॥
६१. अस्तीति-खलु निश्चयन, निखिलजलधीनां सकलसागराणां परिक्षेपेण परिधिना विलसन्ति मान्यनेकद्वीपकमलानि नानाद्वीपारबिन्दानि तेषां कणिकाया इत्र रूपं यस्य तथाभूतस्य जम्बूद्वीपस्य १५ दक्षिणभागमाजि दक्षिणभागं भजतीति तथाभुतं भारते खण्डे मस्तक्षेत्रे हेमाङ्गदनामा जनपड़ोऽस्तीति
कर्तृक्रियासंबन्धः । अथ समव विशिनप्टि-पुण्डरीकासनाया लक्ष्म्याः क्रीडागृहमित्र केलिनिकेतनमिव लक्ष्यमाणो दृश्यमानः । प्रश्नीणो नाशं प्राप्तो यो मोहो मिथ्यात्वप्रकृतिस्तेन जनितः समुत्पादितो जिनचरणग्रोवीतराग-सर्वज्ञ-जिनेन्द्रचरणयोः पक्षपातो भक्तियेषां तैः । अक्षयोन पूणेन मतिमन्दरंण बुद्धिमन्था
चलेन मथितो विलोडितो यो विद्यासागरस्तस्मानसमासादितः प्राप्तस्तवावबोध एव सुधारसो यस्तैः। २० अहरहः प्रतिदिनम् उपचितेन संचितेन सुकृतेन पुण्यन मुकलितं दूरीभूतं परलोकमयं येषां तैः । अभ्या
गतेभ्योऽतिथिभ्यः संविमतः कृतविभागो यो विभवो धनं तेन विज़म्ममाणो वर्धमानो यो वितरणगुणगरिमा दानगुणमहिमा तेन निर्मालत् संकुचत् अमरमहीरुहाणां कल्पवृक्षाणां माहात्म्य यस्तैः । अर्थेषु वित्तेषु ममतां ममत्वबुद्धिम् अनाकलयधिरप्राप्नुवद्भिः । आत्मचरितेन स्वकीयपवित्रावरणेनापहसितं
तिरस्कृतं कलिघि लसितं कलिकालचेष्टितं यस्तैः । एवंभूतैः आवसद्भिः समन्तात्कृतनिवासः । सद्भिः सत्२। इस प्रकार श्रोताओंके लिए पुण्य कर्मका आस्रव करनेवाला जो चरित गणधर भगवान्ने कहा
है, अनेक आचार्योंने संसार में जिसे प्रख्यापित किया और जो धर्मको उत्पन्न करनेवाली वाणीके गुणों के अभिलाषी मनुष्योंकी विद्याकी स्फूर्तिको करनेवाला है जीवन्धर स्वामीके उस चरितको मैं वाणीकी सिद्धि के लिए वाङ्मय में अमृतकी वर्षा करनेवाले गद्यमय सन्दर्भसे कहूँगा ॥११॥
१. समस्त समुद्रों के घेरेसे सुशोभित अनेक द्वीपरूपी कमलोंकी कर्णिकारूप जम्बूद्वीपके दक्षिण भागमें स्थित भरत क्षेत्रमें एक हेमाङ्गद नामका देश था। वह देश लक्ष्मी के क्रीड़ागृह के समान जान पड़ता था और सब ओर निवास करनेवाले उन सज्जनोंसे उसका गौरव बढ़ रहा था जिनका मोह अत्यन्त क्षीण हो जानेसे जिनेन्द्र भगवानके
चरणों में पक्षपात उत्पन्न हो रहा था, अखण्ड बुद्धिरूपी मन्दराचलसे मथित विद्यारूपी ३५ सागरसे जिन्हें तत्त्वज्ञानरूपी सुधारस प्राप्त हुआ था, प्रतिदिन बढ़ते हुए पुण्यसे जिनका
परलोक-सम्बन्धी भय दूर हो गया था, अतिथियों के लिए प्रदत्त वैभवसे बढ़ते हुए दान गुणकी महिमासे जिन्होंने कल्पवृक्षोंका माहात्म्य कुण्ठिन कर दिया था, जो धनमें कभी
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१५
५॥
- १. हमाङ्गद जनपदवर्णनम् ] प्रथमो लम्भः गरिमा, दिशि दिशि दृश्यमानकनकमयिमानतिलकितवियन्मध्य: ध्यानपरयमधरोध्युषितवेदिकोपशोभिताशोकपादपच्छायालङ्घनचकितभव्यलोकवक्रितप्रदक्षिणभ्रमणैः परहितनिरतमुनिवरपरिपदभिहितधर्मानुकथनकर्मठशुककुलयाचालोद्यानशाखिशाखापरिष्कृतपरिसरैः उपसरत्संसृतेरुपरतिमुपजनपद : जिनालयेरुपशोभितः, सततविनिहितसलिलसेकजनितशैत्यविनिर्गतपुलकतुलितमुकुलदन्तुरिजन वदनिलम्पिविटपबाहुभिरतिदुर्धरं फलभरं दातुमाह्वयतेव प्रत्यग्रकन्दलीदलनदुर्ललित को- ५ शिलवालालापछलन मनातजविजयभोगावलीमिव पठता सहकारतरुपण्डेन कृतमण्डनैः मधुकरनिकर
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पस्य जनकुत
पत
वतासद्धि
तीउपेण
रन्ति
पिस्य नीति पमिव जिनपन्धा
पुरवः । आरोपितो गरिमा यस्य स वर्धितगौरवो हेमाङ्गदजनपदः । पुनश्च, दिशि दिशि प्रतिदिशं दृश्यमानः कनकमरिमान: वन्दनाथमागच्छता देवविद्याधराणा सौवर्णव्योममानैस्तिलकिनं व्याप्त वियन्मध्यं गगनमध्यभागी यस्तैः । भ्यानपरा ध्याननिमग्ना ये यमधरा मुनयस्तैरध्युपिता अधिष्ठिता या वेदिकाम्नाभिरवशोभिता धेऽशोकपादपाः ककेलिवृक्षास्तेषां छायाया लडनादनिक्रमणाच्चकिता मीसा थे भव्य- १० लोकासर्वक्रितं कु-िलितं प्रदक्षिणभ्रमणं प्ररित्रमाभ्रमणं येषां तैः । परहितनिरतानां परोपकारासताना मुनिवराणां परिबदा समूहनाभिहितस्य कथितस्य धर्मरयानुकथने पुनरुच्चारणे कर्मयानि शक्तियुक्तानि यानि शुककलानि कोरसम्हास्तर्वानाला मुखरा या उद्यानशाखिशाखा उपचनतरुशालास्ताभिः परिष्कृतः शोभितः परिमसः समीपप्रदेशो येषां सेः। उपसरनां समीपमागच्छतां संस्स्सेः संसारस्य । उपानि समाप्तिम् उपजनयतिः कुर्वद्भिः । जिनालयरुपशामिनी हमाङ्गदजनपदः । पुनश्च, सततविनि- १५ हिनन निरन्तरकृतेन मलिलसेकेन जलक्षेचनेन जनितं अच्छत्यं तेन विनिर्गतैः पुलकै रमाहस्तुलितानि यानि मुकुला न मारीडमलानि तैनन्तुरितन च्यातेन । बहता अनिलेन कम्पितास्तैर्वहमानपत्रमानचलितः । विटपा एक बाहवस्तः शाखाभुजः । अतिदुर्धरम् अतिदान धत शक्यं विपुलप्रमाणमिति यावत । फरभरं फल समूह दानुमायतेत्राकारयतेध । प्रत्यग्रकन्दलीना नूतनमारीणां ‘दलनेन खण्ड नेन दुर्ललिताः सुतरा ये कोकिलास्तेषां कलालापच्छले नाव्यक्तमधुरालापव्याजेन मनसिजविजयस्य कामविजयस्य २० भागातली कीर्तिप्रशस्ति पटतेव सहकारतरुषण्डेमानिसौरभाम्रवृक्षसमूहेन 'आम्रचूतो रसोलोऽसौ सहकारोऽतिमौरभः' इत्यमरः । कृतमण्डनैः कृतालकारः शोभितैरिति यावत् । मधुकरनिकरो अमरसमूह एवं
अथषु
सितं
--
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सत्
गली मीके
ममता नहीं रखते थे और अपने आचरणसे जिन्होंने कलिकाल के वैभवकी हँसी उड़ायी थी। वह उन जिनमन्दिरोंसे सुशोभित था जिन्होंने प्रत्येक दिशामें दिखाई देनेवाले सुवर्णमय विमानोंसे आकाशके मध्यको व्याप्त कर रखा था, ध्यानमें तत्पर मुनियोंसे अधिष्ठित चबूतरों- २५ से सुशोभित अशोक वृक्षकी छाया लाँधनेसे भयभीत भव्य जीवों के द्वारा जिनकी प्रदक्षिणाका फेरा टेढ़ा हो रहा था, परहित में तत्पर उत्तम मुनिसमूह के द्वारा कथित धर्मवाक्यों के पुनरुच्चारण करने में निपुण तोताओं के समूहसे शब्दायमान बाग-बगीचोंके वृक्षोंकी शाखाओंसे जिनका समीपवर्ती प्रदेश सुशोभित था, और जो समीपमें आनेवाले जीवोंके संसारकी समाप्ति कर रहे थे। जिन उद्यानों के द्वारा वहाँ के मनुष्यों के नेत्र विनोदको प्राप्त होते रहते ३० थे वे सुगन्धिन अम्र वृश्नों के उस समूहसे सदा अलंकृत रहते थे जो सदा किये गये जलके मिचनसे उत्पन्न शीतसे निकले हुए रोमाञ्चक समान मौर की वॉडियोंसे व्याप्त था, बहती हुई हवासे कम्पिन शाखारूप भुजाओंके द्वारा जो मानो अत्यन्त वजनदार फलसमूहको बाँटने के लिए लोगोंको बला रहा था और ननन मौरकी कलिकाओंके खानेसे सन्दर कोयलोंकी मधुर ध्वनिके बहाने कामदेवकी विजय-विरुदावलीका ही मानो पाठ कर रहा था।
क्ष्मी
नोंसे
रूपी नका दान कभी
१ म० - समधन- ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १. हेमाङ्गद
कज्जलाकलङ्किताः कामविजयनीराजनदीपिका इव कुसुममञ्जरी: पिञ्जरितदशदिशो दर्शयता चम्पकचक्रेण चारुतामुद्वहद्भिः प्रसवोत्कण्ठमानकामिनीगण्डपमधुधारा सेकनिष्पन्नपुष्परिञ्छोली' - धलितवपुषा हसते युवतिजनलालनविधुरानितरधरणीरुहान्त्र कुलतरुवाटेन वर्धितशोभैः तरुणीचरणप्रहारानन्तरमन्तः प्ररूढको पकृपीटयोनिमित्र कृकवाकुचूडापाटलं पल्लवापीडमुद्गिरता प्रत्यङ्गे ५ कलिजालेन जातनयनातिथ्यैः अन्यलताश्लेपावकाशहरणाभिनिवेशादिव गाढाश्लिष्टनिःशेषकुरवकतभिर्मार्थवीभिराधीयमानमदनबलैः उन्मीलितकुसुमात्र चय कौतुक मिलित महिलानिविशेषलती
१०
कजलस्तंनाकलङ्गिता अमलिनाः । कामस्य विजयनीराजनदीपिका इव विजयारा सिंकदीपिका इब 1 पिराः पंतकृत दश दिशो यामिस्तास्तथाभूताः । कुसुममञ्जरी: पुष्पस्वजों दर्शयता चम्पकचक्रेण चाम्पेयतस्समहेन चारुर्ता सौन्दर्यम् उद्वहद्भिः । प्रसवेषु पुष्पेण्टमाना उत्कायाः कामिन्यस्तासां १० गण्डपमा सेकेन कुरलकमद्यधारासेचनेन निष्पन्ना समुत्पन्ना या पुरी कुसुमनिस्तया धवलित शुक्लकृतं वपुः शरीरं यस्य तेन ' पादाघातादशोको विकसन बकुल योषितामरस्यमयेः' इति कविसमयः । अत एव युवतिजनलालनविधुरान तरुणीजनलालनरहितान् । इतरे च तं धरणीरुहाश्च तथाभूतान् अभ्यवृक्षान् । हमतेव हास्यं कुर्वते वकुलतवाटेन बकुलमहीरुहमार्गेण वर्धिता शोभा येषां Hereभूतैः । तरुणीनां युवतीनां चरणप्रहारानन्तरं पादाघातानन्तरमूड - अन्तः प्ररूढो मध्ये समुत्पन्नः १५ कोप एव कृपीटयोनिरग्निस्तमिव । कृकवाकुचूडापाटलं ताम्रचू चू डेषन वर्णं पलवाएं किसलय समूहम् । प्रत्यङ्गम् अङ्ग अङ्गे उदरास्ता प्रकटयता कङ्केलिजालेनाशोकसमूहेन जातं समुत्पन्नं नयनानां नेत्राणामातिथ्यं येषु । अन्यलतानामितरवल्लीनामास्लेषावकाशस्य लिङ्गनावकाशस्य यो हरणामिनिवेशों दूरीकरणाभिप्रायस्तस्मादिव स यथा स्यात्तथाश्लिष्टा अलिङ्गिता निःशेषाः समग्राः कुरवकतरवो याभिस्ताभिः । माघीमिरेतन्नामलतामिः आधीयमानं समुत्पाद्यमानं मदनबलं मनसिजसामर्थ्यं येषु तैः । उन्मीलितानि
२: भ्रमर समूहरूपी कज्जलसे कलंकित मदन - विजयके आरती दीपकों के समान दशों दिशाओंको पीतवर्ण करनेवाली पुष्पमंजरियोंको दिखलानेवाले चम्पकवृक्षों के समूह से उद्यान सुन्दरताको धारण कर रहे थे। फूलोंके लिए उत्कण्ठित स्त्रियों के कुरलेकी मधुधारा के सिंचनसे उत्पन्न पुष्पों की पंक्तिसे जिसका शरीर सफेद सफेद हो रहा था और इसी लिए जो तरुण स्त्रियों के लालनसे रहित अन्य वृक्षों की मानो हँसी ही कर रहा था ऐसे बकुल वृक्षों के मार्ग से २५ उन उद्यानोंकी शोभा बढ़ रही थी । तरुण स्त्रियोंके चरण प्रहारके बाद जिसके अङ्ग अङ्ग से मुर्गाकी चोटीके समान लाल-लाल पल्लवों का समूह प्रकट हो गया था और उससे जो हृदय में उत्पन्न हुई क्रोधरूपी अग्निको धारण करता हुआ-सा जान पड़ता था ऐसा अशोक वृक्षोंका समूह उन उद्यानों में मनुष्यों के नेत्रोंका आतिथ्य - अतिथि सत्कार करता था । 'अन्य लताओंको आलिंगनका अवकाश न रहे' इस अभिप्राय से ही मानो जिन्होंने समस्त कुरवकके वृक्षोंका ३० गाढ़ आलिंगन कर रखा था ऐसी माधवी लताएँ उन उथानोंमें कामदेवको बल प्रदान
ミン
१० रिञ्छोति । २ - रयमानमदनबलैः क० ख० ग० ( प्राप्त ) । ३००० कुसुमापचय | ४ म० ललिताभिरामः । ॐ अशोकब कुलयोः स्त्रीपादताडन गण्डप मदिरे दोहदमिति प्रसिद्धिः । तथा हि
स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियङ्गुविकसति बकुलः सीधुगण्डपमेकात्
पादाघातादशोक स्तिलक कुरबको वीक्षणालिङ्गनाभ्याम्
मन्दारो नर्मवाक्यात्पद्रुमृदुहनाको वक्त्रवाता
चूतो गीतान्नमेरुविकसति च पुरो नर्तनात्कणिवरः ।।
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ז:
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- जनपदवर्णनम् ]
प्रथमो कम्मः
भिरामैः आरामविनोदितलोकलोचनः प्रतिफलिततरुहतरुनिवह्निभेन जलनिधिजिगीषया स्वयमपि कल्पतरूनिव कतिचन जठरे धारयद्भिः उद्दण्डकमल विष्टरोपविष्टकादम्बकदम्बकः उत्फुल्लकह्लारनिःस्यन्दिमकरन्दमेदुरितपाथोभिः पवनोद्धूत कल्लोलपटलकवलित वियदवकाशैः पाथीराशिपरिवभूषया सागरमहिषीं मन्दाकिनी बन्दीकर्तुमन्तरिक्षमुत्पतद्भिरिव प्रेक्ष्यमाणै: समन्तादुभिपदुत्पलजालजटिलैः जनपदलक्ष्मीदिदृक्षया सहस्राक्षतामिव विद्भिः शुभ्रसलिलभरितजठरैः जलाशयदशितानेकसागरमहिमा, क्वचित्पाककपिशकािभरविनमितशिरोभिः आत्मरोहावकाशदायिनी मेदिनीमभिवादयमानैरिव शालिस्तम्वः शुभितशालेयेन क्वचिद्विह्रमाणकमलाचरणतुलाकोटिक्स
११
५
विकसितानि यानि कुसुमानि तेषामवचत्रस्य त्रोटनस्य कौतुकन मिलिताः समागता या महिला नार्यस्तासां निर्विशेषा तुलिता या लता वर्यस्ताभिरभिराममनोहरैः । आरामैरुपत्रनैः विनोदितानि लोकलोचनानि जननयनानि यस्मिन् तथाभूतो हेमाङ्गद जनपदः । पुनश्च प्रतिफलितः प्रतिविम्बितो यस्टरह- १० वरूणां तरोत्पन्नवृक्षाणां निवहः समृहस्तस्य निभेन व्याजेन जलनिधिजिगीषया सागरं विजेतुमिच्छया स्वयमपि स्वतोऽपि कल्पतरूनिव देवानीकहानिव कतिचन कियतोऽपि जठरं मध्यं धारयद्भिः, उद्दण्डंपूतंपु कमल विष्टरंतु पद्मासनेषूपविष्टानि कादम्बकदम्बकालि कलहंससमूहा येषु तैः । उत्फुल्लल्हारेभ्यो विकसितश्वेतकमलेभ्यो निःस्यन्दिभिः प्रक्षरद्भिर्मकरन्दे को सुदुरितानि वृद्धिङ्गतानि पायांस जवानि येषां तैः । पवनेनोदूना उत्थापिता ये कल्लोलास्तरङ्गास्तेषां पटलेन समूहेन कवलिताग्रस्त विकाश १५ रागान्तरं येस्तैः । अन एव पाथोरासेः सागरस्य परिबुभूषया पराभवेच्छया । सागरमहिषीं सागरपटराजों मन्दाकिनी वहां कर्तुं कारागृहे धर्तुम् अन्तरिक्षं गगनम् उत्पतद्भिरिव प्रेक्ष्यमाणैः । समन्धपरितः उन्मिषतां विकसतामुत्पलानां नीलकमलानां जालेन समूहेन जटिलैव्याप्तिः, अत एव जनपददिक्षण पर सहस्रमक्षीणि येषां ते सहस्राक्षस्तयां भावस्ततां विद्भिरिव । शुभ्रसलिलेन धवलजलेन भरितं जयरं येषां तैः । एवंभूतैर्जलाशयैः कासारः दर्शितः प्रकटितो. २० नकसागराणां नानाम्नां महिमा येन स तथाभूतो हेमाङ्गदनामा जनपदः । पुनश्च क्वचिकुत्रापि पाकेन परिणामेन कपिशाः पिङ्गलवर्णा ये कणिशा धान्यम अर्यस्तेषां मरण समूहेन विनमितानि शिरांसि करती थीं तथा खिले हुए पुष्पोंके चयन सम्बन्धी कौतूहलसे इकट्ठी हुई महिलाओंके समान लताओंसे वे उद्यान सुन्दर थे । प्रतिबिम्बित किनारे के वृझोंके समूह के बहाने जो समुद्रको जीतने की इच्छा से स्वयं ही मानों अपने उदर में कुछ कल्पवृक्षोंको धारण कर रहे थे, जिनके २५ ऊँची दण्डीवाले कमलोंके आसनपर कलहंसों के समूह बैठे थे, खिले हुए सफेद कमलों से झरनेवाले मकरन्दसे जिनका पानी मिला हुआ था, वायुसे उठती हुई तरंगों के समूह से जिन्होंने आकाशक अवकाशको व्याप्त कर रखा था और इसीलिए जो समुद्रका पराभव करने की इच्छासे उसकी स्त्री आकाशगंगाको बन्दी बनानेके लिए मानो आकाशमें उछलते हुए-से दिखाई देते थे, जो सब ओर खिले हुए नीलकमलों के समूह से व्याप्त थे और इसीलिए ३० जो देशकी लक्ष्मीको देखने की इच्छासे ही मानो हजार नेत्र धारण कर रहे थे तथा जिनका मध्य-भाग उज्ज्वल जलसे भरा हुआ था, ऐसे तालाबों से वह देश अनेक सागरोंकी महिमा दिखला रहा था। उस देशके निकटवर्ती गाँवोंके समीपवर्ती प्रदेश कहीं तो पक जाने से पोली-पीली दिखनेवाली बालोंके भारसे जिनके शिर नत्रीभूत हो रहे थे और उनसे जो अपनी उत्पत्तिके लिए अवकाश देनेवाली पृथिवीको नमस्कार करते हुए-से जान पड़ते थे, ऐसे धानक ३५ पौधोंसे सुशोभित खेतोंसे युक्त थे। कहीं घूमती हुई लक्ष्मीके चरण नूपुरोकी झनकारक
१ म० - कादम्बकदम्बैः ।
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[१] हमाइद
णितैरिव स्थलकमलकानन केली कलितदोहलीनां कलहंसीनामारसितः आपाद्यमानश्रवणपारणेन क्वचिदनवरत विधीयमान शुश्रूषा हृष्यदुर्वी सर्वाङ्ग निर्गच्छदतुच्छ रोमाञ्च सहचरितरुचिभिः कतिपयदिवसप्ररूढैः रूढरितिमकवलित हरिदन्तरालैः प्रशस्यैः सस्यकन्दले कण्ठकथितकेदारसारगुणेन क्वचि निकटदपुण्ड्रेक्षुदण्डविघटितपर्वटनिपतितमुक्ताफलपटलशर्करिलसारणीतीरसंचारखेदितकृषीबल
५ चरणतलेन
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क्वचिदतिगम्भीरक्षेत्र रभसनिपतदभ्यर्णसारणी सलिलसमुडोनफर जिघृक्षाजनितपरस्पर कलह विधूतब कोटपचपुटदर्शितस्थलपुण्डरीकविभ्रमेण वर्षाचिदिवाप्यन्धकारितपरिसराभिः मरकतपरिपरिमानुक रम्भा नररम्भ रमणीयाभिः प्रक्रोष्टुच्चि कोडविघटितकोहलपतितके सरसकटाभिः येषां तैः । अत एव अवकाशदायिनीमवगाहमात्र मेदिनी क्षेत्रभूमिम् अभिवादयमानैरिव नमस्कुर्वद्विरिव शालिस्तम्यैः सस्यसमृहैः शुम्भितशालेयेन शोभितधान्यक्षेत्रेण ग्रामोपान प्रासनिकटवर्तिप्रदेशेन १० इति विशेष्यम् । ववित्कुत्रापि विहरमाणा यत्र तत्र संचरन्ती या कमय लक्ष्मीस्तपश्वरणतुलाकोटी नां पादनपुराणांकणितैरिव शिजितैरिव स्थलकमलकाननेषु पाटलवनेषु वेल्यां क्रीडायां कलितदोहलीनां धृतमनोरथानां कलहंसीनां कादम्बमरालीनाम् आरसितैर्मन्दशब्दः आपायमाना प्राप्यमाणा श्रवण पारणा विशेष भोजनं यत्र तेन । क्वचित्, अनवरतं निरन्तरं विधीयमाना या शुश्रूषा सेवा तथा हृदयन्ती प्रहृष्टा मयन्तीयार्थी पृथिवी तस्याः सर्वाङ्गेभ्यों निखिलावयवेभ्यो निर्गच्छद्भिस्तुच्छरीमा दीर्घदीर्घ१५ पुलकैः सहचरिता सदृशी रुचियेषां तैः । कतिपयदिवसाः प्रदानां येषां तैः । रूटेनवृद्धिगतन हरितिस्ना हरितत्वेन वलितं हरिदन्तरानं दिगन्तरं येस्तैः प्रशस्यैः प्रशंसनीयः सस्यकन्दलैर्धा ग्याभिन वाङ्कुरैः कण्डकथितः स्वेनैव प्रकटितः केदारसारगुणः क्षेत्रसारगुणो यत्र तेन । कचित् निकटरूहानां समीपसमु पन्नानां पुण्दण्डानां विघटितेभ्यः खण्डितस्यः पर्व पुटेभ्यः ग्रन्थिमवेशेभ्यो निपतितानि यानि मुक्ताफलानि तेषां पटलेन समूहेन शर्करि शर्करायुक्ते सारथीतीरे कुल्यानडे यः संचारी यतस्ततो भ्रमणं तेन २० खेदितानि दुःखितानि कृषीवलचरणतलानि कृषकपत्तलानि यत्र तेन । कचित् अतिगम्भीरक्षेत्रेऽत्यगाथक्षेत्रे रभसेन वेगेन निपतत् यत् अभ्यर्णसारगीसलिलं निकःस्कुल्याजलं तस्मात्समुड्डीनः समुत्पतितः यः शफरी मीनस्तस्य जिघृक्षया ग्रहीतुमिच्छया जनितः समुत्पादितो यः परस्परकल्होऽन्योन्यसंघर्षस्तेन विधूतैः कम्पितैर्वको पक्षपुटैव कपक्ष प्रदेशदेर्शितः प्रकटितः स्थल्पुण्डरीकाणां स्थलश्वेतकमलानां विभ्रमः संदेहो यत्र तेन । कचित् दिवापि दिवसेऽपि अन्धकारितस्तिमिरितः परिसरो निकटवर्तिप्रदेश यासां २५ ताभिः । सरकतंपरिवाणां हरितमणिनिर्मितार्गलानां परिभावुकास्तिरस्कारिका या रम्भा मोचास्तासां परिरम्भेण विस्तारं रमणीया मनोहरास्ताभिः । प्रक्रीडमिश्रिक्रोमृदु पिच्छे 'गिलहरी' इति प्रसिद्ध
१२
गर्याचिन्तामणिः
समान स्वलकमलोंके वनमें क्रीड़ा करने की भावना रखनेवाली कलहंसियों के मधुर शब्दों से कानोंके लिए पारणा करा रहे थे। कहीं निम्म्बर की जानेवाली शुश्रूषा से प्रसन्न पृथिवीके सर्वाङ्गसे निकलते हुए बड़े-बड़े रोमाञ्चोके समान कान्तिको धारण करनेवाले कुछ एक दिन३० के उत्पन्न, एवं प्राप्त हरियालीस दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त करनेवाले धान्यकी प्रशंस नीय कोपलोंसे उसके खेतोंका श्रेष्ठ गुण मानो कण्ठसे ही कहा जा रहा था। कहीं निकट में उत्पन्न हुए पढ़ और ईसके दण्डकी टूटी पोरोंके समूह से गिरे मोतियों के समूहसे करीली नहरीके तटपर घूमने से वहाँ किसानों के चरणतल खेदको प्राप्त हो रहे थे। कहीं अत्यन्त गहरे स्वत में बेगसे पड़ते हुए नहरके जलसे उछटी हुई मछली को पकड़ने की इच्छा से उत्पन्न ३५ परस्परकी कलहसे फड़फड़ाते हुए बगलोंके पंखों के समूहसे वहाँ सफेद गुलावोंका संशय दिखलाया जा रहा था। कहीं, जिनके समीपवर्ती प्रदेश दिनमें भी अन्धकारसे युक्त थे, जो मरकत मणियोंसे निर्मित अगलाओंका तिरस्कार करनेवाले कवली के विस्तार से मनोहर थीं तथा जो खेलती हुई गिलहरियोंके द्वारा विघटित सुपारीक फूलांसे गिरी केशर
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प्रथमो लम्भः
- जनपदवर्णनम् ]
पूगवाटिकाभिः प्रकटीक्रियमाणाकाण्डप्रावृडारम्भेण सर्वकालमुर्वराप्रायतया प्रथमानबहुविधसस्यसारेण ग्रामोपशल्येन निःशल्यकुटुम्बिवर्गः, सलिलदेवतानाभिमण्डलसनाभिसंनिवेशैः स्फटिकविशदसलिलपूरितोदरैः घनघटितसुधालेपधवल भित्तिपरिवेष्टितमुखतया हसद्भिरिव निरुपयोगसलिलभरभरितमपांनिधिम् अम्भःकुम्भोत्क्षेपपतितपयो बिन्दुरूढशाद्वलतृण श्यामलितानृपः कूपैरुपेतपर्यन्ताभिः अनतितुङ्गमञ्चका प्रतिष्ठितसलिलघटपरिपाटीबिलोकन मुपितपथिकजनपरिश्रमाभिः जलाधिवास - ५ घृष्यमाणपाटलीशर्करापरिमलब लिमविद्रावित निदाघवैभवाभिः अप्रविष्टतरणिकिरण शिशिरखरीपरिसरनिद्राणाध्वन्योदन्यादन्यशमन चतुरप्रभावाभिः प्रपाभिः प्रतिहतधर्मविजृम्भितः प्रत्यग्ररोहामिजन्तुभिः विवदितेभ्यः खण्डितेभ्यः कोहलेभ्यः क्रमुकपुष्पेभ्यः पतितैः कंसरैः किंजल्कः संकटा व्याप्तास्ताभिः । पूगवाटिकाभिः क्रमुकवनीभिः । प्रकटीक्रियमाणोऽकाण्डेऽसमये प्रावृडारम्भ वर्षारम्भी यत्र तेन । सर्वकाळ निरन्तरम् । उर्वराप्रायतया प्रायेण सर्वसस्याढ्य भूमितया । प्रश्रमानः प्रसिद्ध बहुविध १० सस्यसारो नानाविधधान्यसारो यत्र तेन । एवंभूतेन ग्रामीपशल्येन निःशल्या निश्चिन्ता: कुटुम्बिवर्गा गृहिसमूहा यत्र सः । तथाभूती हेमाङ्गदनामा जनपदः । पुनश्च सलिलदेवतानां नाभिमण्डलैः सनाभिः सदृशः संनिवेशो येषां तैः स्फटिकविशदेनार्कापिलोज्ज्वलेन सलिलेन पूरितमुदरं मध्यं येषां तैः । घनं प्रचुरं यथा स्यात्तथा घटित विहितो यः सुधालेपश्चूर्णलेपनं तेन धवलाभिः शुक्लाभिः मितिभिः परिवेष्टितं परिवृतं मुखमप्रभागो येषां ते, तेपां भावस्तत्ता तथा निरुपयोगेन निरर्थकंन सलिलभरेण जलसमूहेन १५ भरितम्, अपां निधि सागरम्, हसद्भिरिव तस्य हास्यं कुर्वद्भिरिव, अम्भः कुम्भानां जलभृतकलशानामुत्पेनमनेन पतितपयोबिन्दुभिः स्खलितजलशीकरैः रूढाः समुत्पन्ना ये शाहणा हरितघासास्त्रैः श्यामलितं हरिहरितीकृतमनृपं समीपप्रदेशो येषां तैः । एवंभूतैः कूपः उपतः पर्यन्तः पार्श्वप्रदेशो यास तामिः । प्रपाभिः पानीयशालाभिरिति विशेष्यम् अनतितुङ्गासु किंचिदुन्नतासु मञ्चिकासु वैदिकासु प्रतिष्ठिताः स्थापित सलिलघटा जलभृतकलशास्तेषां परिपाटी परम्परा तस्या विलोकनेन मुषितोऽपहृतः २० पथिकजनानां परिश्रमो याभिस्ताभिः । जलाधिवासेन - उशीरेण घृष्यमाणा या पाटलीशर्करा 'गुलाब' इति प्रसिद्धपुष्पसुवासितशर्करा तस्याः परिमलस्य सौगन्ध्यस्य ब्रहलिमा प्राचुर्यं तेन विज्ञापितं दूरीकृतं निदाघवैभवं ग्रीष्मसामर्थ्य याभिस्तामिः । अप्रविष्टास्तरणिकिरणाः सूर्याशश्री येषु, अत एवं शिशिराः शीतला ये खरीपरिसराः सेनाभ्यासस्थानसमीपवर्तिनः प्रदेशास्तेषु निद्राणा गृहीतनिद्रा येऽध्वन्याः पथिकास्तेषा मुदन्या तृड्वाधा तया दैन्यं तस्य शमने चतुरः प्रभाव: सामर्थ्य यासां ताभिः प्रयाभिः पानीयशालाभिः २५
"
श्री, ऐसी सुपारीकी हरी-भरी बगियोंसे वहाँ असमय में ही वर्षा ऋतुका प्रारम्भ प्रकट हो रहा था। और अधिकांश उपजाऊ भूमि होनेसे वहाँ सदा नाना प्रकार के श्रेष्ठ अन्न उत्पन्न होते रहते थे। इस प्रकार के गाँवोंके समीपवर्ती प्रदेशोंसे उस देशके गृहस्थ सदा निःशल्य रहते थे - आजीविकाकी चिन्तासे उन्मुक्त रहते थे, जिनकी रचना जलदेवता के नाभिमण्डल के समान थी, जिनके मध्यभाग स्फटिकके समान स्वच्छ जलसे भरे हुए थे, गाढ़ी गाड़ी कलई ३० ( चना ) के लेप से सफेद मनघटोंकी दीवालोंसे घिरे हुए होनेके कारण जो अनुपयोगी जलक भारसे भरे समुद्रकी मानो हँसी ही कर रहे थे और जलसे भरे घड़ों के ऊपर उठाने से गिरी जलकी बूँदों से उत्पन्न घाससे जिनके आस-पास की भूमि हरी-भरी दिख रही थी ऐसे कुअसे जिनकी समीपवर्ती भूमि व्याप्त थी। कुछ ऊँचे मंचपर रखे हुए जलभृत घड़ों का समूह देखने से ही जो पथिकजनों के परिश्रमको दूर कर रही थीं, खसके साथ घिसे हुए गुलाबसे सुवासित ३५ शक्करको सुगन्धिकी अधिकता से जिन्होंने गरमीका वैभव दूर कर दिया था और सूर्य की किरणोंका प्रवेश न होनेसे टण्ड सेनाभ्यास के समीपवर्ती प्रदेशोंके समीप सोते हुए पथिकों की प्यास-जनित दीनता के शान्त करने में जिनका प्रभाव चतुर था, ऐसी प्याऊओं के द्वारा उस देश में गरमीका विस्तार
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Animaan
गचिन्तामणिः
[ २ हेमाङ्गदततृणकरोरकवलनमुदितः अवनितलविलुठितवालधिपल्लवैः अग्रचलितबलबदुक्षदर्शनभयधावदध्वर्ग: गति रभरारणितमणिकिङ्किणीरवमुखरितभुवनविवरैः स्मरणपथविहरमाणतर्णकवमितदुग्धधाराधौतधरातल: कठिनखुरपुटखननसमुत्पतदविरलपरागपटलच्छलेन गोशब्दसाम्यसमाविर्भूतस्नेहतया भूत
धात्र्येव दीयमानानुयात्रैः स्वभावकुण्डलितशिखरभीषणविषाणव्याजेन दुष्टसत्त्वसमुत्सारणाय कार्मुक५ भिव कलयद्भिः प्रशस्तकर्मसाधनैः गोधनैः पवित्रीकृतसीमा, हेमाङ्गदनामा जनपदः ।
२. यश्च दीर्गत्यनिवासपरिजिहीर्षयेव निरवकाशयत्यात्मानमभितो घटितैन्यिकुदः। च
पलिहन पिपरिमित तपविस्तारा यत्र सः । तथाभूतो हमाङ्गदनामा जनपदः । पुनश्च, गाय एज धनानि गांधनानि तौचनैः पवित्रा कता सीमा यस्य सः। अथ गोधनविशेषणान्याह-प्रत्ययनि
पत्यारा या नृतनापःया असताना हरितहरितानां तुगकरीराणां शप्पाराणां कवलने खादनेन मुदिताः १५ प्रसन्नातः । अनितले प्रथिनीलले चिलडिता बालचिपल्लवाः पिच्छान्सा येषां सैः । अग्रे चलिती यो
बलवान् उक्षा तस्य दर्शनस्व भयेन धावन्तोऽधगाः पथिका येषां तैः। गतिरभसन गतिवेगेन रणिता रणरणशाई कुम्यो या माकाङ्कमयः मणिमयादव पटकास्तासां रवेण शब्देन सुखरितं वाचालित भुवनबिवर लोकमन्यं यस्तः । स्मरणपथे स्मृतिमागे विहरमाणा विहारं कुर्वाणा ये तगका वत्सास्तभ्यो
धमिता या दुग्धधारा: झारसंनयाभिधातं धरातलं यस्तैः। कटिनैः कठोरैः खुरयुटैः शफाः खननेन १५ समुत्पान् स मुद्गलन् योऽधिरल: संततिबद्धः परागपटलो धूलिसमूहस्तस्य छलेन व्याजेन गोशब्दसाम्यन
यथा गोधनानि गोशब्देन कथ्यन्ने तथा भूधाध्यपि गोशब्दन कथ्यते । इत्थं गोशब्दसादृश्येन समाविभूतः प्रकटिलः स्नेह! यस्याः सा तस्या मावस्तत्ता तया, भूतक्षाध्यव पृथिव्यव. दीयमानानयात्रा यभ्यस्तैः
यमाणानुगमनः । स्वभावेन का लिसं कुण्डलाकारं यच्छिम्पर तेन भषणानां भयंकराणां विषाणानां शृङ्गाणां व्याजेन लेन, दृष्टसचानो सिंहादीनां समुत्सारणाय दुरीकरणाय कामुकमिव धनुरिब, कलयनिदधनिः । प्रशसकर्माणि यज्ञादीनि तप साधनानि तैः । एवं भूतैर्गोधनः पवित्रीकृतसीमा हेमानन्दनामा जनपदः ।
६२. यति–यश्च हेमाङ्गदनामा जनपदः । दीगरयनिवासस्स दारिद्वारनिवासस्य परिजिहर्षियव परिहरणेच्छयेव । अभितः समानात घटितयोजितैः । धान्यकरैर्धाप्यराशिभिः । आत्मानं निरवकाशयति - - - - --- --...--- ..--
नष्ट हो रहा था--जगह-जगह बनी हुई प्याऊओंसे वहाँ किसीको गरमीका अनुभव नहीं होता २५ था । और नयी-नयी उत्पन्न हरी घासके अङ्करोंके खानेसे जो प्रसन्न हो रहे थे, जिनकी
पूँछोंके छोर पृथिवीनलपर लोट रहे थे, जिनके आगे-आगे चलनेवाले बलवान साँडोके देखनेके भयसे पथिक दौड़ रहे थे, गतिसंबन्धी वेगसे शदायमान मणिमयी क्षुद्रयटियोंके शब्दसे जिन्होंने संसारके मध्यभागको मुखरित-शब्दायमान कर दिया था, स्मरणके मार्गमें
बिहार करने वाले बछड़ों के लिए झरते हुए दृध की धारास जिन्होंने पृथिवीतलको धो डाला ३०.था, कठोर खुमे खुद जानेके कारण उड़ती हुई अत्यधिक धूलिके बहाने गो शन्द्रकी समा
नतासे उत्पन्न हुए स्नेह के कारण पृथिवी ही मानो जिनके पीछे-पीछे चली आ रही थी, स्वभावसे ह। कुण्डलाकार शिखरोंसे भयंकर सींगों के बहाने जो दुष्प जीवोंको दूर करनेके लिए मानो धनुप ही धारण कर रहे थे, और जो होम आदि पवित्र कार्योंके साधन थे ऐसे
गोधनोंसे उस देश की सीमा पवित्र थी। ३५२. उस देशमें चारों ओर धान्यकी बड़ी-बड़ी राशियाँ लगी रहती थीं, उनसे
१ घालपल्लवे: म०
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- जनपदवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः
दिशि दिशि दृश्यमानजिनालयलाञ्छन पञ्चाननविलोकनचकिता इव नोपसर्पन्त्युपद्रवकरिणः । येन विकीर्णविविधमणिगणमरीचिमालिना जलनिधिविरहविषादः परिह्रियते पङ्कजासनायाः | यस् चे स्पृहयन्ति निःस्पृहा अपि निर्वाणसुधानिः स्यन्दचन्द्रमसे मुनयः । यस्माच्च सततजा - ज्वल्यमानजिनपूजाचरुपचनपावकादुपजातभीतिरिव दूरैपलायत कलिः । यत्र च संकल्पसमयावजितैद निजलप्रवाहैः प्रक्षालित इन प्रलयं प्राप किल्विषङ्गः ।
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३ ३ तत्र चास्ति समस्तभुवन विख्यातसंपदाभोगा, भोगावतीव भुजङ्गचरितोद्वेगेन भित्त्वा भुवमुत्थिता नमुचिमथननगरीय निरालम्बनतया नभःस्थलान्निपतिता माधुर्यकुलभूमिः फलनिरवकाशं करोति । यत् च जनपत्रम्, दिशि दिशि प्रतिदिशम् दृश्यमाना अवलोक्यमाना थे जिनालयास्तेषां पञ्चानन चिह्नभूतसिंहानां दिलोकनेन चकिता इव मीता इव, उपद्रव एव करिण इत्युपद्रवकरिणः। पीपं प्रयान्ति । विप्रकीर्णा यन्त्र तन्न पतिता ये गणिगणास्तेषां मरीची माला, सास्ति यस्य तेन येन जनपदेन पङ्कजासनाया लक्ष्म्याः । जलनिधिविरहविषादः पितृभूतसागरवियोग अयं परिहियते दूरीक्रियते । निर्वाणमेव सुधा तस्या निःस्पन्वस्तस्य चन्द्रमास्तस्मै किरायेति यावत्। यस्मै जनपदाय च निःस्पृहा वीतरागा मुनयोऽपि स्पृहयन्ति वाञ्छन्ति 'संगृहेरीप्सितः' इति चतुर्थी सततं निरन्तरं जाज्वल्यमानः प्रदह्यमानो जिनपूजा रुपचनपात्रको यस्मिन तस्मात् यस्मात् जनपदाच, उपजातमीतिरित्र उपजाता मीतिर्यस्य तथाभूत इव कलिः कलिकाल १५ विप्रकृष्टं पलायत अधावत । यत्र च जनपदे संकल्पसमये प्रतिज्ञावसरे आवर्जिता गृहीतास्तैः दानजलवास्त्यासलिलधाराभिः प्रक्षालित इव धौत इव किल्विषः पापकद्भः प्रलयं प्राप नाशमगमत् ।
५
$ ३. अथ नगरीं वर्णयितुमाह — तत्रेति - ₹ - तत्र च हेमाङ्गदजनपदे च राजपुरी नाम राजधानी अस्तीति क्रियाकारकसंबन्धः । तद्विशेषणान्याह – समस्तेति - समस्तभुवने निखिललोके विख्यातः प्रसिद्धः संपदाभोग: संपत्तिविस्तारो यस्याः सा । भुजङ्गचरितस्य नागेन्द्र चेष्टितस्योद्वेगेन भुवं पृथिवीं २६ भित्त्वा विदार्य, उत्थिता भोगावतीव पातालपुरीव । निरालस्वनतया निराशस्तया नभःस्थलात्
वह ऐसा जान पड़ता था मानो 'दरिद्रताको रहनेके लिए स्थान ही न रहे इस इच्छा से अपने आपको अवकाश रहित कर रहा था । प्रत्येक दिशा में दिखाई देनेवाले जिनालयोंके चिह्नस्वरूप सिंहोंके देखनेसे भयभीत होकर ही मानो उपद्रव-रूपी हाथी उस देशके समीप नहीं आते थे। उस देश में जहाँ-तहाँ नानाप्रकारके मणियोंके समूह रूपी सूर्य २५ विखरे हुए थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह लक्ष्मीका समुद्रके विरहसे उत्पन्न हुआ fone हो दूर कर रहा था। जो निर्वाणरूपी अमृतको झरानेके लिए चन्द्रमा के समान था ऐसे उस देश की निःस्पृह मुनि भी इच्छा करते थे। उस देशमें जिनेन्द्र देवकी पूजाका नवेश बनानेके लिए सदा अग्नि प्रज्वलित रहती थी इसलिए उससे भयभीत होकर ही मानो कलिकाल दूर भाग गया था और उस देशमें संकल्प के समय गृहीत दान जल के प्रवाहसे धुल ३० जानेके कारण ही मानो पापरूपी कीचड़ नष्ट हो गयी थी।
६३. उस हेमाङ्गद देशमें राजपुरी नामकी राजधानी थी। उस राजधानीको सम्पत्तिका विम्बार समस्त संसारमें प्रसिद्ध था। वह शेषनागके चरित्र से भयभीत हा पृथिवीको फोड़कर
१ ० ० ० प्रतिषु चकारो नास्ति । २ म० चन्द्रमसो मुनयः । ३ ० ० ० दुरपयत । ४ ग० रविः ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ ३ राजपुरीमञ्जरीव भारदर्जभूरुहल्य, भगनासासहरीचिनिचयकवचिता कर्णचामरिकेव हेमाङ्गदमतङ्गजस्य, मरकतमणिकुट्टिममयूखपत्रला पद्मसरसीव कमलाकलहंसीविहारस्य, पातालवासिभिरप्यनालोकितमूलेन गगनचरैरप्यलक्षितशिखरेण पराजितपरनरपतिकरदीकृतकनकोपलपट
लघटितेन विघटित कुलगिरितटाभिदिगन्तदन्तावलदशनकुलिशकोटिभिरण्यभेद्यसंस्थानेन स्तम्भित५ जगदुपरमसमयसमोरसंरम्भेण त्रिभुवनलक्ष्मीकनकपादकटककान्तितस्करेण प्राकारेण परिवृता
कलशभवकवलितजलनिधिजनितानुशयेन कुशेशयभुवा सावधानमनवधिसलिलमापादितेनेव
निपतिता नमुचिमथननगरीव नमुचिमथन इन्द्र स्तस्य नगरीव स्वर्गपुरीच, माधुर्थस्य कुलभूमिरिति माधुर्यकुल भूमिर्माधुर्यस्य सुनिश्चितस्थानमिति यावत् । अत एव भारतवर्षमेव भूरहस्तस्य मरतक्षेत्र
वृक्षस्य फलमञ्जरीव फलश्रेणिरिय। भवनानां वलभ्य इति मवनवलभ्यो गृहगोपानस्यस्तासां १० मण्डनान्यलंकारभूना ये मुक्तासरा मौक्तिकमालास्तासां मरीचिनिचयेन किरणकलापन कवचिता व्याप्ता ।
अत एवं हेमाङ्गद एव मतङ्गजस्तस्य हमागदजनपदगजस्य कर्णचामरिकेच श्रवणयमीपटतचामरिकेव । मरकतमणिकुहिमस्थ हरितमणिग्यचितश्रियामोगस्य मयूखैः किरणः पाला पत्रयुक्ना, अत एत्र कालव लक्ष्मीरव कलहंसी मराली तस्या विहारस्य पसरसीव कमलसरसाव । प्राकारेण वलयन
परिकृता परिवेष्टिता। अथ प्राकारस्य विशेषणान्याह-पाताले ति-पाताले वसन्तीत्येवं श.लास्तै. १५ रधोलोकनिवासिभिरपि । अनालोकित मूलं यस्य तेन अदृष्टनीबेण। गगने चरन्तीति गगनचरास्तैर्देवविद्या
धरैरपि । अलक्षितमनलंकितं शिखरं यस्प तेन । पराजितपरनृपतिभिः पराभूतप्रत्यर्थिपर्थिवः करदीकृता राजस्त्ररूपण समर्पिता ये कनकोपलाः सुवर्णपाषाणातेषां पटलेन समूहन घटितो रचितस्तेन । विघटितानि खण्डितानि कुलगिरितटानि कुलाचलतीराणि यामिस्ताभिः । दिगन्तदन्तावलानां दिग्गजानां या दशन
कुलिशकोटयो रदनपध्यग्रभागास्तैरपि । अमेय संस्थानं यस्य तेनाखण्डिताकारंण | स्तम्भितः प्रतिरुहो २० जगदुपरमसमयस्य जगत्प्रलयकालस्य समीरसंरम्भो वायुप्रकोपो येन तेन । त्रिभुत्रनलदम्यास्त्रिजगच्छिया
यः कनकपादकटक: सौवर्णपादवलयस्तस्य कास्यास्सस्करचीरस्तेन परिखाचक्रेण खातबलयेन परिकता परिवृता। अथ परिखाचनस्य विशेषणान्याह-कलशेति-कलशमधेनागस्त्येन कवलित। अस्पो यो जलनिधिसीन जनितः समुत्पमोऽनुशयः पश्चातापो यस्य तेन । कुशेशयभुवा ब्रह्मणा सावधानं
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ऊपर उठी हाई पातालपरीके समान जान पडती थी अथवा निराधार होने के कारण आकाशसे २५ गिरी हुई इन्द्रकी नगरी - अमरावतीके समान मालूम होती थी। भारतवर्षरूपी कल्पवृक्षके
फलको मञ्जरीके समान मधुरताकी कुलभूमि थी। महलोंकी छपरियों को सुशोभित करनेवाली मोनियोंकी मालाओंके समूहसे व्याप्त होने के कारण हेमाङ्गद देशरूपी हाथीके कानोंके समीप दुलनेवाली चमरीके समान जान पड़ती थी। वह लक्ष्मी रूपी कलहंसीके विहार करनेके
लिए उपयुक्त उस कमलकलित सरोवरके समान जान पड़ती थी जो मरकत मणियोंसे ३० निर्मित फर्श की किरणोंसे कमल दलसे युक्त था। पातालवासी भी जिसका मूल नहीं देख
सके थे और आकाशगामो विद्याधर भी जिसका शिखर नहीं देख सके थे, जो पराजित शत्रु. राजाओं के द्वारा करमें दिये हुए सुवर्णमय पाषाणके समूहसे निर्मिन था, कुलाचलोंके तटोको तोड़नेवाले दिग्गजोंके दाँतरूपी वनकी कोटियोंसे भी जिसका आकार अभेद्य था, प्रलय
कालकी वायुके प्रकोपको जिसने रोक दिया था, एवं जो त्रिभुवनको लक्ष्मीके सुवर्ण मय पाय३१ जेबकी कान्तिका चोर था ऐसे प्राकार-कोटसे बह राजधानी घिरी हुई थी । अगस्त्य ऋषिके
५ म० ख० ग० प्रतिपु प्रावृता
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प्रथमो लम्भः
- राजधानीवर्णनम् ]
फणभृदावासविश्रान्तगाम्भीर्येण स्नानावतरदवनीपतिमदवारण कपालतलविगलितदान जल वेणिकाव्याजेन जलनिधिसमुत्कण्ठया यमुनयेव विगाह्यमानेनं, निजाभोगविस्मयनिपतितैरुपरिचरयुवतिनयनैरिव नीलकुवलयापीडेरकाण्डेऽपि निशां दर्शयता प्रतिफलितभवननिवहभरितजठरतया कुपितसुरपतिकरकल्पितकुलिशपतन भयमग्नमहा महीधर मुदधिमवधीरयता परिखाचक्रेण परिष्कृता, त्रिकरादभिनव सुमनः परागविसरधूसरितवासरालोकैः पतितपचेलिमफलरसपिच्छिलतलस्खलित पुष्पलावी- ५. जनैः अनिभृतपरभृतकूजित मुखरित सहकारैः प्रसवपरिमलत रलमधुकर निकरान्धकारितैः
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यथा स्यात्तथा । अनवधिसलिलमपरिमिततोयम् । आपादितेनेत्र प्रापितेनेव । फणभृदावासे पाताले विश्रान्तमवसितं गाम्भीर्यमा यस्य तेन । स्नानायावतरन्त येऽवनीपतिमद्वारणा महीपतिमत्तमतङ्गजास्तेषां कपालतलेभ्यो गण्डस्थलेभ्यो विगलिता पतिता या दानजलवेणिका मदजलसंततिस्तस्या व्याजेन मिषेण । जलनिधिसमुत्कण्डया सागरोत्सुकया यमुनया गाह्यमानेनेव प्रविश्यमानेनेव | परिखाचक्रं १० वागमत्वा राजमदकारणमदवाराव्याजेन यमुना मिलितेति भावः । निजाभोगेन स्वकीयविस्तारेण यो विस्मय आश्चर्यं तेन निपतितानि तैः । उपरिचरयुवतीनां गगनचरतरुणीनां नयनानि नेत्राणि तैरिव । नीलकुवलयापीडैनीलोत्पलसमूहैः । अकाण्डेऽप्यसमयेऽपि निशां रजनीं दर्शयता । प्रतिफलितेन प्रतिवित्रितेन भवननिवहेन गृहसमूहेन भरितं जठरं मध्यं यस्य तस्य भावस्तसा तया । कुपितेन सुरपतिना करें कल्पितं ष्टतं यःकुलिशं वज्रं तस्य पतनभयेन मग्ना शुहिता महीधराः पर्वता यस्मिन् तं तथाभूतम् । १५ उदधि सागरम्, अवधीस्यता तिरस्कुर्वता । उपवनैस्यानैरुद्रासमाना शोभमाना । अथोपवनविशेषणान्याह - विकसदिति - विकसता प्रफुल्लभवतामभिनव सुमनसां नूतनकुसुमानां परागविसरण रजःसमूहेन धूसरितो मलिनीकृतो वासरालोको दिनप्रकाशो येषु तैः । पतितेति पतितानि स्वलितानि यानि पचेलिमानि पक्वानि फलानि तेषां रसेन पिच्छिलं पङ्कयुक्तं यत्तलं भूपृष्ठं तत्र स्खलिताश्छलेन पतिताः पुष्पलाबीजना येषु तैः । अनिभृतेति--अनिभृतं चञ्चलं मध्ये मध्ये जायमानमिति यावत् यत् परभृत- २० कूजितं कोकिलकलरवस्तेन मुखरिताः शब्दायमानाः सहकारा आम्रा येषु तैः । प्रसवेति - प्रसवपरिमलेन पुष्पसौगन्ध्येन तरलाश्चपला यतस्ततः संचरन्त इति यावत् ये मधुकरा भ्रमरास्तेषां निकरेण समूहेनान्ध
द्वारा पिये हुए समुद्र से जिन्हें पश्चात्ताप उत्पन्न हो रहा था, ऐसे ब्रह्माजीने बड़ी सावधानी के साथ जिसे मानों अपरिमित जल प्राप्त कराया था, जिसकी गहराई पाताल तक चली गयी थी, स्नान के लिए उतरते हुए राजाके मदोन्मत्त हाथियों के कपोलतलसे झरे मदरूपी जलकी २५ धारा के बहाने जो ऐसी जान पड़ती थी मानो उसे समुद्र समझ उत्कण्ठासे यमुनाही आ मिली हो, अपने विस्तारके विस्मय से प्रतिबिम्बित आकाशगामी स्त्रियोंके नेत्रोंके समान दिखनेवाले नील कमलों के समूह से जो असमय में ही रात्रिको दिखला रही थी, और जो प्रतिबिम्बित महलोंके समूह से मध्यभाग के व्याप्त होनेके कारण कुपित इन्द्रके हाथ में स्थित arrar भयसे छिपे हुए बड़े-बड़े पर्वतोंसे युक्त समुद्रका तिरस्कार कर रही थी ऐसी ३० परिखासे वह राजधानी सुशोभित थी। खिले हुए नूतन फूलोंकी परागके समूहसे जिनमें दिनका प्रकाश धूसरित - मटमैला हो रहा था, गिरे हुए पके फलों के रससे पङ्किल तलमें जहाँ फूल तोड़नेवाली स्त्रियाँ फिसल- फिसलकर गिर रही थीं, निरन्तर होनेवाली कोयलों की कुहू कुहू से जहाँ आम के वृक्ष शब्दायमान हो रहे थे, फूलोंकी सुगन्धिसे चञ्चल भ्रमरोके
१ ० ० विगाह्यमानेन ।
३
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गधचिन्तामणिः
[३ राजपुरीपाकसुरभितपनसफलहेलाच्छोटनकुपितमर्कटीकोपशमनचतुरशाखामृगलीलाजनितकुतूहलैः पारावतपरस्परसांपरायपतितपुष्पस्तबकतारकिततरुमूलैः उद्वेलवहमानमकरन्दकूलंकषकुल्यालोकनमुदितसेककर्मान्तिकावण्यतरङ्गितदिगङ्गनामुखैः शिलीमुखपदभग्नवृन्तलम्बमानचम्पकपाटलनागकेसर
प्रसवैः कन्दपकनकातपत्रकमनीयकर्णिकारहारिभि: वनदेवताधरबन्धुबन्धुरबन्धुजीवबन्धुरैः कुरव. ५ कपादपपरिष्वङ्गसफलमाधवोलतायौवनैः उपवनद्भासमाना, मरकतदृषदुपरचिततटाभिः पद्मरागशिलाघटितसोपान पक्तिभिः जलदेवताकचकलशकौशलमलिम्लुचकमलमुकुलाभिः उन्मिषदसितोत्प
कारितस्तिमिरितः । पाकेति- पाकेन परिणामन सुरभितं सुगन्धितं यत्पनसफलं तस्य हेलया क्रीडाभावेन यन् आच्छोटनं स्वायत्तीकरण तेन कृपिता क्रुद्धा या मर्कटी वानरी तस्याः कीपस्य क्रोधस्य शमने दुरीकरणे
चतुरो विदग्धो यः शाखामृगो वानरस्तस्य लीलया जनितं कुतूहल येषु तैः । पारावतेति-पारावतानां २० कपोताना परस्परसापरायेण परस्परकलहन पतिता ये पुप्पस्तबकाः कुसुमगुच्छकास्तैस्तारकितानि व्यासानि
तरुमूलानि येषु तैः । ति-उद्वेल सदमतिकान्तं बहमानं यन्मकरन्द पुष्परसस्तेन कलंकपा तटोर्षिणी या कुल्या कृत्रिमसरित् तस्या घालोकनेन मुदिताः प्रहृष्टाः सेककर्मान्तिकाः सेचनकर्मकरा येपुतेः । लावण्येति-दिश एवातना दिगमानास्तासां मुखानि दिगणनामुखानि लावण्येन सौन्दयण
तरङ्गितानि व्याप्तानि दिगङ्गनामुखानि काष्टाकामिनीवदनानि येपु तैः । शिलीमुखेति-शिलीमुखानां १५ भ्रमराणां पर्दर्भग्नेभ्यः खण्डितेभ्यो वृन्तेभ्यः पुष्पबन्धनेभ्यो लम्बमानाः स्रंसमानाश्चम्पकपाटलघुनागकेसर
प्रसवाः चाम्पेयस्थलारविन्दनागरकुलपुष्पाणि येषु तैः । कन्दपति-कन्दपस्य कामदेवस्य कनकातपत्रमिव सुवर्णच्छचमिव कमनीयानि मनोहराणि यानि कर्णिकाराणि कर्णिकारपुष्पाणि तैहारिभिमनोहरैः । वनदेवतेति-वनदेवतानां वनदेवीनामवरबन्धोऽधरसदृशा बन्धुरा नतोन्नता ये बन्धुजीया बन्यूकपुष्पाणि तबन्धुरैः सुन्दरः। कुरबकेति-कुरबकपादपानां कुरबकवृक्षाणां परिवङ्गन समाश्लेषेण सफलं. माधवीलतानां यौवनं येषु तैः। विभ्रमदीर्घिकामिविलासवापीभिः दीपीकृतं सौभाग्यं यस्याः सा । अथ विभ्रमदीर्घिकाणां विशेषणान्याह-मरकतेति-मरकतषनिहरितमणिभिरुपरचितान तटानि यास तामिः। पद्मति-पत्नरागशिलाभिहितमणिशिलामिः घटिता रचिता सोपानपंकिर्यासां तामिः । जलेतिजलदेवतानां जलदेवीनां कुचकलशकौशलस्य स्तनकलशसौन्दर्यस्य भलिम्लुचाश्चोराः कमल.
समूहसे जिनमें अन्धकार फैल रहा था, पक जानेसे सुगन्धित कटहलके फलको अनायास २५ छीन लेनेसे कुपित वानरीका क्रोध शान्त करने में चतुर वानरकी लीलासे जिनमें कुतूहल उत्पन्न
हो रहा था, कबूतरोंकी परस्परकी लड़ाईसे गिरे फूलोंके गुच्छोसे जहाँ धृक्षोंके तल व्याप्त हो रहे थे, बेलाको लाँधकर बहनेवाली मकरन्दको परिपूर्ण नहरके देखनेसे जहाँ सिंचाईका काम करने वाले सेवक प्रसन्न हो रहे थे, जहाँ दिशा-रूपी नियोंके मुख सौन्दर्यसे व्याप्त हो
रहे थे, भ्रमरोंके पदाघातसे टूटी वोड़ियोंमें जहाँ चम्पा, गुलाब और नागकेशर के फुट १० लटक रहे थे, जो कामदेवके स्वर्णमय छत्रके समान सुन्दर कनेर के फूलोंसे मनोहर थे,
जो वनदेवियोंके अधरोष्ठके समान सुन्दर दुपहरियाके फूलोंसे नतोन्नत थे, और जहाँ कुरवक वृक्षोंके आलिङ्गनसे माधवी लताओंका यौवन सफल हो रहा था ऐसे उपवनोंसे वह राजधानी सुशोभित हो रही थी। जिनके तट मरकत मणिमय शिलाओंसे निर्मित थे, जिनकी सीढ़ियोंकी पंक्तियाँ पद्मरागमणिमय शिलाओंसे घटित थीं, जिनके कमलोंकी बॉड़ियाँ , जलदेवियों के स्तनकलशोकी शोभाका अपहरण कर रही थीं, खिले हुए नीलकमलबनके अन्ध
३५
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१ म० संपराय। २ म. ग.-बन्धुबन्धुजीवबन्धुरैः ।
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- राजधानीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः लवनान्धकारेण दिवसेऽपि रजनीविभ्रमविघटितरथाङ्गमिथुनाभिः अभिषेकदोहलावतरदवलाचरणनूपुररणितश्रवणोद्ग्रीवकलहंसाभिः उड्डीयमानजलचरविहगविधूतपक्षपुटपतितपयःवणकोरकिततटतरुशिखराभिः मृणालसंदोहसंदेहिकादम्बखण्डयमानफेनकलिकादन्तुरतरङ्गाभिः प्रतिफलननिभेन गगनतलपरिभ्रमणरभसजनितपिपासाशमनकौतुककृतावतरणेनेव तरणिता रमणीयतां बिभ्राणाभिः विभ्रमदीपिकाभिर्दी/कृतीभाग्या, क्वचित्पुरोनिहितविष्टरपुञ्जिसं स्फुरितकरनखमयूखसंपर्कपुन- ५ रुदोरितं निजवदनजनिततुहिनकरशङ्कासमुपनततारकानिकरमिव दृश्यमानं प्रसूनराशिम आरणितमणिपारिहार्यवाचालबाहुलतिकाविभ्रमाभिराममावघ्नन्तीभिः व्याजीकृत्य पुष्पक्रयं वक्रोक्तिमभिमुकुला यासु तामिः । उन्मिपदिति-उन्मिषद् विकसद् यदसितोपलवनं नीलोत्पलकाननं तदेवान्धकारस्तेन दिवसंऽपि रजनीविभ्रमण रजनीसंदहन विघटितानि वियुनानि रथाङ्गमिथुनानि चक्रवाकयुगलानि थासु ताभिः । अभिषेकेति-अभिपेकदोह लेन स्नानवाग्छयाधतरन्तीनामबलानां चरणनू पुराणां पादमञ्जरि- १० काणां रणितस्य शब्दस्य श्रवणेनोग्रीवा ऊर्ध्वग्रीवाः कलहंसाः कादम्बा यासु ताभिः । 'उड़ीयेतिउड्डीयमानानामुत्पततो जल चरविहगानां जलचरपक्षिणां विधूतेभ्यः कम्पितेभ्यः पक्ष पुटेभ्यो गरुत्प्रदेशेभ्यः पतितैः पयःकणैः शीकरैः कोरफितानि संजातकुड्मलानि तटतरुशिखराणि तीवृक्षाप्राणि यास तामिः । मृणाले.ति--णालमंदोतस्य सिससमूहस्य संदेहिभिः कादम्बैः कलहंसैः खण्ड्यमाना बिदार्यमाणा याः फेनकलिकाः डिपडीरखण्डानि तैदन्नुरास्तरङ्गा यासु ताभिः । प्रतिफलनेति-प्रतिफलन निभन प्रतिबिम्ब- १५ च्याजेन गगनतले व्योममध्ये परिभ्रमणं संचरणं तस्य रभसेन वेगेन जनिता समुत्पादिता या पिपासा तृड तस्याः शमनस्य शान्तीकरणस्य कोतकेन कृतमवतरणं येन तथाभूतनेव तरणिना सूर्यण रम सुन्दरता बिनाणाभिर्दधर्ताभिः। विपणिपधेन आपणमागण कुडमलितं संकोचितं कुबेरनगरगौरवमलकापुरीमाहात्म्यं यया सा। अथ विपणिपथस्य विशेषणान्याह-कचिदिति-वचित् कुनापि पुरी निहितमने स्थापितं यद् विष्टरमासनं तन्त्र पुञ्जिन राशीकृतम् । स्फुरितेति-स्फुरितानां देदीप्यमानां करनख- २० मयूखानां हस्तनखरकिरणानां संपण पुनरुदीरितं पुनरुक्तम् । निजेति-निजवदनैः स्वकीयमुखैनिता समुद्भाविता या तुहिनकरशङ्का शशिसंदहस्तया समुपनतः समुपस्थितो यस्तारकानिकरो नमत्रप्समूहस्तमिव दृश्यमानं प्रसूनराशि पुप्पपुञ्जम् । आरणितेति-आरणितानि शब्दायमानानि यानि मणिपारिहार्याणि रखवल यानि तेर्वाचालाः शब्दायमाना या बाहुलतिका भुजबल्लयस्तासां विभ्रमविलासरभिरामं यथा स्यात्तथा कारसे जहाँ दिनमें भी रात्रिका भ्रम होनेसे चकवा-चकवियोंके युगल बिछुड़ गये थे, स्नानकी २५ इच्छासे उतरती हुई स्त्रियोंके नपरोंकी झनकार सनसे जहाँ कलहंस पक्षी ऊपरको गर्दन उठाने लगते थे, उड़ते हुए जलचर पक्षियों के फड़फड़ाते हुए पकोंकी पुटसे गिरे जलके कणोंसे जिनके तटवर्ती वृक्षोंके शिखर फूलोंकी बोड़ियोंसे युक्तके समान जान पड़ते थे, मृणालके समूहका सन्देह करनेवाले कलहंसोंके द्वारा सण्डित फेनकी कलिकाओंसे जिनकी तरङ्ग व्याप्त थीं और प्रतिविम्बके यहाने आकाशतलमें परिभ्रमण सम्बन्धी वेगसे उत्पन्न प्यासको शान्त ३० करने के कौतुकसे ही मानो जिसने नीचे अवतरण किया था ऐसे सूर्यसे जो सुन्दरताको धारण कर रही थीं उन बिलासवापिकाओंसे उस राजधानीका सौभाग्य निरन्तर बढ़ रहा था। वह राजधानी जिस बाजारसे अलकापुरीके वैभवको तिरस्कृत कर रही थी वह कहीं, सामने बिछाये हुए आसनपर एकत्रित, चमकते हुए हाथ के नाखूनोंकी किरणोंसे पुनरुक्त और अप मुख में चन्द्रमाकी शङ्कासे उपस्थिन ताराओंके समूह के समान दिखनेवाले फूलोंकी राशिको १ जो शब्दायमान मणिमय आभूपणोंसे झालन करनेवाली भुज-लताओंके हाव-भावसे सुन्दरता
१ म-मावतीभिः ।
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गथचिन्तामणिः
[ ३ राजपुरो - दधता धूर्तलोकेन विस्मृतहस्ताङ्ग लिन्यस्तसुमनोबन्धनाभिरपि कुसुमसौरभादधिकपरिमलैरात्मनि:श्वासैराकुलोक्रियमाणमधुकरमालाभिः मालाकारपुरन्ध्रोभिर्नीरन्धितेन क्वचिद्विशङ्कटपेटकप्रसारितैः प्रसरदविरलसौरभसंपादितघ्राणपारणैर्युगपदुपलक्ष्यमानिखिल फलः फलितलोकलोचननिर्माणेन
क्वचित्सौरभलुब्धभुजङ्गसंगृह्यमाणमलयजैविडम्बितमलयगिरिपरिसरारण्येन क्वचित्प्रसार्यमाणस्फा५ रकपूरपरागपाण्डुरतया' लहरीपवनसमुत्क्षिप्तशुक्तिपूटमुक्तमुक्ताफलपुलकितामुदधिवेलां विहसता
क्वचिद्वदान्यजनताजटिला नगरीयमिति वितरणकलापरिचयाय धरणीतलमवतीर्ण: कालमेघरिव कृष्णकम्बलैस्तिमिरितेन-वचित्क्रेतृहृदयरुचिवर्धनाय प्रसार्यमाणैः शारदपयोधरावधीरणधुरीणैः आचन्नन्तीभिः गुम्फन्तीभिः । पुप्पक्रय व्याजीकृत्य वक्रोक्ति कुटिलबाणीम् अभिदधता कथयता धूर्तलोकेन विदग्धजनेन विस्मृतं निर्यात हस्ताङ्गुलिन्यस्तानां कराङ्गुलिस्थापितानां सुमनसां पुष्याणां बन्धनं ग्रन्थन याभिस्ताभिः । तथाभूताभिरपि कुसुमसौरभात्पुटपसौगन्ध्यात अधिकः परिमली येषां तैः, आत्मनिःश्वासः स्वकीयश्वासोच्छवासः । आकुली क्रियमाणा व्यग्रीक्रियमाणा मधुकरमाला भ्रमरपक्तिभिसाभिः मालाकाराणां पुरन्यस्तामिर्मालासम्पनी मिः नीरन्धितेन व्याप्तेन। कचिद्विशङ्कटेति-कुत्रापि विशङ्कटपटकंषु विशालकरण्डकंषु प्रसारितानि विस्तारितानि तैः । प्रसरता अविरलसौरभण निरन्तरसौगमध्येन संपादिता ब्राण
पारणा नापागोजनानि यः । युगककाला लेनेच, उरलक्ष्यमाणेदृश्यमानैः । निखिलाश्च तं तब इति ११ निखिलतवस्तषां फलानि तैः षडनफलैः फलितं लोकलोचनानां नरनयनानां निर्माण यन तन । को
दिति-क्वचित् , सौरभलुब्धैः सौगन्ध्यलुब्धैर्भुजङ्गः सपैंः संगृह्यमाणैः मलयजेश्चन्दनः, बिम्यितं तिरस्कृतं मलयगिरिपरिसरारण्यं मलयाचलनिकटक्नं येन तेन । कचिप्रमार्यमाणेति-कचित, प्रसार्यमागेन स्कारकपूरपरागण प्रचुरधनसारधूल्पा पा पाण्डुरता धवलता तया । लहरीपवनेन तरङ्गवायुना समुक्षिप्तानि समुत्तमितानि यानि शुनिपुटानि सभ्यो मुकानि पतितानि यानि मुफफाफलानि मौक्तिकानि तैः पुलकिता ज्याप्ताम् उदधिवेला सागरतटी विहसता । कचिदान्यति--कचित् इयं नगरी जनानां समहो जनता वदाम्या चासो जनता चेति वदान्यजनता तया जटिला दानशीलजनसमूहय्यासा। इति हेतोः वितरणकलाया दानकलायाः परिचयोऽभ्यासस्तस्मै । धरणीतलं पृथिवी पृष्टम् । अवतीर्णरवास्थितैः कालमधरिव श्यामलधनैरिव कृष्णकम्बलैः तिमिरितन संजातं तिमिरं यत्र तेन ध्वान्तव्याप्तेन । कचित्
क्रेतृहृदयेति-कचित् तृणां फ्रायकाणां हृदयस्य या रुचिरिच्छा तस्या वर्धनाय प्रसार्यमाणैः विस्तार्य२५ माणः । शरदि भवाः शारदास्ते च ते पयोधराश्च तेषामबधीरणे धुरीणानि तैः शरन्मघतिरस्कारनिपुणः ।
प्रकट करती हुई गूंथ रही थीं, फूल खरीदने के बहाने कुटिल शब्द कहनेवाले धूर्त जनों के कारण जो हाथकी अंगुलियों में स्थित फूलोंका Dथना भूल गयी थीं और फूलोंकी सुगन्धिसे भी अधिक सुगन्धिन अपने श्वासोच्छ्वाससे जो भ्रमरों के समूहको आकुल कर रही थी, एसी
मालिनियोंसे ठसाठस भरा था। कहीं बडी-बडी टोकरियोंमें फैलाकर रखे हए, फैलती हई ३० बहुत भारी सुगन्धिसे नासिकाको पारणा करानेवाले एवं एक साथ दिखाई देनेवाले समस्त
ऋतुओंके फलोंसे मनुष्योंके नेत्रोंकी रचनाको सफल कर रहा था। कहीं सुगन्धिसे लुभाये हुए साँसे अङ्गीकृत चन्दनके द्वारा मलयाचलके तटवर्ती वनका अनुकरण कर रहा था। कहीं फैलाये जानेवाले अत्यधिक कपूरको परागसे सफेद-सफेद होनेके कारण तरङ्गोंकी वायुसे
उछली सीपोंकी पुटसे गिरे मोतियोंसे व्याप्त समुद्र की वेलाकी हँसी कर रहा था। कहीं 'यह ३५ नगरी उदार मनुष्योंसे व्याप्त है' यह सुनकर दानकी कला सीखने के लिए पृथिवीतल पर उतरे
हुए काले काले मेघोंके समान कृष्ण-कम्बलोंसे अन्धकार उत्पन्न कर रहा था। कहीं खरीद
१ म० पाण्डरतया ।
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- राजधानीवर्णनम्]
प्रथमो लम्भः पराजितपारिजातदुकूलरनुकूलस्पर्शसुखसंपादनक्षमः क्षोमैरुन्मिपत्क्षीरोदशकेन क्वचित्पुनर्मधनचकितजलधिढौकितैरिव गाढोद्गच्छदतुच्छ महःस्तबकितैः कौस्तुभप्रतिमल्लरनुपलक्षितत्रासकलड्रादिदोषैः अहिमकरकुटुम्बडिम्भरिव क्षितितलचक्रमणकुतूहलादम्बरतः कृतावतारैर्माणिक्यमध्यदिनेऽप्यनुज्झितदिवसमुखलावण्येन क्वचित्प्रतिफलिततरणिकिरणधारा मरोचिनिर्गमप्रतिहतजननयनपरिस्पन्दैः परस्परसंघनितङ्काराराववाचालः कांस्यमण्डले: समसमयसमुदितानेकदिनकर- ५ करनिकरविराजितस्य प्रलयसमयस्यानुकुर्वता विपणिपथेन कुङ्मलितकुबेरनगरगौरवा, सान्द्रीकृतवर्णसुधाच्छुरणधवलिततोरणविदिकः अनुद्वारदेशनिहितकदलीपूगकथितमहोत्सवप्रबन्धैः उत्तप्तपराजितानि तिरस्कृतानि पारिजातदुकूलानि कल्पवृक्षवस्त्राणि यस्तैः । अनुकूलस्पर्शन सुखस्य संपादन अमाणि तैः । एवंभूतैः क्षोमैः क्षोमयः । उन्मियन्ती क्षीरोदशङ्का यत्र तन प्रकटीभवरक्षीरसागरसं दहेन । कचित्पुनरिति-चिन , पुनर्मथमाञ्चकिती भीतो श्रो जलधिस्तन दौकितानि समर्पितानि तैरिव । गाई १० सान्द्रं यथा स्यात्तथोद्गच्छत् यद् अतुस्टम हो विपुलतेजस्तन स्तबकितैयाप्तः । कौस्तुमनतिमलैः कौस्तुममणिसदृशैः । अनुपलक्षिता अदृष्टास्वासकलङ्कादिद्रोपा मणिगतदोषविशेषा येषु तैः। क्षितितले पृथिवीतले चक्रमणस्य कुतूहलं तस्मात् । अम्बरती गगनात् कृतावतारविहितवितरणैः । अहिमकरकदम्बडिम्मैरिव अहिमकर सूर्यस्तस्य कुटुम्बस्य परिजनस्य डिम्भा बालकास्तरिव 'पोतः पाकोऽभको डिम्भः पृथकः शाधकः शिशुः' इत्यमरः। माणिक्यमणिभिः। मध्यदिनेऽपि मध्याहेऽपि अनुज्झितमत्यतं दिवसमुखस्य १५ प्रत्युषस्थ लावण्यं पान। कचितिलि:-चिम् प्रतिफलितानां प्रतिविम्बितानां तरणिकिरणानां सूर्यरश्मीनां या धारा मरीचयः संततिबद्रकिरणास्तासां निगमेन प्रतिहतः प्रतिविनितो जननयनानां लोकलोचनाना परिस्पन्दो यैस्तैः । परस्परसंघहन मिथोव्याघातेन जनितो यः क्रेडारारावः शब्दविशेषस्तन वाचालानि शब्दायमानानि नैः। बास्त्रमण्डलैः कांस्यनिर्मितभाजनसमूहैः । समसमयं युगपत् समुदिता येऽनेकदिनकरास्तेषां करनिकरण किरणकलापन विराजितस्य शोभितस्य प्रलयसमयस्य प्रलयकालस्य २० अनुकुर्वता विपणिपथेन । प्रासादैः सीधैः प्रसाधिता समलंकृता । अथ प्रासादानां विशेषणान्याह-सान्द्रीकृतेति-सान्द्रीकृतः सघनीकृतो वर्णो यस्याः सा तथाभूता या सुधा चूर्णक तस्याश्छुरणेन लेपनेन धवलिता शुक्लीकृता तोरणवितर्दिका बहिरवेदिका पां तः । अनुद्वारेति-द्वारदेशं द्वारदेशं प्रत्यनुद्वारदेश तम्र निहितेन स्थापितेन कदलीपूतन रम्मास्तम्भसमूहेन कथिती निवेदितो महोत्सवप्रबन्धो येषु तैः ।
दारोंके हृदयको रुचि बढ़ाने के लिए फैलाये हुए, शरद् ऋतुके मेघोंका तिरस्कार करनेमें २५ निपुण, कल्पवृक्षोंसे प्राप्त उत्तम वस्त्रोंको पराजित करानेवाले एवं अनुकूल स्पर्श जन्य सुखके । प्राप्त कराने में समर्थ शौम वस्त्रोंसे क्षीर समुद्रकी शङ्का प्रकट कर रहा था। कहीं पुनर्मथनके भयसे भयभीत समुद्र के द्वारा भेजे हुए, अत्यधिक निकलते हुए विशाल तेजसे व्याप्त, कौस्तुभमणिके समकक्ष, त्रास कलङ्क आदि दोषोसे रहित, एवं पृथिवीसलपर घूमनेके कुतूहलसे नीचे उतरे हुए सूर्य के कुटुम्बके बालकों के समान मणियांस मध्याह्नकालमें भी प्रातःकालसम्बन्धी ३० सौन्दर्यको नहीं छोड़ रहा था और कहीं प्रतिविम्बित सूर्यको किरणोंसे सफेद-सफेद दिखने. वाली किरणोंके निकलने से मनुष्योंके नेत्रों के संचारको रोकनेवाले, तथा परस्पर की टक्करसे उत्पन्न कार ध्वनिसे शब्दायमान कांस्यनिर्मित वस्तुओंके समूहसे एक साथ उदित अनेक सूर्योंकी किरणों के समूहसे सुशोभित प्रलय कालका अनुकरण कर रहा था। अत्यन्त गादी कलई (चूने )के लेपसे जिनके तोरण और वेदिकाएँ सफेद थी, द्वारोंके समीप खड़े किये हुए ३५ कदली वृक्षों के समूहसे जिनके बड़े-बड़े उत्सव प्रकट हो रहे थे, जो तपाये हुए स्वर्णसे निर्मित
१. म. किरणबवलमरीचि । २ ख. ग. कुटमलित ।
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गचिन्तामगिः
[ ३ राजपुरीहाटकघटितकवाटयुगलभूषितैः योषिदङ्गलावण्यचन्द्रिकाचर्वणवितृष्णचकोरावहेलितचन्द्रमरीचिसमुद्गमैः संगीतशालाप्रहतमृदङ्गमन्द्रघोषजनितजलधरनिनदशकाताण्डवितकेलिशिखाबलः ज्वल
पसलको संदेहलोलाकुरङ्गशावकपरिहियमाणरत्नकुट्टिममहःपल्लवैः पवनचलितशिखरकेतुपट* ताडिततपनरथकूबरैः उपरितलखचितवलभिदुपलनीलिमर्शवलितसुरसरिदम्वुपूरैः निर्गृहनिहिताने५ करत्नभुवा मयूखकन्दलेन महेन्द्रशरासनशोभामम्भोदसमयमन्तरेणापि पयोधरेभ्यः प्रतिपादद्भिः मणिमयभित्तितया प्रसद्भिः उभयतः किरणलताविता विवुधराजमन्दिरविजिगीपया विहायसमुत्पतितुमावद्धपक्षरिव लक्ष्यमाणैः शृङ्गनिखातकेतुदण्डच्छलेन पुरयुवतिवदनसकुमार्थचोरं उत्तप्तति-उत्तप्तं निष्टप्तं यद् हाटकं सुवर्ण तंन घटितानि यानि कवायुगलानि भूषितः । योपिटङ्गेति-- योषितां ललनानामङ्गस्य शरीरस्य लावण्यमय सौन्दर्यमंत्र चन्द्रिका ज्योत्स्ना तस्याश्चर्वणेनास्लादनेन वितृष्णा संतुष्टा ये चकोरा जीवंजीवास्तैरव हेलितोऽनाहनश्चन्द्रमरीचीनामिन्दुदाधितीनां समुद्गमो ये तेः । संगीतेति-संगीतशालासु महतानां ताडिनानां मृदङ्गानां मुरजानां मन्द्रघोपेण गम्भीरशब्दन जनिता समुत्पादिता या जलधरनिनदशङ्का घनगर्जनसंशयस्तया ताण्डविताः कृतताण्डवाः केलिशिखावला: क्रीडामयूरा यपु तैः । ज्वलदिति-ज्वलन्तो देदीप्यमाना येऽनलकवला ज्वलनवालास्तान संदिहन्तीत्येवं शीला ये कुरङ्गशावका हरिणपोनास्तैः परिद्वियमाणा मुध्यमाना रनकुहिमस्य मणिखचितक्षित्यामागस्य महःपल्लवास्तजःकिसलया येषु तैः । पचनेति-परनेन चलितं शिखरं यस्य तथाभूतेन केतुपटेन वैजयन्तीवस्त्रेण ताडितस्तस्नरथस्य सूर्यस्यन्दनस्य कृबरो दण्डो यैस्तैः । उपरितलेति-उपरितल ऊध्वंप्रदेशे खचिता निःस्यूता ये बलभिदुपला इन्द्रनीलमणिविशेषास्तषां नीलिम्ना शैवलितं जलनीलीयुनं सुरसरितो मन्दाकिन्या अम्बुपूर जलप्रवाहो यस्तैः ! निहेति-नियूहषु मत्तवारणेषु निहितानि खचितानि
यान्यनकरत्नानि तभ्यो भवतीति तथाभूतेन मयूखकन्दलेन किरणकलापेन । अम्मोदसमयमन्तरेणापि वर्षा२, कालं विनापि पयोधरेभ्यो मंघेभ्यो महंन्द्रशासनशोमा सुरेन्द्रगपसुषमा प्रतिपादयद्भिः। मणिमयेति -
मणिमय्यो भित्तयो येषां ते मणिमित्तयस्तेषां मावस्तत्ता तया रत्नमयकुड्यत्वेन, उमयतः प्रसरद्भिः किरणलतावितानमयूखवल्लीसमूहैः । विबुधानां देवानां राजा विबुधराजस्तस्य मन्दिरस्य भवनस्य विजिगीषया विजेनुमिच्छया विहायसं गगनम् । उत्पतितुमाबद्भूपरिव गृहीतगरनिरिव लक्ष्यमाणैश्यमानैः । शृङ्गेतिशृङ्गेषु शिखरेषु निखातो यः केतुदण्डः पताकादण्डस्तस्य छलेन पुरयुवतीनां नगरतरुणीनां वदनसौकुमार्यस्य
२५ किवाड़ोंकी जोड़ियोंसे सुशोभित थे, स्त्रियोंके शरीरकी सुन्दरतारूपी चन्द्रिकाके पानसे तृष्णा
रहित चकोर जहाँ चन्द्रमाकी किरणों के उदयकी अवहेलना करते थे, संगीत शालाओं में ताड़ित मृदङ्गोंके गम्भीर शब्दसे उत्पन्न मेघ गर्जनाकी शङ्कासे जिनमें क्रीडाके मयूर ताण्डव नृत्य कर रहे थे, जलती हुई अग्निकी ज्वालाओंका सन्देह करनेवाले क्रीड़ा मृग जिनमें रत्नमयी फीके
कान्तिरूप पल्लवोंको दूरसे ही छोड़ रहे थे, जिनके शिखरपर लगी हुई वायुकम्पित पत्ता३० काओंके यस्से सूर्यके रथका धुरा ताड़ित होता रहता था, जिनके ऊपरी भागमें खचित इन्द्र.
नील मणियों की नीलिमासे आकाशगङ्गाका जलप्रवाह शैवालसे युक्तके समान जान पड़ता था, जो शिखरोंमें लगे अनेक रत्नोंसे उत्पन्न किरणोंके समूहसे वर्षा ऋतुके बिना ही मेघोंके लिए इन्द्रधनुषकी शोभा प्रदान कर रहे थे, मणिमयी दीवालोंके होनेसे दोनों ओर फैलनेवाली
किरणरूपी लताओंके समूहसे जो इन्द्र के मन्दिरको जीतनेकी इच्छासे आकाश में उड़ने के लिए ३५ पक्षोंको धारण करते हुए के समान जान पड़ते थे, शिखरोंपर लगे पताका दण्डके बहाने जो
१० आबद्धयक्षरिव।
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- राजधानीवर्णनम् ।
प्रथमो लम्मः चन्द्रमसं ग्रहीतुमुत्तम्भितबाहुस्तम्भैरिव शुम्भद्भिः दुर्धरधरणीधारणखेदितमेदिनीपतिबाहुमाराधयितुमागतैः कुलगिरिभिरिव गुरुभिः प्रासादैः प्रसाधिता, आकर्णकुण्डलितकुसुमशरकोदण्डनिपतितविशिखभिन्नहृदयगलितरुधिरपटलपाटलकुङ्कुमपङ्किलपयोधरभराभि: कान्तिसलिलशीकरपरिपाटीमनोहरं हारमुद्वहन्तीभिर्विलासहसितविसर्पिणा दशनकिरणविसरेण त्र्यम्बकललाटाम्बकनिर्यदनलदग्धं रतिपतिममृतेनेव सिञ्चन्तीभिः' गरुत्मदुपलताटङ्कतरलरश्मिपलाशपेशलमुखकमलाभिः ५ अयुग्मश रसमरनासीरभटान् विवेकजलधिमथनमन्दरान् मन्थरमधुरपरिस्पन्दानिन्दीवरकलिकानुकारिणः कटाक्षान्विक्षिपन्तीभिः मदनमहाराजधबलातपत्रबन्धुचन्दनतिलकभासमान भालरेखाभिः मुखमार्दवस्य चोरस्तं चन्द्रमसं ग्रहीतुम् , उत्तम्भिता उत्थापिता बाहुस्तम्भा यैस्तथाभूनरिव शुम्मद्धिः शोममानैः । दुर्धरेति-दुर्धरा गुरुत्वेन दुर्भरा या धरणी पृथिवी तस्या धारणेन खेदितः खेदं प्रापितो यो मंदिनीपतिबाहु पतिभुजस्तम् आराधयितुं सेवितुम् आगतैः कुलगिरिभिरिव कुलाचलैरिव गुरुमिविशालैः १० प्रासादः । वारवामनयनाभिवेश्याभिर्विराजिता । अथ वारवामनयनानां विशेषणान्याह-आकर्णतिआकर्ण कर्णपर्यन्त कुण्डलितं चक्रीकृतं यत् कुसुमशरकोदण्डमदनशरासनं तस्मातिपत्तितैनिःसृतैर्विशिखैगिर्भिन्न खण्डितं यद् हृदयं तस्माद् गलितं निःसृतं यद् रुधिरपटलं रक्तसमूहस्तद्वत् पाटलं रक्तवर्ण यत् कुलम केशरं तेन पछिलः पङ्कयुक्तः पयोधरमरो वक्षोजभरो यास ताभिः । कान्तीति-कान्तिरेव सलिलमिति कान्तिसलिलं दीप्तितोयं तस्य शीकराणां कणानां या परिपारी परम्परा तन्मनोहरं हारं मौक्तिकमालाम् । उद्वहन्तीभिदधतीभिः । बिलासेति-विलासहसितेन विभ्रमहास्येन विसर्पति प्रसरतीत्येवंशीलस्तेन दशनकिरणविसरेण दन्तदीधितिसमूहन, त्रीणि अम्बकानि नेत्राणि यस्य स त्र्यम्बकः शिवस्तस्य ललाटाम्बकाद भाललोचनात् निर्यन् निर्गच्छन् योऽनलस्तेन दग्धो मस्मसात्कृतस्तम् रतिपति कामम्, अमृतेन पीयूपेण सिञ्चन्तीभिरिब । गरुत्मदिति-गरुमदुपलानां गरुक्ष्मणीनां यानि ताटकानि कर्णाभरणानि तेषां तरलरश्मयश्चञ्चलमयूखा एव पलाशानि तैः पेशलं मनोहरं मुखकमलं यास तामिः । अयुग्मेति-अयुग्मशरो २० मदनस्तस्य समरस्य युद्धस्य नासीरमटाः प्रधानयोधास्तान , विवेक एवं जलधिः सागरस्तस्य मथने सन्दरा मन्दराचलास्तान्, मन्धरो भन्दो मधुरो मनोहरश्च परिस्पन्दो येषां तान् , इन्दीवरकलिका उत्पलदलान्यनुकुर्वन्तीत्येवंशीलास्तान कटाक्षान् केकरान् विक्षिपन्तीमिश्चालयन्तीमिः। मदनेति-मदनमहाराजस्य कामभूपालस्य यद् धवलातपत्रं श्वेतच्छत्रं तस्य बन्धुः सदृशं यच्चन्दनतिलकं तेन मासमानाः शोभमाना नगरकी स्त्रियों के मुखकी सुकुमारताको चुरानेवाले चन्द्रमाको पकड़ने के लिए भुजरूप स्तम्भको १ ऊपर उठाये हुए के समान सुशोभित हो रहे थे, और जो पृथिवीका गुरुतर भार धारण करने से खेदित राजमुजाकी सेवाके लिए आये हुए कुलाचलोंके समान जान पड़ते थे ऐसे बड़ेबड़े महलोंसे वह राजधानी सुशोभित थी। और कानों तक खींचे हुए कामदेवके धनुपसे निकले बाणोंसे खण्डित हृदयसे झरते रुधिर समूहके समान लाल-लाल केशरसे जिनके स्तनोंका भार पङ्किल हो रहा था, जो कान्ति रूपी जलके छींटोंकी परम्पराके समान ३० मनोहर हारको धारण कर रही थीं, जो विलासपूर्ण हास्यके समय फैलनेवाले दाँतोंको । किरणों के समूहसे महादेवके ललाटसम्बन्धी नेत्रसे निकली अग्निसे जले कामदेवको अमृत के द्वारा ही मानो सींच रही थीं, गरुडमणियोंसे निर्मित कर्णाभरणको चञ्चल किरणरूपी पत्तोंसे जिनके मुखरूपी कमल अत्यन्त सुन्दर जान पड़ते थे, जो कामदेवके युद्धस्थलके सुभट, विवेकरूपी समुद्रको मथनेके लिए मन्दरगिरि, मन्द और मनोहर ३५ संचारसे युक्त, तथा नीलकमलकी कलिकाओं का अनुकरण करनेवाले कटाक्षो को चला
१ म० सिञ्चतीभिः ।
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१५
२४ गद्यचिन्तामणिः
[४ राजपुरी - आननवनिहित नवगलिनसंदहनिपतलिकुलनीलकुन्तलाभिः अनादरनहनशिथिलकबंगभरनिरवकाशितपश्चाद्भागाभि: वारवामनयनाभिविराजिता, राजपुरी नाम राजधानी ।
६४. यस्यां च परितोभासमानभगवदहंदालयलङ्घन भयादपहाय विहायसा गतिमधःसंचरमाण इव भवनमणिकुट्टिमेषु प्रतिमानिभेन विभाव्यते भानुमाली। यस्यां च नीरन्ध्रकालागुम्धमतिमिरितायां ५ वासरेऽप्यभिसारमनोरथा: फलन्ति पक्ष्मलदृशाम् । यत्र च नितम्बिनीवदनचन्द्रमण्डलेपु न निवसति
कदाचिदभ्यर्णकर्णपाशजनितनहनशङ्क इव कलङ्करूपः कुरङ्गः । यस्याश्च साल: परिखासलिलसिक्तमूलतया कुसुमितमिव वहति मिलदुडुनिकरमनोहरं शिखरम् । यस्याश्त्र प्रतापविनतपरनरभालरंषा यासा ताभिः । आननेति-आनने मुखे चिनिहितो यो नवनलिनस्य नृतनारविन्दस्य संदेहो विभमस्तेन निपतता पर्यापनतालिकलेन भ्रमरसमूहन नीलाः कुन्तलाः अलका यानां ताभिः । अनादरीतअनादरं यथा स्यात्तथा नहनेन बन्धनेन शिथिलो यः कबरीभरो धम्मिलसमूहस्तेन निरवकाशितः पश्चाद्भागो पृष्ठांशो यास ताभिः । एवंभूताभिश्यामिविराजिता शोभिता राजपुरी नाम राजधानी।
६५. अथ तामेव नगरी वर्णयितुमाह यस्यामिति-यस्यां च राजपुयां परितः समन्ताद् भासमानाः शोभमाना ये भगवदहतामालया मन्दिराणि तेषां लइनस्यासिक्रमणस्य भयं तस्मात् विहायसा गगनेन गतिमपहाय त्यक्त्वा भवनमणिकुट्टिमा भवनानां मणिकुहिमानि तेषु प्रासादमणिसचितक्षित्याभोगेषु प्रतिमानिभेन प्रतिविम्बल्याजेन मानुमाली सूर्योऽधःसंचरमाण इवाधो भ्रमन्निव विभाव्यते प्रतीयते । यस्यां चेति-नीरन्ध्रण सान्द्रेण कालागुरुधमेन तिमिरिताधिकारिता तस्यां यस्यां नगया वासरऽपिदिवसेऽपि पक्ष्मला शो यास तास्तासां नारोणाम् , अभिसारस्य मनोरथा इत्यभिसारमनोरथा भर्तृगहाभिगमनामिलाषा फलन्ति सफला जायन्ते । यत्र चेति-यन्न च नगर्या नितम्बिनीनां नारीणां बदनान्येव मुखान्येव चन्द्र
मण्डलानि तेषु कदाचिदपि जातुचिदपि, अभ्यणकर्णपाशेन निकटस्थकर्णालंकाररज्जुना जनिता समुत्पादिता . २० नहनशङ्का बन्धनसंशतिर्यस्य तथाभूत इव कलङ्करूपो लाम्छनमयः कुरतो मृगीन निवसति । यस्याश्चेति
यस्याश्च नगर्याः साल: प्राकारः परिखासलिलेन सिश्तं मूलं यस्य तस्य भावस्तत्ता तया कुसुमितमिव पुस्मितमिम मिलता-उडुनिकरण नक्षत्रनिचयन मनोहरं सुन्दरं शिखरमग्रभागं वहति । यस्याश्चेतियस्था नगर्याः, प्रतापेन तेजसा विनता नभ्रोभूता ये परनरपतयः शत्रुभूपालास्तैः करदीकृताः करत्वेन प्रदत्ता
ये करिणो गजास्तेषां करटेभ्यो गण्डस्थलेभ्यो नियंत निःसरत् यन्मदजलं दानसलिलं तेन अम्बालिताः २५ रही थीं, कामदेव रूपी महाराजके सफेद छत्रकी समानता करनेवाले चन्दनके तिलकसे
जिनके ललाटको रेखाएँ शोभायमान थीं, जिनके नीले-नीले कुन्तल, मुख में उत्पन्न नूतन कमलके सन्देहसे गिरते हुए भ्रमरसमूह के समान जान पड़ते थे और अनादरपूर्वक बाँधनेसे नीचेकी ओर लटकती हुई चोटीके भारसे जिनका पिछला भाग अवकाशरहित हो रहा था,
ऐसी वेश्याओंसे वह राजधानी अत्यन्त सुशोभित थी। ३०६४. जिस नगरीके भवनों के मणिमयी कपिर पड़ते हुए प्रतिबिम्बके बहाने सूर्य ऐसा ___ जान पड़ता था मानो सब ओर शोभायमान जिनमन्दिरोंके लाँघने के भय से आकाशगमनको
छोड़ नीचे पृथिवीपर ही चलने लगा हो । जिस नगरीमें निरन्तर कालागुरुको धूपसे अन्धकार फैला रहता था इसलिए दिन में भी स्त्रियों के अभिसारके मनोरथ पूर्ण होते रहते थे। जिस
नगरोमें स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रमण्डलों में निकटवर्ती कर्णरूपी पाझसे बँध जाने की शङ्का उत्पन्न ३५ होनेसे ही मानो कलङ्करूप मृग कभी निवास नहीं करता है । जिस नगरीका प्राकार मिलते हुए नक्षत्रों के समूहस मनोहर शिखरको धारण करता है और उससे वह शिखर ऐसा जान
१. म० ख० धूपतिमिरितायां, २. क० मनोहर शिग्यरं,
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- राजधानीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः
पतिकरदीक्तकरिकरटनिर्यदविरलमदजलजम्बालिताः प्रविशदनेकराजन्यजनितमिथःसंघट्टविघटितहारनिपतितमुक्ताफलशकलवालुकापूरैराश्यानतामनीयन्तादृष्टशिखरगोपुरद्वारभुवः । या च शिखरकलितमुक्ताफलमरीचिवीचिच्छलादपहसन्तीव'धर्मधनजननिवासजनितगर्वा दुविनीतदशवदनचरितकलका लङ्काम् । यस्यां च भक्तिपरवशभव्यजनवदनविगलदविरलस्तवनकलकलमांसलैः प्रतिक्षणप्रहतपटहपटुरवपरिरम्भमेदुरैः पूर्यमाणासंख्यातशङ्खघोषपरिष्वङ्गकराले: धारालकाहलाकलरसित - ५ मांसलोभवदारम्भैः जम्भमाणजनकोलाहलपल्लवितैः उल्लसद्वीणावेणुरणित रमणीयः आरटितपशिलाः । अदृष्टमुच्चतरत्वेनानवलोकितं शिखरं येषां ताम्यदृष्टशिखराणि तथाभूतानि यानि गोपुरद्वाराणि नगरप्रधानद्वाराणि तेषां भुवः। प्रविशन्तः प्रवेशं कुर्वाणा यऽनेकराजन्या राजपुत्रास्तैजनितेन समुत्पादितेन मिथःसंपदेन परस्परविमर्देन विघटिताटिता ये हारा मुक्तायष्टयस्तभ्यो निपतितानि यानि मुक्ताफलानि मौक्तिकानि तेषां शकलानां खण्डानां या वालुकाः सिकतास्तासां पूरैः समूहः । आश्यानता झुकताम् । १० अनीयन्त प्रापिताः। या चेति-धर्म एव धनं येषां ते धर्मधनास्त च से जनाच धर्मधनजना धार्मिकपुरुषास्तेषां निवासेन जनितो गर्वो दो यस्यास्तथाभूता या राजपुरी नगरी शिखरेष्वग्रभागेषु कलितानि खचितानि यानि मुनाफलानि तेषां मरीचि चयः किरणसंततयस्तासां छलं तस्मात् । दुविनीतश्चासो दशवदनश्चेति दुर्विनीतदशवदनो सरावणस्तस्य चरितेन कलङ्को यस्यास्तां लड़ा रावणपुरीम् । अपह तस्था हास्यं कुर्वाणेष बभूव। यस्यां चेति-नगां, जिनमहोत्सवनुमुलरवैर्जिनपूजोत्सवप्रचण्डशब्दैः १५ परिभूत इव तिरस्कृत इव कदापि कल्याणतरपिशुनोऽमङ्गलसूचकः शब्दो नाव कार्यते न श्रूयते । अथ जिनमहोत्सबनुमुलरवैरिस्यस्य विशेषणान्याह-भक्तिपरवशेति-भक्त्या पावशा परायत्ता ये भव्यजनास्तेषां वदनेभ्यो मुखेभ्यो विगलत्प्रकटीभवद् यद् अविरलस्तवन निरन्तरस्तोत्रं तस्य कलकलेन मांसलाः परिपुष्टास्तैः । प्रतीति-प्रतिक्षणं प्रतिसमयं प्रहतानां तास्तिानां पटहानां ढक्कानां यः पटुरव उच्चैःशब्दस्तस्य परिरम्भेण मेदुरा मिलितास्तैः । पूर्यमाणेति-पूर्यमाणा मुखधायुना भ्रियमाणा येऽसंख्यातशङ्खा अगणित- २० शङ्खास्ते घोषस्य शब्दस्य परिप्यङ्गेण कराला भयंकरास्तैः । धारालेति-धारालं संततिबद्धं यत काहलानां धत्तरपुष्पाकारमुखवादिनविशेषाणां कलमध्यकमधुरमारसितं शब्दस्तेन मांसलीभवन् आरम्भो
पां तः। जम्भमाणेति..जम्भमाणी वर्धमानो यो जनकोलाहलो लोककलकलशब्दस्तन पल्लवितैडिंगतः। उल्लसदिति-उल्लसत्प्रकटीमवद यद वीणावेणूनां विपञ्चीवंशवाद्यानां रणितं मधुरध्वनिस्तेन रमणीयमनोपड़ता है मानो परिखाके जलसे मूल भागका सिञ्चन होते रहने के कारण उसमें फूल ही आ २५ लगे हों। जिनके शिखर नहीं दिखाई देते थे, ऐसे उस नगरीके गोपुर-द्वारोंको निकटवर्ती भूमियाँ, प्रतापसे नम्रीभूत शत्रु-राजाओं के द्वारा करमें दिये हुए हाथियों के गण्डस्थलों से निकलते अविरल मदरूपी जलसं कीचड्युक्त हो जाताों और प्रवेश करते हुए अनेक राजकुमारों की पारस्परिक धक्का-धूमीस टूटे हारों से गिरे मोतियों के चूर्णरूप घालूके समूहसे पुन: शुष्कताको प्राप्त हो जाती थीं। शिखरो पर लगे मोतियों की किरणों के बहाने जो गजधानी, ३० धर्मात्माजनों के निवाससे उत्पन्न गर्वसे दुविनीत - दुराचारी रावणके चरितसे कलंकित लंकाकी मानो हँसी ही उड़ा रही थी । जो भक्तिसे परवश भव्यजनों के मुखकमलसे निकलते हुए अविरल स्तवनोंकी कलकल ध्वनिसे पुष्ट थे. प्रत्येक क्षण बजते हुए नगाड़ों के जोरदार झाब्दों के सम्बन्धसे व्याप्त थे, फूंके गये असंख्यात शंखों के शब्द के संसर्गसे विकराल थे, लगातार बजनेवाली तुरहियोंकी ध्वनिसे जिनका आरम्भ परिपुष्ट हो रहा था, मनुष्यों के बढ़ते हुए कोला- ३५ हलसे जो व्याप्त थे, वीणा और बाँसुरीके प्रकट होते हुए शब्दोंसे मनोहर थे, निरन्तर बजते
१. म० अपङ्मतीव । २. म. जनितगर्वदुविनीत । ३. म० काहलारमित ।
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१५ दात
गद्यचिन्तामणिः
[ ३ राजपुयां - ढक्काझल्लरीझंकारकृताहंकारैः अभङ्गरकरणबन्धबन्धुरलास्यलासिविलासिनीमणिभूषणशिजितमजुलै: किसलयितभरतमार्गमनोहारिसंगीतसंगतैः संभृतमहोदधिमथन घोषमत्सरैः जिनमहोत्सवतुमुल रवैः परिभूत इब नावकण्यते कदापि कल्याणेतरपिशुनः शब्दः यत्र च स्त्रीणामधरपल्लवेष्व
धरता कुचतटेषु कठिनता कुन्तलेषु कुटिलता मध्येषु दरिद्रता कटाक्षेषु कातरता विनयातिक्रमो ५ मानग्रहेषु निग्रहः प्रणयकलहेषु प्रार्थनाप्रणाम: पञ्चबाणलीलासु वञ्चनावतारः परमभूत् । हरैः। आरटितेति---आरटिताः कृतशब्दा या ढकाझलय धान कघण्टास्तासां झंकारेण कृतोऽहंकारी येषु तः। अभङ्गरति-अभङ्गरा दीघकालस्थायिनो ये करणवन्धा नृत्यासनविशेषास्तैबन्धुरं मनोहर यहास्यं नृत्य तन लसन्तीत्येवंशीला या विलासिन्यो रूपाजीवास्तासां यानि मणिभूषमानि तेषां शिक्षितनशब्दन मञ्जला मनांगर ! किरालगितेति--निसलयितन मटिंगतेन भरतमागण नाट्येन मनोहारिचताहरं यासंगीतं तन संगतैः सहितः । संभृतेति-संभृतो तो महोदधिमथनस्य महासागरमथनस्य घोपेण मत्सरो यस्तैः । यत्र चेति-यत्र च नगर्याम् अधरता दशनच्छदता परं मान स्त्रीणाम् अधरपलबेषु नीचरोष्टकिसलयेषु अभृत् , अन्यन्नाधरता नीचता नाभूत । कठिनता कठिनस्पर्शवत्वं स्त्रीणां कुचतरंयु सनतटेषु परमभूत , अन्य व कठिनता निर्दयता नाभूत् । कुटिलता मङ्गुरत्वं स्त्रीणां कुन्तलेषु केशेषु परमभूत, अन्यत्र कुटिलता मायाजनितवक्रता नाभूत् । दरिद्रता कृशता स्त्रीणां मध्ययु कटिप्रदेशेषु परमभूत्, भन्यत्र दरिलता निर्धनता नाभूत् । कातरता चपलता स्त्रीणां कटाक्षेप्वपाङ्गपु परमभूत, अन्यत्र कातरता भीरता नाभूत् । बिनयातिक्रमो विनयोलङ्घनं स्त्रीणां रतेषु संभोगेषु परमभूत्, अन्यत्र विनयातिक्रम उद्दण्डाचरणं नाभून् । निग्रही निराकरणं स्त्रीणां मानग्रहेषु प्रणयकोपेपु परमभून् , अन्यत्र निग्रहो दमनं नाभूत् । प्रार्थनाप्रणामः प्रार्थनार्थ रतियाचनार्थ प्रणाम इति प्रार्थनाप्रणामः स्त्रीणां प्रणयकलहेपु कृत्रिमकोपेषु परम
भूत, अन्यत्र प्रार्थनाप्रणामो याचनादन्यं नाभूत् । वञ्चनावतारो दम्भाश्रयणं स्त्रीणां पञ्चबाणलीलास २० कामकेलिषु परमभूत , अन्यत्र वञ्चनावतारः प्रतारणवृत्याश्रयो माभूत् । परिसंख्यालंकारः।
हुए तबले और झाँझोंकी झंकारसे जिनका गर्व बढ़ रहा था, जल्दी-जल्दी नष्ट नहीं होनेवाली नृत्य मुद्राऑके बन्धसे मनोहर नृत्योंसे सुशोभित नृत्यकारिणियोंके मणिमय आभूषणोंको झनकारसे जो मनोहर थे, बढ़ती हुई नृत्यकलासे मनोहर संगीतसे संगत थे और जो महा- ।।
सागरके मथनकालीन शब्द के साथ मात्सर्यभाव धारण किये हुए थे ऐसे जिनेन्द्रदेवके महो२५ त्सवोंमें होनेवाले उन्ननादसे तिरस्कृत हुए के समान जिस राजधानीमें कभी अकल्याणको
सूचित करनेवाला शब्द सुनाई ही नहीं पड़ता था। एव जिस नगरीमें अधरता - नीचेका
ओठपना स्त्रियोंके अधरपल्लवों में ही था अन्य मनुष्योंमें अधरता - नीचता नहीं थी। कठिननास्पर्श सम्बन्धी कठोरता स्त्रियोंके स्तनों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में कठिनता - ऋरता नहीं थी।
कुटिलता - बाँकरना स्त्रियोंके केशोंमें ही था वहाँ के मनुष्यों में कुदिलता - माया नहीं थी। ३० दरिद्रता - पतलापन स्त्रियोंकी कमर में ही था वहाँ के मनुष्योंमें दरिद्रता - निर्धनता नहीं थी।
कातरता - चंचलता स्त्रियों के कटाक्षों में ही थी वहाँ के मनुष्यों में कातरता - भीरता नहीं थी। विनया तिक्रम - विनयका उल्लंघन स्त्रियोंके सम्भोगमें ही होता था अन्य मनुष्यों में नहीं था। निग्रह - बन्धन स्त्रियों की मानदशामें ही होता था अन्य मनुष्योंका निग्रह - तिरस्कार नहीं
होना था। प्रार्थना सम्बन्धी प्रणाम, स्त्रियोंकी प्रणय कलह में ही होता था अन्य मनुष्यों में ३५ याचना सम्बन्धी प्रणाम नहीं होता था और वंचनाका अवतरण - छलका अवतरण स्त्रियोंकी काम-क्रीड़ामें ही होता था अन्य मनुष्योंमें वंचना-धोखादेहीका अवतरण नहीं होता था ।
१. ० म० मिगुनशब्दः ।
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- सत्यंधरनृपस्य वर्णनम् ]
प्रथमो लम्
$ ५ तस्यां चैवंविधायां विधेयीकृतप्रकृतिः प्रतापविन मदवनीपति मकुटमणिवलभीविटङ्कसंचारितचरणनखकान्तिचन्द्रातपः करतलकलितकरालकरवालमयूख तिमिराभिसरदाह विजयलक्ष्मीलक्षितसौभाग्यः, समरसागरमधनसंभृतेन सुधारसेनेव प्रतापदहनदन्दह्यमानप्रतिभटविपिनजनितभसितराशिनेव निजभुजविटपिविनिर्गतकुसुमस्त बकेनेव परिपन्थिपार्थिवपङ्कजाकरसंकोचकौतुकसंचितेन चन्द्रमरीचिनिचयेनेव खड्गकालिन्दीसंजातेन फेनपटलेनेव पाण्डुरेण यशसा ५ प्रकाशित दगन्तः, मन्दीकृतमन्दरमहीभृति निजांसपीठे बहुनरपतिबाहुशिखरसमा रोहणावरोहणपरिखेदिनी चिरात्र विश्रामयन्, अश्रान्तपरिचीयमानेन वनीपकचातकपरिषद्विषादविघटनघना
२७
५. अथ राजानं वर्णयितुमाह-तस्यामिति तस्यां चैवंविधायां राजपुत्र सत्यं नाम राजाभूदिति कर्तृवियासंबन्धः । इदानीं राज्ञो विशेषणान्याह - विधेयीकृत प्रकृतिः - विधेयकृता रुशनुकूलीकृता प्रकृतिमन्ध्यादिवर्गः प्रजावा येन सः । प्रतापेति — प्रतापः कोदण्डजं तेजः स प्रभावी १० प्रतापश्च यत्तेजः कोषदण्डजम्' इत्यमरः । तेन विनमन्तो नस्त्रीभवन्तो येऽवनीपतयो राजानस्तेषां मान्यव मणिवलभ्यो रत्ननिर्मित गोपानस्यस्तासां विकेषु कपोतपाली पूर्ध्वभागेष्विति यावत् संचारितश्चरणनखकान्तिरं चन्द्रज्योत्स्ना येन सः । करतलेति—करतले पाणितले कलिती तो यः करालकरवालो भयंकरकुपाणस्तस्य मयूखाः किरणा एवं तिमिरं ध्वान्तं तस्मिन् अभिसरन्ती समागमाय समीपमागच्छन्ती या विजयलक्ष्मीस्तया लक्षितं प्रकटितं सौभाग्यं यस्य सः । अथ यशोविशेषणान्याह—समरेति — समर १५ एव युद्धमेव सागरस्तस्य मथनेन विलोडनेन संभृतस्तेन सुधारसेनेव पीयूषरसेनेव । प्रतापति - प्रताप पुत्र दहनोऽग्निस्तेन दह्यमानानि पुनः पुनरतिशयेन वा दद्यमानानि यानि प्रतिभटविपिनानि शत्रुकाननानि तैर्जनितो यो भसितराशिर्भस्म अस्तंतंत्र । निजेति-निजभुज एव स्त्रीयाहुरेव विटपी वृक्षस्तस्माद् विनिर्गतः प्रकटितः यः कुसुमस्तचकः पुष्पगुच्छकस्तेनैव परिपन्थीति — परिपन्थिपार्थिवा एव शत्रुनृपा एवं पङ्कजाकराः कमलसमूहास्तेषां संकोचस्य कौतुकेन संचितस्तेन चन्द्रमरीचिनिचयेनेव शशिरश्मिसमूहेनेव । २० खड्गति- - खड्ग एव कालिन्दी खङ्गकालिन्दी कृपाणयमुना तथा संजातेन समुत्पन्नेन फेनपटलेनेव डिण्डीरपिण्डेनेव । पाण्डुरंण धवलेन यशसा कीर्त्या प्रकाशितदिगन्तः प्रकाशिता दिगन्ता येन सः । मन्दीकृतेति - मन्दीकृत स्तिरस्कृतो सन्दर महीभृत् सुमेरुपर्वतो येन तस्मिन्, निजांसपीठे स्वस्कन्धासने बहुनरपतीनां भूरिनृपाणां चाहुशिखरेषु भुजाग्रेषु समारोहणावरोहणाभ्यामारोपावरोपाभ्यां परिखिद्यत इत्येवंशीला तां तथाभूतां मंदिनी भूमिं विराचिरकालपर्यन्तं विश्रामयन् । अश्रान्तेति - अश्रान्तमनवरतं यथा स्यात्तथा परित्रीय मानोऽभ्यस्य- २५
५. ऐसी उस नगरी में सत्यन्धर नामका राजा था। उस राजाने मन्त्रियों अथवा नगरवासियों को अपने अधीन कर रखा था। प्रतापसे नमस्कार करते हुए राजाओं के मुकुटरूपी मणिमयी बलभियोंके अग्रभागपर उसके चरण सम्बन्धी नखोंकी कान्तिरूपी चाँदनी फैली रहती थी । हाथ में लिये हुए भयंकर कृपाणकी किरणोंसे उत्पन्न अन्धकार में अभिसार करनेवाली विजयलक्ष्मीसे उसका सौभाग्य प्रकट हो रहा था। जो युद्धरूपी सागर के मधनसे ३० उत्पन्न हुए सुधारस के समान जान पड़ता था, अथवा प्रतापरूपी अग्निसे अत्यधिक जलते हुए शत्रुरूपी अटवीसे उत्पन्न भस्म के समूह के समान प्रतीत होता था, अथवा अपनी मुजारूपी वृक्ष से निकले फूलों के गुच्छोंके समान मालूम होता था, अथवा शत्रु राजारूपी कमलाकरको निमीलित करने के कौतुकसे एकत्रित हुए चन्द्रमा की किरणों के समूह के समान जान पड़ता था अथवा तलवाररूपी यमुनासे उत्पन्न फेन पटलके समान दिखाई देता था ऐसे धवल यशसे ३५ उसने समस्त दिशाओं के अन्तको प्रकाशित कर दिया था । अनेक राजाओंके कन्धों पर चढ़नेउतरने के कारण खेद खिन्न हुई पृथिवीको बह मन्दराचलको तिरस्कृत करनेवाले अपने कन्धे
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गद्यचिन्तामणिः
५ राजपु -
रम्भेण कर्णी सिरविणोनिमीलनबालातपेन कविकुल कलहंस कलस्वनश्रवणशरदवतारेण वितरणगुणेन मन्दयन्मन्दारगरिमाणम्, रणजलधितरणपोतपात्रेण कृपाणविषधर विहार चन्दन विपिनेन' क्षत्त्रधर्मदिनवृदयपर्वतेन पराक्रमेण क्रीतार्णवाम्बरः प्रयाणसमय चलदलघुच मूभारविनमितेन महीनिवेशेन फणाचक्रं फणाभृतां चक्रवर्तिनो जर्जरयन् दिशि दिशि निहितजयस्तम्भः कुमार ५ इव शक्तिशकलितभूभृद्विग्रहः शतमख इव सुमनसामेकान्तसेव्यः सुमेरुरिव राजहंसलालितपादः,
२८
I
मानस्तेन । वनीपका यात्रका एव चातकास्तेषां परिषद् समूहस्तस्या विषादविधर ने खेदापहरणे घनारम्भो मारम्भस्तेन । कर्णे दाने प्रसिद्ध नृपविशेषस्तस्य कीर्तिरेव कैरचिणी कुमुदिनी तस्या निमीलने संकोचने बालातपः प्रातःकालिकधर्मस्तेन । कविकुलान्येव कलहंसास्तेषां कलस्वनस्य मधुरास्फुटशब्दस्य श्रवणं तस्मै शरदवतारः शरतुप्रारम्भस्तेन । एवंभूतेन वितरणगुणेन दानगुणेन मन्दारगरिमार्ण कल्पवृक्षमाहात्म्यं १० मन्दयन् अल्पीकुर्वन् रणेति — रणजलधेः समरसागरस्य तरणे पोतपात्रं नौकायानं तेन । कृपाण एव विषधरी भुजङ्गस्तस्य विहाराय चन्दनविपिनं मलयजकाननं तेन । क्षात्रधर्म एव दिनकृत्सूर्यस्तस्योदय पर्वतः यूएवं स्वायतीकृता अर्णवाम्बरा पृथिवी येन सः । प्रयाणेति प्रयाणं विजययात्रा तस्य समये चलन् योऽलघुचम्भारो विपुलसैन्यसमूहस्तेन विनमितेन महीनिवेशेन फणाभूतां चक्रवर्तिनः शेषनागस्य फणा चक्रं सहस्रफणासमूहं जर्जरयन् । दिशि दिशि प्रतिदिशं निहिता निखाता १५ जयस्तम्मा येन सः । कुमार इव कार्तिकेय इव शक्त्या शक्तिनामकशस्त्रेण शकलितः खण्डितः भूभृतः
गिरेर्विग्रहः शरीरं येन सः । नृपतिपक्षे शक्त्या पराक्रमेण शकलिताः खण्डितः भूभृतां राज्ञां विग्रहाः शरीराणि येन सः । शतमख इव पुरन्दर इव सुमनसां देवानां नृपतिपक्षे विदुषाम् एकान्तसेभ्यो नियमेन सेव्यः । सुमेरुरिव रत्नसानुरिव राजहंसेमेरालविशेषैलालिताः सेविताः पादाः प्रत्यन्तपर्वता यस्य सः ।
पर चिरकाल के लिए विश्राम करा रहा था। जिसका उसे निरन्तर परिचय प्राप्त था, याचक२० रूपी चातकों के खेडको दूर करने के लिए जो मेघके आरम्भके समान था, राजा कर्ण की कीर्ति
रूपी कुमुदिनीको निमीलित करनेके लिए जो प्रातःकालके सुनहले घामके समान था, और कत्रियों के समूहरूपी कलहंसोंकी मधुरध्वनि सुननेके लिए जो शरद ऋतुके अवतार के समान था ऐसे दानरूप गुणके द्वारा वह कल्पवृक्षकी महिमाको मन्द कर रहा था अर्थात् कल्पवृक्षसे भी कहीं अधिक दानी था। जो रणरूपी सागरको तरनेके लिए जहाज के समान था, तलवार २५ रूपी सर्पके विहार के लिए चन्दनवृक्षोंका वन था और क्षत्रिय धर्मरूप सूर्यके उदय के लिए उदयाचल स्वरूप था ऐसे पराक्रमसे उसने समस्त प्रथिवीको खरीद लिया था। जब वह दिग्विजय के लिए चलता था तब प्रयाणकालमें चलती हुई बहुत बड़ी सेना के भारसे झुके हुए भूमण्ड के द्वारा वह शेषनाग के फणाओं के समूहको जर्जर कर देता था और प्रत्येक दिशामें विजयस्तम्भ खड़े करता जाता था । कुमार कार्तिकेय के समान था क्योंकि जिस प्रकार कार्तिकेय शक्ति-शकलित भूभृद्विग्रह शक्ति नामक शस्त्रसे कौञ्च पर्वत के शरीरको खण्ड-खण्ड करनेवाला था उसी प्रकार वह राजा भी शक्ति शकलित भूभृद्विग्रह - क्रमसे राजाओंके शरीर अथवा युद्धको नष्ट करनेवाला था । अथवा इन्द्रके समान था क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र सुमनसामेकान्त सेव्यः - देवोंका एकान्त सेवनीय होता है उसी प्रकार वह राजा भी सुमनसामेकान्त सेव्य विद्वानोंका एकान्त सेवनीय था । अथवा सुमेरुके ३५ समान था क्योंकि जिस प्रकार सुमेरु राजहंसलालितपाद- - लाल चोंच और लाल चरणवाले हंसोंसे सेवित प्रत्यन्त पर्वतोंसे युक्त होता है उसी प्रकार वह राजा भी राजहंसलालित
३०
--परा
१ म० चन्दनविपित्रनेन ।
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- सत्यंधरनृपस्य वर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः
दुर्योधन इव कर्णानुकूलचरितः, चन्द्र इव कुवलयानन्दकरप्रचारः, चण्डदीधितिरिव कमलाकरसुखायमानपादः, पारिजात इव परिपूर्णार्थजनमनोरथः, राजा राज्याश्रमगुरुः कुरुकुलधुरंधरः सत्यंधरो नामाभूत् ।
६. यस्य च प्रसरदविरलकीर्तिचन्द्रातपशीतला मंसवलभीमधिशयाना मेदिनी शेषफणाविप्ररनिवासानुबन्धिनीं विशेषणवेदनात्यजत् । यस्मिन्परिपालयति पयोधिरशनावच्छेदिनीं ५ मेदिनीं कुसुमपरिमलवीर्येण चाकित्यमुद्वहन्त इव मातरिश्वानो न क्वापि लभन्ते स्थितिम् 1 दुर्योधनस्याङ्गाधिपस्यानुकूलं चरितं यस्य सः । नृपतिपक्षे कर्णानां श्रवणानामनुकूलं प्रियं चरितं यस्य सः । चन्द्र इव कुवलयानन्दी नीलकमलविकासी करप्रचारः किरणप्रचारो यस्य सः । नृपतिपक्षे कुवलयानन्दी महीमण्डलानन्दी कर प्रचारः राजस्व प्रसारो यस्य सः । चण्डदीधितिरित्र सूर्य इव कमलाकरस्य पद्मसमूहस्य सुखायमानाः सुखदायकाः पाशः किरणा यस्य सः । नृपतिपक्षे कमलाया लक्ष्म्याः १० करयोर्हस्तयोः सुखायमानौ पादौ चरणौ यस्य सः । पारिजात इव कल्पवृक्ष इव परिपूर्णा अर्थिजनानां मनोरथा येन सः । उभयत्र समानम् । श्लिष्टक्षेपमालंकारः । राज्यमेवाश्रमो राज्याश्रमस्तस्य गुरुः । कुरुकुलधुरंधरः कुरुवंशश्रेष्टः
६६. यस्य चेति यस्य च सत्यंधरमहीपालस्य । प्रसरन्ती सर्वत्र संचरन्ती या विरला कीर्तिः चन्द्राः कौमुदी तेन शीतलां शिशिराम्, अंसवलभी स्कन्धगोपानसीम् । अधिशेत इत्यधिशयाना १५ तत्र बसन्ती मेदिनी पृथिवी शेषस्य फणाविष्टरे निवासेनानुबध्नातीत्येवंशीला तो विषोष्मवेदनां गरलोष्णतापीडाम् अत्यजत् । यस्मिन्निति – यस्मिन् भूपाले पयोधिरेव रशना मेखला तयावच्छेदिनी विशिष्टा ताम् मंदिनी परिपालयति सति । कुसुमानां परिमलस्य सौगन्ध्यस्य चौर्य तेन । चाकित्यं मीरुत्वम् उद्वहन्त इव दधत इव मातरिश्वानो वायवः क्वापि कुत्रापि स्थिति स्थैर्यं न लभन्ते । उत्प्रेक्षा । यस्य चेति
२९
पाद श्रेष्ठ राजाओं से सेवित चरणोंसे युक्त था । अथवा दुर्योधनके समान था क्योंकि २० जिस प्रकार दुर्योधन कर्णानुकूलचरित - राजा कर्णके अनुकूल चरितसे सहित था उसी प्रकार वह राजा भी कर्णानुकूलवरित - कानोंको आनन्द देनेवाले चरितसे सहित था । अथवा चन्द्रमाके समान था क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा कुवलयानन्दकर प्रचार नील कमलोंको आनन्दित करनेवाली किरणोंके प्रचारसे सहित होता है उसी प्रकार वह राजा भी कुवलयानन्दिकरप्रचार - पृथिवी मण्डलको आनन्द देनेवाले टैक्सोंके प्रचारसे सहित था । २५ अथवा सूर्य के समान था क्योंकि जिस प्रकार सूर्य कमलाकरसुखायमानपाद - कमलवनको सुखी करनेवाली किरणोंसे युक्त होता है उसी प्रकार वह राजा भी कमलाकर सुखायमानपाद - लक्ष्मी के हाथों को सुखी करनेवाले चरणोंसे युक्त था। अथवा कल्प वृक्ष के समान था क्योंकि जिस प्रकार कल्प वृक्ष परिपूर्णार्थिजनमनोरथ- याचक जनोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला होता हैं, उसी प्रकार वह राजा भी याचक जनोंके मनोरथको पूर्ण करनेवाला था । ३० राजा सत्यन्धर राज्य रूपों आश्रयका गुरु और कुरुवंशका शिरोमणि था ।
६६. उस राजाकी फैलती हुई अविरल कीर्तिरूपी चाँदनीसे शीतल कन्धे रूपी छपरी में शयन करनेवाली पृथिवी ने शेषनागके फणारूपी विष्टरपर निवास करने से सम्बन्ध रखनेवाली विषजन्य गरमीकी वेदनाको छोड़ दिया था। उस राजा के समुद्रान्त पृथिवीको पालन करनेपर फूलों की सुगन्धिकी चोरीसे भयभीतताको धारण करते हुएके समान वायु कहीं भी स्थिरताको ३५
-
-
१ क० ख० ग० कुवलयानन्दप्रचारः । २ ० ख०म० नामाभवत् । ३ ० ० ० प्रतिषु चकारो नास्ति । ४ ० ० ग मेदिनोमपि ।
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1
[ ६ राजपुया - यस्य च निहितहारोपधानमधरितकनकगिरिशिलातल विशालं वक्षःस्थलमधिशयाना स्वभावसंकट कमलकोटकुटी दुरासिकादुःखमत्याक्षील्लक्ष्मीः । यस्य च प्रलय समयविलसदनेकदिनकरकिरणदुःसहे प्रति प्रतापानले जलनिधिजलमध्यघटितां प्राक्तनी स्थिति बह्वमन्यत मधुसूदनः । यस्य च दुःसहप्रतापेऽपि सुखोपसेव्यता सौकुमार्येऽप्यार्यवृत्तिः अतिसाहसेऽप्यखिल५ जनविश्वास्यता विश्वंभराव हनेऽप्यखिन्नता सततवितरणेऽप्यक्षीणकोशता परपरिभवाभिलाषेऽपि परमकारुणिकता पञ्चशरपारतन्त्र्येऽपि पाकशालिता परमदृश्यत । यस्य चारम्भमभिमतावाप्तिः, प्रज्ञां विद्याधिगमः पराक्रमं परिपन्थिपरिक्षयः, परहितनिरति जनानुरागः, प्रतापं दुराक्रमता, त्यागं भोगावली, काव्यरसाभिज्ञतां कविसंग्रहः, कल्यसंधवां कल्याणसंपत्तिः, न्यायनेतृतां दृढ प्रतिश
यस्य च राज्ञो निहितं स्थितं हार एवोपधानं यत्र तत् । अधरितं तिरस्कृतं कनकगिरिशिलातलं सुमेर१० शिलावलं येन तत् तथाभूतं विशालं विस्तृतं वक्षःस्थलमुरःस्थलम् अधिशयाना लक्ष्मीः स्वभावेन संकट संकीर्ण यत्कमलकोटरं तदेव कुटीरं हस्वा कुट्टी तस्मिन् दुरासिकया दुर्निवासेन यद् दुःखं तत् अत्याक्षीत् मुन | यस्य चेति - यस्य च राज्ञः प्रलयसमये संहारसमये विलसन्तो विभ्राजमाना येऽनेकदिनकरा -
३०
गद्यचिन्तामणिः
។
किरणा व दुःसहस्तस्मिन् प्रतापानले प्रतापपावके प्रसर्पति सति मधुसूदन नारायणः । जलनिधिमध्यदितां समुद्रमध्ययोजितां प्राकनीं पूर्वा स्थिति वह्नमन्यत श्रेष्ठाममन्यत । यस्य चेति — यस्य १५ राज्ञश्च दुःसहवासी प्रतापश्च दुःसहप्रतापस्तस्मिन् सत्यपि सुखोप सेव्यता सुखेनोपसेव्यता सुखारा धनीयता । सौकुमार्येऽपि कष्टसहन सामर्थ्याभावेऽपि आर्यवृत्तिः श्रेष्टजनाचारः । अतिसाहसेऽपि प्रचण्डसध्येऽपि अखिलजन विश्वास्यता निखिल जनविश्वासपात्रता । विश्वम्भरा वहनेऽपि पृथिवीभारधारणेऽपि अखिन्नता खेाभावः । सततवितरणेऽपि निरन्तरदानेऽपि अक्षीणकोसता असमाप्तकोशता । परपरिभवामिलायेऽपि शत्रुतिरस्कारमनोरथेऽपि परमकारुणिकता परमदयालुता 'स्याद् दयालुः कारुणिकः' इत्यमरः । २० पञ्चशरपारतन्त्र्येऽपि मदनपारवश्ये सत्यपि पाकशालिता निष्ठाशालिता श्रद्धावत्वमित्यर्थः । परमत्यन्तम् ---यस्य च राज्ञ
अष्टश्यत । 'पाको जरापरीपाके स्थाल्यादी क्लेदनियो:' इति विश्वलोचनः । यस्य चेति--- आरम्भ कार्य प्रारम्भम् अभिमतावाप्तिरिष्टवस्तुप्राप्तिः, प्रज्ञां बुद्धिं विद्याधिगमो विद्यानामाम्वी शिक्यादीनामधिगमो ज्ञानं प्राप्तिर्वा, पराक्रमं परिपन्थिपरिक्षयः शत्रुसंहारः परहितनिरतिं परहिते निरतिस्तां परहिततत्पश्तो जनानुरागो लोकप्रीतिः प्रतापं तेजो दुराक्रमता दुर्धर्षता, त्यागं दानं भोगावली बिरुदावली,
२५ प्राप्त नहीं हो रही थी। जिसपर हार रूपी तकिया रखा हुआ था और जिसने सुमेरु पर्वतके शिलातलको तिरस्कृत कर दिया था ऐसे उस राजाके विशाल वक्षस्थलपर शयन करनेबाली लक्ष्मीने स्वभावसे ही संकीर्ण कमलकी कोटर रूपी कुटिया में कष्टपूर्वक रहनेका दुःख छोड़ दिया था । प्रलय कालमें सुशोभित अनेक सूर्योकी किरणोंके समान दुःसह उस राजाकी प्रताप रूपी अग्नि के फैलनेपर नारायण समुद्र के जलके बीच में स्थित अपनी पुरानी स्थितिको ३० ही अच्छा मानते थे । दुःसह प्रताप के रहनेपर भी उस राजामें सुखोपसेव्यता, सुकुमारता रहनेपर भी आर्यजनों के योग्य उत्तम आचार, अत्यधिक साहस के रहते भी समस्त मनुष्योंकी विश्वासपात्रता, प्रथिवीका भार धारण करनेवर भी अखिन्नता, निरन्तर दान देनेपर भी भण्डारको अक्षीणता, शत्रुओंके तिरस्कारकी अभिलाषा होनेपर भी परम दयालुता और कामकी परतन्त्रता होनेपर भी अत्यधिक पवित्रता देखी जाती थी । इष्टफलकी प्राप्ति उसके ३५ कार्यारम्भको विद्याकी प्राप्ति बुद्धिको, शत्रुओंका क्षय पराक्रमको, मनुष्योंका अनुराग परहितकी तत्परताको, अनाक्रमण प्रतापको विरुदावली दानको कवियों का संग्रह काव्यरसकी
१.
१ म० क० म० शिलातलं विशालं ।
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-- राजीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः निजकृत्यानुल्लखिलोकता, तत्त्वज्ञानितां धर्मशास्त्रशुश्रूषा, दुरभिमानहीनतां मुनिजनपदप्रता, माननीयतां दानजलार्दीकृतकरः, परमधार्मिकतां परमेश्वरसपर्या, नीतिनिपुणतां निष्कण्टकता निरक्षर निरन्तर निवेदयति ।
७. तस्य चाभवदद्भुताचाररूपा रूपसंपदिव विग्रहिणी, गृहिणीधर्मस्थितिरिच साक्षास्क्रियमाणा, समरविजयलक्ष्मीरिव पुष्पधनुषः, संकोचितसपत्ननारीवदनकमला कौमुदीव विधु- ५ तुद कयलन भयादपहाय रजनीकरमवनिमवतीर्णा, रामणीयकचन्द्रोदयपिशुनेन संध्यारागणेय मनसिजमदकरिकुम्भमण्डनसंभृतेन गैरिकपकाङ्गरागेणेब नवनलिननिपतितेन तरुणतरणिकिरणकाव्यरसस्याभिजता तां कविसंग्रहः कवीनां संग्रहः स्त्रसमीपे स्थापनम्, कत्यसन्धतां सदमिप्रायं कल्याणसंपत्तिः कल्याणमेव संपत्तिः श्रेयःसंपत्तिः, वारजेतृतो न्याय केला सस्य मायस्तो चायनवतकत्वं निजकृप्यानलंधिलोकता स्वकार्याविरोधिजनता, तत्त्वज्ञानितां तस्वशतां धर्मशास्त्रशुश्रुषा धर्मग्रन्थश्रवणच्छा, १० दुरभिमानहीनता दुश्दीभावं मुनिजन पदमहता यतिजनचरणनम्रता, माननीयतां समादरणीयतां दानजलेनाद्रीकृतः कर इति दानजलादींकृत करः दानपरता, परमधार्मिकतां श्रेष्टधार्मिकत्वं परमेश्वरसपा अहंरपरमेष्टिपूजा, नीतिनिपुणतां नीतिकौशलं निष्काटकता निःशत्रुता निरक्षरं यथा स्यात्तथा निरन्तरं सततं निवेदयति सूचयति ।
६७. अश्व राज्ञो वर्णयितुमाह-~-तस्येति-~-तस्य च सत्यं वरमहाराजस्त्र विजया नाम महिषी १५ कृताभिषेका राजा पट्टाज्ञीति यावत् अभवदिति कक्रियासंबन्धः। साम्प्रतं तस्या विशेषणान्याहआचारश्च रूपं चेत्याचाररूपे अद्भुते आचाररूपं यस्याः साद्भुताचाररूपा विग्रहिणो शरीरधारिणी रूपसंपदिव सौन्दर्यसंपत्तिरिख, साझस्क्रियमाणा दृश्यमाना गृहिणीधर्मस्थितिरिव नारीधर्ममर्यादेव, पुप्पधनुपी मदनस्य समरविजयलक्ष्मीरिव युद्धविजयश्रीरिब, संकोचितानि निर्मालितानि सपत्ननारीणां वदनकमलानि मुखारविन्दानि यया सा सथाभूता अतएव विधुतुदेन कवलनं तस्य भयं तस्मादाग्रासमीतेः रजनीकर चन्द्रमसमपहाय त्यक्त्वा अवनि पृथिवीमवतीर्णा कौमुदीव चन्द्रिकेव । घरणयुगलं दधाना । अथ तस्वैव विशेषणान्याह-रामणीयकं सौन्दर्यमेव चन्द्रोदयस्तस्य पिशुनेन सूचकेन संध्यारागेणेव पितृप्रसूलो- मंपाक हितिम्नेव, मनसिज एव मदकरी मस्राविहस्ती तस्य कुम्मयोर्गण्डयोर्मण्डनाय संभृतस्तेन गैरिकपको ऽरुणवर्णो मृद्विशेषस्तस्याङ्गरागेणेव, नवनलिनेषु नूतनकमलेषु निपतितेन तरुणतरणिकिरणानां बालसूर्यअभिज्ञताको, कल्याणरूप सम्पत्ति दृढप्रतिज्ञताको, लोगों के द्वारा अपने-अपने कार्योंका उल्लंघन २५ नहीं होना न्यायपूर्ण नेतृत्वको, धर्मशास्त्रके श्रवण करनेकी इच्छा तत्त्वज्ञानको, मुनिजनों के चरणों में नम्रता दुष्ट अभिमानके अभावको, दानके जलसे गीला किया हुआ हाथ माननीयताको, जिनेन्द्रदेवकी पूजा परम धार्मिकताको, और क्षुद्र शत्रुओंका अभाव नीतिनिपुणनाको चुपचाप निरन्तर सूचित करता रहता था ।
६. ७. उस राजाकी विजया नामकी पट्टरानी थी। वह रानो अद्भुत आचार और ३० हएको धारण करनेवाली थी इसलिए. शरीरधारिणी सौन्दर्य रूप सम्पत्तिके समान जान पड़नी थी। साक्षान् दिखनेवाली स्त्रीधमकी स्थिति के समान, कामदेवके युद्धकी विजय लक्ष्मीक, समान अथवा शत्रुस्त्रियों के मुखकमलको संकोचित करनेवाली एवं राहु के प्रसनेके भयसे चन्द्रमाको छोड़कर पृथिवीपर उतरी हुई चाँदनीके समान दिखलाई देती थी। वह राा चरणयगलको धारण कर रही थी जो सौन्दर्यरूपी चन्द्रोदयको सूचित करनेवाली 31 सन्ध्याकालिक लालिमार समान, कामदेवरूपी हाथीके गण्डस्थलको सजाने के लिए इकट्टे
१० ख० ग० प्रतिष निरन्तरमिति पदं नास्ति ।
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गयचिन्तामणिः
[७ सत्यंधरस्यकलापेनेव स्वभावपाटलेन प्रभापटलेन विनाप्यलक्तकरसानुलेपनमुपपादिततलाकल्पशोभम् अनवरतविनमदवनीपतियोषिदलकापीडनिपतितैः सुमनोभिरिव मनोहराङ्गुलिपर्यायशुक्तिपुटवमितैर्मुक्ताफलैरिव प्रकृतिचतुरचक्रमकलाशिक्षणकुतूहलनिषेवमाणः कलहंसशावकरिव सततमुद्
गच्छता स्तनमण्डलेन मा पीडय वदनतुहिनमहसमिति कृतप्रणामस्तारकागरिव तारुण्योष्म५ कठिनीभवत्कान्तिसलिलबिन्दुसंदोहसदेहदायिभिर्नखमणिभिरवतंसितम् अनुपजातपङ्कपरिचयम्
अज्ञातमधुपपरिषदुपसर्पणमालिन्यम् अहर्निशविभागविधुरविकासम् अननुभूतपूर्वमम्भोरुहयमलमिव चरणयुगलं दधाना, मदनतूणीवैगुण्यजल्पाकेन कान्तिजलधिजलवेणिकानुकारिणा जङ्घाद्वयेन
रश्मीनां कालापः समूहस्तेनेव, स्वभावेन पाटलं तेन प्रभापटलेन कान्तिसमूहेन अलककरसानुलेपन
विनापि उपपादिता सलाकल्पस्य तलाभरणस्य शोभा यस्य तत् अतिरक्ततलमिति यावत् । अनवरतेति१० अनवरतं निरन्तरं विनमभ्यो नमस्कन्स्यिो या अवनीपतियोषितो नरेन्द्रनार्यस्तासामलकापीडेभ्यः केश
समूहभ्यो निपतितानि तैः सुमनोभिरिव पुष्पैरिव । मनोहरेति—मनोहरालयः पर्याया येषां तानि तथाभूतानि यानि शुक्किपुटानि तेभ्यो वमितः प्रकटितैः मुक्काफलैरिव मौक्तिकरिव । प्रकृतीति-प्रकृत्या निसर्गण चतुरं यः चंक्रमो गमनं तस्य कला तस्याः शिक्षणकुतूहलेन शिक्षाकौतुकेन निषेवमाणाः जासिला शेगां दुर्वासातः कलहंसशावकैरिय कादम्पशिशुभिरिव । सतत मिति-सततमुद्गच्छता यौवनातिरेण समुत्तिष्टता स्तनमण्डलेन वदनतुहिनमहसं मुखधन्द्र मा पीडय, इति हेतोः कृतप्रणामैत्रिहितनमस्कारस्तारकागणैरिव नक्षत्रसमूहैरिव । तारुण्येति–तारुण्यस्योन्मणा निदाधरवेन कठिनीभवन् यः कान्तिसलिलबिन्दुसंदोहो दीप्तितोयीकरसमूहस्तस्य संदेहं ददतीत्येवंशीलास्तैः । एवं भूतैर्नखमणिभिनखा एव मणयस्तैरुज्ज्वलनखररिति यावत् अवतसित शोभितम् । अनुप जातेति-अनुपजातोऽनुत्पन्नः
पङ्कपरिचयो यस्य तत्, अज्ञातमननुभूतं मधुपपरिषदो भ्रमरसंततेरुपसर्पणेन समीपागमनेन मालिन्यं २० येन तत् । अहर्निशविमागेन दिवसरजनीविभागेन विधुरो रहितो विकासो यस्य तत् । पूर्व नानुभूतमित्य
मनुभूतपूर्वम् । अम्मोहयमलमिव कमलयुगलमिव । मदनेति-मदनस्य तूणी मदनतूणी कामेषुधिस्तस्या वैगुण्यं निर्गुणत्वं तस्य जल्पाकं निवेदकं तेन । कान्तिरेव जलधिजलं तस्य वेणिका प्रवाहमनु
किये हुए गेरू के अंगरागके समान अथवा नबीन कमलपर पड़ी प्रातःकालीन सूर्यको किरणों के
समूहके समान स्वभावसे ही गुलाबी प्रभा पटल के द्वारा माहुरके लेपके बिना ही तलभागमें २५ उत्तम शोभाको धारण कर रहा था। उसका वह चरणयुगल जिन नखरूपी मणियोंसे
सुशोभित था वे निरन्तर नमस्कार करती हुई राज-स्त्रियोंके केशसमूहसे गिरे फूलोंके समान अथवा मनोहर अंगुलियोंरूपी सोपोंके पुटसे उगले हुए मोतियों के समान अथवा स्वभावसे ही सुन्दर गमन कलाको सीखनेके कौतूहलसे सेवा करनेवाले कलहंसोंके बच्चोंके समान, अथवा
'निरन्तर उठते हुए स्तनमण्डलसे मुखरूपी चन्द्रमाको पीड़ित न करो' का प्रार्थना करनेके ३० लिए प्रणाम करनेवाले ताराओंके समूह के समान अथवा जवानीकी गरमोसे कड़े होते हुए
कान्तिरूपी जलकी बूंदोंके समूह के समान जान पड़ते थे। उसका वह चरणयुगल पहले कभी अनुभवमें न आये हुए उस कमलयुगलके समान जान पड़ता था जिसका का पकके साथ परिचय नहीं हुआ था, जिसने मधुप - भ्रमर समूह ( पक्षमें मद्यपायी) के पास आनेसे उत्पन्न
मलिनताका कभी ज्ञान नहीं किया और जिसका विकास गत-दिनके विभागसे रहित था। ३५ कामदेव के तरकसकी निर्गुणताको कहनेवाले एवं कान्तिरूपी समुद्रके जलके प्रवाहका
१ क० ख० ग० प्रतिषु 'सन्दोह'पदं नास्ति।
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AD
- राशीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः प्रतिपादिताधोमुखकमलनालशोभा, सुनासीरदन्तावलशुण्डागरिमलुण्टाकेन कुसुमशरनिवासनितम्बप्रासादमण्डनमणितोरणरामणीयकधुरीणेन मदनमातङ्गनहनालानस्तम्भसविभ्रमेण स्वभावपीवरेणोरुकाण्डद्वयेन कामपि कमनीयतां कथयन्ती, कन्दर्पसाम्राज्यसिंहासनेन कठिनविशालेन प्रतिक्षणमुच्छ्वसता श्रोणिमण्डलेन शिथिलीकृत नीवोनहनाभ्यासखेदितकरा, मणिकिङ्किणोरणितच्छलेन भङ्गभयानितम्बविटमियाभिष्टुवता चिरपरिचयपल्लवितप्रेगतया पतनशोलस्य मध्यस्य ५ मन्देतरमरीचिवीचिरामुद्गमव्याजेन हस्तदानमिव प्रयच्छता प्रतप्तकाञ्चनकल्पितेन काच्चीवलयेन परिवेष्टितनितम्ब चन्द्रबिम्बा, विडम्बितरशनालंकारमरकतमणिमयूखले खया विभुवनविजयसनादनङ्गसुभटकरकलितकृपाणलतालावण्यापहासिन्या रोमराजिकया विराजन्ती, रामणीयकसरिदा
करीतीत्येवं शीलं तेन जडाद्वयेन प्रस्तायुगलेन प्रतिपादिता प्रकारिता अधोमुस्कमलनालयोः शोभा यया सा। सुनासीरेति-सुनासीरदन्तावल ऐरावतो गजस्तस्य शुहाया गरिमा गुरुत्वं तस्य लुण्टाकमपहारकं १० तन, कुसुमशरस्य कामस्य निवासी यस्मिन् स कुसुमारनिवासस्तथाभूतो यो नितम्बप्रासादस्तस्य मगनमाभरणं यन्मणितोरणं तस्येव रामणीयकेन सौन्दर्येण धुरीणं श्रेष्टं तेन । मदनमातङ्गस्य कामगजस्य नह्न बन्धनं तस्य य आलानस्तम्भस्तस्य सविभ्रम सदृशं तेन । स्वभावपीवरेण-निसगस्थूलेन ऊरूकारद्वयन सक्थियुगलेन कामप्यता कमनीयता मनोजतां कथयन्ती। कन्दति-कन्दपस्य कामस्य साम्राज्यं तस्य सिंहासनं तेन । कठिन च तद्विशालंच तेन काटीरस्थूलेन । प्रतिक्षणं प्रतिसमयम् उच्छव- १५ सतोत्स्फुरता श्रोणिमण्डलेन नितम्बविम्येन शिथिलीकृता या नीकी कविवरूग्रन्थिस्तस्या नहनाभ्यासेन बन्धनाभ्यासेन खेदिता करौ यस्याः सा। मणिकिङ्किणीति-मणिविक्षिणीनां रखमयक्षुण्टिकानां रणिसस्य रुणझुणशब्दस्य छलेन व्याजेन भङ्गस्य भयं तस्मात् त्रोटनतिः नितम्वविष्टरं नितम्बासनम् अमिष्टवतेव स्तुति कुर्वाणेनेव । चिरपरिचयन पल्लवितं वृद्धिंगतं प्रेम अस्य तस्य भावस्तत्ता तया पतनशीलस्य कृशयारपतनोन्मुखस्य मध्यस्य मन्देतरा विपुला या मरीचिवीचयः किरणसंततयस्ताखां २० समुद्गमस्य व्याजेन हस्तदानं करावलम्बनं प्रयच्छतेव प्रददतेव । प्राप्तेन काञ्चनेन भर्मणा कल्पितं रचित तेन काञ्चीवलयेन मेखलामण्डलेन परिवेष्टितं नितम्बमेव चन्द्रषिम्यं यस्याः सा । विडम्बितेति-विडम्बिता तिरस्कृता रशनालंकारमरकतमणीनां मेरसलामरणहरितमणीनां मयूखलेखा किरणरेखा यया तया। त्रिभुवनस्य लोकनयस्य विजयाय संनयन् समुद्यतो भबन योऽनङ्गसुभटो मदनयोधस्तस्य कर कलिता या
अनुकरण करनेवाले पिण्डरियोंके युगलसे वह रानी उस कमलनालकी शोभाको प्रकट २५ कर रही थी जिसका कि कमल नीचेकी ओर था। जो इन्द्र के हाथोकी सूंड़ सम्बन्धी गौरवको लूट रहा था, कामदेव के निवासभत नितम्बरूपी महलको सुशोभित करनेवाले मणिमय तोरणोंकी सुन्दरतासे श्रेष्ठ था, कामरूपी हाथीके आँधनेके खम्भेके समान जान पड़ता था और स्वभावसे ही स्थूल था ऐसी जाँघोंके युगलसे वह किसी अनिर्वचनीय सुन्दरताको प्रकट कर रही थी। जो कामदेवके राज्यसिंहासन के समान था, कटिन और विशाल था ३० तथा प्रतिक्षण वृद्धिंगगत हो रहा था ऐसे नितम्बमण्डलसे उसकी धोतोकी गाँठ ढोली पड़ जाती थी और उसके बार-बार कसने के अभ्याससे उसके हाथ खेद खिन्न हो रहे थे। तपाये हुए स्वर्णसे निर्मित जिस मेखलाके घेरासे उसका नितम्बरूपी चन्द्रमण्डल घिरा हुआ था वह मणिमय क्षुद्रयण्टिकाओंके शब्दके बहाने ऐसा जान पड़ता था मानो टूट जाने के भयसे नितम्बरूपी सिंहासनकी स्तुति ही कर रहा हो अथवा चिरकाल के परिचग्रसे बढ़े हुए प्रेमके ३५ कारण पतनोन्मुख मध्यभागको अत्यधिक किरणावलीके ऊपर उठने के बहाने मानो हाथका सहारा ही दे रहा हो। जिसने मेखलामें लगे हुए मरकत-मणियोंकी किरणावलीका उपहास
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गद्यचिन्तामणिः
[ ७ सत्यंवरस्य
वर्तमण्डलेन मदनमतङ्गज निगलकटकेन कान्तनयनशफर विहरणतडागेन' सौन्दर्यमहानिधिगर्तसनाभिना नाभिचक्रेण चरितार्थीकृतलोकलोचना, नितान्तपीवर नितम्ब निष्पादनजनितपरिखेदपरिणततन्द्रालुभावेन कमलसाना कृशतरमुपपादितेनेव दुर्बह्पयोधरयुगलवहनकातरतया नाभिहद निमग्नेने वानुपलक्षितरूपेणातितनीयस्तया घटितपटबन्धेनेव त्रिवलीव्याजेन मध्यदेशेन दर्शित५ सौभाग्या, सौकुमार्यं सरश्चक्रवाक मिथुनेनेव मीनकेतनकरिकुम्भसहचरेण श्रृङ्गारनटरङ्गपीठेन विलाससरसी समुत्पन्न सरसिज मुकुल कोमलेन कुचद्वयेन किंचिदवनतपूर्वकाया, कदर्थित कमलमृणाल
कृपाणलता खड्गवली तस्या लावण्यमपहसतीत्येवं शीला तया रोम्णां राजिका तया उदरस्थुलोमपङ्क्त्या विराजन्ती शोभमाना । रामणीयकेति - रामणीयकमेव सोन्दर्यमेव सरितस्या आवर्तमण्डलं तेन, मदनमतङ्गजस्य कामकरिणो निगलकटकेन बन्धनवलयेन, कान्तस्य वल्लभस्य नयनशफराणां नेत्रमीनानां १० विहरणाय तडागस्तेन, सौन्दर्यमेव महानिधिस्तस्य गर्तस्य सनाभिना दर्शन नाभिचक्रेण नाभिमण्डलेन चरितार्थीकृतानि लोकलोचनानि यया सा । नितान्तेति - नितान्तपीवरस्यातिस्थूलस्य नितम्बस्य कटि पश्चाद्भागस्य निष्पादनेन निर्माणेन जनितः समुत्पन्नो यः परिखेदस्तेन परिणतः प्राप्तस्तन्द्रालुभाव आलस्यं यस्य तेन कमलसनना ब्रह्मणा कृशतरं यथा स्यात्तथा उपपादितेनेव रचितेनेव दुर्वहं दुःखेन बोढुं शक्यं यत्पयोधरयुगलं तस्य बहने धारणे कानरतया मीरतया, नामिरेव ददस्तस्मिन् निमग्नेनैवानुपलक्षित१५ रूपेणादृष्टाकारेण अतिशयन तनुः इत्यतितनीयान् तस्य भावस्तथा अतिकृशतया त्रिवलीव्याजेन रेखात्रितयव्याजेन घटितो विहितः पटवन्धो यस्य तेन तथाभूतेनेव मध्यदेशेन कटिप्रदेशेन दर्शितं सौभाग्यं यस्याः सा । सौकुमार्येति — सौकुमार्यमेव मृदुत्वमेव सरः कासारस्तस्य चक्रवाकयोमिथुनेनेव युगेनेव, मीनकेतनकरिणो मदनमतङ्गजस्य कुम्मौ गण्डौ तयोः सहचरेण सदृशेन शृङ्गार पुत्र नटस्तस्य रङ्गपीठेन नृत्यस्थलेन, विलाससरस्यां विश्वमकासारे समुत्यन्ने ये सरसिजमुकुले कमलकुड्मले द्वन्दकोमलेन कठिनेन २० कुचद्वयेन स्तनयुगलेन किंचिदवनतो मनाग्भुझः पूर्वकायो यस्याः सा । कदर्थितेति - कदर्शितं तिरस्कृतं नम्र
किया था और जो त्रिभुवनको विजयके लिए तैयार हुए कामरूपी योद्धाके हाथमें स्थित तलवाररूपी लताके सौन्दर्यकी खिल्ली उड़ा रही थी ऐसी रोमराजीसे सुशोभित थी। जो सौन्दर्यरूपी नदी भँवर के समान जान पड़ता था, कामरूपी हाथीको बेड़ी के कड़े के समान था, पति नेत्ररूपी मछलियोंका क्रीडासरोवर था अथवा सौन्दर्यरूपी महानिधि के गर्त के ६५ समान था ऐसे नाभिचक्रसे वह मनुष्योंके नेत्रोंको चरितार्थ कर रही थी। वह जिस दुबलीपतली कमर से अपना सौभाग्य दिखला रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो अत्यन्त स्थूल नितम्बों के बनाने से उत्पन्न थकावट से आलम्य आ जानेके कारण ब्रह्माने उसे अत्यन्त कृश बना दिया था अथवा बहुत भारी स्तन युगलको धारण करनेसे भीरु होने के कारण मानो वह नाभिरूपी सरोवर में डूबी जा रही थी । अत्यन्त कृश होनेके कारण उसका स्वरूप दिखाई ३० नहीं देता था तथा त्रिवलिके बहाने वह वस्त्रकी पट्टी बाँधे हुएके समान जान पड़ती थी । जो सौन्दर्यरूपी सरोवर के चकवा चकवीके मिथुन के समान थे कामदेवरूपी हाथी के दो गण्डस्थलोंके समान थे, शृंगाररूपी नटकी रंगभूमि स्वरूप थे, और बिलासरूपी सरोवर में उत्पन्न कमलकी बोड़ी के समान थे ऐसे दोनों स्तनोंसे उसके शरीरका ऊर्ध्वभाग कुछ-कुछ नीचे की ओर झुक रहा था । जिन्होंने कमलके मृणाल सम्बन्धी सौकुमायको तिरस्कृत कर दिया था, जो
१ क० ख० ग० तटावेन । २० सनाभिनाभिचक्रेण । ३ म० अ० मिथुनेन ।
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- राशीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः
कुमार्येण माणिक्यपारिहार्यमरोचिपटल कवचिन स्तव रकनिचुलितकुसुमशरविलासोपधानसौभाग्येन प्रवालकोमलाङ्गुलिना सुरभिशरीरपर्यायपटीरविटपिसंगिभुजंगेन भुजद्वयेन भूषिता, दूषितम्बुसंपदाम्बरेण वदनन लिननालकाण्डेन कण्ठेन खण्डिततरुणपूगकन्ध राहंकारा, प्रतिभटतुहिन किरणविजय कौतुकेन कार्मुकमित्र भ्रूलतानिभेन बिभ्रता सहजशशधरशङ्कागतं कौस्तुभमिव स्निग्धपाटलमनोहरमधरं दधता सुधाकरकलत्रमिति कौमुदीमिव बन्दीकृत्य मन्दहसितच्छलेन ५ दर्शयता युवतिवदनसाम्राज्य चिह्नमिव धवलातपत्रमलकलतानिपतितमिव कुसुममाभिरूप्यदर्शनदोहलधूतमिव दणं चन्दनतिलक मुछता ललाटार्धचन्द्रविम्बविगलदमृतधारासंदेह दायिन्या नासिकया सोमन्तितेन सुरासुरपरिषदपहृतसारः समुद्गत कालकूटगरलदूषितः क्षीरजलनिधिरिति
३५
१५
कमलमृणालयोः सौकुमार्य रोज तन, माणिक्यपारिहार्याणां स्त्नाभरणानां मरीचिपटलेन किरणकलापेन कवचितं व्याप्तं तेन स्तरकेण वस्त्रावरणेन निचुलितं व्याप्तं यत् कुसुमशरस्य मदनस्य विलासोपधानं विभ्रमोपधानं तद्वत्सौभाग्यं यस्य तेन प्रवालकोमलाः पवमृदुला अङ्गुल्यो यस्मिन् तेन सुरभिशरीरं सुगन्धिशरीरं पर्यायो यस्य स चासो परविटपी चन्दनवृक्षस्तस्य संगिभुजंगः संश्लिष्टसर्पस्तेन भुजद्वयेन बाहुयुगलेन भूषिता । दूषितेति - दूषितो निन्दितः कम्बुसंपदः शङ्खसंपतेराडम्बरो विस्तारो येन तेन, वदनन हिनस्य मुखकमलस्य नालकाण्डेन नालदण्डेन कण्ठेन शिरोधरेण खण्डितस्तिरस्कृतस्तरुणपूगस्य तरुणमुकपादपस्य कन्धराया ग्रीवाया अहंकारो यया सा । मुस्खेन मदनमपि का ममपि मदयन्ती मसं कुर्वन्ती । अथ मुखस्य विशेषणान्याह – प्रतिभटेति — प्रतिभटः प्रतिस्पर्धी यस्तुनिकिरणचन्द्रस्तस्य विजयस्य कौतुकेन भ्रूलतानिभेन कुटिवलीव्याजेन कार्मुकं धनुर्विभ्रतेव दधतेव । सहजेति --- सहजश्चासौ शशधरश्चेति सहजशशधरः सहोत्पन्नचन्द्रस्तस्य शङ्कया संदेहेनागतस्तं कौस्तुभमिव कौस्तुभाख्यमणिविशेषमिव स्निग्धश्चासौ पाटल स्निग्पालः अतएव मनोहरस्तमधरं दशनच्छत्रं दधता | सुधाकरेति - सुधाकरस्य कलत्रं सुधाकरकलत्रं चन्द्रपत्नीति हेतोः कौमुदीं चन्द्रिका बन्दीकृत्य कारावरुद्धां कृत्वा मन्द- २० हसितच्छलेन स्मितव्याजेन दर्शयतेव प्रकटयतव । युवतीति- युवतिवदनानां तरुणीमुखानां साम्राज्यस्य चिह्नं चतपत्रमित्र शुक्लच्त्रमिव अलकलतानिपतितं चूर्णकुन्तलवली स्खलितं कुसुममिव आभिरूप्यं सौन्दर्यं तस्य दर्शनलेन विलोकन मनोरथेन धृतमवलम्बितं दर्पणमिव मुकुरमिव चन्दनतिलकं मलयजस्थासकम् उद्वहता दधता । ललाटेति - ललाटसंवार्धचन्द्रविम्बं मालार्धशशधरमण्डलं तस्माद विगलन्ती या अमृतधारा तस्याः संदेहं ददातीत्येवंशीला तथा नासिकया सीमन्तितेन कृतवेशितेन । सुरासुरेति- २५
१०
मणिमय आभूषणोंकी किरणावलीसे व्याप्त थीं, आवरण से युक्त कामदेव के विलाससम्बन्धी तकिया के समान सौभाग्यको धारण कर रही थीं, जिनकी अंगुलियाँ प्रचालके समान कोमल थीं और जो सुगन्धित शरीररूपी चन्द्रन के वृक्षसे लिपटे साँपों के समान जान पड़ती थीं ऐसी दोनों भुजाओं से वह सुशोभित थी । जिसने शंखकी सौन्दर्य रूप सम्पत्तिके आडम्बरको दूषित कर दिया था, एवं जो मुखरूपी कमलको नालके समान जान पड़ता था ऐसे कण्ठसे उसने ३० सुपारीके तरुण वृक्षकी ग्रीवा के अहंकारको खण्डित कर दिया था। जो अपने प्रतिद्वन्द्वी चन्द्रमापर विजय प्राप्त करनेके कुतूहल से भ्रकुटिरूप लता के बहाने मानों धनुषको धारण कर रहा था, जो अपने सहभावी चन्द्रमाका शंकासे पासमें आये हुए कौस्तुभमभिके समान चिकने गुलाबी एवं सुन्दर अधरोटको धारण कर रहा था, जो मन्द मन्द मुसकान के छलसे 'यह चन्द्रमाकी स्त्री है' यह समझ चाँदनीको ही मानो कैद कर दिखला रहा था, जो तरुण ३५ स्त्रियों के मुख के साम्राज्यचिह सके उनके समान अथवा चूर्ण-कुन्तलरूपी लतासे गिरे हुए फूलके समान, अथवा सौन्दर्यको देखनेकी अभिलाषासे धारण किये हुए दर्पण के समान
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गद्यचिन्तामणिः
[ ७ सत्यंधरस्य - जलसद्मना सादरमुपपादितमनपहार्यकटाक्षशृङ्गाररत्नरमणीयमाभिरूप्यलक्ष्मीजन्ममहितमसितभूलतातमालवनलंखापरिष्कृतपक्ष्मवलं विलोचनमय दुग्धसागरयुगलमुपदर्शयता मुखेन मदनमपि मदयन्ती, मन्मथविलासदोलायमानेन प्रकृतितरलनयनहरिणनहनपाशसवर्णेन कर्णपाशेन बद्धशोभा, निशामुखेन कुसुमतारकास्फुरणानामभिनवजलधरेण विलासविद्युदुन्मेषाणामुन्मिषदन्धकारमेचकरुचा ५ मुखशशिसंभोगकौतुकसंनिहितशर्वरीशङ्गाबहेन केशहस्तेनापहसितंबहिबडिम्बरा, प्रतिनिधिरिव
लक्ष्म्याः , प्रतापपूर्तिरिव सौभाग्यस्थ, समाप्तिभूमिरिव सौन्दर्यपरमाणूनाम्, मनोरथसिद्धिरिव
क्षीरजलनिधिः क्षीरसागरः सुरासुराणां परिषदापहतः सासे यस्य सः, समुद्गतेन कालकूटगरलेन तन्नामप्रचण्डविपेण दृषित इति हेना: जल जलनिवासिना कुबरंगेत्यर्थः सादरं यथा स्यात्तथा उपपादित
निर्माषितम्, अनपहार्याणि केनाप्यपहनुमोग्यानि यानि कटाक्षशृङ्गाररमानि से रमणीयम्, आमिरूप्यं १० सौन्दर्यमेव लक्ष्मीस्तस्था जन्मना महितं शोभितम् , असितया श्यामया अलतातमालवनलेखया भ्रकृति
तापिच्छवनरेखया परिष्कृता शोभिता पक्षमबेला निमेषतटी यस्य सत, विलोचनमयं क्षेत्रात्मक दुग्धसागरयुगलं क्षीरसागरयुगम्, उपदर्शयता प्रकटयता मुखेन । मन्मथेति-मन्मथस्य कामस्य विलासदोलेवाचरतीति तथा तेन, प्रकृत्या निसर्गण सरले चपले नयने एव हरिणी तयो हनाय बन्धनाय पाश
सवर्गः पाशसशस्तन । कर्णपाशेन रद्धा शोमा यस्याः सा । निशामुखेनेति-कुसुमान्येव तारका १५ उनि तासां स्फुरणानां समुदयामा निशामुदेन रजनीमुखेन, विलासा एवं विद्युतस्तासामुन्मेषाः स्फुर
णानि तेषाम् अमिनवजलधरण नृतनमंघन, उन्मिपत् प्रकटीभवत् यदन्धकारं तद्वत् मंचका कृष्णा रुग यस्य तेन, मुखशशिना वदनचन्द्रेण सह संभोगस्य रतः कौतुकेन संनिहिता समीपमागता या शर्वरी तस्याः शतावहः संशयोत्पादकस्तेन कंशहरुन कशपार्शन, अपहसितो निन्दितो बर्हि यहाडम्बरी मपुर
पिच्छविस्तारो अया सा। प्रतिनिधिरिवेति- लक्षयाः प्रतिनिधिरिव, सौभाग्यस्य प्रतापपूर्तिरिच, २० सौन्दर्यस्य परमाणवस्तेषां समाप्तिभूमिरिखावसानक्षेत्रमिय, पातिव्रत्यस्य सतीत्वस्य मनोरथसिद्धिरिख
चन्दनके तिलकको धारण कर रहा था, जो ललाटरूपी अर्धचन्द्र बिम्बसे झरती हुई अमृतकी धाराका सन्देह उत्पन्न करनेवाली नासिकासे विभाजित था, 'क्षीर समुद्र का सार सुर और असुरोका समूह हरकर ले गया है साथ ही वह उत्पन्न हुए कालकूद विषसे दूषित है इस
भावनासे ब्रह्माने बड़े आदरसे जिसकी रचना की थी, जो हरण न किये जानेवाले कटाक्ष २५ तथा श्रृंगार रूपी रत्नोंसे रमणीय श्रा, सौन्दर्यरूपी लक्ष्मीके जन्मसे सुशोभित था, और
श्यामल भृकुटिलता रूप तमाल बनी रेखासे जिसकी विरूनी रूपी वेला सुशोभित थी ऐसे नेत्रस्पी क्षीरसागरके युगल को दिखला रहा था ऐसे मुखसे वह विजया रानी कामदेवको भी मइसे मत कर रही थी। जो कापावके बिलासके इलाके समान जान पड़ता था और
स्वभावसे हो चपल नेत्ररूपी हरिणको वाँधने के लिए पाशके समान मालूम होता था ऐसे ३० कर्णरूपी पाशसे वह सुशोभित थी। जा फूलरूपी ताराओंके विकासके लिए रात्रिके प्रारम्भ
भागके समान था, बिलासरूपा बिजली के कौंधने के लिए जो नूतन मेघ के समान था, उठतेहुए अन्धकारके समान जो काली कान्निको धारण कर रहा था, अथवा जो मुखरूपी चन्द्रमा. के साथ सम्भोग करनेके कौतुकसे पास में आयी रात्रिको शंका उत्पन्न कर रहा था ऐसे केश.
पाशसे वह मयूरपिच्छके आडम्बरकी हँसी कर रही थी । वह विजया मानो लक्ष्मीकी प्रति३५ निधि थी, सौभाग्यके प्रतापकी पूर्ति थी, सौन्दर्य के परमाणुओंको समाप्तिका स्थान थी, पाति
१ क० ख० ग० विद्युदुन्मेषिणां । २ क० ख० केशहस्तेनापहस्तित ।
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T
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- राशीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः
पातिव्रत्यस्य, ग्रकर्षरेखेव स्त्रीत्वस्य मूर्तिरिव दाक्षिण्यस्य कीर्तिरिव चारित्रस्य, विजयपताकेव पञ्चशरस्य विजया नाम महिषी ।
३७
८. तस्यां सौन्दर्य पुनरुक्ताभरणानामबलानां वर्गे सत्यपि निसर्गत एव नरपतेरर मतान्तःकरणम् । अथ स राजा रजनीकरकिरणकन्दलविपक्षेः क्षीरजलधिजठर लुठित फेनपटलविशदेश:पल्लवेरापादित दिशा विलासिनीकर्णपूरः पूरित मनीषिजन मनोरथः प्रतिबलजलधिमथनमन्दरेण ५ वसुंधरामयूरीनिवासविटपेन वीरलक्ष्मीकरेणुकालानेन भुजस्तम्भदम्भोलिना खण्डित भूभृन्मण्डल: कर्तव्यमपरमपश्यन्नवश्येन्द्रियः कुसुमचापचापलानि सफलयितुं सर्वाकाराभिरामया रामया सहाभिलषन् स्वभावनिशितधिषणावधी रितपुरुहूत पुरोधसि यथावदवगतराजनीतिवर्त्मनि फलित
aterer प्रकर्षखेव चरमरेखेय, दाक्षिण्यस्य सरलताया मृतिरिव चारित्रस्य सदाचारस्य कीर्तिरिव, पञ्चशरस्य कामदेवस्य विजयपताकेन विजयवैजयन्तीव ।
१०
८. तस्यामिति - सौन्दर्येण लावण्येन पुनरुकान्याभरणानि यासां तासाम्, अचलानां नारीणां वर्गे समूह सत्यपि नरपतेः सत्यंवरमहाराजस्य अन्तःकरणं हृदयं तस्यामेव विजयायामेव, भरमवाक्रीडत् प्रीतमासीदिति मावः । अथेति — अथानन्तरं स राजा सत्यंधरः रजनीकरकिरणकन्दानां विपक्षास्तैः चन्द्रमरीचिमण्डलादपि धवलैरिति भावः, श्रीरजलधिजठरे क्षीरसागरमध्ये लुठितं यत्फेनपटलं डिण्डीरराशिस्तद्वद् त्रिशास्तैः । यशः पल्लवैः कीर्तिकिसलयैः, आपादितानि प्रापितानि दिशाविलासिनीनां १५ काकामिनीनां कर्णपुराणि कर्णाभरणानि येन सः पूरिता मनीषिजनानां विद्वजनानां मनोरथा येन सः प्रतिबलजलधेः शत्रुसागरस्य मथने विलोडने मन्दरेण मन्दराचलेन, वसुंधरा पृथिव्येव मयूरी तस्या निवासविटप निवासशाखा तेन वीरलक्ष्मीवीरश्रीरेव करेणुका हस्तिनी तस्या आलानो बन्धनस्तम्भस्तेन, भुजस्तम्मदम्मोलिना बाहुस्तस्मवज्रेण खण्डित भूभृतां राज्ञामंत्र भूभृतां पर्वतानां मण्डलं येन सः, अपरमन्यत् कर्तव्यं कार्यम् अपश्यन् अवश्यानीन्द्रियाणि यस्य सोऽस्वाधीनीकृतहृषीकः, सर्वाकारंण निखिला- २० कारेणाभिरामा सुन्दरी तथा रामया सह कुसुमचापस्य मदनस्य चापलानि सफलयितुं सफलानि कर्तुम्, अभिलषन् वान्छन्, स्वभावेन प्रकृत्या निशिता तीक्ष्णा या विषणा बुद्धिस्तयावधीरितोऽनादृतः पुरुहूतपुरोधा इन्द्रपुरोहितो बृहस्पतिरिति यावद् येन तस्मिन् यथावद् याथार्थ्येनावगतं ज्ञातं राजनीतिव
व्रत्य धर्मके मनोरथकी सिद्धि थी, स्त्री पर्यायकी श्रेष्ठताकी रेखा थी, सरलला की मूर्ति थो चारित्र कीर्ति थी, और कामदेवकी मानो विजयपताका थी ।
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8. ८. सौन्दर्य के कारण जिनके आभूषण पुनरुक्त हो रहे थे ऐसी स्त्रियों का समूह विद्यमान रहनेपर भी राजा सत्यंधरका हृदय स्वभावसे उसी एक विजयामें रमण करता था । अथानन्तर चन्द्रमाकी किरणरूप कन्दलके प्रतिद्वन्द्वी एवं क्षीरसागर के मध्य में लोटते हुए फेनपटल के समान सफेद यशरूपी पल्लयोंके द्वारा जिसने समस्त दिशारूपी स्त्रियोंके कानोंमें कर्णफूल पहना रखे थे, शत्रुओंको सेनारूपी समुद्र को मथनेके लिए मन्दरगिरि, पृथिवी - ३० रूपी मयूरीके निवास करनेके लिए वृक्षको शाखा, एवं वीरलक्ष्मीरूपी हस्तिनीको बाँधने के लिए स्तम्भस्त्ररूप सुजारूप वज्र के द्वारा जिसने समस्त राजाओं ( पक्ष में पर्वतों ) के मण्डल - को खण्ड-खण्ड कर दिया था ऐसा राजा सत्यंधर करने योग्य अन्य कार्यको न देख इन्द्रियोंको स्वाधीन न रख सका। इसलिए सर्वाकारसे सुन्दर रानी विजयाके साथ कामसम्बन्धी चपलताओंको सफल करनेकी अभिलाषा रखता हुआ, काष्ठाङ्गार नामक उस मन्त्रीपर राज्यका भार रखने को तैयार हो गया जिसने अपने स्वभाव से ही तीक्षण बुद्धिके द्वारा ३५ इन्द्र के पुरोहित - बृहस्पतिको तिरस्कृत कर दिया था, जो राजनीतिके मार्गको अच्छी तरह
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गद्यचिन्तामणिः
[ ९ नृपेण सह -
चतुरुपायविजृम्भितयशसि पराक्रममृगपतिनिवासजङ्गमजगतीभृति गभीरिमगुणगर्हितोदन्वति स्थैर्य परिहसितकुलशिखरिणि कुलिशकठिनमनसि संकटेऽप्यखेदिनि निखिलारिचक्राक्रमणनिष्ठे काष्ठाङ्गारनामनि निरस्ततन्द्रे मन्त्रिणि निवेशयितुं राज्यभारमारभत ।
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ॐ तथा प्रारभमाणेच राजांन राजनीतिकुशलाः कुटिलेतरबुद्धयः कुलत्रमागतिभाज: ५ कुत्सितकर्मपराचीन चेतोवृत्तयः शमिनि वयसि वर्तमानाः कतिचन सचिवाः समेत्य कृतप्रणामाः सप्रणयं व्यजिज्ञपन्-'देव, देवेनाविदितं किंचिदस्तीति न प्रस्तुमहे कथयितुम् । तदपि देवपादयोरनितरसाधारणी भक्तिरस्मान्मुखरयति । तदुचितमनुचितं वा प्रणयपरदशैरस्माभिरभिधीमानमा कर्णयितुमर्हति स्वामी । देव स्वहृदयमपि राज्ञा न विसूम्भणीयम् । किमुतापरे । इयं
राजनय मार्गे येन तस्मिन्, फलितैः सफलीभूतैश्चतुरुपायैः सामदानदण्डभेदै विजृम्भितं यशां यस्य तस्मिन्, १० पराक्रम एवं मृगपतिः सिंहस्तस्य निवाखाय जङ्गमजगतीभृद् गतिशील पर्वतस्तस्मिन् गर्भीरिमगुणेन गाम्भीर्थगुणेन गर्हितो निन्दित उदन्वान्सागरो येन तस्मिन् 'उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरस्वान्सागरोऽर्णवः' इत्यमरः स्थैर्येण दायेन परिहसितस्तिरस्कृतः कुलशिखरी येन तस्मिन् कुलिशचक्कठोरं कठिनं मनो यस्य तस्मिन् संकटेऽपि व्यसनेऽपि, अखेदिनि खेदरहिये, निखिलारिचक्रे सममशत्रुसमूहे आक्रमणे निष्ठा समादरो यस्य तस्मिन् काष्ठाङ्गारनामनि, निरस्ततन्द्रे निरालस्ये मन्त्रिणि सचिवे राज्यभारं निवेशयितुम् १५ आरमत तत्परोऽभूत् ।
६९. तथेति - तथा तेन प्रकारेण राजनि प्रारभमाणे सति राजनीतिकुशला नृपनीतिनिष्णाताः, कुटिलेतरबुद्धयः सरलप्रज्ञाः, कुलक्रमादागतिं भजन्तीति तथा कुत्सितकर्मणो निन्दितकार्य स्पिराचीना विमुखाचेतोवृत्तिर्येषां ते शमिनि वयसि वृद्धावस्थायां वर्तमानाः कतिचन केऽपि सचित्रा अमात्याः समेत्य कृतः प्रणामो यैस्तथाभूताः सन्तः सप्रणयं सस्नेहं व्यजिज्ञपन् निवेदितवन्तः । देव, हे राजन्, २० देवेन भवता अविदितमज्ञातं किंचिदस्तीति हेतोः कथयितुं न प्रस्तुमहे नोद्यता महामो वयमिति शेषः । तदपि तथापि देवपादयोर्भवश्चरणयोः अनितरसाधारणी अनुपमा भक्तिः अस्मान्मुखरयति वाचालयति कथयितुं प्रेरयतीति यावत् । तस्मात् प्रणयपरवशैः स्नेहाधीनैः अस्माभिरभिधीयमानं कथ्यमानं वच उचितं युक्तमनुचितमयुक्तं वा भवतु, आकर्णयितुं श्रोतुमर्हति योग्योऽस्ति स्वामी । देव राजन्, राज्ञा स्वहृदयमपि न विसम्मणीयं न विश्वसनीयं किमुतापरेऽन्ये जना विस्रम्भणीयाः । इयं हि स्वभावेन
२५ जानता था, सफलताको प्राप्त हुए साम आदि उपायोंसे जिसका यश बढ़ रहा था, पराक्रमरूप सिंह के निवास करने के लिए जो चलता-फिरता पर्वत था, गाम्भीर्यरूप गुणसे जिसने समुद्रको निन्दित कर दिया था, अपनी स्थिरतासे जिसने कुलाचलकी खिल्ली उड़ायी थी, जिसका मन के समान कठोर था, जो संकट के समय भी कभी खेदखिन्न नहीं होता था, जो नुदपर आक्रमण करने के लिए तैयार बैठा था एवं अनुत्साहको जिसने दूर ३० भगा दिया था।
६. ६. जब राजा यह करने के लिए तत्पर हुआ तब राजनीति में कुशल, सरल बुद्धि के धारक, कुलकमागत, खोटे कार्यसे विमुखहृदय एवं वृद्ध अवस्थामें वर्तमान कितने ही मन्त्रियोंने आकर प्रणाम करते हुए बड़े स्नेहसे इस प्रकार प्रार्थना की- 'हे देव ! आपके द्वारा कुछ अविदित है इसलिए हम कहनेके लिए उद्यत नहीं हो रहे हैं । फिर भी आपके चरणों में ३५ जो असाधारण भक्ति हैं वह हम लोगोंको मुखरित कर रही हैं कुछ कहने के लिए प्रेरित कर रही है । अतः उचित हो चाहे अनुचित, स्नेहके वशीभूत हुए हम लोगोंके द्वारा कही हुई
१ क० ख० ग० गम्भीरिम ।
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- मन्त्रिणां संभाषणवणनम् ] . प्रथमो लम्भः हि स्वभावसरलनिजहृदयजनिता सर्वविश्वासिता विश्वानर्थकन्दा। क्षमापतयः शैलुषा इव मन्त्रिषु नाटयन्ति विसम्भं न तु बध्नन्ति मनसा । यतश्चिरपरिचयसमुपचितेन विसम्मेण मणिषु निवेशित राज्यभारा राजानस्तैरेव व्यापादिता इति लोकप्रवादा मुखरयन्ति नः श्रोत्रपथम् । अपि च सर्वथायमनर्थानुबन्धी परिहृतनिखिलेतरव्यापारः पक्षमललोचनायामत्यासंगः । यतः सुरासुरंसमरकण्डूलदोर्दण्डमण्डली हेलोल्लासितकैलासकण्ठोक्तपराक्रमः प्रतापभयविनमदनेक विद्या- ५ घरमकुटमणिपादपीठविलुठितचरणोऽपि रावण: प्रणयभरेण जनकदुहितरि जनितपारवश्यः समरशिरसि दशरथतनयनिधनाय निजकरविमुक्तेन रणलक्ष्मी मुखकमलविकासदिवसकरसहचरेण चक्रेण यशःशेषतामनीयत । अपि च तपश्चरन्नतिदुश्चरमरविन्दसद्मा शङ्कितवलमथनप्रेषितवारसरलं यनिजहृदयं तेन जनिता समुत्पादिता सर्वविश्वासिता निखिलजनविश्वासकारिता विश्वानर्थकन्दः समस्तानर्थमूलं वर्तते इति शेषः । क्षमापतयो राजानः शैलूषा इव नटा इव मन्त्रिपु विस्रम्भं विश्वासं १० नाटयन्ति प्रदर्शयन्ति मनसा तु न बध्नन्ति । यतो यस्मात्कारणात चिरपरिचयन समुपचितस्तेन विसम्मेण मन्त्रिषु निवेशितो राज्यभारो यैस्ते तथाभूता र.जानस्तेरव मन्त्रिभिरेव व्यापादिता मारिता इति लोकप्रवादा नोऽस्माकं श्रोत्रपथं मुखरयन्ति । एवं मन्त्रिणामविश्वास्यता प्रदश्य कामासक्तेर्दोषान् वर्णयति ।
अपि चेति-किंच, परिहतास्त्यका निखिल तरच्यापारा: सवान्यायशेण यास्मन् सः, पक्ष्मललोचनायो स्त्रियाम् अयमत्यासंगोऽत्यास निः सर्वथा सर्वप्रकारंण अनर्धानुबन्धी अनर्थोत्पादकः अस्ति । यतो यस्मात् १५ कारणात् सुरासुरदेवदानवैः सह समरो युद्धं तेन कण्डूला खर्जयुक्ता या दोर्दण्डमण्डली भुजदण्डमण्डली तया हेलयानायासेनोल्लासित . उत्खातो यः कैलासस्तन कष्टोकः पराकमो यस्य सः । प्रतापभयेन विनमन्तो येऽनेकविद्याधरास्तेषां मुकुटमणय एवं पादपीठानि तेषु विलुठिती चरणौ यस्य तथाभूतोऽपि रावणो दशास्यः जनकदुहितरि सीतायां प्रणयभरण स्नेहातिरेकेण जनित पारवश्यं यस्य तथाभूतः सन् समरशिरसि रणाने दशरथतनयस्य निधनं तस्मै लक्ष्मणविघाताय निजकरविमुक्तेन स्क्पाणित्यक्तेन २० रणलक्ष्म्या मुखकमलस्य विकासाय यो दिवसकरस्तस्य सहचरं सदृशं तेन चक्रेण यशःशेषतां मृत्युम् अनीयत प्रापितः । अपि चेति-अतिदुश्चरमतिकठिनं तपश्चरन् तपः कुर्वन् अरविन्दसमा ब्रह्मा शक्कितेन प्रार्थनाको आप सुननेके योग्य हैं। हे देव ! राजाको अपने हृदयका भी विश्वास नहीं करना चाहिए फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है ? यह जो आपकी स्वभावसे सरल अपने हृदयसे उत्पन्न सब लोगों के विश्वास करनेकी आदत है यह समस्त अनर्थों का मूल है । राजा लोग २५ नटोंके समान मन्त्रियोंके ऊपर अपने विश्वासका अभिनय करते हैं परन्तु हृदयसे उनपर विश्वास नहीं करते। क्योंकि चिरकाल के परिचयसे बढ़े हुए विश्वास के कारण मन्त्रियोंपर राज्यका भार रखनेवाले राजा उन्हीं मन्त्रियोंके द्वारा मारे गये हैं ऐसी लोककथाएँ हम लोगोंके कर्णपथको शब्दायमान कर रही हैं। दूसरी बात यह है कि अन्य समस्त कार्य छोड़. कर स्त्रीमें ही अत्यन्त आसक्त रहना यह समस्त अनर्थोंसे सम्बन्ध जोड़नेवाला है। देखिए, ३० समस्त सुर और असुरोंके साथ युद्धकी खाज रखने वाले भुजदण्डकी मण्डलोसे अनायास उठाये हुए कैलास पर्वतके द्वारा जिसका पराक्रम कण्ठाक्त था-कण्ठसे कहे हुएके समान प्रकट था और प्रतापके भयसे नमस्कार करनेवाले अनेक विद्याधरोंके मुकुटरूप मणिमय पाद चौकियोंपर जिसके चरण लोट रहे थे-विद्यमान थे ऐसा रावण भी स्नेहातिरेकसे सीताके विषय में विवश हो रणके अप्रभागमें राजा दशरथ के पुत्र-लक्ष्मणको मारनेके लिए ३५ अपने हाथसे छोड़े हुए रणलक्ष्मीके मुखकमलको विकसित करने के लिए सूर्य के सदृश चक्र
१ क० ख० ग. दोमण्डली।
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गयचिन्तामगिः । [९ नृपेण सह - योषिद्विरचितविलासविलोकनबिगलितधृतिरनुभवन्नात्मभुवश्चापलममजदपहास्यताम् । तथा तथागतोऽपि कदाचित्कामशरपतनपरवशकरभपरिषदहमहमिकया परिग्रहपर्याकुलां कामपि बालेयोमालोकयन् करुणारसतरलितमतिराविभंवदनेकशतभगशवलितकरभोवेषः क्षणमस्थादिति नास्तिकचूडामणेमहीयान्ननु कलङ्कस्तस्य । तदित्यमयशःपड़पयोधरागमे धर्मकमलाकरनिमीलननिशामुखे. द्वितीय पुरुषार्थपरुषराजयक्ष्मणि जडजनजनितसंबाधे विवेकिलोकनिन्दिते कन्दर्पवर्त्मनि न निर्भरं निदधति कृतधियः पदम् । तदविरोधेन धर्मार्थयोरनुभवन्कामसुखमजहदबनीपतिधर्म पन्नगपरिवृहपरिभानु केन बाहुना पालय पयोनिधिरशनालंकारिणी धरणीम्' इति प्रणयस्वरूपसाक्षात्करणमणिदर्पणाभानि बहुविधनिदर्शनसंवादितार्थानि प्रेक्षावदेकान्तहृद्यानि
स्वपदापहरण लेन बलमथनेन शक्रेण प्रेषिता या वारयोपिन् स्ववेश्या तया विरचितानां विलासाना १० बिलोकनेन विगलिता नष्टा तिर्यस्य सः, आत्मभुवो मदनस्य चापलं चपलतामनुभवन् अपहास्यतां हास्य
भालनताम् अभजन् णपत । तथेति--किंच तथागतोऽपि युद्धोऽपि कदाचित् कामशराणां मदनबाणानां पतनेन परवशा पराधीना या करमपरिषद उपसमूहस्तयाहमहमिकया अहंपूर्विकात्वेन परिग्रहेण पर्याकुला व्यमा त कामपि बाले.यीमष्टीम आलोकयन पश्यन् करुणारसेन तरलिता मतिर्यस्य तथाभूतः सन् ,
आविर्भवन् प्रकटीभवन् अनेकशतभगशवलितो नानायोनिचित्रितः करभीवेष उष्ट्रीवेषो यस्य सःक्षणमस्थात् १५ इति नास्तिकचूडामणेरनात्मवादिनस्तस्य तथागतस्य ननु निश्चयेन महीयान् कलङ्को भूयानपवादः ।
तहित्थमिति--तस्मात् इत्थम् अयशःपतस्याकीर्तिकर्दमस्य पयोधरागमे वर्षर्तुरूपे, धर्म एव कमलाकरस्तस्य निर्मालनाय निशाभुखं रजनीप्रारम्मभागस्तरिमन् , द्वितीयपुरुषार्थोऽर्थपुरुषार्थस्तस्य परुषराजयक्ष्मा कठिन राजरोगस्तस्मिन् जइजनैखैर्ज नितः संबाधसंमर्दो यस्मिन् तस्मिन् , विवेकिलोकनिन्दिते विवेकज्ञजनजुगुप्सिते कंदर्पवत्मनि काममागे कृतधियो विद्वान्सो निर्भरं सातिशयं पदं न निदधति न २० स्थापयन्ति । तदविरोधेनेति-तत्तस्मात्, धर्मार्थयोः अविरोधेन विरोधमकृत्वा कामसुखमनुभवन् ,
अवनीपतिधर्म राजधर्ममजहत अमञ्चन , पनगपरिखदस्य शेषनागस्य परिभावकस्तिरस्कारकस्तेन बाहना भुजेन पयोनिधिरंद सागर एव रशना मेखला तयालङ्कारिणी धरणी भूमि पालय रक्ष । इतीति-इतीत्थं प्रणयस्वरूपस्य स्नेहरूपस्य साक्षात्करणे प्रत्यक्षावलोकने मणिदर्पणस्येवाभा येषां तानि, बहुविधैर्नाना
रत्नसे यशःशेषताको प्राप्त करा दिया गया-मार डाला गया। अथवा अतिशय कठिन २५ तपश्चर्या करनेवाला ब्रह्मा, शंकासे युक्त इन्द्र के द्वारा भेजी गयी उत्तम स्त्रियोंके द्वारा रचित
हाव-भाव पूर्ण चेष्टाओंके देखनेसे धैर्यरहित हो कामसम्बन्धी चपलताका अनुभव करता हुआ हँसीको प्राप्त हुआ। अथवा किसी समय कामके बाणोंके पतनसे विवश अनेक ऊँटोंको अहंप्रथमिकाके कारण जो अत्यन्त व्याकुल हो रही थी ऐसी किसी उष्ट्रीको देखकर करुणा
रससे चंचलचित्त होकर बुद भी प्रकट हुई अनेक शतयोनियोंसे चित्रित उष्ट्रीका वेष रख ३. क्षण-भरके लिए स्थित हए थे। यह अनात्मवादियों में शिरोमणि बद्धका सबसे बडा कलंक है।
इसलिए इस तरह जो अपयशरूपी पंकको उत्पन्न करने के लिए वर्षाऋतुके समान है। धर्मरूपी कमल वनको निमीलित करने के लिए रात्रिके प्रारम्भ के समान है, जो अर्थ पुरुषार्थ. को नष्ट करने के लिए कठोर राजयक्ष्माके समान है, मूर्ख जनोंसे जिसमें भीड़भाड़ उत्पन्न
की जाती हैं, और विवेकी जन जिसकी निन्दा करते हैं ऐसे कामके मागमें बुद्धिमान् ३५ मनुष्य कभी अपना स्थिर पैर नहीं रखते । अतः आप भी धर्म और अर्थका विरोध
न कर कामसुखका उपभोग करते और राजधर्मको न छोड़ते हुए शेषनागको तिरस्कृत करनेवाली भुजासे समुद्ररूपी मेखलासे अलंकृत पृथिवीका पालन करो।'
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- राजीवर्णनम]
प्रथमो लम्मः तदात्वकटुकान्यप्युदर्कमधुराणि मन्त्रिवचनानि वनितोपभोगकुतुहलजाल जटिलते जननाथचेतसि निरवकाशतयेव न पदमलभन्त ।
१०. अथ भाविपरिभवचकितस्वान्तेषु सामन्तेषु कर्तव्याभावेन मूको भवत्सु, शोककृशानुपरामर्शमर्मरितमनसि सीदति चिरंतने राजपरिजने, पर्यश्रुनयनेषु प्रवृत्तवनगमनश्रद्धेषु पौरवृद्धेषु पार्थिवस्तावन्मात्रतया धरित्रीराज्योपभोगादृष्टानां तथाभावितया तस्य वस्तुनः, दुनिवारतया ५ मकरध्वजस्य, दुरतिक्रमतया च नियतेनिरन्तरनिपतदनङ्गशरशकलीकरणभयादिव पलायितविवेकः, प्रकृतिनिष्ठुरे काष्ठाङ्गारे निजभुजादवतार्य राज्यभारम्, राजीवदशा सह रन्तुमारभत । प्रकारनिदर्शनेरुदाहरणैः संवादित: समर्थितोऽों यंपा तानि । प्रेक्षावता बुद्धिमतामेकान्तहृयानि सर्वथाप्रियाणि, तदावे तत्काले कटु कान्यपि अप्रियाग्यपि, उदक फलकाले मधुराणि प्रियाणि, मन्त्रिवचनानि सचिवसुभाषितानि बनितोपभोगस्य रमीरमणस्य कुतूहलजालेन कौतुकपाशेन जटिलितं व्याप्ते जननाथ- १० चेतसि सत्यधरनपहृदय निरवकाशतयेव स्थानाभावतयंब पदं स्थानं 'पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माविस्तुपु' इत्यमरः, नालभन्त न प्राप्नुवन् ।
१०. अथेति-अथानन्तरं माविना भविष्यता परिमवेनानादरण चकितं स्वान्तं चित्तं येषां तेषु 'अनादरः परिमवः परिभावस्तिरस्क्रिया' इत्यमरः, सामन्तेषु मण्डलेश्वरेषु कर्तच्याभावेन उपायामावेन मूकीमवरसु सूरणीभूतेषु सत्सु शोककृशानोः शोकानलस्य परामर्शन संस्पर्शन मर्मरितं शुष्कं मनो यस्य १५ तयाभूते चिरंतने प्राचीने राजपरिजने नुपतिपरिवारे सीदति दुःखीभवति सति । पर्यश्रण नयनानि येषां तेषु साश्रुलोचनेषु पौरवृद्धेषु वृद्धनागरिकपु प्रवृत्ता समुद्भता घनगमने श्रद्धा येषां तेषु सत्सु । पार्थिवो नृपो धरित्रीराज्यस्य पृथिवीराज्यस्योपभोगास्तेषामरष्टानि देवानि तेषां तावन्मात्रतया तत्परिमाणवेन, तस्य वस्तुनस्तथा मावितया तथाभवत्येवं शीलं तथाभावि तस्य मावस्तत्ता तया, मकरध्वजस्य कामस्य दुनिवारतया, नियतेमक्तिव्यताया दुरतिक्रमतया च दुर्लयतया च, निरन्तरमनवरतं निप्पतद्धिरनङ्गशरीर कामबाणैः शकलीकरणस्य पण्डनस्य मयं तस्मादिव पलायितो विवेको यस्य तथाभूतः सन् प्रकृत्या निसर्गेण निष्ठुरो दुष्टस्तस्मिन् काष्ठाणारे निजभुजात् राज्यमारमवतार्य राजीवदशा कमललोचनया विजयया सह रन्तुं क्रीडितुम् आरमत तत्परोऽभूत् ।
इस प्रकार जो स्नेहका स्वरूप साक्षात् दिखलाने के लिए मणिमय दर्पणके समान थे, नाना प्रकारके उदाहरणोंसे प्रतिपाद्य अर्थको धारण कर रहे थे, बुद्धिमान् मनुष्योंको अत्यन्त २५ प्रिय थे, और तत्कालमें कटु होनेपर भी जो फलकाल में मधुर थे ऐसे मन्त्रियोंके वचन, स्त्रीसम्बन्धी उपभोगके कुतूहल रूपी जालसे व्याप्त राजा सत्यन्धर के चित्तमें अवकाश न होने के कारण ही मानो स्थान प्राप्त नहीं कर सके।
६. १०. तदनन्तर आगे चलकर होनेवाले अनादर से जिनके हृदय भयनात थे ऐसे सामन्त लोग कर सकने योग्य कुछ उपाय न देख जब चुप हो रहे । शोकरूपी अग्निके सम्बन्ध- ३० से जिनके हृदय तुषानलसे व्याप्त हो गये थे-ऐसे प्राचीन राजसेवक जब दुःखी हो रहे थे।
और जिनके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त थे ऐसे नगरवासी वृद्ध जन जब वनमें जानेकी भावना रखने लगे तब पृथिवीके राज्योपभोग सम्बन्धी अहपके उतने ही होनेसे, अथवा उस वस्तुकी वैसी होनहार होनेसे, अथवा कामके दुर्निवार होनेसे, अथवा भाग्यचक्रके अनुल्लंघनीय होनेसे, 'निरन्तर पड़ते हुए काम के बाणोंसे कहीं खण्ड-खण्ड न हो जाऊँ' इस भयसे ही मानो ३५ जिसका विवेक दूर भाग गया था ऐसा राजा सत्यन्धर राज्य के भारको अपनी भुजासे उतार स्वभावसे तीक्ष्ण काष्टाङ्गारपर रख कमललोचना विजयाके साथ रमण करने लगा।
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गद्यश्चिन्तामणिः
[११-१२ नृपेण सह - ११. कदाचित्प्रहतमृदुमृदङ्ग रङ्गमधिबसविलासिनीनामतिचतुरकरणबन्धबन्धुरमनङ्गतन्त्रशिक्षाविचक्षणविटविदूषकपरिषदुपास्यं लास्यमवालोकिष्ट। कदाचिदनुगतवीणावेणुरणितरमणीयं रमणोनां गीतमाकर्णयन्कर्णपारणामकार्षीत् । कदाचिद्विकचकुसुमपरिमलतरलमधुकरकलरवमुखरिते लतामण्डपे . विरचितनवकिसलयशयने कृशोदरीमरीरमत् । कदाचिद्वनकरीव करिणोसखः सह दीर्घदृशा विहरन्विहारदीर्घिकां बलवदास्फालनभयादिव समुत्तरत्तरङ्गलधितमणिसोपानपथां परस्परलोलाप्रहारदोहलावचितनलिनशयनसमुड्डीनकलहंसधवलपक्षपटलमुहूर्तघटितवियद्वितानामतानीत् । कदाचिच्चन्द्रशालातलप्रसारितशयनमध्यं तनुमध्यया सहाधिवसन्वसन्तयामिनीषु निरन्तरमाविर्भवद्भिरमृतकरकिरणकन्दलैः कंदर्पदन्तावलकर्णतालावचूलचामरै
११. अध तस्य क्रीडाप्रकारं वर्णयितुमाह-कदाचिदिति-कदाचित् जातुचित् प्रहतं ताडितं १० मृदुमृदङ्गं मन्थरमुरजं यस्मिन् तत् तथाभूतं रङ्ग नृत्यस्थानम् अधिवसन् अधितिष्ठन् 'उपान्वध्यावसः'
इति द्वितीया, विलासिनीनां रूपाजीबानाम् अतिचतुरैरतिकुशलैः करणबन्धन् त्यमुद्राविशेषैर्वन्धुरं मनोज्ञम् , अनङ्गतन्त्रस्य कामशास्त्रस्य शिक्षायां विचक्षणा निपुणा ये विटविदषका शृङ्गारसहायकपात्रविशेषास्तेषां परिषदा समूहेनोपास्यं सेवनीयम् लास्यं नृत्यम् अवालोकिष्ट अपश्यत् । कदाचिदिति-कदाचिज्ञातुचित् अनुगतं लयक्रमेण सहितं यद् वीणावेणूनां विपञ्चीवंशवाद्यानां रणितेन शब्देन रमणीर्य मनोहरं गीतं गानम् आकर्ण यन् कर्णपारण श्रवणभोजनं श्रवणतृप्तिमिति यावत् अकार्षीत् । कदाचिदिति-कदाचिद् चिकचकुसुमानां प्रफुल्लपुष्पाणां परिमलेन सौगन्ध्यातिशयेन तरलाश्चपला ये मधुकरा द्विरेफास्तेषां कलरवेण मधुरास्फुटशब्देन मुखरिते वाचालिते लतामण्डपे निकुळे विरचितं निर्मित यकिसलयशयनं पल्लवशथ्या तस्मिन् कृशोदरी विजयामरीरमत् क्रीडयामास । कदाचिदिति-करिण्याः सखति करिणीसखः करेणुका
सहित: 'राजाहासखिभ्यष्टच' इति टच्समासान्तः । वनकरीव काननवारण इव दीप दृशी यस्यास्तया२० विशाललोचनया विजयया सह विहरन्क्रीन विहारदीधिको क्रीडाबापीम्, बजवदत्यधिकं यदास्फालनं
ताडनं तस्य भयादिव प्रासादिव समुत्तरद्भिः समुत्तिष्ठद्विस्तरङ्गमङ्गलखितं मणिसोपानपथं रखनेणिमार्ग यस्यास्ताम् , परस्परमन्योऽन्यं लीलाप्रहारस्य केलीताडनस्य दोहलेन वान्छयावचितानि नोटितानि यानि नलिनशयनानि कमलासनानि तेभ्यः समुडीनाः समुत्पतिता ये कलहंसाः कादम्बास्तेषां धवलपक्षपटलेन शुक्लपक्षसमूहेन मुहूर्त धटिकाद्वयं यावद घटितं रचितं वियद्वितानं गगनचन्द्रोपकं यस्यां तथाभूताम् अतानीत् । कदाचिदिति-चन्द्रशालासले हम्योपरिमागे प्रसारित विस्तारितं यच्छयनं तस्य मध्यम् तनुमध्यया कृशावलग्नया वल्लभया सहाधिवसन् सार्धमधिशयानो बसन्तयामिनीषु ऋतुराजरजनीषु निरन्तरं निरन्तरायं यथा स्यात्तथा, आविर्भवभिः प्रकटीभवद्भिः कन्दर्पदन्तावलस्य कामकरिणः कर्णतालयो
६. ११. वह कभी तो जिसमें धीमा-धीमा तबला ठुक रहा था ऐसी रंगभूमिमें बैठ, वेश्याओंके अत्यन्त चतुर नृत्यासनोंसे सुन्दर, और कामशास्त्रकी शिक्षामें निपुण विट और ३० विदूषकोंके समूहसे सेवनीय नृत्य देखता था। कभी अनुकूल वीणा और बाँसुरीके स्वरसे
सुन्दर, स्त्रियोंका संगीत सुनता हुआ कानोंको सन्तुष्ट करता था। कभी खिले हुए फूलोंकी सुगन्धिसे चपल भौंरोंकी मधुर ध्वनिसे शब्दायमान निकुंजमें नये-नये पल्लवोंसे विरचित शय्यापर कृशोदरी विजयाको रमण कराता था। कभी हस्तिनीसे सहित जंगली हाथीके समान दीघेलोचना विजयाके साथ क्रीड़ावाली में विहार करता हुआ उसे जोरदार आस्फालनके भयसे ही मानो उठती हुई तरंगोंसे लंधित मणिमयो सीढ़ियोंसे युक्त, एवं पारस्परिक लीला प्रहारकी इक्छासे तोड़े हुए कमलरूपी शय्यासे उड़े कलहंसोंके सफेद-सफ़ेद पंखोंके समूहसे जिसके आकाशमें मुहूर्त-भर के लिए चँदोवा बाँध दिया गया था ऐसी करता था। और कभी राजमहलके उपरितन खण्डमें बिछायी हुई शय्याके मध्यमें कृशांगी विजयाके साथ
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- राजीवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः नयनचकोरयोरातिथेयीमनल्पामकल्पिष्ट ।
१२. तदेवं मनोरथपथातिवतिष्वमर्त्यलोकसुलभेषु विषमेषु विलाससाफल्यसंपादितविषयसुखेषु निमज्जति निकामविम्भित रजसि राजनि, कदाचित्कस्यांचन निशीथिन्यामनेन सह सौधशिखरभाजि पर्यङ्के पञ्चारकलीपरिचयपी गुप्याजमना परिसमेगा परवशा महिषी सुष्वाप ।
१३. ततश्चट्टलचकोरचञ्चपुटकबलनादिव चिरलमहसि चन्द्रमसि निखिलनिशा- ५ जागरणजातया सुषुप्सयेव प्रविशति चरमगिरिगुहागह्वरम्, अवतरदनूरुसारथिसपर्यापर्याकुलेने सप्तर्षिलोकेन विकचकुसुमकुतूहलादवचित इव विचेयतामुपेयुषि ज्योतिषां गणे, गतप्राये रजरखचूल चामरालम्बमानबालन्यजनास्तैः अमृतकरकिरणकन्दलैः अमृतकरश्चन्द्रस्तस्य किरणकन्दमयूखमण्डलै: नयनचकोरयोर्लोचनजीवंजीवयोः 'जीवजीवश्चकोरकः' इत्यमरः, अनामत्यधिकाम् आतिथेयीमातिथ्यम् अकल्पिष्ट ।
१२. तदेवमिति---निकाममत्यर्थ विजृम्भितं वृद्धिंगतं रजो मुणविशेषो यस्य तस्मिन् राजनि सत्यंधरे मनोरथपधातिवर्तिषु अचिन्त्येषु मर्त्यलोकानां सुलभा न भवन्तीस्यमय लोकसुलभास्तेपु मनुष्यमात्रदुर्लभेषु विषमेषोः कामस्य विलासस्तस्य साफल्येन संपादितानि प्रापितानि यानि विषयसुखानि तेषु निमअति ससि, कदाचित् कस्यांचन निशीथिन्यां रजन्याम् अनेन राज्ञा सह सौधशिखरमाजि, हाप्रस्थिते पर्य के पञ्चशरो मदनस्तस्य केल्याः क्रीडायाः परिचय; समभ्यासस्तस्य पौनापुन्यन भूयोभूयः २५ प्रवृत्त्या जन्म यस्य तेन परिश्रमण खेदेन परवशा पराधीना श्रान्तेति यावत् महिषी राज्ञी सुप्वाप ।
६१३. तत इति-ततस्तदनन्तरं घटुलानि चपलानि यानि चकोराणां च पुटानि तैः कबलने प्रसनं तस्मादिव विरलं मही यस्य तस्मिवल्पतेजसि चन्द्रमसि निखिल निशां समग्ररजनी जागरणेन जाता समुत्पमा तया सुषुप्सया शयनवाल्छया चरमगिरेरस्ताचलस्य गुहागहरं गुहाविवरं प्रविशति सति । अवतरदिति-अवतरन् उदयाचलादागच्छन् योऽनूरुसारथिः सूर्यस्तस्य सपर्यायां पूजायां पर्याकुलो २० व्यमस्तेन सहर्षिलोकेन विकचानि प्रफुल्लानि यानि कुसुमानि तेषां कुतूहलात् , अवचित इव 'प्रोटित इव - ज्योतिषां ताराणां गणे समूहे विचेयतां विरलताम् उपेयुषि प्राप्तवति सति । रजन्यास्तुसंप्रहरै चतुर्थयाम
एकान्तबारा करता हुआ वसन्तकी रात्रियोंमें कामरूपी हाथी के कानों के पास झूमनेवाले चमरोंके समान निरन्तर प्रकट होती हुई चन्द्रमाकी किरणोंसे नेत्र रूपी चकोरोंका अत्यधिक आदर-सत्कार करता था।
६. १२. इस प्रकार जिसका रजोगुण अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त हो रहा था ऐसा राजा सत्यंधर जब मनोरथोंके मार्गसे परे, मनुष्यों के लिए दुर्लभ, ( अथवा देवजन सुलभ ) काम विलासकी सफलतासे प्राप्त विपय-सुखों में निमग्न हो रहा था तब किसी समय किसी रात्रि में इसके साथ महलके शिखरपर स्थित पलंगपर कामक्रीडाके बार-बार सेवनसे समुत्पन्त परिश्रमके परवश हुई विज या रानी शयन कर रही थी।
: ६. ५३. तदनन्तर चंचल चकोरोंके चञ्चपुटोसे कचलित होनेके कारण ही मानो जिसका तेज' मन्द पड़ गया था ऐसा चन्द्रमा जब सम्पूर्ण रत्रि-भर जागते रहने से उत्पन्न शयन करनेकी इच्छासे हो मानो अस्वाचलके गुहागर्त में प्रवेश करने लगा, उतरते हुए सूर्यको पूजामें व्यग्र सप्तर्षियोंके द्वारा फूले हुए फूलोंके कुतूहलसे तोड़े गयेके समान जब ताराओंका
१. क० ख० ग० सपर्याफुलेन । २. क० ख० ग० अपचित इव ।
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गद्यचिन्तामणिः
[१३-१४ राश्याः -
न्यास्तुर्यप्रहरे, राज्ञी स्वप्नत्रयमद्राक्षीत् । अत्याक्षीच्च तत्क्षण एव सा संजातशोकप्रसादविद्रावितां निद्राम् । अनौषोच्च प्रबुध्यमानभवनकलहंस रवमांसलं वचो मङ्गलपाठकानाम् । समुदस्थाच्च सत्वरसमुपसृतयामिकयुवतिजनप्रसारितहस्तावलम्बना प्रलम्बमानकेशहस्तविन्यस्तवाम
हस्ता शनैः शनैः शयनतलात् । उदमीमिलच्च विकचोत्पलविभ्रममुषी चक्षुषी सकलदोषपरि५ हारिणी भगवदर्हत्परमेश्वरस्य श्रीमुखाम्भोजे । प्राणसीच्च प्रचुरभक्त्या बद्धाञ्जलि: प्रशिथिलित
कबरीचुम्बितमहीतला निखिलभवालेशहरं भगवन्तम् । व्यचीचरच्च विगलितनिद्राकृतालस्या किमस्य फलं स्वप्नस्येति । व्यधाच्च मनो भर्तुमुंखादस्य फलश्रुतौ ।
गतप्राये सति राज्ञी विजया स्वप्नत्रयं वक्ष्यमाणम् अद्राक्षीत् । तत्क्षण एवं च सा संजाताभ्यां शोक
प्रसादाभ्यामहर्षहर्षाभ्यां विद्याविनामपसारितां निद्रामत्याक्षीत् । मालपाठकानां मागधानां च प्रबुध्य१० मानानां जानियमाणानां भवनकलहंसानां प्रासादकादम्बानां स्त्रेण शब्देन मांसलं परियुष्टं वचो वचनं
'वाग्वचो वचनं वाणी भारती गी: सरस्वती' इति धनंजयः, अनोषीदाकायामास । सस्वरं शीघ्र समुपसृताः समन्तारसमीपं समागता ये यामिकयुवतिजनाः प्राहरिकतरुणीजनास्तैः प्रसारिता हस्ता अवलम्बनानि यस्याः सा, प्रलम्बमाने समाने केशहस्ते केशपाशे विन्यस्तो वामहस्तो यया सा तथाभूता सती शनै:
मन्दं मन्दं शयनतलात् विष्टरपृष्टात् समुदस्थाच्च समुत्तिष्ठति स्म। धिकचोत्पलयोः प्रफुल्लकुवलय१५ योविभ्रमं मुण्णीत इति विकचोत्पल विभ्रममुषी चक्षुषी भगवदहत्परमेश्वरस्य भगवतोऽहत्परमेष्ठिनः
सकलदोषापहारिणि निखिलदोषक्षयकारिणि श्रीमुखाम्भोजे श्रीवदनारविन्दे उदमीमिरच उन्मीलयामास प्रहृष्टाभ्यां चक्षुभ्यां भगवतोऽहतो दर्शनं चकारति भावः । बद्धाञ्जलि: प्रशिथिलितया स्रस्तया कवर्या चूडया चुम्बितं संस्पृष्टं महीतलं यया तथाभूता सती निखिलभवक्लेशहरं समग्रसंसारसंक्लेशापहारक
भगवन्तं जिनेन्द्र प्राणसीच नमश्चकार च । विगलितं व्यपगतं निद्राकृतमालस्यं जाउयं यस्यास्तथाभूता २० सती अस्य स्वप्नस्य फलं किं स्यादिति व्यचीचरच विचारयामास च। मर्तुवल्लभस्थ मुखादस्य स्वप्नस्य
फलश्रुती फलश्रवणे मनो व्यधाश्च चकार च ।
समूह विरलताको प्राप्त हो गया और जब रात्रिका चौथा पहर प्रायः समाप्त होनेको आया तब विजया रानीने तीन स्वपन देखे। उसी समय उसने समत्पन्न शोक और प्रसन्नतासे दर
हुई निद्राका परित्याग किया। राजमहलके जागते हुए कलहंसोंकी ध्वनिसे परिपुष्ट मंगल२५ पाठकों के वचन सुने । तदनन्तर शीघ्रतासे समीप आयी हुई पहरेपर खड़ी तरुण स्त्रियोंने जिसे
हाथका सहारा दिया था और नीचे लटकते हुए केशपाशपर जिसका बायाँ हाथ स्थित था ऐसी विजया रानी धीरे-धीरे शय्यातलसे उठो। उठते ही उसने खिले नील कमलकी शोभाका अपहरण करनेवाले नेत्र, समस्त दोपोंका परिहार करनेवाले श्री भगवान् अर्हन्त परमेश्वरके मुखकमलपर खोले । तत्पश्चात् अत्यधिक भक्तिसे अञ्जलि बाँधकर हाथ जोड़कर ढीली चोटीसे पृथिवी तलका स्पर्श करती हुई रानीने संसारके समस्त क्लेशोंको हरनेवाले भगवानको प्रणाम किया। निद्रासम्बन्धी आलस्यके दूर होनेपर उसने विचार किया कि इस स्वप्नका फल क्या होगा ? विचार के अनन्तर उसने प्राणनाथ के मुखसे स्वप्नोंका फल सुननेका मन किया।
१. २० ख० ग. हस्तावलम्चन। २. क. विदधाम: सफलं मनो।
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- निद्वात्यागवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः १४. अथ रजनीविरहजनितमसहमान इव परितापमपरजलनिधि जलमवगाहमाने यामिनीप्रणयिनि, तरणिरथतुरगखरखुरपुटपरिपतनभयेन क्वापि गत इवानुपलक्ष्यमाणे तारागणे, गगनपयोनिधिजठररूढविद्रुमलतावितानविम्बिनि प्रथमगिरिपरिसरवनदावविभ्रममुषि प्रत्यनजनितप्रत्यूषगर्भरुधिरपटलपाटलिमद्रुहि पल्लवयति बलमथनदिशामुखमरुणकिरणकलापे, तपनदर्शनरवानिव विकशिततारराति निचितलनिचयकवचितककुभि कमलाकरे, प्रबुध्यमानपङ्कजिनी- ५ निःश्वाससब्रह्मचारिणि प्रसृमरतुहिन सलिलकणनिकर परिचयसमुपचितजडिमनि' घटमानरथाङ्गमिथुनविहिताशिषि विरहिह्नयनजलवषिणि विसमरकुसुमपरिमलवासितहरिति वातुमारब्धवति मरुति
६५४. अथेति-अथानन्तरं रजन्या निजमायिकाया विरहेण जनितं सगुत्पनं परितापं संताप, असहमान इव सोहुमसमर्थ इव यामिनीप्रणयिनि जिनीरमणे चन्द्र इत्यर्थः अपरजलनिधिजलं पश्चिमसागरसलिलम् अवगाहमाने प्रविशति सति । सरणीति-तरणिरथस्य सूर्यस्यन्दनस्य तुरगा अश्वास्तेषां १० खरखुरपुटानां तीक्ष्णशफपुरानां परिपतनं तस्य भयं तेन तारागणे नक्षत्रनिय कापि गत इवानपलक्ष्यमाणेऽदृश्यमाने सति । गगनेति-गगनमंव पोनिधिरिति गगनपयोनिधिराकाशार्णवस्तस्य जठरे मध्ये रूवाः समुत्पना या विमलताः प्रवालवल्लयस्तासां वितानं विस्तार विडम्चयतीत्यवं शीलस्तस्मिन् , प्रथमगिरिः पूर्वाचलस्तस्य परिसरवनस्य निकटकाननस्य दावो वनामटस्तस्य विभ्रम सन्देहं मुष्णातीति तथा तस्मिन् प्रत्यग्रजनितो नवीनोत्पन्नो यः प्रत्यूपोऽहमुखं तस्। गर्भरुधिरपटलस्य गर्भरक्तसमूहस्य यः १५ पाटलिमा अरुणिमा तस्य द्रुहि द्रोहकारके, अरुणस्य किरणानां कलापस्तस्मिन् बालसूर्यरश्मिसमूहे बलभथनस्य दिशा बलमथन दिशा प्राची तस्या मुखमप्रभाग पल्लवयति रञ्जयति सति । तपनेति-तपनस्य सूर्यस्य दर्शने रसः प्रीतिस्तस्मादिच विकसिता उन्मीलितास्तामरसदृशः कमललोचनानि यन तथाभूते कमलाकर कमलसरोबर, विकचितदलानां विकसितकलिकानां निचयेन समूहन कवचिता च्याप्ताः ककुभो दिशी येन तथाभूते सति । प्रबुध्यमानेति-प्रबुध्यमाना विकसन्स्यो याः पङ्कजिन्यो नलिन्यसासा २० निःश्वासस्य सब्रह्मचारी सदृशस्तस्मिन् , प्रस्मराः प्रसरणीला ये तुहिनसलिलकणा हिमजलबिन्दवस्तेषां निकरस्य समूहस्य परिचयेन समुपचितो वृद्धिंगतो जडिमा शैत्यं यस्य तस्मिन् , घटमानैः परस्परं मिलद्री स्थान मिथुनश्चक्रवाक्युगले: विहिता भाशीयस्य तस्मिन् , विरहिणां विप्रयुक्तानां नयनजलमश्रुवर्षयत्येवं शीलं तस्मिन्, विस्मरेण प्रसरता कुसुमपरिमलेन पुष्पसौगन्ध्येन वासिता आमोदिता हरितो दिशा येन तस्मिन् 'दिशस्तु ककुमः काष्ठा आशाश्च हरिसश्च ताः' इत्यमरः, वैमातिक प्रातःकालिके मरुति २५
६. १४. अथानन्तर जब चन्द्रमा रात्रिरूपी रमणीके विरहसे उत्पन्न सन्तापको नहीं सहन करता हुआ ही मानो पश्चिम समुद्र के जल में प्रवेश करने लगा, सूर्य के रथ के घोड़ोंकी टापोंके पड़नेके भयसे ही मानो जब ताराओंका समूह कहीं जा छिपा, आकाशरूपी समुद्र के मध्यमें उत्पन्न मूंगाकी लताओंके समूहका अनुकरण करनेवाला, उदयाचलके निकटवर्ती वनमें लगी दावानलकी शोभाको अपहरण करनेवाला, और अभी हाल में उत्पन्न प्रातःकालके ३० गर्भसम्बन्धी रक्त के समूह की लालिमाके साथ द्रोह करनेवाला प्रातःकालीन सूर्यको किरणोंका समूह जब पूर्व दिशाके अग्रभागको पल्लवित करने लगा-लाल लाल नयी कोपलोंसे ही मानो युक्त करने लगा, सूर्यके देखने के अनुरागसे ही मानो जब तालाबने कमलरूपी नेत्र खोल दिये एवं दिशाओंको खिली हुई कमलकलिकाओंके समूह से व्याप्त कर दिया, खिलती हुई कमलिनियों ( पक्ष में पद्मिनी स्त्रियों) के निश्वास के समान, फैले हुए हिममिश्रित जलकणोंके ३५ परिचयसे शीतल, मिलते हुए चकवा-चकत्रियों के द्वारा प्रदत्त आशीर्वादसे युक्त विरही मनुष्यों के
१. क० ख० ग. जडिम्नि ।
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गधचिन्तामणिः
[ १४ राश्याःवैभातिके, निजसुहृदभिभावुकदिनकृदुदयदर्शनपरिजिहीर्षयेव घटितदलकवाटमुद्रे निद्रामभिलषति कैरवाकरे, वाराकरचिरनिवासजनितजडिमविघटन विधुतारुणकम्बल इव विभाव्यमाने दिवसभुजंगफणारत्ने गगनमुरभिदाभरणकौस्तुभे गभस्तिमालिनि महःस्तोमैः स्तबकयति पूर्वमचलम्, अनुष्ठितदिवसमुखविधेया विजया विहितवैभातिककृत्यं कृतजिनचरणसपर्य पर्यङ्किकानिषण्ण सविनयमभ्येत्य राजानमर्धासनमध्यासिष्ट । पुनरभाषिष्ट च मुखाकृतिसूचिताकूता जिज्ञासापरवशपार्थिवकृतानुयोगा पङ्कजाक्षी-'आर्यपुत्र स्वप्ने विकसितकुसुमसौरभसंभ्रमदलिकुलमुखरितहरिदवकाशमहिमकररथमार्गलङ्घनजङ्घालविटपनिबिडितवियदाभोगमभिनवधनपरिवायी वातुमारब्धवति तत्परे सति । निजसुहादिति-निजसुहृदश्चन्द्रमसोऽमिभावुकस्तिरस्कर्ता यो
दिनकृत् सूर्यस्तस्योदयस्तस्य दर्शनं तस्य परिजिहीर्षा परिहारेच्छा तयेच घटिता दलकबाटानां मुदा येन १० तस्मिन् कैरवाकरे कुमुदसमूह निद्रा स्वायमभिलषति सति । वाराकरेति-वाराकरे समुद्र चिरनिवासेन
समां रात्रि यावन्निवासेन जनितः समुत्पन्नो यो जडिमा शैत्यं तस्य विघटनाय दूरीकरणाय धृतः परिहितोऽरुणकम्बलो रक्तकम्बलो येन तथाभूत इव विभाव्यमाने प्रतीयमाने, दिवस एव भुजङ्गस्तस्य फणारत्नं मोगमणिस्तस्मिन् , गगनमेव मुरभिन्नारायणस्तस्याभरणमलङ्कारो यः कौस्तुभमणिविशेषस्तस्मिन्
गभस्तिमालिनि सूर्य महास्तोमैस्तेजोराशिभिः पूर्वमञ्चलमुदयगिरिं स्तवकयति सगुच्छं कुर्वति सति । १५ अनुष्ठितेति----अनुष्ठितानि विहितानि दिवसमुखंविधेयानि प्रत्यूषकाल कार्याणि स्नानादीनि यया सा
विजया राज्ञी कृता जिनधरणयोः सपर्या पूजा येन तम् 'पूजा नमस्यापचितिः सपर्या_हणाः समाः' इत्यमरः, पर्यविकायां निषण्णस्तं सिंहासनासीनं राजानं सत्यंधरमहाराजम् अभ्येत्य संमुखं गवा, अर्धासनमध्यासिष्ट 'अधिशीस्थासां कर्म' इति द्वितीया । पुनरिति-पुनरनन्तरं मुखाकृत्या वदनचेष्टया
सूचितमाकूतमभिप्रायो यस्याः सा, जिज्ञासा ज्ञातुमिच्छा तया परक्शेन पार्थिधेन नृपेण कृतोऽनुयोगः २० प्रश्नों यस्याः सा तथाभूता पङ्कजाक्षी कमललोचना विजया अभाषिष्ट स जगाद च। आर्यपुत्रेति
'हे आर्यपुत्र हे नाथ ! स्वप्ने विकसितानि प्रफुल्लानि यानि कुसुमानि तेषां सौरभेण सौगन्ध्येन संभ्रमता संचरतालिकुलेन भ्रमरसमूहेन मुखरितः शब्दितो हरिदवकाशो दिगन्तरं येन तम्, अहिमकरी दिवाकरस्तस्य रथमार्गस्य स्यन्दनवम॑नो लङ्कनेऽतिक्रमणे जङ्घालाः शीघ्रगामुका ये विटपा: शाखास्तैर्निविडितः
नेत्रोंसे जल वर्षा करनेवाला, और फूलोंकी फैलती हुई सुगन्धिसे दिशाओंको व्याप्त करनेवाला २५ प्रातःकालका पवन जब बहने लगा, अपने मित्र चन्द्रमाका तिरस्कार करनेवाले सूयके उदयको
देखनेका परिहार करनेको इच्छासे ही मानो जब कुमद वन कलिकारूपी किवाडोको बन्द कर नींद लेने की इच्छा करने लगा, समुद्र के भीतर चिरकाल तक निवास करनेसे उत्पन्न ठण्डकी बाधाको दूर करने के लिए ही मानो जिसने लाल कम्बल ओढ़ रखा था, अथवा जो दिन
रूपी सपके फगाके रत्नके समान था और आकाशरूपी मुरारियाभूषण-कौस्तुभ मणिके ३० तुल्य था ऐसा सूर्य जब अपने तेजापुञ्जसे पूर्वाचलको आच्छादित करने लगा तत्र प्रातःकाल
सम्बन्धी कार्योंको पूरा करनेवाली विजयारानी, प्रातःकालीन कार्योसे निवृत्त, एवं जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलोंकी पूजा कर पलकियापर बैठे हुए राजाके पास विनयपूर्वक जाकर
अर्धासनपर बैठ गयो । तदनन्तर मुखकी आकृतिसे जिसका अभिप्राय सूचित हो रहा था, . और आंगमनका कारण जानने की इच्छासे विवश राजाने जिससे प्रश्न किया था-आगमन३५ का कारण पूछा था, ऐसी कमललोचना विजयाने कहा-हे आर्यपुत्र ! आज मैंने स्वप्नमें
अशोकका कोई एक ऐसा वृक्ष देखा हैं जिसने खिले हुए फूलोंकी सुगन्धिसे सब ओर मँडराते हुए भ्रमरोंके समूहसे दिशाओंके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था, सूर्य के रथके मार्गको
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- स्वप्नफलकथनम् ]
प्रथमो लम्भः षदभिभाबुकपलाशपटल कवचितवपुषमरणकिरणशोणकिसलयप्रसूनदशिताकालसंध्यं कमप्यशोकशाखिनमवालोकिषि । स च क्षणेन क्षोणीरुहः कुलधरणीधर इव कुलिशपतनेन शतधा शकलीवृततनुरपतदवनीपृष्ठे । समुदतिष्ठच्च तस्य तरो लादकठोरदलपुटलुटितेन लोहितिम्ना लिम्पंल्लोचनपथमधरितदिवसकरबिम्बन जाम्बूनदघटितेन किरीटेन शोभितशिखरभागस्तुङ्गविशालविटपकवलितवियदन्तराल: कोऽपि कङ्केलिः । तत्र च प्रालम्बिष्ट प्रथमानपरिमलतरलमधुकर- ५ माल मालाष्टकम् । तथाविधं तमनुभूय स्वप्नवृत्तान्तं प्रवृत्तहर्षविषादा च तरक्षण एवं निद्राममुञ्चम् । आचश्व फलममुष्य' इति ॥
सान्द्रीकृतो वियदामोगी गगनविस्तारी येन तम् , अभिनवा नृतना समलेति यावत् या घनपरिषद् मेघसमूहस्तस्या अभिभायुकेन तिरस्कारकेण पलाशपटलेन पत्रमचयेन कवचितं व्याप्त वपुर्यस्य तम्, अरुणकिरण इव बालसूर्य रश्मिरिव शोणा रकवर्णानि यानि किसलयप्रसूनानि पल्लवपुप्पाणि तैर्दर्शिताऽकाल- १० संध्याकाण्डपितृप्रसूर्यन तम्, कमप्यनिर्वचनीयम् अशोकशाखिनं कङ्केलिपादपम् अवालोकिषि अदर्शम् । स चेति--सच क्षोणीरुहोऽशोकपादपः क्षणेन कुलिशपतनेन पविपातेन कुलधरणीधर एव कुलाचल इव शतधा शकलीकृता तनुर्यस्य तथाभूतः खण्डितशरीरः सन् अवनीपृष्ठे भूतले अपतत् । समुदति ष्टश्चेतितस्य पूर्वोक्तस्य तरोमलाल अकठोरटलएरेषु कोमलपत्रपुटेषु लुठितो व्याप्तस्तेन, लोहिनिम्ना रकत्वेन लोचनपथं नयनमार्ग लिम्पन्, अधरितं दिवसकरबिम्ब येन तेन तिरस्कृतादित्यमण्डलेन जाम्बूनदघटितेन १५ काञ्चनरचितेन किरीटेन मकुटेन शोणितो लोहितः शिखरभागो यस्य तम्, तुङ्गा उन्नता विशाला विस्तृताश्च ये विटपाः शाखारत कवलितं व्याप्तं वियदन्तरालं गगनान्तरं येन तथाभूतः कोऽपि कश्चित् कलिरशोकतरुः समुदतिष्ठच्च समुस्थितश्चाभूत् । तत्र चेति-तत्र च तस्मिन् च कङ्कश्यनोकहे प्रथमानेन प्रसरता ... परिमलेन सौगन्ध्यातिशयस्तेन तरला चपला सतृष्णीकृतेति यावत् मधुकरमाला भ्रमरश्रेणियन तत् तथाभूतं मालाष्टकं सगष्टक प्रालम्बिष्ट प्रलम्बते स्म । तथाविधमिति-तथाविधं तादृशं तं पूर्वोक्तं स्वप्न- २० वृत्तान्तम् अनुभूय प्रवृत्तौ संजातौ हर्षविषादी यस्यास्तथाभूता चाहं तत्क्षण एव तत्काल एव निद्रां स्वापम् अमुजम् । 'अमुप्य स्वप्नस्य फलं साध्यम आचक्ष्व कथय' इति ।
लाँघनेके लिए बड़े वेगसे ऊपरकी ओर बढ़ती हुई शाखाओंसे जिसने आकाशके मैदानको व्याप्त कर दिया था, नूतन मेघसमूहको तिरस्कृत करनेवाले पत्तों के समूहसे जिसका शरीर । व्याप्त था, और प्रातःकालिक सूर्यकी किरणों के समान लाल-लाल पल्लवों एवं फूलोंके २५ समूहसे जो असमय में ही सन्ध्याको दिखला रहा था। जिस प्रकार वन के गिरनेसे कुलाचलके सैकड़ों टुकड़े हो जाते है उसी प्रकार वनके गिरनेसे वह अशोक वृक्ष भी क्षण भरमें खण्ड-खण्ड हो पृथ्वीपर गिर पड़ा और गिरे हुए उस अशोक वृक्षकी जड़से जो कोमलकोमल पत्तोंकी पुट में बिखरी हुई लालिमासे नेत्रोंके मार्गको लिप्त कर रहा था, सूर्यबिम्बको तिरस्कृत करनेवाले स्वर्णनिर्मित मुकुटसे जिसके शिखरका अग्र भाग सुशोभित हो रहा ३० था, और जिसने अपनी ऊँची विशाल शाखाओंसे आकाशके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था ऐसा कोई अशोकका वृक्ष उठकर खड़ा हो गया। उस अशोक वृक्षपर फैलती हुई सुगन्धिसे चपल भ्रमरोंके समूहसे युक्त आठ मालाएँ लटक रही थीं। उस प्रकार के स्वानको देखकर :: हर्प और विषादका अनुभव करती हुई मैंने उसी क्षण निद्राका परित्याग कर दिया। आप उस स्वप्नका फल कहिए ।
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गग्रचिन्तामणिः
[७ सत्यंधरस्य - १५. तदनु नरपतिरवनीरुहपतनदर्शनादकुशलमात्मनि शङ्कमानोऽपि चामीकरकिरीटनिरीक्षणनिवेदितेन तनयलाभेन मुदमुद्वहनधिकविवासितवदनतामरस: सरसीरुहासनविलासिनीचरणनखमणिचन्द्रिकामिव दशनकिरणकन्दली दर्शयन्स चतुरमवोचत् ।
१६. देवि, पक्वमद्य नश्चिरविरचितेन जिनपादपङ्खाहसपर्याप्रबन्धेन । फलन्ति च सकलभुवनमहनीयतपसामवितथवचसामत्रभवतामृपोणामाशिषः । तथा हि-कथयति कनकमकुट: कल्याणि, ते तनयम् । तस्योदयमावेदयति पतितपादपमूलरूढः कठोरेतरः स कङ्केलिः । अमुष्य च वधूः सूचयन्ति ताः पुष्पसजः' इति ।
१७. दयितवचनामृतपरितोषितस्वान्ता सोमन्तिनी 'महीरुहपातः किमभिधत्ते ?'
१५. तदन्विति–तदनु विजयामुखास्वप्नश्रवणानन्तरम् स नरपतिः सत्यंधरमहाराजः १० अवनीरुहस्थाशीकपादपस्य यत्पतर्न तस्य दर्शनं तस्मात, आत्मनि स्वस्मिन् विषये । सप्तमी अकृशल
ममङ्गलं शकमानोऽपि संदिहानोऽपि चासकरकिरीटस्य स्वर्णमकुटस्य निरीक्षणेन निवेदितं तेन तनयलाभेन पुत्रप्राप्त्या मुदं प्रीतिं 'मुत्पीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदर्ममदाः' इत्यमरः, उद्वहन् दधत् अधिकं सातिशयं विकसितं प्रसन्न नदनतामरयं मचक्रपलं यस्य तथाभूतः सन् सरसीरुहासनस्य ब्रह्मणो बिलासिनी स्त्री
सरस्वतीति यावत् तस्याश्चरणयोनखमणिचन्द्रिकामिन नपरमणिकौमुदीमिव एतेन नखमणीनां चन्द्रत्व१५ मारोप्यते, दशनकिरणकन्दली रदनरश्मिसन्ततिं दर्शयन प्रकटयन् स इत्यस्य नरपतिना सह संबन्धः चतुरं यथा स्यात्तथा अवोचत् कथयामास
१५. देवीनि-देवि ! प्रिय ! अचेदानीम् , नोऽस्माकं चिरविरचितेन दीर्घसमयविहितेन जिनस्य पादपङ्केरुहयोश्चरणकमलयोर्यः सपर्याप्पबन्धः पूजायोगस्तेन पर परिणतम् , मावे क्तप्रयोगः । सकलभुवने निखिललोके महनीयं पूजनीयं तपो येषां तेषाम् अवितथं सत्यं वधो येषाम् भन्न भवता मान्यानाम् ऋषीणां . मनीनाम आशिष आशीर्वचनानि फलन्ति च सफला जायन्ते च 1 तथाहि कल्याणि! श्रेयसि! संबद्धि
प्रयोगः कनकमकुटः स्वर्णमौलिः ते तब तनयं पुयं कथयति निवेदयति । पतितपादपस्य पतितवृक्षस्य मूले रूढः समुत्पन्नः कठोरेतरी मृदुलः स कलिर्बालाशोकतरुः तस्य तनयस्य उदयमभ्युदयं वैभवमिति यावत् आवेदयति कथयति । ता स्टाः पुष्पसजश्च सुमनोमालाच अमुच्य पुत्रस्य वधूर्भार्याः सूचयन्ति कथयन्ति, इत्यस्यावोवदित्यनेन संबन्धः ।
६७. दयितेति-दयितस्य वल्लमस्य वचनर्मवामृतं तेन परितोषितं स्त्रान्तं मनो यस्याः सा
६१५, तदनन्तर वृक्षका पतन देखनेसे अपने आपके विषयमें अमंगलकी आशंका करनेपर भी सुवर्ण मुकुट के देखनेसे सूचित पुत्रकी प्रापिसे जो हर्षको धारण कर रहा था, ऐसा राजा सत्यंधर, अत्यधिक विकसित मुखकमलके भीतर निवास करनेवाली लक्ष्मीके
चरणोंके नखरूप मणियोंकी चाँदनीके समान दाँतोंकी किरणावलीको दिखलाता हुआ ३० बड़ी चतुराई से बोला
६१६. देवि ! हम लोगोंने जो चिरकालसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंकी पूजा की है वह आज फलीभूत हो रही है और समस्त संसारसे पूजनीय तपके धारक सत्य. वादी माननीय ऋपियोंके आशीर्वाद आज अपना फल दे रहे हैं। हे कल्याणवति !
सुवर्णका मुकुट कह रहा है कि तुम्हारे पुत्र होगा। गिरे हुए अशोक वृश्नकी जड़से जो कोमल ३५ अझोक वृक्ष उत्पन्न हुआ है वह उसी पुत्र के अभ्युदयको सूचित करता है और फूलोंकी मालाएँ 'उसीकी स्त्रियोंकी सूचना दे रही हैं।
६ १७. पति के वचनरूपी अमृतसे जिसका चित्त संतुष्ट हो रहा था ऐसी रानीने राजासे
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- सश्याः संज्ञाशून्यत्वम् ] प्रथमो लम्भः
४९ इति महोक्षितमप्राक्षीत् । 'तदपि किमपि में निवेदयत्यमङ्गलमवनिरुहपतनम्' इति कथयति जगतीपतावपतदनिलरयहता वनलतेव महीतले पहिषो। ततः क्षितितलविलुठितवपुषं विगलदविरलबाष्पजलपूरतरत्तरलतारसदृशं शिथिलितनहनविस्मरकेशमसृणितभुवमविरतनिःश्वसितमरुदूष्ाममरितदशनच्छदकिसलयां' विधुतुदकलितमिव तुहिनकिरणबिम्बमन्तर्गतविषादविषवेगश्याममान न मुद्वहन्ती दवदहन शिलारामर्श रिम्लानामिद नाता बनकरिसनुत्पाटितां ५ दिनकरमरीचिपरिचयपचेलिमामिव मृणालिनी मानिनों मन्युभरपरवशः पृथ्वीपतिरवतीर्य पर्यङ्कादधरितभुजंगपैतिभोगसौभाग्येन भुजद्वयेन समुक्षिप्य स्वाङ्कमारोपयन्नतित्वरितपरिजनो'चिसं तु चेतो हृदयं सन्त हुन्मानसं मनः' सीमन्तिनी सीमन्तः केशवेशोऽस्ति यस्याः सा सीमन्तिनी वधूः 'खी योषिदबला योषा नारी सीमन्तिनी वधूः' इत्यमरः, 'महोरुहपातो वृक्षपतनं किं फलम् अमिधत्ते कथयति 'अभ्युपसर्गबलात दुधान धारणपोषणयोः' इत्यस्य धातोः कथनेऽथै प्रयोगः अचिन्त्यो हयुपसर्गस्य १० प्रमावः "उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यः प्रतीयते । महाराहारसंहारविहारपरिहारत्रत्" इति वचनान । इतीत्थं महीक्षितं राजानम् अक्षीत् । तदपीति-'वद् दृष्टम् अत्रनिरुहपतनमपि वृक्षपातोऽपि मे मम किमप्यवाच्यम् अमङ्गलमनिष्टं निवेदयति कथयति' इतीथं जगतीपती नृपे कथयत्ति सति महिषी पट्टराज्ञी, अनिलस्य रयेण पक्नस्य वेगेन हता ताडिता वनलतेव बनवल्कीच महीतले पृथिवीतलेऽपतत् पतिता। तत इति--ततस्तदनन्तरं क्षितितले पृथिवी पृष्टे विलुठितं वपुर्यस्यास्तां विगलति निःसरति १५ अविरलयाप्पजलपूरे निरन्तराश्रुसलिलपूरे तरत्या सारके ययोस्ते तयाभूते दृशौ यस्यास्ताम् , शिथिलितं इलथीभूतं यनहनं बन्धनं तेन विस्मराः प्रसरणशीला ये केशास्तैमसृणिता स्निग्धीकृसा भूर्यया ताम् । श्वसितमरुतः श्वासोच्छवासपवनस्योप्मणा निदाघवेन ममरिती शुष्को दशनच्छदकिसलया वोष्टपल्लवी यस्यारताम् , विधुतुदेन राहुणा कबलितं प्रस्तं तुहिन किरणबिम्बमिव चन्द्रमण्डलमिय, अन्तर्गतविषाद एवं विषं गरलं तस्य चेगेन श्याम मलिनम् आननं मुखम् उद्वहन्तीं बिभ्रतीम्, दबदहनस्य बनाग्नेः २० शिखाया ज्वालायाः परामर्शन संबन्धेन परिम्लाना बनलतामिव, वनकरिणा काननकरिणा समुपाटितां समुखातां दिनकरस्य मरीचिपरिवोन किरणसंपकण पोलिमा पक्तमहा मृणालिनीमिव पशिनी. मिव मानिनों विजयां मन्युभरपरवशः शोकसमूह विवशः पृथ्वीपतिः पर्यादासनान् भवतीय भूमिमागत्य अधरितस्तिरस्कृतो भुजंगपतेः शेषनागस्य भोगस्य शरीरस्य सौभाग्यं येन सथाभूतेन भुजद्वयेन बाहुयुगलेन पूछा कि वृक्षका पतन क्या कह रहा है ?' राजाने इसके उत्तर में ज्यों ही यह कहा कि 'वह २५ वृक्षका पनन भी मेरे विषय में कुछ अमंगल कह रहा है त्यों ही वायुके वेगसे ताडित वनकी लताके समान रानी पृथिवीतलपर गिर पड़ी। तदनन्तर पृथिवीतलपर जिसका शरीर लोट रहा था, लगातार झरते हुए अश्रुजलके पूरमें जिसके नेत्रोंकी चंचल कनीनिकाएँ-पुनलियाँ तैर रही थीं, बन्धनके शिथिल होनेसे फैले हुए केशोसे जिसने पृथिवीको चिकना कर दिया था, जो निरन्तर निकलने वाली श्वासोच्छ्वाससम्बन्धी वायुको उष्णतासे सूखे हुए ओष्ठ- ३० पल्लबसे युक्त, अतएव राहु के द्वारा प्रस्त चन्द्रमण्डलके समान, अन्तर्गत विपादरूपी वेषके वेगसे श्याम मुखको धारण कर रही थी, जो दावानलकी शिखाओंके परामर्शसे म्लान वनलताके समान अथवा जंगली हाथीके द्वारा उखाड़ी और सूर्य की किरणोंके सम्बन्धसे पाकोन्मुख मृणालिनीके समान जान पड़ती थी ऐसी विजयाको देख राजा स्वयं शोकके भारसे परवश हो गया। उसने पलंगसे नीचे उतरकर शेषनागके शरीरकी सुन्दरताको तिरस्कृत ३५
१. म. किसलयं । २. क० ख० ग० प्रतिप दवपदं नास्ति । ३. क.० ख० ग० प्रतिए मानिनीम् इति नास्ति । ४. क० ख० ग० प्रतिषु भुजगपतिपाठोऽस्ति ।
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पनीतैर्मलयज मृणालघनसारतुषारप्रमुखैः व्याहार्षीच्च
[ १८ राज्ञा
शिशिरोपचारपरिकरप्रकरैः प्रत्युत्पन्नसंज्ञामकार्षीद्
गद्यचिन्तामणिः
$ १८. 'भीरु, केयमाकस्मिककातरता तरलयति भवतीम् ? केन जगति स्वप्नानामवितथफलतान्वभावि ? भावि वा वस्तु कथमस्तु प्रतिबद्धम् ? पुराकृतसुकृतेतर कर्मपरिपाकपराधीनायां विपदि विषादस्य कोऽवसरः ? विषाद किं तु विपदमपनुदति ? प्रत्युत विपदामेव भवे भवे प्रबन्धमनुबध्नाति । तदेवमुभयलोक विरोधी विपाद: किमत्याद्रियते ? यश्च समुपस्थितायां विपदि विषादस्य परिग्रहः सोऽयं चण्डातपचकितस्य दावहुतभुजि पातः । ततो हि कृतधियस्तत्त्वचिन्तया विपदामेव विपदं वितन्वन्ति । किं चावयोरनन्ताः खल्वतीता भवाः ।
समुत्क्षिप्य समुत्थाय स्वाकं निजोसंगम् आरोपयन्स्थापयन् अतिस्वरा शैत्रयातिशयः संजाता येषां तेऽति१० त्वरिताः ते च ते परिजनास्तैरुपनीतैरुपस्थापितैः मलयजश्च मृणालं च घनसारा तुपारश्चेति मलयजमृणालवनसारतुषाराः चन्दनबिसकर्पूरप्रालेयाः ते प्रमुखा येषु तैः शिशिशेपचारपरिकरस्य शीतलोप चारसामग्रधा प्रकराः समूहास्तैः प्रत्युत्क्षा संज्ञा यस्यास्तां पुनरानीतचेतनाम् अकार्षीत् व्याहार्षीश्च जगाद च । १८. भीर्विति भीरु ! अयि कातरे ! इयम् एषा का आकस्मिककातरता सहसोत्पन्नभीता भवतीं त्वां तरलयति तरलां करोति । जगति लोके स्वप्नानाम् अवितथफलता सत्यपरिपाकता केन जनेन १५ अन्वभावि अनुभूता । कर्मणि प्रयोगः अनुपूर्वस्य भवतेः सकर्मकत्वात् । वा अथवा मावि भविष्यत् वस्तु प्रतिबद्धं प्रतिरुद्धं कथं केन प्रकारेण अस्तु भवतु । पुराकृतयोः सुकृतेतरकर्मणोः पुण्यपापकर्मणोः परिपाकेनोदयेन पराधीना तस्यां विपदि विषादस्य शोकस्य श्रवसरः कः प्रस्तावः कः । विषादः शोकः किं विपदं विपत्तिम् अपनुदति दूरीकुरुते न्विति वितर्के । प्रस्युत भवे भवे जन्मनि जन्मनि विपदामेव विपत्तीनामेव प्रबन्धं सन्ततिम् अनुबध्नाति । तत्तस्मात् एवमिध्थम् उभयलोकयोर्विरोध इस्युमय लोकविरोधः सोऽस्ति २० यस्य सः विषादः खेदः किं केन कारणेन अध्याद्वियते अतिसक्रियते । यश्च समुपस्थितायां प्राप्तायां विपदि विषादस्य परिग्रहः स्वीकारः सोऽयं चण्डातपचकितस्य तीक्ष्ण वर्मभीतस्य दाबहुतभुजि चनानले पातः । निदर्शना । ततस्तस्मात् कारणात् हि निश्चयेन कृतधियो बुद्धिमन्तो जनास्तत्त्वचिन्तया तत्वविचारेण विपदामेव विपदं विपत्ति विनाशमिति यावत्, वितन्वन्ति कुर्वन्ति । किंच अन्यच, आवयोर्द्वयोः खलु निश्चयेन अनन्ता अन्तातीला भयाः पर्याया अतीता व्यपगताः न तेषु संगतिः संयोगः यथातीतेषु भवेध्वा२५ करनेवाली दोनों भुजाओंसे उठाकर उसे अपनी गोद में रख लिया और अत्यन्त शीघ्रता से युक्त परिजनोंके द्वारा लाये हुए चन्दन, मृणाल कपूर और बर्फ आदि शीतलोपचारकी सामग्रीके समूह से उसे सचेत किया। साथ ही निम्नांकित वचन कहे
१८. 'हे भीरु ! यह कौन-सा आकस्मिक भय आपको चंचल कर रहा है ? संसार में स्वप्नोंका वास्तविक फल किसने भोगा हूँ ? अथवा जो वस्तु जैसी होनेवाली हैं, वह कैसे ३० रोकी जा सकती है ? पूर्वकृत पाप कर्मके उदयसे परवश विपत्ति में विषादका अवसर ही क्या है ? क्या विपाद विपत्तिको दूर कर देता है ? बल्कि वह भव-भवमें विपत्तियोंकी सन्ततिको हो बढ़ाता है। फिर इस तरह दोनों लोकोंसे विरोध रखनेवाले विषादका आदर क्यों किया जा रहा है ? विपत्ति के उपस्थित होनेपर जो विषादको स्वीकृत करना हैं वह तीव्र घामसे भयभीत मनुष्यका मानो दाघानलमें गिरना है। इसीलिए तो ३५ बुद्धिमान मनुष्य तत्त्वचिन्तनके द्वारा विपत्तियों को ही विपत्ति बढ़ाते हैं- विपत्तियोंको नष्ट करते हैं। दूसरी बात यह है कि हम दोनोंके अनन्त भव बीत चुके । जिस प्रकार
१. म० भवप्रबन्ध - । २. म० किमित्याद्रियते ।
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गचिन्तामणिः
[१९ विजयायाः यथापुरमवनिपुरंदरमनुवतितम् ।।
१६. अथ कतिपयदिवसापगमे परिणतशरकाण्डपाण्डुना कपोलयोः कान्तिमण्डलेन तुहिनमहसमिव बासवीर्यदिशा शंसति स्म गर्भे गर्भरूपस्य परिणामं हरिणाक्षी। काष्ठाङ्गारकाननदिधक्षया ज्वलिष्यत: सुतप्रतापानलस्य धूमकन्दल इ० कालिमा कुचचू चुकयोरदृश्यत । तनयमनसः प्रसाद इव बहिः प्रसृतश्चक्षुषोरलक्ष्यत धवलिमा। निखिलजनदोर्गत्यदुःखद्रुहि गतवति गर्भमभके विभ्रतीव भोतिमुदरादतिदूरं दरिद्रता प्राद्रवत । बुद्धवेव भाविनं स्नुषाभावमभवदवनी पदन्यासपराङ मुखी। गरिम्णा गर्भे समुपेयुषि दुर्धरतां क्लेशिताधरपल्लबाश्चामरपवना इव दौहृदइन्यमरः, शनैः शनैर्मन्दं मन्दं प्रसाद प्रसन्नतां स्वच्छतां च प्रत्यपद्यत प्रापन् । यथा पुरं पूर्ववत् अवनिपुरंदरं महीमहेन्द्रं नृपमिति यावत , अनुवतितुं सेवितुं प्रावर्तत च प्रवृत्ता चाभूत् ।।
१६. अथेति-अथानन्तरं कतिपयदिवसानामपगमस्तस्मिन् कतिचिहिवसानन्तरं हरिणाक्षी मृगनेत्री विजया तुहिनमहसं चन्द्रमसं वासीदिशेव प्राचीव परिणतशरकाण वन परिपक्वतृणविशेषशारयावत् पाण्ड धवलं तेन कपोलयोगण्डयोः कान्तिमण्डलेन दीप्तिसमूहन गर्ने गर्भरूपस्य परिणाम परिपक्वता पूर्णतामिति यावत् शंसति स्म सूचयति स्म । काष्ठागारेनि-काष्टाङ्गार एवं काननं तस्य दिधक्षा
दग्धुमिच्छा तया ज्वलिप्यतः सुतस्य प्रताप एवानलस्तस्य पुत्रप्रतापपावकस्य धूमकन्दल इव धूमश्रेणिरिष १५ कुचचूचुकयोः स्तनाग्रयोः कालिमा मेचकरवम् अदृश्यत । तनयेति-तनयमनसः पुत्रस्वान्तस्य बहिः'प्रसृतः प्रसाद इव नैमल्यमित्र चक्षुपोनयनयोः धवलिमा शौरल्यम् अलक्ष्यत । निखिलेति--निखिल. जनानां सकललोकानां यद् दोगत्यगुः दारिद्वदुः तस्मै दुस्पति तथाभूते अर्मके शिशौ गर्भ भ्रूणं गतवत्ति प्राप्तवति भीति भयं बिभ्रतीव दधसीव दरिद्रता निर्धनता पक्षे कृशता अतिदूरमतिविप्रकृष्टं प्रावत्
पलाया। बुद्ध्वेति--भाचिनं भविष्यन्तं स्नुषाभायं वधूत्वं त्रु क्षेत्र ज्ञात्व अवनौ पृथियां - २० पदन्यासपराङ्मुखी चरणनिक्षेपविमुखा अमवत् गर्भमारेण पृथिव्यां 'बलितुमसमर्थाभूदिति भावः ।
गरिम्णेति-गमें भ्रूणे गरिम्णा गुरुत्वेन दुर्धरतां दुर्भरतां समुपेयुपि प्रासवति सति दौहृश्रियो गर्मबुझ गयी थी ऐसी विजया शरद् ऋतुकी सरसोके समान धीरे-धीरे प्रसन्नताको प्राप्त हो गयी और पहले के समान ही राजाके अनुकूल आचरण करने लगी।
६१९. तत्पश्चात् कुछ दिन व्यतीत होनेपर मृगलोचना विजया पके हुए तृणको २५ शाखाके समान सफ़ द गालोको कान्तिसे उदरके भीतर स्थित गर्भके परिपाकको उस तरह
सूचित करने लगी जिस प्रकार कि पूर्वदिशा सफ़ेद कान्तिसे अपने भीतर स्थित चन्द्रमाको सूचित करती है। स्तनोंके अग्रभागमें कालिमा दिखाई देने लगी सो वह ऐसी जान पड़ती थी मानो आगे चलकर प्रज्वलित होनेवाले पुत्र प्रतापरूप अग्निका धुआँ ही हो । नेत्रों में
सफ़ेदी प्रकट हो गयी सो बह ऐसी दिखाई पड़ता था मानो पुत्रके मनकी प्रसन्नता ही ३० बाहर फैल गयी ह।। उसके उदरसे दरिद्रता--कृशता बहुत दूर भाग गयी सो ऐसी जान
पड़ती थी मानो समस्त मनुष्योंके दारिद्रयसम्बन्धी दुःखसे द्रोह करनेवाले बालकके गर्भमें आनेपर भयको धारण करती हुई ही भाग गयी थी। 'पृथ्वी तो हमारी पुत्रवधू होनेवाली है' यह जानकर ही मानो वह पृथ्वीपर पैर रखनेसे विमुख हो गयी थी। गुरुताके कारण
जब गर्भ दुर्धर अवस्थाको प्राप्त हो गया तर अधर पल्लवको क्लेशित करनेवाले श्वासो३५ च्छ्वास प्रतिसमय फैलने लगे। उसके वे श्वासोच्छ्वास ऐसे जान पड़ते थे मानो गर्भ
१. क. अनुवर्तयितुम् । २. म. वासवीया दिशा ।
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-गर्मलक्षणवर्णनम् ]
प्रथम लम्मः
थियः प्रतिक्षणं निःश्वासाः प्रासरन् । निखिलभुवनवास्तव्यानां वस्तूनां भोक्तारमात्मजमावेदयन्तीव विविधरसास्वादलालसा समजनि राज्ञो । परिजनवनिताकरपल्लवात्पादयुगलमाकृष्य पार्थिचमकुटमणिशिलाशयनेषु शाययितुमचकमत कमलाक्षी । अपि भूषणानामुद्रहने क्लाम्यदङ्गयष्टिस्त्रयाणामपि विष्टयानां भारमंसशिखरे निवेशयितुमुदकण्ठत कम्बुकण्ठी ।
५३.
$ २०. तदेवमुपचितदी हृदलक्षणामेणाक्षी मालोक्य कदाचिदततुत नरपतिरन्तश्चिन्ताम्'आपन्नसत्त्वेयमावेदयति फलमभ्युदयशंसिनः स्वप्नस्य । किमेवमपरोज्यशिवशंसी फलिष्यति ? केन वा विनिश्चेतुं पार्यते ? भवितव्यता फलतु वा कामम् । का तत्र प्रतिक्रिया ? न हि पुराकृतानि पौस्पेण शक्यन्ते निवारयितुम् । किं तु दुष्कृतपरिपाकभाविना दुर्निवारेण
---
敲
लक्ष्म्याश्चामरपत्रना बालव्यजननायक इव क्लेशितीऽधरपल्लवी यैस्तं तथाभूता निश्वासाः श्वासोच्छ्वासपवनाः प्रतिक्षणं प्रतिसमयं प्रासरन् । निखिलति आलजं पुत्रं निखिलभुवनवास्तव्यानां सकल- १०. लोकस्थितानां वस्तूनां भोक्तारमनुभवितारम् आवेदयन्तीव सूचयन्तीय राज्ञी विजया विविधरसानामास्वादेअनुभवने लालसा वान्छा यस्यास्तथाभूता समजनि। परिजनेति — कमलाश्री कमले इवाक्षिणी यस्याः
तथाभूता विजया परिजनवनितायाः परिकरपुरन्ध्रयाः करपल्लवाय्पाणिकिसलयात् पादयुगलं चरणयुगम् आकृष्य पार्थिवमकुनि राजमौलय एव मणिशिला शयनानि तेषु शाययितुं शयनं कारयितुम् अचकमत भवान्छन् । अपीति-- कम्बुकण्टी शङ्खमीवा राज्ञी भूषणानामलङ्काराणानपि किमुतान्यवस्तूनाम् उद्वहने १५ धारणेऽपि क्लाम्पन्ती अङ्गयष्टिर्यस्यास्तथाभूता श्रान्तशरीरा सती त्रयाणामपि विष्टयानां जगतां भारम् अंसशिखरे स्कन्धे निवेशयितुं स्थापयितुम् उदण्डत उन्मना बभूव ।
२०. देवमिति तदेवं तदित्यम् उपचितानि वृद्धिंगतानि दोहदलक्षणानि गर्भविद्धानि यस्यास्ताम् एणाक्षीं विजयामालोक्य कदाचितातुचित् नरपतिः सत्यंधरो राजा अन्तश्चेतसि चिन्तां विचारविस्तारयामास आपल वा अन्तर्बलो गर्मिणीयं विजया अभ्युदयं पुत्रोत्पत्तिवैमयं शंसति सूचय- २० तीत्येवं शीलं तस्य स्वप्नस्य फलमावेदयति प्रकटयति । किम् एवमित्थम् अशिवशंसी मदीयमृत्युसूचकः अपरोऽपि स्वप्नः फलिप्यति फलं दास्यति । वा अथवा केन विनेश्चेतुं पार्यते । को निश्चयं कर्तुं समर्थो विद्यते । भवितव्यता वा अदृष्टं वा कामं यथा स्यात्तथा फलतु सफला जायते । का तत्र प्रतिक्रिया कस्तत्र प्रतिकारः । पुरुषैः पुराकृतानि पूर्वविहितानि कर्माणि पौरुषेण पुरुषार्थेन निवारयितुं न शक्यन्ते । किंतु रूप लक्ष्मीके ऊपर दुलनेवाले चामरोंका पवन ही हो। उसे नाना रसोंको खानेकी इच्छा २५ होने लगी सो उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो 'हमारा पुत्र समस्त लोक में विद्यमान वस्तुओं का उपभोग करनेवाला होगा' यही सूचित कर रही थी । वह कमललोचना परिजनकी स्त्रियों के हस्त पल्लव से दोनों पैर झटककर राजाओं के मुकुटों में खचित मणिमयी शिलारूप शय्या पर उन्हें सुलाने की इच्छा करती थी। भूषणोंके धारण करने में भी जिसका शरीर थक जाता था ऐसी बिजया तीनों लोकोंके भारको अपने कन्धेके अप्रभागवर धारण करनेके ३० लिए उत्कण्ठित हो रही थी ।
६२० तदनन्तर इस प्रकार गर्भ के चिह्नोंसे युक्त मृगनेत्री विजयाको देख किसी समय राजा सत्यंधर अपने मन में विचार करने लगा - कि यह गर्भवती, अभ्युदयको सूचित करनेवाले स्वप्न का फल तो प्रकट करने लगी है क्या इसी तरह अमंगलको सूचित करनेवाला दूसरा स्वप्न भी अपना फल दिखलावेगा । अथवा निश्चय करनेके लिए कौन समर्थ है ? ३५ होनहार इच्छानुसार फल दिखलावे । इसका प्रतिकार ही क्या है ? क्योंकि पूर्वकृत कर्म
१. क० ख० ग० हृदयश्रियम् ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ २१ राज्ञःदुःखेन यद्यपि वयमभिभूयेमहि तदपि कुरुकुलनिरन्वयविनाशपरिहाराय परिरक्षणीया प्रयत्नेन पत्नीयमन्तवत्नी' इति । ततश्च विश्रुतविश्वशिल्पकौशलं विश्वकर्माणमिव प्रत्यक्षं तक्षकमाहूय गर्भदोहलजनितकेलीवनविहरणमनोरथा मनोरमां विनोदयितुमभिमतदेशगमनकौशलशालिनं कमपि यन्त्रकलापिनं कल्पयेति महीक्षिदादिक्षत् । अद्राक्षीच्च सत्वरशिल्पिकल्पितमकल्पितनिर्विशेषमशेषजननयनहर्षदायिनं शिखिनम् । अदाच्च तस्मै विस्मयमानमना मानवेश्वरो मनोरथपथातिवति कार्तस्वरादिकम् । व्यहरच्च मनोहरेषु विहारोपवनेषु वनितामारोप्य मयूरयन्चे नरेन्द्रः ।
२१. इत्थं गमयति कालं कामसुखसेवारसेन राजनि राजीव शश्च क्रमादभिवृद्धे गर्भ निर्भरराज्योपभोगनिष्ठः काष्ठाङ्गारोऽप्याकृतिमिव कृतघ्नतायाः साक्षात्कारयन्नयशःशरीरमिवाकल्प
दुष्कृतस्य पापकर्मणः परिपाकन समुदयेन मवतीति तन दुर्निवारण निवारयितुमशक्येन दुःखेन यद्यपि १० वयम् अभिभूयेमहि परिभूता मवेम तदपि कुरुकुलस्य यो निरन्वयविनाशः समृलविस्तस्य परिहाराय,
इयमन्तवली गर्भिणी प्रयत्नेन प्रयत्नपूर्वक परिरक्षणीया परितो रक्षितुं योग्या वर्तत इति योज्यम् । इतीत्यस्य चिन्तामतनुत इत्यनेन संवन्धः । ततश्चेति--ततश्च तदनन्तरं च महीक्षिद्वाजा वितं प्रसिद्धं विश्वशिल्पेयु निखिलकलासु कौशलं नैपुण्यं यस्य तथाभूतं प्रत्यक्षं साक्षात् विश्वकर्माणमिव ब्रह्माणमिव तक्षक
स्थपतिम् आहृय गर्भदोहलेन गर्मकालिकवाग्छया जनितः केलीवने क्रीडावने विहरणमनोरथो बिहाराभिलाषी १५ यस्यास्तां 'मनोरमां प्रिया विनोदयितुम् अभिमतदेशे स्वेष्टस्थाने गमनमेव कौशलं तेन शालते शोमत
इत्येवशीलं कमपि यन्त्रकलापिनं मयूराकृतियन्नं कल्पय रचय, इतरथम् आदिक्षस् आज्ञपयामास । सत्वरं शीघ्र यथा स्थातथा शिलिना स्थपतिना कलितं निर्मितम्, अकल्पितनिर्विशेषमकृत्रिमसदृशं स्वाभाविकमयूरमित्रस्यर्थः अशेषजनानां निखिललोकानां नयनेभ्यो हर्ष ददातीत्येवं शीलस्तं शिखिनं मयूरम् अद्राक्षीच्छ
ददर्श च। विस्मयमानमाश्चर्यचकितं मनो यस्य स एवंभूतो मानवेश्वरः सत्यं धरमहीपालस्तस्मै २० शिल्पिने मनोरथपथमतिवर्तत इत्येवंशीलमभिलाषाभ्यधिक कार्तस्वरादिकं सुवर्णादिकम् अदाच ददौ च ।
नरेन्द्रो मयूरयन्त्रे वनिता विजयाम आरोप्य स्थापयित्वा मनोहरेषु रमणीयेषु विहारोपवनेषु केलीकाननेषु व्यहरच विजहार छ।
६२१. इत्थमिति- इत्थमनेन प्रकारेण राजनि सत्यंधरे कामसुखस्य सेवायो रसः स्नेहस्तेन कालं गमयत्ति, राजीवशश्न कमललोचनाया विजयायाश्च गर्भ दोहदे क्रमात् अभिवृद्धे, सति निर्भरं सातिशयं २५ पुरुषों के द्वारा पुरुषार्थसे रोके नहीं जा सकते । फिर भी यद्यपि हम पापकर्मके उदयसे होने
वाले दुर्निवार दुःखसे अभिभूत हो रहे हैं तथापि कुरुवंशका समूल नाश बचाने के लिए प्रयत्नपूर्वक इस गर्भवती पत्नीकी रक्षा करनी चाहिए। तदनन्तर उसने समस्त विद्याओं में जिसका कौशल प्रसिद्ध था, और जो प्रत्यक्ष विश्वकर्मा-विधाताके समान जान पड़ता था ऐसे बढ़ई
को बुलाकर गर्भकालिक दोहलासे कोड़ाबनमें विहार करनेकी इच्छा रखनेवाली विजया३० रानीको बहलाने के लिए इच्छित देशों में जानेवाले कौशलसे सुशोभित कोई एक मयर यन्त्र
बनाओ"यह आदेश दिया। और शीनतासे युक्त शिल्पी-कारीगरकद्वारा निमित, अनुपम एवं समस्त मनुष्योंके नेत्रोंको हर्ष देनेवाला मयूर देखा। जिसका चित्त आश्चर्यसे युक्त था ऐसे राजा सत्यधरने शिल्पीके लिए उसकी कल्पनासे भी अधिक सुवर्ण आदिक पुरस्कार में
दिया। तदनन्तर राजा उस मयूर यन्त्रपर रानीको बैठाकर मनोहर क्रीडावनों में बिहार करने ३५ लगा-घूमने लगा।
६२१. इस प्रकार जब राजा सत्यंधर कामसुखके उपभोगसे समय व्यतीत कर रहा था और कमलनेत्री रानी विजयाका गर्भ जब क्रमसे वृद्धिको प्राप्त हो रहा था तब सातिशय
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मयूरयन्त्रवर्णनम् ]
प्रथमो लम्भः मवस्थापयन्सज्जनसरणिमिय खिलीकुर्वन्सर्वजननिग्राह्यतामिव प्रतिगृह्णन्प्रकृतिमिब अनच्छतायाः प्रदर्शयन्पृथिवीपताबुचितेतरमुपरचयितुमुपाक्रस्त, प्राक्रस्त च प्रतिदिनमेवं चिन्तयितुम् ।
२२. विहरदश्वीयखुरपुटविघटितवरणीतलोत्थितधारालरजःपटलघटितरिपुमण्डलोत्पातपांसुवर्षेण समरहर्षलमदवदिभकपोलतविर्गालतमदजलदर्शितापरकालिन्दीप्रवाहेण विलसदसिमरीचिजालमेचकितदशदिशामुखेन युद्धोन्मुखसुभटभुजदण्डकुण्डलितकोदण्डविम्बितपितृपतिवक्रकुहरेण ५ भुवनविवरव्यापिना बलेन शशासिरे शत्रवः । आमहेन्द्रमदावलकलभकर्णतालपवनविधूतपादप
राज्यस्योपभोगे निष्टा यस्य सथाभूतः अयं काष्टाङ्गारः, कृतं हन्तीति कृतघ्नस्तस्य भावस्तक्षा तस्या अनुपकारजताया आकृति संस्थानं साक्षात्कारयन्निव प्रत्यक्षं दर्शयनिव, आकल्प कल्पं कल्पकालमभिव्याप्येत्याकल्पम् अयश एव शरीर तदकार्तिकायम् अवस्थापयनिव, सज्जनानां सरणि मार्ग' 'वाम्बा सरणिः पन्या मार्गः प्रचरसंचरी' इति धनञ्जयः । खिलीकुर्वन्निव उपवयशिव, सर्वजनैर्निखिलमानवैर्निग्राह्यतां १० तिरस्कार्यतां प्रतिगृह्णन्निव स्वीकृर्वन्नित, अनच्छताया मलिनतायाः प्रकृति स्वमात्र प्रदर्शयन्निव प्रकटयन्निव, पृथिवीपतो सत्यंधरमहाराज विषयार्थे सप्तमी, उचितेतरमनुचितम् अनुचितम् उपरचयितुं कर्तुम् उपाक्रस्त तत्परोऽभूत् प्रतिदिनम् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण चिन्तयितुं विचारयितुं प्राक्रस्त च समुद्यतोऽभवत् । 'प्रोपाभ्यां समर्थाभ्याम्' इत्युमयनारमनेपदम् ।
२२. विहरदिति--अश्वानां समूहोऽश्वीयं 'कशाश्वाभ्यां यछावन्यतरस्याम्' इति समूहाथै छ. १५ प्रत्ययः । विहरद् यदश्वीयं हयसमूहस्तस्य खुरपुरैः सफपान्तैविघटितं विदारितं यद धरणीतलं पृथ्वीतलं तस्मादुत्थितं धारालं धाराबद्धं यद् रजःपटलं. धूलिसमूहस्तेन घटितं कृतं रिपुमण्डलेषु शत्रुराष्ट्रेषु उत्पातायोपदवार पासुवर्ष धूलिवर्षणं येन तेन । समरेण युद्धेन हर्षला हर्षयुक्का ये मदचन्तो मवस्राविण इमा गजास्तषां कपोलतटेभ्यो गण्डप्रदेशभ्यो विगलितं पतितं यन्मदजलं दानसलिलं तेन दर्शितः प्रकटीकृतोऽपरकालिन्द्या अपरयमुनायाः प्रबाहो येन तेन । विलसता स्फुरता असिमरीचिजालेन कृपाणकिरणकलापेन २० मेचकितानि श्यामलीकृतानि दशदिशामुखानि येन तेन । युद्धोन्मुखाः समरं कर्तुं तत्परा ये सुमटा योधास्तेषां भुजदण्डैः कुण्डलितानि वक्रीकृतानि यानि, कोदण्डानि धषि तैविडम्बित्तं तिरस्कृतं पितृपतेर्यमस्य वक्त्रकुहरं मुखकन्दरं येन तेन । भुवनस्य लोकस्य विवरे व्याप्नोतीत्येवं शीलं तेन । बलेन सैन्येन शत्रवः शासिताः वशीकृता इति यावत् । आ महेन्द्रेति--महेन्द्रस्य देवेन्द्रस्य यो महावलो मत्तमतङ्गज ऐरावण इति यावन् तस्य कलभानां शाधकानां कर्णतालपवनेन कर्णताडपत्रपवनेन विधूताः कम्पित्ता ये पादपा २५ राज्यके उपभोगमें लीन वह काष्टांगार भी जो कि कृतघ्नताकी आकृतिको मानो साक्षात् दिखला रहा था, अपने अपयशरूपी शरीरको कल्पकाल तक स्थिर रखवा रहा था, सज्जनों के मार्गको कण्टकाकीर्ण बना रहा था, समस्त मनुष्योंके तिरस्कारको मानो स्वीकृत कर रहा था और तुच्छताका मानो स्वभाव ही दिखला रहा था "राजाके विषयमें कुछ अनुचित कार्य करनेके लिए उद्यत हुआ। तथा प्रतिदिन ऐसा विचार करने लगा
६२२. कि अहो ! घूमनेवाले अश्व समूहकी टापोंसे खुदी पृथिवी तलसे उठी पंक्तिबद्ध धूलिके पटलसे जिसने शत्रुओंके देशमें उत्सातसूचक धूलिकी वर्षा करना शुरू की है, युद्धसे हर्पिन मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थलसे झरते हए मद जलसे जिसने दसरी यमुनाका प्रवाह दिखलाया है, चमकती हुई तलवारोंकी किरणोंसे जिसने दशों दिशाओंके अप्रभागको श्यामल कर रखा है, युद्धके लिए उद्यत योद्धाओंके भुजदण्डोंमें स्थित कुण्डलाकार धनुषोंसे जिसने ३५ यमराजके मुख-कन्दराका अनुकरण रस्त्रा है, और जो संसार के मध्यको व्याप्त करनेवाली है, ऐसी सेनासे शत्रु नष्ट हो चुके हैं। इन्द्र के मदोन्मत्त ऐरावत हाथीके कानरूपी तालपत्रोंकी
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गबचिन्तामणिः
[२२ काठांगारस्य कुसुमधूलिधसरितपरिसरवनादुदयगिरे राखेलद्वरुणरमणीचरणन्यासमिलदविरलयावकपल्लवितप्रस्तरादस्तगिरेगशल राजदुहित करनखलूनपल्लवभरकृतावनोरुह शिखरोल्लासात्कैला सादानिशिचरकुलप्रलयधूमकेतोः सेतोरवनतमकुटमणितटलुठितैर्माणियमहःपल्लवैरर्चयन्ति नश्चरणी धरणीभुजः । एवं फलितसकलमनोरथस्य सर्वोर्वीपालमौलिविनिवेशित'चरणस्य शौर्यशालिनो मादृशस्य परनिदेशकरणमयशःकारणम्। नहि चेतयमाना मानिनः परशासनं शिरसा धारयन्तो वहन्ति जीवितम् । सकल भुवनाधिपत्योपभोगसुखितमपि दुःखयति हि पारतन्त्र्यम् । तत्केनापि व्याजेन व्यापाद्य राजानं व्यपगतपारत, यशोकशङ्कनिःशङ्क एव महीं गदेकशासनां विधास्यामि' इति । महीनहारतेषां कुममानां पुष्पाणां धूल्या परितं मलिनं परिसरं वनं तटारण्यं यस्य तस्मात उदयगिरेः
पूर्वाचलातू आ इति मर्यादायाम्। आ खेलदिति--खेलत्यो या बारमण्यः पाशिपुरन्ध्र यस्तासां १० चरणन्यासेन पावनिक्षेपण मिलद् यद् अविरलयाक्कं निरन्तरालक्तकं तेन पल्लविताः किसलयबदरुणवर्णी
कृताः प्रस्तरा पस्मिन् स तस्मात् अस्तगिरेः अस्ताचलात आ। आ झलेति-शैलराजस्य हिमालयस्य या दुहिता पुत्री पार्वतीत्यर्थस्तस्याः करनखैहस्तनखरैटूनश्किन्नो यः पल्लवमरः किसलयसमूहस्तेन कृतो विहितोऽवनीरुह शिखराणा वृक्षाग्रभागानामुल्लास उसामो यस्मिन् तस्मात् कैलासात् हरावलात् श्रा।
आ निशिचरेति-निशिनराणां राक्षसाणां कुलस्य प्रलयो विनाशस्तस्मै धूमकेतुस्तस्मात् सेतोदक्षिणार्णव१५ पुलिनात आ। धरणीभुजो राजानः अवनतेभ्यो नम्रीभूतेभ्यो मुकुटमणितरेभ्यो मौलिमणिमयप्रान्तेभ्यो लुठिसै
रधःपतितैः माणिक्यमहःपल्लवमणितेजःकिसलयः । नोऽस्माकं चरणी अर्चयन्ति पूजयन्ति । एवमितिएवमनेन प्रकारेण फलिताः सफलीभूताः सकलमनोरथा . यस्य तस्य। सवों पकानां निखिलराजानां मौलिगु मुकटेषु विनिवेशिताः स्थापिताश्चरणा यस्य तस्य । शार्यशालिनः पराकमेण शोममानस्य
माशस्य मत्सदृशजनस्य परनिदेशकरणं पराज्ञासंपादनम् अयशःकारणमकीर्तिनिदानम् । अस्तीति शेषः । २० हि यतः चेतयमानाश्चेतनशीला मानिनः परशासन परकीयनिदेश शिरसा मूर्ना धारयन्तो जीवितं न
वहन्ति । सकलभुवनस्य निखिलजगतो यदाधिपत्यं स्वामित्वं तस्योपमोमेन सुखितमपि पारसन्यं परायत्तजीवनं हि निश्चग्रेन दुःखयति दुःखं करोति । तत्तस्मास्कारणात, केनापि ग्याजेन राजानं सत्यंधरमहोपालं व्यापाय मारथित्वा व्यपगतो दूरीभूतः पारसन्यशोकशङ्कः परायत्तत्वशोककीलो यस्य तथाभूतः सन् मही ममैकं शासनं यस्यां तथाभूतां विधास्यामि करिष्यामि । इति ।
२५ वायुसे कम्पित वृक्षोंकी पुष्पसम्बन्धी परागसे जिसके निकटवर्ती वन धूसरित हो रहे हैं ऐसे
उदयाचलसे, खेलती हुई वरुणकी स्त्रियोंके चरण निक्षेपसे प्राप्त महावरके अविरल रंगसे जिसके पाषाण लाल-लाल पल्लवोंसे युक्त हो रहे हैं, ऐसे अस्ताचलसे, पार्वतीके हाथके नाखूनोंसे तोड़े हुए पल्लवोंके भारसे जिसके वृक्षोंके शिखर ऊपरकी ओर उठ रहे हैं ऐसे कैलास पर्वत से, और
रावण के वंशको नष्ट करने के लिए प्रलयकालीन अग्निके समान सेतुबन्धसे लेकर आये हुए ३. राजा, नम्रीभूत मुकुटोंके मणिमय तटोंमें लौटनेवाले माणिक्योंके तेजरूप पल्लबोंसे हमारे
चरणोंकी पजा करते हैं । इस प्रकार जिसके समस्त मनोरथ फलीभत हो रहे हैं. समस्त राजाओंके मुकुटांपर जिसके चरण स्थित हैं, एवं जो पराक्रमसे सुशोभित है, ऐसे मेरे लिए दूसरेकी आज्ञापालन करना अपयशका कारण है । वास्तवमें चेतनाशील मानी मनुष्य सिरसे दूसरे की आज्ञाको धारण करते हुए जीवित नहीं रहते । मेरी बात जाने दो, जो समस्त संसारके स्वामित्वके उपभोगसे सुखी हो रहा है उसे भी परतन्त्रता दुःखी करती है। इसलिए किसी वहाने राजाको मारकर परतन्त्रताजन्य शोकरूपी कोलके निकल जानेसे निःशंक होकर ही मैं पृथिवीको एक अपने ही शासनसे युक्त करूँगा।
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- काष्टाङ्गारवैभववर्णनम् ]
प्रथमाः २३. इत्थमनुवर्तमानमनोरथम्, कदाचित्कनकगिरिशिलातलविशालस्य विमलदुकूलवितानविराजिनः प्रलम्बमानकदलिकाकलापस्य काञ्चनशिलास्तम्भशुम्भतो महतो मण्डपस्य मध्यभागनिवेशिनि निष्टप्ताष्ट्रापदनिर्मितवपुषि विचित्रास्तरणशोभिनि सिंहासने समासोनम्, पृष्टतः स्थापितेन राजलक्ष्मीनिवासपुण्डरोकपाण्डुरेण धवलातपत्रेण तिलक्रितमूर्धानम्, उभयतः स्थिताभिरनुक्षणरणितमणिपारिहार्यमुखरबाहुलतिकाभिरिवामनयनाभिः सदिलासविध्यमानबिमल- ५ चामरमरुदान्दोलितकुसुमदामसुरभितवक्षःस्थलम्, मूर्तिमन्तमिव शोर्यगुणम्, विग्रहवन्तमिवावलेपम्, आत्मदेहप्रभाकवचितकाष्ठं काठाङ्गार परिवार्य प्रकटितप्रश्रयाः समन्तादासिषत सामन्ताः ।
२४. अथ तानालोक्य कपटकर्मपटिष्ठः काष्टाङ्गार: स्वहृदयविपरिवर्तमानार्थसमर्थनः
६२३, इत्थमिति-इत्थमनेन प्रकारेण अनुवर्तमाना भूयो भूयो भवन्तो मनोरथा यस्य तम् । कदाचिजातचित् कनकगिरेः स्वर्णाचलस्य शिलातल वद्विशालस्तस्य, विमलदुकूलस्य निर्मलवुकूलवस्त्रस्य १० वितानेन चन्द्रोपकेन विराजिनः शोभिना, प्रलम्बमानः कदलिकाकलापो ध्वजसमूहो यस्मिन् तस्य, काञ्चनशिलास्तम्भः स्वर्णशिलास्तम्भैः शुम्भतः शोभमानस्य महतो मण्डपस्य मध्यमागे निविशत इत्येवंशीलस्तस्मिन् मध्यस्थित इत्यर्थः, निष्टतं संतप्तं यदष्टापदं स्वर्ण तेन निर्मितं वपुर्यस्य तस्मिन् , विचित्रेण विविधवर्णेन भास्तरणेन शोभत इत्येवंशीलं तस्मिन् सिंहासने समासीनं स्थितम् | पृष्टतः पश्चात् स्थापितेन राजलक्ष्म्या निवासभूतं यत्पुण्डरीकं तद्वन् पाण्डुरं पाण्डवणं तेन धवलातपत्रेण श्वेतरछत्रेण तिलकितो १५ मूर्धा यस्य सम् । उभयतः स्थिताभिः, अनुक्षणं प्रतिसमयं रणितैः शब्दायमानैः पारिहाराभूषणमुखराः शब्दायमाना बाहुलतिका भुजवल्लयों यास ताभिः वारवामनयनाभिर्वश्याभिः सविलासं यथा स्यात्तथा विधूयमानयोः प्रकीर्यमाणयोर्विमल चामरयोनिमलबालन्यजनयोमरुता पवनेनान्दोलितं कम्पितं यस्कुसुमदाम पुप्पत्रक तेन सुरभित सुगन्धितं वक्षःस्थलं यस्य तम् , मूर्तिमन्तं शौयगुणमिव पराक्रमगुणमिव, विग्रहवन्तं शरीरधारिणमवलेपमिव गर्वमिय, भास्मदेहस्य स्वकीयशरीरस्य प्रभया कवचिता च्याप्ताः काध दिशो २० येन तम्, एवंभूतं काष्ठाकारं परिवार्य परिचेष्टय प्रकटितः प्रदर्शितः प्रश्रयो विनयो यैस्ते तथाभूता सामन्ता मण्डलेश्वराः समन्तात्परितः आसिषत स्थिता अभूवन् ।
६२. अथेति-अथानन्तरं तान् सामन्तान् आलोक्य कपटकर्मणि मायाकर्मणि पटिष्टश्चतुरतरः काष्ठाझार एतनामसचिवः स्वहृदये स्वकीयचेतसि विपरिवर्तमानो योऽर्थस्तस्य समर्थ ने चतुरं किमपि वचन
हु २३. इस प्रकारके मनोरथ रखनेवाला काष्टांगार किसी समय सुमेरु पर्वतके २५ शिलात लके समान विशाल, निर्मल रेशमी चदोवेसे सुशोभित, लटकती हुई ध्वजाओंके समूहसे युक्त, और स्वर्णमय शिलाके खम्भोंसे शोभायमान बड़े भारी मण्डपके मध्यभागमें स्थित, तपाये हुए स्वर्ण से निर्मित एवं रंग-बिरंगे बिस्तरसे सुशोभित सिंहासनपर बैठा था। पीछेकी ओर रखे हुए राजलक्ष्मीवे. निवासभूत कमलके समान सफेद छत्रसे उसका मस्तक सुशोभित था। दोनों ओर खड़ी एवं क्षण-क्षणमें खनकते हुए मणिमय आभूषणोंसे शब्दाय- ३० मान सुजलताओंकी धारक वेश्याओंके द्वारा विलासपूर्वक ढोरे हुए निर्मल चमरोंको वायुसे हिलती फूलोंकी मालाओंसे उसका वक्षःस्थल सुगन्धित हो रहा था। वह ऐसा जान पड़ता था मानो मूर्निधारी पराक्रमरूप गुण ही हो अथवा शरीरधारी अहंकार ही हो। अपने शरीरको कान्तिसे उसने दिशाओंको व्याप्त कर रखा था। विनयको प्रकट करनेवाले सामन्त गण उसे घेरकर चारों ओर बैठे हुए थे।
३५ २४. तदनन्तर उन सामन्तोंको देख कपट कार्य में निपुण काष्टांगार अपने हृदयमें १ का स्व. ग. पाण्डरेण ।
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गधचिन्तामणिः
[२५ कामागारेण -
चतुरं किमपि वचनमचीकथत्-'किमपि विविक्षतामेव नः क्षीणतामयासिषुरनेके दिवसाः । अद्यापि लज्जमानमिव मानसमन्तराकर्षति रसनाम् । परिवादपविपतनभोतेव गलकुहरान्न निःसरति सरस्वती। पातकपङ्कपतनातङ्कादिव कम्पते कायः 1 किमेतत्स्वन्तं दुरन्तं वेति स्वान्तं न मञ्चति चिन्ता। तदपि देवादेशलवनभयोत्खातशङ्काशङकुनिरङ्कुशेन मनसा समावेद्यते । स्वप्ने केनापि पार्थिवपरिपन्थिना देवतेन 'निहत्य राजानमात्मानं रक्ष" इति निरनुकोशेन समावेद्यते । कात्र प्रतिक्रिया ? किं वात्र प्रयुज्यते ? यदिहास्माभिविधीयेत तदभिधीयताम् ।' इति पापिष्ठेन काष्ठागारवचनेन कुपितकण्ठोरवकण्ठनिःसृतेन स्वनेन बनकरिण इव कांदिशीकाः, निष्कृपनिषादनिर्दयाकृष्टिनिष्ठयूतेन चापटङ्कारेण रङ्का इव धृतातङ्काः, प्रमादप्रवृत्तेन प्राणिमचीकथत् कथयामास । 'कथ वाक्यप्रवन्धे' इत्यस्याग्लोपिरवादीघसम्वद्रावाभावे 'अचीकथत्' इतिप्रयोगोऽपाणिनीयः। तत्सम्मतं सु 'अचकथत्' इति रूपम् । किमपि विद्यक्षतामेव वस्तुमिच्छसामेव नोऽस्माकम् अनेके दिवसाः क्षीणतां नश्वरताम् अयासिपुः प्रापुः । वक्तुमिच्छतामेव नोऽनेके दिवसा ध्यतीला इति भावः । अद्यापि सांप्रतमपि लजमान मित्र त्रपमाणमिव मानसं हृदयं रसना जिह्वाम् अन्तः अभ्यन्तरम् आकर्षति । सरस्वती वाणी परिवाद एव पविस्तस्य पतनं तस्माद् भीतेव लोकनिन्दावज्रपतनअस्तेव गलकुहरात्कण्ठकन्दरात् न निःसरति न बहिनिंगच्छति । पातकं पायमेव पङ्कः कर्दमस्तस्मिन् पसनं तस्यातङ्को भयं तस्मादिव कायः कम्पते । किमेतत् स्वन्तं सुखान्तं दुरन्तं दुःखान्तं वा, इति चिन्ता स्वान्तं चित्तं न मुञ्चति । तदपि तथापि देवादेशस्य लखनाद् यद्भयं तेनोखासो यः शङ्काशङ्कस्तेन निरङ्कशं तेन एवंभूतेन मनसा समावेद्यते कथ्यते । 'स्वप्ने पार्थिवपरिपन्थिना नृपतिविरोधिना केनापि देवतेन देवेन राजानं निहत्य मारयित्वा आत्मानं रक्ष' इति निरनुक्रोशेन निर्दन सता समावेद्यते कथ्यते । अन्न का प्रतिक्रिया प्रतिकारः किं धात्र प्रयुज्यते प्रयोगः क्रियते । इह विषये अस्माभिर्यद विधीयेत क्रियेत तद् अभिधीयतां कथ्यताम्' इति पापिष्टेन पापतमेन काष्ठाकारचषनेन कुपितश्चासौ कण्ठीरवश्चेति कुपितकण्ठीरवः कुखुमृगराजस्तस्य कण्ठात् निःसृतस्तेन स्वनेन शब्देन 'शब्दो निनादी निनदो ध्वनिध्यानरचस्वनाः' इत्यमरः । वनकरिण हव काननद्विरदा इव कांदिशीका मीताः, निष्कृपनिषादेन निदयकिरातेन या निर्दयाकृष्टिस्तया निष्ट यूतः प्रकटितस्तेन चापटङ्कारेण कोदण्डशब्देन रक्का इव दीना इथ तातङ्का भूतभयाः,
चलते हुए अर्थ के समर्थन करने में चतुर कुछ वचन बोला। वह कहने लगा कि कुछ कहनेकी २५ इच्छा रखते हुए ही हमारे अनेक दिन बीत गये | आज भी लजित होते हुएके समान
हृदय भीतर ही भीतर जिह्वाको स्वींच रहा है। अपवादरूपी वनके पतनसे भयभीत हुई. की तरह वाणी कण्ठरूप कन्दरासे बाहर नहीं निकल रही है। पापरूप पंकमें गिरनेके भयसे ही मानो शरीर काँप रहा है। इसका परिणाम अच्छा होगा या बुग' यह चिन्ता
चित्तको नहीं छोड़ रही है। फिर भी दैवकी आज्ञाके उल्लंघनके भयसे शंकारूपी कीलके ३० उखड़ जानेसे निःशंक चित्तके द्वारा कुछ कहा जा रहा है। 'राजाका विरोधी कोई निर्दय
देवता स्वप्नमें प्रतिदिन कहता है कि राजाको मारकर अपनी रक्षा करो। मैं आप लोगोंसे जानना चाहता हूँ कि 'इसका क्या प्रतिकार है ? इस स्थिति में क्या किया जाना चाहिए ? यहाँ हमारे द्वारा जो कुछ किया जा सकता हो वह कहिए।' इस प्रकार अत्यन्त पापपूर्ण
काष्ठांगारके वचनोंसे मन्त्रीगण तत्काल उस तरह भयभीत हो उठे, जिस तरह कि क्रुद्ध सिंह30 के कण्ठसे निकले हादसे भागते हए जंगली हाथी भयभीत हो सठते हैं अथवा निर्दय भोलके द्वारा निर्दयतापूर्वक खींचकर छोड़ी हुई धनुषकी टंकारसे जिस प्रकार दीन मृग आतंकित
१. क. स्त्र० म० रक्षेत्।
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-राजधव प्रस्तावः ]
प्रथमो लम्भः
वधेन तपोधना इव सद्यःसंजातभयाः, सर्वकषशोकपावकपच्यमानतनवः, संतापकृशानुधूमिब श्यामलिमानमाननेन दर्शयन्तः, पातालतलप्रवेशाय दातुमवकाशमचंयन्त इव विकचकमलदल निचयेन मेदिनोमवनमितदशः, प्रसृमरनिःश्वासनिर्भरोष्णमर्मरिताधराः, करनखरशिखरविलिखितास्थानभूमय: स्वान्तचिन्त्यमाननरपतिदुश्चरितदूयमानाः दुःखभरभज्यमानमनोवृत्तयः कर्तव्यमपरमपश्यन्तः पश्यन्तश्च परस्परमुखानि, मुकोभावेन दशितदुरवस्थमवास्थिषत मन्त्रिणः । ५
२५. ततस्तूष्णोभावविवृतविसंबादेषु स्वेदसलिलनिवेदितवेदनानुबन्धेधु' चित्रगतेष्विव निष्कम्पनिखिलाङ्गेषु मन्त्रप्रभावनिरुद्धवीर्येष्विव विषधरेषु विगतप्रतीकारतया हूत्कुर्वाणेषु सचिप्रमादेन प्रवृत्तस्तेन प्राणिवधेन तपोधना इव संयता इव सद्यः संजातं भयं येषां ते समुत्पसमीतिकाः सर्वकपेण शोकपाबकेन शोकाग्निना पध्यमाना तनुयषां ते, आननेन मुखेन संताप एव कृशानुतिस्तस्य धूममिव श्यामलिमान मालिन्यं दर्शयन्तः, पातालस्य तले प्रवेशस्तस्मै अवकाशं दातुं विकचकमलदलानां १० निचयः समूहस्तेन मेदिनी पृथिवीम् अर्चयन्तः पूजयन्त इव अवनमिता दशो येषां ते नीचैः पतितनेत्राः, प्रसृमराः प्रसरणशीला ये निःश्वासास्तै निर्भरमत्यन्समुष्णा ममरिता शुष्काश्चाधरा दशनच्छदा येषां तथाभूताः, करनसराणां हस्तनरखाना शिखरेण विलिखिताः खण्डिता आस्थामभूमिः समाभमिर्यस्ते तथाभूताः, स्वान्से चेतसि चिन्त्यमानं विचार्यमाणं यत् नरपतेश्वरितं तेन दूयमानाः परितप्यमानाः, दुःखभरेण भज्यमाना मनोवृत्सिर्वेषां ते, अपरमन्यत् कर्तव्यमपश्यन्तः करणीयोपायमनवलोकयन्तः परस्पर- १५ मुखानि मिधोवदनानि पश्यन्तश्च विलोकमानाच मन्त्रिणः सचिवा मूकीमावेन तूष्णींभावेन दर्शिता दुरवस्था यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा अयास्थिषत अवस्थिता अभूवन् ।
२५. तत इति-ततस्तदनन्तरं तूणीभावेन मोनमुद्रया विवृतः प्रकटिसो विसंवादो येस्तेषु, स्वेदसलिलेन प्रस्वेदजलेन निवेदितः सुचितो वेदनानुबन्धः पीडासंबन्यो येषां तेषु, चित्रगतेष्विवालेण्यलिखितेष्विव निष्कम्पानि निखिलानि अङ्गानि येषां तेषु निश्चलाखिलादयवेयु, मन्त्रस्य प्रभावेण निरुद्धं २० प्रतिहतं वीर्य शक्तियेषां तेव विषधरेष्विव नागचिव विगतप्रतीकारतया प्रतिकारहितत्वेन सचिवेप मन्त्रिषु हत्कुर्वाणेषु हूदिति शब्दं कुर्वाणेषु सत्सु धर्म एकताना बुद्धियंस्य तथामूतो धर्मदत्तो नामामात्यहो जाते हैं। जिस प्रकार प्रमादसे हुए प्राणि बधके कारण तपस्वीजन तत्काल भययुक्त हो जाते हैं। सबको नष्ट करनेवाली झोकरूपी अग्निसे उनका शरीर पकने लगा और सन्तापरूपी अग्निके धुआँ के समान वे मुखसे कालिमा दिखलाने लगे। सबकी दृष्टि नीचे की ओर हो २५ गयी, और उससे वे ऐसे जान पड़ने लगे मानो पाताल तलमें प्रवेश करनेके लिए अवकाश देनेके अर्थ वे खिले हुए कमलदलके समूहसे पृथिवीकी पूजा ही कर रहे थे। फैलते हुए स्वासोच्छ्वासको अत्यधिक उष्णतासे उनके ओठ सूख गये थे, हाथके नाखूनोंके अग्रभागसे वे सभाको भूमिको कुरेद रहे थे, हृदयमें विचारे हुए राजाके दुश्चरित्रसे अत्यन्त दुःखी हो रहे थे, दुःखके भारसे उनकी मनोवृत्ति टूट रही थी और दूसरे कर्तव्यको वे नहीं देख पा रहे ३० थे, अतः परस्पर एक दूसरेका मुख देखते हुए चुपचाप अपनी दुःखपूर्ण अवस्थाको दिखाते हुए
बैठे रहे।
१ २५. तदनन्तर मौन भावसे जिन्होंने विरोध प्रकट किया था, पसीनारूपी जलसे जो वेदनाकी सन्ततिको प्रकट कर रहे थे, चित्रलिखितके समान जिनके समस्त अंग विमल थे और मन्त्रके प्रभावसे जिनकी शक्ति रुक गयी है, ऐसे सर्पोके समान जो प्रतिकार न होने. ३५ के कारण मात्र हू-हू शब्द कर रहे थे ऐसे मन्त्रियोंमें एक धर्मदत्त नामका प्रमुख मन्त्री था।
१. क० ख० ग. 'दल'पदं नास्ति । २. क० ख० ग० स्वेदसलिलनिवेदनानुबन्धेषु ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ २५ - १६ मन्त्रिधर्मदत्तेन -
वेषु धर्मदत्तो नाम धर्मैकतानबुद्धिरमात्यमुख्यः प्रज्ञाप्रदीप दृष्टकाष्ठाङ्गा र हृदयगतार्थोऽपि पार्थिव'पक्षपातादनपेक्षितप्राणः सधीरमभाणीत्
$ २६. आयुष्मन्, नैकदोषतिमिरविहरणरजनीमुखं राजद्रोहं दौरात्म्यादुपदिशति दैवते - ऽस्मिनाकस्मिकः कोऽयमादरः ? पश्य विश्वम्भरापतयो ह्यतिशयितविश्वदेवताशक्तयः । तथाहि५ 'यस्त्वपकरोति देवताभ्यः स पुनः परत्र विपद्येत वा न वा । मनसापि वैपरीत्यं राजनि चिकीर्षतां चिन्तासमसमयभाषिकी विपदिति नेताश्वर्यम् । यदकपद एवं सह सकलसंपदा संपनीपद्यते प्रलयः स्वकुलस्यापि । परत्रापि पापीयसस्तस्याधोगतिरपि भवितेति शंसन्ति शास्त्राणि । तद्विवेकविधुरजनगतागतक्षुण्णमयशः पङ्कपटल पिच्छिलमभितः प्रसरदपाय कण्टक कोटिसंकटमशेष जन विद्वेषविषधर
मुख्यः प्रजैव प्रदीपः प्रज्ञाप्रदीपस्तेन दृष्टः काष्टाङ्गार हृदयगतोऽर्यो येन तथाभूतोऽपि सन् पार्थिवः १० सत्यंधरो महाराजस्तस्य पक्षे पातस्तस्मात् अनपेक्षिताः प्राणा येन तारक सन् सधैर्यं यथा स्यात्तथा अभाणीत् कथयामास ----
६ २६. आयुष्मन्निति — हे आयुष्मन् हे दीर्घायुष्क । नैकदोषा एवं तिमिरं तस्य विहरणाय भ्रमणाय रजनीमुखं प्रदोषः रात्रिप्रारम्भमात्र इति यावत् । इत्थंभूतं राजद्रोहं दौरात्म्यात् दुष्टत्तया उपदिशति कथयति अस्मिन् दैवतेऽस्मिन् देवे कोऽयम् आकस्मिकः सहसोद्भूत आदरः सरकारः १ पश्य, १५ विश्वंभरापतयो राजानो हि अतिशयिता अतिक्रान्ता विश्वदेवतानां शक्तिस्ते तथाभूताः सन्तीति शेषः । तथाहीति - तथाहि शब्देन तदेव स्पष्टीकरोति । यो जनो देवताभ्यः देवेभ्यः स्वार्थे तल अपकरोति स पुनः पत्र परलोके विपद्येत विपन्नो भवेत् न वा भवेत्, किन्तु मनसापि चेतसापि राजनि वैपरीत्यं विपरीतभावं चिकीर्षतां कर्तुमिच्छतां जनानां विपद् चिन्ताया: समसमये भवतीत्येवं शीलेत्येतदाश्चर्यं विस्मयस्थानं न । यद् यस्मात् एकपद एव युगपदेव सकलसंपदा निखिलसम्पत्त्या सह स्वकुलस्यापि प्रलयो विनाशः संपनी२० पत्रे संपन्नो भवति परत्रापि परभबेऽपि तस्य पापीयसः प्रचुरपापस्याधोगतिः श्वाश्रीगतिर्भवितेति शास्त्राण्यपि शंसन्ति कथयन्ति । तद्विवेकेति तत् तस्मात्कारणात् विवेकेनं हिताहितबोधेन विधुरा रहिता थे जनास्तेषां गतागताभ्यां क्षुपणं मर्दितम् अयशोऽपकीर्तिरेव पक्कपटलं कर्दमसमूहस्तेन पिच्छिलं विजिलं छलपातकारणमिति यावत् 'स्यापिच्छिलं तु विर्जिलम्' इत्यमरः, अभितः तटद्वये प्रसरतो येऽपायकण्टका
उसकी बुद्धि धर्म में ही संलग्न रहती थी। वह यद्यपि प्रज्ञारूपी दीपक के द्वारा काष्टांगार के २५ हृदयगत पदार्थको देख चुका था तथापि राजा सत्यन्धरके पक्षपात से अपने प्राणोंकी परवाह न कर धीरता के साथ बोला-
६ २६. आयुष्मन् ! दुर्भावनासे अनेक दोषरूपी अन्धकारके विहारके लिए रात्रिके प्रारम्भ भागके समान राजद्रोहका उपदेश देनेवाले इस दैवपर यह आपका कौन-सा अकस्मात् प्रकट होनेवाला अत्यन्त आदर है ? देखिए, राजा लोग समस्त देवताओंकी शक्तिको ३० अतिक्रारत करनेवाले होते हैं। बात स्पष्ट हैं क्योंकि जो देवताओंका अपकार करता है, वह
परभव में विपत्तिको प्राप्त होता भी है और नहीं भी होता, परन्तु जो राजाके विषय में मनसे भी विपरीत चेष्टा करना चाहते हैं उनपर चिन्ता के समय ही विपत्ति आ टूटती है यह आश्चर्य की बात नहीं । समस्त सम्पत्ति के साथ-साथ राजद्रोही मनुष्यके अपने कुलका भी संहार एक साथ हो जाता है। यह तो इस लोककी बात रही, परन्तु परलोक में उस पापीकी ३५ अधोगति होती हैं ऐसा शास्त्र सूचित करते हैं। इसलिए अविवेकी मनुष्यों के यातायातसे जो ख़ुदा हुआ है, अपयशरूपो कीचड़ के समूह से गीला है, जो दोनों ओर फैलते हुए दुःखरूपी
१. क० ख० म० पार्थिवपक्ष' पदं नास्ति ।
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- अनौचित्य प्रदर्शनम् ]
प्रथमो लम्मः विहारभोषणमपर्यवसायिपरिवादपर्यायदावपावकपरीत पार्थिवविरुद्धमध्वानं सुधियः के नाम वगाहन्ते । प्रकृतिमूढमतयः प्रेक्षाविहीना हि मुञ्चन्तः सौजन्यं संचिन्वन्तः सर्वदोषानुत्सारवन्तः कोत्तिमुररीकुर्वाणा अवर्णवादं विनाशयन्तः कृतं व्याक्रोशयन्तः कृतघ्नतां परिहृत्य प्रभुतामनुप्रविश्य बालिश्यमनारोप्य गरिमाणमारोप्य लघिमानमनर्थमप्य भ्युदयममङ्गलमपि कल्याणमकृत्यमपि कृत्यमाकलयन्ति । भवादृशां पुनरोदृशेषु विषयेषु कः प्रसंगः' इति । पृथिवीपतिसङ्गपिशुनं धर्मदत्तवचनं ५ काष्ठाङ्गारस्य मदपरिणतवारणस्येव निवारणार्थ निष्ठुरनिशितसृणिपतनं परवादिवर्गस्येव 'निसर्गनिर्दोषानेकान्तसमर्थन प्रकृष्टकुलजातस्येव प्रमादसंभवदनिवार्यात्मस्खलितमरुदमभूत् । दुःखशूलास्तेषां कोट्या संकटं व्याप्तम् , अशेष जनानां निखिललोकानां विद्वेषा एव विषधराः सस्तियां विहारेण भीषणं भयङ्करम् , अपर्यवसायिनोऽनन्ताः परिवादा निन्दा एव पर्याया येषां तथाभूता दारपावका वनानलास्तैः परीतं व्याप्त पार्थिवविस्तृ पतिप्रतिकूल अध्वानं मार्ग के नाम सधिया विद्वान्सो १० वगाहन्ते प्रविशन्ति, अपि तु न केपीत्यर्थः। प्रकृतिमूटेति-प्रकृत्या निसर्गेण मूढा मतियेषां ते स्वभावमूर्खाः प्रेक्षाविहीना विमर्शशक्तिशून्या हि जनाः, सौजन्यं सजनता मुञ्चन्तस्त्यजन्तः, सर्वदोषान् निखिलावगुणान् संचिन्वन्तः संगृहन्तः, कीर्ति यशः उत्सारयन्तो दूर'कुर्वन्तः, अवर्णवादं निन्दाम् उररीकुर्वागाः स्वीकुर्वाणा, कृतं विनाशयन्तोऽमन्यमानाः कृतघ्नतामनुपकारशताम् व्याक्रोशयन्त उरचैःस्वरेण घोषयन्तः, प्रभुतां परिहत्य परित्यज्य, बालिग मौर्यम् अनावर रोहय, गरिमाणं गौरवम् अनारोप्या- १५ . धृत्वा, लधिमानं क्षुद्रताम् आरोप्य भूत्वा, अनर्थमप्यनिष्टमपि अभ्युदयं वैभवम् , भमङ्गलमपि कल्याण मङ्गलरूपं, अकृत्यमपि अकरणीयमपि कृत्यं करणीये भाकलयन्ति मन्यन्ते । भवाशां लोकोत्तरवैदुप्पशालिनां पुनः ईदृशेषु मूर्खाभिमतेषु विषयु का प्रसङ्गः काऽसक्किः इति । पृथिवीपतीति-पृथिवीपतिः । सत्यंधरमहाराजस्तस्य संगस्य संपर्कस्य पिशुनं सूचकं धर्मदत्तवचनं धर्मदत्तसचिवशासनं काठाङ्गारस्य कृतघ्नस्य मदपरिणतवारणस्य मदनाविमतङ्गजस्य निवारणार्थ दूरीकरणार्थ निष्ठुरनिशितसृणिपतनं २० अतितीक्ष्णाकुश पतनमिव, परवादिवर्गस्य परवादिसमूहस्य निसर्गेण स्वभावेन निर्दोषो योऽनेकान्तस्तस्य समर्थनमिव, प्रकृष्टकुलजातस्य श्रेष्ठवंशोस्पन्नस्य प्रमादेनानवधानतया संभवद् यद् अनिवार्यभात्मस्वलितं तदिव भरुन्तुदं मर्मव्यथकम् भभूद। करोड़ों कण्टकोंसे संकीर्ण है, समस्त मनुष्यों के विद्वेषरूपी साँपोंके संचारसे भयंकर है और अनन्त निन्दारूपी दावानलसे व्याप्त है, ऐसे राजविरुद्ध मार्ग में कौन बुद्धिमान् मनुष्य प्रवेश २५ करते हैं ? जो मनुष्य स्वभावसे ही मुर्ख अथवा विचारहीन हैं, वे ही सौजन्यको छोड़ते हुए, समस्त दोषों का संग्रह करते हुए, कीर्तिको दूर हटाते हुए, अपकीर्तिको स्वीकार करते हुए, किये हुए कार्यको नष्ट करते हुए, कृतघ्नताको चिल्लाते हुए, प्रभुताको छोड़कर, मूर्खताको अपनाकर, गौरवको दूरकर, लघुताको चढ़ाकर, अनर्थको भी अभ्युदय, अमंगलको भी मंगल और अकृत्यको कृत्य ---अकायको कार्य समझते हैं। आप जैसे लागोंका ऐसे विषयों में क्या ३० पड़ना है ?' इस प्रकार राजाकी संगतिको सूचित करनेवाला धर्मदत्तका कथन काष्ठांगारको उस प्रकार पोड़ा पहुँचानेवाला हुआ जिस प्रकार कि मदोन्मत्त हाथीको रोकने के लिए प्रवृत्त अत्यन्त तीक्ष्ण अंकुशका पतन, परवादियोंके समूह के लिए जिस प्रकार स्वभावसे ही निर्दोष अनेकान्त मतका समर्थन और उत्कृष्ट कुल में उत्पन्न मनुष्य के लिए प्रमादसे होनेवाला अपना अनिवार्य स्वेच्छाचार पीड़ा पहुँचानेवाला होता है ।
१.क० ख० ग. नावगाहन्ते । २. क० ख० ग० अपि पदं नास्ति । ३. क० ख० ग० पुनरीदृशविषयेषु 1 ४. क० ख० ग० निसर्गपदं नास्ति ।
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गयचिन्तामणिः
[२८ सत्यंघरप्रति
२७. तद्वचचनमधिक्षिप्य क्षेपीयः क्षितितलादुत्तिष्ठन्काष्ठाङ्गारस्य श्याल: सालप्रांशुकायः कन्द इव हेयतायाः काष्ठेव काठिन्यस्य काक्षितकाश्यपीपतिनिधनो मथन: 'कथयन्तु कामं काका इव वराकाः । न कदाचिदपि देवेन देवतादेशलपिना भवितव्यम् । भवितव्यताबलं तु
पश्चात्पश्येम । किं च किंकराः खलु नरा देवतानाम् । यदिह देवता: परिभूयन्ते नरापचारचा५ कित्येन सोऽयं पाशदर्शनभयपलायितस्य फणिनि पदन्यासः, करिकलभभीतस्य कण्ठीरवकण्ठारोहः
इति रोषपुरुषमभाषिष्ट । तद्वचनं तु तस्य हृदयं तस्करस्येव कर्णीसुतमतप्रदर्शनं सौगतस्येव शून्यबादस्थापनं परिणतकरिण इवाधोरणानुगुण्यमतितरां प्रीणयामास ।
२८. ततः समोहितसाधनाय काष्ठागारः सचिवेषु प्रतीपगामिषु कतिचिदवधीदपधीः ।
२७. तद्वचन मिति–तद्वचनं धर्मदत्तसचिववचनम् अधिक्षिप्य तिरस्कृस्य, क्षेपीयः शीघ्र' १० क्षितितलात्पृथिवीपृष्टात् उत्तिष्ठन् काष्टाङ्गारस्य श्यालः साल इव सर्जतरुरिव पांशुः समुन्नतः कायो यस्य
तथाभूतः, हेयतायाः त्याज्यतायाः कन्द इव मूलमिव, काठिन्यस्य नैष्ठ्यस्य काष्ठेव सीमेव, काक्षित काश्यपीपतैनिधनं यस्य सोऽभिलषितसत्यं धरमहाराजमरणः, मथन एससामा काका घायसा इव वराका दीनाः काम यथेच्छं कथयन्तु यद्यपि तथापि देवेन भवता देवतादेशविना देवाज्ञाव्यतिक्रमकारिणा
कदाचिदपि जातुचिदपि न भवितव्यम् । मवितम्यताया बलं भाग्यप्रमावं तु पश्चात् पश्येम अवलोकेमहि । १५ किंधान्यत् खलु निश्चयेन नरा देवतानां किङ्कराः सेवकाः सन्ति । नरापश्चारचाकित्येन मनुष्यापकारमीत्या
इह लोके यद् देवताः परिभूयन्ते तिरस्क्रियन्ते सोऽयं पाशस्य रजोर्दशनं तस्माद् भयं तेन पलायितस्तस्य तथाभूतस्य जनस्य फणिनि सर्प पदन्यासश्चरणनिक्षेपः, करिकलभभीतस्य सिंहशावकत्रस्तस्य जनस्य
कण्ठीरवकण्ठारोहो मृगेन्द्रप्रीवारोहणम् इतीत्थं रोषपरुषं क्रोधतीक्ष्णं यथा स्यात्तथा अभाषिष्ट जगाद । . तद्वचनमिति-तद्धनं तु मथनवचस्तु तस्य काष्ठागारस्य हृदयं स्वान्तं कणीसुतमतप्रदर्शनमिव २० कर्णीसुतश्वीयशास्त्रप्रदशकस्तस्य मतस्य सिद्धान्तस्य प्रदर्शनं प्रकटीकरणं तस्करस्येव चोरस्येव, शून्यवाद.
स्थापनं शून्यवादसमर्थनं सौगतस्येव बौद्धस्येव, आधोरणानुगुण्य हस्तिपकानुकूल्यं आधोरणा हस्तिपका 'हस्त्यारोहा निषादिनः' इत्यमरः । परिणतकरिणा इव तिर्यग्दम्तमहारासतगजस्येव अतितरां सातिशयं प्रीणयामास तर्पयामास ।
२८. तत इति--ततस्तदनन्तरम्, अपगता धीर्यस्य सोऽपधीवुद्धिशून्यः काष्टाङ्गारः समीहित२५ साधनाय वान्छितसिद्धयर्थ प्रतीपं प्रतिफूलं गच्छन्तीति प्रतीपगामिनस्तेषु सथाभूतेषु सचिवेषु मन्त्रिषु
६२७. उसकी बात काटकर शीघ्र ही पृथिवीसे उठता हुआ काष्ठांगारका साला मथन, जो कि सागौनके वृक्ष के समान ऊँचा था, हेयताका-घृणाका मानो कन्द था, कठोरताकी मानो अन्तिम सीमा था, और राजा सत्यन्धरका मारा जाना जिसे अभीष्ट था, क्रोधसे कर्कश
स्वरमें बोला कि 'कौओंके समान दीन मनुष्य इच्छानुसार कुछ भी कहते रहे पर आपको . ३० देवताकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाला कभी नहीं होना चाहिए । भवितव्यताका वल पीछे
देख सकते हैं। फिर मनुष्य तो देवताओंके किंकर हैं। मनुष्य कृत अपकार के भयसे यहाँ जो देवताओंका तिरस्कार करना है, वह पाश देखनेके भयसे भागते हुए मनुष्यका साँपके ऊपर पैर रखना है, अथवा हाथीके बच्चेसे भयभीत मनुष्यका सिंहकी ग्रीवापर आरूढ़ होना है।' जिस प्रकार कीसुतके मतका प्रदर्शन चोरके हृदयको, शुन्यवादका स्थापन बौद्धके हृदयको
और महावतका अनुकूलाचरण मदोन्मत्त हाथीके हृदयको अत्यन्त सन्तुष्ट करता है, उसी प्रकार मथनके उक्त कथनने काष्ठांगारके हृदयको अत्यन्त सन्तुष्ट किया ।
६२८. तदनन्तर दुर्बुद्धि काष्ठांगारने अपना मनोरथ सिद्ध करनेके लिए, विरुद्ध जाने
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-काष्टाङ्गारस्याक्रमणम् ]
प्रथमो लम्भः
कतिचन कालायसनिगलचुम्बितचरणांश्चकार चोरवत्कारागृहे । जगृहे च राजगृहमपि तत्क्षण एव क्षोणी क्षोभयता बलेन प्रबलेन ।
२९. अनन्तरमष्टापदनिर्मिते महति पर्यङ्के पाकशासनमिव सुमेरुशिरसि निषण्णम्, अपरवियदाशङ्काकृतावताराभिस्तारकापङ्क्तिभिरिव व्याकोशकुसुमनिच्यविरचिताभिः प्रालम्बमालिकाभि: सुरभितवक्षःस्थलम्, अधरितशारदपयोधरकुलेन दुकूलेन मन्दरमिव मथनसमयमिलि- ५ तेन फेनपटलेन पाण्डुरितनितम्बम्, परिचुम्बितदशदिशावकाशेन पद्मिनीसहचरमरीचिवीचिपरिभावुकेन सहजेन तेज.प्रसरेण प्रतप्तचामीकरपरिकल्पितेन प्राकारेणेव परिवृतम्, शेखरकुसुमपरिमलतरलमधुकरकलापपुनरुदीरितकुन्तलकालिमकवचितमूर्धानम् , उभयसविधगत वारयुवतिकरतलकतिचिद् कांश्चित् अवधीत् जधान । कतिखन कौश्चित् कारागृहे वन्दीनिकेतने चोरवत् कालायसनिगलेन कृष्णलोहनिगडेन बुम्बिता युक्तावरणाः पादा येषां तान् चकार । तत्क्षण एव तत्कालमेव क्षोणी भूमि १० क्षोभयता चलयता, प्रबलेन प्रकृष्टबलशालिना बलेन सैन्येन राजगृहं नरेन्द्रमन्दिरं च जगृहे परिरुरोध ।
२९. अनन्तरमिति-अनन्तरं पश्चात् , प्रतीहारी द्वारपालो मानचेश्वरममिप्रणम्य, सप्रश्रयं सविनयम अब्रवीक्षिति संबन्धः । मानवेश्वरं वर्णयितुमाह-अष्टापदेति-अष्टापदेन स्वर्णेन निर्मिते रचिते महति विशाले पर्यत मञ्चे 'शयनं मञ्चपर्यवपल्यका खट्रया समम्' इत्यमरः, सुमेरुशिरसि मेरुशिखरे पाकशासनमिव पुरन्दरमिव निषण्णं समासीनम्, अपरवियत इतरगगनस्याशक्या सन्देहेन कृतोऽवतारो १५ याभिस्ताभिः तारकापहिक्तमिश्वि नक्षत्रमालिकाभिरिव व्याकोशकुसुमानां प्रफुल्लपुष्पाणां निवयेन समूहेन विरचिता निर्मितास्ताभिः प्रालम्बमालिकाभिः ऋजुलम्बित्रग्भिः 'प्रालम्बम् जुलम्बि स्यात्' इत्यमरः, सुरभितं सुगन्धितं वक्षःस्थलं यस्य तम् । अधरितं तिरस्कृतं शारदपयोधरकुलं शरहतुमेघसमूहो येन तेन दुक्कलेन क्षौमेण मथनसमये मथनवेलायां मिलितं सेन फेनपटलेन डिण्डीरपिण्डेन मन्दरमित्र मन्दराचलमिव पाण्डुरितं नितम्वं यस्य तं शुक्लीकृतकटिपश्चाद्भागम् । परिचुम्बिता व्याप्ता दशदिशानामवकाशोऽन्तराल २० येन तेन, पभिनीसहचरस्य सूर्यस्य मरीचिवीचीनां किरणसन्ततीनां परिभावुकस्तिरस्कारकस्तेन, सहजेन नैसर्गिकेण तेजःप्रसरेण तेजःपुजेन प्रतप्तचामीकरण निष्प्लकनकेन परिकल्पितो रचितस्तेन प्राकारेण सालेन परिवृतमिव परिवेष्टितमिव । शेखरकुसुमानाम् आपीडपुष्पाणां परिमलेन सौगन्थ्येन तरलाश्चपला ये मधुकरा भ्रमरास्तेषां कलापेन समूहेन पुनरुदीरितः पुनरुतो यः कुन्तलकालिया केशकाण्यं तेन कवचितो वाले मन्त्रियों में से कितने ही मन्त्रियोंको तो मार डाला और कितने ही को काले लोहेकी २५ बेड़ियोंसे बद्धचरण कर चोरकी तरह कारागृह में डाल दिया तथा उसी क्षण पृथिवीको कम्पित करनेवाली प्रबल सेनासे राजमहलको घेर लिया।
६२६. तदनन्तर जो सुत्रर्ण निर्मित बड़े भारी पलंगपर स्थित होनेसे सुमेरुके शिखरपर स्थित इन्द्र के समान जान पड़ता था। पश्चिम आकाशकी आशंकासे अवतीर्ण ताराओंकी पंक्तियों के समान सुन्दर खिले हुए फूलोंके समूहसे निर्मित लम्बी-लम्बी मालाओंसे जिसका ३० वक्षःस्थल सुगन्धित हो रहा था। शरद् ऋतुके मेघ-समूहका तिरस्कार करनेवाले दुकूल वस्त्रसे जिसका नितम्ब शुक्लवर्ण दिख रहा था और उससे जो मथनके समय लगे हुए फेनके समूहसे मन्दर गिरिके समान जान पड़ता था। दशों दिशाओंके अवकाशको व्याप्त करनेवाले एवं मर्यकी किरणावलीको तिरस्कृत करनेवाले स्वाभाविक तेजके प्रसारसे जो सन्तप्र. स्वर्ण निर्मित कोटसे घिरा हुआ-सा जान पड़ता था। सेहरेके फूलोंकी सुगन्धिसे चंचल ३५ भ्रमर-समूहसे पुनरुक्त अग्रिम बालोंकी कालिमासे जिसका शिर व्याप्त हो रहा था। दोनों
१.० ख० ग० --उभयसाविधगत
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६५ गयचिन्तामणिः
[ २९ राश्यः - विधुतधवलचम रबालपवननर्तितचेलाञ्चलम्, अन्तिकणिदर्पणप्रतिबिम्बनिभेनानङ्गसुखानुभवाय नालमेकेनेति देहान्तरमिव धारयन्तम्, अनवरतताम्बूलसेवाद्विगुणितेन स्फुटितबन्धुजीवलोहितिमसुच्छायेन दशनच्छदालोकेन प्रभूततया मनस्यमान्तं रागसंभारमिब बहिरुद्वमन्तम्, निजमुखलक्ष्मीदिदृक्षोपनतेन क्षोरजलराशिनेव स्निग्धधवलगम्भीरेण कटाक्षेण विकसितपुण्डरीकदलनिवघवलित५ मिव सं प्रदेशं दर्शयन्तम्, नृत्तरङ्गमिव शृङ्गारनटस्य निवासप्रासादमिव विलासस्य साम्राज्यमिव सौभाग्यस्थ संकल्पसिद्धिक्षेत्रामव कंदयस्य साराभव संसारस्य दृश्यमानं मानवेश्वरं विश्वभरातलविनमितमोलिरभिप्रणम्य प्रतीहारः सप्रश्रयमब्रवीत्
व्याप्तो मूर्धा यस्य तम् । उभयसविधगतयोस्तटद्वयस्थितयोर्वारयुवत्योविलासिन्योः करत लाभ्यां विधुताः
कम्पिता ये धवलचमरवालाः शुक्ल चमरकेशास्तेषां पवनेन वायुना नर्तितानि चेलाञ्जलानि वस्त्राबलानि १० यस्य तम् | अन्तिके समीपे विद्यमानो यो मणिदर्पणस्तस्मिन् प्रतिबिम्ब प्रतिफलनं तस्य निभेन ब्याजेन
अनङ्गसुखानुभवाय कामसुखोपभोगाय एकेन देहेन भलं समर्थो न इति हेतोः देहान्तरं शरीरान्तर धारयन्तमिव । अनवरतं निरन्तरं ताम्बूलसेवया नागवल्लीदलमक्षणेन द्विगुणितस्तेन, स्फुटितानां विकसितानां बन्धुजीवानां रक्तवर्णपुष्पविशेषाणां यो लोहितिमा रक्तिमा तस्य सुच्छायेन सुन्दरेण, दशनच्छदालोकेन
ओष्टारुणप्रकाशेन प्रभूततया प्रचुरतया मनसि चेतसि अमान्सं रागसंभारं बहिरुदमन्तमिव प्रकटयन्तमिव । १५ निजमुखस्य स्वकीय वदनस्य या लक्ष्मीः क्षीरोदजा तस्या दिक्षया अबलोकनेछयोपनतः समुपस्थितस्तेन
क्षीरजलराशिनेत्र क्षीरसागरणेव स्निग्धधबलगम्भीरेण मसृणशुक्लगभीरेण कटाक्षेण अपाङ्गन तं प्रदेश तरस्थानं विकसितानां पुण्डरीकदलानां श्वेतपयोजपत्राणां निवहन समूहन धवलितं शुक्लीकृतमिव दर्शयन्सम् । शृङ्गार एवं नटस्तस्य शृङ्गाररसशैलूपस्य नृत्तरङ्गमिव लास्यस्थानमिव, विलासस्य चेष्टाविशेषस्य
निवासमासादमिव निवासमन्दिरमिद । 'यानस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम् । विशेषस्तु विलासः २० स्यादिष्टसंदर्शनादिना' । इति साहित्यदर्पणे विलासलक्षणम् । खौभाग्यस्य वनिताजनप्रेम्णः साम्राज्यमित्र,
कन्दर्पस्य कामस्थ संकल्पानां सिद्धिक्षेत्रमिव साफल्य स्थानमिव, संसारस्य सारमिव दृश्यमानमवलोक्यमानम् मानवेश्वरं नरेन्द्रं सत्यंधरमहाराजम् , विश्वम्भरातले महीपृष्ठे विनमितो मौलिमूर्धा यस्य तथाभूतः सन् अभिप्रणम्य नमस्कृत्य प्रतीहारीद्वास्थः सप्रश्रयं सविनयम अब्रवीत् ।
ओर स्थित वेश्याओंके करतलसे कम्पित चमरोंकी मन्द-मन्द्र पवनसे जिसके वस्त्रके छोर २५ हिल रहे थे। समीपमें स्थित मणिमय दर्पणमें पड़ते हुए प्रतिबिम्बके बहाने जो 'काम सुखके
उपभोगके लिए एक शरीर पर्याप्त नहीं है, इसलिए मानो दूसरा ही शरीर धारण कर रहा था । निरन्तर पान खानेसे द्विगुणित खिले हुए दुपहरियाके फूलकी लालिमासे सुन्दर ओठके
प्रकाशसे जो प्रचरताके कारण हृदय में नहीं समाते हए रागके समहको मानो बाहर ही ३० उगल रहा था। अपने मुखकी लक्ष्मीको देखनेकी इच्छासे उपस्थित क्षीरसागरके समान
स्निग्ध, सफेद एवं गम्भीर कटाक्षोंसे जो उस प्रदेशको खिले हुए सफेद कमलकी कलिकाओंके समूहसे सफ़ेद जैसा दिखला रहा था। जो श्रृंगाररूपी नटके नृत्यकी रंगभूमिके समान, विलासके निवासभवनके समान, सौभाग्यके साम्राज्यके समान, कामदेव के संकल्पसम्बन्धी सिद्धिके क्षेत्रके समान, और संसार के सारके समान दिखाई देता था, ऐसे राजा सत्यन्धरको पृथ्वीतलमें मस्तक झुकानेवाले द्वारपालने प्रणाम कर विनय-पूर्वक कहा
१.क० ख० ग०-अनुभवनाय !
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-३० प्रतिहारण काहानाराक्रमणसूचनम् ] प्रथमो लम्भः
३०. देव कुरुकुलकामलमार्तण्ड रिपु महीपालबलपयोधिमथनमन्दरायमाणदोर्दण्डदुःसहशौर्यबावितपरचक्र विक्रमाक्रान्तसकलदिगन्त, समन्तादागतेन सरभसचलिततुरगखरखुरशिखरदारितधरा परागपांसुलन भोमण्डलेन मण्डलाग्रमरीचितिमिरितहरिदन्तरालेन सिन्धुश्वरकरटवहदविरलमदजलजम्बालितजगतीतलेन गगननीलोत्पलविपिनविडम्बिकुन्तदन्तुरेण वीरलक्ष्मीविरचितभ्रुकुनिकुटिलका कतरङ्गितेन प्रलयवेलाविशृङ्खलजलधिजलपूरभयंकरेण निखिल- ५ जगदाक्रमणचतुरेण चतुरमबलेन प्रत्यवतिष्ठते काष्ठा ङ्गारः' इति ।
३०. देवेति--हे देव, ई राजन् , कुरुकुलमेव कमलं तस्य मानण्ठस्तत्मबुद्धौ हं कुमकुलकमल. मार्तण्ड ! हे कुरुवंदासरोगसूर्य ! रिपुमहीपालानां शत्रुसैन्यानां बलमेब सन्यमेव पयोधिः सागरस्तरय मथने विलोडने मन्दरायमा मन्दराचलायमानो यो दोर्दण्डौ भुजदण्डी तयोर्दुःसहन शौर्यण बाधित पीडित परवा परसन्यं येन तरबुद्धौ, विक्रमेण पराक्रमणानान्ताः सकलदिगन्ता येन तत्संबुद्धौ एवम्भूत १० हे देव, समन्तापरितः आगमन, सरभसं सत्रेगं यथा स्यात्तथा चलिता ये तुरगास्तषां खरखुराणां तीक्ष्णशफानां शिखरेण दारिता सण्डिता या धरा भुमिस्तस्याः परागेण पांसुलं नभोमगदुलं येन तेन, मण्डलाप्राणां कृपाणानां मरीचिभिस्तिमिरितं मलिनीकृतं हरिदन्तरालं कान्तरालं येन तेन, सिन्धुवराणां श्रेष्ठगजाना करदेभ्यो गण्डस्थलेभ्यो घहद् यद् अविरलं धाराबवं मदजलं तेन जम्बालितं जगतीतलं येन तेन, गगन वियति विरामानं यद् नीलोत्पल विपिनं कुत्रलयकाननं तस्य विडम्बिभिः कुन्तः प्रसिइन्तरं ११ व्यात तेन, बीरलाया वीरश्रिया विरचिता या प्रकुटिस्तद्वत् कुटिलानि वक्राणि यानि कामकाणि धर्ना तैस्तरङ्गित च्यात तन, प्रलयवेलायां कल्पान्तकाले विकलो निमर्यादो यो जलधिस्तस्य जलस्य पुरमिच भयंकर तेन, निखिलजगतः सकलसंसारस्याक्रमणे चतुरं तेन, एवम्भूतेन चतुरङ्गबलेन चत्वारि हस्त्यश्चस्थपदातिरूपाणि अङ्गानि यस्य तत् चतुरङ्गं तच यद् बलं चेति चतुरङ्गाबलं तेन, काष्टाङ्गारः प्रत्यवतिष्टत प्रतिकूलो भूत्वा तिष्ठति विरुणद्धीति मावः ।
६३०. हे देव ! आप सूर्यवंशरूपो कमलको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान हैं, राजाओंकी सेना रूपी सागरको मथन करनेके लिए आपके भुजदण्ड मन्दर गिरिके समान हैं, दुःसह पराक्रमसे आपने शत्रुओंके सैन्यदलको नष्ट कर दिया है और पराकमसे आपने समस्त दिशाओंके अन्तको व्याप्त कर रखा है। फिर भी हे महाराज ! जो सब ओरसे आयी हुई है, वेगसे चलते हुए घोड़ोंके तोरण खुरोंके शिखरसे खुदी पृथिवीकी परागसे २५ जिसने आकाश मण्डलको धूलि धूसरित कर दिया है, तलवारोंकी किरणों से जिसने दिशाओंके अन्तरालको अन्धकारसे आच्छादित कर रखा है, बड़े-बड़े हाथियोंके गण्डस्थलसे लगातार बहते हुए मदरूपी जलसे जिसने पृथिवीतलको सेवालसे युक्त-जैसा बना रस्त। हैं, जो आकाशरूपी नीलकमलोंके वनको विडम्बित करनेवाले भालोंसे व्याप्त है, जो वीरलक्ष्मीके द्वारा विरचित ध्रकुटियोंके समान कुटिल धनुषोंसे व्याप्त है, जो प्रलयके ३० समय तटको लाँघकर बहने वाले समुद्र के जलप्रवाहके समान भयंकर है एवं जो समस्त जगत्पर आक्रमण करने में चतुर है, ऐसी चतुरंगसेनासे काष्टांगार आपके प्रतिपक्ष में खड़ा है।
१. म० रिपुपदं नास्ति । २. क० ख० ग० नाधितपरचक्र । ३. म० लक्ष्मीभ्रूविरचित । ४. क० स० ग. आक्रमचतुरेण ।
३५
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गधचिन्तामणिः
[ ३१ सत्यंधरस्य३१. अथ तेनाश्रुतपूर्वेण वचनेन 'कथं कथं कथय कथय' इति पृच्छन्प्रतीहारं झटिति घटितकोपग्रन्थिरन्धीभवन्, पर्यकपरिसरनिहितमहितकुलप्रलयधूमकेतुकरालं करवालं करे कुर्वन्, अखर्वगर्वसमुत्क्षिप्तदक्षिणचरणाधिष्ठितवामोरुकाण्डः, चण्डरोषाट्टहासविसरदमलदशनकिरणधवलित
वदनशशिमण्डल:, स्फुटितगुजाफलपुजपिजरेण क्रोधरागरूषितेन चक्षुषः, प्रभापटलेन ५ परितः प्रसर्पता प्रसर्पत्प्रतिभटमनोरथरोधिनमनलप्राकारभित्र प्रवर्तयन्, प्रस्विन्नदेहप्रतिबिम्बिताभि
भवनभित्तिचित्रयुवतिभिः 'अतिसाहसं मा कृथाः' इति गृहदेवताभिरिव प्रणयपर्याकुलाभिः परिरभ्यमाण, क्षुद्रनरेन्द्राक्रमणकोपमितविष इव विषधरस्तत्क्षणमन्यादृश इवा दृश्यत काश्यपीपतिः । आदिशच्च प्रतीहारम् 'आनय त्वरितमहितचमूसमूहनिवारणान्वारणानप्रतिहतजविरा
३१. अथेति-अध प्रतीहारवचन श्रवणानन्तरम् पूर्व न श्रुतमित्यश्रुतपूर्व तेन वचनेन 'कथं. १० कथं कथय-कथय' इति, संभ्रमे द्वित्वं प्रतिहारं द्वारपालं पृच्छन् काश्यपीपतिर्नुपः झटिति शीघ्र घटिता
कोपग्रन्धिर्यस्य तथाभूतः अन्धीमकन् रोषान्धः सन् , परिसरे निकटे निहितमिति परिसरनिहितम्, अहितकुलस्य शत्रुवंशस्थ प्रलयो विनाशस्तस्मै धूमकेतुरिवाग्निरिव करालो मयंकरस्तम् करवालं कृपाणं करे कुर्वन् हस्ते निदधत् , अखवंगण महाभिमानेन समुरिक्षप्तः समुत्थापितो यो दक्षिणचरमस्तेनाधिष्ठितः
सहितो वामोरुकाण्डो सब्यसक्थिकाण्डो यस्य तथाभूतः, चण्उरोग तीवकोपेन योऽहासस्तेन विसरदि१५ रमलदशनकिरणनिर्मलदन्तदीधितिभिर्धवलितं शुक्लीकृतं वदनशशिमण्डल मुखचन्द्रविम्बं यस्य सः,
स्फुटितानां विकसितानां गुआफलाना काकचिनीफलानां यः पुजस्तद्वत् पिजरं रकपीतषणं तेन, क्रोधेन रागस्तेन रूषितं तेन, परितः समन्तात् प्रसरता प्रसरणशीलेन चक्षुषो नयनस्य जातावेकवचनम् प्रभापटलेन कान्तिकलापेन प्रसर्पता पलायमानानां प्रतिभटानां शत्रुयोद्धणां मनोरथं रुणद्धीत्येवं शलं
तम् , अनलप्राकारमग्निपरिधि प्रवर्तयन्निव रचयन्निव, प्रविन्ने स्वेदयुके देहे प्रतिबिम्बिताः प्रति२० फलितास्माभिः भवनमित्तिषु निकेतनकुइयेषु विद्यमाना यानित्रयुवतय आलेख्याङ्गनास्तामिः 'अति
साहसं मा कृथाः' 'युद्धरूपं साहसं मा कृथाः' इति प्रणयपर्याकुलाभिः स्नेहय्यनामिः गृहदेवताभिः परिरभ्यमाण इवालिङ्ग यमान इव, क्षुदनरेन्द्रेण क्षुद्र विषवैद्येन यदाक्रमणं तेन यः कोपस्तेन पमितः प्रकटितो विषो येन तथाभूतो विषधर इच तक्षणं सत्कालम् अन्यादृश इव विभिन्न इव अदृश्यत ।
'नरेन्द्रो बार्तिके राज्ञि विषवैधे च कथ्यते' इति विश्वः। आदिशच्चेति-प्रतीहारम् आदिशज्ञ २५ ६३१. तदनन्तर पहले कभी सुनने में नहीं आये हुए द्वारपालके उस कथनसे राजाके
हृदयमें शीघ्र ही क्रोधको गाँठ लग गयी। वह क्या क्या, कहो कहो' इस प्रकार द्वारपालसे पूछता हुआ क्रोधसे अन्धा हो गया। उसने शत्रुओंके कुलको नष्ट करने के लिए प्रलयाग्निके समान, पलँगके पास रखी तलवार उठाकर हाथमें ले लो। अत्यधिक अभिमानसे दाहिना
पैर उठाकर वायी जाँघपर रख लिया । तीन क्रोध और अट्टहाससे फैलती हुई दाँतोंकी किरणों. ३० से उसका मुखरूपी चन्द्रमण्डल सफेद हो गया। चटकी हुई गुमचियोंके समूहके समान
लाल-पीले क्रोधके रागसे दूषित एवं सब ओर फैलनेवाले नेत्रोंको लाल-लाल प्रभाके समूहसे वह प्रतियोद्धाओंके भागनेके मनोरथको रोकनेवाले अग्निमय कोटको ही मानो प्रवृत्त कर रहा था। उसके पसीनासे तर शरीर में भवनकी दीवालोंपर बनी
चित्रमय तरुण स्त्रियोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'अधिक ३५ साहस मत करो' यह कहने के लिए प्रेमसे व्याकुल गृहदेवियाँ उसका आलिंगन कर रही थीं।
और अद्र विषवैद्यके आक्रमणजनित क्रोधसे विपको उगलनेवाले साँपके समान वह ऐसा
१. म० प्रतिभटपलायन
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- प्रतिक्रियावर्णनम् ]
प्रथमो लम्मः जिनो वाजिनोऽसमसमरसाहसलम्पटान्भटाभारिपु नृपतिमनोरथान् रथानपि' इति । अथ निजभुजदम्भोलिविसम्भादनपेक्षितसहायः सरभसमुत्तिष्ठनर्धासनभ्रष्टामुकम्पमानकायां समुच्छिन्नमूलामुर्वीतलपतितामिव लतामुत्क्रान्तजीवितामिव नि:स्पन्दकरणनामां धरणीतलशायिनी शातोदरीमालोक्य बहुविधनिदर्शनसहितवस्तुस्वभावोपन्यासप्रयासैरप्यनासादितस्वास्थ्याम् 'अस्थाने केयं कातरता। क्षत्रिये, मद्विरहकातरापि कुरुकुल मूलकन्द गर्भरक्षणाय सणादितो गन्तुमर्हसि । श- ५ पामि जिनपादपङ्घरुहस्पर्शेन' इत्यभिदधान एवं निधाय तां मयूरयन्त्रे नरेन्द्रः स्वयमेव तद्भमांचकार । चकोरेक्षणामादाय क्षणेन गगनमुडीने यन्त्रशिखण्डिनि खण्डयितुं प्रतिभद्राकर
---..--...-..--.-----.......
निदिंदेश च रवरित शीधम् अहितस्त्र शास्त्रमूसमूहस्य निवारण यस्तान तथा भूतान वारणान् गजान् , अप्रतिहतेन अखण्डितेन जवेन वेगेन विराजन्त इत्येवं शीलास्तान् वाजिनीवान, असमथासौ समरसाहसी त्यसमसमरसाहसरतस्मिन् लम्पटास्तान भटान् योद्धृन , भग्नः सण्डितो रिखनृपतीनां मनोरथो १० येस्तान् एवंभूनान् रथान् आनय, इति । अथ निजेति-अथानन्तरं निजभुज एव स्वबाहरंव दम्भोलिव तस्य बिस्रम्भाद विश्वासाद अनपेक्षितः सहायो येन तथाभूतो नरेन्द्रः सरभसं सगम् उसिष्ठन् अर्धासमा भ्रष्टा ताम् , उत्कम्पमानः कायो यस्यास्तां समुच्छिन्नमूलां समुत्खालमूलाम् उर्वोतलपतितां पृथिवीपृष्ठपतितां लतामित्र, उत्क्रान्तं निःसृतं जीवितं यस्यास्तामित्र निःस्पन्दकरणप्रामा निश्चेष्टेन्द्रियसमूहां धरणीतलशायिनी पृथिवीतलशायिनी शातोदरी कृशोदरी विजयामिति यावत् १५
आलोक्य बहुविधनिदर्शने नोदाहरणः सहितो यो वस्तुस्वभावस्तस्योपन्यासस्य प्रस्तुतीकरणस्य प्रयासा उपायास्तैरपि, अनासादितमाप्तं स्वास्थ्यं यस्यास्ताम् , 'अस्याने भनवसरे इन का कातरता भीरुता । हे क्षन्निये, हे क्षत्रियकुलानने, महिरहकातरापि महियोगभीररपि कुरकुल स्य कुरुवंशस्य मूलकन्दो यो गर्मस्तस्य रक्षणाय त्राणाय, क्षणात् अल्पेनैव कालेन इतः स्थानात् गन्तुमर्हसि । जिनपादपङ्करुहस्पशन जिनधरणारविन्दस्पर्शन शामि' इत्यभिधान इव कथयन्नेव तां विजयां मयूरयन्ने पूर्वनिर्मापितशिखण्डि- २० यन्त्र निधाय स्थापयित्वा स्त्रयमेव तद् यन्त्रं भ्रमयानकार भ्रमयामास। चकोरेक्षणामिति-यन्त्रशिखण्डिनि यन्त्रमयूरे चकोरेक्षणां विजयाम् आदाय गृहोस्वा क्षणेन गगनं नम उर्द्धाने समुत्पतिते सत्ति,
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दिखाई देने लगा जैसा अन्य ही हो। उसने तत्काल द्वारपालको आज्ञा दी कि शीघ्र ही शत्रुओंकी सेनाके समूहको रोकनेवाले हाथी, अखण्डित. वेगसे सुशोभित घोड़े, अनुपम युद्धके साहससे लम्पट सुभट और शत्रुके मनोरथोंको नष्ट करनेवाले रथ लाओ। तत्पश्चात् २५ अपने भुजदण्डरूपी वनके विश्वाससे वह सहायकोंकी अपेक्षा न कर देगसे ज्योंही उठा त्योंही उसकी दृष्टि उस विजया रानीपर पड़ी जो अर्धासनसे नीचे गिर पड़ी थी, जिसका शरीर काँप रहा था. जड उखड जानेसे जो प्रथिवीपर पडो लताके समान जान पडती थी. . निर्जीवकी तरह जिसकी इन्द्रियों का समूह निश्चेष्ट था, जो पृथिवीतलपर पड़ी थी, एवं जिसका उदर अत्यन्त क्षीण था। उसने नाना प्रकार के उदाहरणोंसे सहित वस्तु स्वभावको ३० रखनेवाले उपायोंसे उसे स्वस्थ करना चाहा पर वह स्वस्थ नहीं हुई । अन्त में 'तेरी यह अनुचित स्थानमें कौन-सी कातरता है ? हे क्षत्रिये ! मेरे विरहसे कातर होनेपर भी तू कुरुवंशके मूलभूत गर्भकी रक्षाके लिए इसी क्षण यहाँ से जानेके योग्य है । मैं तुझे जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों के स्पर्श की शपथ देता हूँ।' यह कहते हुए राजाने उसे मयूर यन्त्रमें बैठाकर स्वयं ही यन्त्रको घुमा दिया। अथानन्तर चकोरलोचना विजयारानीको लेकर जब मयूर १
१. क. भग्नारिनपति । २. क. स. ग. एवम् । ३. तं श्रमांचकार ।
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गद्यचिन्तामणिः [ ३१ सत्यंधरस्थ कायाकारण सह युद्धम् - कलितकरवाल: काश्यपीपतिः कण्ठोरव इव गिरिकन्दरामन्दिरान्निरगात् । निर्गते च तस्मिविस्मयनीयविक्रमे विणितकृपाणविराजिनि राजनि, मृगराजदर्शन इव करिकल भयूथमन्धकारमिव च दिनकृदुदये तदनीकमनेकसंख्यमतिदूरं पलायत । पलायमानं बलं बलात्प्रतिनिवर्त्य स्वयमेव प्रार्थयमाने पार्थिवं कार्तघ्न्यकाष्टां गते काष्ठाङ्गारे राजा तु दारितमत्त करिकुम्भकूटः, पाटितरथ५ कडयः, खण्डितसुभटभुजदण्डसंहतिः, संहृततुरगचमुसमहः, ससंभ्रमं रामरशिरसि विहरन्, विविधकार रथ र गखण्डन रभसकुण्ठितमण्डलामः, किमन वृपानिकल जनसभुचितेन सकलप्राणिमारणविहरण रसेनेति जनितवैराग्यभर:,
प्रतिभटान रिन् पयितुं शकलयितुं कर कलितो शृतः करवाल: रुपाणी येन ताभूतः सन् काश्यपीपतिः
सस्यन्धरमहीपालो गिरिकन्दरापर्व गुहायाः कण्ठीरव इब सिंह इव मन्दिराद् निरगात निरियाय । १० निर्गते चेनि-विस्मयनीय आश्चर्यकरी विक्रमो यस्य तस्मिन् , विधुणिन अमितेन कृपाणेन विराजत
इत्येवं शीलस्तस्मिन् , तथाभूते राजनि निर्गते च मृगराजस्य दर्शन तस्मिन् सिंहावलोकने करिकलमयूथमिव हस्तिशावकसमू: इव, दिगदुदय च सूर्योदये च अन्धकारमिव तिमिरमिद, अनेकसंख्यं सदनीकं काष्टाङ्गारसैन्यं दूरं पलायत पलायांचक्रे 'परा पूर्वस्य अरशतोलङि रूपं 'उपसर्गस्यायती'
इति लत्वम् । पलायमानमिति-कृतघ्नस्य भावः कातन्यं तस्य काष्टान्तिमायधिस्तां गते काष्टाङ्गारे १५ पलायमानं धावमानं बलं सैन्यं बलाद् हठात् प्रतिनिवर्त्य प्रतिनिवृत्तं कृत्वा स्वयमेव पार्थिवं सत्यंधरनृपं
प्रार्थयमाने अभियाति सति 'याञ्चायामभियाने व प्रार्थना कथ्यते बुधः' इति केशवः । राजा तु सत्यन्धरनृपस्तु द.रिताः खण्डिता सत्तकरिणां मत्तगजानां कुम्भकूटा गण्डाप्रभागा न सः, स्थानां समूहो रथकड्या पाटिता रथकदया येन स तथाभूतः, खण्डिता शकली कृता सुभदानां याणां भुजदण्डसंहति हुदण्ड
समूहो यन सः, तथाभूतः, संहृतः संहारं प्रापितस्तुरगचभूनां हयसेनानां समूहो येन सः, ससंभ्रमं २० सक्षोभं यथा स्यात्तथा समरशिरसि रणाने विहरन, करिणश्र रथाच तरगाश्चति करिस्थतुरगं
मैकबिधं यत्करिरथनुरगं तस्य खण्डनस्य विदारणस्य रमसेन वेगन ऋषिरतो मण्डलामः कृपाणो यस्य तधाभूतः कृपाविकला निर्दया ये जनास्तेषां समुचितस्तेन. अनेन सकल प्राणिमारणविहरणरसेन निखिलजन्तुमारणविहारानुरागेण किं प्रयोजनम्, इति जनितः ससुस्पलो वैराग्यमरी यस्य तथाभूतः सन्
यन्त्र क्षण-भर में उड़ गया तब शत्रुओंके खण्ड-खण्ड करने के लिए तलवार लेकर राजा राज२५ भवनसे उस तरह निकल पड़ा जिस तरह कि पर्वतकी गुहासे सिंह निकलता है । आश्चर्य
जनक पराक्रमके धारक एवं घूमती हुई तलबारसे सुशोभित राज! ज्योंही बाहर निकला त्योंही सिंहके दिखते ही हाथियों के बच्चोंके समूह के समान अथवा सूर्य का उदय होनेपर अन्धकारके समान वह बहुत भारी सेना बहुत दूर भाग गयो । उधर कृतघ्नताकी चरम सीमाको प्राप्त
हुआ काष्टांगार भागती सेनाको जबर्दस्ती लौटाकर स्वयं ही राजाके सम्मुख आया और इधर ३० जिसके मदोन्मत्त हाथियोंके गण्डस्थल रूपी शिखरोंको विदीर्ण कर दिया था जिसने, रथों के
समूह चीर डाले थे, योद्धाओंके भुज दण्डोंका समूह ग्वण्डित कर दिया था, घोड़ोंकी सेनाओंके समूहका संहार कर दिया था, जो संभ्रम के साथ रणके अग्रभागमें घूम रहा था, और नाना हाथी, रथ तथा घोड़ोंको खण्ड-खण्ड करने के बेगसे जिसकी तलवार भोथली हो गयी
था ऐसा राजा सत्यन्धर यह विचार कर विरक्त हा गया कि निदंय मनुप्याक योग्य इस ३५ समस्त प्राणियोंको मारनेवाली क्रीडामें रस लेनेसे क्या प्रयोजन है? है आत्मन ! यह
१. कर ख० दूरमपलायत । २. क० ख० ग० दारितगदकरि कुम्मायूादः ।
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परलोकगमनम् प्रजायाः प्रतिक्रिया च ] प्रथमो लम्भः
'विषवासङ्गदोषोऽयं त्वयैव विषयीकृतः । साम्प्रतं वा विषप्रख्ये मुञ्चात्मन्विषये स्पृहाम् || ' इति भावयन् परित्यक्तसकलपरिग्रहः, स्वहृदयमणिपीठप्रतिष्ठापित जिन चरणसरोजः, काष्ठाङ्गाय काश्यपीमतिसृज्य त्रिदशसौख्यमनुभवितुममरलोक मारुरोह ।
६९
२
$३२ आरुवति भूभृति भुवनमनिमिषाणामुन्मिषद्विषादविपविधुराणां पौराणां पङ्किलयति वापजलप्रवाहे महीम्, मुखरयति सुखानि दशदिशा निर्दयोरःस्थलताडनजन्मनि वे ५ निरवधिकवेपथूनां पुरवधूनाम् अवधूत कलत्रपुत्राद्यनुवर्तनेषु निवृत्तिसुख रसाविष्टेषु विशिष्टेषु, काष्ठाङ्गारस्य काठिन्यं कथयति मिथः सुजने जने, निरूपयति दुरन्ततां कन्दर्पपारतन्त्र्यस्य पदार्थपारमार्थ्यपरिज्ञानशालिनि विवेकिवर्गे, व्यग्रगतिगनपथेन गतः स कृत्रिमशिखण्डी निजनगरोपविषयेति — हे आत्मन्, अयम् विषयेषु आसो विषयासङ्गस्तस्य दोषः त्वयैव विषयीकृतः साक्षात्कृतः । साम्प्रतं वाइन या विषये तु विषये स्पृहामभिलाषं मुञ्च त्यज | दुफलानुभूती सत्यां १० परित्यागे को विलम्ब इति भावः । इतीति- इतीत्थं भावयन् चिन्तयन् परिव्यक्तः सकलपरिग्रहो येन सः स्वहृदयमंत्र मंणिपीठस्तस्मिन् प्रतिष्ठापित समारोपिते जिनचरणपरोजे जिनेन्द्रपादारविन्दे येन तथाभूतः सन् काष्टाङ्गाराय कृतघ्नशिरोमणये काश्यप क्षणीम् अतिसृज्य स्यक्वा त्रिदशसौख्यं स्वर्गसुखम् अनुभवितुम् अमरलोकं स्वर्गम् आरुरोह ।
६ ३२. आरूढवतीति - भूभृति सत्यन्धर महाराजे अनिमिषाणां देवानां भुवनं लोकं स्वर्गमिति १५ यावत् आरुढवति सति उमिता प्रकटीभवता विषादविषेण खेदगरलेन विधुरा दुःखितास्तेषां पौराणां नागरिकाणां वाष्पजलप्रवाहेऽथुसलिलपुरे महीं पक्किलयति कर्दमयुक्तां कुर्वति सति, निरवधिकवेपथूनापरिमितकम्पानां पुरवधूनां नगरनारीणाम्, निर्दयं यथा स्यात्तधोरःस्थलस्य ताडनं तस्माज्जन्म यस्य तस्मिन् रखे शब्दे दशदिशां पूर्वादिदशकाष्टानां मुखानि मुखस्यति शब्दायमाने सति अवधूतं तिरस्कृतं कलत्रपुत्रादीनां स्त्रीसुतप्रमुखानामनुवर्तनमनुकूली करणं यैस्तेषु विशिष्टेषु सत्पुरुषेषु निवृत्तिसुखस्य २० त्यागानन्दस्य रसेनाविष्टाः सहितास्तेषु सत्सु सुजने जने मिथोऽन्योन्यं काष्टाङ्गारस्य काठिन्यं निर्दयत्वं कथयति सति, पदार्थस्य पारमाध्यं तस्य परिज्ञाने न शालते शोभत इत्येवंशीलस्तस्मिन् विवेकवर्गे विवेकसमूहे कंदर्पपारतन्ध्यस्य मदनविवशताया अति कामुकस्वस्येति यावत् दुरन्ततां दुष्फलतां निरूपयति सति, व्यग्रा गतिर्यस्य स विसंस्थुल गत्युपेतः स कृत्रिमशिखण्डी यन्त्रमयूरो निजनगरस्योपकण्ठं विषयासक्तिका दोष तूने ही स्वयं देख लिया -- अनुभव कर लिया । अब तो विषतुल्य विषय में २५ इच्छाको छोड़ ।' ऐसी भावना भाते हुए उसने समस्त परिग्रहका त्याग कर दिया और अपने हृदय रूपी मणिमय सिंहासनपर जिनेन्द्र भगवान् के चरणकमलोंको विराजमान कर काष्ठागार के लिए पृथिवी छोड़ दो और स्वयं देवोंका सुख भोगनेके लिए वह देवलोक में जा पहुँचा । ६ ३२. तदनन्तर जब राजा सत्यन्धर देवलोकको प्राप्त हो चुका, प्रकट होते हुए त्रिपादरूपी विपसे दुखी नगरवासियोंक अनुजलका प्रवाह जब पृथिवीको कीचड़से युक्त ३० करने लगा, अत्यधिक काँपती हुई नगरकी स्त्रियोंके वक्षःस्थल के निर्दयतापूर्वक वाइन करने से उत्पन्न शब्द जब दशों दिशाओंके अग्रभागको शब्दायमान करने लगा, विशिष्ट-विवेकी मनुष्य जब स्त्री पुत्रादिकी अनुकूलता को छोड़ निवृत्तिके सुखमें आनन्द मानने लगे, सज्जन पुरुष जब परस्पर काष्ठशंगारकी कठोरताकी चर्चा करने लगे और पदार्थके वास्तविक ज्ञानसे सुशोभित विवेकी मनुष्यों का समूह जब कामकी परतन्त्रता के दुःखदायी फलका निरूपण करने ३५ लगा तब गति से युक्त, आकाश मार्ग से गये हुए उस मयूर यन्त्रने अपने नगर के समीप -
१. ० ० ० भूभुजि । २. म० मुखरयति दश दिशां मुखानि !
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५
गद्यचिन्तामणिः [३२-३४ श्मशाने मयूरयन्त्रपतनम् - कण्ठभाजि परेतवासे पार्थिवप्रेयसीमपातयत् ।
३३. अत्रान्तरे वृत्तान्तमिममतिदारुणमम्बरमणिरनुसंधातुमक्षममाण इव ममज्ज मध्येसागरम् । साक्षात्कृतनरपतिमरणाया बरुणदिशः शोकानल इव जज्वाल संध्यारागः । न लोकयतु लोक: प्रेयसी पृथिवीपतेरितीव काल: काण्डपटिकामिव घटयति स्म दिङ्मुखेषु निरन्तरमन्धकारम् ।
३ ४. अथ नरपतिसमरधरणीसमुद्गतपरागपटलपरिष्वङ्गपांसुलमङ्गमिव क्षालयितुमपरसागरसलिलमवतीर्ण किरणमालिनि, महीपत्यनुमरणकण्डनसंभृतरक्तचन्दनाङ्गराग इव वसुंधरायाः क्षरितजननयनाथुनिरक्षालनादिव क्षयमुपेयुषि ज्योतिषि सांध्ये, सार्वभौमविरहविषादवेगविधूयमानदिशावधूकेशकलाप इव मेचके कवचयति भुवनमभिनवे तमसि, नरेशविनाशशोकादिव
भजतीति निजनगरोपकाठमाक् तस्मिन स्वनगरनिकटस्थित परतवासे श्मशाने पार्थिवप्रेयसी धरावल्लभ१० वल्लभां विजयामिति यावत् अपातयत् पातयामास ।
६३३. अत्रान्तर इति-अत्रान्तरे प्रतन्मध्ये, अम्बराणिः सूर्यः अतिदारुणं कठोरतरम् इम वृत्तान्तम् अनुसंधातुमक्षितुम् अक्षममाण इव असमर्थ इव सागरस्य मध्ये मध्ये सागरं 'पारे मध्ये षष्टया वा' इति समासः । ममज निमग्नोऽभूत् । साक्षात्कृतं समवलोकितं नरपतिमरण यया तस्याः वरुण
दिशः पश्चिमदिशः शोकानल इव शोकाग्निरिव संध्यारागः पितृप्रसूलौहित्यं जज्वाल । लोको जनः पृथिवी१५ पते राज्ञः प्रेयसी प्रियाङ्गनां न लोकयतु न पश्यतु इतीव हेतोः कालो दिङमुखेपु काष्ठानभागेषु काण्डपटिकामिव यवनिकामिन निरन्तरं नियवधानम अन्धकार तिमिरं घटयति स्म योजयामास ।
३४. अथेति-अथानन्तरं किरणमालिनि सूर्य नरपतेः सत्यन्धरमहीपालस्य समरधरणी युद्धभूमि स्तस्याः समुद्गतः समुस्थितो यः परागपटलो धूलिसमूहस्तस्य परिप्वाण संपर्कण पांसुलं धूलियुक्त
तथाभूतम् अझं शरीरं झालयितुं प्रक्षालितं कर्तुमिव अपरसागरसलिलं पश्चिमार्णवतीयम् अवतीर्ण २० सति, वसुन्धरायाः पृथिव्याः महीपते' राज्ञोऽनुमरणमण्डने संभृतो धृतश्चन्दनाङ्गराग इव मलयजविलेपन .इध सांध्ये संध्याकालभवे ज्योतिषि क्षरितानां निःसृतानां जननयनाश्रूणां लोकलोचनजलानां निझरेण क्षालनं धावनं तस्मादिव क्षयं विनाशम् उपेयुषि प्राप्तवति सति, सार्वभौमः सर्वस्या भूमेरधिपः सत्यन्धरमहाराजस्तस्य विरहेण यो विषादस्तस्य वेगेन विधूयमानाः कम्प्यमाना ये दिशावधूकेशाः काष्टाकामिनी
वर्ती श्मशानमें विजयारानीको गिरा दिया। २५६३३. इसी बीचमें सूर्यास्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो इस अत्यधिक
भयंकर वृत्तानको देखने के लिए असमर्थ होता हुआ वह समुद्र के मध्यमें डूब गया था। पश्चिम दिशामें सन्ध्याकी लालिमा दिखने लगी, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो राजाके मरणको साक्षात् देखनेवाली पश्चिम दिशाके हृदय में शोकरूपी अग्नि हो भभक उठी थी।
दिशाओं में निरन्तर अन्धकार फैल गया, उससे ऐसा जान पड़ता था मानो राजाको प्रिय ३० वल्लभाको मनुष्य देख न सके इस उद्देश्यसे कालने एक कनात ही लगा दी थी।
६३४. तदनन्तर राजाकी युद्ध भूमिसे उड़ी धूलिके संसर्गसे मलिन शरीरको धोनेके लिए ही मानो जब सूर्य पश्चिम सागरके जलमें उतर गया, राजाके पीछे मरने के लिए उद्यत पृथिवी रूपी स्त्रीके द्वारा आभूषणके रूपमें धारण किये हुए लाल चन्दनके अंगरागके
समान सन्ध्याकालकी ज्योति जब मनुष्यके नेत्रोंसे झरनेवाले अश्रुरूपी निजेरोंके द्वारा धुल ३५ जानेसे ही मानो भयको प्राप्त हो गयी, राजाके बिरहजन्य विषादके वेगसे हिलते हुए दिशा
१. क० ख० ग० इममिति पदं नास्ति । २. क. ख. ग-०चन्दनाङ्गरागाया इव । ३. क. ग. क्षतजमयनानु।
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-पुत्रोत्पत्तिश्च ]
प्रथमो लम्भः
संचरत्सायंतनसमीरनिभेन निःश्वसन्त्यां निशायाम्, तनुतरबिसलताभङ्गिमुपहसतीव विकसति विकचदलनिचयधवलितदशदिशि कुमुदाकरे, कुमारोदयसमयसमुन्मेषिहर्षपरवशसुरसंतानिते संतानकुसुमप्रकर इव तारकानिकरे निरन्तरयत्यम्बरम्, आविर्भवदवनिपतनयातपत्र इव पाकशासनदिशि दृश्यमाने यामिनोप्रणयिनि प्राप्तवैजननमासा महिषी सा प्राणनाथविरहदुःख. भारान्तरितप्रसववेदना तस्मिन्नेव पितृ निवास बालचन्द्रमनिय विचमाश बिपश्चिल्लोकनयन- ५ हारिणं हरिताश्वमिव पूर्वकाष्ठा काष्ठाङ्गारपर्यायतिमिरध्वंसिनं सूनुमसूत ।
६३५. सुतसुधासूतिदर्शनसमासादितजीवितवहनवात्सल्या तज्जन्ममहोत्सवसंभ्रमाभावपुनरुत्तविषादा पुत्रमङ्के निधाय प्रलपितुमारभत–'यस्य जन्मवानिवेदनमुखरा हरिष्यन्ति कचास्तेषां कलापे समूह इव मेचके कृष्णे, अभिनवे नूतने तमसि तिमिरे भुवनं लोकं कपचयति च्याप्नुवति सति, निशायां रजन्या नरेशविनाशशोकादिव नरेन्द्र मरणखेदादिव संवरन् यः सायन्तनसमीरः सायंकालिक- १० पवनस्तस्य निभेन व्याजेन निःश्वसन्त्यां सत्याम्, विकचदलानां प्रफुल्लपत्राणां निचयेन धवलिताः शुक्लीकृता दश दिशो येन तस्मिन् तथाभूते कुमुदाकरे, अनुसरा अतिशयेन कृशा या बिसलता मृणालवल्लो त भगिनी नश्वरां संसारभङ्गी भवपरम्पराम् उपहसतीष विकसति सति, तारकानिकरे नक्षत्रनिचये कुमारस्य जीवन्धरस्योदयो जन्म तस्य समये समुन्मेषी प्रकटितो यो हर्षरतस्य परवशा विधशा ये सुरा निलिम्पास्तैः संतानिते प्रसारिते संतान कुसुमप्रकर इव कल्पपादपप्रसूनप्रञ्चय इव अम्बरं गगनं निरन्तरयति सति, २५ पाकशासनदिशि प्रारयाम् , यामिनीप्रणयिनि निशापतौ चन्द्र इति यावत् , आविर्भवन् प्रकटीभवन् योऽवनिपतनयो महीपतिपुत्रस्तस्यातपत्र व छत्र इव दृश्यमाने विलोक्यमाने सति, प्राप्तो चैजननो मासो यथा सा समुपलब्धप्रसूतिसमया सा महिषी विजया, प्राणनाथस्य विरहेण वियोगेन यो दुःखभारस्ते. नान्तरिता प्रसववेदना प्रसूतिपीडा यस्या तश्राभूता सती तस्मिन्नेव पूर्वोक्त एवं पितृनिवासे श्मशाने पश्चिमाशा प्रतीची बालचन्द्रमसमिव बालशशिनमिव, विपश्चिल्लोकनयनहारिणं विद्वजननयनवशीकरण- २० धुरीणं पूर्वकाष्ठा प्राची हरिताश्वमिव दिवाकरमिव काष्ठाकारः पर्यायो यस्य तत् तथाभूतं तिमिरं ध्वंस. यतीत्येवं शीलं सू नुम् असूत उत्पादयामास ।
६३५. सुतसुधासूतीति-सुप्त एवं सुधासूतिश्चन्द्रस्तस्य दर्शनेन समासादित प्राप्तं जीवितवहने जीवनधारणे चारसल्यं यया सा, तस्य पुत्रस्य जन्ममहोत्सवस्य संभ्रमः संभोमस्तस्याभावेन पुनरुक्तो रूप स्त्रियोंके केश समूहसे काला नूतन अन्धकार जब संसारको व्याप्त करने लगा, राजाके २५ । मरणरूपी शोकके कारण सब ओर चलती हुई सायंकालीन वायुके बहाने मानो जब रात्रि इवासोच्छवास छोडने लगी. खिली कलिकाओंके समहसे दशों दिशाओंको सफेद-सफेद करने वाला कुमुद चन जब अत्यन्त सूक्ष्म मृणालरूपी लताके समान टूट जानेवाली संसारकी पद्धतिका मानो उपहास कर २० था, कुमारके जन्म के समय प्रकट होनेवाले हर्षसे विवश देवोंके द्वारा फैलाये हुए कल्पवृक्ष के पुष्प समूह के समान जब ताराओंका समूह आकाशको ३० व्याप्त कर रहा था, और प्रकट होते हुए राजपुत्रके छत्रके समान पूर्व दिशामें जब चन्द्रमा दिखाई देने लगा तब दश मासको प्राप्त एवं प्राणनाथके विरहजन्य दुःखके भारसे जिसकी बेदना दब गयी थी ऐसी विजया रानीने उसी श्मशान भूमिमें जिस प्रकार पश्चिम दिशा विद्वानों के नेत्रोंको हरनेवाले बाल चन्द्रमाको और पूर्व दिशा अन्धकारको नष्ट करनेवाले सूर्यको उत्पन्न करती है, उसी प्रकार काष्ठांगाररूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला पुत्र उत्पन्न किया। ३५
६३५. तदनन्तर प्रभारूपी चन्द्रमाके देखनेसे जिसे जीवन धारण करनेका स्नेह प्राप्त हुआ था और पुत्रके जन्म सम्बन्धी महोत्सवके समय होनेवाले संभ्रमके अभावसे जिसका
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गयचिन्तामणिः
[३५ राज्यः विषादः - पूर्णपात्रं धात्रीजना जननाथेभ्यः, यस्मिन् च कृतावतारे काराध्यक्षकरत्रोटितशृङ्खला विशृङ्खलगतयश्चिरकाल कृतघरणीशयनमलिनितवपुषो वन्दोपुरुषाः पलायमाना इब कलिसैन्याः समन्ततो घायेयुः, यस्मि । जात शि जस्तनिष्काष्टिवर्षपिञ्जरितहरिन्मुखमुन्मुखकुब्जबामनहठाकृष्पमाणनरेन्द्राभरणं प्रणयभरप्रणुतवारयुवतिवर्गवल्गनरणितमणिभूषणनिनदरितहरिदवकाशं निर्मर्यादमदपरवशपाययोपिदाश्लेषलज्जमानराजवल्लभं वर्धमानमानसपरितोषपरस्परपरिरब्धपाथिवभुजान्तरसं घट्टविघटितहारपतितमौक्तिकस्थपुटितास्थानमणि कुट्टिमतटं कुट्मलितसौविदल्लविषादो यस्यास्तश्राभूता सनी विजया पुत्रम् अङ्क कोडे निधाय स्थापत्रिस्वा प्रलपिन प्रलापं कर्तुम् आरभत तत्पराऽभूत । यस्येति -यस्य पुत्रस्य जन्मवार्तायाः प्रसूतिसमाचारस्य निवेदनेन सूचनेन मुखराः शब्द
कुर्वाणाः धात्रीजना उपमातृसमूहाः जननाथेभ्यो लोकपतिभ्यः पूर्णपात्र बन्ला प्राप्यमाणं पुरस्कार १० हरिष्यन्ति । 'वर्धापक्रं यदानन्दादलंकारादिकं पुनः। आकृप्य गृहाते पूर्णपानं पूर्णानलं च तत्' इति
हारावली। यस्मिन् चेति-अस्मिन् च पुत्रे कृतावतारे गृहीतजन्मनि सति, काराध्यक्षस्य वन्दीगृहस्वामिनः कोण नोटिताछेदिताः शृङ्खला येषां ते तयाभूनाः, विश्वला स्वच्छन्दा गतिर्येषां ते चिरकालकृतेन दीर्घकालं यावत्कृतेन धरणीशयनेन पृथिवीस्वापेन मलिनितं वपुर्येषां ते तथाभूता बन्दीपुरुषाः
पलायमाना धावमानाः कलिसैन्या इव कलिकालसैनिका इव समन्ततः परितो धावेयुः वेगेन गच्छेयुः । १५ यस्मिन् च जानवतीति-यस्मिन् ध पुढे जातवति सति राजकुलं राजगृहम् अवलोक्येत दृश्येत ।
कथंभूतमिति राजकुलस्यैव विशेषणान्याह-जार्स समुत्पन्न यत्पिष्टातकस्य पिष्टातकर्णस्य मुष्टिवर्ष मुष्टि मिवर्षणं तेन पिञ्जरितानि पीतवणींकृतानि हरिन्मुखानि दिङ्मुखानि यस्मिन् तत् । उन्मुखैरुद्वक्त्रैः कुब्जवामनैः कुजापर्व पुरुषहठेनाकृष्यमाणानि नरेन्द्राभरणानि यस्मिन तन् । प्रणयमरेण स्नेहभरेण प्रगृत्ता
नृत्यं कुर्वाणा या चारयुवतयो वेश्यास्तासां वर्गः समूहस्तस्य वसगनेन चलनेन रणितानि शब्दायमानानि २० यानि मणिभूषणानि रसालंकरणानि तेषां निनदेन शब्देन भरिता हरिदेवकाशा दिगन्तरालानि यस्मिन्
तन् । निमर्यादमदेन निःसीमम देन परवशाः परायता याः पण्ययोषितो वेश्यास्तासामाइलेषेण समालिङ्गनेन लजमानास्त्रपमाणा राजवल्लभा नृपतिप्रियजना यस्मिन् तत् । वर्धमानेन समेधमानेन मानसपरितोषेण हृदयानन्देन परस्परं परिरब्धानि समाश्लिष्टानि यानि पार्थिवभुजान्तराणि भूभृक्षांसि तेषां संघहेन
विघटितास्युटिता ये हारास्तेभ्यः पतितेमौंकि,कैर्मुक्काफलैः स्थपुटितं नतोसतं आस्थानमणिकुटिमतटं समा२५ भवनमणिखचिततलं यस्मिन तत् । कुमलितः संकोचितो यः सौत्रिदलानां कचुकीनां निरोधसंलापः
खेद पुनरुक्त हो गया था ऐसी विजया रानी पुत्रको गोद में रख इस प्रकार प्रलाप करने लगी-जिसकी जन्म सम्बन्धी वार्ताको सूचित करने के लिए शब्द करनेवाली धायें राजाओंसे जबर्दस्ती पुरस्कार प्राप्त करती, जिसके जन्म लेते हो बन्दीगृह के स्वामियों के द्वारा अपने
हाथसे जिनकी जंजीरें तोड़ दी जाती, जो स्वच्छन्द गतिसे चलते और चिरकाल तक पृथिवीमें ३० शयन करनेसे जिनके शरीर मलिन होते ऐसे बन्दीजन भागते हुए कलिकाल के सैनिकोंके
समान सब ओर दौड़ते । जिसके उत्पन्न होते हो जहाँ गुलालकी मुठ्ठियाँ बरसानेसे दिशाओंके अग्रभाग लाल पीले रंग के हो जाते, जहाँ ऊपर की ओर मुख किये हुए कुबड़े और बौने मनुष्यों के द्वारा राजाओंके आभूषण जबर्दस्ती खींचे जाते, स्नेहभार के प्रकट करने में प्रवृत्त
वेश्याओंके इधर-उधर चलनेसे शब्दायमान मणिमय आभूपगोंकी झनकारसे जहाँ दिशाओं३५ का मध्यभाग भर रहा होता, अत्यधिक नशासे विवश वेश्याओंके आलिंगनसे जहाँ राजाके
प्रेमीजन लज्जित हो रहे हैं, बढ़ते हुए मानसिक सन्तोषसे परम्पर आलिंगित राजाओंके वनस्थलके संघटनसे टूटे हए हारोंसे गिरे मोतियोंके द्वारा जहाँ सभा-भमिके मणिमय फा ऊँचे-नीचे होते, कंचुकियोंकी निषेधाज्ञाके हटा लेनेसे स्वतन्त्रतापूर्वक प्रवेश करनेवाले समस्त
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- राज्याः विषादः ]
प्रथमो लम्भः
निरोधसंलापनिरङ्कुश प्रविष्टा शेषज (नपदजनितसंबाधं सादरदीयमान कनकमणिमक्तिकोत्पीडमुद्धातिकबाट रत्न कोश प्रविशदत्र कितलो कलुष्यमान वस्तु सार्थं मथिगणगवेषणादेश निर्गतानेकशतप्रतीहारानीवनीपकलो कमुल्लो कहर्षं विहितमहार्हजिन महामह महमहमिकाप्रविष्टविशिष्टजन प्रस्तूयमानस्वस्तिवादं सौवस्तिकविधीयमानमंगलाचारमा चारचतुरपुराणपुरं श्री परिषदभ्यर्च्य मानगृ हृदैवतं दैवज्ञगणगृह्यमाणलग्न गुणविशेषेमशेषजनहतुमुलरवसंकुलं राजकुलमवलोक्येतौ स त्वमारसदशिव - ५ शिवावक्त्र कुहविस्फुरदन लकण जर्जरिततमसि समीरपूरित विवरवाचाटकरोटिकर्परकलितभुवि डाकिनीगणसंपातच कितपुरुषपरिहृतपरिसरे पच्यमानशवं पिशित विसुगन्धकटुके कल्याणेतरप्रवेशनिवैश्चनएकपाळावर मिरचं निर्माधं यथा स्यात्तथा प्रविष्टा येऽशेषज्ञानपदा निखिलदेशीयजनास्तैर्जनिता संबाधा यस्मिन् तत् । सादरं ससत्कारं दीयमानः कनकमणिमौक्तिकानां स्वर्णरत्नमुक्ताफलानामुत्पीडः समूहो यस्मिन् तत् । उद्घाटिताः कुवाटा अररा यस्य तथाभूतो यो रत्नकोशो मणिनिधा- १० नालयस्तस्मिन् प्रविशन्तः प्रवेशं कुर्वाणा अचकिता भयरहिता ये लोकास्तैलुप्यमानो हियमाणो वस्तुसार्थी यस्मिन् तत् । अर्थिगणस्य याचकसमूहस्य गवेषणादेशेन मार्गणाज्ञया निर्गता येऽनेकशतप्रतीहारास्तैरानीता वनीपकलोका यस्मिन् तत् । उल्लोकेन सीमातीतेन हर्षेण विहितो महार्हजिनानां महामहो पूजात्रिशेषो यस्मिन् तत् । अहमहमिकया प्रविधैर्विशिष्टजनैः प्रस्तूयमानः प्रारभ्यमाणः स्वस्तिवादो यस्मिन् तत् । स्त्रस्ति पृच्छन्तीति सौवस्तिकास्तर्विधीयमानो मङ्गलाचारो यस्मिन् तत् । आचारचतुराणां गृहविधि- १५ निपुणानां पुराणपुरन्ध्रीणां स्थविरस्त्रीणां परिषदा समुहेनाभ्यर्च्यमाणं पूज्यमानं गृहदेवतं यस्मिन् तत् । दैवज्ञगणेन ज्योतिर्वित्समूहेन गृह्यमाणो लग्नस्य गुणविशेषो यस्मिन् तत् । अशेषजनानां निखिलजनानां हर्षेण यस्तुमुलरव उच्चैःशब्दस्तेन संकुलं व्याप्तं राजकुलम् । सत्वमिति - स त्वम् भारसन्ध्यः शब्द कुर्वन्त्यो या अशिवशिवा अमाङ्गलिकश्टगाल्यस्तासां वक्त्र कुहरेभ्यो मुखगह्वरेभ्यो विस्फुरन्तो येऽनलकणा अग्निकणास्तैर्जर्जरितं तमो यस्मिन् तथाभूते, समीरेण वायुना पूरितैर्विवरंशिकद्वैर्वा चाटा जल्पाका या नृक- २० रोट्यो नरशिरांसि तेषां कर्परैः कापालैः कलिता युक्ता सूर्यस्मिन् तस्मिन्, डामराः समुत्कटा ये डाकिनीगणाः. पिशाचीसमूहास्तेषां संपातेन चकितै माँतैः पुरुषैः परिहृतः परिसरः समीपप्रदेशो यस्य तस्मिन् पच्यमानानि
J
देशवासी लोगोंकी जहाँ भीड़ इकट्ठी हो रही होती, जहाँ आदरके साथ सुवर्ण, मणि और मोतियोंको राशियाँ प्रदान की जातीं, खुले किवाड़ोंसे युक्त रत्नोंके खजाने में प्रवेश करनेवाले निर्भय मनुष्यों के द्वारा जहाँ अभीष्ट वस्तुओंके समूह लूटे जाते, याचक समूहको खोजने की २५ आज्ञा से निकले सैकड़ों द्वारपालोंके द्वारा जहाँ याचक लोग लाये जाते, अत्यधिक हर्षके कारण जहाँ महापूज्य जिनेन्द्र भगवानकी महापूजा की जाती, जहाँ प्रथम प्रवेश करनेकी प्रतिस्पर्धासे प्रविष्ट विशिष्ट मनुष्योंके द्वारा स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया जाता, जहाँ कुशल समाचार पूछनेवालोंके द्वारा मंगलाचार किये जाते, जहाँ आचार में चतुर वृद्ध-सौभाग्यवती स्त्रियों के समूह से गृहदेवताओं की पूजा की जा रही होती, जहाँ ज्योतिषियों का समूह लग्न के ३२ विशिष्ट गुणोंको ग्रहण कर रहे होते, और जो समस्त मनुष्योंकी जोरदार हर्षध्वनि से व्याप्त होता, ऐसा राजकुल दिखाई देता, वह आज उस श्मशान में किसी तरह उत्पन्न हुआ है जहाँ सब ओर शब्द करनेवाली अमांगलिक शृंगालियोंकी मुखकन्दरासे निकलनेवाले अग्नि कणोंसे अन्धकार जर्जर हो रहा है, वायुपूर्ण छिद्रोंसे शब्द करनेवाली मनुष्योंकी खोपड़ियोंसे जहाँ भूमि मलीन हो रही है, भयंकर डाकिनियों के समूहके आक्रमण से भयभीत मनुष्योंने जिसके ३५
१. क० ख० ग० अशेषपदं नास्ति । २. क० ख० ग० राजकुलमवालोक्येत । ३. क० ख० म० स त्वं मारसदृशी । ४. क० स्व० ० कपरकरिलयविदमराकिनीगण ।
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गचिन्तामणिः
[३५ राश्याः विषादः - चिताभस्मसंकटे' प्रेतबाटे जात, कथमपि जातः कथमनुपलक्षितरक्षाप्रकारे प्रणयिजनशून्ये प्रतिभटनगरपरिसरपरेतवासे वसन्वर्धिष्यसे वा। इत्थमपगतकरुणमतिदारुणमाकस्मिकमप्रतिक्रियमननुभूतपूर्वमतिदु.सह विधिविलसितं विलोकयन्त्या न मे प्राणा: प्रयान्ति' । किमिह करोमि । किं वा व्याहरामि । यदि त्यजामि जीवितं जीवितेश्वरवचनलङ्घनजन्मा महान् दोषः' ५ इत्येवं चान्यथा विलपन्तीं विगतपरिकरां परितापविह्वलामबलाम 'अलमलमतिप्रलापेन' इति कथयन्ती कापि देवता सुतसुकृतपरिपाकप्रेरिता परिचारिकायाश्चम्पकमालाया वेषमास्थाय संन्यधात् । तिरोऽधाच्च तद्दर्शनेन जाताश्वासायास्तस्याः पुनस्तन्मुखाणितभर्तृवियोगविनिश्चयेन
दह्यमानानि यानि शवपिशितानि मृतकमांसानि तेषां विसगन्धेन दुर्गन्धेन कटुकस्तस्मिन् , कल्याणेतराणि यानि चिताभस्मानि चितारक्षास्तैः सकटस्तास्मन् , प्रेतवारे श्मशाने कथमपि केनापि प्रकारेण जातः समुत्पन्नः स त्वं हे जार, हे पुत्र, भनुपलक्षितो रक्षाप्रकारो यस्मिन् तस्मिन् , प्रणयिजनशून्ये स्नेहिजनरहिते, प्रतिमटनगरस्य शत्रनगरस्य परिसरे निकटे विद्यमानो यः परेतवासः श्मशानं तस्मिन् वसन् स्वम् कथं वर्धिष्यसे वा। इत्थमिति-इत्थमनेन प्रकारेण अपगतकरुणं निर्दयम् , अतिदारुणमतिभयंकरम् , आकस्मिकमकस्माजातम् . अप्रतिक्रिय प्रतिकाररहितम्, पूर्व नानुभूतमित्यननुभूतपूर्व, अतिदःसहं कठिनतरं विधिविलसित देवचेष्टितं चिलोकयन्त्याः पश्यन्त्या ये प्राणान प्रयान्ति । इह श्मशाने किं करोमि । किं वा ग्याहरामि कथयामि । यदि जीवितं स्यजामि प्राणघातं करोमि चेत् तर्हि जीवितेश्वरस्य प्राणनाथस्य वचनलखनाजन्म यस्य तथाभूतो महान् दोषः स्यादिति शेषः । इत्येवं चान्यथा विलपन्तीं विलापं कुर्वन्ती विगतपरिकरां विगतस हायां परितापेन संतापेन विह्वला ताम् अबला विजयाम्, 'अति प्रलापेन अलमलं व्यर्थं व्यर्थम' इति कथयन्ती कापि देवता स्वार्थ तल , सुतस्य पुनस्य सुकृतपरिपाकेन
पुण्योदयेन प्रेरिता सती परिचारिकाया: सेविकायाः चम्पक्रमालापा एतनामधेयाया वेषम् भास्थाय धृत्वा . २० संन्यधात् सन्निहितामवत् । तदर्शनेन तदवलोकनेन जाताश्वासायाः समुत्पनसंतोषायास्तस्या राज्याः पुन
समीपवर्ती प्रदेशोंको छोड़ दिया है, जो पकते हुए मुर्दोके मांसकी दुर्गन्धसे दुःखदायी है, और जो चिताओंके अमांगलिक भस्मसे व्याप्त है। हाय बेटा ! जहाँ रक्षाका कुछ भी साधन
दिखाई नहीं देता तथा जो प्रेमीजनोंसे शून्य है ऐसे शत्रुनगर के निकटवर्ती श्मशानमें :. निवास करता हुआ तू किस प्रकार बढ़ सकेगा ? इस प्रकार मैं विधिकी वह लीला देख रही २५ हूँ जो दयासे रहित है, अत्यन्त भयंकर है, अचानक प्राप्त है, प्रतिकारसे रहित है, पहले
कभी भोगने में नहीं आयी, और अत्यन्त दुःसह है। इसे देखते हुए मेरे प्राण क्यों नहीं निकल रहे हैं ? मैं यहाँ क्या करूँ ? क्या कहूँ ? यदि जीवनका त्याग करती हूँ---प्राण छोड़ती हूँ तो प्राणनाथकी आज्ञाके उल्लंघनसे होनेवाला महान् दोष होता है। इस तरह तथा अन्य अनेक
प्रकारसे चिलाप करती, सहायकोंसे रहित, सन्तापसे विह्वल, अबला विजयारानी श्मशान में ३० स्थित थी कि उसी समय पुत्र के पुण्योदयसे प्रेरित कोई देवी, चम्पकमाला नामक सेविकाका
वेष रख 'बस, अधिक विलाप करना व्यर्थ हैं' यह कहती हुई उसके निकट आयी। उसके देखनेसे प्रथम तो उसे सान्त्वना प्राप्त हुई, परन्तु पीछे उसके मुखसे प्राणनाथके वियोगका
१. क० ख० ग० भस्मकण्टके । २. क. ग० प्रेतवाट के ख० प्रेतवाटजात । ३. ख० कथमभिजातः । ४. क. बसन्तं त्वां कथं वर्धयिष्ये । ख. वसत् वर्धयिष्यसे व । ५. क० मम प्राणाः प्रयान्ति ख. विलोकय. त्यामचरमाणाः प्रयान्ति। ग. विलोकयात्या मासमिमे प्राणा: प्रयान्ति ।
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३६ चम्पकमालया राश्याः समाश्वासनम् ] प्रथमी लम्भः
चैतन्यम् । देवताशक्तिस्तु प्राणप्रयाणं न्यरौत्सीत् । अरोदोच्चातिदुःसहं लब्धचेतना । प्रालापोच्च बहुप्रकारम् ।
३६. एवमवचनगोचरमापदमनुभवन्तोमात्मजपरिरक्षणपराङ्मुखीमात्मत्यागाभिमुखां च तामालोक्य चम्पकमाला 'किमेवं देवि, खिद्यसे । पश्य तव तनयस्य तरुणतामरससोदरयोश्चरणयोररुणरेखारूपाणि रथकलशपताकादीनि साम्राज्यचिह्नानि । इयं च बिभ्रती स्पष्टतरतामष्टमीचन्द्रसौन्दयंहासिनि ललाटपट्टे मुक्तकण्टमर्णा वर्णयत्यर्णवाम्बराधिपत्यम् । अयमभिनवजलधरनिनदगम्भीररुदितध्वनिः स्वराज्यस्वीकारमङ्गलशङ्खघोषनियमभिव्यनक्ति । तद्भविष्यति भगीरथादीनपि महारथानधरयन्धरायाः पतिरयम् 1 परित्यज्यतां च परित्राणचिन्ता। चिन्तामणिकल्पः कोऽपि वणिजामधिपति रधुनैवागत्य तव तनयं ग्रहोष्यति वर्धयिष्यति च महास्तस्या मुखेनाकर्णितः श्रुतो यो भवियोगः पतिमरणं तस्य निश्चयेन दृढप्रत्ययेन चैतन्यं तिरोऽधात् अन्तरधात् । मूच्छिता बभूवेति भावः । तु किन्तु देवताशक्तिः प्राणानां प्रयाणमिति प्राणप्रयाणं जीवननिःसरणं न्यरौत्सीत् निरुद्धं चकार । लब्धचेतना प्राप्तसंज्ञा च, अतिदुःसहमतिकठिनम् असेदीत् । बहुप्रकारं पालापीन प्रलापमकाच ।
६३६. एवमिति- अवचनगोचरं शब्दालीताम् आपदमनुभवन्तीम् आत्मजस्य पुत्रस्य परिरक्षणे पराङ्मुखी ताम्, आत्मनस्त्यागेऽभिमुखा तत्परा ताशी च तां विजयामालोक्य चम्पकमाला चम्पकमालावेषप्रच्छन्ना देवता 'एबमनेन प्रकारंण है दाव, हेराशे, किं खिद्यसे । पश्य तव तनयस्य तरुणतामरससोदरयोस्तरुण कमलसहयोश्चरायोः अरुणरेखारूपाणि लोहितलेखारूपाणि रथश्च कलशश्च पताका चेति स्थकलशपताकास्ता भादौ येषां तानि साम्राज्यचिहानि साम्राज्यसूचकलक्षणानि सन्तीति शेषः। अष्टम्या
चन्द्रस्य सौन्दर्य हसतीत्येवंशीले ललाटपट्टे निटिलफल के स्पष्टतरतां बिभ्रती इयम् ऊर्णा च आवतविशेषश्च अर्णवाम्बरायाः पृधिव्या आधिपस्यं स्वामित्वं मुक्तकण्ठं यथा स्यात्तथा वर्णयति प्रकटयति । २० अयं श्रूयमाण: अमिनबजलधरस्य प्रत्यप्रपयोदस्य निनद इव शब्द इव गम्भीरो रुदितध्वनी रोदनशब्दः स्वराज्यस्य स्वीकारे स्वसाकरणे यो मङ्गलशङ्खघोषस्तस्य श्रियं शोभाम् अमिव्यननिः । तत्तस्मात् कारणात् अयं बालो भगीरथादीनपि महारथान् अधरयन् तिरस्कुर्वन् धरायाः पती राजा मविष्यति । परित्राणस्य चिन्ता परित्राणचिन्ता संरक्षणचिन्ता च परित्यज्यताम् । ईषदूनश्चिन्तामणिरिति चिन्तामणिकल्पः कोऽपि निश्चय सुन उसकी चेतनाशक्ति अन्तर्हित हो गयी-वह मूर्छित हो गयी। इतना अवश्य २५ रहा कि देवताकी शक्तिने उसके प्राणोंके प्रस्थानको रोक लिया--उसे मरने नहीं दिया। चेतना प्राप्त होनेपर वह अत्यन्त दुःसह रोदन करने लगी तथा अनेक प्रकारका विलाप करने लगी।
३६. इस प्रकार जो वचन-अगोचर आपत्तिका गान कर रही थी। तथा पुत्रकी रक्षासे विमुख हो आत्मघात के सम्मुख हो चुकी थी। ऐसी विजया रानीको देख चम्पक- ३० मालाने कहा कि 'हे देवि ! इस तरह खेद क्यों कर रही हो ? देखो, तुम्हारे पुत्रके तरुण कमलके सदृश चरणों में लालरेखा रूप रथ, कला तथा पताका आदि साम्राज्य के चिह्न विद्यमान हैं । अष्टमीके चन्द्रमाके सौन्दर्यको हँसी उड़ानेवाले ललाटपट्टपर अत्यन्त स्पष्टताको धारण करनेवाली यह भँवर स्पष्ट कह रही है कि यह समुद्रान्त पृथिवीका अधिपति होगा। और चूँकि यह नूतन मेघकी गजेनाके समान इसके रोनेका शब्द, अपने राज्यकी प्राप्तिके समय ३५ वजनेवाले माङ्गलिक शङ्खके शब्दको शोभाको प्रकट कर रहा है इसलिए यह अवश्य हो'. भगीरथ आदि महारथियोंको तिरस्कृत करनेवाला पृथिवीका अधिपति होगा। इसके संरक्षण
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गद्यचिन्तामणिः [३७ राझ्याः तरोर्मूले तिरोधानम् - राजसुतोऽयमिति' इति चतुरचोमिनियरियालनिनविश्वासां महिषोमाश्वासयामास । तत्क्षण एव क्षणदान्धकारमभिनवधौतधाराधारालकिरणेन कृपाणेन दारयन्दारकमादाय मृत सुनतबचसां मुनिवराणां वचसि विश्वासादेकाकी समागच्छन्नतुच्छतेजाः प्रत्यदश्यत कोऽपि वैश्यः । पश्यन्ती च तं चम्पकमाला 'पश्य देवि, मदुबतोऽयमागतः । विश्वस्यतामेवमन्यदपि मद्ववचनम् । यावदयमेनमादाय कुमारमपसरति तावदन्तरितया त्वया स्थातव्यम्' इत्यभ्यधात् ।
३७. तदुक्तमुत्तमाङ्गना सापि विश्वसन्तो निःश्वसन्ती च विषादेन विगतरक्षणाभ्युपायतया तथाभावितया च तस्य वस्तुनः प्रस्नृतस्तनी स्तन्यं पाययित्वा च भूतले भूपलाञ्छन
वणिजामधिपतिर्वेश्यवरः अधुनैव साम्प्रतमंव तव तनयं पुत्रं ग्रहीप्यति वर्धयिष्यति च । अयमंध महाराजस्य सत इत महाराजसुतः पृथि पतिपुत्रो वर्तत इति शेषः।' इति पूर्वोकप्रकारः, चतुरतराणि अतिशयन चतुराणि चतुरतराणि तथाभूतानि वसि चतुरतरवचासि तैश्चातुर्यपूर्णवचनैः चिरपरिचयेन जनितो विश्वासः प्रत्ययो यस्यास्तां तथाभूतां महिषी विजयाराज्ञीम् आश्वासयामास सान्त्वयामास । तत्क्षण इतितरक्षण एवं सस्मिन्नेव काले अभिनवधाता प्रत्यग्रप्रक्षालिता या धारा तस्या धारालाः सन्ततिबद्धाः किरणा यस्य तेन तथाभूतेन कृपाणेन करवालेन क्षणदान्धकार रजनीतिमिरं दारयन् खण्डयन मृत दारकं
नन्दनं 'नन्दनो दारकोऽभकः' इति धनंजयः भादाय गृहीत्वा सूनृतवचसा सत्यप्रियवचनानां मुनिवराणां १५ यतिश्रेष्टानां वचसि बचने विश्वासात् प्रत्ययात् एकाकी एककः 'एकादाकि नच्चासहाये' इत्याकिनच्प्रत्ययः
अतुच्छतेजा विपुलप्रतापः कोऽपि बैश्यः प्रत्याश्यत दृष्टः । तं वैश्यं पश्यन्ती च चम्पकमाला 'हे देवि, पश्य मदुक्कोऽयं वणिजामधिपतिरागतः एवमेताहशमंच अन्यदपि मवचनं विश्वस्यतां प्रतीयताम् । यावद् यावता कालेन अयं वैश्यबर एन कुमारम् भादाय अपसरति दूरीभवति तावत् तावत्कालपर्यन्तं त्वयान्तरितया तिरोहितया स्थातव्यम्' इति अभ्यधात् जगाद।।
६३७ तदुक्तमिति-तस्या देवताया उक्तं तदुर विश्वसन्ती प्रतियती विषादेन खेदेन निःश्वसन्ती च सा उत्तमाङ्गनापि विगतरक्षणाभ्युपायतया रक्षोपायराहित्येन तस्थ वस्तुनः कार्यस्य पुत्रत्यागरूपस्यति यावत् तथाभावितया तद्पतया प्रस्तुतौ स्तनो यस्यास्तथाभूता सती स्तन्यं दुग्ध
२०
की चिन्ता छोड़िए । चिन्तामणिके समान कोई वैश्यपति अभी हाल आकर तुम्हारे पुत्रको ले जायेगा और 'यह महाराजका पुत्र है' यह समझकर उसको बढ़ावेगा-उसका लालनपालन करेगा। इस प्रकार के अत्यन्त चतुर वचनोंके द्वारा चम्पकमालाने चिर कालके परिचयसे उत्पन्न विश्वाससे युक्त विजया रानीको सान्त्वना दी। उसी क्षण नूतन धुली हुई धाराकी सन्त तिबद्ध किरणोंसे युक्त तलवार के द्वारा रात्रिके अन्धकारको चीरता हुआ मृत पुत्रको लेकर सत्यवादी मुनियों के वचनमें विश्वास होनेसे अकेला आना अतुच्छ तेजका
धारक कोई चैश्य दिखाई दिया। उसे देखती हुई चम्पकमालाने रानीसे कहा कि 'हे देवि ! ३० देखो, मेरे द्वारा कहा हुआ वह वैश्यपति आ पहुँचा। इसी प्रकार मेरे अन्य वचनोंका भी
विश्वास कीजिए। जब तक यह वैश्य इस कुमारको लेकर जाता है तब तक तुम्हें छिपकर खड़ी रहना चाहिए।'
६३७. चम्पकमालाके कथनका विश्वास करनेवाली विजया रानीने खेदसे एक लम्बी वाम छोड़ी और रक्षाका अन्य उपाय न होनेसे अथवा उस वस्तुकी वैसी ही होनहार होनेसे ३५ उसने द्रवीभूत स्तनोंसे युक्त हो बालकको दूध पिलाया, पृथिवी तलपर सुलाया, उसके हाथ में
१. क० ग० यावदन मेवमादाय ।
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प्रथमो लम्भः
महितं महार्हमङ्गुलीयकमस्य करे न्यस्य सप्रणामम् 'रक्षन्तु जिनशासनदेवता:' इत्याचक्षाणा क्षोणोपतिपत्नी परिचारिकाप्रयत्नेन तनय परिसरादपसरन्ती समीपतरवर्तिनः कस्यचन तरोर्मूले तिरोधाय तस्थौ ।
1
- ३८ गन्धोत्कटेन कुमारप्राप्तिः ]
७७
$ ३८. तावता समुपेत्य स वणिक्पतिरपगतासुमात्मसुतं प्रेतावासे परित्यज्य पार्थिवतनयमन्वेषमाणः क्षोणीतलशायिनम्, नैशान्धकारपटल भेदिना देहप्रभाप्रतानेन प्रदर्शयन्तमात्मानम् ५ राहुग्रहणभयेन धरण्यामुद्यन्तमिव मार्तण्डम् मन्द्रतारेण रुदितरवेण मुखरयन्तमाशामुखम्, सहजप्रताप विस्फुलिङ्गशङ्का करेण रत्नाङ्गुलीयकमरीचिजालेन किसलयितकर, अविरलगर्भरागपाटलवपुषमङ्गारकमिव भूगर्भान्निर्गतम्, दुर्गत इव दुर्लभं धनं धरापतितनय मालोक्य
पाययित्वा च तं भूतले पृथिवीपृष्ठे भूपस्य लाञ्छनेन नाम्ना महितं श्लाघितं महाहं महामूल्यम् अङ्गुलीयकमङ्गुल्याभरणभूतां मुद्रिकाम् अस्य कुमारस्य करें न्यस्य निक्षिप्य सप्रणामं सनमस्कारं ''जिनशासन- १० देवता 'जिनशासनप्रभावकव्यो रक्षन्तु' इत्याचक्षाणा कथयन्ती क्षोणीपतिपत्नी राज्ञी परिचारिकायाः प्रयत्नस्तेन चम्पकमालायासेन तनयपरिसरात पसीद, अपसम्न्ती समीपतरवर्तिनोऽतिनिकटस्थस्य करवचन तरोः कस्यापि वृक्षस्य मूले तिरोधायान्तर्धा तस्थौ I
३८. तावतेति तावता तावत्कालेन समुपेश्य समागत्य स वणिक्पतिर्गन्धोत्कटः अपगता असवो यस्य तं मृतम् आत्मसुतं स्वसुतं प्रेताचासे श्मशाने परित्यज्य पार्थिवतनयं नृपेन्द्रनन्दनम् अन्वेष- १५ माणो मार्गमाणः, निशाया इदं नैशं तच्च तदन्धकारपटलं चेति नैशान्धकारपटलं तस्य भेदिना हारिणा देहप्रभा प्रतानेन शरीरसुषमासन्दोहेन आत्मानं स्वं प्रदर्शयन्तमवलोकयन्तम्, राहुमहणमयेन विधुन्तुदाक्रमणीया धरण्यां पृथिव्याम् उद्यन्तं समुदीयमानं मार्तण्डमिव सूर्यमिव मन्द्रतारेण उच्चगमीरेण रुदितरवेण रोदनशब्देन आशामुखं दिङ्मुखं मुखरयन्तं शब्दायमानम्, सहजश्चासौ प्रतापश्चेति सहजप्रतापः स्वाभाविकतेजस्तस्य विस्फुलिङ्गाः कणास्तेषां शङ्कायाः करं तेन रत्नाङ्गुलीयकमरीचिजालेन मणि- २० मुद्रामरीचिमण्डलेन किसलयितः पल्लवितः करो यस्य तमू, अविरलो निरन्तरो यो गर्भरागो गर्भारुणिमा तेन पाटलमषितं वपुर्यस्य तम्, अतपुत्र भूगर्भान्महीमध्यानिर्गतम् अङ्गारकमिव घरापतितनयं राजपुत्रं
राजा के नाम से श्रेष्ठ अत्यन्त प्रशस्त अंगूठी पहनायी और प्रणामपूर्वक कहा कि 'जिन शासन के देवता इसकी रक्षा करें।' इतना सब कर चुकने के बाद रानी, परिचारिका के प्रयत्नसे पुत्र के पाससे हटकर किसी समीपवर्ती वृक्ष के नीचे छिपकर खड़ी हो गयी ।
२५
३८. उसी समय वह वैश्यपति अपने मृत पुत्रको श्मशान में छोड़कर राजपुत्रको खोजता हुआ इधर-उधर घूमने लगा । तदनन्तर कुछ ही समय में उसने उस राजपुत्रको देखा जो पृथिवीतलपर शयन कर रहा था, रात्रिसम्बन्धी अन्धकारके पटलको भेदन करनेवाले शरीर की कान्ति के समूह से जो अपने आपको दिखला रहा था, जो राहुके ग्रहण के भय से पृथिवीतलपर उदित होता हुआ मानो सूर्य ही था, गम्भीर एवं उच्च रोनेके शब्दसे जो ३० दिशाओंके अग्रभागको शब्दायमान कर रहा था, साथ ही साथ उत्पन्न हुए प्रतापके तिलगोंकी शंका करनेवाली रत्नमयी अंगूठीकी किरणावलीसे जिसका हाथ पल्लवसे युक्त जैसा जान पड़ता था, और गर्भसम्बन्धी अविरल लालिमासे युक्त शरीर होनेके कारण जो पृथिवी के गर्भ से निकले हुए अंगार के समान जान पड़ता था। देखते ही जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य दुर्लभ धनको बड़े आदर के साथ उठाता है उसी प्रकार उसने उस राजपुत्रको बड़े ३५
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गयचिन्तामणिः
[३६ राश्याः तापसांश्रम
हर्षकण्टकिताभ्यां कराभ्यामत्यादरमादत्त । आदीयमान एवं स कुमारः क्षुतमकरोत् । अनावि च तत्क्षणमन्तरिक्षे 'जीव' इति जातजीवितदेयशंसी शब्दः । तेन च दिव्यवचनेन नितरां प्रोतः स वेश्यः काश्यपीपतितनयस्य तदेव नाम संकल्पयन्ननल्पविभवमात्मभवनमासाद्य 'कथमनुपरतं
सुतमुपरत इति कथितवती' इति कृतकरोषेण पत्नों भर्त्तमानो' वत्समस्याः करे समापिपत्। सा ५ च गन्धोत्कटभार्या सुनन्दा चन्द्रमसमिव हृदयानन्दनमानन्दबाष्पवारिमुचा चक्षुषा क्षालयन्तीव क्षितितलमिलितधूलोधूसरं तदङ्गमनङ्गभिव रतिरचितचिरसमाराधनमुदितपुर मथनपुनःप्रतिपादितशरीरं कुमारमादरादाददे ।
३९. सा च धात्रीवेषधारिणी देवता दयितमरणेन तनयवियोगेन च विजृम्भमाणदारुणशोकदहनदह्यमानहृदयामनभिमतजीविता विजयां निजानुभावादाश्वास्य तामनभि१० दुर्लभ दुष्प्राप्यं धनं दुर्गत इव दरिद्र इव आलोक्य दृष्ट्वा, हर्षकारकिताभ्यां प्रमोदपुलकिताभ्यां कराभ्याम्
अस्यादरं भूरिसमानसहितं यथा स्यात्तथा आदत्त जग्राह | आदीयत इत्यादीयमान एव स कुमारो राजपुत्रः क्षुतं छिकाम् अकरोत् । तत्क्षणं तत्समये च अन्तरीक्षे गगने 'जात' इति जातस्य पुत्रस्य जीवितं तस्य देयं तच्छंसतीत्येवंशीलो जातजीवितसूचकः 'जीच' इति शब्दः अश्रावि श्रुतः । तेन घ दिव्यधचनेन
अलौकिकवचनेन नित शातिय प्रस: सः ६ पैश्यः काश्यापतितनयस्य पृथिवीपतिपुत्रस्य तदेव १५ 'जीव' इत्येव नाम संकल्पयन् निश्चिन्वन् अनल्पविमवं प्रचुरवैभवोपत आस्मभवन स्वसदनम् आसाथ : प्राप्य 'अनुपरलममृतं सुतं उपरतो मृत इति कथं कथितवती' इति कृतकरोषेण कृत्रिमकोपेन परनी भत्समानो भसनां कुर्वाणः अस्याः पत्न्याः करे हस्ते वसं पुत्रं समापिपत् समर्पितवान् । सा च गन्धोरकटभार्या सुनन्दा चन्द्रमसमिव चन्द्रमिव हृदयानन्दनं स्वान्तावादकारकम्, रत्यारचितं यच्चिरसमाराधनं दीघकाल
सेवनं तेन मुदितः प्रसनो यः पुरमथनः शिवस्तन पुनः प्रतिपादित भूयः प्रत्यर्पितं शरीरं यस्य तथाभूतम२० नङ्गमिव मदनमित्र कुमार पुत्रम् आनन्दवाष्पमंच हर्षाश्वेव वारि जलं मुब्बतीति तेन चक्षुषा क्षितितलात् पृथिवीसलात् मिलितया धूल्या धूसरं मलिनं तदनं तत्तनुं क्षालयन्तीव आदराद् आदडे जग्राह ।
३६. सा चेति-धात्रीवेषधारिणी चम्पकमालावेषधारिणी देवता पुनप्रणयप्रेरिता देवी दयितमरणेन वल्लभमृत्युना तनयवियोगेन च पुत्रविरहेण च विजृम्ममाणो वर्धमानो यो दारुण
आदरके साथ, हर्षसे रोमांचित दोनों हाथोंसे उठा लिया। उठाते ही उस कुमारने छौंका २५ और उसी समय आकाशमें 'जीव'-जीवित रहो' इस प्रकार पुत्रकी आयुकी दीपनाको
सूचित करनेवाला शब्द सुनाई दिया। उस दिव्य वचनसे अत्यन्त प्रीति का अनुभव करनेवाला वैश्यपति, राजपुत्रका बही-'जीवक' नाम रखनेका संकल्प करता हुआ अत्यधिक वैभवसे यक्त अपने घर आया और 'तमने जीवित पत्रको मरा हआ कैसे कह दिया इस
प्रकार बनावटी क्रोधसे पत्नीको डाँटते हुए उसने वह पुत्र उसके हाथों में सौंप दिया। चन्द्रमाके ३० समान हदयको आनन्द देनेवाले एवं पृथियोनलपर लेटनेसे लगी धूलिसे धूसर उस बालकके
शरीरको जो हर्पाश्रुरूप जलको छोड़नेवाले नेत्रोसे धोती हुई सी जान पड़ती थी ऐसी वैश्यपति गन्धोत्कट की भार्या सुनन्दाने उस बालकको बड़े आदरसे ले लिया। उस समय वह बालक ऐसा जान पड़ता था मानो रतिके द्वारा की हुई चिरकाल तकको सेवासे प्रसन्न महादेवके
द्वारा जिसका शरीर पुनः वापस दे दिया गया है ऐसा अनंग-कामदेव ही हो। ३५ ६ ३६. उधर धायके वेषको धारण करनेवाली देवीने पतिकी मृत्यु तथा पुत्रके वियोगसे बढ़ते हुए दारुण शोकानलसे जिसका हृदय जल रहा था एवं जिसे जीवित
१. म. भसंयमानो।
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.- प्राप्तिः ]
प्रथमो लम्भः नन्दितसनाभिगृहगमनामविदितकर्तव्यां विश्वसत्त्वविसम्भवितरणशौण्डदण्डकारण्यान्तःपातिनं पत्रलपरिसरपादपनिर्वासितपथिकपरिश्रम तापसाश्रममनैषोत् । सा च तत्र संतापकृशानुकृशतरा कृशोदरी करेणुरिव कलभेन धेनुरिव दम्येन श्रद्धेव धर्मेण श्रीरिव प्रश्रयेण प्रज्ञेव विवेकेन तनुजेन विप्रयुक्ता विगतशोभा सती विमुक्तभूषणा तापसवेषधारिणी करुणाभिरिव मूर्तिमतीभिर्मुनिपत्नीभिरुपलाल्यमाना मनसि जिनचरणसरोजमात्मजवृद्धि च ध्यायन्ती समुचितव्रतशील- ५ परित्राणपरायणा पाणितलविलूनाभिर्म रकतहरिताभिर्दूर्वा मुष्टिभिर्मोदयन्तो नन्दनाभिवर्धनमनोरथविनोदनाय मुनिहोमधेनुवत्सानवात्सीत् । सा च साधितसमोहिता देवता तत्रैव तपोबने ताम
शोक एवं दहनो बहिस्तेन दहामानं हृदयं यस्यास्ताम्, अनमिमतमनभिप्रेतं जीवितं यस्यास्तां विजयां निजानभावात्स्वमहिम्ना आश्वास्य सान्त्वयिस्ता अनमिनन्दितमननमोदितं सनाभिगा सहोदरगृहगमनं यया तथाभूतां अविदितकर्तग्यामज्ञातस्वकर्तव्यां हां विजयां विश्वसत्वेभ्यो निखिल- १० प्राणिभ्यो विस्रम्भस्य विश्वासस्य वितरणे प्रदाने शौण्डं समर्थ यद् दण्डकारण्य दण्डकवनं तदन्तःपातिनं तन्मध्यस्थितं पन्नलैः पत्रयुक्नः परिसरपादपैस्तटतरुभिनिर्वासितो दूरीकृतः पथिकपरिश्रमो यस्मिन् तं तापसाश्रमं तपोवनम अनैषी नयति स्म 'अकथितं च' इति विकर्मकात्रम् । सा चेति-सत्र तापसाश्रमे संताप एव कृशानुस्तेन दुःखाग्निना कृशतरा अतिक्षीणा सा च कृशोदरी विजया कलभेन शावकेन : विप्रयुका करणुरिष हस्तिनीय, दम्येन तर्णकेन विप्रयुक्ता धेनुरिव गौरिख, धर्मेण चारित्रेण १५ विप्रयुक्ता अद्वेष रुचिरिव, प्रश्रयेण विनयेन विप्रयुक्ता श्रीरिव लक्ष्मीरिव, विवेकेन सदसज्ज्ञानेन विप्रयुक्ता प्रज्ञेव बुद्धिरिव तनुजेन पुत्रेण विप्रयुक्ता रहिता विगतशोभा नष्टश्रीः सती विमुक्तानि भूषणानि यया सा स्यनालङ्कारा तापसवेषधारिणी तपस्विवेषधारिका, मूर्तिमीभिः शरीरधारिणीभिः करुणाभिरिवानुकम्पाभिरित्र मुनिपानीभिस्तापसीमिः उपलाल्यमाना प्रसाधमाना मनसि चेतसि जिनचरणसरोजमहत्पादारविन्दम् भात्मजवृद्धिं च सुतवृद्धिं च ध्यायन्ती चिन्तयन्ती समुचितयो २० व्रतशीलयोः परित्राणे रक्षणे परायणा तःपरा, पाणितलविलूनाभिः स्वहस्ततलच्छिमाभिः मरकतहरितामिमरकतमणिसदृशहरितवर्णाभिः पूर्वामुष्टिमिः शतपर्वमुष्टिभिः, नन्दनस्य दारकस्याभिवर्धनमनोरथाः पालनामिप्रायास्तेषां विनोदनाय दूरीकरणाय मुनिहोमधेनुवत्सान् तापसहोमगोतर्णकान् मोदयन्ती प्रसादयन्ती, . - - - - रहना इष्ट नहीं था ऐसी विजया रानीको अपने प्रभावसे आश्वासन देकर शान्त किया। . तदनन्तर जिसने अपने भाई के घर जाना स्वीकृत नहीं किया था, और अपने कर्तव्यका भी २५ जिसे बोध नहीं था ऐसी विजया रानीको वह देवी, समस्त जीवोंको विश्वास देने में समर्थ दण्डक बनके अन्तर्गत, हरे-भरे तटवर्ती वृक्षोंसे पक्षियोंका भय दूर करनेवाले तापसाक आश्रममें ले गयी। सन्तापसे जिसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, ऐसी कृशोदरी बिजया रानी उस आश्रम में बच्चेसे रहित हस्तिनीके समान, बछड़ेसे रहित गायके समान, और विवेकसे रहित प्रज्ञाके समान पुत्रके बिना सुशोभित नहीं हो रही थी। उसने सब आभषण उतारकर ३० दर कर दिय तथा तपस्विनीका वेष धारण कर लिया। जो मतिमती दयाके समान जान पड़ती थीं ऐसी मुनिपत्नियाँ बड़े प्रेमसे उसका लालन करती थीं। वह सदा हृदयमें जिनेन्द्र भगवान्के चरण कमल और पुत्रकी वृद्धिका ध्यान करती रहती थी। अपने योग्य व्रत और शीलकी रक्षामें सदा तत्पर रहती थी तथा पुत्रकी वृद्धिसम्बन्धी मनोरथको बहलाने के लिए 31
३५ मुनियोंकी गायोंके बछड़ों को अपने हस्ततलसे काटी हुई मरकत मणिके समान दृब की हरी
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५०
गद्यचिन्तामणि: [ ४० गन्धोरकटेन पुत्रजन्ममहोत्सवायोजनम् -
वस्थाप्य ' सुतावस्थामवगम्यागमिष्यामि इत्यभिधाय तिरोधात् ।
$ ४०. गन्धोत्कटश्च हर्षोत्कटेन मनसा सम समयप्रहत मेरी मृदङ्गमर्दलका हलकांस्यतालशङ्खघोषण मुषितेत रशब्दसमुन्मेपम् तोषपरवशवंश्य जनजन्यमान संमर्द' विकीर्यमाणपिष्टातकपांसुधूसरीभवदहस्करालोकम्, उल्लोक वितीर्यमाणवित्तमुदितार्थिवर्गविधीयमानाशीर्वादम्, वचनावचन५ विवेकविधुरपरिजन प्रवर्त्य मानलोलालाप कलकल संकुलम्, समन्तादावर्ज्यमान तैलधारा पिच्छिलधरातलस्खलितलोकम्, प्रमोदमयमिव प्रदानमयमिव प्रसूनमयमिव सत्कारमयमिव संगीतमयमिव संमर्दमयमिव लास्यमयमित्र लावण्यमयमिव लक्ष्मीमयमिव लक्ष्यमाणमात्मजजन्म महोत्सव मन्वभूत् । अवासीत् निवासं चकार । साधितं पूर्ण समीहितं यस्यास्तथाभूता सा देवता च तां विजयां तत्रैव तपोवने sushantतःपातिनि तापसाश्रमे, अवस्थाप्य 'सुतावस्थां पुत्रदशाम् अवगम्य ज्ञात्वा आगमिष्यामि' १० इत्यभिधाय कथयित्वा तिरोधात् अन्तर्हिता बभूव ।
६ ४०. गन्धोत्कटश्चेति-- गन्धोत्कटश्च तन्नामवैश्यपतिश्च हर्षोत्कटेन प्रमोदनिर्भरेण मनसा समसमयं युगपत् प्रहस्तादिता भेर्यादयो वादिविशेषास्तेषां घोषणेन शब्देन मुषितोऽपहत इतर शब्दानामन्यशब्दानां समुन्मेषो विकासो यस्मिन् तम्, तोषेण हर्षेण परवशाः परायत्ता ये वंश्यजनाः, कुटुम्बिनास्तैर्जन्यमानः क्रियमाणो यः संमर्दो जनसमूहस्तस्मिन् विकीर्यमाणेन प्रक्षिप्यमाणेन पिष्टातकपांसुना पिष्टा१५ तकनामचूर्णेन धूसरीभवन्मलिनीभवन् अहस्करालोकः सूर्यप्रकाशो यस्मिन् तमू, उल्लोकं प्रचुरतरं यथा स्वासथा वित्तीर्यमाणेन दीयमानेन विसेन धनेन मुदिताः प्रसन्ना येऽथिंबर्गा याचकसमूहास्तैर्विधीयमान आशीर्वादो यस्मिन् तम् वनावधनयोर्वकन्यावध्यशब्दयोविवेकेन बोधेन विधुरा रहिता थे परिजनास्तैः प्रवत्यमानो थी लीलालाक क्रीडाभाषणं तस्य कलकलेन कोलाहलेन संकुलस्तम्, समन्तात्परित भावयमाना या तैलधारा तथा पिच्छिले पहिले घरातले स्खलिता लोका यस्मिन् तम्, प्रमोदमयमित्रानन्दमयमिव २० प्रदानमयमिव प्रकृष्टदानमयभित्र प्रसून मंयमित्र पुष्पमयमिव, संगीतमय मित्र मधुरगीतमयभिव, समईमयमिव जनसमूहमयमिव, लास्यमयभित्र नृत्यमयमित्र, लावण्यमयमिव सौन्दर्यमयमिव, लक्ष्मीमयभिव श्रीमयमित्र लक्ष्यमाणम् आत्मजस्य जन्ममहोत्सवस्तम् अन्वभूत् । उपसर्गवशालवतेः सकर्मकत्वम् ।
हरी मुट्ठियोंसे सदा प्रसन्न करती हुई रहती थी। इस प्रकार मनोरथको सिद्ध करनेवाली देवी, विजया रानीको उस तोवनमें ठहरा कर 'मैं पुत्रकी अवस्था जानकर आऊँगी' यह कह २५ अन्तर्हित हो गयी ।
४०. इधर वैश्यपति गन्धोत्कटने से परिपूर्ण हृदयसे पुत्र जन्मके उस महोत्सबका अनुभव किया जिसमें एक साथ ताड़ित भेरी, मृदङ्ग, मर्दल, काहल, झाँझ, और शङ्खोंके शब्द से अन्य शब्दों का उन्मेष अपहृत हो गया था, आनन्दसे विवश कुटुम्बी जनके द्वारा की हुई भीड़पर फेंकी जानेवाली गुलालको एलिसे जिसमें सूर्यका प्रकाश धूसर हो रहा था, ३० अत्यधिक मात्रा में दिये जानेवाले धनसे प्रसन्न याचकों के समूह जिसमें आशीर्वाद दे रहे थे,
' कहना चाहिए या नहीं कहना चाहिए इसके विवेकसे रहित परिजनोंके द्वारा किये जानेवाले विनोदपूर्ण वार्तालापकी कल-कलसे जो व्याप्त था, सब ओर छोड़ी जानेवाली तेलकी धारासे पङ्किल पृथिवीतलपर जहाँ लोग फिसल- फिसलकर गिर रहे थे, तथा जो हर्षमय के समान, दानमय के समान, पुष्पमयके समान, सत्कारमय के समान, संगीतमय के ३५ समान, भीड़ से तन्मय के समान, नृत्यमय के समान, सौन्दर्यमयके समान, और लक्ष्मीमयके समान दिखाई देता था ।
१. क० ख० ग० वंश्यजनसमान संमर्दम् ।
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-४१ जीवन्धरस्य नामकरणम् ] प्रथमो लम्मा
४१. अजः स तु काष्ठाङ्गार: स्वराज्यलाभजन्मना हर्षेण विहितोऽयमुत्सव इति मन्वानस्तस्मै सगौरवं कुरुकुलमहीपालपरम्परापरिपालितमखिलमपि राजकोशमदिशत् । आदिशच्च तदपेक्षया तत्क्षणे तन्नगरजांश्च जातान्गन्धोत्कटगृह एव तत्सुतेन सह संवर्धयितुम् । तदेवं स्वापतेयेनैव स्वकीयेन सहितस्याहि सप्तमे सप्तसप्तिसमतेजसस्तनयस्य जीवन्धर इति प्रथमसंकल्पितं नाम चकार चक्रवर्ती वणिजाम् ।
६४२. ततश्च क्रमेण तैश्च समानवयोभिर्वयस्यैरनु जैन सुनन्दानन्दनेन नन्दाढयेन सममाट्यारिबुढस्य गन्धोत्कटस्य सअनि वत्मनि दिविषदामोषधीनाथ इव नक्षत्रः, पाकशासनवेश्मनि पारिजात इव कल्पद्रुमैः, उदन्वति कौस्तुभ इन मणिभिरनुवासरं वर्धमानलावण्यः पुण्येन
४१. अज्ञः स त्वति--तु किन्तु अज्ञो विवेकशून्यः स काष्टाङ्गारः स्वराज्यस्य लाभाजन्म यस्य तेन स्वकीयराज्यमाप्तिसमुत्पन्चेन हर्षेण भयमुत्सवो विहितः कृत इति मन्यानो सम्यमानस्तस्मै गन्धोत्कटाय १० कुरुकुलस्य कुरुवंशस्य महीपालपरम्परा भूपालसन्ततिस्तया परिपालितं रक्षितम् अखिलमपि समग्रमपि राजकोशं नृपतिनिधानम् अदिशत् ददौ। तदपेक्षया गन्धोत्कटानुरोधेन च तन्क्षणे तत्समये सन्नगरजान् तनगहुँत्पन्नान् जातान् पुन्नान् गन्धोत्कटगृह एष तरसुतेन श्मशानप्राप्तेन सह संवर्धयितुं पोषयितुम् आदिशत् आज्ञपयामास । तदेवं तदित्थं स्वकीयेनैव स्वापतेयेन धनेन सहितस्य सससप्तिसमं सूर्यसलं तेजो यस्य तस्य तनयस्य सप्तमेऽह्नि दिवसे पणिजां चक्रवर्ती प्रधानो गन्धोत्कटो वणिक्पति रिति यावत् 'जीवन्धर' । इति प्रथमसंकल्पितं पूर्वनिश्चितं नाम चकार ।
४२. ततश्चेति-ततश्च तदनन्तरं च क्रमेण समान वयो येषां तैर्वयस्यैः सखिमिः अनुजेन लघुसहोदरेण सुनन्दाया गन्धोत्कटपरन्या नन्दनस्तेन नन्दायेन तन्नाम्ना समं सार्धम् आग्यपरिवृहस्य वैश्यरसे: गन्धोकटस्य समनि भवने दिविषदां देवानां वर्मनि मार्गे गगन इत्यर्थः नक्षत्रैः समम् ओषधीनाथ इन चन्द्र इव, पाकशासनस्य पुरन्दरस्य वेश्मनि मवने कल्पद्रुमैः सार्ध पारिजात इव कल्पवृक्ष इव, २० उदन्वति सागरे मणिभिः सह कौस्तुभ इव कौस्तुममणि स्वि अनुवासरं वासरं वासरं प्रति अनुवासरं वर्धमान लावण्यं यस्य स एवंभूतो जीवन्धरः प्रजानां पुण्येन अवधंत वृद्धि जगाम । प्रतिदिवसं प्रतिवासरम्
४१. उधर मूर्ख काष्ठांगारने समझा कि यह उत्सब हमारे लिए राज्यकी प्राप्तिसे उत्पन्न हर्ष के कारण किया गया है इसलिए उसने कुरुवंशकी राजपरम्परासे परिपालित सबका-सब राजखजाना गन्धोत्कट को दे दिया। साथ हो गन्धोत्कटके कहे अनुसार उसने २५ यह आज्ञा भी दे दी कि उस समय उस नगरमें जितने बालक उत्पन्न हुए हों उन सबका गन्धोत्कट के घरमें ही उसके पुत्रके साथ लालन-पालन हो । इस प्रकार अपने ही धनसे सहित एवं सर्यके समान तेजके धारक उस पुत्रका वैश्यपंतिने सातवें दिन पहलेसे ही संकल्पित 'जीवन्धर' यह नाम रखा ।
४२. तदनन्तर क्रमसे समान अवस्थावाले उन मित्रों और छोटे भाई सुनन्दाके पुत्र ३० नन्द्रायके साथ वैश्यशिरोमणि गन्धोत्कटके घर, जीवन्धर, प्रजाओंके पुण्यसे उस प्रकार बढ़ने लगे जिस प्रकार कि आकाशमें नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा बढ़ता है, इन्द्र के घर कल्पवृक्षोंके साथ पारिजात बढ़ता है, और समुद्रमें अनेक मणियोंके साथ कौस्तुभ मणि बढ़ता है। उस
१. क० ख० ग० अथाज्ञः । २. क० 'स तु नास्ति । ३. क० ख० ग० चकारो नास्ति । ४, क खः ग० पाकशासनपारिजात इव ।
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८२
१५
गद्यचिन्तामणिः [४३ जीवन्धरस्य शैशवकालः प्रजानामवर्धत जीवन्धरः । तेन च प्रतिदिवसमुदयमासादयता जलनिधिरिव चन्द्रेण कमलाकर इव दिवसकरेण नितरामैधिष्ट गन्धोत्कटः ।
$ ४३, प्रमदोत्कटे गच्छति काले कलहंसपोत इव कमलात्कमलं दर्पणमिव कराकर धात्रीणामुपसर्पन्, प्रसर्पता निर्हेतुकहसितचन्दालोकेन बन्धजनहृदयकुमदाकरमुल्लासयन् उन्मी५ लिते निखिलभुवनव्यापिनि निजतेजसि किमनेनेति गृहप्रदोपानिर्वापयितुमिव स्प्रष्टुमिच्छन्,
अतुच्छरत्नशिलाघटितभवनभित्तिसंनिवेशदृश्यमानमात्मप्रतिबिम्बमद्वितीयताभिनिवेशेन नायितुमिव परिमृशन्, भाविभर्तृभावावबोधिन्या मेदिन्येव विहारधूलीव्याजेनालिङ्गितशरीरः, समीरतरलितानेरलिकतटविलुलितैरलिनिचयमेचकैः कचपल्लवैलिभाव एवं वल्लभत्वमभिलषन्त्याः
उदयमभ्युदयम् आसादयता प्राप्नुवता तेन च पुत्रेण गन्धोत्कटः चन्द्रेण जलनिधिरिब सागर इव दिवस१० कोण सूर्येण कमलाकर इद पनवनमिव नितरां सातिशयम् ऐधिष्ट चवृधे ।
६४३. प्रमदोत्कट इति–प्रमदेन हर्षेणोरकटस्तस्मिन् 'मुत्प्रीतिः प्रमदो हषः प्रमोदामोदसंमदाः' इत्यमरः । कालेऽनेह सि गच्छति सति, कमलात्कमलं कलहंसपोत इव कादम्बशावक इच, दर्पणमिय मुकन्दमिव धानीणामुपमातणां कराकर हस्ताद्ध स्तमुपसर्पन , प्रसर्पता प्रसरता, निहें तुकं निनिमित्तं हसितमेव चन्द्रालोक इन्दुप्रकाशस्तेन बन्धुजनहृदयकुमुदाकर बन्धुजनमन: कैरवकाननम् उल्लासयन् विकासयन्, निखिलभुवनं कृत्स्नलोकं व्याप्नोतीत्येवं शीलं तस्मिन् निजतेजसि स्वप्रतापे उन्मीलिते प्रकटिते सप्ति अनेन किं प्रयोजनमिति हेतोः गृहप्रदीपान् निर्वापयितुं विध्यापयितुमिव स्पष्टुमिच्छन् , अतुच्छामिविशालामी रत्नशिलाभिघटिता रचिता या भवनभित्तयस्तासां संनिवेशे दृश्यमानमवलोक्यमानम् आरमप्रतिबिम्ब स्वप्रतिकृतिम् अद्वितीयताया अभिनिवेशस्तेन सदाहमाद्वितीयः स्यामित्यमि
प्रामेणेव नाशयितुं परिमृशन स्पृशन्, भावी चालो मतृभावश्चेति भाविमतभावो भाविपतिमावस्तस्याव२० पोधिनी तया मेदिन्येव पृथिव्येव विहारधूलीच्याजेन क्रीडापरागदम्भन आलिङ्गितं शरीरं यस्य तथाभूतः, • समीरेण वायुना तरलितं चञ्चलीकृतमग्रं येषां तैः अलिकतटे भालसटे विलुलितास्तैः अलिनिश्चय इव भ्रमरसमय उनका सौन्दर्य प्रतिदिन बढ़ता जाता था । जिस प्रकार प्रतिदिन उदयको प्राप्त होनेवाले चन्द्रमासे समुद्र और सूर्यसे कमलोंका समूह बढ़ता है उसी प्रकार प्रतिदिन अभ्युदयको
प्राप्त होनेवाले जीवन्धर कुमारसे गन्धोत्कट भो अत्यन्त बढ़ता जाता था-ऐश्वयसे सम्पन्न २५ होता जाता था।
६४३. तदनन्तर हर्ष से परिपूर्ण समयके व्यतीत होनेपर जिस प्रकार कलहंसका बच्चा एक कमलसे दूसरे कमलपर और दर्पण एकके हाथसे दूसरेके हाथमें जाता है, उसी प्रकार जीवन्धर कुमार भी धायोंके एक हाथसे दूसरे हाथमें जाने लगा। वह फैलते हुए
अकारणक हास्यरूपी चन्द्रमाके प्रकाशसे बन्धुजनोंके हृदयरूपी कुमुद्र-वनको उल्लसित करने ३० लगा। वह कभी घरमें जलते हुए दीपकोंक। छूने की इच्छा करता था और उससे ऐसा
जान पडता था मानो समस्त संसार में व्याप्त अपने तेज के प्रकट हानेपर अब इसकी क्या आवश्यकता है? यह विचारकर उन्हें वझाना ही चाहता था। बडी-बडी रत्नोंकी शिलाओंसे निर्मित भवनकी दीवालोंमें दिखाई देनेवाले अपने प्रतिबिम्बका स्पर्श करता हुआ वह ऐसा
जान पड़ता था मानो स्वयं अद्वितीय रहनेकी भावनासे उसे नष्ट ही करना चाहता हो । 'यह ३५ आगे चलकर हमारा पति होगा' यह जानकर ही मानो क्रीड़ाधूलिके बहाने पृथिवी उसके
शरीरका आलिंगन करती थी। वायुसे जिनका अग्रभाग हिल रहा था ऐसे ललाट तटपर
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४४ जीवन्धरस्य विद्याग्रहणम् ]
प्रथमो लम्भः
श्रियः क्रीडाभिसरणमनोरथपुरणाय निशामिव दिवसेऽपि निष्पादयन्, कलमधुरगम्भीरेण कर्णामृतवर्षिणा स्वरेण सरस्वतीप्रवेशमङ्गलशङ्खध्वनिमिव सूत्रयन, लोकनेत्रचकोरपीयमानलावण्यामृतमिःस्यन्दश्चन्द्र इब दिने दिने दर्शितरूपातिशयः, शनैः शनैः शैशवमत्यक्रमीत् । आक्रमोच्च पञ्चमं वयः ।
४४. ततः पुण्येऽहनि महनीयमुहूर्ते राजपुरीमध्यमध्यासितस्य निष्टप्ताष्टापदघटितेष्टकानिर्मितमूलभित्तेः, उत्तमप्रमाणोज्ज्वलस्य, निखिलावयवशि खरनिहितमणिमौक्तिकनिकरेण तारागणेनेव सततसंचारसं जातश्रमच्छेदाय यथेष्टं निवसता दिवापि दर्शितरजनीशङ्कस्य, पाटित- . जलधरकोडानविन्यस्तचूडामणिमयस्तूपिकाखमणिना शङ्कितसदातनमध्यंदिनस्य, मरकतमणिसमूह इव मेचकाः श्यामास्नैः कचपल्लवैः केशपल्लवैः बालभात्र एवं शैशवावस्थायामेव बल्ल मत्वं पतित्वम् अमिलषन्त्या। वान्छन्त्याः श्रियो लक्षायाः क्रीडाभिसरणस्य मनोरश्रस्तस्य पूरणाय दिवसेऽपि १० निशां रजनी निष्पादयन्निव स्चयन्निव, कलमधुरगम्भीरेण अन्य कमधुरमन्द्रेण कर्णयोरमृतं वर्षतीत्येवंशील
सेन श्रवणपीयूषवर्षिणा स्वरंग शब्दन सरस्वत्या ब्राह्मणाः प्रवेशे मङ्गलशङ्खध्वनिमिव मङ्गलकम्युशब्दमिद सूत्रयन् प्रकटयन, लोकनेत्राणि जननयनान्यव चकोरा जीवंजीवास्तैः पीयमानो लावण्यामृतस्य सौन्दर्यसुघाया निःस्यन्दो यस्य तथाभूतश्चन्द्र इव दिने दिने प्रतिदिनं दर्शितः प्रकटितो रूपातिशयो यस्य तथाभूत इव शनैः शनैर्मन्द मन्दं शैशवं बालभावम् अत्यक्रमीत् व्यपगमयामास । आक्रमीश्च प्राप च पञ्चमं १५ वयः पञ्चवर्षात्मकावस्थाम् ।
४४. तत इति-ततस्तदनन्तरं पुण्यं पवित्रे अहनि दिवसे महनीयमुहू प्रशस्तमुहूर्त श्रीजिनालयस्य श्रीजिनमन्दिरस्येति दूरान्वयः । श्रीजिनालयस्य विशेषणान्याह । राजपुरीति-राजपुर्या नगर्या मध्यम् अध्यासितस्याधिष्टितस्य, निष्टसेन संतप्तेनाष्टापदेन स्वर्णेन घटिसा निर्मिता या इष्टकास्ताभिनिर्मिता मूलमित्तयः मूलकुख्या यस्य तस्य, उत्तमप्रमाणेनोज्ज्वलस्तस्य, निखिलावयवानां समस्तानानां २० शिखरेषु निहितानि यानि मौक्तिकानि मुक्ताफलानि तेषां निकरः समूहस्तेन, सततसंचारेण निरन्तरगमनेन संजातः समुत्पनो यः श्रमः खेदस्तस्य छेदाय दूरीकाणाय अथेष्टं यथेच्छ निवसता निवासं कुर्वता तारागणेनेव नक्षत्रनि चयनेव दिवापि दिवसेऽपि दर्शिता प्रकटिता रजनीशङ्का राश्रिसंशातियेन तस्य, पाटितो विदारितो जल घराणा मेघानां क्रोडो मध्यभागो येन तथाभूतेऽने विन्यस्ता स्थापिता या चूडामणिमयी स्तूपिका राशिः सब खमणिः सूर्यस्तन शतिं सदातनं सर्वदा विद्यमान मध्यदिनं येन तस्य, मरकतमणिमये २५ लटकते हुए भ्रमर समूहके समान काले-काले केशोंसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो बाल्य । अवस्था में ही पति बनाने की इच्छा करनेवाली लक्ष्मीके क्रीड़ाविषयक अभिसारके मनोरथको पूर्ण करनेके लिए दिन में भी रात्रिका निर्माण कर रहा था। अध्यक्त. मधुर, गम्भीर और कानों में अमृतकी वर्षा करनेवाले स्तर से वह ऐसा जान पड़ता था मानो सरस्वतीके प्रवेशके समय वजनेवालं माङ्गलिक शंखोकी ध्वनि हो प्रकट कर रहा हो। मनुष्य के नेत्ररूपी चकोरों- ३० के द्वारा जिसके सौन्दर्यरूपी अमृतका निप्यन्द पिया जा रहा है ऐसे चन्द्रमाके समान वह दिन-प्रतिदिन अपने रूपके अतिशयको दिखला रहा था। इस तरह धीरे-धीरे उसने बाल्यावस्था व्यतीत की और पाँच वर्षको अवस्थामें पदापण किया।
४४. सदनन्तर पुण्य दिवस के श्लाघनीय मुहूर्त में, जो राजपुरीके मध्य भागमें स्थित था, जिसकी मूल दीवाले तपाये हुए स्वर्ण से निर्मित इटोंसे बनी हुई थीं, जो उत्तम प्रमाणसे ३५ देदीप्यमान था, अपने समस्त अवयवोंके शिखरों पर खचित मणि और मोतियों के समूहसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो निरन्तर घूमते रहने से उत्पन्न थकावटको दूर करने के लिए इच्छानुसार निवास करने वाले ताराओं के समूहसे दिन में भी रात्रिकी शङ्का दिखला रहा था,
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१०
गचिन्तामणिः
[४४ जीवन्धरस्यमयाजिरपट प्रसारितौक्तिकवालुकाजालैः प्रतिफलितमिव सतारं तारापथं दर्शयतः, स्फाटिकशिलाघटितबलिपीठोपकण्ठप्रतिष्ठितमहाहमणिमयमानस्तम्भस्य, संस्तवव्याजेन शब्दमयमिव सर्व जगत्कुर्वता' मस्तकन्यस्तहस्ताञ्जलिनिवहनिभेन भगवन्तमर्चयितुमाकाशेऽपि कमलवनमापादयतेव
भव्यलोकेन भासितोद्देशस्य, हाटकघटितसालपक्षपुटेन वीक्षितुमन्तरिक्षपर्यवसानमुड्डयनमिव ५ कर्तुमुद्यतेन रजतघटितकवाटपुटविनिर्गच्छन्त्या निसर्गशुचिशुक्लध्यानदेश्यया रश्मिनिकरवेत्रलतया ___ ध्यानपरयमधर सविधवि निर्गच्छदेनोनिकरमिवान्धकारमतिदूरमुत्सारयता शिखरखचितपद्मराग. प्रभया प्रसर्पन्त्या बहिर्गच्छदतुच्छभव्यभक्तिरागमित्र प्रदर्शयता सततसंभवदहमहमिकाप्रवेशनि
नीलमणिनिमितेऽजिरपृष्ठेऽङ्गणात प्रसारितैर्विकोण: मौक्तिकबालुकानां मुक्ताफलकणानां जालानि समृहास्तैः प्रतिफलितं प्रतिबिम्बितं सतारं सनक्षत्रं तारापथं गगनं दर्शयत इब प्रकटयत इव, स्फटिकशिलाभिः श्वेतोपलविशेषैर्घटितानि रचितानि यानि वलिपीठानि पूजास्थगिद्धलानि तेषामुपकण्ठे समागे प्रतिष्ठिताः स्थापिता महाहमणिमया महामूल्यमणिनिर्मिता मानस्तम्मा यत्र तस्य, समन्तारस्तवः संस्तवस्य ब्याजेन सर्व निखिलं जगत् शब्दमयमित्र ध्वनिमयमिव कुर्वता विदधता मस्तकेषु शिरःसु न्यस्ताः स्थापिता ये हस्ताञ्जलयस्तेषां निवहस्य समूहस्य निभेन व्यानेन भगवन्तं जिनेन्द्रम् अर्चयितुं पूजयितुमाकाशेऽपि कमलवनमापादयतेय स्थापयतेव मध्यलोकन सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्यः स चासौ लोकस्तेन भासितः शोभित उद्देशः स्थानं यस्य तस्त्र, हाटकघटितः सरचिती यः साल एव प्राकार एव पक्षपुटो गत्पुटस्तन अन्तरिक्षपर्यवसानं गगनान्तं वीक्षितुं द्रष्टुम् उड्डयनं समुत्पतनं कर्तुमुद्यतेनेव विधातुं तत्परेणेव रजतवटितेभ्यो दुर्वर्णनिर्मितेभ्यः कवाटपुटेभ्यो विनिर्गच्छन्ती विनिःसरन्ती तया निसर्गेण प्रकृत्या सुचि पवित्रं यच्छुकलध्यानं ईषदूनं तदिति निसर्गशुचिशुक्लध्यानदेश्या तया ररिमनिकरः
किरणकलाप एष वेबलता तया ध्यानपरा ध्यानोद्यता ये यमधना मुनयस्तेषां सविधात्समीपान्निगच्छन् २० निःसरन् य एनोनिकरः पापचयस्तमिव अन्धकारं तिमिरम् अतिदूरं विप्रकृष्टतरम् उत्सारयता,
प्रसपन्त्या प्रसरणशीलया शिखरखचितानां शृङ्गानिस्यूतानां पभरागाणामरुणमणिविशेषाणां प्रभा दीप्तिस्तया मन्यानां भक्तिराग इति भव्यभक्तिरागः अतुच्छो विपुलो यो भव्यक्तिराग इति अतुच्छभव्यभक्तिरायः बहिर्गच्छन् बहिनिःसरन् योऽनुच्छभव्यभक्तिरागस्तं प्रदर्शयसेव प्रकटीकुर्वतव, सततं शश्वत् संमवन्
मेघके मध्यभागको चीरनेवाले अग्रभागमें रखे हुए चूडामणि सदृश कलशा रूपी सूर्य से जहाँ २५ सदा मध्याह्न कालकी शंका उत्पन्न होती रहती थी, मरकतमणियोंसे निर्मित आंगनमें फैलाये
हुए मोतियोंके कणोंसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंके साथ प्रतिविम्बित आकाश को ही दिखला रहा था, जिसकी स्फटिककी शिलाओंसे निर्मित पूजाकी चौकीके समीप अत्यन्त श्रेष्ट मणियोंसे निर्मित मानम्तम्भ प्रतिष्ठित था, स्तवनके बहाने जो मानो समस्त
जगतको झन्नमय कर रहे थे और मस्तकपर रखे हुए हस्ताञ्जलि समूह के बहाने जो मानो ३० भगवान की पूजा करने के लिए आकाशमें भी कमलवन दिखला रहे थे ऐसे भव्य जीवोंके
द्वारा जिसका स्थान सुशोभित था, स्वर्णनिर्मित कोटरूपी पलोंको पुटसे युक्त होने के कारण जो आकाशका अन्त देखनेके उद्देश्यसे उड़ान भरने के लिए ही मानो उद्यत थे, जो चाँदीसे निर्मित किवाड़ोंकी फुटसे निकलने वाली, स्वभावसे निर्मल पवित्र शुक्ल ध्यानके तुल्य किरणा
चली रूपी छड़ासे ध्यानमें तत्पर मुनिजनोंके समीपसे निकलते हुए पापसमूहरूपी अन्धकारको इं५ वहत दर हटा रहे थे, जो शिखरोंपर खचित पद्मराग मणियोंकी फैलनी हर प्रभासे ऐसे जान पड़ते थे मानो बाहर निकलते हुए भव्य जीवोंके भक्तिरूपी रागको ही दिखला रहे थे, और
१. म० सर्वजगत् कुर्वता। २. ग० यमधन । ३. क० ख० ग० 'वि' नास्ति ।
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- विद्याग्रहणम् ]
प्रथमो लम्भः बिडधरणिपमकुटकोटिकषणमसृणितमणिभित्त्युदरभासुरेण गोपुरचतुष्टयेनाधिष्ठितस्य, कोमलप्रवालदण्डाग्रग्रथितानामविरतयथार्हसपर्याप्रमोदसततसंनिहितसर्वदेवतानिःश्वासनिभेन मातरिश्वना सलोलं कम्पितानां पताकानां किंचित्कुञ्चितै रग्रहस्तै रास्तिकलोकमिव समर्पयितुं धर्मामृतमाह्वयतः, प्रतिप्रदेशव्यवस्थापितसमस्तदेवताप्रतिमाप्रकरेण प्रचुरभक्तिचोदितशतमखमुखाखिलमख भुगागमनमिवादर्शयतः, प्रकृतिशान्तमन्त्रमयीभूतवाङ्मयसर्वस्वः संसारकान्तारदावदहनज्ञानध्यानपरैः ५ परहितनिरतस्वान्तै रेकान्तमताभिषङ्गभुजंगदंशनिरंशक्षीण जगदनेकान्तसंजीवनसमर्पणपरं परमागममुपदिशद्भिर्मुनिवरैरलंकृतमुनिनिकायविराजितस्य, राजपुरीपर्यायपारिजातभूरुहप्ररोहबीजभूतस्य, योऽहमहमिकाप्रवेशः 'अहं पूर्व प्रविशामि' इत्येवं प्रवेशस्तेन निविष्ठाः संमनोपस्थित्ता ये धरणिपा राजानस्तेषां मुकुरकोटीनां मौल्यग्रभागानां कषणेन संघर्षणेन मसृणिता: स्निग्धा या मणिमित्तयो रत्नकुड्यास्तासामुदरेण मध्यभागेन मासुरं देदीप्यमानं तेन गोपुरचतुष्टयेन प्राकारस्थितप्रधानद्वारचतुष्केण १० अधिष्तिस्य सहितस्य, कोमलश्वासौ प्रवाल दण्डश्च विद्रुमदण्डश्चेति कोमलप्रचालदण्डस्तस्याने प्रथितास्नामा अविनि निरन्तरं या यथासपर्या यथायोग्यनमस्या तस्याः प्रमोदेन प्रहर्षेण सततं सर्वदा संनिहिता निकटस्थिता याः सर्वदेवतास्तासां निश्वासस्य श्वासोच्छवासस्य निभेन सदृशेन मातरिश्वना वायुना सलीलं यथा स्यात्तथा कम्पितानां धूतानां पताकानां वैजयन्तीनां किंचिकुशिरीषन्मोडितः अग्रहस्तैरग्रभागपाणिभिः आस्तिकलोकं श्रद्धालुजनं धर्मामृतं धर्मसुधो समर्पयितुमिव प्रदातुमिव आहृयतः १५ आमन्त्रयतः, प्रतिप्रदेश प्रतिस्थानं व्यवस्थापिता यः समस्तदेवतानां प्रतिमास्तासां प्रकरण समूहेन प्रचुरमस्या प्रबलानुरागेण चोदिताः प्रेरिता ये शतमखमुखा इन्दमुख्या अखिलमखभुजो देवास्ते. षामागमनमिव आदर्शयतः प्रकटयत: 'मुखं तु वड़ने मुख्यारम्भे द्वाराभ्युपाययोः' इति यादवः । प्रकृत्या शान्तास्तैनिसर्गोपशान्तः, मन्त्रमग्रीभूतं मन्त्ररूपेण परिणतं वालम यमेव शब्दजातमव सर्वस्वं सारधनं येषां तैः, संसारकान्तारस्य भवारण्यस्य दाबदहनो दाधाग्निस्तर पे ये ज्ञानध्याने तयोः परास्तैः, परेषां २० हिते कल्याणे निरतं लीनं स्वान्तं येषां तैः, एकान्तमताभिषङ्ग एकान्तमतासक्तिरेव भुजङ्गो नागस्तस्य दंशेन निरंशं यथा स्यात्तथा सर्चाशतयेति यावत् क्षीणं नश्यद् यद् जगत् तस्यानेकान्त एव संजीवनं . संजीवनौषधं तस्य समपणे परं लं,नं परमागर्म वीतरागसर्वज्ञजिनेन्द्रप्रणीतपरमशास्त्रम् उपदिशद्धिमुनित्ररैयतिः अलंकृतो यो मुनि निकायो यतिसमूहस्तेन विराजितस्य शोभितस्य, राजपुरीपर्यायो यस्य स राजपुरीपर्यायस्तथाभूतो यो मुरूहप्ररोही वृक्षारस्तस्य बीजभूतस्य बीजरूपस्य, कुरुकुलक्ष अयपुत्राणां २५
जो निरन्तर होनेवाले अहंप्रथमिका रूप प्रवेशसे सान्द्र राजाओंके मुकुटोंकी कोटीके घिसनेसे चिकनी-चिकनी दिखनेवाली मणिमयी दीवालोंके मध्यभागसे देदीप्यमान थे ऐसे चार गोपुरांसे जो युक्त था, कोमल मँगाऑके दण्डके अग्रभागमें गम्फित एवं निरन्तर यथायोग्य पूजाके हर्षसे मानः निकटस्थ रहनेवाले समस्त देवांके श्वासोच्छ्वास के समान वायुसे लीला पूर्वक कम्पित पताकाओंके कुछ कुछ संकोचे हुए अग्रभाग रूपी हाथोंसे जो धर्मरूपी ३० अमृनको प्रदान करने के लिए मानो श्रद्धालु जनोंको बुलाता रहता था, स्थान-स्थानपर रखे हुए समस्त देवोंकी प्रतिमाओं के समूहसे जो मानो तीत्रभक्ति से प्रेरित इन्द्र आदि समस्त देयों के आगमनको ही दिखला रहा था, जो स्वभावसे शान्त थे, जिनका वाङ्मय रूप सर्वस्व मन्त्र तुल्य था, जो संसाररूपी अट वीको जलाने के लिए दावानलके समान ज्ञान और ध्यानमें निमग्न थे, जिनका हृदय परहित में लीन रहता था, जो एकान्तमतके आक्रमणरूपी सर्पके ३५ काटनेसे अत्यन्त क्षीण होनेवाले जगत्को अनेकान्तरूपी संजीवन औषधिके समर्पण करने में तत्पर परमागमका उपदेश दे रहे थे ऐसे उत्तममुनियोंसे अलंकृन मुनिसङ्घोंसे जो सुशोभित
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गयचिन्तामणिः
[४४ जीवन्धरस्य - कुरुकुलक्षत्रियपुत्रार्हाध्ययनाभिषेकाद्यारम्भभूमेमहतः श्रीजिनालयस्य हरिताश्वोदयहरिद्भाजि भासुरमणिमौक्तिकमालाञ्चिते काञ्चनसजलकलशभृङ्गारप्रमुखबहलपरिच्छदलाञ्छितवेदिकोपशोभिनि [ प्रलम्बमाननानाविधप्रसूनदामसुरभितककुभि दामशङ्काश्रितस्फादि कस्तम्भादुत्पतदलिकुलझंकारसूचितमङ्गलपाठकवचसि भित्तिलिखितचित्रदर्शितसुकृतेतरपरिपाकफलभवप्रबन्धप्रचुरभक्तिप्रेरितभव्यसार्थप्रस्तूयमानसंस्तवकलकलमुखरितवियति' ] प्रान्त प्रलम्बमानवन्दनादामनि प्रत्यग्रगोमयोपलेपहरितभुवि विप्रकीर्णमङ्गललाजकुसुमहासतरिति हरसितयवलवितानवाससि कुरुवंशराजसूनूनामहाणि योग्यानि यान्यध्ययनाभिपेशाद्यानि तपामारम्भ भरारम्भस्थानस्य श्रीजिनालयस्य श्रीजिनमन्दिरस्य हरिताश्वोदयहरिदाजि सूर्योदयकाष्टास्थित महति विद्यामण्डपे विशालय इति दूरेणान्वयः । अत्यवान्यविशेगमा धुलो---मासु देदीयमाना या मणिमाक्तिकमाला रस्नमुक्ताफल. यष्टयस्ताभिरञ्चिते शोभिते, काञ्चनसजलकलशभृङ्गारप्रमुखैः स्वर्णनिर्मितसजलवटकन कालुकाप्रधानः बहलपरिच्छदैरनेकीपकरणेलामिछता सहिता या वेदिका वितर्दिका तयोपशोमत इत्येवं शीलस्तस्मिन् 'मद्कुम्भः पूर्णकुम्भी भृङ्गारः कनकालुको' इत्यमरः [ प्रलम्बमानैः खंसमानैर्नानाविधप्रसूनदामभिर्विविध. वर्णपुप्पन्नग्भिः सुरभिताः सुगन्धिताः ककुभो दिशो यस्मिन् तस्मिन् , दामशझ्या सितकुसुमनक्सन्देहेन श्रितः सेवितो यः स्फटिकस्तम्भः श्वेतोपलविशेषनिर्मितस्तम्मस्तस्मात् उत्पततः सागस्य अलिकुलस्य भ्रमरसमूहस्य सङ्कारेण व्यक्तशबहेन सूचितानि मङ्गलपाठकानां चारणानां वांसि यस्मिन् तस्मिन् , भित्तिषु कुडयेषु लिखितैरतितैश्चिदर्शितः प्रकटितं सुकृतेतरयोः पुण्यपाग्योः फलं चेषु तथामृता ये भवप्रबन्धाः पर्यायोपाख्यानानि तेषां प्रचुरभक्त्या गाउानुगेण प्रेरिसश्वोदितो वो भव्यसार्थो भविकजनसमूहस्तेन प्रस्तूयमानः प्रारभ्यभाणः संस्तवकलकलैः स्तोत्रम्वनिभिमखरितं व्याप्त थियद गगनं यस्मिन्
तस्मिन् ] प्रान्त प्रलम्बमानानि समानानि वन्दनादामानि दन्दनानजो यस्मिन् तस्मिन् , प्रत्यग्रगो२० मयस्य नव्यगव्यस्योपलेपेन हरिता हरिद्वर्गा मृयस्मिन् तस्मिन् , विप्रकीर्णैर्यत्र तत्र प्रक्षिप्तैर्मङ्गललाज
कुसुमैमङ्गलोद्देश्यकभर्जितधान्यपुष्पकुसुमैह सिताः श्वेतायमाना हरितो दिशा यस्मिन् तस्मिन् , हरहसितमिव अंदा - शिवाहास इव धवल शुक्लं वितानवास उल्लो चचेलं यस्मिन् तस्मिन् , वसुधासुरवि प्रैः प्रवर्तितं प्रारब्धं
था, जो राजपुरीरूपी कल्पवृक्षकी उत्पत्ति के लिए बीजस्वरूप था, और जो कुरुवंशके क्षत्रिय
पुत्रोंके योग्य अध्ययनसम्बन्धी अभिषेक आदिकी प्रारम्भ भूमि था ऐसे विशाल जिनमन्दिर २५ की पूर्व दिशामें एक बहुत बड़ा विद्यामण्डप स्थित था। वह विद्यामण्डप देदीप्यमान मणि
और मोतियोंकी मालाओंसे सुशोभित था, जलसे परिपूर्ण स्वर्णमय कलश और झारी आदि अत्यधिक उपकरणोंसे युक्त वेदिकासे सुशोभित था, लटकती हुई नाना प्रकार की पुष्पमालाओंसे उसकी दिशाएँ सुगन्धित हो रही थीं, पुष्पमालाओंकी आशङ्कासे आश्रित स्फटिकके
खम्भोंसे उड़ते हुए भ्रमर समूहकी झंकार से उसमें मङ्गलपाठ करनेवालोंके वचन सूचित हो ३० रहे थे-भ्रमरावलीको गुनगुनाहट से ऐसा जान पड़ता था मानो उसमें मङ्गल पाठक मङ्गलो
च्चारण ही कर रहे थे, दोवालोंपर लिखिन चित्र के द्वारा उसमें पुण्य और पापके उदय जन्य फलसे युक्त संसारकी दशा दिखलायी गयी थी, अत्यधिक भक्तिसे प्रेरित भव्यसमूहके द्वारा प्रारम्भ किये हुए सावनोंकी कल-कलसे वहाँका आकाश शब्दायमान हो रहा था, उसके
समीप ही अन्दनवार लटक रहे थे, नवीन गोवरके लोपनेसे वहाँको भूमि हरो-हरी दिख ३५ रही थी, बिखेरी हुई माङ्गलिक लाई और फूलोंसे उसकी दिशाएँ हँस रही थीं-सफेद-सफ़ेद
हो रही थीं, वहाँ के चॅदोवाका वस्त्र महादेवके अट्टहासके समान सफेद था, ब्राह्मणोंके द्वारा
१. क. ख० ग. प्रकोष्ठान्तर्गतः पाठो नास्ति । २. क० ख० ग. प्रलम्बितप्रान्तप्रलम्बमान।
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- विद्याग्रहणम् ]
प्रथमो लम्भः
वसुधासुरप्रवर्तितपुण्याहकर्मणि कालागुरुधूपधूमपटलनिमीलितात संपदि सत्क्रियमाण सकलमनीfor प्रहतपटपटुभरितदशदिशि संख्यातीतशङ्खकाहलतालोत्तालवबधिरितश्रवसि संगीतारम्भपुनरुक्तस्फुरितसौन्दर्ययुवतिलोकोद्योतिनि महति विद्यामण्डपे महेन्द्रमकुटादपोठलुठितचरणसरोरुहस्य स्याद्वादामृतवर्षिदिव्यागमपयोदनिर्वापितसंसारदावानलस्य भगवतो जिनेश्वरस्य यथाविधि विधीयमाने महार्हे महामहे स्वतः प्रकाशितनिरतिशयसारस्वतेन निखिलशास्त्रशाणोपलकषण- ५ निशितशेमुषो मुषितपुरुहूतपुरोहित गर्वेण दुर्दारवादिपरिषदवलेपपर्यंत पाटनपाटवप्रकटितस्याद्वादवानरादार्येग गरिषण्डेयखण्डे तण्डुलेषु पत्रेषु च भर्मनिर्मितेव्ववतार्थं सप्रणयं प्रति
८७
पुण्याहकर्म स्वस्तिविधानं यस्मिन् तस्मिन् कालागुरुधूपस्य धूमपटलेन धूम्रसमूहेन निमीलिता तिरोहितातपसंपद् धर्मशोभा यस्मिन् तस्मिन् सक्रियमाणा आद्रियमाणाः सकलमनीषिणो निखिलविद्वान्सो यस्मिन् तस्मिन् प्रहृतपटहस्य ताडितभेर्याः परवेण तीब्रशब्देन भरिता व्याप्ता दश दिशो यस्मिन् २० तस्मिन्, संख्यातीतानामपरिमितानां शङ्खकाहलतालानां शङ्खादिवादित्रविशेषाणामुत्ताल रवेण मुरशब्देन वधिरितानि श्रवसि श्रोत्राणि यस्मिन् तस्मिन् संगीतारम्भेण पुनरुक्तस्फुरितं भूयो भूयः प्रकटितं सौन्दर्य लावण्यं यस्य तथाभूतो यो युवति लोकस्तरुणीसमूहस्तेनोद्योतते प्रकाशत इत्येवं शीलं तस्मिन् महति विशाले विद्यामण्डपे विद्यायतने महेन्द्रस्य मकुट एव मौलादेव पादपीठे लुठिते चरणसरोरुहे पादारविन्दे यस्य तस्य स्याद्वाद एवास्मृतं पीयूषं तस्य वर्षीय दिव्यागम एव पयोदो मेघस्तेन १५ निर्वापितो विध्यापितः संसार एक दावानलो येन तस्य, भगवतो जिनेश्वरस्य परमैश्वर्यवतो जिनेन्द्रस्य महाहै महाश्रेष्ठे महामहे महापूजायां यथाविधि विधिमनतिक्रम्य विधीयमाने क्रियमाणे सति, स्वतः स्वयमेव प्रकाशितं प्रकटितं निरतिशयं सारस्वतं वाजयं यस्य तेन निखिलशास्त्राण्येवोपलाः पाषाणास्तेषु कपणेन निशिता सीक्ष्णा या शेमुषी बुद्धिस्तया मुषितोऽपहृतः पुरुहूतपुरोहितस्य बृहस्पतेर्गवों दर्पो येन तेन, दुर्गारो दुःखेन वारथितुं शक्यो यो वादिपरिषदो बारिसमूहस्यावले पर्वतो गर्वगिरिस्तस्य पाटने २० विदारणे यत्पाटवं चातुर्यं तेन प्रकटितं स्याद्वादवज्रं यस्य तेन, आर्यनन्द्याचार्येण तन्नामाचार्येण गलिचतुषखण्डेषु दूरीकृतपुल | कशकलेषु तण्डुले शालेयेषु मर्मनिर्मितेषु स्वर्णरचितेषु पत्रेषु च अवतार्य
उसमें पुण्याहवाचन हो रहा था, कृष्णागुरुकी धूपके धूम्रपटलसे वहाँ घामका प्रभाव रुक गया था, उसमें समस्त विद्वानोंका सत्कार होता रहता था, ताडित भेरियोंके जोरदार शब्द से उसकी दश दिशाएँ भर गयी थीं, असंख्यात शंख, काहल और तालोंके उच्च शब्दसे वहाँ २५ कान बहरे हो रहे थे, और संगीत के प्रारम्भ में पुनरुक्त रूपसे देदीयमान सौन्दर्य से युक्त तरुणस्त्रियों के उद्योत से युक्त था । उस विद्यामण्डपमें जब इन्द्रके मुकुटरूपी पादपीठपर लोटते हुए चरणकमल से युक्त, एवं स्याद्वादरूपी अमृतकी वर्षा करनेवाले दिव्य आगमरूपी मेघसे संसाररूपी दावानलको बुझानेवाले जिनेन्द्र भगवान्की अतिशय प्रशस्त महामह नामक पूजा विधिपूर्वक की जा रही थी तब जिन्हें असाधारण वाङ्मय स्वतः प्रकाशित हुआ था, समस्त शास्त्ररूपी कसौटीपर कसने में अत्यन्त तीक्ष्ण बुद्धिके द्वारा जिन्होंने इन्द्र के पुरोहितबृहस्पतिका गर्व हर लिया था, और दुःख निवारण करने योग्य वादिसमूह के गर्व रूपी पर्वतको विदारण करनेवाले चातुर्य से जिन्होंने स्याद्वादरूपी वस्त्र प्रकट किया था ऐसे आर्यनन्दी आचार्य के द्वारा, छिलकों के टुकड़ों से रहित अखण्ड चावलों और स्वर्णनिर्मित पत्तोंपर अव
३०
१. क० ख० ग० धूमपटलमिलितातपसंपदि ।
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गद्यचिन्तामणिः [४४ जीवन्धरस्य वियाग्रहणम् - पादितां सिद्धपरमेश्वरदिव्यसंनिधौ ‘सिद्धं नमः' इति पूर्वपदप्रशस्तां सिद्धमातृकारूपिणी वाणी जीवंधरः सप्रणामं प्रत्यग्रहीत् ॥
६४५. इति श्रीमदादीसिहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी
सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्भः ।
सप्रणयं सस्नेहं प्रतिपादितां प्ररूपिता 'सिद्धनमः' 'सिनुपरमेष्ठिनं प्रति नमः' इति पूर्वपदेन आद्यपदेन प्रशस्ता श्रेष्ठा तां सिद्धमातृकारूपिणी वर्णमालारूपिणी वाणी सरस्वती सिद्धपरमेश्वरस्य विगताष्टकर्मकदम्बकस्य सिद्धपरमठिनः सन्निधा समीपे सिद्ध प्रतिमालमीप इति यावत् , जीवन्धरः सात्यन्धरिः सप्रणाम सनमस्कारं प्रत्यग्रहीन स्वीचके।
६१५, इति श्रीमता वादीभसिंहसूरिणा विरचितस्तस्मिन् गयचिन्तामणौ एतनामगधकाम्ये सरस्वरया लम्भो यस्मिन् सरस्वतःलम्म एतझामा प्रथम आयो लम्मः प्रकरणं समाप्तः । इति शब्दः समाप्त्यर्थसूचकः 'इति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिधु' इत्यमरः ।
१०
तरण कराकर सिद्ध परमेष्टीके दिव्य संनिधान में स्नेहके साथ प्रदान की हुई “सिद्ध नमः' इस १४ प्रथमपदसे प्रशस्त वणेसमाम्नायरूप वाणीको जीवन्धर कुमारने प्रणाम पूर्वक प्रण किया । ६४५. इस प्रकार श्रीमान् वादोसिंह सूरिके द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणि में
सरस्वतीलम्भ नामका पहला लम्भ समाप्त हुआ।
१. काग० म० लम्बः ।
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द्वितीयो लम्भः ६४६. अथ महाहे रत्नशिलाघटिततले स्फटिकदृषदुपरचितभितिभासुरे वासरालोकपरिभाविमहेन्द्रनीलनिमिताक्षणभुवि दुग्धजलधिफेनधवलवितानविभ्राजिनि विराजमानसरस्वतीप्रतिमाञ्चितचित्रपटे संचितसकलग्रन्थकोशे कोशनिहितनैकशनिस्त्रिशनिरन्तरे स्तबरकनिचोलचुम्बितचारुचापदण्डे कुण्डलितशिखरमनोहरचण्डयष्टिनि निष्टप्तहाटकघटितदण्डकान्तकुन्ते प्रान्त- ५ पुजितनिशितशरप्रकरे प्रासतोमरभिण्डिपाल प्रमुख निखिलायुधनि र वकाशितखलू रिकोद्देशे कुशेशयासनकुटुम्बिनीकोशगृह इव दृश्यमाने महति विद्यामण्डपे पाण्डित्यपयोधिपारदृश्वना विश्रुतप्रभावेण
६४६. अथेति-अथ सिद्धमातृकाग्रहणानन्तरं महाहे महाश्रेष्टे रत्नशिलामिघटितं खचितं तसं . यस्य तस्मिन् 'स्वरूपानुर्धयोस्तलम्' इत्यमरः स्फरिकदृषद्भिः श्वेतोपलविशेषरुपरचिता निर्मिता या मित्तयः कुड्यास्तामिर्भासुरे देदीप्यमाने वासरालोकस्य दिनप्रकाशस्य परिभाविमिस्तिरस्कारिभिमहेन्द्रनीलेनील- १० वर्णमणिविशे निर्मिता रचिताङ्गणभूश्चत्वरभूमियस्य तस्मिन् , दुग्धजलधेः क्षीरसागरस्य फेनवत् डिण्डीरवद् धवलेन श्वेतेन वितानेन चन्द्रोपकेण विभ्राजते शोभत इत्येवं शीलस्तस्मिन् , विराजमाना शोममाना या सरस्वतीप्रतिमा ब्राह्मीप्रतिकृतिस्तयाञ्चितः शोभितचित्रपटो यस्मिन् तस्मिन् संचितः संगृहीतः सकल. ग्रन्था मिलिश गोलो गिधि नियन् , कोशेषु वनपिधानेपु निहिताः स्थापिता ये : नैकशत निस्त्रिशा बहुशतखड्गास्तनिरन्तरे व्याप्ते, स्तवरकनिचोलेरावरकवस्त्रविशेषेश्चु बताश्चारुचापदण्डाः १५. सुन्दरकोदण्डदण्डा यस्मिन् तस्मिन् , कुण्डलितेन वक्राकारेण शिखरेणाप्रमागेन मनोहरा चण्यष्टयस्तीक्ष्णदण्डविशेषा यस्मिन् तस्मिन् , मिरसहाटकेन संतप्तस्वर्णेन घटिता निर्मिता ये दण्दास्तैः कान्ता मनोहरा कुन्ताः प्रासा यस्मिन् तस्मिन् , प्रान्ते समीपे पुञ्जितो राशीकृतो निशितशरप्रकरस्तीक्ष्णयाणसमूहो यस्मिन् तस्मिन्, प्रासतोमरमिण्डिपालप्रमुखैनिखिलायुधैः सकलशस्त्रनिरवकाशितो निरन्तरीकृतः : खलुरिकादेशः शस्त्राभ्यासस्थानं यस्मिन् तस्मिन् , कुशेशयासनस्य ब्रह्मणो या कुटुम्बिनी वल्लभा २० सरस्वतीति यावत् तस्याः कोशगृह इव भाण्डारगृह व श्यमाने विलोक्यमाने महति विशाले विद्यामण्डपे विद्यालये। पाण्डित्यमेव पयोधिस्तस्य पारं दृष्टवानिति तेन चैदुप्याम्बुधिपारदर्शिना, विश्रतः
६४६. अथानन्तर जो अतिशय प्रशस्त था, रत्नोंकी शिलाओंसे जिसका फर्श खचित था, जो स्फटिक पापाणसे निर्मित दीवालोंसे देदीप्यमान था, दिनके प्रकाशको तिरस्कृन करनेवाले महेन्द्र नीलमणिसे जिसके आँगनकी भूमि निर्मित थी, जो क्षीरसागर के फेनके समान धवल- २५ चदोवासे सुशोभित था, जिसके चित्रपट सरस्मी शोभायमान प्रतिमाओंसे युक्त थे, जहाँ समस्त शास्त्रोंके भाण्डार संचित थे, जो म्यानों में रखी हुई सैकड़ों तलवारोंसे व्याप्त था, जहाँ सुन्दर धनुप दण्ड उत्तमोत्तम आवरोंसे युक्त थे, जहाँकी तीक्ष्ण लाठियाँ कुण्डलाकार शिखरोंसे मनोहर थी, जहाँ के भाले तपाये हुए स्वर्णसे खचित दण्डोंसे सुन्दर थे, जिसके एक छोरपर तीक्षा बाणोंका समूह इकट्ठा किया गया था, जिसके अस्त्राभ्यासका स्थान प्रास, तोमर, ३० भिण्डीपाल आदि समस्त शस्त्रोंसे अवकाश रहित था-व्याप्त था और जो सरस्वतीके खजाने के समान दिखाई दे रहा था, ऐसे बड़े भारी विद्यामण्डपमें पाण्डित्यरूपी सागरके
- -- . .१. क० ख० म०भिण्डिवाल ।
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गधचिन्तामात्र
1 ४७ जीवन्धर कुमारस्यविश्वव्यवहार शिक्षाविचक्षणेन प्रत्यक्षिताचार्यरूपेणार्यनन्द्याचार्येण समस्तमपि विद्यास्थलं सानुजमित्राय तस्मै सस्नेहमुपादेशि ।
६४७. ततः सप्रश्रयशुश्रूषाप्रहृष्टमनसः प्रकृतिशीतलशीलादाचार्यात्प्रचुरप्रतापोष्मले तस्मिश्चन्द्रमस इव चण्डतेजसि कलाकलापः क्रमेण समक्रमोत्। अत्युल्बणजराजर्जरित५ मनवरतजनितकम्पमम्बुजासनमुखचतुष्टयमाविष्टेव पतनभिया विहाय भारती तरुणतामर
ससोदरं तदाननमास्पदोचकार । तथा हि-अपरिमितार्थोपलब्धिमूलभूतपदरत्नराशिरोहणं व्याकरणम्, दुर्गमदुर्मतमहाकर्दमशोषणप्रवणाकं तर्कशास्त्रम्, याथात्म्याञ्चितप्रपञ्चपञ्चास्ति
प्रमानो यस्य तेन प्रसिद्धमाहात्म्येन विश्वव्यवहाराणां निखिल व्यवहाराणां शिक्षासु विचक्षणो निपुणस्तेन
प्रत्यक्षितं प्रत्यक्षरूपेण दर्शितमाचार्यरूपं येन तेन, आर्यनन्याचार्येण तन्नामोपाध्यायेन समस्तमपि १० निखिलमपि विद्यास्थलं विद्यायतनं सानुजमित्राय अनुजमित्रैः सह विद्यमानः सानुजमित्रस्तस्मै लघुभ्रातृसुहरसहिताय तस्मै जीवंधराय सस्नेहं सप्रणयं यथा स्यात्तथा उपादेशि समुपदिष्टम् कर्मणि प्रयोगः ।
६७. तत इति–ततस्तदनन्तरं सप्रश्रयशुभषया सविनयसेवया प्रहृष्टं प्रसवं मनो यस्य सस्मात् , प्रकृत्या निसर्गेण शीतलं शान्तं शीलं स्वभावी यस्य तस्मात् , आचार्यात् उपाध्यायात् , प्रसुरप्रतापेण
प्रकृष्टतेजसा अम्मलस्तीक्ष्णस्त्रमावस्तस्मिन्, तस्मिन् जीवंधरे, चन्द्रमसः चण्डतेजसीच सूर्य इव कला१५ कलापः कलासमूहः 'कला तु षोडशांशे स्यादिन्दोरप्यंशमात्रके। मूलार्थवृद्धौ शिल्पादौ कसना कालभेदयो।'
इति विश्वलोचनः, क्रमेण समक्रमीत् संक्रान्तोऽभूत् । अत्युल्त्रणेति-~-अत्युल्बणा अत्युत्कटा या जरा वार्धक्यावस्था तया अर्जरितं जीर्णम् , अनवरतं निरन्तरं जनित: कम्पो यस्मिन् तत्, भम्बुजासनस्थ ग्रह्मणो मुखच्चतुष्टयं वक्त्रचतुष्कम्, पतनभिया पतनमयेन भाविव सहितेव भारती सरस्वती विहाय त्यक्त्वा
तरुणतामरससोदरं प्रोत्फुलपयोजप्रतिमं तदाननं जीवम्धरवदनम् आस्पदीयकार स्वस्थानं चकार । तथाहि२० अपरिमितानां बहूनामर्थानामुपलब्धेः प्राप्तेर्मूलभूतानि यानि कारणभूतानि यानि पदरबानि शब्दसमूहमणय
स्तेषां राशिः समूहस्तस्य रोहणं रोहणगिरिरूपं व्याकरणं शब्दशास्त्रम् , दुर्मतानि दुष्टमतान्येव महाकर्दमा • इति दुर्मतमहाकर्दमा मिथ्यामतमहापङ्काः दुर्गमा दुःखेन गन्तुं शक्या ये दुर्मतमहाकर्दमास्तेषां शोधणे प्रवणार्क समर्थसूर्यरूपं तर्कशास्त्रं न्यायशास्त्रम् , याथात्म्येन यथार्थस्वरूपेण अञ्चितः शोभितः प्रपञ्चो
पारदर्शी, प्रसिद्ध प्रभावसे युक्त, समस्त व्यवहारकी शिक्षामें निपुण, तथा आचार्य के स्वरूपको २५ प्रत्यक्ष दिखलानेवाले आयनन्दी आचार्य ने छोटे भाई और मित्रोंसे सहित जीवन्धर कुमारके लिए स्नेहपूर्वक समस्त विद्याओंके स्थलका उपदेश दिया। .
७. तदनन्तर सविनय शुश्रूषासे जिसका चित्त प्रसन्न हो रहा था तथा जो स्वभावसे ही शीतल-शान्त शोलके धारक थे ऐसे उन आचार्य से कलाओंका समूह क्रम क्रमसे प्रचुर
प्रतापकी ऊमासे युक्त जीवन्धरकुमारमें उस तरह संक्रान्त हो गया जिस तरह कि शीतल 3. स्वभावके धारक चंन्द्रमासे उसकी कलाओंका समूह प्रचण्ड तेज के धारक सूर्य में संक्रान्त हो
जाता है। अत्यधिक बुढ़ापेसे जर्जरित तथा निरन्तर काँपते हुए ब्रह्माजीके चारों मुखोंको पतनके भयसे युक्त हुई के समान छोड़कर सरस्वतीने तरुण कमलके समान जीवन्धर कुमार के मुखको अपना स्थान बना लिया था। जैसे कि-अपरिमित अोंकी प्राप्तिमें मूलभूत पदरूपी रत्नोंकी
राशिको उत्पन्न करनेवाले रोहणगिरिके समान व्याकरणको, दुर्गस मिथ्यामतरूपी बहुत बड़ी ३५ कीचड़को सुखाने में निपुण सूर्यके समान तर्कशास्त्रको और यथार्थतासे विस्तारवाले पञ्चा
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- विद्याध्ययनम् ] लाय"प्रथमो लम्भः कायवस्तुवास्तवावबोधसिद्धयुपायमपि सिद्धान्तं यथावदध्यैष्ट । अधिष्ठाय पृष्टपीठमतिकठोरकुम्भतटनिवेशिताङ्कुशनखरः कुर्वन्नुर्वीधर मित्र जङ्गमं मातङ्गमपगतमदचापलमात्मवशगामिनमनन्यसुलभपराक्रमपरिशङ्कितां प्रकटीचकार राजसिंहता राजकुमार: । अतिरभसचटुलखुरपुटबिदलितधरणोरङ्गेण तुरङ्गेण युगपदाक्रमन्दिशां चक्रमक्रमेण निखिलनिजराज्यहरणदक्षमात्मानमनक्षरमभाषिष्ट । अनवरतयोग्यापरेण कूमारेणारूढः प्रतिभटमनोरथानपि धरामिब दारयिष्याम्यचिरादिति ५ कथयन्निव रथश्चक्रचीत्कारव्याजेन व्यराजिष्ट। आकर्णाकृष्टः कणे समुपदिशनिव मौर्वीस्वनेन समरविजयकलामविरलशरासारवर्षी राजसूनोरलक्ष्यत लक्ष्यभेदचतुरस्य चापदण्डः । आरम्भसमय विस्तारो येषां तथाभूता ये पवास्तिकाया जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशद्व्याणि त एव वस्तूनि पदार्थास्तेषां वास्तवावयाँधस्य यथार्थज्ञानस्य या सिद्धिस्तस्या उपायं हेतुभूतं सिद्धान्तमपि सिद्धान्तशास्त्रमपि यथावत् यथार्थम् अध्यष्ट पठितवान् । अधिष्ठायेति-पृष्ठपीठं पृष्टासनम् अधिष्ठाय तन्न स्थितो भूत्वा अतिकठोरे. १० ऽतिकको कुम्भतटे गण्डस्थल पावें निवेशितं स्थापितमङ्गुशनखरं सृणिभूतनखं येन तथाभूतः सन् जङ्गमं गतिशीलम् उवीधरमिध पर्वतमिव विशालमिति यावत् , भातनं गजम् अपगतं विनष्टं मदचापलं मदजन्यचाचल्यं यस्य तम्, आत्मवशं गच्छतीत्येवं शीलस्तं तथाभूतं कुर्वन् राजकुमारो जीवंधरः, अनन्यसुलभेन इतरजनदुष्प्राप्येण पराक्रमेण सामध्यन परिशतितां शङ्काविषयीकृतां राजसिंहतां नृपतिश्रेष्टता प्रकटीचकार प्रकटयामास । अतिरभसेति-अतिरमसेन तीनवेगेन चटुलैश्चपलैः खुरपुटैः शफपुटैर्विदलित: खण्डितो १५ धरणोरङ्गो भूमितलं येन तेन तुरङ्गेण हयेन युगपदेककालावच्छेदेन दिशां चक्र काष्ठानां वलयम् आक्रमत् आक्रान्त कुर्वन् आत्मानं स्वम् , अक्रमण युगपत्, निखिल समस्तं यनिजराज्यं स्वकीयसाम्राज्यं तस्य हरणे स्वायत्तीकरणे दक्षं समर्थम् , अनक्षरम् एकमप्यक्षरमनुक्त्वेति यावत् अभाषिष्ट कथयामास । अनवरतेति-अनवरतं निरन्तरं योग्यायां गुणनिकायां पुनः पुनरभ्यासकरण इति यावत् परेण सकेन कुमारण जीवधरेण आरूढोऽधिष्ठितो रथः, चीत्कारच्याजेन अव्यक्तशब्दविशेषग्छलेन घरामिव पृथिवीमिव प्रतिमटमनोरथानपि शत्रवान्छितान्यपि अचिराच्छीघ्रमेव दारयिष्यामि खण्डयिष्यामि, इति कथयन्निव व्यराजिष्ट शशों 1 आकाँका इति-लक्ष्याणां शरव्याणां मंद विदारणे चतरो विदग्धस्तस्य राजसनो नरेन्द्रनन्दन स्थ जीवंधरस्य अविरल शरासारं निरन्तरबाणसंगतं वतीत्येवं शील. चापदण्डो धनुर्दण्डः कर्णमभिव्याप्ये
स्तिकाय आदि वस्तुओं के वास्तविक तत्वज्ञानकी सिद्धि के उपायभूत सिद्धान्तशास्त्रको भी उन्होंने अच्छी तरह पढ़ा था। जब कभी राजकुमार हाथीकी पीठरूपी आसनपर बैठकर २५ उसके अत्यन्त कठोर गण्डस्थल के तट में तीक्ष्ण अंकुशके समान नारखूनको गड़ा देते थे और चलते-फिरते पर्वतके समान उस हार्थीको मदसम्बन्धी चपलतासे रहित एवं इच्छानुकूल गमन करनेवाला बनाकर अनन्य सुलभपराक्रमसे शंकित अपनी श्रेष्ठ सिंहता अथवा श्रेष्ठ राजताको प्रकट करते थे। भावार्थ इनके अन्य जन दुर्लभ पराक्रमको देखकर लोग शंका करने लगते थे कि क्या यह राजाका पुत्र हैं! अत्यन्त चञ्चल खरपुटके द्वारा प्रथिवी तलको ३० खोदनेवाले घोड़ेसे एक साथ समग्त दिशाओंपर आक्रमण करता हुआ वह अपने-आपको चुपचाप अपने समस्त राज्य के छीनने में समर्थ बतलाता था । निरन्तर अभ्यासमें तत्पर कुमार के द्वारा अधिष्ठित रथ, चक्रके चीत्कार शब्दके बहाने 'मैं पृथिवी के समान शत्रुओंके मनोरथोंको भी झीव्र ही विदीर्ण कर दूंगा' यह कहता हुआ सुशोभित होता था। लक्ष्यके भेदनेमें चतुर राजपुत्र जीवन्धर कुमारका कान तक खिचा एवं लगातार बाणोंकी वर्षा करने. ३५
१. फ० चक्रमनुक्रमेण ।
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गद्यचिन्तामणिः
[४८ जीवंधरकुमारस्य. एव गुणनिकाया: केशानप्यतिसूक्ष्मान्पाटयितुं पटुः पार्थिवसुतेन पाणी कृतः कृपाणः कृशेतरनखमरीचिसंपर्कादासन्नविनिपातपरिज्ञानविधुरमहसदिव काष्ठाङ्गारम् ॥
४८, एवं क्रमादभ्यस्तसाहित्यं साधितशब्दशासनं समालोकितवाक्यविस्तरं विजृम्भितप्रमाणनैपुणं निर्णीतनीतिशास्त्रहृदयं शिक्षितलक्ष्यभेदं विधेयोकृतविविधायुधब्यापारं पारदश्वानम५ श्वारोहणविद्याया विश्रुतवारणारोहणवैयात्यं वीणावेणुप्रमुखवादनप्रथमोपाध्यायं विदितभवतमार्ग नैकिनृत्यविज्ञानयेशा रद्यविस्मापितशैलूषलोकमुल्लोकनिखिलनिजचरित्रविराजमानं राजकुमार कुसुममिव गन्धः क्रीडावनमिव वसन्तश्चन्द्रमसमिव शरदागमः कुमुदाकरमिव कौमुदीप्रवेश: त्याकर्णम् आकर्णमाकृष्ट इत्याकर्णकृष्ट', मौवीस्वनेन प्रत्यश्चाशब्देन कणे श्रवणे समरविजयकला युद्धविजयचातुरी समुपदिशनिव कथयसिब अलक्ष्यात अश्यत । आरम्भसमय इति-गुणनिकाया योग्य या 'योग्या गुणनिकाभ्यासः' इत्यमरः, भारम्भसमय एवं प्रारम्भवेलायामेव अतिसूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् केशानपि कचानपि पाटयितुं विदारयितुं पटुः समथः, पार्थिवसुतेन नृपतिनन्दनेन जीवन्धरकुमारण पाणी कृती हस्ते गृहीतः कृपाणः खड्नः कृशेसरनखमरीधीनामकृशनखरकिरणानां संपर्कस्तस्मात् भासनो निकटस्थितो यो विनिपातो मरणं तस्य परिज्ञानेन विधुर रहितं काहानारं नृपतिहन्तारम् अहसदिव तस्य हास्यमिव चकार ।
६४. एवं क्रमादिति-एवमनेन प्रकारेण ऋमात् अभ्यस्तं साहित्यं येन तम् शिक्षितकाच्य। शास्त्रम् , साधितं स्वायत्तीकृतं शब्दशासनं व्याकरणं येन तम्, समालोकितः समभ्यस्तो चास्यविस्तरो वाक्यसमूहो येन तम् , बिजम्भित वृद्धिंगत प्रमाणे न्यायशास्त्रे नैपुणं चातुर्य यस्य तम् , मितं सम्यक्प्रकारेण निःसंशयीकृतं नीतिशास्त्रहृदयं नीतिशास्त्ररहस्यं येन तम्, शिक्षितो लक्ष्यभेदो येन तम् , विधेयी कृता अनुकूलीकृता विविधायुधब्यापारा नानाशस्त्रब्यापारा येन तम्, अश्वारोहणविद्याया हयाधिष्टानविद्यायाः पारस्वानं पारदर्शिनम् , विश्रुतं प्रसिद्ध वारणारोहणे गजारोहणे वैया यं धाष्ट यं यस्य तम् , वीणावेणुप्रमुखानां तन्त्रीवंशीप्रभृतिवादिशणां वादने प्रथमोपाध्यायम् आद्याध्यापकम् , विदितो विज्ञातो भक्तमार्गों येन तम्, नैसर्गिक स्वामाविकं यत् नृस्यविज्ञाने वैशारधं नैपुण्यं तेन विस्मापिताः शैलूपलोका नटसमूहा येन तम् , उल्लोकेन लोकोत्तरेण निखिलेन संपूर्णेन निजचरित्रेण स्वाचारेण विराजते शोभत इति तथाभूतं राजकुमारं जीवधरं कुसुमं पुष्पं गन्ध इव सुरमिरित्र, क्रीडावनं केलिकाननं वसन्त इव
वाला धनुदण्ड डोरीके शब्द के बहाने ऐसा जान पड़ता था मानो कानमें युद्ध विजय प्राप्त २५ करने की कला ही सिखा रहा हो। शस्त्राभ्यासके प्रारम्भ समयमें ही जीवन्धर कुमारने
अत्यन्त सूक्ष्म वालों को भी चीरने में समर्थ जो तलवार हाथमें ली थी वह नखोंको विशाल किरणों के सम्पर्क से निकटवर्ती मरणके ज्ञानसे रहित काष्टाङ्गारकी मानो हँसो ही उड़ा रही थी।
४८. इस प्रकार जिन्होंने क्रमसे साहित्यका अभ्यास किया था, व्याकरणको सिद्ध किया था, वाक्यसमूहका अच्छी तरह अबलोकन किया था, जिनकी न्यायशास्त्रकी चतुराई ३० बढ़ रही थी, जिन्होंने नीतिशास्त्रके सारका अच्छी तरह निर्णय कर लिया था, सीखे हुए ___लक्ष्य भेद से जिन्होंने नाना प्रकारक शस्त्र चलानेकी क्रियाको अपने अधीन कर लिया था,
जो घोड़ेपर चढ़ने की विद्या पारदर्शी थे, जिनकी हाथीपर चढ्नेको धृष्टता प्रसिद्ध थी, जो वीणा बाँसुरी आदि प्रमुख वादित्रोंके बजानेमें अद्वितीय पण्डित थे, जिन्हें भक्तिका मार्ग
विदित था, स्वाभाविक नृत्य विज्ञानको निपुणतासे जिन्होंने नटोंको आश्चर्य में डाल दिया ३५ था और जो अपने लोकोपरि समस्त चरित्रसे सुशोभित थे ऐसे राजकुमार जीवन्धरको
१. क० ख० ग० गुणिनिकायाः ।
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- यौवनारम्मः ]
प्रथमो लम्भः करिकलभमिव मदोद्गमो यौवनावतारः परं दर्शनीयतामनैषोत् । तथा हि-प्रविविक्षन्त्याः प्रतिभटराजलक्ष्म्याः सुखासिकादानमिव विधातुं वितस्तार वक्षःस्थलम् । दिशि दिशि चलितस्निग्धधवलदाघवपुषः कटाक्षाः भान्तिरक्षनी दुग्धजलधिविभ्रमं बिभ्रति स्म । अंसवलभोसमर्पणाय धरणीमादातुमिव जानुलम्बिनौ बभूवतुर्भुजौ। स्पर्धयेव परस्परं वर्धमानाभ्यां प्रतापकान्तिभ्यामशिशिर-शिशिरकिरणयोरद्वैतमिव राजसूनुरदीदृशत् ।
४९. एकदा तु तमेकान्ते प्रान्ते निवसन्तमन्तेवासिनमालोवयाचार्यः प्रज्ञाप्रश्रयबलेन हेलया संजातां विद्यापरिणति विमृशाकरतलसंस्पर्शन सादरं संभाव्य निरवसानव्यसनप्रसूनदायि
ऋतुराज इव, चन्द्रमसं शशिनं शरदागम इब जलदान्तागमनमिन, कुमाकरं कुमुदसमूह कीमुद प्रवेश इव ज्योत्स्नाप्रवेश इव, करिकलभ गजशावकं मदोदगम इव दानोद्भव इव यौवनावतारस्तारुण्य प्रारम्भः परं सातिशयं दर्शनीयता सुन्दरताम् अनेषीत् प्रापयामास । तथा हि-प्रविविक्षन्स्याः प्रवेष्टुमिच्छन्त्याः १० प्रतिभटराजलक्ष्म्याः शत्रुराजश्रियाः सुखासिकादानं सुखकरवसतिकादानं विधातुमिव कतुमिव वक्षःस्थलं वितस्तार विस्तीर्ण भूद उत्प्रेक्षा। दिशि दिशि प्रतिदिशं चलित स्निग्धधवलं मसृणसितं दीर्घ वपुराकारो येषां ते कटाक्षाः अपाङ्गदर्शनानि कान्तिरेव लक्ष्मीरिति कान्तिलक्ष्मीः दीप्तिश्रीस्तस्या जन्मने जनुषे दुग्धजलधिः क्षीरसागरस्तस्य विभ्रमः सन्देहस्तं विमति स्म दधति स्म । भुजौ बाहू अंसी स्कन्धावेव बलभ्यौ गोपानस्यौ तत्र समर्पणाय स्थापनाय धरणी पृथिवीम् आदातुमिव गृहीतुमिव जानुलम्बिनी १५ जलपर्यन्तलग्दिनौ बभूवतुः । परस्परं स्पर्धयव मत्सरेणेव वर्धमानाभ्यां प्रतापकान्तिभ्यां तेजोदीप्तिभ्याम अशिशिरश्च शिशिरश्चेत्यशिशिरशिशिरी तथाभूता किरणी ययोस्तयोश्चन्द्रसूर्ययोः अद्वैतमिव ऐक्यमिव राजसूनुनृपतिपुत्रः, अदीदृशत् दर्शयामास । प्यन्त प्रयोगः ।
६४९. एकदेति--एकदा तु एकस्मिन् समये तु एकान्ते विजन प्रान्ते प्रवेशे निवसन्तं विद्यमानं तं पूर्वोक्तम् अन्तेवासिनं विद्यार्थिनम् आलोक्य दृष्ट्वा आचार्य आर्यनन्दी गुरुः प्रज्ञा च प्रश्रयश्चेति प्रज्ञा- २० प्रश्रयौ बुद्धिविनयौ तयोवलेन सामथ्येन हेल या अनायासेन संजातां समुद्भूतां विद्यापरिणति विद्या
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यौवन के अबतारने उस तरह अत्यधिक सुन्दरता प्राप्त करा दी जिस तरह कि फूलको सुगन्धि, क्रीडावनको वसन्त, चन्द्रमाको शरद् ऋतुका आगमन, कुमुद-समूहको चाँदनीका प्रवेश और हाथीके बच्चेको मदका उत्पन्न होना परम सुन्दरता प्राप्त करा देता है । उस समय उनका वक्षःस्थल विस्तीर्ण हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो प्रवेश करने की इच्छुक शत्रु २५ राजाओंकी लक्ष्मीको सुखपूर्ण आवास देने के लिए ही विस्तीर्ण हो गया था। प्रत्येक दिशामें चलते हुघ, स्निग्ध, सफेद एवं लम्बे-लम्बे उनके कटाक्ष कान्तिरूपी लक्ष्मीको जन्म देनेवालं क्षीरसागरका विभ्रम धारण करते थे। उनकी दोनों भुजाएँ कन्धे रूप अढालिकाओं में
ने उद्देश्यस पृथिवीको उठाने के लिए ही मानो घटनों तक लम्बी हो गयी थी। और परस्परकी स्पर्धासे बड़नेवाले प्रताप और कान्तिके युगलसे वे मानो सूर्य और चन्द्रमाके अद्वैत. ३. को ही दिखला रहे थे।
६४६. तदनन्तर एक दिन एकान्त स्थानमें निवास करते हुए विद्यार्थी जीवन्धर कुमार को देखकर आचार्य आर्यनन्दी विचार करने लगे कि इसे बुद्धिबल और विनयवलसे अनायास ही विद्याओंकी पूर्णतः प्राप्त हुई है । वे हस्ततलके स्पर्शसे आदरपूर्वक स्नेह प्रकट ..
१.क०ग विस्तारितवक्षःस्थरम् ।
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गधचिन्तामणिः
५. आयनन्दिगुरुणा -
संसृतिलताच्छेदकुठारं निरतिशयपरमानन्दपदप्राप्तिसाधनं सम्यक्त्वधनं समर्पयितुमस्मै कालोऽयमित्याकलय्य गुरुशुद्धिप्रदर्शनेन सविसम्भमस्य मनः कतुं स्ववृत्तान्तमन्यकथाव्यावर्णनव्याजेन व्याजहार
५०. 'वत्स,वन्दमानविद्याधरमकुटताडितपादपीठकाण्ठोक्तमहिमा महीपति रभूदभूतपूर्वः ५ सर्वविद्यासाम्राज्यसंपदुन्मेपविभ्राजिनि विद्याधरलोके लोकपालो नाम । स तु कदाचिदागमे पयोमु
चामम्बराभोगमलिम्लुचं महेन्द्रनोलमणिवातायनतिलकितं सौधवलभीमध्यं सुमध्याभिः सहाधिवसन्धनसमयलक्ष्मीकुन्तलविभ्रमं किमपि नवाभ्रमपश्यत् । पश्यत्येव तरिमन्विस्मयस्तिमितचक्षुषि तत्क्षण एव ननाश नँशान्धकारसोदरः स पयोधरः । तदवलोकनजनितनिर्वेदः 'सर्वथा
परिपाकं विमृशन विचारयन् करतलसंस्परॉन हस्ततलसम्यकस्पर्शेन सादरं संभाव्य सत्कृत्य निरवसानानि १० निरन्तानि यानि व्यसनप्रसूनानि दुःरवकुसुमानि तानि ददासीत्येवंशीला या संमृतिलता संसारवल्ली तस्याः
छेदे कुठारः परशुस्तत्, निरतिशयं निरनुपमं यत्परमानन्दपदं परमसुखस्थानं तस्य प्राप्तेः साधनमुपायभूतम्, सम्यक्त्वमेव धनमिति सम्यक्स्वधनं सम्यग्दर्शनधनम् अस्मै जीवंधराय दातुम् अयं कालो योग्यः समय इतीस्थम् आकलस्य निश्चित्य गुरुशुद्धिप्रदर्शनेन गुरुपावित्र्यप्रकटनेन अस्य कुमारस्य मनः सविस्रम्भ
सप्रत्ययं कर्तुम् अन्यस्य इसरजनस्य कथाया व्यावर्णनं निरूपणं तर माइलेज स्वतान्तं स्वकीयं १५ चरित व्याजहार कथयामास ।
६५०. वत्सेति-वत्स ! तात! सर्व विद्यानां निखिल गगनगामिन्यादिविद्यानां साम्राज्यमेव सम्पद् तस्या उन्मेषेण प्रकटीमावेन विभाजते शोभत इत्येवंशीले विद्याधरलोके खेचरनिवासक्षेत्रे विजयाःपर्वत इति यावत् वन्दमानानां नमस्कुर्वाणानां विद्याधराणां खगानां मकुटमौलिभिस्ताहितेन पादपीठेन
कष्टोक्तो महिमा यस्य तथाभूतः पूर्व न भूत इन्यभूतपूर्वः लोकपालो नाम महीपती राजा अभूत् । २० स वितिस तु लोकपालः कदाचिजासुचित् पयोमुचा मेघानामागमे वर्षाकाल इत्यर्थः अम्बराभोगस्य
गगनविस्तारस्य मलिम्लुचं चौरं विस्तृततरमिति यावत् महेन्द्रनीलमणिवातायनगरुडमणिनिर्मितगवालेस्तिलषितं व्याप्तं सीधवलभीमध्यं प्रासादगोपानसीमध्यभागं सुमध्यमाभिः सुन्दरकरिविभ्राजमानामिः प्रियाभिः सहाधिवसन् धनसमयलक्ष्म्या वर्षाकालश्रियाः कुन्तलानां केशानामिव विभ्रमी विलासी यस्य तत् तयाभूतं किमप्यनिर्वचनीयं नवा नवीनवारिदम् अपश्यत् । पश्यत्येवेति-विस्मयेन स्तिमिते करते हुए सोचने लगे कि यह समय, इसके लिए अनन्त दुःखरूपी फूलोंको देनेवाली संसाररूपी लताको काटने के लिए कुल्हाड़ी एवं अद्वितीय परमानन्द पदकी प्राप्तिका साधन सम्यग्दर्शन रूपी धन देने के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। यह सोचकर गुमशुद्धिको दिखानेसे इनके मनको विश्वास युक्त करने के लिए वे किसी अन्य पुरुषको कथाके वर्णनके बहाने अपना वृत्तान्त कहने लगे।
६५०. उन्होंने कहा कि वत्स ! समस्त विद्याओंके साम्राज्य रूपी सम्पत्तिके उद्रेकसे सुशोभित विद्याधरोंके लोकमें वन्दना करनेवाले विद्याधरों के मुकुट से ताड़ित पैर रखने की चौकोके द्वारा जिसकी महिमा स्पष्ट कही जाती थी ऐसा लोकपाल नामका एक अभूतपूर्व राजा था। किसी समय वह राजा वर्षा ऋतुमें आकाशके विस्तारको अपहृत करने वाले,
एवं इन्द्रनीलमणियोंके झरोखोंसे सुशोभित राजमहलकी छपरीके मध्य में अपनी स्त्रियोंके ३४ साथ बैठा था। उसी समय उसने वर्षाऋतुको लक्ष्मीके आगेके केशोंकी शोभाको धारण
करनेवाले किसी नूनन मेधको देखा। आश्चर्यसे निश्चल नेत्रोंको धारण करनेवाला राजा उस मेघको देख ही रहा था कि रात्रिके अन्धकारके समान वह मेघ उसी समय नष्ट हो
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- स्ववृत्तान्तकथनम् ] लायप्रथमो लम्भः सलिलबुद्रुदसहचरा न सन्ति चिरावस्थायिनः संसारविभ्रमाः। तरुतलपुञ्जिताः पर्णराशय इव प्रबलपवनपरिस्पन्देन सुकृतपरिक्षयेण तत्क्षण एव नश्यन्ति संगताः संपदः । पाकशासनशरासनमिव विशरारु नानारागपल्लवोल्लासविलासोपवनं यौवनम् । जीवितं तु किमिदानीमुद्भाविन्यपि समये स्थायीति जगति न केनापि निश्चेतुं पार्यते । कथमपि कालं कंचिदवस्थितिमाजोऽप्यायुषः क्षय एव नियतः । तदेतत्सर्व स्वयमेव यास्यति । वयमेव निरस्यामः' इति विचार्य विनश्वरश्रीविलास- ५ पराङ्मुखः परनिरपेक्षं निरनभिकमनुमाथिक' च सुसमभवितुमि मन्त्रशिरसि निवेश्य राज्यभार भवसंज्वरपरिहरणविचक्षणां जिनदीक्षा प्राविक्षत् । चक्षुषी यस्य तस्मिन् शोभातिशयदर्शनसमुस्थविस्मयनिभृतनयने तस्मिन् लोकपाले पश्यत्येव विलोकमान एवं नैशान्धकारस्य रजनीतिमिरस्य सोदरः सहोदरः सदृश इति यावत् स पयोधरो जलधरः तरक्षण एव दर्शनकाल एव ननाश नोऽभूत् । तदवलोकनेति-नस्य पयोधरस्यावलोकनेन जनितो निवेदो वैराग्यं १० यस्य तथाभूतः स नृपः 'सर्वधा सर्वप्रकारेण सलिलबुबुदसहचरा जलबुदबुदसदृशाः संसारविनमा भवविलासाः चिरावस्थायिनो दीर्घकालस्थायिनो न सन्ति । तरुतले वृक्षाधस्तात् पुजिता राशीभूताः पर्णराशयः शुष्कपत्रसमूहाः प्रवलपवनस्य प्रबरूसमीरस्य परिस्पन्दनेनेव संचारेणेव सुकृतपरिक्षयेण पुण्यविनाशेन संगताः प्राप्ताः संपदः तत्क्षण एवं तत्काल एवं नश्यन्ति नष्टा मवन्ति । नानारागाः पुत्रमित्रकलत्रप्रभृत्यनुरागा एव पल्लकाः किसलयास्तेषामुल्लासे नवनवीकरणे विलासोपधनं केलिकाननं तथाभूतं यौवनं तारुण्यं पाकशासनशरासनमित्र शक्रधनुरिव विरारु नश्वरम् । जीवितं तु जीवनमपि, इदानों कि सांप्रतं किम् उमाविन्यपि आगामिन्यपि समये स्थाथि स्थिरम् इति न केनापि अनेन निश्वेतुं पायते शक्यते। कथमपि केनापि प्रकारेण कंचिरकालं कमपि समयं यावत् अवस्थितिभाजोऽपि स्थिरस्थापि आयुषो जीवनस्य क्षय एवं विनाश एवं नियतो निश्चितः । तत् तस्मात् कारणान् एतद् दृश्यमानं स्वयमेव स्वत एवं यास्यति गमिष्यति नक्ष्यतीत्यर्थः । वयमेव निरस्यामः त्यजाम' इति विचार्य .. विमृश्य विनश्वरश्रिया मकरराजलक्ष्मी विलासात्परामुखो विमुरू: सन् परनिरपेक्षं स्वायत्तं निरवधिक निरन्तम् अनुपाधिकमुपाधिरहितं सुखम् अनुमचितुमिच्छन् पुत्रशिरसि सुतमूर्ध्नि राज्यमारं निवेश्य स्थापयित्वा भवसंज्वरस्य भवव्याधेः परिहरणे विचक्षणा नियुणा तां तथाभूतां जिनदीक्षां निनन्धमुद्रा प्राविक्षत् प्रविवेश स्वीचकारेति यावत् । गया । उस नश्वर मेषके देखनेसे जिसे वैराग्य उत्पन्न हो गया था ऐसा राजा विचार करने लगा कि ये संसारके विषय सर्वथा पानीके बबूलेके समान हैं इनमें कोई भी चिरकाल तक स्थिर रहनेवाले नहीं हैं। जिस प्रकार प्रबल पवनके चलनेसे वृक्ष के नीचे स्थित पत्तोंकी राशियाँ नष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार पुण्यके क्षीण होनेसे प्राप्त संपत्तियाँ तत्काल नष्ट हो जाती हैं। नाना प्रकार के रागरूपी पल्लवोंको उल्लसित करनेके लिए क्रीडावनके समान जो यौवन है वह इन्द्रधनुपके समान नश्वर है। जीवन इस समयकी क्या बात आगामी समयमें भी स्थिर रह सकेगा यह निश्चय किसीके द्वारा नहीं किया जा सकता ? जो किसी तरह २० कुछ काल तक स्थित रहता भी है उसकी भी आयुका क्षय निश्चित होता है । क्योंकि यह सब स्वयं ही नष्ट हो जायेगा इसलिए ही इसे हम छोड़ देते हैं' इस प्रकार विचार कर विनश्वर राजलक्ष्मीके विलाससे विमुख हो परनिरपेक्ष, सीमारहित और स्वाभाविक सुख के उपभोगकी इच्छा करता हुआ वह राजा पुत्रके शिरपर राज्यका भार रख संसाररूप ज्वरको .. दूर करने में निपुग जिनदीक्षामें प्रविष्ट हुआ-उसने जिनदीक्षा ले ली।
१. ग० अनुपादिकम् । २. क० सुखमनुभवितुमिच्छुः ।
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नाचिन्तामणिः
[ ५१ आर्यनन्दिगुरुणा - ५१. प्राप्तजिनदीक्षः प्रणष्टतमांसि तपांसि चरन्प्रारजन्मार्जितदुर्जरपापपरिपाकपरिणतेन भक्षितमखिलं तत्क्षण एव भस्मसात्कुर्वता च भस्मकेन पर्यभूयत। परिभूतश्च तेनाविच्छिन्नचरितोऽप्यशक्यतया दुर्गत न दुर्लभं धनं पर नराः पर्यत्यजत् । अनिष्ट च यथेष्टं स्वैरविहरणावकाशप्रदानपण्डितेन पाषण्डिवेषेण 1 स पुनरङ्गार इत्र भस्मना भस्गकमहारोगेण तिरोहितदीप्तिः ५ सम्यक्त्वपूतमतिस्तत इतो विहरन्ननवरतज़म्भमाणदारुणबुभुक्षाओभितमतिः कदाचिदधरितकुबेर
वैभवस्य गन्धोत्कटस्य सततविघटितकवाटपुटमुत्तम्भितमणिस्तम्भशुम्भिताभ्यन्तर निरन्तर विप्रकीर्णमणिगणशरिलभूतलमगस्त्यकवलितजलपूमिव रत्नाकरमाखण्डलकुलिशपुनःपतनभयपरि
६५१. प्राप्ते नि-प्राप्ता जिन दीक्षा ऐन तयाभूतो नृतनिर्ग्रन्थमुद्रः प्रणष्टं तमो यैस्तानि दूरीकृतमोहतिमिराणि तपांसि द्वादशविधानि चरन् कुर्वन् स लोकपालः प्राग्जन्मार्जितस्य पूर्वजन्मो१० पार्जितस्य दुजेरपापस्य प्रगाढपापस्य परिपाई न समुदयन परिणतं समुपस्थितं तेन भक्षितं भुकम् अखिलं
समग्रपदा तत्क्षण एव तत्काल एव भस्मसाकुर्वता च जीणं कुर्वता च भस्मकेन भस्मकच्याधिना पर्यभूय अभ्यभूयत । कर्मणि प्रयोगः । तेन भस्मकेन परिभूतश्च तिरस्कृतश्च स लोकपालमुनिः अविच्छिन्नमरखण्डितं चरितं यस्य तथाभूतोऽपि सन् अशक्यतया असहनीयतया दुर्गतो निर्धनो दुर्लम धनमित्र दुष्प्राप्यं
वित्तमिव परमं श्रेष्ठं तपो निन्धतपश्चरणं पर्यत्यजत तत्याज । यथेष्टं यथेच्छं यथा स्यात्तथा स्वैरविहरणाय १५ स्वच्छन्दविहारायावकाशस्य प्रदाने पण्डितो निपुणस्तेन तथाभूतेन पाषण्डिवेषेण कुतारसवेषण अवर्तिप्ट
च प्रववृते च । स पुनरिति--स पुनरनन्तरम् मस्मना भूत्या अङ्गार इव भस्मकमहारोगेण भस्मकाख्यमहान्याधिना तिरोहिता दीतिर्यस्य तथाभूतः, सम्यक्त्वेन पृता मतिर्थस्य तादृशः, तत इतो यतस्ततो विहरन् अनवरतं निरन्तरं जम्भमाणा वर्धमाना या दारुणनुभुक्षा कठिनबुभुक्षा तया क्षीमिता विचलिता मतियुद्धियस्य ताटक सन् कदाचित् जातुचित् अधरितकुबेरवैभवस्य तिरस्कृत धनपतिवैमवस्य गन्धोत्कटस्य वैश्यपतेः हम्यं सौधम् अविशत् प्रविवेश । अथ हऱ्यास्य विशेषणान्याह--सततेति--सततं सर्वदा विघटितं कपाटपुटमररपुटं यस्य तत् , उत्तम्भितैरुत्थापितैर्मणिस्तम्भ रनमयस्तम्भैः शुम्भितं शोभितमभ्यन्तरमबहि:प्रदेशो अस्य तत् , निरन्तरं निरवकाशं यथा स्यात्तथा विप्रकीर्णः प्रसारितैर्मणिगणे रखसमूहैः शर्करिल शर्करायुकं भूतलं पृथिवीतलं यस्मिन् तत् अत एव अगस्त्येम कुम्भोद्भवेन ऋषिणा कवलितं जलपूर यस्य
तादृशं रखाकरमिव सागरमिव, आमण्डलकुलिशस्य सहस्राक्षवस्य पुनःपतनभयेन भूयः पतनमीत्या २५
६५१. जिनदीक्षा प्राप्त कर वह अज्ञान अथवा मोहको नष्ट करनेवाले तप तपने लगा परन्तु पूर्व जन्म में अर्जित दुर्जर पापके उदयसे उत्पन्न उस भस्मक व्याधिने जो खाये हुए समस्त भोजनको उसी क्षण भस्म कर देता था उसे धर दबाया। उक्त व्याधिसे आक्रान्त होनेपर यद्यपि उसने अपने चरित्र में बट्टा नहीं आने दिया था तथापि अशक्तिके कारण जिस प्रकार दरिद्र मनुष्य दुलेभ धनको छोड़ देना है. उसी प्रकार उसने उत्कृष्प तप छोड़ दिया।
और स्वच्छन्द विहारके लिए अवकाटा देने में निपुण पापण्डीके वेपसे इच्छानुसार प्रवृत्ति करने लगा। जिस प्रकार अङ्गार भीतर देदीप्यमान रहता है परन्तु अपर भस्मसे उसकी कान्ति तिरोहित हो जाती है, उसी प्रकार वह साधु भीतर तो सम्यग्दर्शनसे पवित्र बुद्धिका धारक था परन्तु ऊपर उस भस्मक महारोगसे उसको कान्ति तिरोहित हो गयी थी। एक दिन निरन्तर बढ़ती हुई भयंकर भूखसे जिसकी बुद्धि लोभित-चंचल हो रही थी-ऐसा वह साधु .यहाँ वहाँ विहार करता हुआ कुबेरके वैभवको तिरस्कृत करनेवाले गन्धोत्कट के उस भवनमें 'जा प्रविष्ट हुआ जिसके कि किवाड़ सदा खुले रहते थे, ऊँ चे खड़े किये हुए मणिमय खम्भोंसे.
१. २०ख० ग. 'च'नास्ति । २. क. ख० ग० तेनावच्छिन्नमय शक्यतया । ३. म. अभ्यन्तर ।
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५२ स्ववृत्तान्तकथनम् ]
द्वितीयो कम्मः
रोहण शिखरिणमभिनवशष्यशङ्कातरलितगृहणिपोत लिह्यमान गरुत्मदुत्पल घटित - तलमयूखपटलमतिचटुलपरिचारकच रणपुट रटित रत्नसोपान मवलम्बित मुक्तादामपुलकित वलभीनिवेशमितस्ततो दृश्यमानचामीकरपर्यं ङ्कपरिहसित मे रुशिलातलमभिनव सुधालेपधवलितोपरिभागरम्यं हर्म्यमविशत् ।
$ ५२ तत्र च प्रसार्यमाणसौवर्णामत्रविडम्बित मित्रमण्डले त्वरमाणपरिजनवनिताकर- ५ मुख्यपानमणिषकशुक्ति पाटलपरिमल सुरभि पानीयभरिततपनोयभृङ्गारके लिख्यमान मङ्गलचूर्णरेखानिवेद्यमानभोजनभुवि समुद्घाटितपञ्जरक्वादविनिर्गत क्रीडाशुकसारिका-परिवृत्तो वेषो येन तथाभूतं रोहणशिखरिणमित्र रोहणगिरिमिव, अभिनवशप्पाणां हरितहरितनूतन घासानां शङ्कया सन्देहेन तरकिताः सतृष्णीकृता ये गृहहरिणपोता गृहमृगशिशव स्तैर्लियमानमास्त्राद्यमानं गरमदुपलघटिततलस्य नीलमणिनिर्मितभूपृष्टस्य मयूखपटलं किरणपटलं यस्मिन् वत्, भतिचटुलैश्चपलतरैः परिचारकाणां सेवकानां चरणपुटै रटितानि शब्दितानि रत्नसोपानानि मणिमयपादावतारिका यस्मिन् तत्, अवलम्बितैः त्रस्तैर्मुक्तादामभिमौकिकस्स्रग्भिः पुलकिता युक्ता चलसीनिवेशा गोपानसी निदेशा यस्मिन् तत्, इतस्ततो यत्र तत्र दृश्यमानैरवलोक्यमानैश्चामीकरपर्यङ्कः स्वर्णासनैः परिहसितानि मेरुशिलातलानि यस्मिन् तत्, अभिनवेन नूतनेन सुधालेपेन चूर्णकद्रवलेपेन धवहितः शुक्लीकृतो य उपरिभाग उपरितमप्रदेशस्तेन रम्यं रमणीयं हर्म्यं सौधम् अविशत् इति पूर्वोक्तम् ।
१०
६ ५२. तत्र चेति-तत्र च हयें प्रसार्यमाणैर्विस्तार्यमाणैः सौवर्णामत्रैः कनकभाजनैर्विडम्बितं तिरस्कृतं मित्रमण्डलं सूर्यबिम्वं यस्मिन् तस्मिन् स्वरमाणाः शीघ्रतां कुर्वाणाः याः परिजनवनिताः परिचारिकास्तासां करैः पाणिभिः प्रसृज्यमानः स्वच्छी क्रियमाणो मणिचषकशुतिसंचयो रत्नमयपानपात्रशुक्तिसमूहो यस्मिन् तस्मिन् संमूर्च्छन् वर्धमानोऽतुच्छ: प्रचुरो यः पाटलस्म स्थलारविन्दस्य परिमलः सौगन्ध्यं तेन सुरभि सुगन्धि यत्पानीयं जलं तेन भरिताः पूर्णास्तपनीयभृङ्गारकाः स्वर्णकशा यस्मिन् २० तस्मिन् विख्यमानाभिर्मङ्गलचूर्णरेखाभिनिवेद्यमाना सूच्यमाना भोजनभूर्यस्मिन् तस्मिन् समुद्घाटितेभ्यः
1
वृत्तवेषमिव
C
९७
१०. क सुरभित ।
१३
१५
सुशोभित भीतरी भाग में निरन्तर फैलाये गये मणियों के समूहसे जहाँकी भूमि शर्करासे युक्त थी और इसीलिए जो, अगस्त्य ऋषिने जिसका सब पानी पी लिया था ऐसे रत्नाकरसागर के समान जान पड़ता था, जो इन्द्रके वज्रके पुनः गिरनेके भयसे वेष बदलनेवाले रोहण गिरिके समान था, नूतन घासकी शंकासे चंचल पालतू हरिणोंके बच्चे जिसके गरुड़ २५ मणियों से निर्मित फर्श से निकलनेवाली किरणों के समूहको चाँट रहे थे, अत्यन्त चंचल परिचारकोंके चरणपुट से जहाँ रत्नोंकी सीढ़ियाँ शब्द करती रहती थीं, लटकती हुई मोतियों को मालाओं से जिसकी छपरियाँ पुलकित हो रही थीं, जहाँ तहाँ दिखाई देनेवाले स्वर्णके पलंगोंसे जहाँ सुमेरुके शिलातलोंकी हँसी उड़ायी जा रही थी, और नूतन कलईके लेपसे उज्ज्वल ऊपरी भागसे जो रमणीय था ।
३०
५२. हाँ जैन जनका सर्वस्व होने के कारण वह गन्धोत्कटकी उस भोजनशाला में निःशंक होकर प्रवेश करने लगा जिसमें कि फैलाये जानेवाले सुवर्णमय पात्रोंसे सूर्यमण्डल - की विडम्बना हो रही श्री, शीघ्रता करनेवाली परिजनकी स्त्रियोंके हाथोंसे जहाँ मणिमय प्याले और तस्तरियों के समूह साफ किये जा रहे थे, जहाँ बढ़ती हुई गुलाबकी बहुत भारी सुगन्धिसे सुगन्धित जलसे स्वर्णनिर्मित लोटे भरे जा रहे थे, जहाँ लिखी जानेवाली मांगलिक चूर्णकी रेखाओंसे भोजनकी भूमि सूचित हो रही थी, पिंजड़ोंके किवाड़ खोल
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५
मद्यविपाधिः
[यनन्दिगुरुणा
प्रत्यग्रपाक
हूयमानपौरोगवे प्रवेश्यमानबुभुक्षितजने प्रदीयमान पङ्क्ति भोज नामत्र कदलीप जनितसौरभ्यलुभ्यघ्राणे समन्ततश्चलिततालवृन्तग्राहिणीच रणनूपुररणितभरितदिशि भोजनास्थानमण्डपे जेनजन सर्वस्वतया निःशङ्कं प्रविशन्नातिदूरनिविष्टेनिबिड भूषणमणिप्रभातरङ्गिततनुभिरतनुकायकान्तिभिरात्मनः प्रतिबिम्बैरिव समानवयोरूपलावण्यैव यस्यैरुपास्यमानमुडुगण परिवृतमिव बालचन्द्रमसमायुष्मन्तमपश्यत् ।
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$ ५३. भवानपि बाल्येऽप्याकृतिज्ञ तथा प्रकृतिसुलभकृपाप्रेरितहृदयतया च तस्य तादृशीं बुभुक्षामालक्ष्य 'भोज्यतामयमभिमतैर्भोज्यैः' इति पुरः स्थितं पौरोगवाध्यक्षमादिक्षत् । भिक्षुरपि पञ्जरक वाटेभ्योऽयः शलाकागृहाररेभ्यो विनिर्गता याः क्रीडाशुकसारिकाः केलिकीरमदनिकास्ताभिर्द्वयमाना आकार्यमाणाः पौरोगवाः पाचका यस्मिन् तस्मिन् प्रवेश्यमाना बुभुक्षितजनाः क्षुधातुरपुरुषा यस्मिन् १० तस्मिन् प्रदीयमानानि वितीर्यमाणानि भोजनामत्राय मोजनपात्राय कदलीपत्राणि रम्मादलानि यस्मिन्
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तस्मिन् प्रत्यप्रपाक्रेन नूतनपाकेन जनितं समुत्पादितं यत्सौरभ्यं तेन लभ्यद् घ्राणं नासेन्द्रियं यस्मिन् तस्मिन् समन्ततः परितश्चलिता यास्तालवृन्तग्राहिण्यो व्यजनधारिण्यस्तासां चरणनू पुराणां पादमअरिकाणां रणितेन शब्देन भरिता व्याप्ता दिशो यस्मिन् तस्मिन् भोजनास्थानमण्डपे मोजनशाला मण्डपे जैनजनानां सर्वस्वता तथा निःशङ्कं यथा स्यात्तथा प्रविशन् लोकपालतापसो नातिदूरनिविष्टः समोपस्थितैः निविड१५ भूषणमणीनां सान्द्राभरणरवानां प्रभया दीप्त्या तरङ्गिता व्याप्ता तनुर्येषां तैः अतनुकायस्य कामकलेवरस् कान्तिर्येषां तैः आत्मनः स्वस्य प्रतिविम्वैरिध प्रतिकृतिमिरिव समानानि सदृशानि वयोरूपलावण्यानि अवस्थावर्णसौन्दर्याणि येषां तैः वयस्यैर्मित्रैः उपास्यमानं सेव्यमानम् अत एव उडुगणपरिवृतं नक्षत्रनिचयव्याप्तं बालचन्द्रमसमिवं द्वितीयेन्दुभिव आयुष्मन्तं भवन्तम् अपश्यत् ।
५३. भवानपि आयुध्मानपि बाल्येऽपि बालावस्थायामपि आकृतिशतया आकारज्ञत्वेन प्रकृत्य । २० निसर्गेण सुलभा या कृपा दया तया प्रेरितं हृदयं यस्य तस्य भावस्तत्ता तया च तस्य तापसस्या तथाभूतां बुभुक्षां क्षुधाम् आलक्ष्य 'अयं तापसः अभिमतैरिष्टः भोज्यैर्भोजनैः मोज्यताम्' इतीत्थं पुरोऽग्रे स्थितं पौरोगवाध्यक्षं प्रधानपाचकम् आदिदेश आज्ञापयामास । भिक्षुरपि - मिक्षुरपि तापसोऽपि कटाक्ष
देनेसे निकले हुए पालतू तोता मैनाओंके द्वारा जहाँ रसोइया बुलाये जा रहे थे, जहाँ भूखे asarat प्रविष्ट कराया जा रहा था, जहाँ पंक्तिभोजनके लिए पात्र के रूपमें केले के पत्ते २५ दिये जा रहे थे, जहाँ नूतन पाकसे उत्पन्न सुगन्धिके कारण प्राणेन्द्रिय लुभा रही थी और जहाँ सब ओर चलती हुई पंखा झलनेवाली स्त्रियोंके चरणोंके नूपुरोकी झनकारसे दिशाएँ भर गयी थीं। वहाँ प्रवेश करते ही उसने, जो समीप में बैठे हुए थे, सान्द्रभूषणों के मणियोंकी प्रभासे जिनके शरीर लहरा रहे थे, जिनके शरीरकी कान्ति कामदेव के समान थी अथवा जो अत्यधिक शरीरकी कान्तिसे युक्त थे जो अपने ही प्रतिविम्याके समान जान पड़ते थे, और जो समान अवस्था, समान रूप तथा समान सौन्दर्थके धारक थे ऐसे मित्रगणोंसे सेवित आपको देखा । उस समय अनेक मित्रगणोंसे घिरे हुए आप नक्षत्रों के समूह से घिरे बाल चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे ।
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१५३. यतश्च आप बाल्य अवस्थामें भी आकृतिका ज्ञान रखते थे और आपका हृदय स्वभावसुलभ दयासे प्रेरित था अतः आपने उस पाषण्डी साधुकी वैसी भूख देख सामने खड़े रसोइयाको आज्ञा दी कि 'इसे इच्छानुकूल खाद्य पदार्थोंसे भोजन कराया जाये ।'
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१. म० भोजनस्थानमण्डपे |
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द्वितीयो लग्भः कटाक्षपातक्षणसंनिहितसलिलकर्मान्तिककरावजितकनकभृङ्गारगर्भगलितधारालसलिल क्षालितचरणः प्रसारितवेत्रासने मणिकुट्टिमे समुपविश्य पुरोनिहितपृथुतरामनपातितममलदुग्धजलधिफेनपटलधवलं संपन्नमन्नराशिविरलघृतसिता संपातद्विगुणितमाधुर्येण मौद्गकद्रवे ण कबलीकृत्य मधुररसभरितोदरेण विडम्बितकनकपालिकेन पचेलिमेन पनसफलेन पाकपाटलितत्वचा मोचाफलेन शातकुम्भकुम्भसदृशाकारेण सहकारफलेन च प्राज्याज्यप्रचरमरीचानुगणलवणमधरनालिकेरपयःपल्लवितरसेन बृहद्हतोप्रमुखेनाञ्जनशिखरिदेशीयेन व्यजनजातेनाप्यभिव्यजितरसं निमेषमात्रेण निरवशेषमभ्यवाहृत । पुनरप्यहृष्टमनसे प्रचुरमन्नमह्नाय भोक्तुमभिलषते तस्मै विस्मयस्तिमितपातस्मापाङ्गपातस्य क्षणे समये संनिहितो निकटस्थितो यः सलिलकान्तिको ‘जलकार्यकरस्तस्य करणावर्जितो गृहीतो यः कनकभृङ्गारस्तस्य गर्मात मध्याद गलितं निःसृतं यद धासलं धाराबद्धं सलिलं तेन शालिसौ चरणौ यस्य तथाभूतः सन् प्रसारितानि वेत्रासनानि यस्मिन् तस्मिन् , मणिकुट्टिम रचितभू- १० पृष्ठे समुपविश्य स्थितो भूत्वा पुरोनिहिते पुरस्तात्स्थापिते पृथुतरेऽतिचिस्तीणऽमत्रे पात्रे पातितं तथाभूतम् , अमले निर्मलं यद् दुग्धजलधिफेनपटलं क्षीरसागरडिण्डीरपिण्यं तद्वद् धवलं शुक्लम्, संपन्नं परिपक्वम् अन्नराशि मोज्यसमूहम्, अविरलं निरन्तरं यथा स्यात्तथा घृतसितयोः सर्पि.शकरोषलयोः संपातेन द्विगुणितं माधुर्य यस्य तेन तथाभूतेन मौद्गकद्रवेण मुदगदालीद्रवेण कालीकृस्य ग्रासीकृत्य भुक्त्वेत्यर्थः, मधुरसेन मरितमुदरं मध्यं यस्य तेन, विम्बितास्तिरस्कृताः कनकपालिकाः स्वर्णफक्किका येन तेन, पचेलिमेन १५ परिपक्वेन पनसफलेन 'कटहल' इति प्रसिद्धफलेन, पाकेन पाटलिता मनागरक्तवर्णाकृता त्वक् यस्य सेन तथाभूतेन मोचाफलेन कदलीफलेन, शातकुम्भकुम्मस्य स्वर्ण घटस्य सदशः समान आकारी यस्य तेन तथाभूतेन सहकारफळेन च अतिलौरमाम्रफलेन च प्राज्याज्येन प्रकृष्टधृसेन प्रचुराणि यानि मरिचानि तैरनगणमनुरूपं यत् लवणं सारं तेन मधुरं यत् नालिकरपयो नालिकराभ्यन्तरस्थितसलिलं तेन पल्लवितो वृद्धिंगतो रसो यस्य सेन, बृहदवहतीप्रमुखेन विशालकर्कटिकाप्रधानेन अअनशिखरिदेशीयेन अञ्जन- २० गिरितुल्येन म्यअनजातेनापि शाकसमूहेनापि अमिन्य अितः प्रकटितो रसः स्वादो यस्य तम् अन्नराशि निरवशेष सम्पूर्ण निमेषमात्रेण अभ्यवाहत मक्षयामास । पुनरपि-पुनरपि प्रचुरानराशिमक्षणानन्तरमपि अहप्टं मनो यस्य तस्मै अरसन्नचेतसे प्रचुरं विपुलम् अन्नं खाद्यम् अह्वाय झरिति भोक्तुममिलषते खादितुमिच्छते तस्मै भिक्षवे विस्मयेनाश्रयण स्तिमितं निश्वलं मनो यस्य तेन तथामतेन त्वया समादिप्टा कटाक्ष पात के क्षण ही समीपमें स्थित पानी के कार्य में स्थित सेवकके हाथमें धारण किये हुए २५ स्वर्णमय लोटाके मध्यसे गिरते हुए धाराप्रवाह जलसे जिसके पैर धुलाये गये थे ऐसा साधु भी बिछायी हुई बेतको चटाइयोंसे युक्त मणिमय फर्शपर बैठकर सामने रखे विशाल पात्रमें परोसी, निर्मल क्षीर सागरके जलके फेनपटलके समान धवल, परिपक्व अन्नकी राशिको अत्यधिक घी और मिश्रीके डालनेसे जिसकी मधुरता दृनी हो गयी थी ऐसी मूंगकी दालके साथ खाकर मपुर (ससे परिपूर्ण मध्यभागसे युक्त, स्वर्णको फाँकको तिरस्कृत करनेवाले पके ३० कटहलसे, पक जाने के कारण लाल पीली त्वचासे युक्त कदलीफलसे, स्वर्ण घटके सदृश आकारको धारण करनेवाले आमसे, अत्यधिक घासे परिपूर्ण मिर्च के अनुरूप नमकसे मधुर नारियलके जलसे वृद्धिंगत रससे और अनगिरिक समान बैंगन आदिको बहुत भारी झाकसे जिसका स्वाद प्रकट हो रहा था ऐसे समस्त भोज्य पदार्थीको निमेषमात्रमें खा गया। उतना सब खा लेने के बाद भो जिसका मन प्रसन्न नहीं हुआ था, और जो शीघ्र ही बहुत सारा ३५ अन्न खाने की इच्छा रखता था ऐसे उस साधुके लिए, आश्चर्यसे चकित हृदयको धारण
१. क. ग० धारासलिल । २. क० ख० ग० सितसंपात । ३, क० ख० ग० मौद्गबेन । ४. क. ख. ग० मोचफलेन ।
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गचिन्तामणिः ___ [५४ भाग्नन्दिगुरुणामनसा त्वया समाविष्टः पौरोगवाः पूर्वनिष्पन्न तद्भवनवासिनिखिल जनभोक्तव्यं विविधमन्धःसंभार समर्पयामासुः । स भिक्षुरक्षीणबुभुक्षुस्तदशेषमशनमम्भोधिपयःसंभारमिव कल्पान्तकालानल: कवलयन कदाचिदतार्सीत् ।
५४. एवं पूर्वनिष्पनेस्तदात्वसंपादितैरपरिमितेश्च पायसदाधिकसापिष्काद्यमृत पिण्डेरपूर५ 'प्यपूर्णजठरमाशार्णवमिव वणिनमालोक्य चित्रीयाविष्टस्त्वमनासादिताहारो निवसन्भिक्षोधेिः
परिक्षयकालतया वा कुमारकारुण्यवैभवेन वा तथाभवितव्यतया वा तस्य वस्तुनः स्वहस्तावलम्बित कलमकबलमत्यादराददिथाः । तदास्वादनमात्रेण तृष्णापयोधिरिख भगवत्या परमनिवृत्त्या क्षण
आज्ञप्ताः पौरोगवाः पाचकाः पूर्व निष्पन्नं पूर्वनिष्पन्न प्राकसिद्धम् तद्भवनवासिमिनिखिलजनै क्तव्य
मिति तथा विविध नानाप्रकारम् अन्ध सम्भार खायसमूहं समर्पयामासुः । अक्षीणा बुभुक्षा यस्य १० सोऽन्यूनभोजनामिकापः स भिक्षुः तत्समर्पितम्, अशेषं निखिलम् अशनं मोजनम् अम्मोधेः पयःसंभार
इत्यम्भोधिषयःसंभारस्तमिव सागरसलिलसमूह कल्पान्तकालानल इब प्रायवेलापावक हर कवलन् प्रसन् न कदाचिज्जासुचि अताप्सीत् संतुष्टोऽभूत् ।
६५४. एवमिति-एचमिस्थं पूर्वनिष्पन्नैः प्रापक्वैः तदात्वसंपादितस्तत्कालसाधितैश्च अपरिमितः भूयोभिः पयसा संस्कृतं पायसं, ना संस्कृतं दाधिक, सर्पिषा संस्कृत सापिकं पायसं च दाधिक घ १५ सापिकं चेति पायसदाधिकसार्पिकाणि तान्यादौ येषां तथाभूतानि यानि अमृत पिण्डैर्मधुरमोजनैः भमक्ष्य
विशेषैरपि अपूर्णजठरमभृतोदरम् पाशार्णवमिव तृष्णातोयनिधिमिद वर्णिनं भिक्षुम् मालोक्य दृष्ट्रा चिनीयाविष्टो विस्मयोपंतः त्वम् अनासादितोडगृहीत आहारी येन तथाभतो निवसन् सन् भिक्षोस्तापसस्य म्याधेभस्मकरोगस्य परिक्षयकालतया विनाशलमयतया वा कुमारस्य भवतः कारुण्यमवेन दयाप्रमाण का तस्य वस्तुनः कार्यस्य तथा मवितन्यतया वा ताक्परिणतेरवश्यं भावितया वा स्वहस्तावसम्बितं स्वकीयपाणिसंधारितं कलमकपलं मक्तमासम् . अत्यादरात संमानातिशयात अदिवा: हत्तवान् । तदास्वादनेति-सस्य कलमकवलस्यास्वादनमेवेति तदास्वादनमात्रं तेन भगवत्या सातिशयप्रभावपूर्णया परमनिवृत्या दिगम्बर दीक्षया सृष्णापयोधिरिष तृष्णासागर इव तस्मिन्नेव क्षगे तत्काल ए वर्णिनस्तापस
करनेवाले आपके द्वारा आज्ञाको प्राप्त हुए रसोइयोंने पहलेसे तैयार किये हुए एवं उस घरके
सब लोगों के द्वारा खाने योग्य नाना प्रकारको भोजन सामग्री समर्पित कर दी। जिस प्रकार २५ कल्पान्त कालकी अग्नि समुद्र के समस्त जलको ग्रहण करती हुई भी कभी तृप्त नहीं होती है
उसी प्रकार अक्षीण भूखको धारण करनेवाला वह साधु उस समस्त भोजनको खाता हुआ भी कभी तृप्त नहीं हुआ।
५४. इस प्रकार पहलके बने और तत्काल बनाये हुए अपरिमित दूध, दही तथा घीसे निर्मित अमृत के पिण्डके समान पुओंसे भी जिसका पेट नहीं भर सका था और जो ३० आशाके सागरके समान जान पड़ता था ऐसे उस ब्रह्मचारी-साधुको देखकर आप आश्चर्य में
पड गये तथा स्वयं भोजन किये बिना ही बैठे रहे। उस समय साधकी बीमारीके क्षयका समय आ पहुँचा था, अथवा आपकी दयाका माहात्म्य था अथवा यह कार्य हो वैसा होनेवाला था इसलिए आपने अपने हाथमें स्थित धानके चावलोंका एक ग्रास बहुत ही आदरके साथ उसे दिया। उसे खाते ही साधुका पेट उसी क्षण उस प्रकार पूर्ण हो गया जिस प्रकार
१. कैख० ग० अपित्र: । २. क० ख० ग. तत्स्वादनमात्रेण ।
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स्ववृत्तान्तकथनम् ]
द्वितीयो लम्भः
I
एव तस्मिन्पूर्ण वर्णनो जठरमभूत् । आसोच्चास्य सौहित्यम् । अतृपच्चायमतितराम् । नितरां arthष्ट प्रकृष्टतपसां सुलभेन भवन्माहात्म्येन । निरणेषीच्च भवल्लक्षणेन भवन्तमन्यादृशम् । अतर्कयच्च पुनरमान्तं स्वान्तसंकटकुटीरे बहिरपि विहारयत्रिव रोमाञ्चनिभेन हर्षभरम्-'आसीदयमपहसितमारः कुमारो मारकोऽस्मद्भस्मकव्याधेः । काऽत्र कर्तव्या प्रत्युपकृतिः ? न हि प्रतिकृति सव्यपेक्षाः प्रेक्षावतामुपकृतयः । तथापि किमप्युपकृत्य प्रतिकृतिमता मया भवितव्यम्' इति ५ सुचिरं विचिन्त्याप्यन्यां प्रतिकृतिमनालोकयन्नुभयलोक हितहेतुभूतमभूतपूर्वमहिमानमनवद्याभिर्विद्याभिरेवमलमकुरुत भवन्तम्' इति ।
५५. एवं विदित गुरुवृत्तान्ततया मुदितमानसं प्रलयाभिमुखीभवदेनसं चरमदेहधारिणं कुमारं सूरिः श्रीरत्नत्रयविशुद्धिसंपादनाय तत्त्वमबूबुधत्-- 'वत्स, तवाधिगतगृह्मेधिधर्मयाथात्म्यस्य जठरमुदरं पूर्णमभूत । अस्य भिक्षोः सुहितस्य भावः सौहित्यम् उल्लाघत्वं अभूत् । अयं भिक्षुः १० अतितरां सातिशयम् अतृपच्च तृप्तश्च बभूव । प्रकृष्टं तपो येषां तेषां सुलभेन भवन्माहात्म्येन त्वदीयमहिम्ना नितरां सातिशयं व्यस्मैष्ट विस्मितोऽभूत् । भवतो कक्षणं तेन स्वल्लक्षणेन भवन्तम् अन्यादृशमनुपमं निरणैषीच्च निर्णीतवान् । अतर्कयच्चेति — पुनरनन्तरं स्वान्तं वित्तमंत्र संकटकुटीरस्तस्मिन् श्रमान्तं स्थानमलममानं हर्षभरं प्रमोदप्रचयरोमाञ्चनिभेन पुत्रकव्याजेन बहिरपि विहारयन्निव भ्रमयक्षिव अतर्कयच्च व्यचारयच्च 'अपहरितो मारो महतो येन सोऽपहसितमारः अयम् कुमारः अस्मन्नस्मकन्याः १५ मद्भस्मकाण्यरागस्य मारकोsपहर्ता आसीत् अत्र का किन्नामधेया प्रतिकृतिः प्रत्युपकारः कर्तव्या विषातया । यद्यपि प्रेक्षावतां बुद्धिमतां प्रत्युपकृतयः प्रतिकृतिसन्यपेक्षाः प्रतिकारतन्त्रा न हि मवन्ति तथापि fraft किंचिदपि, उपकृत्य समुपकारं विभाग मया प्रतिकृतिमता प्रत्युपकारयुक्तेन भवितव्यम्' इतीरथं सुचिरं त्रिकालपर्यन्तं विचिन्त्यापि विद्यार्यापि अन्यामितरां प्रतिकृतिम् अनालोकयन् उभय लोकहितहेतुभूतं लोकद्वय हितकारणभूतम् अभूतपूर्वी महिमा यस्य तमेवंभूतं भवन्तम्, अनवद्याभिर्निर्दुष्टाभिर्विद्याभिः एवम् २० अलमकुरुत अलंचकार' इति ।
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909
५५. एवमिति एवमनेन प्रकारेण चिदितो विज्ञातो गुरुवृत्तान्तो येन तस्य भावस्तत्ता तया मुदितं मानसं यस्य तं प्रलयाभिमुखीभवत् विनाशोन्मुखमेनः पापं यस्य तं चरमदेहधारिणं तद्भवमोक्षगामिनं कुमारं जीवंधरं सूरिराचार्य:, श्रीरवन्रयस्य सम्यग्दर्शनादिरत्नस्य विशुद्धिस्तस्याः संपादनाय प्रवणाय तत्वं वस्तुस्वरूपम् भबूबुधत् बोधयति स्म । वत्सेति - 'वत्स, तात, अधिगतः २५ की भगवती दैगम्बरी दीक्षासे तृष्णाका सागर पूर्ण हो जाता है। साधुको परम तृप्ति हुई और अपनी पूर्व प्रवृत्तिसे वह अत्यधिक लज्जित होने लगा । प्रकृष्टता करनेवाले मनुष्यों के लिए सुलभ आपके माहात्म्यसे वह अत्यन्त आश्चर्य करने लगा | उसने आपके लक्षण देखकर निर्णय कर लिया कि आप अनुपम पुरुष हैं। मनरूपी छोटी-सी कुटिया में नहीं बननेवाले हर्ष के समूहको रोमांचक बहाने बाहर भी घुमाता हुआ वह विचार करने लगा - ३० कि 'काम की हँसी उड़ानेवाला यह सुकुमार हमारी भस्मक व्याधिको नष्ट करनेवाला हुआ है। अतः इसका क्या प्रत्युपकार करना चाहिए ? यद्यपि बुद्धिमानों के उपकार प्रत्युपकारकी अपेक्षा नहीं रखते तथापि मुझे क्या उपकार करके प्रत्युपकार से युक्त होना चाहिए ?' इस तरह चिरकाल तक विचार करनेके बाद भी जब वह अन्य प्रत्युपकारको नहीं देख सका तब उसने दानों लोकों में हितके कारण एवं अभूतपूर्व महिमा के धारक आपको इस प्रकार ३५. निर्दोष विद्याओंसे अलंकृत कर दिया ।'
६५५. इस प्रकार गुरुका वृत्तान्त जानने से जिनका मन प्रसन्न हो रहा था, जिनके पापविनाशके सम्मुख थे और जो चरम शरीरको धारण करनेवाले थे ऐसे जीवन्धर कुमारको
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गग्रचिन्तामणिः
[ ५५ भार्यनन्दिगुरुणाप्रतिपादनप्रकारविलसदुपासकाध्ययनपरमागमस्य नोपदेष्टव्यमस्ति । तथाप्युपदेशमूलाया एव सकलकर्मप्रवृत्तेः सफलत्वात्संगृह्य किंचिदुपदिश्यते । श्रवणग्रहणधारणानुस्मरणप्रमुखविविधप्रयाससाध्यस्य शास्त्रावगमस्य प्रयोजनं पुंसां हेयोपादेयपरिज्ञानस्वरूपपुरुषार्थसिद्धिस्तन्मूलत्वादपवर्गप्राप्तेः ।
सा चेन्न स्याद्मोहिखण्डनायास इव तण्डुलत्यागिनः, कूपखननप्रयास इव नीरनिरपेक्षिणः, कर्ण५. शुवितरिव शास्त्रशुश्रूषापराङ्मुखस्य, द्रविणार्जनक्लेश इव वितरणगुणानभिज्ञस्य, तपस्याश्रम
इब नैरात्म्यवादिनः, शिरोभारधारणश्रान्तिरिव जिनेश्वरचरणप्रणामबहुमतिबहिष्कृतस्य, प्रवज्याप्रारम्भ इवेन्द्रियदासस्य विफलः सकलोऽव्ययं प्रयासः स्यात् । इह केचन कोमलप्रज्ञाः प्राजजनसम्यक्प्रकारेण विज्ञातो गृहमेधिधर्मस्य गृहस्थधर्मस्य याथारम्पप्रतिपादनाकारण राशाम्न रूपनिरूपणपद्धत्या विलसन् शोभमान उपासकाध्ययनपरमागमः सप्तमानपरमागमी येन तथाभूतस्य तब उपदेष्टव्यं प्रतिपादनीयं नास्ति, यद्यपीति योज्यम् । तथापि उपदेशो मूलं यस्यास्तथाभूताया एवं सकलकर्मप्रवृत्तनिखिलकार्यप्रवृत्तेः सफलत्वात् संगृव किंचित् किमपि उपदिश्यते । श्रवणेति-श्रवणं व ग्रहणं च धारणं अनुस्मरणं चेति श्रवणग्रहणधारणानुस्मरणानि तानि प्रमुखानि प्रधानानि येषु तधाभूता ये विविधप्रयासा नानाप्रयत्नास्तैः साध्यस्य प्रापणीयस्य शास्त्रावगमस्य शास्त्रज्ञानस्य प्रयोजनमुद्देश्यं पुंसां पुरुषाणां
हेयोपादेययोर्गृहणीयागृहणीयतत्त्वयोः परिज्ञानं स्वरूपं यस्य तथाभूतो यः पुरुषार्थस्तस्त्र सिद्धिः अस्तीति १४ शेषः अपवगंधाप्लेर्मोक्षप्रालेः तन्मूलवासकारणत्वात् । सा पूर्वोक्तपुरुषार्थसिद्धिः चेकदिन स्यात्तहि
तण्डुरूत्यागिनः शालेबपरित्यागिनो श्रीहिस्खण्डनायास हव धान्यखण्डनप्रयास इव, नीरनिरपेक्षिणो जलनि:स्पृहस्य कूपखननप्रयास इव प्रहिखनन प्रयत्न इव, शास्त्रशुश्रूषायाः शास्त्रश्रवणेच्छायाः परामुखस्तस्य कर्णः शुक्तिरित्र कर्णशुक्तिस्तद्वत् श्रवणशुक्तिरिब अत्र कर्णपाश इव कर्णशुक्तिरिति पदप्रयोगो बोध्यः, वितरणगुणानभिज्ञस्य दानगुणापरिचितस्य दचिणार्जनक्लेश इव धनोपार्जनायास इच, नैरारम्यवादिन आमामाववादिनः तपस्याश्रम इव तपश्चरणक्लेश इव, जिनेश्वरचरणयोर्जिनेन्द्रपादारविन्दयोः प्रणाम एव बहुमतिः सस्कारासिशयस्तेन बहिष्कृतो दूरीभूतस्तस्य, शिरोभारधारणश्रान्तिरिध मर्धरूपभारधारणश्रम इव, इन्द्रियदासस्य हृषोकानुचरस्य प्रवज्याप्रारम्भ इय दीक्षाप्रारम्म इव सकलोऽपि निखिलोऽपि अयं प्रयासः खेदो बिफलो मोघः स्यात् । इहेति-इह लोके कोमलप्रज्ञा मन्दबुद्धयः केचन जनाः
२०
आर्यनन्दो आचार्यने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयमें विशुद्धता २१ प्राप्त करानेके लिए तत्त्वका उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि 'वत्स ! तू गृहस्थधर्मकी
यथार्थताके प्रतिपादनसे सुशोभित उपासकाध्ययन नामक परमागमको जाननेवाला है अतः यद्यपि तुझे उपदेश देनेके योग्य कुछ भी बात नहीं है तथापि उपदेशमूलक ही समस्त कार्योंकी प्रवृत्ति सफल होती है इसलिए संग्रह कर कुछ उपदेश दिया जाता है। पुरुष, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना और बार-बार स्मरण करना आदि नाना प्रकार के उपायोंसे जो शास्त्रज्ञान प्राप्त करते हैं उसका प्रयोजन हेय और उपादेय तत्त्वके परिज्ञान रूप आत्म-तत्वकी सिद्धि करना है क्योंकि मोझ-प्राप्तिका मूल कारण वही है। यदि आत्म-तत्त्वकी सिद्धि नहीं हुई नो चावलोंका त्याग करनेवालेके धान कूटने के प्रयासके समान, जलसे निरपेक्ष मनुष्य के कआँ खोदने के प्रयासके समान, शास्त्रश्रवण करने की इच्छासे विमुख मनुष्यक कणादकी
उक्ति न्यायशास्त्र के अध्ययनजन्य अमके समान, दानगुणसे अनभिज्ञ मनुष्यके धनोपार्जनके ३५ क्लेशके समान, अनात्मवादीके तपस्याके श्रमके समान, जिनेन्द्रभगवान् के चरणों में प्रणाम करनेकी सद्बुद्धिसे रहित मनुष्यके शिरका भार धारण करनेसे उत्पन्न थकावटके समान,
१. म० कणादोक्तिरिव ।
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तस्योपदेशः ]
द्वितीयो कम्मः
गर्हितं क्षयैकशरणशरीरजीविकामात्रमास्थानवशीकरणचतुरचतुर्विधपाण्डित्यलाभं च शास्त्रावगतेः प्रयोजनमाकलयन्तः केवलं विक्रीणानाः प्रकृष्टमूल्यानि मुष्टयन्धसे मुक्ताफलानि नाफला इव विफल प्रयासाः प्रेक्षावदुपेक्ष्यतां कक्षीकुर्वन्ति । दुर्लभाः खलु हेयोपादेयपरिज्ञानफलाः शास्त्रावगतीनिश्चिन्वाना विपश्चितः । ततः प्रत्यासन्नभव्यो भवान्भवान्धकारविहरणरजनीमुखं रागद्वेषादिरूपं यं विलयविरहितनिरवधिकानन्दमूलकन्दं श्रीरत्नत्रयाभिधानं धनमुपादेयं च यथावदवगम्य गार्हस्थ्यधममनुष्ठेयमनुष्ठातुमर्हति' इति ।
५६. एवं गुरूपदेशपरिगृहीतसमुचित सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रस्य सकलरहस्योपदेशनिक्षेप
१०३
५
प्राशजनहितं विद्वज्जननिन्दितं क्षय एव विनाश एवं एकं शरणं यस्य तथाभूतं यच्छरीरं तस्य जीविकामा भरणोपायमात्रम्, आस्थानस्य समाया वशीकरणे चतुरं निपुणं यच्चतुर्विधपाण्डित्यं चतुर्मुखयं तस्य लाभस्तं च शास्त्रावगतेः शास्त्रज्ञानस्य प्रयोजनम् आकलयन्तो मन्यमानाः केवलं मात्रं मुष्ट्यन्धसे मुष्टिप्रमितान्नाथ प्रकृष्टमूल्यानि महार्षाणि मुक्ताफलानि मौक्तिकानि विक्रीणाना नाफला इव व्याधा इव विफलप्रयासा मोघप्रयत्नाः सन्तः प्रेक्षावतां बुद्धिमताम् उपेक्ष्यतामनादरणीयताम् कक्षोकुर्वन्ति अङ्गीकुर्वन्ति । दुर्लभा इति - हेयोपादेययोस्त्याज्यात्माज्यपदार्थयोः परिज्ञानमेव फलं प्रयोजनं यासां ताः शास्त्रावगतीः शास्त्रज्ञानानि निश्चिन्वानाः प्रतियन्तो विपश्चितो विgiसः खलु निश्वयेन दुर्लभाः सन्तीति शेषः । ततस्तस्मात् कारणात् प्रत्यासन्नमन्यो निकटमन्यो १५. भवान् भव पुत्र संसार एवान्धकारस्तिमिरं तस्य विहरणाय रजनीमुखं प्रदोषं रागद्वेषादिरूपम् इष्टपदानुकूल परिणामो रागः, अनिष्टपदार्थेषु प्रतिकूल परिणामो द्वेषः वदादिरूपं हेयं स्याज्यं विकयविरहितोऽविनाशी निरवधिक समय मानन्दस्तस्य मूलकन्दं मूलनिमित्तं श्रीरत्नश्रयाभिधानं सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानसम्यक्चास्थिनामधेयं धनम् उपादेयं ग्राह्मं च यथावद् यथार्थतया अवगम्य बुद्ध्वा गार्हस्थ्यधर्मा गृहिधर्मानुकूलम् अनुष्ठातुं योग्यमनुष्ठेयम् भाचारम् अनुष्ठातुं कर्तुम् अर्हति योग्यो २० वर्तते' इति ।
५६. एवमिति एवमनेन प्रकारेण गुरूपदेशेन परिगृहीतानि सम्यकप्रकारेण एतानि समुचितानि योग्यानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारिश्राणि येन तथाभूतस्य, सकल रहस्योपदेशानां निखिलगूढतत्रोपदेशानां
१०
और इन्द्रियों के दासके दीक्षा के प्रारम्भके समान यह समस्त प्रयास व्यर्थ है । इस संसार में कोमल बुद्धिको धारण करनेवाले कितने ही लोग, बुद्धिमानोंके द्वारा निन्दित, नश्वर शरीरकी २५ जीविका मात्र और सभाको वश करने में चतुर चार प्रकारके पाण्डित्य की प्राप्ति कर लेना ही शास्त्रज्ञानका प्रयोजन समझते हैं। ऐसे लोग केवल मुट्ठी भर अन्नके लिए बहुमूल्य मुक्ताफलों को बेचनेवाले किरातोंके समान निष्प्रयत्न होते हुए विद्वानोंकी उपेक्षाको स्वीकृत करते हैं - विद्वानों की दृष्टिमें अनादर के पात्र होते हैं। वास्तव में हेय और उपादेयके परिज्ञान रूप फलसे युक्त शास्त्रज्ञानका निश्चय करनेवाले विद्वान् दुर्लभ हैं- जो विद्वान् ३० शास्त्रज्ञानका प्रयोजन हेय और उपादेयका ज्ञान होना गानते हैं वे दुर्लभ हैं। अतः आप संसार रूप अन्धकारके फैलने के लिए रात्रिके प्रारम्भके समान राग-द्वेषादि रूप हेय और अविनाशी - अनन्त आनन्द के मूल कारण रत्नत्रय रूप धनको उपादेय समझकर गृहस्थ धर्म के अनुरूप आचरण करने के योग्य हैं। आप निकट भव्य हैं ।'
५६. इस प्रकार गुरु के उपदेशसे जिन्होंने अनुरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और ३५ सम्यक्चारित्र को अच्छी तरह ग्रहण किया था तथा जो समस्त रहस्यका उपदेश रखनेके क्षेत्रके
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। गचिन्तामणिः
[५६ आर्यनन्दिगुरुणा क्षेत्रस्य तस्य राजकुमारतामावेद्य राज्ञां चरितमभिधित्सन्नादितः प्रभृति काल्स्र्त्स्न्येन तदुदन्तमिदन्तया सस्नेहमुपह्वरे सूरिरुपन्यास्थत् । उदस्थाच्च महीपृष्ठाद्गुरुमुखावगत निजचरितप्रपञ्चः, पञ्चाननपोत इव मदवदरण्यदन्तावलदर्पपरिभूतः प्रभूतकोपपावक कपिलकपोलमण्डलव्याजेन प्रत्यर्थिविनाशसूचितमुत्पाततरणिबिम्बमिव दर्शयन् प्रतिभटविपिन दिधक्षया रोषरूषितस्य चक्षुषः ५ प्रभाजाले प्रतिवित निवाशुशुक्षणिम्, अविरलधर्मोदबिन्दुपुलविते क्रोधलक्ष्मीकटाक्षकुटिल भूकुटिभीषणे भालपट्टे प्रथीयसि प्रतिबिम्बितमाचार्यमाह्वविजयाय मूर्धनि कुर्वन्, समरदेवताराधनाय कुसुमनिचर्या मित्र कोपाट्टहासमरीचिचन्द्रिकाच्छलेन संचिन्वन् दशनच्छदेन मुहुर्मुहु: स्फुरता वैरियशः क्षीरपान कौतुकमिव प्रकटयन् प्रकटितात्मवैभवः कुमारः । ततो
१०४
निक्षेपक्षेत्रं न्यासस्थानं तथाविश्वस्य तस्य जीवंधरस्य राजकुमारतां राजपुत्रताम् आवेध प्रकटय्य राज्ञां १० चरितं कर्तव्यम् अभिधित्सन् श्रभिधातुमिच्छन् सूरिराचार्य: आदितः प्रभृति प्रारम्भत आदाय कात्स्न्येन समग्ररूपेण तदुदन्तं तद्वृत्तान्तम् इदन्तया अनेन प्रकारेण सस्नेह प्रीतियुतं यथा स्यात्तथा उपहरे एकान्ते उपन्यास्थत् प्रास्तावीत् । उदस्थाच्चेति- गुरुमुखादाचार्यवदनात् अवगतो विज्ञानो निजचरितप्रपञ्च आत्मोदन्त विस्तारो येन तथाभूतः कुमारो मदवान् मदवावी योऽरण्यदन्तावकः काननकरी तस्य दर्पण गर्वेण परिभूतस्तिरस्कृतः पञ्चाननपोस इव सिंहशावक हथ, महीपृष्ठाद् भूतलात् उदस्याच्च उत्थितोऽभूच्च । १५ अथ तस्यैव वैशिष्टयमाह — प्रभूतेति - प्रभूतकोपपावकेन भूयिष्ठको धानलेन कपिलं रक्तपीतवर्णं यत्कपोलमण्डलं तस्य याजेन चलेन प्रत्यर्थिविनाशसूचितं शत्रुक्षयनिवेदकम् उत्पादाय तरणिबिम्बमित्युत्पाततरणिबिश्वमुत्पातसूचक सूर्य मण्डलं दर्शयन्निव प्रकटयन्निव प्रतिदिशं दिशि दिशि प्रसर्पता प्रसरणशीलेन शेषरूषितस्य क्रोधारुणस्य चक्षुषो कोचनस्य प्रभाजालेन कान्तिकलापेन प्रतिभटविपिनविक्षया शत्रुवनदहनेच्छया आशुशुक्षणिमग्नि प्रेषयन्निव, अविरलैर्निरन्तरे मौदबिन्दुभिः स्वेदसलिलपृषद्भिः पुलकि २० व्याप्ते क्रोधलक्ष्म्याः कटाक्ष इव कुटिला वक्रा या भ्रुकुरिस्तया भीषणे भयावहे प्रथोयसि विस्तृते भाकपट्टे ललाटतटे प्रतिबिम्बितं प्रतिफहितम् आचार्य गुरुदेवम् आहवविजयाय युद्ध विजयाय मूर्धनि शिरसि कुर्वन्, कोपेन अट्टहासः कोपाट्टहासस्तस्य मरीचयः किरणा एव चन्द्रिका कौमुद्री तस्याश्छलेन समरदेवदाराधनाय युद्धदेवतासेवायें कुसुमनिचयं पुष्पसमूहं संचिन्वन्निव मुहुर्मुहुः भूयोभूयः स्फुरता कम्पमानेन दशनच्छन ओष्ठेन वैरिश एव शत्रुकीर्तिरेव क्षीरं दुग्धं तस्य पानस्य कौतुकं कुतूहलं प्रकटयन्निव प्रकटितं प्रदर्शितम्
.३०
२५ समान थे ऐसे जीवन्धर कुमारकी राजकुमारताको बतलाकर - आप 'राजा सत्यन्धर के पुत्र हैं यह प्रकट कर राजाओंका चरित बतलाने की इच्छा रखते हुए गुरु महाराजने एकान्त में स्नेहपूर्वक आदिसे लेकर उनका सब वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया । तदनन्तर गुरुके मुखसे अपने चरितका प्रपंच जानकर जीवन्धर कुमार, मदोन्मत्त जंगली हाथी के गर्वसे तिरस्कृत सिंह के बच्चा के समान पृथिवीतलसे उठकर खड़े हो गये । उस समय वे अत्यधिक क्रोधाग्निसे लाल-पीले कपोल - मण्डलके बहाने शत्रुओंके नाशको सूचित करनेवाले उत्पातकालिक सूर्यके विचको ही मानो दिखला रहे थे। शत्रुरूपी वनको जलानेकी इच्छा से कुपित नेत्रों की सब दिशाओं में फैलनेवाली प्रभाके द्वारा अग्निको ही मानो भेज रहे थे। उस समय पसीनाकी अविरल बूँदोंसे पुलकित, क्रोधरूपी लक्ष्मीके कटाक्षोंके समान कुटिल भौंहोंसे भयंकर उनके विशाल ललाट तटपर आचार्यका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो युद्धमें विजय प्राप्त करने के लिए आचार्य महाराजको अपने शिरपर ही धारण कर रहे थे । वे को अट्टहासकी किरणावलि रूप चाँदनीके छलसे ऐसा जान पड़ते थे मानो युद्ध के देवताकी आराधना करनेके लिए पुष्प-समूहका संचय ही कर रहे हों। बार-बार
३५
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- तत्वोपदेशः ]
द्वितीयो लम्भः निकटवतिनं कोदण्डदण्डमकाण्डकोप घटितकृतान्तभ्रूभङ्गविडम्बिनमविलम्बन गृह्णन्गृहीतकतिपयकाण्डः काष्ठाङ्गारवधे विधाय संरम्भं ससंभ्रममुदतिष्ठत । तथोत्तिष्ठमानं च तमुत्पाततपनमिव दुःसहनामुल्ब विधायभुजङ्गराजमशेष भुवनभयंकरं राजकुमारम् 'अलमलमकाण्डसंरम्भेण' इति निवारयन्नाचार्यः, प्रज्वलत्प्रकोपदहनजनितदाहभय इव शिष्यहृदयमनु सर्पति निजवचसि, 'वत्स, वत्सरमात्रं क्षमस्व । गुरुदक्षिणेयम्' इति सप्रणयमयाचिष्ट । स च कोपाविष्टमतिरपि ५ गुरुणा गुमप्रणयेन तादृशमाचार्यवचनमतिलङ्घयितुमक्षम: प्रतिषिद्धप्रसरेण रोषहुतभुजा भुजंगम इव नरेन्द्रप्रभावप्रतिबद्धपराक्रमः प्रकाममदह्यत । आत्मवैभवं येन तथाभूतः । तत इति-ततस्तदनन्तरम् निकटवर्तिनं समीपस्थितम्, अकाण्डकोपेन असामयिकरोषेण धरितो योजितो यः कृतान्तनमः कालनकटिमस्तस्य विडम्बिनं तिरस्कारक कोदण्डदण्डं धनुदण्डम् अचिलम्बेन सद्यो गृहन् गृहीतानि हस्ते धृतानि कतिपय काण्डानि कतिपयशरा येन १० तथाभूतः सन् काष्ठाङ्गारवधे संरम्भ संकल्प विधाय करवा ससंभ्रमं सत्वरं यथा स्यात्तथा उदत्तिष्ठत उत्थितोऽभूत् । तथेति-तथा तेन प्रकारेण उत्तिष्ठत इत्युत्तिप्टमानस्तथाभूतं तम् उत्पाततपन मिव उत्पात. सूचकसूर्यमिव दुःसहतेजसम् उल्धणविषमुत्कटगरले भुजङ्गराजमिव नागराजमिव भशेषभुवनभयंकर निखिल लोकभयावह राजकुमारम् , 'अकाण्डसंरम्भेण अकालकोपेन अलमलं पर्याप्तं पर्याप्त-व्यर्थमिति यावत्' इति निवारयन् प्रतिषेधयन आचार्य-आर्य नन्दी प्रज्वलत्कोपेन देदीप्यमानरोषेण दहनं ज्वलनं तेन १५ जनितं समुपादितं दाहमयं यस्य तथाभूत इव निजवचसि स्वकीय बचने शिष्यहृदयं राजकुमारचेतः भनुपसर्पति सति, 'वत्स, वत्सरमा वर्षमात्रं क्षमस्व' इति सप्रणयं सस्नेहम् अयाचिष्ट याचते स्म । स चेति स च जीवंधरकुमारः कोपादिष्टमतिरपि सरोषधिषणोऽपि गुरुणा श्रेष्ठेन गुरुप्रणयेन गुरुस्नेहेन तारशं पूर्वोक्तविधम् भाचायवचनम् भतिलयितुमतिक्रमितुम् अक्षमोऽसमर्थ सन् प्रतिबिधः प्रसरो यस्य तेन विल्व वेगेन रोषहुतभुजा क्रोधाग्निना नरेन्द्रस्य विषयस्य प्रभावेण सामथ्येन प्रतिबद्धः पराक्रमी यस्य २० सथामूतो भुजङ्गम इव प्रकाममस्यन्तम् अदात दग्धोऽभूत् । .
काँपते हुए ओठसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके यशरूपी दूधके पीने का कौतुक ही प्रकट कर रहे थे। उस समय आत्म-वैभव प्रकट हो रहा था। तदनन्तर असामयिक क्रोधसे रचिन यमराजको भौंह के मंगको विडम्बित करनेवाले निकटवर्ती धनुपको शीघ्र ही ग्रहण कर जिन्होंने कुछ बाण ले रखे थे ऐसे जीवन्धरकुमार काष्ठांगारके वधके लिए २५ क्रोध कर संभ्रमपूर्वक उठ खड़े हुए। उस तरह उठते हुए जीवन्धरकुमारको उत्पात सूचक सूर्यके समान दुःखसे सहन करने योग्य तेजसे युक्त अथवा तीवविषसे युक्त शेषनागके समान समस्त संसारको भय उत्पन्न करनेवाले देख 'बस, बस रहने दो यह असामयिक क्रोध व्यर्थ है। इस प्रकार निवारण करते हुए आचार्यने जब देखा कि हमारे वचन देदीप्यमान क्रोधाग्निसे उत्पन्न दाहके भयसे युक्त हुएके समान शिष्य के हृदय तक नहीं पहुंच रहे हैं तब ३० उन्होंने 'हे वत्स ! एक वर्ष तक क्षमा करो, यह गुरु दक्षिणा है' इस प्रकार स्नेहपूर्वक
चना की। यद्यपि जीवन्धर कुमार क्रोधसे आकुलित बुद्धि थे तथापि वे गुरुकं स्नेह वश गुरुके उक्त वचनोंका उल्लंबन करने में समर्थ नहीं हो सके और इसीलिए वे गुरुफे द्वारा जिसका प्रसार रुक गया था ऐसी क्रोधाग्निसे भीनर ही भीतर उस साँपके समान अत्यन्त जलने लगे जिसका कि पराक्रम विश्वैद्यके प्रभावसे रुक गया था।
३५
१. क० ख० ग० रोष । २. फ० ख० स च सकोपाविष्टमतिरपि, म स कोपाविष्टमतिरपि ।
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५
[ ५७-५८ आर्यनन्दिगुरुणा -
$ ५७. अथ शिक्षावचनतीक्ष्णाङ्कुशनिपातनिवृत्तसंरम्भमेनं समदमिव मातङ्गं प्रियवचनेन प्रकृतिमानीय विनतविरोधियोवनवित्तमत्त बनानर्थं प्रदर्शनपटीयसीं वाचमाचार्य: स चतुरमभिधातुमारेभे ।
१०६
गद्यचिन्तामणिः
५८. वत्स, बलनिषूदनपुरोधसमपि स्वभावतीक्ष्णया धिषणया धिक्कुर्वति सर्वपथीनपाण्डित्ये भवति पश्यामि नावकाशमुपदेशानाम् । तदपि कलशभव सहस्रेणापि कबलयितुमशक्य: प्रलयतरणिपरिषदाप्यशोष्यो योवनजन्मा मोहमहोदधिः । अशेषभेषजप्रयोगवैफल्य निष्पादनदक्षो लक्ष्मीकटाक्षविक्षेपविसर्पी दर्पज्वरः । पुरोवर्त्यपि वस्तु न विलोकयितुं प्रभवतः प्रभूतैश्वर्यमदकाचकञ्चुक्तिरोचिषी चक्षुषी । मन्दीकृतमणिमन्त्रौषधिप्रभावः प्रभावनाटकनटनसूत्रधारः स्मयाप
§ ५७. अथेति—- अथानन्तरम् शिक्षावचनमेव तीक्ष्णाङ्कुशो निशितसृणिस्तस्य निपातेन निवृतो १० दूरीभूतः संरम्भः क्रोधो यस्य तं तथाभूतम् एनं जीवंधरं समदं मदस्त्राविणं मातङ्गमिव गजमित्र प्रिय
वचनेन प्रीतिपूर्णवस्था प्रकृतिं स्वस्थताम् आनीय प्रापय्य विनयविरोधिम्यां यौवनवित्ताभ्यां तारुण्यधनाभ्यां मत्ता उद्दण्डस्वभावा ये जनास्तेषामनर्थानां प्रदर्शने प्रकटने पटीय सीमतिशयेन पचों वाचं वाणीभू, स पूर्वोक्त आचार्यो गुरुः चतुरं यथा स्यात्तथा अभिधातुं कथयितुम आरेभे तत्परोऽभूत् ।
५८. वत्सेति - वस्स, स्त्रभावेन निसर्गेण तीक्ष्णा तथा तथाभूतया धिषणया बुबुधा बलनिषद१५ नस्य पुरन्दरस्य पुरोधास्तमपि पुरोहितमपि धिक्कुर्वति तिरस्कुर्वति सर्वपथीनं सर्वतोमुखं पाण्डित्यं यस्य तस्मिन् भवति भवद्विषये उपदेशानां हितवाक्यानाम् अवकाशमवसरं न पश्यामि यद्यपीति शेषः । तदपि तथापि यौवनाज्जन्म यस्य तथाभूतो मोहमहोदधिः मोहमहासागरः कलशभवसहत्रेणापि अगस्त्यषिसहस्रेणापि कवलयितुम् अशक्यः प्रलयतरणिपरिषदापि कल्पान्तसूर्यसमूहेनापि अशोध्यः शोषवितुमनः । लक्ष्म्या राज्यश्रियाः कटाक्षाणां विक्षेपेण विसपतीत्येवंशीको दर्पज्वरो गर्वश्वरः अशेषभेषजानां निखिलौष२० धान प्रयोगस्य बैफहयं नैरर्थक्यं तस्य निष्पादने दक्षः समर्थः अस्तीति शेषः । प्रभूतस्य विपुलस्य
ऐश्वर्यस्य मद एव काचो नेत्ररोगविशेषस्तेन कबुकितं समावृतं रोचिदतिर्ययोस्ते तथाभूते चक्षुषी कोचने पुरोवत्यपि पुरस्ताद् वर्तमानमपि वस्तु धिलोकयितुं न प्रभवतः समर्थे न जायेते । समय एवापस्मार इति स्मयापस्मारः गर्वापस्मारो मन्दीकृतो मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावो येन तथाभूतः, प्रभाव एव नाटकं तस्य
५७. तदनन्तर शिक्षावचन रूप तीक्ष्ण अंकुश के पड़नेसे जिनका क्रोध दूर हो गया २५ था ऐसे मदसहित हाथीके समान कुमारको प्रिय वचनोंसे शान्त कर आचार्य महाराज बड़ी चतुराई के साथ, विनयके विरोधी यौवन और धनसे मत्त मनुष्योंके ऊपर आनेवाले अनथके दिखाने में अत्यन्त निपुण वचन कहने लगे
५८. उन्होंने कहा कि वत्स ! आप स्वभावसे तीक्ष्ण बुद्धिके द्वारा इन्द्रके पुरोहितबृहस्पतिको भी तिरस्कृत कर रहे हैं तथा आप सर्वपथीन - सर्व पदार्थोंको विषय करनेवाले ३० पाण्डित्य से सहित हैं अतः आपमें उपदेशोंका अवकाश नहीं देख रहा हूँ। तथापि यौवन से उत्पन्न मोहरूपी महासागर, हजारों अगस्त्य ऋषियोंके द्वारा भी नहीं पिया जा सकता और प्रलय कालीन सूर्योके समूहसे भी नहीं सुखाया जा सकता। लक्ष्मीके कटाक्षों के प्रसार से फैलनेवाला गर्व रूपी अवर, समस्त औषधियोंके प्रयोगकी निष्फलता करने में समर्थ है । अत्यधिक ऐश्वर्य से उत्पन्न गर्न रूपी काचसे व्याधिविशेषसे जिनकी कान्ति रुक गयी हैं ऐसे नेत्र सामने ३५ रखी हुई भी वस्तुको देखनेके लिए समर्थ नहीं होते हैं। प्रभाव रूपी नाटकके अभिनय के लिए
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-रखोपदेशः द्वितीयो सम्भः
१०. स्मारः । पातालविवरपतितविश्वंभरासमूद्धरणधोरो मुरारिरपि बराहरूपी नाल मुद्धर्तुमुदविषमविपयाभिलाषबहलजम्बालजालमग्नं मनः। सकलसागरसलिलपूरेणापि न पार्यते क्षालयितुमुत्तालरागपरागपटलपरिष्वङ्गसङ्गि मालिन्यम् । 'अनास्थाविषमविषमोक्षमोषणा राजलक्ष्मीभुजंगी। इति किंचिदिह शिक्ष्यसे ।
$ ५६. अविनयविहङ्गलोल। वनं यौवनमनङ्गभुजंगनिवासरसातलं सौन्दयं स्वरविहार-५ शंलूषनृत्तास्थानमैश्वयं पूज्यपूजाविल वनलघिमजननी महासत्त्वता च प्रत्येकमपि प्रभवति जनानामनर्थाय । चतुर्णा पुनरेतेषामेकत्र संनिपातः सम सर्वानर्थानामित्यर्थेऽस्मिन्कः संशयः। स्फटिमटनस्यामिनयस्य सूत्रधारः प्रवर्तकः । अत्रेदमपस्मारलक्षणम्-'मनाक्षेपस्त्वपस्मारो ग्रहाद्यावेशनादिजः। भूपात कम्पप्रस्वेदफेनलालादिकारकः ।।' सूत्रधारलक्षणमिदम्-'नाटयोपकरणादीनि सूत्रमित्यभिधीयते। सूत्रं धारयतीत्यर्थ सूत्रधारो निगद्यते ।।' उदक फलकाले विषमो १० यो विषयाभिलाषः स एव बहल जम्बालजालं प्रचुरजलनीलीसमूहस्तस्मिन् मग्नं मनः उद्धर्तुं निष्कासयितुं पातालविवरे रसातलच्छिद्रे पतिता या विश्वम्मरा पृथिवी तस्याः समुद्धरणे निष्कासने धीरो दक्षो वराहरूपी वराहरूपयुक्तो मुरारिपि नारायणोऽपि नालंन समर्थः । उत्तालराग उस्कटराग एवं परागपटलो धूलिसमूहस्तस्य परिष्वङ्गसङ्गः प्रगाउसंसर्गः स विद्यते यस्य तत् एवंभूतं मालिन्यं सकल सागराणां समग्रसमुद्राणां सलिलपूरेणापि जलप्रवाहेनापि क्षालयितुं दूरीकतुं न पार्यते । १५ राज्यलक्ष्मीरेव भुजङ्गी राज्यश्रीनागी अनास्था अनास्तिक्यधुद्धिरेव विषमविषं तस्य मोक्षण मोचनेन भीषणा मयावहा । इति हेतोः इह किंचित् शिक्ष्यते ।
६५५. विनयति-आधन विहानाभौद्धरमपक्षिणां लीलावनं क्रीडावनं यौवनं तारुण्यं, भना एव मदन एव भुजङ्गो नागस्तस्य निवासाय रसातलं पातालं अधोभुवनपातालं वलिसन रसातलम्' इत्यमरः सौन्दर्य रामणीयकं, स्वैरविहारः स्वच्छन्दविहार एवं शैलूषो नटस्तस्य नृत्तस्य नाव्यस्य आस्थानं २० रणभूमिः ऐश्चर्य वैभवम् , पूज्यानामचनीयानां पूजाया विलकनमेव लघिमा क्षुद्रता तस्य जननी समुत्पादिका महासस्वता च लोकोत्तरपराक्रमवत्ता च प्रत्येकमपि पृथक पृथगपि जनानां लोकानामनायानिष्टकरणाय प्रभवति । चतुणां पुनरेतेषां यौवनसौन्दयश्चर्यमहासावतानाम् एका एकस्मिन जने संनिपातः संमेलनं सर्वे च तेऽनर्थाश्च सर्वानस्तेिषां निखिलानिष्टानां सन्न स्थानम् इत्यस्मिन्नथें का संशयः। न
सूत्रधारका काम देनेवाला जो गर्व रूपो अपस्मार मिरगीकी बीमारी,मणि मन्त्र और औषधिके २५ प्रभावको फीका कर देनेवाली हैं। पातालके विवरमें पड़ी पृथिवीके उद्धार करने में समर्थ वराह रूपके धारक नारायण भी, फल कालमें विषम विषयाभिलाषा रूपी अत्यधिक शेवालके जालमें फंसे हुए मनको उद्धार करने के लिए समर्थ नहीं हैं । तोत्र रागरूपी धूलोपटलके समागमसे उत्पन्न होनेवाली मलिनता समस्त समुद्रोंके जलके प्रवाहसे भी नहीं धोयी जा सकती और यह राजलक्ष्मी रूपी नागिन अवस्थाओंमें विपय विषके छोड़नेमें भयंकर है इसलिए यहाँ कुछ ३० शिक्षा दी जा रही है।
६५६. अविनय रूपी पक्षियों के क्रीडावन स्वरूप यौवन, कामरूपी सपके निवासके लिए रसातल स्वरूप सौन्दर्य, स्वच्छन्दाचरण रूप नटके नृत्यकी रंगभूमि स्वरूप ऐश्वर्य, और पूज्य मनुष्योंकी पूजाका उल्लंघन करनेवाली क्षुद्रताको जन्म देनेवाली बलवत्ता ये एक एक भी मनुष्योंके अनर्थ के लिए पर्याप्त हैं फिर इन चारोंका एक स्थानपर समागम होना समस्त 31
१. अवस्था म०।
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4.८
गचिन्तामणिः
[ ५६ आयनन्दिगुरुणाकोपलविमलमपि मनो मानवानां यौबनलक्ष्मीपादपल्लवन्यासेनेव समुदहति रागम् । शास्त्रशाणोपलकषणमुषितमासृण्यापि मतिरबतरदभिनवयौवनवनिताचरणसमुपस्थापितेनेव' रजसा धूसरीभवति । हितमहितं च नावगच्छत्यतुच्छधियामपि यौवने निर्व्याजमदमधुपानमत्तेर चित्तवृत्तिः ।
कतिचिदेव कथमपि कर्णधारीकृत्य विवेकमुपभोगरणरणिकातरङ्गमनङ्गावर्तदुस्तरं तरन्ति तारुण्य५ जलनिधिम् । यौवनशरदागममत्तानां विघटितविवेकनिगलानां विषयवनविहारिणामिन्द्रियकरिणामङ्कुशीभवन्ति गुरूपदेशाः । भवद्विधा एव भव्यास्तादृशगुरूपदेशबीजप्ररोहभूमयः । नवसुधालेपधवलिमभाजि सौधतले किरणकन्दला इव चन्द्रमसः स्वभावसुलभविवेकविद्राविततमसि मनसि
कोऽपरीत्यर्थः । स्फटिकोपलेति-स्फटिकोपलबिमलमपि स्फटिकमणिव निर्मलमपि मानवानां लोकानां
मनो यौवनलक्षम्यास्तारुण्यश्रियाः पादपल्लवानां चरणकिसलयानां न्यासनेत्र निक्षेपणेव रागं लौहित्यं १० समुहति दधाति । शास्त्र एव शाणोपले निकषपाषाणे करुणेन संघर्षणेन मुषिनभपहृतं मासण्यं स्नग्ध्यं
यस्यास्तथाभूमापि मतिबुद्धिः अवतरत प्रकटीभवत् अमिनवर्यावनं नूतनतारुण्यमेव वनिता लहना तस्याः चरणाभ्यां पादाभ्यां समुपस्थापित प्रस्तावितं तेन तथाभूतेनेव रजसा रेणुना धूसरीभवति मलिनीमवति । अतुच्छा धायेंषां तेषामपि विशाल बुद्धीनामपि चिरुवृत्तिमनोवृत्तिः यौवने निजिमद एव स्वाभाविक्रदप
एव मधु मयं तस्य पानेन मत्तेव हितमहितं च श्रेयोऽश्रेयश्च नाचगच्छति नो जानाति । कतिचिदेव १५ केचिदेव विरला एवं कथमपि कैनापि प्रकारेण विवेक सदसज्ज्ञानं कर्णधारीकृत्य नाविकीकृत्य 'कर्णधारस्तु
नाविकः' इत्यमरः उपभोगरणरणिकैव भोगसमुत्सुकतैव तरङ्गाः कल्लोला यस्मिन् तम्, अनङ्ग एव काम एवावर्तो भ्रमरस्तेन दुस्तरं दुःखेन तरितुं शक्यं तारुण्यजलनिधि यौवनवारिधि तरन्ति । यौवनमेष तारुण्यमेव शरद तस्यागमेन मत्तानां संघलानां विघटितस्त्रोटितो विवेकनिगलो विवेकनिगदो यैस्तेषां, धनविहारिणां काननसंचारिणाम् . इन्द्रियकरिणा हृषीकहस्तिनां गुरूपदेशा गुरुशिक्षाच वनानि अङ्कशीभवम्ति सृीभवन्ति । भवद्विधा एव त्वरसरशा एवं भव्याः साहशगुरूपदेशबीजानां ताशगुरुशिक्षावचनबीजानां प्ररोहभृमयोऽङ्करभूमयः सन्तीति शेषः । नवसुधालेपेन नृतनचूर्णकविहेपेन धवलिमान शौक्ल्यं भजतीत्येवं शीले सौधतले प्रासादतले चन्द्रमसः किरणकन्दला इच रश्मिसमूहा इव स्वमायसुलभेन निसर्गप्रापणीयेन
अनर्थोंका घर है इसमें क्या संशय है ? मनुष्योंका मन स्फटिक पाषाणके समान निर्मल होने.
पर भी यौवन रूप लक्ष्मीके चरण रूपी पल्लवोंके पड़नेसे ही मानो राग (पक्षमें लालिमा) को २५ धारण करने लगता है । शास्त्र रूपी कसौटीके पत्थरपर घिसनेसे जिसकी चिकनाई दूर हो
गयी हैं ऐसी बुद्धि भी उतरती हुई नवयौवन रूपी स्त्रीके चरणोंसे उठो धूलिसे ही मानो मटमैली हो जाती है। बड़े-बड़े बुद्धिमान मनुष्योंको भी मनोवृत्ति यौवनके समय वास्तविक नशासे युक्त मदिराके पीनेसे उन्मत्त होकर ही मानो हित और अहितको नहीं समझती है । कुछ थोड़े ही पुरुष किसी तरह विकका कर्णधार बनाकर उपभोग सम्बन्धी उत्कण्ठा रूप ० तरङ्गोंसे युक्त एवं कामरूपी भवरांसे दुस्तर यौवन रूपी सागरको तेर पाते हैं। यौवन रूपी
शरद्के आनेसे मत्त, विवेक रूपी बेड़ियांको तोड़ देनेवाले, और विषय रूपी वनमें बिहारकरनेवाले इन्द्रिय रूपी हाथियोंको वश में करने के लिए गुरुओंके उपदेश अंकुशका काम देते हैं। आप जैसे भव्य ही गुरुओंके तथाविध उपदेश रूपी चीजों की उत्पत्तिकी भूमि हैं । नयी. कलईके
लेपसे सफ़ेद कान्ति को धारण करनेवालं महलकी छतपर जिस प्रकार चन्द्रमाकी किरणें ३५ सुशोभित होती है उसी प्रकार स्वभावसुलभ विवेकसे जिसका मोह दूर हो गया है ऐसे मनमें
१. समुत्थापितेनेव म ।
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- तस्वोपदेशः ] द्वितीयो लम्मा
३०९ विलसन्ति गुरूणां गिरः । प्रबलतमतमःकालायसकङ्कटिनि जडधियां हृदि प्रवेश्यमानाः शकलो. भवन्ति हितानुशासनवचनपर्यायाः पत्रिणः । ..
६०. उपदेशवचनं नाम मानाममन्दर मथनपरिश्रमसाध्यममृतपानम्, हृदयगुहागर्भनिर्भरमूर्च्छदनच्छतमश्छटाविघटनचण्ड मचण्डभानवीयमंशु नालम्, अविवेकविपिनभस्मोकरणपाण्डित्यपात्रमचित्रभानवीयं चेप्रितम्, परिपाकपयोधिविजृम्भणेककारणमशिशिरकिरणीयमभीशुजातम्, अरत्नशिलाभरणभारभारणायासमाकल्पा-नरम । विश्वभराभर्तृणां तु विशेषत इदं दुगसदम् । तेषां हिताहितमुपदिशन्तः सन्तो हि सुदुर्लभाः । खल जनकण्टकखिलीकृताः खलु मही
विवेकन बिदा वितं दूरीकृतं तमोध्वान्तं यस्मिन् हस्मिन् मनसि गुरूणां हितोपदेष्टणाम् गिरो भारत्यो विलसन्ति शोमन्तं । प्रबलप्तमः सुरढतमः तम एवं मोहलिमिरमेव कालायसकङ्कटः कृष्णलोहवर्म यस्मिन् तस्मिन् जधियां मुर्याणां हृदि प्रवेश्यमाना हितानुशासनस्य हितोपदंष्टुर्वचनपर्याया वचनस्वरूपाः १० पत्रिणी वाणाः पाकळीभवन्ति खडीभवन्ति ।
६६०. उपदेशवचनं नाम-उपदेशवचनं शिक्षावचनं नामेति संभावनायाम् 'नाम प्रकाश्यसंभाध्यक्रोधोपगमकुस्सने' इत्यमरः । मानां मन्दरेण मन्दराचलेन मथनं विलोदनं तस्य परिश्रमस्तेन साध्य तथा न भवतीत्यमन्दरमथनपरिश्रमसाध्यम् अमृतपानं पीयूषपानम् । हृदयमेव चित्तमेष गुहागहरं तस्या गमें मध्ये निर्मरं यथा स्यात्तथा मृच्छद् वर्धमानं यद् अनच्छतमो मलिनमोह तिमिरं तस्याश्छटाय। विघटने विध्वंसने चण्डं तीक्षणम् अचण्डभानवीयं चण्डभानोः सूर्यस्येदं न भवतीत्यचण्डभानवीयम् अंशुजालं किरणकदम्बकम् । अविवेको ज्ञानमेव विपिनं वनं तस्य मस्मीकरणे दहने यस्पाण्डित्यं तस्य पानं भाजनम् चित्रमानोरम्नरिवं न भवत्यचित्रभानवीयं चेष्टितं कार्यम् । परिपाक: शुभोदय एव पयोधिः सागरस्तस्य विजग्मणस्य वधनस्यैककारणं प्रमखनिमित्तम शिशिरकिरणस्य चन्द्रमस इदं न भवतीत्यशिशिरकिरणीयम् अभीशुजातं मरीचिमण्डलम् । रत्नशिला मणिशिलव आभरणं तस्य भारस्तस्य धारणस्यायासः खेदः सन २० भवति यस्मिन सथाभूतम् भाकल्पान्तरम् आभूषणान्तरम् । विश्वं मराभतणां तु पृथिवीपतीनां तु विशेषतः प्रमुखरूपण इदम्पदेशवचनं दरासदं दलभम् । तत्कारणं दर्शयितमाह-तेषामिति-हि यतः तेषां
गुरुओंके वचन सुशोभित होते हैं । अत्यन्त तीव्र मोह रूपी काले लोहसे निर्मित कवचसे युक्त मूर्ख मनुष्यों के हृदयमें प्रविष्ट कराये जानेवाले हितोपदेशी जनोंके वचन रूपी पक्षी खण्ड-खण्ड : .. हो जाते हैं।
६६०. मनुष्यों के लिए उपदेश रूप वचन, मन्दराचलके मथनसे उत्पन्न परिश्रमके बिना ही प्राप्त होनेवाला अमृतपान है। हृदय रूपी गुहाके भीतर अत्यधिक रूपसे बढ़ते हुए मलिन मोह रूपी अन्धकारके समहको दर करने में समर्थ सर्यसे भिन्न पदार्थकी किरणोंका सम अविवेक रूपी वनको भस्म करनेवाले पाण्डित्यका पात्र अग्निसे भिन्न पदार्थ का व्यापार हैं, .. परिपाक रूपी सागरको वृद्धिका प्रमुख कारण चन्द्रमासे भिन्न पदार्थकी किरणोंका समूह है,
और रत्नमयी शिलाओंसे निर्मित आभूषणोंका भार धारण करनेके खेदसे रहित दूसरा आभूषण हैं । परन्तु ग्रह उपदेश रूप बचन राजाओं के लिए विशेषकर दुर्लभ हैं। क्योंकि उनके लिए हित-अहितका उपदेश देनेवाले सज्जन मनुष्य अत्यन्त दुर्लभ रहते हैं । यथार्थमें
१. क० म० अमन्दमयन, ख० अमन्थन । २. चण्डिम.क० । ३. खिलीकृताः शिथिलीकृताः, इति टिप्पणी।
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रायचिन्तामणिः
[६० आर्यनन्दिगुरुणा - भृतामास्थानमण्डपोद्देशाः । सुजनास्तत्र कथमत्रस्ताः पदं निधातुं पारयन्ति ? पारयन्तोऽपि स्वकार्यपारवश्यनश्यद्विवेकाः काश्यपोभुजां पाश्वं कथमप्याश्रयितुमाश्रयाशातिशायिशक्तिप्रज्वलदस्थानरोषभोषणां तेषां वाचं वाचस्पतिदेश्या अपि शुका इव स्वयमनुवदन्ति । वदन्ति चेदपि
चेतस्विनः परितः परहितपरतया विरसीकृत्य निरसनकतानं वचनं वचनीयधुराधरणक्षमा: ५ क्षमापतयः क्षितितलप्राप्तिक्षणसमारोपितप्रतापज्वररयबधिरितकर्णा इव तनावकर्णयन्ति ।
कथंचिदाकर्णयन्तोऽपि मधुमदमत्तमत्तकाशिनीवदनशीधुसंपर्कशिथिलितचित्तवृत्तय इव नूनमदत्तावधानाः खेदयन्तः स्वहितोपदेशकारिणः सूरोन् तदुक्तं नानुतिष्ठन्ति । अनुतिष्ठन्तोऽपि न फलपर्यन्तं पृथिवीपतीनां हिताहितं श्रेयोऽश्रेयः उपदिशन्तो निगदन्तः सन्तः सजनाः सुदुर्लभा अतिशयेन दुष्प्रायाः
सन्ति । खलु निश्चयन महीभृतां राज्ञाम् आस्थानमण्डपोदेशाः सभामण्डपस्थानानि खलजनकण्टकै १० टुंजनशल्यैः खिलौकृताः शिथिलीकृता उपद्रुता इति तथाभूताः सन्ति । सत्र खलशल्यखिलीकृते राज
सभामण्डऐ सुजनाः साध्वः अवस्ता अभीताः सन्त; पदं चरणं निधातुं स्थापयितुं कथं पारयन्ति समर्था जायन्ते । न कथमपीत्यर्थः । पारयन्तोऽपि समर्था भवन्तोऽपि स्वकार्यस्य पारवश्यन परतन्त्रत्वेन नश्यन् विवेको येषां तथाभूता, सन्तः काश्यपीभुजां पृथिवीपतीनां पाश्र्व समीपं कथमपि केनापि प्रकारेग आक्ष
यितुं प्राप्तुम् आश्रयाशोऽग्निस्तदतिशायिनी या शक्तिस्तया प्रज्वलन देदीप्यमानो योऽस्थानरोषस्तेन भीषण १५ भयावहां तेषां पृथिवीपतीनां वाचं गिरं बृहस्पतिदेश्या अपि सुरगुरुकल्पा अपि शुका व कारविहगा इव
स्वयम अप्रेरिता पुष अनुवन्ति समर्थयन्ति । चेतस्विनो मनस्विनो जनाः चदपि यद्यपि परितः समन्तात् परहितपरतया परकल्याणोन्मुखतया विरसीकृस्य स्नेहामावं कृत्वा निरसनैकत्तानं तिरस्कारप्रधानं वचनं वदन्ति कथयन्ति तथापि चचनीयधुराया निन्दाभारस्य धरणे क्षमाः समर्धाः क्षमापसयो राजानः क्षितितलस्य
पृथिवीतलस्य प्राप्तिक्षणे प्राप्स्यवसरे समारोपितः समुचटितो यः प्रतापज्वरस्तस्य रयण वेगेन बधिरिती २० श्रवणशक्तिरहितौ कृतौ कणों येषां तथाभूता इव तद् वचनं नावकर्णयन्ति न शृण्वन्ति । कथंचित्केनापि - प्रकारेण आकर्णयन्तोऽपि शृण्वन्तोऽपि मधुमदन मदिरामोहेन मत्ता या मुत्तकाशिन्यः सुन्दर्यस्तासां वदनानि मुखानि तेषां शीधुसंपर्केण मदिरासंपर्केण शिथिलता मन्दीभूता चित्तवृत्तियेषां तथाभूता इव नूनं निश्चयेन अदत्तावधाना अहकामयाः स्वहितोपदेशकारिणः स्वकल्याणपथप्रदर्शकान् सूरीनाचार्यान् 'पण्डितः सरिराचार्य' इति धनंजय', खेदयन्तो दुःखीकुर्वन्त: तदुकं सूयुकं नानुतिष्ठन्ति न कुर्वन्ति । अनुतिष्ठन्तोऽपि
२५ राजाओंके सभामण्डपोंके प्रदेश दुर्जन रूपी काँटोसे व्याप्त रहते हैं अतः सज्जन पुरुष निःशंक
होकर उनमें पैर रखने के लिए कैसे समर्थ हो सकते हैं ? यदि समर्थ भी होते हैं तो अपने कार्यकी परवशतासे उनका विवेक नष्ट होने लगता है और वे बृहस्पतिके तुल्य होनेपर भी किसी तरह राजाओंके समीप आश्रय पानेके लिए अग्निको भी अतिक्रान्त करनेवाली शक्तिसे
प्रज्वलित अनवसर क्रोधसे भयंकर उन्हींके घचनोंका तोताओं के समान स्वयं अनुवाद करने ३० लगते हैं-उन्हीं के स्वर में अपना स्वर मिला देते हैं। यदि कोई तेजस्वी मनुष्य सब ओरसे
परहित में तत्पर होने के कारण निराकरण प्रधान वचनोंकी उपेक्षा कर उपदेशके वचन कहते भी हैं तो निन्दाका भार धारण करने में समर्थ राजा, पृथिवीतलकी प्राप्तिके समय चढ़े हुए प्रताप रूप ज्वरके वेगसे कान बहरे हो जाने के कारण ही मानो उसे सुनते नहीं हैं। किसी तरह सुनते
भी हैं तो मदिराके नशासे मत्त सुन्दरी स्त्रियोंके मुखकी मदिराके संपर्क से चित्तवृत्तिके ३५ शिथिल हो जाने के कारण ही मानो उस ओर ध्यान नहीं देते और अपने लिए हितका उपदेश ___ करनेवाले विद्वानोंको खेद-खिन्न करते हुए उनके कहे अनुसार आचरण नहीं करते। यदि करते
१. तेजस्विनः म०।
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-श्वोपदेशः]
द्वितीयो कम्मः
१११
कुर्वन्ति कार्यम् । किमन्यदुदीर्यते ? स्वाभाविकाहंकारस्फारश्वयथुजातवेपथुविह्वला हि महीभृतां प्रकृतिः । प्रकृत्या तथाभूतानियं दुराचारप्रिया हरिप्रिया तु सुतरां खलयति । इयं हि पारिजातेन सह जातापि लोभिनां धौरेयो, शिशिरकरसोदरापि परसंतापविधिपरा, कौस्तुभमणिसाधारणप्रभवापि पुरुषोत्तमद्वेषिणी, पापर्धिरियं पापों, वेश्येयं पारवश्यकृती, द्यूतानुसंधिरियमतिसंधाने, मृगतृष्णिकेयं तृष्णायाम् । तथा चेयं शर्वरीव तमोऽधिष्ठिता परप्रकाशासहिष्णुस्वभावा च, ५ कुलटेव प्राप्तप्रद्वेषिणो परान्वेषिणी च, जलबुद्दाकृतिरिब जडप्रभावा क्षणमात्रदर्शितोन्नतिश्च,
कुर्वन्तोऽपि फलपर्यन्तं फल सिद्धिं यावन् कार्य न कुर्वन्ति न विदधति । किमन्यत् किमितरत् उदीर्यते कथ्यते । हि निश्चयेन महीभृतां राज्ञां प्रकृतिः स्वभावः स्वाभाविकाहंकारस्य नैसर्गिकदर्पस्य यः स्फारश्वयथुरतिशैस्यं तेन जाती यो वेपधुः कम्पनं तेन विहला न्यग्रा मवतीति शेषः। प्रकृत्या निसर्माण तथाभूतान् तादृशान् नृपान दुराचारः प्रियो यस्यास्तथाभूता इयम् प्रथा हरिप्रिया 'कक्ष्मी: पद्मालया पमा कमला १० श्रीहरिप्रिया' इत्यमरः तु सुतरां सातिशयं खळयति खलं करोमि दाखीकोतीत्यर्थः। अथ लक्ष्म्या भव. गुणान् वर्णयितुमाह-इयमिति । इयं हि लक्ष्मी: पारिजातेन कल्पानोकहेन सह जातापि सहोल्पमा अपि लोभिनां धौरेयी धुरां वहतीति धौरेयी प्रवीणा 'धुरो यदकौ' इति हक । शिशिरकरसोदरापि चन्द्रसहोस्पयापि परसंतापविधिपरा अन्यजनसंतापकारिणी सातिशयसंतापोल्पादनपरा या। कौस्तुममणिसाधारणस्तत्तुल्यः प्रभवो यस्यास्तथाभूतापि पुरुषोत्तमद्वेषिणी नारायणद्वेषिणी पक्षे श्रेष्टजन द्वेषिणी, इयं लक्ष्मीः १५ पापी दुरितैश्वर्य पापढिराखेटम् , हयं पारवश्यक्ता पारतम्यविधाने वेश्या, इरम् अतिसंधाने वञ्चनातिशमे घुनानुपन्धिर्दुरदरानुसंधिः, इयम् तृष्णायामकब्धकामेच्छायाम् मृगतृपिणका मृगमरीचिका । तथा चेयमिति-तथा च किंच, इयं लक्ष्मी: शर्वरोव रजनीव तमोऽभिष्टिता तिमिरेण युक्ता पक्षे तमोगुणेन सहिता, परप्रकाशस्योत्कृष्लोकस्य पक्षेऽस्य जनमवस्थासहिष्णुः स्वभावो पस्यास्तथाभूताच, कुलटेव म्यमिचारिणोष प्राप्त प्रष्टीत्येवंशीला पक्षे प्राप्त पुरुषेऽसंतुष्टा पशम्शेषिणी चान्यजनमागिणी च, जलघुदबुदाकृतिरिव २० जलस्फोटाकृतिरिव डलयोरभेदाज जसे-जले प्रमाको यस्याः पक्षे जडेषु मूर्खषु प्रमावो यस्यास्तथाभूता,
भी हैं तो फलको प्राप्ति पर्यन्त कार्य नहीं करते। और क्या कहा जाय ? राजाओंकी प्रकृति स्वाभाविक अहंकाररूपी अत्यधिक सूजनसे उत्पन्न कँपकँपीसे विह्वल हुआ करती है। स्वभावसे ही खल-दुर्जन-जैसा आचरण करनेवाले राजाओंको दुराचारसे प्रेम रखनेवाली लक्ष्मी और भी अधिक खल-दुर्जन बना देती है। यह लक्ष्मी कल्पवृक्ष के साथ उत्पन्न होकर २५ भी लोभियोंमें प्रमुख है, चन्द्रमाकी बहन होकर भी दूसरोंके लिए सन्ताप उत्पन्न करनेवाले कायों में तत्पर है, कौस्तुभमणिके साथ उत्पन्न होकर भी पुरुषोत्तम-नारायण (पक्षमें श्रेष्ठ पुरुष ) से द्वेष करने वाली है। यह पापकी ऋद्धि बढ़ाने में शिकार है, परवशता उत्पन्न करने में वेश्या है, ठगने में जुआके समान है, और तृष्णा बढ़ाने में मृग-मरीचिका है। यह लक्ष्मी रात्रिके समान है क्योंकि जिस प्रकार रात्रि तम-अन्धकारसे सहित और दूसरेके प्रकाशको नहीं ३० सहनेवाले स्वभावसे युक्त है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी तम-तमोगुणसे सहित और दूसरेके वैभवको नहीं सहनेवाले स्वभावसे युक्त है । अथवा यह लक्ष्मी कुलटा-व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है क्योंकि जिस प्रकार व्यभिचारिणी स्त्री प्राप्त पुरुषसे द्वेष रखती हुई दूसरे पुरुषकी खोज में तत्पर रहती हैं उसी प्रकार लक्ष्मी भी प्राप्त पुरुषके साथ द्वेष रखती हुई दूसरे पुरुषकी खोज में रहती है । अथवा पानीके बबूलाके समान है क्योंकि जिस प्रकार पानीका बबूला ३५
- - - - - १. क. ग. जडप्रभवा, ख० जडमात्रप्रभवा ।
-
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चिन्तामणिः
faureमूर्तिरिव भोगकाङ्क्षाप्रवर्तनी कटुकपाका च ।
S $ ६१. एवं परगतिविरोधिन्या फलदव्ययबहिर्भूतया भूतचतुष्टयमयकायमात्र पुष्प्रिपश्या परार्घ्यचरित्रचर्वण्या चार्वाकमत सब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगृहीताः क्षितिपतिसुताः क्षण एवं तस्मियाकिनिदिए निर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव प्राक्तनमपि गुणप्रतानं वितानीकृत्य जडात्मतामेवात्म५ सात्कुर्वन्ति, कापिलकल्पितपुरुषा इव जडबुद्धेरेवात्मानं घटयन्ति, सदाहंकारसंगतप्रकृतयः प्रकृति
S
११२
२०
[ ६१ आर्यनन्दिगुरुणा -
६१. एवं परगतिविरोधिन्येति-- पुत्रमित्थम् परगतिविरोधिन्या अन्य जनसंचारविरोधिन्या १० पक्षे स्वर्गादिपरलोकविरोधिन्या, फलदव्ययात्सार्थकव्ययाद् बहिर्भूतया निष्फलव्ययलीनयेति यावत् भूतचतुष्टयमय काय मात्रस्य पृथिव्यादि भूतचतुष्कनिर्मितशरीरमात्रस्य पुष्टी पोषणे परया सक्कया, परार्ध्यचरित्रचर्वण्या श्रेष्ठाचारविघातिन्या चाकमत सब्रह्मचारिण्या लोकायतिक मत सरक्षया राजश्रिया परिगृहीताः स्वीकृताः क्षितिपतिसुता राजपुत्रास्तस्मिमेव क्षणे राज्य श्रीप्रापणावसर एव नैयायिकैर्निर्दिष्टं प्रदर्शित निर्वाणपदं मंक्षपत्रं तस्मिन् प्रतिष्ठिता इव प्राप्तप्रतिष्ठा इव प्रातनमपि निर्वाणप्राकालिकमपि गुणप्रतानं बुद्धिसुखप्रभृतिगुणसमूहं शून्यीकृत्य पक्षे राज्यारोहणप्राकाखिकमपि सौजन्यादिगुणसमूहं वितानीकृत्य शून्यीकृत्य जडारमतामेव मूर्खतामेव पक्षे निर्गुणतामेव भरमसारकुर्वन्ति 'बुद्धधादिगुणोच्छेदो हि मोक्षः' इति नैयायिका मन्यन्ते का पिल्लकल्पितपुरुश इव सांख्याङ्गीकृतपुरुषा इव जटयुद्धेरेव निश्चेतनबुद्धेरेव पक्षे
१५
क्षणमात्र मल्पकालपर्यन्तं दर्शिता उन्नतिरुचैरुवं पक्षे वैभवातिशयो यया तथाभूता च, किंपाकमूर्तिरिव विषफलाकृतिरिव भोगका साया भोगाभिलाषस्य प्रवर्तनी कटुकपाका च कुत्सितपरिणामा च अस्तीत शेषः ।
जडप्रभावा----जलप्रभावा - जलके ऊपर प्रभाव रखता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी जडप्रभावा - मूर्ख जनपर प्रभाव रखती है और जिस प्रकार बबूला क्षण भर के लिए अपनी उन्नति दिखलाता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी क्षण-भर के लिए थोड़े समय के लिए अपनी उन्नति दिखलाती है । अथवा यह लक्ष्मी किंपाकफलके समान है क्योंकि जिस प्रकार किपाकफल भोगोंकी इच्छाको प्रवृत्त करता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी भोगों की इच्छाको प्रवृत्त करती है--बढ़ाती हैं। किंपाकफल जिस प्रकार कटुकफला - मृत्यु रूप फलसे युक्त है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी कटुकफल - दुःखदायी परिणाम से सहित है ।
૨૬
६१. इस प्रकार परगतिविरोधिनी - दूसरेकी उन्नतिसे विरोध रखनेवाली ( पक्षमें स्वर्गादि परगतियों से विरोध रखनेवाली ), फलदायक व्ययसे दूर रहनेवाली, पृथिवी आदि भूतचतुष्टयसे निर्मित शरीर मात्रके पोषण में तत्पर रहनेवाली, और श्रेष्ठ चरित्रको नष्ट करनेवाली, चार्वाक मतके सदृश राजलक्ष्मीसे परिगृहीत राजपुत्र उसी क्षण नैयायिकों के द्वारा निर्द मोक्षपदको प्राप्त हुएके समान पूर्ववर्ती गुणसमूह को भी नष्ट कर केवल जडस्वरूपताको अपने आधीन करते हैं। भावार्थ -- नैयायिक दर्शन में मोक्षमें बुद्धि सुख आदि गुणोंका अभाव माना जाता है सो जिस प्रकार नैयायिक दर्शन में निरूपित मोक्षको प्राप्त हुए मनुष्य अपने पूर्व गुणों को नष्ट कर अपने आपको निर्गुण बना लेते हैं उसी प्रकार राजलक्ष्मीको प्राप्त राजपुत्र अपने पूर्ववर्ती दया दाक्षिण्य आदि गुणोंको नष्ट कर जड़ अवस्था - निर्गुण अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । अथवा सांख्योंके द्वारा कल्पित पुरुषोंके समान अपने-आपको जडबुद्धि - हिताहितके विवेक से रहित बुद्धिसे युक्त करते हैं। भावार्थ -- सांख्य दर्शनमें पुरुषको चैतन्यरूप ३५ तथा बुद्धिको जड - अचैतन्य रूप माना गया है और यह भी माना गया हैं कि संसार दशा में चैतन्य पुरुषका जड़बुद्धिके साथ सम्बन्ध रहता है और सांख्य दर्शनमें कल्पित पुरुषों के समान
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-- तत्वोपदेशः
द्वितीयो लम्मः
विकारपरं वचनं प्रतिपादयन्ति च ।
६६२, स्वरूपव्यावर्णने ह्यर्णवनेमिस्वामिनाममरस्वामिनाप्यसंख्यवदनेन भवितव्यम् । ते हि सत्यपि राजभावे सद्भिर्न सेव्यन्ते, जीवत्यपि गोपतित्वे वृषशब्दं न शृण्वन्ति, नादितेऽपि 'नरेन्द्रत्वे मन्त्रिकृत्यं न सहन्ते । तथा महाबलान्वेषिणोऽप्यबलान्वेषिणः, प्रतापार्थिनोऽप्यसो. मबुद्धेरेव भामानं स्वं घटयन्ति युक्तं कुर्वन्ति, सदा सर्वदाहंकारेण सांख्याभिमततत्वविशेषेण पक्षे ५ गर्वेण च संगता सहिता प्रकृतिः सांख्याभिमततत्त्वविशेषः पक्षे स्वभावो येषां तथाभूताः सन्तः प्रकृतिविकारपरं प्रकृतिविकारप्रदर्शक पक्षे स्वमावविकारप्रदर्शक वचनं प्रतिपादयन्ति कथयन्ति । सांख्या हि मुलतः पुरुषः प्रकृतिश्चेति तत्वद्वयं मन्यन्ते। ते प्रकृति जडरूप प्रतिपादयन्ति, पुरुषस्य प्रकृत्या सह मंसगंण महदादितस्त्रानि समुपद्यन्ते । तेषां मते पुरुषः पुष्करपलाशवनिलेपस्तिष्ठति निखिला विकाशस्तु प्रकृतेः समुत्पद्यन्ते ।
६२. स्वरूपति-हि निश्चयेन अर्णवो जलधिमिर्यस्याः सा अर्णवनेमिः पृथिवी तस्याः स्वामिनां राज्ञामिति यावत् स्वरूपवर्णने, अमरस्वामिनापि शक्रेणापि असंख्यवदनेन निःसंख्यमुखेन मवितव्यम् । एकमुख इन्द्रोऽपि राज्ञां गुणान् वर्णयितुं न शक्त इति भावः । विरोधाभासालंकारेण तदेव हढयति-ते हि महीपतयो राजमावे चन्द्रवे पक्षे महीपतित्वे सत्यपि सदिनक्षत्रैः पक्षे सत्पुरुषैन सेध्यन्ते 'राजा चन्द्र नृपे शके क्षत्रिये प्रभुयक्षयोः' इति विश्वलोचनः। गोपतिरवे धेनुसिस्वे पक्षे पृथिवीपतित्वे १५ जीवस्यपि विद्यमानेऽपि वृषशब्दं वलीवर्दशब्दं पक्षे धर्मशब्दं म शृण्वन्ति । नरेन्द्रस्वे विषवैद्यस्वे पक्षे नृपतित्वं नादिनेऽपि घोषितेऽपि मन्त्रिकृत्यं मन्त्रशकार्य पक्षे सचिवकार्य न सहन्ते । तथा महाबलस्य बृहन्मैन्यस्य प्रबलपराक्रमस्य वा अन्वेषिणोऽपि अबलान्वेषिणो न सैन्यान्वेषिणो निर्बलजनान्वेषिण इति विराधः पक्ष अबनान्वेषिणो योपिदन्वेषिण इति परिहारः, प्रतापार्थिनोऽपि प्रकृष्टतापाभिलाषिणोऽपि असोदा न क्षान्ताः प्रतापिनः प्रकृष्टतापयुक्ता यैस्तथाभूता इति विरोधः पक्षे कोशदण्डजतेजोऽभिलाषिणोऽपि न २० सोडा अन्य प्रतापिनस्तेजस्विनो यैस्तथाभूता इति परिहारः, सश्रुतयोऽपि सकर्णा अपि अश्रुतयोऽकर्णा ही सदा अहंकारसे संगत प्रकृतिसे युक्त होते हैं-अहंकार पूर्ण स्वभावसे युक्त होते हैं तथा प्रकृति के विकारको सूचित करनेवाले स्वभावके विकारको प्रकट करनेवाले वचन बोलते हैं। भावार्थ-सांख्य दर्शनमें पुरुष और प्रकृति ये दो मूल तत्त्व माने गये हैं। प्रकृतिसे महान् और अहंकार आदि तत्त्वांकी उत्पत्ति होती है तथा वचन आदि सब प्रकृति के विकार बतलाये गये हैं। २५
६६२. गजाओंका जो स्वरूप है, उसके वर्णन करनेमें इन्द्रको भी असंख्य मुखोंका धारक हाना चाहिए। यथाथमें उनमें राजभाव-चन्द्रपना होनेपर भी वे सत्-नक्षत्रोंसे सेवित नहीं होते (परिहार पान में राजा होनेपर भी सत्-सजनोंसे सेवित नहीं होते । गोपतित्व-गायोंका पतिपना रहते हुए भी वे वृष-बैल शव्दको नहीं सुनते-गायोंका पति वृष-बैल कहलाता है पर वे गायोंके पति होकर भी वृष-बैल शब्दको नहीं सुनना चाहते । ३० (परिहार पश्नमें गोपतित्व-पृथिवीपतित्व-पृथिवीका स्वामित्व होनेपर भी वे घृष-धर्म शब्दको नहीं सुनते- उन्हें धर्मका नाम सुनते ही चिढ़ उत्पन्न होती है । नरेन्द्रपना-विषवैद्यपना घोषित होनेपर भी-अपने-आपको नरेन्द्र-विषवैद्य घोषित करके भी वे मन्त्रिकृत्य-मन्त्रवादियों के कार्यको सहन नहीं करते। (परिहार पझमें-नरेन्द्रपना-राजपना घोषित होनेपर भी अपने-आपको नरेन्द्र-राजा घोषित करके भी वे मन्त्रिकृत्य-मन्त्रियों के कार्यको सहन ३५ नहीं करते-मन्त्रियोंकी बात नहीं मानते। वे महाबलान्वेषी--अत्यन्त बलवानोंकी खोज करनेवाले होकर भी अबलान्वेषी-निर्बलोंकी खोज करनेवाले हैं ( पक्ष में अबला--स्त्रियोंकी खोज करनेवाले हैं)। प्रतापार्थी-- अत्यधिक तापके इच्छुक होकर भी असोढप्रतापी
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११४
गद्यचिन्तामणिः
[ ६२ आयनन्दिगुरुणा - ढप्रतापिनः, सश्रुतयोऽप्यश्रुतयः, अङ्गस्पृहा अप्यनङ्गस्पृहाः, अभिषिक्ता अप्यनाभावाः, जडसंसक्ता अप्यूष्मलस्वभावाः, सुलोचना अप्यदूरदर्शिनः, सुपादा अपि स्खलितगतयः, सुगोत्रा अपि गोत्रोन्मूलिन:, सुदण्डा अपि कुटिलदण्डाः, सिंहासनस्थिता अपि पतिताः, हिंसाप्रधानविध
इति विरोधः पक्षे सकर्णा अपि अश्रुतयः शास्वहिता इति पा हारः, अङ्गस्पृहा अघि शरीरस्पृहा अपि अनङ्गस्पृहा न विद्यतेऽङ्गस्पृहा येषां तथाभूता इति विरोध: पक्षे अस्पृहा अपि अननस्पृहा अनङ्गे मदने स्पृहा येषां तयाभूता इति परिहारः, अभिषिक्ता अपि राज्याभिषेककालेऽभिषिक्ता अपि जलस्नाता अपि अनास्वमावा अक्लिास्त्रमावा इति विरोधः पक्षे अना निर्दयः स्वभावो येषां तथाभूता इति परिहारः, जइसंसक्ता अपि उलयोरभेदान्जलसंसक्ता अपि उष्मल
स्वभावा उपणस्वमावा इति विरोधः पक्षे जडसंसका अपि मुखसंपर्कसहिता अपि उप्मलस्वभावाः क्रुद्ध१० स्वभावा इति परिहारः, सुलोचना अपि सुप्ठुलोचनसहिता अपि अदूरदर्शिनो दूरं न पश्यन्तीत्येवंशीला
इति विरोधः पक्षे अदूरदर्शिनो भविष्यज्ज्ञानरहिता इति परिहाराः, सुपादा अपि सुन्दरसादसहिता अपि स्खलिता पतनशीला गतियेषां तथाभूता इति विरोधः पक्षे स्खलिता दुराचारेण भ्रष्टा गतिः परलोको येषां तथाभूता इति परिहारः, सुगोत्रा अपि गां पृथिवीं ब्रायन्त इति गोत्राः सुष्टु गोत्रा येषां तथाभूता अपि
गोत्रोम्मूलिनो गोत्रान्पृथिवीरक्षकानुन्मूलयन्तीत्यवंशीला इति विरोध: पक्षे सुगोत्राः सुष्टु गोत्रं येषां १५ तथाभूता अपि सुकुला अपि गोत्रोन्मूलिनः कुलोच्छेद का दुराचारेण स्वकुलं दूषयन्त इति परिहारः, सुदण्या
अपि सुष्टु दण्डः सैन्यं येषां तथाभूता अपि कुटिलदण्डा चक्रसैन्या इति विरोधः पक्षे कुटिलदण्डा वक्रशासना इति परिहारः, सिंहासनस्थिता अपि पतिता अधोभ्रष्टा इति विरोधः पक्षे पतिता भ्रष्टचारित्रा इति परिहारः, हिंसाप्रधानविषयोऽपि हिंसाप्रधानो याज्ञिकहिंसाप्रमुखो विधिरनुष्टानं येषां तथाभूता अपि
अत्यधिक तापसे युक्त पदार्थों को सहन नहीं करनेवाले हैं ( पक्षमें-प्रताप-तेजके इच्छुक २० होकर भी अन्य प्रतापी-तेजस्वी मनुष्यों को सहन नहीं करनेवाले हैं)। सश्रुति--कानोंसे
सहित होकर भी अश्रुति-कानोंसे रहित हैं (पक्ष में सश्रुति-कानोंसे सहित होकर भी अश्रुतिशास्त्रोंसे रहित हैं)। अंगस्पृह-शरीरमें स्पृहा-इच्छा रखनेवाले होकर भी अनंगस्पृहशरीरमें स्पृहा नहीं रखनेवाले हैं (पक्ष-अंगस्पृह-शरीरमें स्पृहा रखनेवाले होकर भी
अनंगस्पृह-काममें इच्छा रखनेवाले हैं)। अभिषिक्त-जल के द्वारा अभिषेकको प्राप्त होनेपर २५ भी अनाद्रभाव--आर्द्रपन-गीलापनसे रहित है ( पक्ष में-अभिषेकको प्राप्त होनेपर भी
अनाद्रभाव-निर्दय अभिप्रायसे युक्त हैं)। जडसंसक्त-जलसंसक्त-जलसे सहित होनेपर भी ऊष्मल स्वभाव-गरम स्वभावका धारण करनेवाले है (पक्षम-जडसंसक्त-मूखजनाक संसर्गमें रहकर भी ऊष्मल स्वभाव-तेजस्वी प्रकृति के धारक हैं)। सुलोचन- उत्तम नेत्रोंसे
युक्त होकर भी अदूरदर्शी--दूर तक नहीं देखनेवाले हैं (पक्षमें सुलोचन--सुन्दर नेत्रोंसे युक्त ३, होनेपर भी अदूरदर्शी--भविष्य के विचारसे रहित हैं)। सुपाद-उत्तम पैरोंसे युक्त होनेपर
भीस्खलित गति-लड़खड़ाती चालसे सहित हैं (पक्षमें-सुपाद उत्तम पैरोसे सहित होकर भी स्खलित गति-पतित दशासे युक्त हैं। सुगोत्र-उत्तम नामके धारक होकर भी गोत्रीन्मूली-नामका उन्मूलन करनेवाले हैं ( पक्ष में सुगोत्र-उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी गोत्रो
न्मूली-अपने कुलको नष्ट करनेवाले हैं)। सुदण्ड--अच्छे दण्डसे युक्त होकर भी कुटिल ३५ दण्ड-टेढ़े दण्डसे युक्त हैं ( पक्षमें सुदण्ड-अच्छी सेनासे युक्त होकर भी कुटिल दण्ड
भयंकर सजा देनेवाले हैं ) । सिंहासनपर स्थित होनेपर भी पतित-मांचे पड़े हुए हैं ( पक्षमें सिंहासनारूढ होनेपर भी पतित-भ्रष्ट हैं) हिंसाप्रधान विधि-हिमाप्रधान काय-हिंसा
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तत्वोपदेशः ]
द्वितीयो लम्भः
मीमांसा बहिष्कृताः, ऐश्वर्यतत्परा अपि न्यायपराङ्मुखाश्च जायन्ते ।
$ ६३. एवं क्षोदीयसः क्षुद्रतरनेक पुरुष परिषदुपभुक्तोच्छिष्टक्षितिलवलाभानुबन्धिपट्टबन्धा-योड न्धीकृतान्यान्वकारसंचारिणः शरणशीलं शरीरं विनश्वरमेश्वयं दाबगर्भारण्यमिव तारुण्यं विचार्यमाणे विशीर्यमाणं वीर्यमैन्द्रधनुरिव सौन्दर्य प्रख्यापिततॄणाग्रबिन्दुसख्यं सौख्यं च व्यवस्थितमाकलयतस्तानाढ्य ताजातमोढ्यादथः स्वयं पतत इव यष्टिभिर्घातयन्तो निकृष्टा केचन सदस्याः ५ स्वदास्यममीषां संपाद्य संपदाकर्षणलम्पटतया घटितकापटिकवृत्तयः सन्तः सन्त इव नटन्तश्चर
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งาน
मीमांसा बहिष्कृता इति विरोधः मीमांसका हि हिंसाप्रधानविधि समर्थयन्ति पक्षे हिंसाप्रधान आखटादिपरो विधिर्येषां तथाभूता अपि मीमांसाबहिष्कृता विचारशक्तिशून्या इति परिहारः, ऐश्वर्यतत्परा अपि ईश्वरस्य कर्म ऐश्वर्यं सृष्टिकर्तृत्वं तस्मिन् तत्परा अपि न्यायपराङ्मुखाश्व न्यायदर्शनविमुखाश्च इति विरोधः न्यायदर्शने हीश्वरस्य सृष्टिकर्तृत्वं समर्थितम् पक्षे ईश्वरस्य माव ऐश्वर्य प्रभुत्वं तस्मिन् तत्परा अपि न्याय- १० पराङ्मुखा योग्यायोग्य विचाररहिताश्च जायन्ते इति परिहारः ।
६३. एवमिति - एवमनेन प्रकारेण अतिशयेन क्षुद्रा इति क्षोदीयान्सस्तान क्षोदीयसः, क्षुद्रतरा अतिशयेन क्षुद्धा यं नैकपुरुषा नानामावास्तयां परिषद समूहेनोपभुक्ता अतएवोच्छिष्टा या क्षितिस्तस्या लवस्तुच्छ्रांशस्तस्य लाभानुबन्धिना पट्टबन्धेनान्धीकृतास्तान् विषय एवान्धकारस्तस्मिन् संचरन्तीत्येवंशीलास्तान, शरणशीलं नश्वरस्वभावं शरीरं विनश्वरं मङ्गुरम् ऐश्वर्यं प्रभुवम्, दावगर्भारण्यमित्र १५ Rainaara araण्यं यौवनम् विचार्यमाणे विचारे प्रारब्धे विशीर्यमाणं नश्यद् वीर्यं पराक्रमम्, ऐन्द्रधनुरिव शक्रशरासनभित्र सौन्दर्य लावण्यं प्रख्यापितं तृणाग्रबिन्दुना सख्यं सादृश्यं येन तथाभूतं नश्वरमिति यावत् सौख्यं च विषयजानन्दं च व्यवस्थितं स्थिरम् आकलयतो जानतः, तानू राजपुत्रान् आयतया धनवत्तया जातं समुत्पन्नं यन्मौढ्यं तस्मात् स्वयमधः पतत इव यष्टिभिर्दण्डैवतयन्तस्ताडयन्तः निकृष्टा नीचाः केचन सदस्याः स्वदास्यं स्वभृत्यस्यममीषां राजपुत्राणां संपाद्य कृत्वा संपदाकर्षणस्पटलया २० संपत्यालाकया घटिता कापटिकवृत्तिर्यैस्तथाभूताः सन्तो भवन्तः, सन्त इव साधव इव तो
पूर्ण यज्ञादि सहित होनेपर भी मीमांसाबहिष्कृत - मीमांसक दर्शन संमत मोमांसासे रहित हैं ( पक्ष में दिसपूर्ण कार्य करनेवाले होकर मीमांसा - विचार-शक्तिसे रहित हैं ) और paमें तत्पर होकर भी न्यायपराङमुख अत्यधिक आयसे विमुख हैं ( पक्ष में ऐश्वर्य प्रधान होकर भी न्यायपरराङ्मुख – योग्य निर्णय से विमुख रहते हैं- उचित न्याय नहीं २५ करते हैं।
६६६. इस प्रकार जो अत्यन्त क्षुद्र हैं, अनेक क्षुद्रतर मनुष्यों के समूहसे भोगकर छोड़े gura जरा से टुकड़ेकी प्राप्तिसे सम्बन्ध रखनेवाले पट्टबन्धसे जो अन्धे हो रहे हैं, जो विषयः अन्धकार में संचार करनेवाले हैं, जो गलन रूप स्वभाव से युक्त शरीरको, विनश्वर एको, चानलसे युक्त बनके समान यौवनको, विचार करनेपर नष्ट होनेवाले पराक्रमको, ३० इन्द्रधनुष के समान सौन्दर्यको, और तृणके अग्रभागपर स्थित पानीकी बूँदकी सदृशताको प्रख्यापित करनेवाले - अस्थायी सुखको स्थायी समझ रहे हैं और जो सम्पन्नता के कारण उत्पन्न मृढ़तासे स्वयं ही मानो पतन कर रहे हैं ऐसे उन क्षुद्र राजाओंको लाठियोंसे वायल करते हुएक समान कितने ही नीच सदस्य उन्हें अपना दास बनाकर सम्पत्तिके खींचने में लम्पट होने से कपटपूर्ण वृत्तिको धारण करते हुए सज्जनकी तरह चेष्टा कर 'चलते-फिरते ३५
१. ० ० पट्टवन्प्राधिकृतान् ग० पट्टत्वाधितःन् ।
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गयचिन्तामणिः
[६३-६४ आर्यनन्दिगुरुणा
लक्ष्यभेददक्षतायै मृगयेति, संकटपतितकार्यविचारपाटवाय द्यूतक्रीडेति' प्रतीकस्थर्याय पिशिताशनमिति मनःप्रसादाय मधुपानमिति, रतिनैपुण्याय पण्ययुवतिपरिष्वङ्ग इत्यभिनवरतिरसास्थानिरस्तये परस्त्रीपरिग्रह इति शौर्यस्फूर्तये चौर्यमिति केलिरसाय तरलवृत्तिरिति, महासत्त्वतेति माननीयावधोरणं, महानुभावतेति वन्द्यानभिवन्दन महातेजस्वितंति तेजस्वातरस्क रणमित्युपदिश्य स्व५ वश्याकल्पयन्ति ।
६४. वित्तमदाचान्तविवेक: स जन्तुरपि तथोपदिशन्तमधिकपापिनमपथदर्शिनमपथ्यशंसिनमकृत्यकारिणमुक्तानुवादिनमुत्कोचोपजी विनं परपीडामुदितमानसं पराभ्युदयखिन्नहृदयं पेशुन्यवात धूर्तधुराशिक्षणविचक्षणं विटलोकमेव विदग्धमतिस्निग्धं च विभाव्य स्वगात्रं स्वकलत्रं मिनयन्तः, चरलक्ष्यस्य भेदे या दक्षता तस्यै चलशरग्यभेदकुशलतायै मृगयेति आखेटमिति, संकटे पतितं यरकार्य तस्य विचारे यत् पारवं तस्मै संकटापसकार्यविमर्शचातुर्याय धूतकोडेति दुरोदरकलिरिति, प्रतीकस्थैर्याय शरीरदाढाय पिशिताशनं मांसभोजनमित्ति, मनःप्रसादाय चेतःप्रसन्नतायै मधुपानं मदिरासेवनमिति, रती नैपुण्यं तस्मै सुरतचातुर्याय पण्ययुवतिपरिष्वको रूपाजीवाश्लेष इति, अमिनवरतिरसे नूतनसुरतरसे याऽऽस्था तस्या निरस्तये दूरीकरणाय परस्त्रीपरिग्रह इतरस्त्रीस्वीकार इति, शोयस्फूर्तये पराक्रम
विस्फारस्वाय चौर्यमिति, केलिरसाय क्रीडारसाय तरलवृत्तिः श्वञ्चलवृत्तिरिति, महासावता महापराक्रमतेति १५ हेतोः मानवायावधारणमादरणीयजनतिरस्करणम् , महानुभावसा-महाशयतेति हेतोः बन्यानभिनन्दनं
वन्दनीयजनानमनम्, महातेजस्वितेति महीजस्वितेति हेतोः तेजस्वितिरस्करणं महौजस्विजनानादर इत्युपदिश्य स्ववश्यास्वाधीनान् कल्पयन्ति ।।
६६४. वित्तमदाचान्तेति-वित्तमदेन धनगणाचान्तो नष्टो विवेको योग्यायोग्यविचारो यस्य तथाभूत: स जन्तुरपि राजपुत्रोऽपि अनादरवप्रदर्शनाय जन्तुरिति सामान्यपदेनाभिधानम् । तथा पूर्वोक्त___ २० प्रकारेणोपदिशन्तम् , अधिकपापिनं पापातिशययुक्तम्, अपथदर्शिनं कुमार्गदर्शयितारम्, अपथ्यमहितं
शंसतीत्येवंशीलं तम्, अकृत्यं कोतीत्येवंशीलम्-अकार्यकारिणम् , उक्तमितरजनामिहितं योग्यमयोग्य वानुवदतीत्येवंशीलस्तम्, उस्कोचेन लञ्चयोपजीवतीत्येवंशीलस्तम, परपीडया अन्यजनकप्टेन मुदितं प्रसन्न मानसं यस्य तम्, पराभ्युदयेन अन्यजनैश्वर्यण खिचं हृदयं यस्य तम् , पैशुन्यवात खलरचवातम् ,
धूर्तधुराशिक्षणे धून भारशिक्षायां विचक्षणो निपुणस्तम्, एवंभूतं विटलोकमेव पोद्गजनमेव विदग्धं चतुरम् २५ लक्ष्यको भेदन करनेकी सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए शिकार खेला जाता है, संकट में पड़े कार्य
के विचार करनेकी चतुरता प्राप्त करने के लिए जुआ खेला जाता है, शरीरकी दृढ़ताके लिए मांस खाया जाता है, चित्तको प्रसन्न रखने के लिए मदिरा पान किया जाता है, गति-सम्बन्धी चतुराई प्राप्त करने के लिए वेश्याओंके साथ समागम किया जाता है, नूतन-अभुक्त स्त्रीके
साथ रति रस में आदर भाव दूर करनेके लिए परस्त्रीको स्वीकृत किया जाता है, शूरवीरता ३० को बढ़ाने के लिए चोरी की जाती हैं, क्रोड़ा-सम्बन्धी रसकी प्राप्तिके लिए चंचलता धारण
करना ठीक है, पूज्य पुरुषोंका तिरस्कार करना महासत्त्वता है, वन्दनीय मनुष्योंको वन्दना नहीं करना महानुभाव ता है और तेजस्वी मनुष्योंका तिरस्कार करना महातेजस्वीपना है, ऐसा उपदेश दे अपने अधीन कर लेते हैं।
६४. धनके मदने जिसके विवेकको चाट लिया है-नष्ट कर दिया है ऐसा प्राणी ३५ भी उस प्रकारका उपदेश देनेवाले अधिक पापी, कुमार्गदर्शी, अहितोपदेशी, कुकृत्यकारी,
कहे हुएका समर्थन करनेवाले, लांचसे जीवित रहनेवाले, दूसरेकी पीड़ासे प्रसन्नचित्त, दुसरेका अभ्युदय देखकर खिन्नचित्त, चुगुलखोर और धूर्त मनुष्योंका भार सीखने में निपुण
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-तत्वोपदेवाः ]
द्वितीयो लम्भः
स्ववित्तं स्ववृत्तं च तदधीनं विदधाति विदधाति च सुजनसमागमनद्वारम् ।
६५. एवंविधदुःशिक्षाबलेन स्वचापलेन च राजसूनवः प्रायेण प्रागेवाविनयं पश्चात्तारुण्यं पुरस्तादेव जाड्यं तदनन्तरमभिषेकं पूर्वमेवाहंकारं तदनु सिंहासनाध्यासनं पुर एव कौटिल्यं ततः किरीटं च भजन्ते । भव्योत्तम, भवांस्तु तथा यततां यथा विबुधसेवाप्रशस्तामस्तमितामनस्यामभिवर्धितसौमनस्यामप्रार्थितागतजागरामचलामतुलां च वृत्तिमजसा कल्पयितुं ५ प्रगल्भेत, सौजन्यसागरप्रभवेण प्रत्युपकारनिरपेक्षवृत्तिना मर्त्यमात्रसुदुर्लभेन पुरोपार्जितसुकृतफलेन सुजनवचनामृतलाभेन सुचिरं तुष्टः पुष्टश्च भविता' इति ।।
६६. एवंविधैर्गुरुबदनतुहिनसानुमत्संभूतैरम्बरसरिदम्भःसंभारैरिव सारैरतिगम्भीरैरुअतिस्निग्धं स्नेहातिशययुक्तं च विभाव्य विचार्य स्वगात्रं स्वशरीरं स्वकलन स्वदारान् , स्ववित्तं निजधनं स्ववृत्तं निजाचारं च तदधीनं विटलोकायत्तं विदधाति सुजनानां समागमनस्य द्वारं सज्जनागमप्रवेशमार्ग १० पिदधाति च आच्छादयति च ।
६५. एवंविधेति-एवंविधाया इत्यम्भूताया दुःशिक्षाया बकेन स्वचापलेन च स्वकीयचपलतया च राजसनवो राजपुत्राः प्रायेण प्रागेव पूर्वमेवाबिनयमनम्रताम, पश्चात्तारुण्यं यौवनं, पुरस्तादेव पूर्वमेध जादध शैत्यं पक्षे मौख्यं तदनन्तरमभिषेक राज्यस्नपनम् , पूर्वमेवाहंकारं गर्व तदनु सिंहासनाध्यासनं सिंहासनारोहणम्, पुर गुव कौटिल्यं वक्रत्वं मायाविवमिति यावत् ततः किरीट मौलिं च भजन्ते। मध्योत्तम, १५ भवान् तु जीवंबरस्तु तथा तेन प्रकारेण यततां यथा येन प्रकारेण विबुधानां विदुषां सेवया प्रशस्ता ताम् , अस्तमितं नष्टमामनस्यं यस्यां ताम् , अभिवर्धितं सौमनस्यं सौजन्यं यस्यां ताम् , अप्रार्थित आगतो जागरी यस्यां ताम् , अचलां स्थिराम्, अतुलामनुपमां च वृत्तिम् अजसा याथायन कल्पयितुं प्रगल्भंत समर्थों मवेत् । सौजन्यमंव सागरः सौजन्यसागरः साधुतासमुद्रः स प्रमत्रः कारणं यस्य तेन प्रत्युपकारात निरपेक्षा वृत्तियस्य तेन, मर्त्यमात्रस्य सुदुर्लभस्तेन, पुरोपार्जितस्य सुकृतस्य फलं तेन प्राग- २० जिंतपुषयपरिपाकंण सुजनवचनमेवामृतं तस्य लामस्तेन साधुवचनपीयूषप्राप्स्या सुचिरं सुदीर्घकालं यावत् तुष्टः पुष्टश्च मविता । इति गुरूपदेशः समासः ।
६६. एवंविधैरिति-एवंविधः पूर्वोक्तप्रकारः गुरुपदनमेव गुरुमुखमेव तुहिनसानुमान् हिमशैलस्तस्मात्संभूतैः समुत्पौः, अम्बरमरितो मन्दाकिन्या अम्भःसं मारैजलसमूहरिव सारैः श्रेष्ठैः अतिगुण्डोंक समूहको अत्यन्त चतुर एवं अत्यन्त स्नेही समझकर अपना शरीर, अपनी स्त्री, २५ अपना धन और अपना आचार-सब कुछ उनके अधीन कर देते हैं और सज्जनोंके समागम रूपी द्वारको बन्द कर देते हैं।
६६५. इस प्रकारकी कुशिक्षाके बलसे और अपनी चपलतासे राजपुत्र प्रायः कर अविनयको पहले और यौवनको पीछे, जाइय-शीत ( पक्षमें मूर्खता) को पहले और अभिषेकको बादमें, अहंकारको पहले और सिंहासनपर अधिष्ठानको पीछे, कुटिलताको पहले और ३० गुकुट को बादमें प्राप्त करते हैं। हे भन्योत्तभ, आप ऐसा यत्न कीजिए कि जिससे विद्वानोंकी सेवासे प्रशस्त, मनहसीसे रहित, सौमनस्यसे सहित, बिना प्रार्थना किये ही प्राप्त जागरणसे युक्त, अचल और अनुपम वृत्तिको यथार्थ रूपमें प्राप्त करनेके लिए सजग हो सको । सौजन्यरूपी सागरसे उत्पन्न, प्रत्युपकारकी भावनासे निरपेक्ष, मनुष्य मात्रके लिए. दुर्लभ, पापाजत पुण्यके फलस्वरूप सज्जनोंके वचन-रूपी अमृतके लाभसे आप चिरकाल तक ३५ सन्तुष्ट और परिपुष्ट होते रहोगे।
६६६. इस प्रकार गुरुदेव के मुखरूपो हिमालयसे उत्पन्न गंगा नदीके जलप्रवाह के समान
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गद्यचिन्तामणिः
[६५-६७ आर्यनन्दिगुरुणा - दारमधुरैविचित्रैरतिपवित्रर्वचोभिः कुरुकुलकुशेशयाकरभानोः सूनोः स्वान्ते नितान्तनिपुणवणिक्प्रवेकविहितवेकटकर्मणा मणाविव निसर्गनिर्मले निमलतरीभवति भवत्ययमस्माकं परगतिसाधनानुकूलः कालः' इति बिचार्यार्यनन्द्याचार्यः स्वहृदयगतं हृदयविदां प्राग्रहराय जोबकस्वामिने सानुनयं समभ्यधत्त ।
६७. पुनरयमपुनरावृत्तिप्रयाणपिशुनवचनपविपतनेन पन्नगपतेरिव विपन्नस्य जोवककुमारस्य निष्प्रतिक्रियतया बाष्पायमाणवदनजुषः प्रेमान्धस्य गन्धोत्कटप्रमुखबन्धुसमाजस्य च सीदतः प्रव्रज्याप्रेरितमतिः प्रसभं व्रजन्पचानन इव पञ्जरपरिभ्रष्टः प्रहृष्टमनास्तपोबनमवगाह्यापोह्य बाह्येतरपरिग्रहान्स्वविग्रहेऽपि निरस्ताग्रहः समस्तदुरितध्वंसनदक्षां जिनदीक्षा भजन्भगवत:
गम्भीरैः प्रौढार्थसहितैः मधुरैमिष्टैः विचित्र नाप्रकारैः अतिपविनरुज्ज्वलतरैः, वचोमिवंचनैः कुरुकुलमेर १० कुशेशयाकरः पद्माकरस्तस्य भानोः सूर्यस्य सूनो वंधरस्य स्वान्ते हृदये नितान्तनिपुणेनातिशयचतुरेण
वणिक्यवेकेण वणिक श्रेष्ठेन विहिते थेकटकर्म शाणोल्लेखनकर्म सेन मणौ रत्न इव निसर्गनिर्मले स्वभावबिमले निर्मलतरीभवति । अत्यर्थ समुज्ज्वले सति 'अयमेष कालोऽस्माकं परगतिसाधनानुकूलपरलोकसुधारयोग्यो भवति' इति विचार्य विमृश्य, आर्यनन्याचार्य एतनामसूरिः हृदयविदा हृदयशानां प्राग्रहराय
श्रेष्ठाय जीवकस्वामिने जीपंधरस्वामिने स्वहदयगतं स्वकीयमनःस्थितं सानुनयं सप्रेम यथा स्यात्तथा १५ समभ्यधत्त कथयामास ।
६६७. पुनरयमिति--मनन्तरम् अयमाय नभ्याचार्यः न यि पुनरावृत्तिः पुनरागमनं यस्य सथाभूतं यस्पयाणं गमनं तस्य पिशुनं सूचकं यद् वचनं तदेव पविर्वनं तस्य पतनेन पलंगपरिव नागेन्द्रस्येव थिएनस्य पीडितस्य जीयककुमारस्य निष्प्रतिक्रियतया प्रतिकारराहित्येन बाप्पायमाणं साथ
भवद् यद् वदनं मुखं तज्जुषते तथाभूतस्य, प्रेम्णान्धस्तस्य गन्धोत्कटप्प्रमुखश्चाती बन्धुसमाजस्तस्य च २० सीदतो दुःखीभवतः 'षष्ठी चानादरे' इति षष्ठी प्रग्नज्यया दीक्षया प्रेरिता मतिर्यस्य तथाभूतः प्रसभं
हठाद प्रजन पअरनटाक्ष्यःशलाकाहानिःसृतः पञ्चानन इव सिंह इक प्रहष्टमनाः प्रससचेनाः, तपोवन मबगाह्य प्रविश्य बायाश्चेतरे च बातरे ते च ते परिग्रहाश्च तान् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहान् क्षेत्रवास्त्वादयो बाह्याः परिग्रहा मिथ्यास्वादयश्चाभ्यन्तरपरिग्रहाः, अपोझ त्यक्त्वा स्वविग्रहेऽपि स्वशरीरेऽपि 'शरीरं वर्म
विग्रहः' इत्यमरः निरस्त आग्रही येन तथाभूतः सन् समस्तदुरिताना निखिलपापानां ध्वंसने दक्षा समर्था २५ सारभून, अत्यन्त गम्भीर, उदार, मधुर, विचित्र और अत्यन्त पवित्र वचनोंसे कुरुवंश रूपी
कमलवनको विकसित करने के लिए सूर्यस्वरूप राजकुमार जीवन्धरका स्वभावसे निर्मल चित्त जब अत्यन्त चतुर श्रेष्ठ वणिकके द्वारा किये हुए शाणोल्लेखनसे मणिके समान और भी अधिक निर्मल हो गया तब 'यह हमारा परभवको सुधारनेके अनुकूल समय है। ऐसा विचार कर आर्यनन्दी आचार्य ने सृदयज्ञ मनुष्योंमें श्रेष्ठ जीवन्धर स्वामीके लिए स्नेहपूर्वक ३० अपने हृदयका भाव कहा।।
६७, तदनन्तर जिसमें पुनः लौटकर नहीं आना है ऐसे गमनको सूचित करनेवाले वचनरूपी बळके पड़नेसे जीवन्धर कुमार, वनपातसे नागराज के समान दुःखी हो गये। । कुछ प्रतिकार न सूझनेसे अश्रुयुक्त मुखको धारण करनेवाले एवं प्रेमसे अन्धे गन्धोत्कट आदि
कदम्बी जन भी बहत दुःखी हए। उन सबकी उपेक्षा कर. दीक्षासे जिनकी वृद्धि प्रेरित हो ३५ रही थी, जो पिंजड़ेसे छूटे सिंह के समान हठपूर्वक आगे बढ़े जा रहे थे, जिनका चित्त
अत्यन्त प्रसन्न था, जिन्होंने तपोवनमें प्रवेश कर बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहोंका त्याग कर शरीर में भी आग्रह छोड़ दिया था ऐसे आर्यनन्दी आचार्य ने समस्त पापोंके नष्ट करने में समर्थ
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- मोक्षप्राप्तिः ]
द्वितीयो लम्मः
पश्चिमतीर्थ नायकस्यापश्चिम सौख्य संपादनशीलं श्रीपादमूलं मूलबलीकृत्य मूलोत्तरभेदप्रभेदविशिष्टचारित्रभृतकबलपुष्टः कर्माष्टकरिपुराजसमष्टि समूलकाषं कषन्कर्मारिनिर्मूलनप्रलयविधानातिशमिलित पर्जन्यप्रमुख निर्जरपरिषत्परिकल्पितपरिनिर्वृतिमहोत्सवपुरःसरं सारगुणोत्कर्षपक्षपातिपरमशुक्लध्यानाभिधानध्यानोत्तमप्रदत्तां लयपराचीनपरमानन्दवित रणविदग्धामविदग्धमुक्तां मुक्तिश्रियं शिश्रिये ।
६८. ततश्च् तस्मिन्प्रसववेदनानभिज्ञमातरि निरर्थकाव्यक्तवच श्रवणचरितार्थश्रोत्ररोज्झितपितरि निमेषोन्मेषनिरपेक्षनेत्रं लोकद्वय हितोपदेशमित्रे बहिश्चरापरजीविते गुरौ तपस्योद्यते गते सति जातमपि शोकजातवेदसं तत्त्वज्ञान जलैर्निर्वाप्य गुणगणगरोयसा कनीयसानन्यो
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तां जिनदीक्षां दिगम्बरमुद्रां भजन् स्वीकुर्वन् भगवतो लोकोत्तरैश्वर्यसहितस्य पश्चिमतीर्थनायकस्य वर्धमानतीर्थंकरस्य अपश्चिमं श्रेष्ठं 4 सौख्यं तस्य संपादनं शीलं यस्य तथाभूतं श्रीपादमूलं मूलबलीकृत्य मूलवलं १० विधाय मूलोत्तरभेदप्रभेदविशिष्टं यच्चारित्रं तदेव भूतकुबलं पदातिसैन्यं तेन पुष्टः समर्थातिशयं प्राप्तः, महावतगुलिस मितयश्चास्त्रिस्य मूलभेदाः अहिंसादीनि महात्रतानि, मनोगुप्त्यादयो गुप्तयः, ईर्यादयः समितय इति चारित्रस्योत्तरभेदाः । कर्मणां ज्ञानावरणादीनामष्टकं कर्माष्टकं तदेव रिपुराजस्तस्य समष्टिः समूहस्ताम् समूळ कषिवा समूलकाचं कषन् हिंसन् कर्मारोणां कर्मशत्रूणां निर्मूलनप्रलयस्य समूलविनाशस्य विधानातिशयेन करणातिशयेन मिलिताः समागता ये पर्जन्यप्रमुखा मेघकुमारप्रमुखा निर्जरास्तेषां परिषदा १५ समूहेन परिकल्पितो विहितः परिनिर्वृतिमहोत्सवः मोक्षप्राप्ति महोत्सवः पुरस्सरो यस्मिन् कर्मणि यथा स्वात्तथा सारगुणानां श्रेष्ठगुणानां य उत्कर्षस्तस्य पक्षपाति परमशुद्धानिधानं व्युपरत क्रियानिवर्तिनामक चतुर्थ शुक्लध्याननामधेयं ध्यानोत्तमं समुत्कृष्टध्यानं तेन प्रदत्ताम्, ल्युपराचीनो विनाशविमुखो यः परमानन्दस्तस्य वितरणे प्रदाने विदग्धां चतुराम् अविदग्धैरचतुरैर्मुक्तां त्यां मुक्तिश्रियं मुक्तिलक्ष्म शिश्रिये त्रितवान् कर्माष्टकविनिर्मुको मोक्षलक्ष्मीश्वरो बभूवेति भावः ।
६६. ततश्चेति — तदनन्तरं च प्रसववेदनाया अनभिज्ञा प्रसववेदनानभिज्ञा सा चासौ माता चेति प्रसववेदनानभिज्ञमाता तस्यां निरर्थकानि अर्धशून्यानि अव्यक्तानि अस्पष्टानि यानि वचसि तेषां श्रवणेन समाकर्णनेन चरितार्थे ये श्रोत्रे ताभ्यां दुरोज्झितः पिता तस्मिन् निमेषोन्मेषयोः पक्ष्मणां विघटनोदुयटनयोनिरपेक्षं नेत्रं तस्मिन् लोकयोर्भवद्भविष्यतोर्द्वयं तस्य हितमुपदिशतीत्येवंशीलं मित्रं तस्मिन्, बहिश्चरं यदपरजीवितं तस्मिन् तथाभूते गुरौ तपस्योद्यते गते सनि जातमपि समुत्पन्नमपि शोकजात २५ वेद शोकानं तवज्ञानजलैस्तत्त्वज्ञानसलिलैः निर्वाप्य विध्यापितं कृत्वा गुणगणेन गुणसमूहेन गरीयान् जिनदीक्षा धारण कर ली। और अन्तिम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामीके श्रेष्ठ सुखप्रदायक पादमूलको मूल बल बनाकर उनकी शरण में पहुँचकर मूल-उत्तर भेद-प्रभेदोंसे सहित चारित्र
पां सैन्य बलसे पुष्ट हो अट कर्मरूपी शत्रु- समूहको समूल नष्ट कर श्रेष्ठ गुणोंके उत्कर्ष पक्षपानी परम शुक्लध्यान नामक उत्तम ध्यानके द्वारा प्रदत्त, अविनाशी परमानन्द के देने में ३० निपुण एवं मूर्खजनोंके द्वारा छोड़ी हुई मुक्ति रूपी लक्ष्मीको प्राप्त हो गये । उस समय कर्मरूप शत्रुओं का समूल क्षय करनेके अतिशय से एकत्रित मेवकुमार आदि देवोंके समूहने उनका निर्वाण महोत्सव मनाया था ।
२०
६८. तदनन्तर जो प्रसवकी वेदनासे अनभिज्ञ माता थे, निरर्थक एवं अस्पष्ट वचनों के सुनने से कृतकृत्य कानोंसे रहित पिता थे. बन्द करना और खोलना रूप क्रियासे निरपेक्ष ३५ नेत्र थे, दोनों लोकों में हितका उपदेश देनेवाले मित्र थे, और बाहर चलनेवाले दूसरे प्राण थे ऐसे गुरु के तपस्या के लिए उद्यत हो चले जानेपर जो शोकरूपी अग्नि उत्पन्न हुई थी उसे
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गद्यचिन्तामणिः
[६५-६६ आर्यनन्दिगुरुणापास्यैर्वयस्यैश्च समं वसुंधरायां सौन्दर्यवीर्याभ्यां मार इव कुमार इव च जीवककुमारे बारयुवतीनां पोरवृद्धानां च हृदि स्वाङ्गारोहणोपलम्भसंभावनाहृष्टानां करिरथतुरगप्रष्ठानां पृष्ठेषु च सदा नियसति तदवसरे प्रस्तुतमुच्यते ।
६६. अश्र कदाचिदचलमचरममारूढवति भानुमति विधाय विधेयमहर्मुखसमुचित५ महमहमिकापतदनिपतिकि रोटरत्नकिरणनिकरविराजितं राजविजयवर्णनचतुरचारणमुखरितहरिपताल तमनिल चलितकालिकाकलापममलदुकूलवितानविलसदुपरिभागमुद्गच्छदतुच्छमरीचिनिचयनिचुलि
तमणिस्तम्भमास्थानमण्डपमाधवसन्तं सभोपगतवारवामलोचनाचालितचामरमरुदान्दोलितकुन्तलश्रेष्टस्तेन कनीयसा लघुसहोदरेण नन्दायेन न विद्यन्तेऽन्य उपास्या येषां तैरसाधारणवयस्यैमित्रैश्च सम
वसुंधरायां पृथिव्यां सौन्दबीर्याभ्यां क्रमण मार इव मदन इब कुमार इव कार्तिकेय इव जीवककुमारे १० जीवंधरे वारयुवतीनां विलासनीनां पौरवृद्धानां वृद्धनागरिकाणां च हृदि, स्वाशपु स्वशरीरेषु भारोहणो
पलम्भः समुचटनप्रातिरेव संभावना सत्कारस्तेन हृष्टानां प्रसन्नानां करिणश्च स्थाश्च तुरगाश्चेति करिस्थतुरगं तस्मिन् प्रष्टानां श्रेष्ठानां पृष्टेषु च सदा निवसति सति 'यस्य च भावे भावलक्षणम्' इति सप्तमी तदवसर प्रस्तुतं प्रकृतम् उच्यते ।
६६९. अथेति--अथानन्तरं कदाचिद् जातुचित् भानुमति सूर्ये अचरममाघम् अचल पर्वतम् उदयाचलमिति यावत् आरू इवति सति, अहमुखसमुचितं प्रातःकालयोग्य विधेयं कार्य विधाय कृत्वा अहमहमिक्या-अहं पूर्वमहं पूर्वमिति युद्धया पतन्ति विनमन्ति यानि अवनिपतीनां राज्ञां किरीटानि मुकुटानि तेषां रवाना किरणनिकरण मयूखमण्डलेन विराजितं राजविजयस्य वर्णने धतुरा विदग्धा ये वारणासमुंखाता हरिसो दिशो यस्य तम् , अनिलेन चलितः कदलिकाकलापो ध्वजससूहो यस्मिन् तम् , अमलदुकूलस्य निर्मलदुकूलवस्त्रस्य वितानेन चन्द्रोपकेन विलसन उपरिमागो यस्य तम्, उद्गच्छता उपरिनजता अतुच्छमरीचिनिचयेन विशालकिरणसमूहेन निचुलिताः कृतावरणा मणिस्तम्मा यस्य तम्, एवंभूतमास्थानमण्डपं सभामण्डपम् अधिवसन्तं तत्र स्थितमित्यर्थः, समीपगताः पावस्थिता या वास्वामलोचना वेश्यास्तामिवालिताना वामराणां बालन्यजनानां मरुता पवनेनान्दोलितः कम्पितः कुन्तलकलापः तत्त्वज्ञानरूपी जलके द्वारा बुझाकर गुणोंके समूहसे श्रेष्ठ छोटे भाई नन्दाय और
किसी दूसरेकी उपासना नहीं करनेवाले मित्रोंके साथ, पृथिवीपर सौन्दर्यसे कामदेव के समान २५ और पराक्रमसे कार्तिकेयके समान जीवन्धर कुमार जिस समय वारयुवतियों और वृद्ध
नागरिकोंके हृदयमें तथा अपने शरीरपर चढ़नेकी प्राप्ति रूप आदरसे हर्षित हाथी, रथ और श्रेष्ट घोड़ोंकी पीठपर सदा निवास कर रहे थे उस समय जो प्रकृत बात हुई वह कहीं जाती है।
६६९. अथानन्तर किसी समय सूर्यके उदयाचलपर आरूढ़ होनेपर प्रातःकालके योग्य ३० क्रियाओंको कर काष्टांगार उस सभामण्डपमें आसीन हुआ कि जो पहले प्रवेश करने की प्रति
स्पर्धासे आते हुए राजाओंके मुकुटसम्बन्धी रत्नोंकी किरणोंसे नीराजित था जिसमें
आरती उतारी जा रही थी, राजाकी बिजयके वर्णन करनेमें चतुर चारणोंके द्वारा जिसमें दिशाएँ शब्दायमान हो रही थी, जिसकी पताकाओंका समूह वायुसे हिल रहा था, जिसका ___ ऊपरी भाग उज्ज्वल रेशमी धुंदोवासे सुशोभित था, और जिसके मणिनिर्मित खम्भे ऊपरकी २५ ओर उठती हुई बहुत बड़ी किरणों के समूहसे आवरासे युक्त जान पड़ते थे। उस समय समीपमें स्थित वेश्याओंके द्वारा चलाये हुए चमरोंकी वायुसे काष्टांगारके आगेके बालोंका
१. प्रप्ठानां श्रेष्ठानाम् इति टिप्पणी । २. म० किरीट रस्नकिरणनीराजितं ।
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मोक्षप्रातिरनन्तरदान्तः ]
द्वितीयो कम्मः
कलाप मुल्लसदाभरणमणिमहः प्रसरकञ्चुकितसकल काष्ठं काष्ठाङ्गारं धरणीपतिमकुटतटप्रहारजजंरितशिखरेण निज्ञाधिकारलक्ष्मीलता घिरोहण विटपेन वेत्रदण्डेन चण्डिमानमुद्वहत्प्रदर्शितमुखविकारः प्रतीहारः प्रविदय सप्रश्रयं प्रणम्येदं व्यजिज्ञपत्' ।
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७०. "देव, देवभुजपरिघपरिपालितपर्यंन्तेषु कान्तारेषु तरुण तृणचरणरसाकुलं गोकुलमात्य कुतोऽपि दिगन्तरालादविरलश रासारश कलितगोपवपुषः परुषवचसो नाफला बलादाहृत्य गता इति प्रतीहारस्थाने स्थिताः प्रोतोद्धृतोभयपाणितलप्रणयिपल्लववंशदण्डाः कुञ्चिताग्रचरणस्पृष्टमहोपृष्ठा द्विगुणत रदीर्धीकरणतनुतरशरीराः परनिवेदन भयचकितशबरैः शाखासु केशसमूहो यस्य तम्, उल्लसन्ति शोभमानानि यान्याभरणानि तेषां मणयों रत्नानि तेषां महसस्तेजसः प्रसरण कबुकिता व्याप्ताः सकलकाष्टा निखिल दिशो येन तम्, काष्ठाङ्गारं सनामधेयं नृपाधमम्, धरणीराज्ञां मकुटेषु प्रहारेण जर्जरितं शिखरं यस्य तेन निज्ञाधिकारलक्ष्मीरेव लतास्तस्या अधिरोहणविटप आश्रमशाखा तेन वेत्रदण्डेन चण्डिमानं गुरुविकारो येन तथाभूतः प्रहारा द्वारपालः प्रविश्य सप्रश्रयं सविनयं प्रणम्य नमस्कृत्य इदं वक्ष्यमाणं व्यजिशक्त् निवेदयामास -- ७०. देवेति – देव, राजनू, देवस्य भवतो भुजपरिधैर्बाह्रर्गलैः परिपालिता पर्यन्ता येषां तेषु कान्तारेषु वनेषु तरुणतृणानां हस्तिहरितशष्पाणां चरणरसेन मक्षणस्नेहेनाकुलं व्ययं गोकुलं धेनुसमूहं कुiऽपि कस्मादपि अज्ञातादिति भावः दिगन्तरालास्काष्ठामध्यात् आपत्य भाक्रम्य अविरलशरःसारेण निरन्तरवाणवृष्ट्या शकलितानि खण्डितानि गोंवपूंषि यैस्ते, परुषं वचो येषां ते कठोरभाषिणो नाफलाः किरात बलादू हा आहृत्य गता इति प्रतीहारस्थाने द्वारस्थाने स्थिताः केचन गोदुहरे घोषाः क्रोशन्ति रुदन्ति इति । अथ दुहां विशेषणान्याह — प्रोतमन्योन्यासकम् उद्धृतमुपरिस्थापितं यदुमयपाणितलं हस्तङ्कयतलं तस्य प्रणयिनः स्नेहयुक्तास्तत्र विद्यमाना इति यावत् पल्लववंशदण्डा पलवोपलक्षितवेणुदण्डा येषां ते, कुञ्चितैरवनमितैरप्रचरणैः स्पृष्टं महीपृष्ठं येषु ते, द्विगुणतरेण दीर्घीकरणेन आयतीकरणेन सनुतरं २० कृशतरं शरीरं येषां ते, परेभ्यां निवेदनं परनिवेदनं तस्य मयेन चकिता मीता ये शबराः पुलिन्दास्तैः
→
1
1
१. क० अत्रिपत् ।
१६
१२१
समूह हिल रहा था और आभूषणोंके मणियोंके उठते हुए तेजके समूहसे उसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर रखी थीं । राजाओंके मुकुटतटपर प्रहार करनेसे जिसका अग्रभाग जर्जरित हो गया था और जो अपनी अधिकार- लक्ष्मीरूपी लताको चढ़ने के लिए वृक्ष की शाब्बाके समान जान पड़ता था ऐसे वेत्रदण्डसे तीक्ष्णताको धारण करने एवं मुखके विकार को दिखानेवाला द्वारपाल प्रवेश कर तथा बड़ी विनय के साथ प्रणाम कर काष्ठाङ्गारसे यह निवेदन करने लगा. कि
५
१५
२.५
३०
७. 'हे देव ! आपके भुजरूपी अर्गलदण्डों से सुरक्षित सोमाओंसे युक्त वनों में हरे-भरे तृणोंके चरनेमें आनन्दपूर्वक निमग्न गायोंके समूहको लगातार की वर्षा उनका शरीर खण्डित करने एवं कठोर वचन बोलनेवाले भील किसी दिशासे आकर जबर्दस्ती हर ले गये हैं। ऐसा द्वारपर खड़े कितने ही ग्वाल चिल्ला रहे हैं। उन ग्वालों में कितने हो ग्वाल परस्पर फँसो हुई दोनों हाथों की हथेलियाँ बाँसकी लाठियोंपर रखे हुए हैं और उनसे बाँसकी लाठियाँ लाल-लाल पल्लवोंसे युक्त जैसी जान पड़ती हैं, कितने ही मुड़े हुए पैरोंके अग्र भागसे पृथ्वीतलका स्पर्श कर रहे हैं -- पृथिवी - घुटने टेक कर स्थित हैं, कितने ही लोगों के शरीर पृथिवीपर अत्यधिक लम्बा पड़ने से अत्यन्त कृश हो रहे हैं, अर्थात् कितने ही लोग पृथिवीपर औंधा पड़कर प्रार्थना कर रहे हैं १५
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गद्य चिन्तामणिः
[ ७०-७१ पुछिन्दैः कृत -
बद्धकराः प्रलम्बिता इवानुकम्प्यमानाः प्रम्लानवदनसूचितान्तः शोकप्राग्भाराः, प्रजृम्भमाणोत्थितस्थूलसिराजालजटिलितवपुषः, प्रकामविवृतास्यक्षरल्ला लाजलापदेशेन पीतमपि पयःपूरममन्दस्वान्तसंतापादुमन्त इव जुगुप्स्यमानाः केचन गोदुहः क्रोशन्ति" इति ।
1
i
७१. तथा शंसत्येव तस्मिनश्रुतपूर्वेण श्रवणकटुकतद्वचनेन धरणीपतिः फणिपतिरिव ३. फणामण्डलप्रहारेण प्रज्वलितकोपाग्निः सत्वरोन्नमित पूर्वशरोरः, सुदुरोत्क्षिप्त वैकक्ष्यताडितोर:- माला कवाट:, सोपस्थूलनिःश्वासतरलित वक्षःस्थलः संधुक्षयन्निव हृदयगतरोषाशुशुक्षणिम्, अतिमात्रगात्रभञ्जन त्रुटितोरः स्थलहारविनिर्गलदविरल मुक्ताफलप्रकरेण प्रयच्छन्निव समरदेवतायै प्रसू
१२२
शाखासु बद्धक श्रद्धहस्ताः प्रलम्बिता इव दीर्घीकृता इवानुकम्प्यमानाः प्रग्लानवदनैः निश्रीक मुम्बैः सूचितः प्रकटितोऽन्तः शोकमाम्मारी हृदयस्थितशोकसमूहो मैस्ते, प्रजृम्भमाणोत्थितेन विस्तृतोत्थितेन १० स्थूलसिराजालेन स्थूलनाडीनिनयेन जटिलितं वपुर्येषां ते प्रकाममत्यन्तं विवृतानि व्यात्तानि यान्यास्यानि सुखानि तेभ्यः शरद् यालाजलं तस्यापदेशेन व्याजेन पोतमपि पयःपूरं जलप्रवाहम्, अमन्दस्वान्तसंतापात् प्रचुरचित संतापाद उद्वमन्त उन्निरन्त इव जुगुप्स्यमाना जुगुप्साविषयीभूताः ।
१. तथेति तस्मिन् प्रतीहारे तथा पूर्वोक्तप्रकारेण शंसत्व कथयत्येव सति, पूर्व न श्रुतमि श्रुतपूर्वं तेनानाकर्णित पूर्वेण श्रवणयोः कटुकं श्रवणकटुकं तस्य वचनं तद्वचनं श्रवणकटुकं यशद्वचनं तेन १५ धरणीपतिः काष्टाङ्गारः फणामण्डलप्रहारेण भोगचक्रवाल कुट्टनेन फणिपतिरिव नागेन्द्र इव प्रज्वलितः कोपाशिर्यस्य स वृद्धोधानलः, सत्वरं सव्यमुत्रमितं पूर्वशरीरं येन सः, सुदूरोत्क्षिप्तेन चैकक्ष्येण मालाविशेषेण ताडित उरःकवाटो वक्षःकपाटो यस्य सः, 'प्रालम्बभृजुलम्बि स्यात्कण्ठाद्वैकक्षिकं तु तत् । तिर्यक क्षिप्तमुरसि इत्यमरः सोध्मणा सौष्ण्येन स्थूलनिश्वासेन दीर्घश्वासेन तरलितं चञ्चलं वक्षःस्थल यस्य सः, रोष एवाशुशुणिरिति रोषाशुशुक्षणिः हृदयगतश्रासौ रोषाशुशुक्षणिश्चेति हृदयगतशेषाशुशुafred हृदयस्थितकोपानलं संधुक्षयशिव प्रज्वलयन्निव अतिमात्रमत्यधिकं गात्रभञ्जनेन शरीरमञ्जनेन त्रुटितः खण्डितोय उरःस्थलहारस्तस्माद्विनिर्गल संपतन् योऽविरल मुक्ताफलप्रकरो निरन्तर मौकिकसमूहस्तेन समरदेवतार्थं रणदेव्यै प्रसूनाञ्जलिं पुष्पाञ्जलिं प्रयच्छवि प्रदददिव, ललाटे निटिलतटे घटिता
२.०
और उससे उनके शरीर अत्यन्त क्षीण जान पड़ते हैं, 'कहीं ये जाकर दूसरोंको खबर न कर दें इस भयसे भीत भीलोंने कितने ही ग्वालोके हाथ वृक्षोंकी शाखाओं में बाँधकर उन्हें २५ नीचे लटका दिया था और इस कारण वे अत्यन्त दया के पात्र जान पड़ते हैं। उनके मुर झाये हुए मुखोंसे अन्तःकरण में स्थित शोकका समूह सूचित हो रहा है। बढ़ती एवं उभरी हुई मोटी नसके समूह से उनके शरीर व्याप्त हैं तथा अत्यन्त खुले हुए मुम्बसे झरनेवाली लाररूपी जलके बहाने वे अत्यधिक हार्दिक सन्तापसे पहले पिये हुए भी जलके समूहको उगलते हुए के समान ग्लानिके पात्र है ।
३०
७१. द्वारपालके ऐसा कहते हो उसके अश्रुतपूर्व कर्णकटुक वचनोंसे काष्टाङ्गारकी क्रोधामि उस तरह प्रज्वलित हो गयी जिस तरह कि फनपर प्रहार करनेसे नागराजकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठती हूँ । उसने अपने शरीरका पूर्व भाग बड़ी शीघ्रतासे ऊपर की ओर उठा लिया अर्थात् वह तनकर बैठ गया। बहुत दूर तक उठी हुई निरही मालाओंसे उसका किवाड़ के समान चौड़ा वक्षःस्थल ताड़ित होने लगा, गर्म और मोटी श्वासोंसे उसका वक्षःस्थल चंचल हो उठा और उससे वह हृदयमें स्थित क्रोधरूपी अग्निको धौंकते हुएके समान जान पड़ने लगा । बहुत भारी अंगड़ाई लेनेसे टूटे हुए वक्षःस्थलके हारसे गिरनेवाले लगातार मोतियो के समूह से वह ऐसा जान पड़ने लगा मानो युद्ध के देवताके लिए पुष्पाञ्जलि ही दे
३५
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or
- गोहरणवृत्तान्स: ]
द्वितीयां लम्भः
नाञ्जलिम् ललाटघटित भयावह भ्रुकुटिश्चापमिव स्वयं समराय दधत् तीक्ष्णनिपातेन निरीक्षणपुङ्खना पुरीस्थित पुलिन्दसंदेहादिव प्रहितेन वित्रस्तपरिजनेन परिहृतपुरोभागः, प्रसर्पतः परितः प्रचुरपलांहितलोचनरोत्रियो मध्यमध्यासीनः क्षोत्रक्षोदीयां रचितनिजप्रतापक्ष यमक्षमः सोहमनी निमग्न इव लक्ष्यमाणः, श्रमजलविन्दुदन्तुरारीरयष्टिरन्तस्तापशमनाय स्नातोत्थित इव भासमान: शगादतिपरिचितरपि पार्श्वचरैस्तदानीमन्य इवामन्यत । नातिविराच्च नतिता- ५ धरपल्लवनियांताकिरणव्याजेन प्रजानुरागमिव प्रदर्शयन् 'प्रहीयतां तत्र दण्ड : ' इति भाविभित्र पिशुनानिपतनदायिना धारतरेण स्वरेणादिस्य गोविदल्लं प्राहिणोत् ।
។
१२३
भयावहा कुटियन सः अत एव समराय युद्धाय स्वयं चापं धनुदिव तीक्ष्णनिपातन निशितनिपातन वामनाधिक्यात पुरोऽवस्थिता अग्रे विद्यमाना ये पुलिन्दाः शयरास्तेषां सन्देहादिव प्रहितन प्रेरितन निरीक्षणापाणन वित्रस्तां विभातीय परिजनस्वेद परिहृतस्त्यकः पुरोभागी यस्य सः परितः १० समन्तात् प्रसर्पतः प्रसरतः प्रचुरपेण तीवकांचे लोहितयो रक्तयोर्लोचनयो यद् विस्तस्य मध्यम् अध्यासीनोऽविष्टित अत एव यदीयमिततर रचितो विहितो यो निजप्रतापक्षयः स्वकीय तेजोऽपकर्षस्तं संातुम् अक्षमोऽसमर्थः सन् अग्नी वहाँ निमग्न इव तन्मध्यस्थित इव लक्ष्यमाणां दृश्यमानः, श्रम जलविन्दुमिः स्वकणिकाभिईन्तुरा व्याप्ता शरीरयष्टिर्यस्य सः अत एवं अन्तस्तापशमनाय मनस्ताप - विध्यापनाय आदी स्नातः पश्वादुस्थित दाँत स्वानोथित इव भासमानः प्रतीयमानः, क्षणादलांनैव कालेन १५ अतिपरचितैरपि पार्श्वचरः समीपस्थायिभिर्जनैः तदानीं तस्मिन् समयेऽन्य इव भिन्न इवामन्यत । क्षणादेव धरणापतिः क्रोधाद्विकृतवेषोऽभूद्येन परिचिता अपि तं नो परिचिक्युरिति भावः । नातिभिराञ्च क्षिप्रमेव च नर्तितः क्रोधेन प्रस्फुरितो योऽधरपल्लो दशनच्छद किसलयस्तस्मान्निर्याता निर्गता येऽरुणकिरणा रक्कमयू वास्तेषां व्याजेन प्रजानुरागं जनतास्नेह प्रदर्शयति प्रकश्यभित्र 'तत्र कान्तारे दण्डः सैन्यं ग्रहीयताम् प्रप्यताम् इतीत्थं भाविपरिभवस्य पिशुनं सूचकं यदशनिपतनं वज्रपतनं तस्य संदेहं ददातीत्येवं २० शीलं तेन धीरतरंण उच्चैस्तरेण स्वरेण आदिश्य आशय सौविदलं प्रतीहारं प्राहिणोत् प्रजिघाय !
१. ० ० ० लक्ष्यमाणः ।
रहा हो। उसके ललाटपर भयंकर भौंह उठ खड़ी हुई और उससे वह ऐसा जान पड़ने लगा मानो युद्ध के लिए स्वयं धनुष ही धारण कर रहा हो। 'सामने मील खड़े हैं.' इस संदेह से ही मानो उसने अपने नेत्ररूपी पैने बाण आगे चलाये थे और उससे भयभीत होकर ही सेवकजनीने उसके आगेका स्थान छोड़ दिया था - सेवक भयभीत होकर इधर-उधर २५ भाग गये | वह सब और फैलनेवाली तोत्र क्रोधसे लाल नेत्रोंकी किरणोंके बीच में बैठा था और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानों पागल एवं क्षुद्र जनों के द्वारा किये हुए अपने प्रताप के क्षयको सहने के लिए असमर्थ होता हुआ अग्निके मध्य में ही निमग्न हो गया हो । पसीनाकी बूँद से उसका शरीर व्याप्त हो रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो अन्तःकरण के नापको सान्त करने के लिए स्नान करके ही उठा हो । और अत्यन्त परिचित सेवकों द्वारा भी ३० वह उस समय क्षण-भर में अन्यका अन्य माना जाने लगा । उनने शीघ्र ही नाचते हुएक्रोधातिरेक से हिलते हुए अधररूप पल्लवसे निकली लाल-लाल किरणांके बहाने प्रजाके अनुरागको प्रकट करते हुए के समान 'वहाँ शीघ्र ही सेना भेजी जाये', इस प्रकार होनहार पराजय के सूचक वज्रपात के संदेहको देनेवाले अत्यन्त गम्भीर स्वरसे आज्ञा देकर द्वारपालको वापस भेजा ।
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गद्यचिन्तामणिः [७२-७३ सैन्यप्रयाणम् – ७२. प्रतिलब्धप्राणेनेत्र भौतिकम्पितवपुषा प्रस्खलद्वचसा त्वरिततरमुपसरता दौवारिकेण निवेदितकाष्ठाङ्गारनिदेशेश्चमूपतिभिश्चोदिता चमूश्चटुलतरचरणन्यासभारेण निबिडोच्छितनिशितकुन्ताग्रेण परित प्रसर्पदसिमुखेन च नमयन्ती भुवमुन्नमयन्तो दिवं विस्तारयन्ती च दिशं प्रतस्थे ।
3. प्रस्थाय च प्रसभं प्रयान्ती च वाहिनी गोधनावस्कन्दितस्करांस्तिरोधायोपसृत्य ग्रहोतुमिव सरसरतुर सुरशिखरोस्थितपरागपटलपटेन कृतावगुण्ठनासीत् । निरयासोच्च पुरः पुलिन्देभ्यः प्रकटयितुमिवास्याः कापटिकवृत्ति निजितपर्जन्यगजित गाम्भीर्यः कलकलध्वनिः । तदुपदेशवविदितवृत्तान्तस्य शबरसैन्यस्य संनाहः संभविष्यतीत्याशङ्कया शुभेतरपिशुनशकुनसमुदी
६७२. प्रतिलब्धेति-प्रतिलब्धाः प्राणा यस्य तेनेव, भीत्या कम्पित बपुर्यस्य तेन, प्रस्खलन्ति १० वांसि यस्य सेन, स्वस्तितरं शीघ्रतरमुपसरता दौवा रिकेण प्रतीहारेण निवेदितः सूचितः काष्टाङ्गारस्य
निदेशो येभ्यस्तैः चम्पतिमिः सेनापतिमिश्वोदिताः प्रेरिता चमूः पृतना चटुलतराणामतिचपलानां चरणानां न्यासस्य निक्षेपस्य भारस्तेन निविई सघनं यथा स्यात्तथोच्छुिता उत्थापिता य निशितकुन्तास्तीक्ष्णप्रासास्तेषामनेण परितः समन्तात् प्रसर्पन्तो येऽसयः कृपाणास्तेषां मुखेन च (क्रमशः) भुवं पृथिवीं नमयन्ती
दिवं गगनम् उसमयन्ती समुत्थापयन्ती दिशं काष्टां विस्तारयन्ती च प्रतस्थे चचाल । १५ ६७३. प्रस्थायेति-प्रस्थाय च प्रसभं हा प्रयान्ती पुगच्छन्ती च वाहिनी सेना गाव एवं
धनं गोधनं तस्यावस्कन्दिनोऽपहारका ये तस्साचोरास्तान् तिरोधायान्तर्धाय तरूपति यावत् उपसृत्य समीपं गत्वा ग्रहीतुमिव खरतरास्ताक्षणतरा ये तुरगखरा हयशफास्तेषां शिखरणाप्रभागेनोस्थितो यः परागटलो धूलिसमूहः स एव पटस्तेन कृतमवगुण्डनं यया तथाभूता आसीत् । निरयासीञ्च–निरयासोच्च
निरगमच पुरोऽग्ने पुलिन्देभ्यः शबरेभ्यः 'भेदाः किरातशबरपुलिन्दाम्लेच्छजातयः' इत्यमरः, अस्याः सेनायाः २० कापटिकवृत्तिं मायावितां प्रदयितुमिब निजिंतं पराभूतं पर्जन्यगर्जितस्य मघवनेर्गाम्भीर्य येन तथाभूतः
कलकलध्वनिः कलकलशब्दः। तदुपदेशवशेन विदितो विज्ञातो वृत्तान्तो यस्य तथाभूतस्य शबरसैन्यस्य पुलिन्द्रपृतनायाः संनाहो युद्ध संभविष्यतीति आशङ्कया संभावनया शुभेतरपिशुनानि अमङ्गलसूचकानि यानि शकुनानि तैः समुदारितो यो भाविपरिभवस्तस्य भीत्या भयेन च 'शकुनं मङ्गलाशखि निमित्ते शकुनः
६७२. वापस आनेपर द्वारपालको ऐसा लगा मानो प्राण पुनः प्राप्त हुए हों। भयसे २५ उसका शगर काँप रहा था और वचन स्खलित हो रहे थे। उसने बड़ी शीघ्रतासे पास जाकर
सेनापतियों को काष्ठाङ्गारका आदेश सुनाया। तदनन्तर सेनापतियोंसे प्रेरित सेना, अत्यन्त . चञ्चल चरगोंके रखने के भारसे, सघनताके साथ ऊपर उठाये हुए तीक्ष्ण भालोंके अग्रभागसे
और सय र लपकनी हुई तलवारोंके अग्रभागसे पृथिवीको नीचे झुकाती, आकाशको ऊँचा उठाती और दिशाओंको विस्तृत करती हुई चल पड़ी।
७३. प्रस्थान कर हठपूर्वक जाती हुई वह सेना घोड़ोंकी पैनी टापोंके अग्रभागसे उठी धूलिके समूहरूप वस्त्रसे ऐसी जान पड़ती थी मानो गोधनपर आक्रमण करनेवाले चोरोंको छिपे छिपे पास जाकर पकड़ने के लिए उसने घूघट ही निकाल रखा हो। सामने भीलोंसे मेघ गर्जनाके गाम्भीर्यको जीतनेवाला कलकल शब्द निकलने लगा सो उससे ऐसा
जान पड़ता था मानो काष्ठाङ्गारकी इस सेनाकी कपट वृत्तिको प्रकट करने के लिए ही कलकल ३५ शब्द निकल रहा हो। 'उसके उपदेशसे समाचार ज्ञात कर भीलोंकी सेनामें युद्धकी तैयारी हो जायेगी' इस आशङ्कासे और अशुभकी सूचना देनेवाले शकुनोंके द्वारा कथित भावी पराभव के
१. क.. त्वरितमुपसरता।
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- समरवृत्तान्तश्च] द्वितीयो लम्भः
१२५ रितभाविपरिभवभीत्या च वरूथिनी रथकटयावलन वशजनितचीत्काररवेण करिकरटतटनियन्मदधारामस्नपिनस्थलिका प्रतिकूलवातकम्पितध्वजभुजलतरताडितकेतुयष्टिवक्षःस्थल प्रदेशा भृशमिरोहीन
७४. तत क्षणादेवाभ्येत्य काहाङ्गारचमूः काकपङ्क्तिः शृगालमिव स्वीकृतामिषमपहनगोपन व्याधमार्थ म्गेध । तदवलोकनजातक्रुधश्चमरवालरोमरचितरज्जूग्रथितके शपाशाः ५ ग.विपिन गनिन मगन मामा व्याघ्र ननिर्मिता|रुका, वराटिकाभरणभूषितवपुषः परिगृहीत. पादुका: ममागपितकामंकाः एमालाभ्यर्थितचण्डिकाः कण्ठदनपोतमधुमदलालसाः, शबरीजन
ग्या' इति विमलोचन:, बरथिना गंना स्थानां समूहो रथकल्या 'खलगीरथात्' इत्याधिकारे 'इनिनकट्याचश्च' इत्यनेन समूहाथ कानप्रत्ययः, तम्य चलनवर्शन समरणशंन जनित: समुम्पनो यश्चीत्काररवोऽनुकरणशब्दविशेषस्तन करिणां गजानां कस्टनटेभ्यो गण्डस्थलती रंभ्या नियन्सी निर्गच्छता या भदधारा सैवास्राणि ? अश्रणित: स्नपिता स्थली वनमिया सा 'अनः कणेक सि क्लीवमणि शोणिते' इति मंदिनी । प्रतिकूलवातेन विरुद्धवायुना कम्पिता पिता ये ध्वजाः कंतवस्त एव भुजलता बाहुबल्लयस्तामिस्ताडिताः कंतुयष्टयः पताकादण्डा एव वक्षःस्थल प्रदेशा यया तथाभूसा सती भृशमत्यर्थम् अरोदीदिव चक्रन्देव ।
४. तन इतेि. ततस्तदनन्तरं क्षणादेव अभ्येत्य सम्मुखमागत्य काष्टाङ्गारचमूः काकरितायसणिः स्वीकृतामिपं गृहीतमांस शृगालमिय गोमायुमिच, अपहृतं गोधनं येन सं मुषितधेनुधनं व्याध- १ सार्थ शबरसमूह रोध । तस्याः काष्टाङ्गारचम्बा अवलोकनेन जातकुधः समुत्पझकोपाः, चमराणां मृगविशेषाणां बालरोमभिः केशलोमी रचित रज्जुभिरुइथिता. केशपाशा येषां ते, केकिपिच्छैमयूरपिच्छरारचिता भण्डमाला शिरःला जो येस्ते, व्याघ्रचर्मभिनिमितान्यरकाणि-अधोवस्त्राणि येषां ते, पराटिकानां कादिकानामाभरणभूपितानि वपूंकि येषां ते, परिगृहीताः पादुका उपानहो यैस्ते, समारोपित्तानि समस्यचौफनानि कामुकाणि धषि येषां तं, भादौ पुरस्कृता उपहारैः पूजिता पश्चादभ्यथिता याचिता चण्डी २ यस, काठन कपठप्रमाणं पीत यन्मधु मयं तस्य मदे मोहे लालसा वान्छा येषां ते, शबरीजनैमिली
भयसे वह सना, रथसमूह के चलनेसे उत्पन्न चीत्कार शब्दके द्वारा मानो अत्यधिक रोही। रही थी। हाथियों के गण्डस्थलसे निकालनेवाली मदकी धारा रूप आँसुओंसे उसने आस-पासकी भूमिको आनन्दादिम कर लिया था और प्रतिकूल वायुके द्वारा कम्पित भुजलताके द्वारा वह पनाकादशहा या घनःस्थल के प्रदेशका नाड़ित कर रही थी।
६७. नानान्तर क्षण-भर में सामने जाकर काष्ठाङ्गारकी सेनाने गोधनको अपहृत करनेवाले भीगक म मृहका उस प्रकार रोक लिया जिस प्रकार कि कौओंकी पंक्ति मांसकी डली रखनेवाल सियारका रोक लेती है । तत्पश्चात् सेनाके देखनेसे जिन्हें क्रोध उत्पन्न हो रहा था चमरी गायके बालरूपा मांस निमित रसीसे जिन्होंने बालोंका जटा ऊपरकी आर बाँध रखा था, जिनके मम्न कोही मालाएँ मथरके पिच्छसे निर्मित थीं, जिनके अधोवस्त्र व्याघ्रके चमड़े में बनाये गये थे, जिनके शरीर कौड़ियोंके आभूषणोंसे सुशोभित थे, जिन्होंने पैरोंमें चप्पल पहन रख श्रे. धनुष चढ़ा रखे थे, चण्डी देवोको भेंट देकर इष्ट वस्तुकी प्रार्थना कर रखी थी, कण्टपर्यन्त पिये हुए मधुके नशामें जिनकी लालसा बढ़ रही थीजो कण्ठपर्यन्त मदिरा पीकर उसके नशाकी प्रतीक्षा कर रहे थे, मिल्लियोंने जिन्हें आशीर्वाद
३
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..- ---. १.म० धारासपिहितस्यालपड़ा।
w
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१२६ गद्यचिन्तामणिः
[७५ समर - प्रयुक्ताशिषः प्राप्तानुगुणनिमितप्रशंसिनः प्रकामव्यात्तास्यभीषणभाषणस्वनस्त्यानडिण्डिमशृङ्गरवप्रकटितप्रस्थानाः काष्ठाङ्गारबलमपरकाष्ठागतदिनकरमिव तिमिरनिकराः प्रतिगृह्य शिततरभल्लै: फुलरिव पुलिन्दाः मरदेवतामाराधयितुमारेभिरे।
७१. अथ सुभटनटनाटयितव्यरणनाट्यरङ्गपटहपटुतररटितसदृक्षपक्षद्वयतुमुलसमाहूत५ विलोकनकौतूहलिनि लिर्दयाकृष्टिप्रभववेपथुसहनाक्षमधनुराक्रन्दितानुकारिभीषणज्याघोषणश्नवण
मात्रवरतमृगयथसन्ब्रह्मचारिभटब्रुवमृग्यमाणप्रयाणाध्वनि ज्याकर्षणवलभावितश्रवणमूलाभ्यागमसंपादितसंदेशहरसंद हृदयभेदनचतुरशरनिवहविहितंगमागमे मुषितजीवितसायकगवेषणमनीषा
जनैः प्रयुना आशय यस्त, प्राप्तानि यानि अनुगुणनिमित्तानि अनुकूल शकुनानि तानि प्रशंसन्नात्यवंशीलाः,
प्रकाममत्यन्तं व्यासानि विघटितानि यान्यास्यानि सुत्रानि तैीषणं भयङ्करं यद् भाषणं वार्तालापस्तस्य १. स्वनः बस्तस्य त्यानं तिइनिः, 'स्त्यानं लोम्नि प्रतिश्रुत्याम्' इति विश्वलोचनः, डिण्डिमा वाद्यविशेषाः शृङ्गरवाः शृङ्गशब्दा एषां सवांद्वन्दः तैः प्रकटितं सूचित्तं प्रस्थानं येषां ते, 'वाद्यप्रभेदा डमरु
पडमझइराः' इत्यमरः, पुलिन्दाः शबराः अपरकाष्ठागतदिनकरपश्चिमदिस्थितस्यं तिमिरनिकरा हव ध्वान्तसमूहा इव काष्टाहास्बलं कृतम्नसैन्यं प्रतिगृह्य संहध्य फुल्लैरिव कुसुमैरिव शिततरमललस्ताक्षणतरकुन्तैः समरदेवमा युद्धदेवताम् आराययितुं सेविनुम् आरंभिरं प्रारधवन्तः ।
६७५. अथेति-मातरम् , कोशे मुहीये यु मिति केशाकेशि तस्य भावस्तत्ता तया युद्धे रणे पति यति इनि संयन्त्रः। अथ युद्धस्य विशेषणान्याह-सुभदेति-सुभटा योद्धार एव नाः शैलूषास्तैनायितरं यद रशनाटयं सुद्धनाटयं तस्य रङ्गापटहाना रङ्गभूमिवाद्यानां यत् पटुतररटतं तीव्रतरशब्दस्तस्य सहशं समानं यरपक्षप्रस्य सैन्य युगलस्य तुमुलं रणसंघटस्तेन समाहूता आकारिता विलोकन
कौतूहलिनो र्शनकुमुक्रिनो अस्मिन् तस्मिन् , नियेति-निर्दयं निष्करुणमत्यम्तमिति यावत् यथा स्यात्तथा २० या कृष्टिस्तान्प्रभवस्तत्समुत्पन्नो यो वेपथुः कम्पनं तस्य सहनेऽक्षमागि असमर्थानि यानि धनधि चापास्तेषा
माक्रन्दितानुसारि रोदनध्वनिकरुपं यद् भीषणं भयावह ज्याघोषणं प्रत्यञ्चाशब्दस्तस्य श्रवणमात्रेण जस्ता मीता मृगयूसमाचारिण: कुरङ्गगणसदृशा भटवाः कातरयोद्वारस्तमृग्यमाणमन्विष्यमाणं प्रयाणाध्व पलायनमागों यस्मिन् तस्मिन् , उपाकर्षणेति-ज्याकर्षणस्य मौर्याकर्षणस्य बलेम शक्त्या मावितः प्रापितो
यः श्रवणमूलाभ्यागमः कर्णमूलागमस्तेन संपादितो विहिती संदेशहरसंद हो दूतविचिकित्सा येस्तथाभूता २५ हृदयभंदन चतुरा ये शरा बाणासोषां नियहन समूहंन विहितो गमागमो यस्मिन् तस्मिन् , मुपितति
दिया था, जो प्राप्त हुए अनुकूल निमित्तोंको प्रशंसा कर रहे थे और अत्यधिक खुले हुए मुखके भयंकर भाषणरूप शब्दर वृद्धिगन-जोरदार शबद करनेवाले डिण्डिम और सींगों के शब्दसे जिनका प्रस्थान सूचिन हो रहा था ऐस भील पश्चिम दिशामें स्थित सूर्यको अन्धकार के
समूह के समान रोककर फूलों की तरह सुझाभित अत्यन्त भालोंसे युद्धदेवनाकी आराधना ३० करने लगे।
६७५. अथानन्तर योद्धरूपी नटोंके द्वारा खेलने योग्य युद्ध रूपी नाटककी रङ्गभूमिमें बजने वाले नगाड़ा जोरदार झधके सदृश दोनों पक्ष के कलकल नादसे जिसमें देखने के कुतूहली मनुन्य दुलाये गये थे, निदयतापूर्वक खींचनेसे उत्पन्न कम्पनको सहन करने में
असमर्थ धनुपकी चिल्लाहटका अनुकरण करनेवाले डोरीके भयंकर शब्दके सुनने मांत्रसे ३५ भयभीत भृगांके इण्डके समान कायर लोगोंके द्वारा जिसमें भागनेका मार्ग खोजा जा रहा
था, डोरीके खींचनेक बलसे युक्त तथा कानोंके मूल तक आगमनसे सन्देशहर-दृताका सन्देह उत्पन्न करनेवाले मायके भेदने में चतुर पाणोंके समूह जिसमें यातायात कर रहे थे, प्राणा
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-वृत्तान्तः ।
द्वितीयो लम्भः
१२०
च्छलानुपत-पातिप्रचय प्रज्छादितावनुषि प्रावतलहननसंधाभिपतदुपरत करधृतकरवालदारितप्रत्यथिनि पापतररोपदष्टोतमुखरीक्ष्यवीक्षण भयापक्रामत्क्रव्यादि पर्यायप्रवृत्तोभयबलविजयपोहपिता से करिघटा टनस्फुटित मुक्ताफलतुलितास्तोकश्रमजलकलितहस्तवति भूरिति रीफालतयथावस्थिनवाई जनि, शिलीमुखविद्धमुखविनिर्षदविरलधिरधारापुनरुक्तसिन्दूरितद्विरदवपुषि नहनियन्तनात गोपनीतग्थहरालोलुपप्रतिबलकलकलरवमनोहारिणि काकपेयशोणितापगा- ५ प्रवाहपमितरण यि , भिवानमनपरसभरवताभिमुख प्रतियितदेशो यशरशयनशायियोधके यानं केगाणितया प्रमजति, तहणायाम् 'स्वदेशगत: शशः कृजरातिमाया' इति किंवदन्ती
मुचितमपहात अंयितं अस्तथाभृतः ये मायका बाणा तपां गवेषणस्यान्वेषणम्य या भनीषा बुद्धि स्तरमाआलेमानुएनन्माउनुगच्छन्ती ये पदात यो मृन्यास्नेपा नचयन समूहन प्रमादिना हवभृद्धभूमिप्रस्मिन् सम्मिन प्राकने--प्रामा पूर्वप्रतिनी या हननसम्धा मारणाभिप्रायस्तनाभिपतनिःसंमुखमागच्छद्भिः १० उपरतफरतकस्वालमृतहस्तशृतकृपाणेदारिताः स्वण्डिताः प्रत्याधिनो रिपबो यस्मिन् तस्मिन् , परुपतरेतिपरपकरण तीव्रतरंग रोगन नष्ट ओष्ठोऽसी यस्मिन् तथाभूतं यत् प्रेतमुखं मृतवदनं तस्य रक्ष्यस्य
क्षमवलोकनं तस्य मयनापामतः व्यादी मांसभोजिनो यस्मिम् तस्मिन् , पर्यायेति -पर्यायेण क्रमेण प्रवृत्तो जातो य उभयबलस्य विजयस्तस्य घोपेण हर्षिता पहारो यस्मिन् तस्मिन् 'नयतत्र' इति कप , कनिकरिघटाया गजसमृहस्य पाटनेन विदारणेन स्फुटितानि प्रकटितानि यानि मुक्ताफलानि १५ मौक्तिकानि तैस्तुलितानि यानि अस्तोकश्रमजलानि भूरिस्वेदजलबिन्दवस्तैः कलिला युक्ता हस्तवन्तः कुशल जना यस्मिन् मस्मिन् , भूरितिरी फलैः कविकारूपका कता अत एवाय स्थिता एकत्रस्थिता वाजिनी हया यस्मिन् सम्मिन , शिलीमुखेति-शिलीमाविद्धभ्यो मुरली बिनियन्ती या बिरलरुधिरधारा तथा पुनरुतं यथा स्यात्तथा सिन्दुरितानि द्विरदवषि गजशरीराणि यस्मिन् तस्मिन् , निहतेति--निहतो गृतो नियन्ता सारथिर्यष तथाभूतैस्तुरगैरुपनीयमानी यो ग्थस्तस्य हरणे स्वसास्करणे लोलुप टपटं यत्न- २० तिबलं शत्रुसैन्यं तस्य कलरवेण कलकलशब्देन मनो हरतीत्येवं शीलं तम्मिन , काकपेयेति-काकपेया गभीरा याः शोणितापगा रुधिरमद्यस्तासा प्रचाहेण प्रशमितं रणरजी यस्मिन सस्मिन , परिभवेतिपरिभवस्य तिरस्कारस्य निरसने दूरीकरण परं तत्परं यत्समरदैवतं युद्धदेवता तस्याभिमुखं पुरस्तात प्रतिपहारी वाणोंक खोजनेकी बुद्धिसे छलपूर्वक इधर-उधर चलनेवाले सरकांक समूहस जिसमें युद्धकी भूमि आच्छादित हो रही थी, मारने के पूर्ववर्ती अभिप्रायसे सामने आनेवाले मृत २५ मनुष्य के हाथ में स्थित तलवारसे जिस में शत्रु विदीर्ण हो रहे थे, अत्यधिक तीक्ष्ण क्रोधसे ओठको उसनेवाले मृत मनुष्य के मुखकी रूक्षताके देखने के भयसे जिस में मांसभोजी जीव भाग रहे थे । क्रम-क्रमसे प्रवृत्त दोनों पक्षकी विजय घोषणासे जिसमें प्रहार करनेवाले हर्षित हो रहे हाथोंका कौशल दिखाने वाले मनुष्य हस्तियों के समूह अथवा उनके गण्डस्थलों के चीरने से निकले हुए मोतियोंके समान अत्यधिक पसीनासे युक्त थे, लगामरूप काँटोके ३० पकड़नेस जहाँ बहुत भारी घोड़े यथास्थान स्थित थे, बाणों के द्वारा बायल मुखस निकलती हुई मधिरकी अविरल धारासे जिसमें हाथियोंके सिन्दूरसे रंगे झर्ग:र. पुनरुक्त है। रहे थे. सारथिर हित घोड़ों के द्वारा लाये हुए रथोंके छीननेके लोभी झनुसेनाकी कलकल ध्वनिसे जा मनोहर था, कौओंके द्वारा पाने के योग्य खूनकी अगाध नदियोंसे जहाँ युद्ध की धूलि शान्त हो गयी थी, और जहाँ बाण-शय्यापर शयन करनेवाले योगा पराभव के दूर करने में समर्थ युद्ध- ३५
१. तरीफलं कण्टकम् इति टिप्पणी । २. के० ख० ग० 'वि' नास्ति ।
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गद्यचिन्तामणिः
[७६- विजयीसैन्य -- यथार्धा कर्तुमिच्छया वा तुच्छेतरजीवककुमारपराक्रमविषयस्य भावितया वा नाफलबलनिष्ठुरहुंकारभीतः काष्ठाङ्गारदाहिनीनिवहस्तिमिरपरिभूतः पश्चिमदिगङ्गनासंगतपतङ्ग इव प्रतापपराङ्मुखः प्रतिसंहृतकरव्यापृतिरपसर्तुमारभत ।
5७३. अथ गोधनेन समं यशोधनमपि व्याधेभ्यो विधाय निलयं निजनारीनयनाभिराभं ५ तिरीफल मूरोवृत्य प्रतिनिवृत्य यथेष्टं काष्टाङ्गारचमूढतरकरमुष्टिव्याजेन वनचर भीत्या प्रयाणाभिमुखान्प्राणानिव पाणौ कुर्वती प्रविधूतमानभरतया लब्धलङ्घनलाघवेव सत्वरं धावन्ती तपस्येब
शयितदेशीयाः कृतशयनकरपा: शरशयनशायिनो बाणशय्याशायिनो योधा यस्मिन् तस्मिन् । तदृशायां तवस्थायां 'स्वदेशगतः स्वस्थानस्थितः शशः कुञ्जरातिशायी गजानां परामत्रिता भवति' इति किंवदन्ती जनश्रुति यथार्थी सार्थको कर्तुं विधातुमिच्छया वा तुच्छेतरो विपुलो यो जीवककुमारस्य पराक्रमस्तस्य विषयस्य भावितया वा भवितव्यतया वा, नागरबलस्य किरातसैन्यस्य निष्ठुरहदारण भीतस्त्रस्त: काष्ठाहारवाहिनीनिवहः काष्टाङ्गारसेनासमूहः तिमिरेण ध्वान्तेन परिभूतस्तिरस्कृतः पश्चिम दिगनासंगत. पता इव पश्चिमकाष्ठाकामिनीसंगतदिनकर इव प्रतापात् प्रकृष्टधर्मात पक्षे प्रचुरतेजसः परामुखो विमुखः सन प्रतिसंहता संकोचिता करण्यापृतिः किरणब्यापारः पक्षे हस्तचेष्टा येन तथाभूतः सन् अपसर्तु पलायितुम् प्रारभत तत्पराभून ।
६७६. अथ गोधनेनेति-अथानन्तरं गोधनेन समं साधं यशोधनमपि कीर्तिवित्तमपि व्याधेभ्यो नाफलेभ्यो विधाय कृत्वा दरवेति यावत् निष्क्रय मूल्यरूपं निजनारीनयनामिरामं स्वयल्लमालोचनवल्लभ यथा स्यात्तथा तिरीफलम् कविकारूपं कण्टकम् ऊरीकृत्याङ्गीकृत्य अश्वान् स्यात्वा कविकामात्रमादाय प्रतिनियंति भावः प्रतिनिवृत्य प्रस्थागत्य यथेष्टं यथेच्छं काष्ठाङ्गारवमूः काष्ठामारसेना इतरा अतिशयन डहा याः करमुष्टयस्तासां व्याजेन छलेन वनचरमीत्या भिल्लभयेन प्रयाणाभिमुखान् पलायनो. घतान् प्राणान् पाणी कुवतीच हस्ते धृतवतीव, प्रविधूतो मानमरी यस्यास्तस्या मावस्तत्ता तया लब्धं प्राप्त लानेऽतिक्रमणे लाव क्षिप्तवं येन तथामतेव सत्वरं शीघ्र धावन्ती पलायमाना, कुपथगामिनी कुमार्ग
२०
देवताके सम्मुख सोते हुएके समान जान पड़ते थे ऐसा युद्ध जब केशाकशि रूपसे-एक-दूसरेके बालोंकी धर-पकड़से जारी था तब उस दशामें 'अपने स्थानपर स्थित खरगोश भी हाथीको पराजित कर देता है' इस लोकोक्तिको सार्थक करनेकी इच्छासे अथवा जीवन्धर कुमारका है, बहुत भारी पराक्रम प्रकट होनेवाला था इसलिए भीलोंकी सेनाके निष्ठुर हुंकारसे भयभीत
काष्ठाङ्गारकी सेनाको समूह, अन्धकारसे तिरस्कृत पश्चिम दिशारूपी स्त्रीसे संगत सूर्य के समान प्रतापसे विमुख और हाथों ( पक्षमें किरणों ) के व्यापारको संकुचित कर भागने लगा।
६७६. तदनन्तः काष्ठाङ्गारकी सेना गोधनके साथ-साथ यशरूप धनको भी भीलोंके . लिए देकर और उसके मूल्यस्वरूप अपनी खियोंके नेत्रोंको आनन्दित करते हुए केवल तिरीफल-लगामांको स्वीकार कर इच्छानुसार लौट आयो । वह सेना हाथोंकी अत्यन्त दृढ़ मुट्टियाँ बाँधकर आ रही थी इसलिए उनके बहाने ऐसी जान पड़ती थी मानो मीलोंके भयसे भागनेके सम्मुख प्राणोंको हाथमें ही रखे हो। मानका भार छूट चुका था इसलिए चलने में लघुता प्राप्त कर बड़ी शीधतासे दौड़ती आ रही थी। जिस प्रकार कुमार्गमें चलानेवाली तपस्या
१. कण्टक स्वीकृत्य, इति टिप्पणी ।
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77
- स्थापि निष्फलप्रत्यावर्तनम् ]
द्वितीयो कम्मः
कुपथगामिनी सामप्रयुक्तिरिव शठजनगोचरा परिश्रममात्रफला सतो स्वगृहानतिनिभृतमाससाद । प्रससार च राजपुर्यां राजबलचापल्यविषयः संलापः ।
१२९
६ ७७. ततः 'शबरप्रार्थितं पार्थिवबलमा घ्रातव्याघ्रगन्धमिव गोकुलममन्दावर्तमन्थेन दधीव मथ्यमानं शिथिलोबभूव' इत्यभिषङ्गविधुरेराभीरैरुदीरितमाकर्ण्य घोषवर्तिनि च महाघोष- परा परिपूरितरिति वेपथुभ रविह्वलकरतलताडितवक्षसि तारदारुण रोदनकर्षितानुधावत्तुकि वात्सल्या- ५ रिलप्रवत्समुखाकृष्यमाणनिज कुच निशामन पुनरुक्तशुच्यू धस्योत्सुक वत्स गलविगलदर्धग्रस्तस्वनश्रवणासहिष्णुता पिहितश्रवसि विवेकविकल बालोपलालन क्लेशताम्यहम्यदशा प्रेक्षणाक्षमताप्रच्छादितचक्षुषि
गामिनी तपस्येव प्रव्रज्येव, शज्जनगोचरा धूर्तजनप्रयुक्ता सामप्रयुक्तिरित्र सान्त्वनोयुतिरिव परिश्रममात्रं फलं यस्यास्तथाभूना खेदेकफला निष्फलेति यावत् सती भतिनिभृतमतिनिश्चलं यथा स्यात्तथा स्वग्रहान् स्वकीयनिकेतनानि आससाद प्राप । प्रससार च प्रसृतो अभूत्र च राजपुर्यां तामनगर्यां राजबलस्य राज- १० सैन्यस्य चापल्यं विषयो यस्य तथाभूतः संलापः ।
७७. तत इति - ततस्तदनन्तरं 'शबरप्रार्थितं भिल्लजनाभिगतं 'पार्थिवबलं राजसैन्यम्, आघातो नासाविषयीकृतं गोकुलमित्र घेऩसमूह हय अमन्द भावर्ती यस्य तथाभूतो यो मन्त्री मन्धनदण्डस्तेन मध्यमानं दधीत्र शिथिलीबभूव । इतीत्थम् भूभिषङ्गः, पराभवस्तेन विथुरा दुःखितास्तै: 'अभिषङ्गो न पुंलिङ्गः पराभवाक्रोशशपथेषु' इति मेदिनी, भाभीरैर्गोपालैः उदीरितं कथितमाकर्ण्य वा घोषवर्तिनि आमीर- १५ स्थायिनि च, गोपाल युवतिजने आभीरतरुणीजने गोकुलापायेन गोकुलस्य गोसमूहस्यापायो व्यपगमस्तेन पर्याकुलीभवति व्यग्रीमवति सति । अत्र गोपाल युवतिजनस्य विशेषणान्याह – महाघोषेण महाकोशध्वनिना परिपूरिता हरितो दिशो येन तस्मिम्, वेपधुभरेण कम्पनातिशयेन बिलानि चपलानि यानि करतलानि हस्ततलानि तैस्ताडितं वक्षो येन तस्मिन् तारं मन्द्रं दारुणं कठिनं च यद् रोदनं तेन कर्षिता अनुधावन्तः पश्चाद्धावन्तः तुक आरमजा यस्य तस्मिन् 'तुक् तोकं चात्मजः प्रजाः' इति धनंजयः, वात्सल्येन स्नेहातिशयेन २० आश्लिष्टान्यालिङ्गितानि यानि वत्समुखानि गोतर्णकवदनानि तैराकृष्यमाणा दुग्धपानेच्छया मुखेन ध्रियमाण ये निजकुचाः स्वकीयस्तनास्तेषां निशामेन समवलोकनेन पुनरक्का शुक् शोको यस्य तस्मिन् ऊधस्थे पयसि जस्सुका उत्कण्ठिता ये वत्सा गोरार्णकास्तेषां गलेभ्यः कण्ठेभ्यो विगलन् निःसरन् योऽधं प्रस्तस्वनो मन्दस्वनस्तस्य श्रवणस्यासहिष्णुता असामर्थ्यं तेन पिहिते आच्छादिते श्रवसो यस्य तस्मिन् विवेकविकला
और धूर्त जनोंके साथ की गयी शान्तिकी योजना परिश्रममात्र फलसे युक्त होती है— निष्फल २५ रहती है उसी प्रकार काष्ठाङ्गारकी वह सेना भी परिश्रम मात्र फलसे युक्त थी ---उसका सब प्रयास व्यर्थ गया । अन्त में वह सेना निश्चिन्ततासे अपने घर आ गयी और उसकी चपलताका समाचार समस्त राजपुरीमें फैल गया ।
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७७. तदनन्तर 'भीलोंने जिसका सामना किया था ऐसा राजाका दल, व्याघ्रकी गन्धको सूँघनेवाले गायके समूहके समान अथवा बहुत बड़ी मथानीसे मथे गये दहीके ३० समान ढीला हो गया है, इस प्रकार पराभवसे दुःखी ग्वालोंके द्वारा कथित समाचारको सुन घोप-ग्वालोंकी बस्ती में रहनेवाली स्त्रियोंकी दशा विचित्र हो गयी । उन्होंने अपनी चिल्लाहट के महाशब्द से दिशाएँ व्याप्त कर दीं। कँपकँपीके भारसे विह्वल हथेलियोंसे वे अपनी छाती कूटने लगीं । उच्च एवं भयंकर रोनेकी आवाज से खिंचकर आये हुए बच्चे उनके पीछे लग गये। स्नेहवश लिङ्गित बछड़ों के मुख से खींचे जानेवाले अपने स्तनों को देखने से उनका शोक ३५ दूना हो गया । दूधके लिए उत्सुक बछड़े गलेसे निकलती हुई अधदबी आवाज के सुनने की सामर्थ्य न होने से उन्होंने अपने कान ढँक लिये । अविवेकी बालकोंके द्वारा खिलाने-सम्बन्धी
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गवचिन्तामणिः
[४. आमीरपल्या - मातृविरहबिघूर्णमानतर्णकप्रेमप्राग्भारप्रस्नवितनिभथितदधिबिन्दुदन्तुरपयोधरे, पारवश्यावलोठितस्थालीमुखनिर्यदूधस्यादश्विदाज्यदधिपङ्किलस्थलपरिस्खलत्पदे, हृदयपरिस्फुरत्परितापविस्फूर्जितप्रशमनाभिप्रायप्रयुक्तमुक्तासंदेहदायिबाष्पबिन्दुसंदोहसंकलितवक्षसि , शोकधूमध्वजधूमदेशोयशिथि
लितोद्गतशिरोरुहशिरसि धूलोधूसरितवाससि , कारुण्यावहवचसि, प्रार्थ्यमानगभस्तिमालिनि ५ प्रणम्यमानगृहदेवले पृच्छयमानदैवज्ञ जने .गोधनाजीबिनि गोकुलापायेन पर्याकुलीभवति, गोपाल
युवतिजने, घोषवृद्धेष्वपि कर्तव्यमुग्धेषु महाराजसत्यंधरस्य स्मरत्सु 'पुरा खल पुरस्क्रियाझैपायनपरिबर्हपुरःसरोपस्थितमुखप्रसादाथिपार्थिवमकुटचूडामणिमरीचिवारिधारोन्मार्जितचरणराजीवरजसि अज्ञानिनो यं बाला बालकास्तरुपलालनमाक्रीडनं यस्य क्लेशेन ताम्यन्तो दुःखीभवन्तो ये दग्यास्तर्णकास्तेषां दशानक्षमेऽवस्थाविलोकने याऽक्षमता असामर्थ्य तेन प्रच्छादिते चक्षुषी येन तस्मिन् , मातृविरहेण जननीविप्रयोगेण विचूर्णमाना इतस्ततो श्रमन्तो ये तर्णका गोवरसास्तेषु प्रेमशाग्मारेण प्रीत्यतिशयेन प्रस्नवितनिभाः शरददुग्धसदशा मथितदधिबिन्दुदन्तुराः तक्रदधिबिन्दुष्याताः पयोधरा: स्तना यस्य तस्मिन 'उदश्विन्मथित तक्र कालशेयं पिवेद्गुरुः' इति धनंजयः, पारवश्येन विवशतया विलोठिता विपातिता या स्थाल्यो भाजनानि तास मुखेभ्यो नियन्ति निर्गच्छन्ति यानि अधस्योदश्विदाज्यदधीनि दुग्ध तक्रघृतदधीनि
तैः पङ्किलानि कर्दमयुक्तानि यानि स्थलानि तेषु परिस्थलन्ति पदानि यस्य तस्मिन् , हृदये चेतसि परिस्फुरन् १५ वर्धमानो यः परितापः संतापस्तस्य विस्फूर्जितमुद्रेकस्तस्य प्रशमनाभिप्रायेण विध्यापनमनीषया प्रयुका
धृता ये मुक्कासन्देहदायिनो मुफाफलसन्देहोत्पादका बाष्पबिन्दयोऽश्रुपृषसास्तेषां संदोहेन समूहेन संकलितं वक्षो यस्य तस्मिन् , शोकधूमध्वजस्य शोकाग्ने मदेशीया धूमकरूपाः शिथिलितोद्गताः शिरोरुहाः केशा येषु तथाभतानि शिरांसि यस्य तस्मिन् धूलीमिधूसरितानि मलिनानि वासासि वस्त्राणि यस्य तस्मिन्,
कारुण्यावहानि दयोत्पादकानि वासि यस्य सस्मिन् प्राय॑मानः 'अयि भोः सूर्यनारायण, मदीयं गोधनं २० प्रतिदीयतामिति याध्यमानो गमस्तिमाकी सूों येन तस्मिन् , प्रणम्यसानानि नमस्क्रियमाणानि
गृहदैवतानि येन तस्मिन्, पृच्छयमाना अनुयुज्यमाना देवज्ञजना ज्योतिर्विदो येन तस्मिन् , गोधनेनाजीवतीत्येवंशीलस्तस्मिन् । घोषवृद्धेष्वपि पल्लीवृद्धजनेजपि कर्तब्यमुग्धेषु किंकर्तन्यमिति विचारभूतेषु महाराजसत्यंधरस्य स्मरत्सु 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' इति षष्ठी, 'पुरा खलु
पुरस्क्रियाणि अग्रस्थापनयोग्यानि यान्युपायनपरिबर्हाणि प्राभृतोपकरणानि तेषां पुरस्सरेण उप२५ स्थिताः पार्श्वे विद्यमाना मुखप्रसादार्थिनो बदनप्रसन्नताभिलाषिणो ये पार्थिवास्तेषां मुकुटचूडामणीना
क्लेशसे छटपटाते हुए बछड़ोंकी दशा देखनेकी क्षमता न होनेसे उन्होंने अपने नेत्र ढंक लिये थे। उन स्त्रियों के रेलन मथे गये दहीकी बूंदोंसे व्याप्त थे इसलिए ऐसे जान पड़ते थे मानो माताके विरहमें इधर-उधर घूमते हुए बछड़ों के ऊपर प्रेमातिरेकके कारण उनसे दूध ही झरने
लगा हो। विवशताके कारण लुढ़की हुई मटकियोंके मुखसे निकलते हुए दूध, मदी, बा और ३० दही के कारण वहाँकी भूमि में कीच मच गयी तथा उसमें उनके पैर फिसलने लगे। दयमें
देदीप्यमान सन्तापकी अधिकताको शान्त करनेके अभिप्रायसे प्रयोगमें लाये हुए मोतियोंके सन्देहको देनेवाली अश्रुबिन्दुओंके समूहसे उनके वक्षःस्थल व्याप्त हो गये । शोकरूपी अग्निके धआँ के समान ढीले होकर ऊपरकी ओर बिखरे हए बालोंसे उनके शिर यक्त थे। उनके वस
धूलिसे धूसरित-मटमैले हो गये। उनके वचन करुणाको उत्पन्न करनेवाले थे। कभी वे ३५ सूर्यसे प्रार्थना करती, कभी घरके देवताओंको प्रणाम करती और कभी ज्योतिषियोंसे पूछतीं।
गोधन ही उनकी आजीविका थी इसलिए उसके नष्ट होनेसे वे बहुत ही व्याकुल हो गयीं। उस वस्दी में जो वृद्ध ग्वाल थे वे कर्तव्यविमूढ़ हो यह कहकर महाराज सत्यन्धरका स्मरण
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-विवाद:
द्वितीयो लम्भः राजनि गजति राजन्वती वसुधेयमकुतोभया वर्तेत । तस्मिन्नस्माकं गर्भभरवहनक्लेशानभिज्ञमातरि जन्महेतुतामात्ररहितपितरि प्रतिषिद्धसिद्धमातृकोपदेशक्लेशगुरौ लोकद्वयहितनिर्वर्तननियतबन्धौ विद्वावितनिद्रोपद्रवनेत्रे शरीरान्तरसंचारिजीवित उदन्ववजातपारिजाते चिन्तानपेक्षितचिन्तामणी विदितास्मत्कूलक्रमागतो भक्तावबोधिनि भृत्यजनप्रिये व्रजप्रजारक्षणदीक्षिते शिक्षाप्रयोजनदण्डविधी दण्डितारातिमण्डले मण्डलेश्वरे विनश्वरविषयाभिलाषविषवेगाददीर्घदशिनि दीर्घनिद्रामुपेयुषि ५ पुनर यसभिरवियुक्तैरस्माभिः किमेतावदनुभवनीयम् ।' इत्याधिक्षीणेष्वाचक्षाणेप, शाकुनिक च प्रवयसि जने वदति 'वायसोऽयं सुस्वरः शबरावस्कन्दितमधु वास्मदधीनं भविता गोकुल मिति निमालिशिखामणीनां मरीचयः किरणा एव वारिधारा जलधारास्ताभिरुन्मार्जितं प्रक्षालितं चरणराजीवरजः. पादपद्मपरागो यस्य तस्मिन् राजनि सत्यंधरमहाराजे राजति शोभमाने सति राजन्वतर्ता सौराज्यवती इयं वसुधान विद्यते कुतोऽपि भयं यस्यां तथाभूता अवर्तत। अस्माकमामीराणाम् , गर्भमरस्य भ्रणमारस्य वहने १० धारणे य: क्लेशस्तस्यानभिज्ञा सा चासौ माता च तस्मिन् , जन्महेत्तुता जन्मकारणतामात्रेण रहित: पिता . तस्मिन् , प्रतिषिद्धो निवारितः सिद्धमातृकोपदेशस्य वर्णमालोपदेशस्य क्लेशो यस्य तथाभूतश्वासो गुरुश्च तस्मिन् , लोकद्वयस्य हितनिवर्तने नियतो बन्धुस्तस्मिन् , विद्वावितो दूरीकृतो निद्रोपद्रवो यस्य तथाभूतं नेत्रं तस्मिन् , चिन्तया प्राप्तीच्छयाऽनपेशियश्चिन्तामणिस्तस्मिन् , विदिता विज्ञाता अस्माकुलक्रमस्थागतियन तस्मिन् , भक्कानवबोधतीत्येवंशीलस्तस्मिन् , भृत्यजनप्रिये कर्मकरवत्सले, प्रजनजाया गोष्टजनताया रक्षणे १५ बीक्षिला रियार, शिकायोजनो दादिधिर्यस्य तस्मिन् , दण्डितमनुशासितमरातिमण्डलं शत्रुस नहो यन तथाभूते, तस्मिन् पूर्वोके मण्डलेश्वर सत्यंधरमहीपाले, विनश्वरविषयेषु भङ्गुरभोगेषु अमिलाप एव विपं तस्य वेगात्, भदीघदर्शिनि अदूरदर्शिनि दीघनिद्रां मृत्युम् उपेयुषि प्राप्तवति सति, पुनरपि असुमिः प्राणः अवियुक्तः अस्माभिः किम् एतावद इयरप्रमाणे महादःखमनुभवनीयम्' इतव्यम् आधिक्षीणेषु मनोव्यथाकृशेषु घोषवृद्धेषु आचशाणेषु कथयस्सु. 'शाकुनिके च शकुनज्ञेच प्रदयसि वृद्धजने' अयं सुस्वरः २० सुन्दरस्वरयुक्तो वायसो मौकुलिः शबरावस्कन्दितं शबरजनापहरा गोकुलं धेनुवृन्दम, अधुनैव साम्प्रतमेव करने लगे कि पहले जब सामने रखने योग्य भेंट की सामग्री के साथ उपस्थित एवं मुखकी प्रसन्नताके इच्छुक राजाओंके मुकुट और चूड़ामणियोंकी किरणाबली रूप जलधारासे जिनके चरण कमलोंकी धूलि धोयी गयी थी ऐसे महाराज सत्यन्धर विराजमान थे तब उत्तम राजासे युक्त यह पृथिवी सव ओरसे निर्भय थी--इसे किसी ओरसे भय नहीं था। जो गर्भका भार २५ धारण करने के क्लेशसे अनभिज्ञ हमारी माता थे, जन्मकी कारण मात्रतासे रहित पिता थे, सिद्धमातृका-वर्णमालाके उपदेशके क्लेशसे रहित गुरु थे, दोनों लोकोंका. हित करने में तत्पर वन्धु थे, निद्राके उपद्रवसे रहित नेत्र थे, दूसरे शरीर में संचार करनेवाले प्राण थे, समुद्र में उत्पन्न न होनेवाले कल्पवृक्ष थे, चिन्तकी अपेक्षासे रहित चिन्तामणि थे, हमारी कुलपरम्पराको आगतिको जानते थे, भक्तोंको समझनेवाले थे, सेवक जनोंक प्रेमपात्र थे, ऋजकी ३० प्रजाकी रक्षा करने में संलग्न थे, शिक्षाके उद्देश्यसे ही दण्ड देनेवाले थे और शत्रु-समूहको दण्डित करनेवाले थे, ऐसे मण्डलेश्वर राजा सत्यन्धर बिनाशी विषयोंकी अभिलाषा रूप चिपके देगसे दूर तककी बात नहीं सोच सके और मृत्युको प्राप्त हो गये फिर भी हम लोग प्राणरहित नहीं हुए । क्या हम लोगोंको यही दुःख भोगना था। इस प्रकार मानसिक व्यथासे क्षीण नगरके वृद्धजन कह रहे थे। शकुनको जाननेवाला कोई वृद्ध मनुष्य कष्टकर अवस्थाको ३५ प्राप्त तथा दयापूर्ण असहनीय प्रलाप करनेवाले ग्वालोंसे कह रहा था कि 'यह उत्तम स्वरसे
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१. वतत मा।
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गयचिन्तामणिः -७-४८ नन्दगोपस्य घोषणा - राकुलमाचष्टे । मा भैष्ट यूयम्' इति, कष्टां दशामासेदुष: कारुणिकदुरुत्सहालापागोपानापदो गोपायिता गोपालग्रामणीनन्दगोपो नाम नन्दितकोविदः संतापमयकायः कोऽयमिह गोधनप्रत्यानयनकर्मण्युपायः । प्रायेण प्राणभृतां भागधेयविधेये सत्यपि शुभोदये सहायतां तत्र प्रतिपद्यत एवं
प्रयत्नोऽपि । तस्मिन्नपि दुष्कृतबलेन फलेन बहिष्कृते प्राप्तेऽनुद्वेग आत्मवताम्' इत्यमोचमतर्कयत् । ५ अताडयच्च कटके विमित्य विविनय रागाधामस्मभ्यं प्रतिपादयितुं प्रभवते कृतहस्ताय दीयेत मे कल्याणिनी कन्या कल्याणमयसप्तपुत्रिकाभिः साकम्' इति गोसंख्यप्रकाण्डो डिण्डिमम् ।
७८. ततस्तथाविधमेतमुदन्तमुपश्रुत्य 'शबर विजये कः शक्तः शस्त्रोपजीविषु । किमस्ति मस्तकमणि फणिपतेरपहर्तुं समर्थो जनः । को नाम पञ्चजन: पञ्चाननस्य वदनादामिषमाप्तु
१५
अस्मदीनं मदायत्तं मविता मविष्यति, इति निराकुलमन्यग्रम् आचष्टे कथयति, मा मैट यूयम् भयं मा कुरुत यूयम्' इति वदति निगदति सति 'यस्य च भावे मावलक्षणम्' इति सप्तमी। कहां दुःखकरी दशामवस्थाम् , आसेतुपः प्राप्तवतः कारुणिकानां दयालूनां दुरुत्सहा आलारा येषां तान् गोपानू भापदो विपत्तेः गोपायिता रक्षिता गोपालग्रामणी!पप्रमुखः नन्दिताः कोविदा येन प्रहर्षितबुधः, संतापमयः कायो यस्य तथाभूतो नन्दगोपो नाम इहाऽस्मिन् गोधनस्य प्रत्यानयनं तदेव कर्म तस्मिन् कोऽयम् उपायः । प्रायेण प्राणभृतां लोकानां भागधेय विधेये देवानुकूले शुभोदये पुण्योदये सत्यपि तत्र कार्य प्रयत्नोऽपि सहायता प्रतिपद्यते एवं प्रानोत्येव । दुष्कृतबलेन पापसामध्यन तस्मिन्नपि प्रयत्ने फलेन बहिस्कृते सति निष्फले जाते आत्मक्तामात्मज्ञानाम्, प्राप्त समागते दुखः इति शेषः अनुद्वेग एवं उद्वेगामाव एव करणीयः इति अमोघमव्यर्थम् अतर्कयद् विचारयामास । गोसंख्यप्रकाण्डो गोपनधानो नन्दगोपः कटके राजधान्यां 'कटकोऽस्त्री राजधान्यां सानौ सेनानितम्बयो', इनि विश्वलोचनः, इति डिण्डिमं चावभेदम
अताडयख। इति किम् । विपिन चरान किरातान विजित्य पराभूय, अस्मभ्यं गोधनं प्रतिपादयितुं २० प्रभवते समर्थाय कृतहरत.य कुशलकराय मे कल्याणिनी कल्याणवती कन्या कल्याणमयसप्पुत्रिकाभिः सवर्णमयसप्तपाञ्चालिकाभिः साकं दीयता
६८. तत इति-ततस्तदनन्तरं तथाविधं तादृशम् एतमुदन्तं वृत्तान्तम् उपश्रुत्य भटाभावेऽप्यात्मानं भर्ट ब्रुवन्तीति भरावा: कातरभटाः इति अब्रुवन् निजगदुः। इतीति किम् । शस्त्रोपजीविपु सैनिकेषु शबरविजये का शक्तः समर्थः। फणिपतेः शेषस्य मस्तकमणि फणरत्रम् अपहतुं कि जनः
२५ बोलनेवाला कौआ स्पष्ट कह रहा है कि भीलों के द्वारा अपहत हमारी गायोंका समूह अभी
हाल हमारे अधीन हो जायेगा। अतः आप लोग भयभीत न हो ।' उसी समय आपत्तिसे रक्षा करनेवाला, ग्वालोंका प्रधान, विद्वानोंको प्रसन्न करनेवाला तथा सन्तापमय शरीरसे युक्त नन्दगोप इस प्रकार विचार करने लगा कि यहाँ गायोंको वापस लाने के कार्यमें क्या उपाय हो
सकता है ? प्रायःकर प्राणियोंका अशुभोदय उनके भाग्यके अनुकूल रहता है तथापि प्रयत्न ३० भी उसमें सहायताको प्राप्त होता है। यदि पापकी प्रबलतासे वह प्रयत्न भी निष्फल हो जाये
तो फिर प्राप्त आपत्तिमें आत्मज्ञ मनुष्योंको उद्वेग नहीं करना चाहिए। यह विचार करके ही नहीं रह गया किन्तु नगर में उसने यह घोषणा कराते हुए नगाड़ा भी बजवा दिया कि भीलोंको जीतकर हमारा गोधन हमारे लिए प्रदान करने में समर्थ कुशल मनुष्य के लिए स्वर्ण
मय सात पुतलियों के साथ मेरी कल्याणकारिणी पुत्री दी जायेगी। ३५ ६ ७८. तदनन्तर उस प्रकार के इस वृत्तान्तको सुनकर कायर मनुष्य कहने लगे कि
'शस्त्रधारियों में ऐसा कौन है जो भीलोंको जीतने में समर्थ हो ? क्या शेषनागके मस्तकपर
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- पुरजनप्रतिक्रिया च]
द्वितीयो लम्भः मभिलषति । अस्ति चेदमुष्मिन्कर्मण्यलंकर्मोण: कामं लभेत कन्यामन्यच्च' इत्यब्रुवन्भटत्वाः । 'हा कष्टम् | निकृष्टमिदं गार्हस्थ्यं कृत्यम् । तथा हि-दारिद्रयादपि धनार्जने तस्मादपि तद्रक्षणे ततोऽपि तत्परिक्षये परिक्लेशः सहसगुणः प्राणिनाम् । ततो हि सुधियः संसारमुपेक्षन्ते' इत्यनुप्रेक्षामातेनरात्मविदः । पराजितराजन्यसैन्यं वन्यं जनमन्यः को भवेदभिभक्तुिम् । अभियुक्तो नास्तीति वा निर्णेतुं कथं पार्यते । विस्तीर्णेयमर्णवनेमिः । अस्तोकशक्तिरस्तु वा यः कश्चन , हस्तवतामग्रेसरः । पाटितानेकभटा करिघटा हरिरेक एक कि न विघटयति' इति विचार चतुरमाचक्षरं विचक्षणा: ।
७५. जीवकस्वामी तु स्वामित्वेन वा भुवनस्य स्वभावत्वेन वा स्वकल त्रमिवामित्राधीनं
समर्थोऽस्ति । को नाम पञ्जनः पुरुषः 'स्युः पुमांसः पञ्चजनाः पुरुषाः पूरुषा नराः' इत्यमरः । पञ्चाननस्य सिंहस्य बदनात् मुखात आमिपं मासम् श्राप्तुम् अमिलषति । अमुस्मिन्कर्मणि अलंकर्माणो निपुणः १० अस्ति चन तहिं कामं यथेच्छ कन्याम् अन्यच्च सुवर्णमयपाञ्चालिकादिकम् लभेत। आत्मानं विदन्तीस्यात्मविद आरमज्ञा जना इति अनुरक्षा मावनाम आतेनर्विरतारयामासुः, इतीति किम् । 'हा कष्टं इदम गृहस्थस्य भावः कम वा गाईस्थ्यं कृत्यं निकृष्टमधमम् । तथा हि-प्राणिनां दारियादपि निर्धमत्वादपि धनार्जने वित्तसंचये, तस्मादपि धनाजनादपि तदक्षणे ततोऽपि सद्रक्षणादपि परिक्षये विमाशे सहस्त्रगुणः परिवलं शो भारतीशिशेषः । ततो हिरो निस्सारम् उपेक्षन्ते उपेक्षाविषयीकुर्वन्ति । विचक्षणा ११ विपश्रितः विचारक्तुरं विचारनिपुणं यथा स्यात्तथा इप्ति आचक्षिरे कथयामासुः। इतीति किम् । पराजितं राजन्य सैन्य येन तं पराभूतनपतिपृतनं वने भवी वन्यस्तं वनचरं जनम्, अभिभवितुं पराभवितुम् अन्यः को जनी भवेत् । या पक्षान्तर अभियुक्त समों नास्तीति वा निणतुं निश्चेतुं कथं पार्यते । इयम अर्णवनेमिः पृथ्वी विस्तीर्णा भस्तोकशक्तिप्रभूतसामयों यः कश्चन जनो हस्तवतां कुशलानामग्रेसरोऽस्तु वा पाटिता विदारिता अनेक मटा अनेकयोधा यया तां करिघटा गजपतिः किमेक एव हरिमृगेन्द्रो न विघटयति । २०
६.९. जीवकस्वामीति-जीवकस्वामी तु सात्यंधरिस्तु भुवनस्य जगतः स्वामित्वेन वा स्वभावत्वेन पा स्वस्य, अमित्राधीनं शञ्चायतं गोधनं सकलअमिव स्वस्त्रियमिव मेने । गोधनस्य
स्थित मणिको हरने के लिए कोई समर्थ है ? कौन मनुष्य है जो सिंह के मुखसे मांस प्राप्त करनेकी इच्छा करता हो। यदि कोई उस कार्य में समर्थ हो तो वह अच्छी तरह कन्या तथा अन्य मामग्रीको प्राप्त कर सकता है। जो आत्माको जाननेवाले विवेकी थे वे बार-बार इस से प्रकारका चिन्तवन करने लगे कि हाय, मड़े कष्टकी बात है, यह गृहस्थीका कार्य अत्यन्त निकृष्ट है । देखी, दरिद्रताकी अपेक्षा धन कमानेमें, धन कमानेको अपेक्षा उसको रक्षा और रक्षाको अपेक्षा उसके नष्ट होने में प्राणियोंको हजार गुना क्लेश होता है। इसीलिए विजन संसारको उपेक्षा करते हैं। विद्वान मनुन्य विचारोंको चतुराईके साथ इस प्रकार कहने लगे कि 'गजाको सनाको पराजित करनेवाले बनेचरों को कौन मनुष्य जीतने के लिए समर्थ ३० हो सकता है ? अथवा कोई इस कार्य के करने में समर्थ नहीं है यह कैसे निर्णय किया जा सकना है ? यह पृथिवा बहुत बड़ी है। प्रवल शक्तिका धारक कोई हो भी सकता है जो कुशल मनुष्योम प्रधान होगा। अनेक योद्धाओंको चीरने वाले हाथियोंकी पंत्तिको क्या एक ही सिंह नहीं खदेड़ देता है।
६. जीवन्धर स्वामीने संसार के स्वामी होनसे अथवा स्वभावसे ही, शत्रु के अधीन ३५ गाधनका ना माना माना हमारी स्त्री हो शत्रुके अधीन हो गयी हो। उन्होंने उसो समय
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गद्यचिन्तामणिः
[ ७९ जीवन्धरस्य प्रतिक्रिया - गोधनं मेने । वितेने च संगरम् 'न चेदमशरणानां शरण्योऽस्मि स्वामिद्रोहिणां धोरेयोऽस्मि' इति । आसच्चास्य योगपद्येन श्रवसि तदुदन्तश्रुतिर्मनसि रोषाग्निवचसि डिण्डिमनिरोधो ललाटे कुटिचक्षुषोस्ताम्रता वपुषि स्वेदबिन्दुः सारथौ कटाक्षपातश्चरणयोः प्रयाणतुतिधनुषि निषङ्गेऽपि करयुगं चेति । प्रतस्थे च सात्यंधरित्यनुगुणगुणकण्ठोक्त राजकण्ठीरवभावः सदा संगतेरसंकट५ खेदिभिरवस्थावेदिभिरनारोपित वैयात्यै। फलोदयकृत्यै रतिदूरप्रेक्षिभिरपथोपेक्षिभिरखिल गुणसनाथैरात्मीयमनोरथैरिव वयस्यैग्मा रथमारुह्य पल्लिमभि प्रतिमल्लजिगीषया ।
$ ८० ततश्च तस्मिन्पदनेनेव पवनसखे सखिजनवृन्देन भूभृन्नन्दने विपिनेच रविपिन दिधक्षया
वाधीनत्वं स्वस्त्रियाः शन्दाधीनत्व इव संतापयुक्तो बभूवेति भावः । संगरं प्रतिज्ञां च वितने विस्तारयामास - न चंद्रहमशरणानां शरणरहितानां शरणे साधुः शरण्योऽस्मि तर्हि स्वामिद्रोहिणां पुरं वहतीति धौरेयः १० 'धुरो यडको' इति ढक् । प्रधानांऽस्मि इति । भसीच वभूव चास्य जीवंधरस्य यौगपद्येन एककालावच्छेदेन
भवति कर्णे दुदश्रुतिस्तद्वासश्रवणं, मनसि शेषाग्निः क्रोधानलः वचसि वचने डिण्डिमनिरोधो वाद्यनिरोधो, ललाटे निटिले भ्रुकुटिः भ्रूः चक्षुषोर्नयनयोस्ताम्रता लोहितता वपुषि शरीरे स्वेदविन्दुः श्रमजलपृषताः, सारथौ रथवाहके कटाक्षपातोऽपाङ्गावलोकनम् श्वरणयोः पादयोः प्रयाणतू तिर्गमन शैध्यं धनुषि hard fresh कोsपि करयुगं हस्तयुगञ्चेति । प्रतस्थे चेति - प्रतस्थे च प्रययौ च सत्यंधरस्या१५ पत्यं पुमान् सात्यंधरिजीवंधरः जातेः क्षत्रिय जातेरनुगुणा अनुकूल। ये गुणास्तैः कण्टकः स्पष्टं प्रकटितो
राजकण्ठीस्वभावो राजसिंह यस्य सः सा संगतैरनियुक्तैः न संकटखेदिन इस्य संकट खेदिनस्तैः संकटकालिकव्यप्रसारहितैः, अवस्थां विदन्तीत्येवंशीलैः अनारोपितं वैयात्यं धार्यं येषां तैः फलोदयमभिव्याप्य कृत्यं कार्यं येषां तैः अतिदूरं प्रेक्षन्त इत्येवंशी लास्तैदीर्घदर्शिभिः अपथं कुमार्गमुपेक्षन्त इत्यपथोपेक्षिणस्तै: अखिलगुणैः सनाथाः सहितास्तैः आत्मीयमनोरथैरिव स्वकीयाभिप्रायैरिव वयस्यैः सखिभिः अमा साकं रथं स्यन्दनमारुह्य समधिष्ठाय प्रतिमहल जिगीषया शत्रुपराजयकाङ्क्षया पहिलमभि आभीरवसतिमभिप्रतस्थे इति पूर्वेणान्वयः ।
२.०
८०.
S ततश्चेति ततश्व तदनन्तरञ्च पवनेन पवनसख इव वह्नावित्र, सखिजनवृन्देन मित्रसमूहेन तस्मिन् भूभृन्नन्दने सत्यंधरमहाराजसुते विपिनेचरा एव विपिनं तस्य दिक्षा तथा किरातकाननभस्मी
प्रतिज्ञा की कि 'यदि मैं इन शरणरहित - दीनवालोंका रक्षक नहीं होता हूँ तो स्वामि२५ द्रोहियों में अग्रसर कहलाऊँ । उस समय उनके कानोंमें उस वृत्तान्तका सुनना, मनमें क्रोधाग्नि,
वचनमें नगाड़ेका रोकना, ललाटमें भ्रकुटि, आँखोंमें लालिमा, शरीर में पसीनाका जल, सारथिपर कटाक्षोंका पड़ना, पैरोंमें गमनसम्बन्धी शीघ्रता और धनुष तथा तरकझपर दोनों हाथ -- ये सब एक साथ हुए थे। तदनन्तर जातिके अनुरूप गुणोंसे जिनका राजसिंहपना स्पष्ट प्रकट हो रहा था ऐसे जीवन्धर कुमार अपने उन मित्रोंके साथ रथपर सवार हो ३० शत्रुओंको जीतने की इच्छासे ग्वालोंकी बस्तीकी और चल पड़े कि जो सदा उनके साथ रहते थे, संकट के समय कभी खेदका अनुभव नहीं करते थे, अवस्था के जानकार थे, धृष्टता से रहित थे, फलकी प्राप्ति पर्यन्त कार्य करते थे, बहुत दूरकी बात देखते-सोचते थे, कुमार्ग की उपेक्षा करते थे, समस्त गुणोंसे सहित थे और अपने मनोरथों के समान थे ।
८०. तदनन्तर वायुसे अग्निके समान मित्रजनों के समूह से तीक्ष्ण लेजको धारण करने३५ वाले राजपुत्र - जीवन्धर कुमार, भीलरूपी वनको जलानेको इच्छासे प्रस्थान का जब बड़े
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- ८० मिल्लजिगीषया प्रस्थानं च] - द्वितीयो लग्भः श्रा तीक्ष्णतेजसि प्रस्थाय तरसा प्रयाति, भाविविजयविवरणचतुरेण सहचरेण समीरेण समर्पितरहसीब रथे मनोरथादपि जविनि व्रजति, तत्राविधरयधावत्स्यन्दनचक्रस्य वक्राभिघातेन भूभृतां चक्रे शक्रातिशायिशक्तिप्राग्भारकुमारनिरीक्षणभीत्येव प्रसभं प्रकम्पमाने, प्रह्वीभावविमुखेषु शाखिषु शत्रुष्विव सद्य समुद्धृतेषु, समुत्तास्तियिपिविलोकन भयचकितचेतसि चलितशिरसि प्रसूनापोडं सनीडभवदितरभूव्हनिकरे वितोयं किसलयाञ्जलिबन्धेन प्रकामं प्रणमतीव प्रेक्ष्यमाणे, क्षीणप्राय- ५ प्राणानां निषादानां विषादं वितन्वदशुभचिह्नमलाय मुहुर्मुहुराविरभूत् ।
८१. प्रादुरभूच्च भूरितरवल्लोविर्तानां पल्लीमभ्येत्य पल्लविततेजाः पर्याकुलितपाकसत्त्वः सत्त्वरसारथिचोदितरथधुर्यतुरगप्रष्ठः काष्ठाङ्गारबलाधिक्षेपक्षीबाणां क्षेपीयः प्रतिसरतां वनोकसां करणेच्छया, तीक्ष्णं तेजो यस्य तिग्मप्रतापे प्रस्थाय सरसा वेगेन प्रयाति सति, मावि विजयस्य विवरणे चतुरस्तेन भविष्यद्विजयप्रकटीकरणनिपुणेन सहचरेण सहगामिना समीरेण घायुना समर्पितं प्रदत्तं रहो १० वेगो यस्य तस्मिन्निव रथे मनोरथादपि विनि वेगशालिनि व्रजति सति, तथाविधस्येण तादृशगेन धावद् यत्स्यन्दनचक्रं रथसमूहो रथरथाङ्ग वा तस्य धक्राभिघातेन कुटिलप्रहारेण भूभृतां चक्रे पर्वतानां समूहे राज्ञां वृन्दे या शक्रातिशायी पुरन्दरातिकामी शक्तिप्रारभारो यस्य तथाभूतो यः कुमारो जीवंधरस्तस्य निरीक्षणमीत्येव दर्शनवासेनेव प्रसम हठात् प्रकम्पमाने सति, प्रवीभावानभ्रीमावाद्विमुखास्तेषु शारिखपु वृक्षेषु शत्रुविच रिपुष्विव सद्यः शीघ्र समुद्धनेषु समुल्खातेषु, समुत्पाटिताः समुखासा ये विटपिनो १५ वृक्षास्तेषां विलोकनमयेन दर्शनभीस्या चकितं तो यस्य तथाभूते चलितशिरसि प्रकम्पितशिखरे सनीडभवग्निकटीभवन् य इतरभूरुदनिकरोऽन्यवृक्षसमूहस्तस्मिन् प्रसूनापीडं पुष्पसमूहं वितीय किसलया एवाअलयस्तेषां बन्धेन पल्लवाञ्जलिबन्धेन प्रकाममस्यन्तं प्रणमतीव नमस्कुर्वतीव प्रेक्ष्यमाणे दृश्यमाने, क्षीणप्रायाः प्राणा येषां तेषां निषादानां शबराणां विषादं खेदं वितन्वद् विस्तारयद् अशुभचिह्नममाङ्गलिकचिह्नम् अलाय प्रगिति मुहुर्मुहुर्भूयोभूयः आविरभूत् प्रकटितमभूत् ।
८१. प्रादुरभूदिति--प्रादुरभूच प्रकटीबभूव च भूरितरो विपुलतरो वलीवितानो कप्तासमूहो यस्यां तां पल्ली घोषम् 'घोष आभीरपल्ली स्यात्' इत्यमरः, अभ्येत्य संमुखं गत्वा पल्लवितं वृद्धिंगतं तेजो यस्य तथाभूतः पर्याकलिता व्यग्रीकृताः पारसस्वाः शबरा येन सः सत्वरेण सशेध्येण सारथिना चोदिताः
वेगसे आगे बढ़ रहे थे। होनेवाली विजयको सूचित करने में चतुर सहगामी वायुके द्वारा जिसे वेग प्रदान किया गया था ऐसा रथ जब मनोरथसे भी अधिक वेगसे चल रहा था उस २५ प्रकारके वेगसे दौड़ते हुए रथसमूह अथवा रथके पहियोंके कुटिल आघातसे जब पर्वतोंका... समूह इन्द्रको अतिक्रान्त करनेवाली शक्तिके प्राग्भारसे युक्त जीवन्धर कुमारको देखनेके भयसे ही मानो हठपूर्वक कम्पित हो रहा था। नम्रीभावसे विमुख वृक्ष जय शत्रुओंके समान शीघ्र ही उखड़ रहे थे और उखाड़े हुए वृक्षोंके देखनेके भयसे जिसका चित्त चकित हो रहा था तथा जिसका शिर-अग्रभाग चञ्चल हो रहा था ऐसा समीपमें आनेवाले अन्य वृक्षोंका समूह ३० जब पुष्पसमूहको प्रदान कर पल्लवरूपी अंजलिबन्धनसे अत्यधिक प्रणाम करता हुआ-सा दिखाई देता था तब नाशोन्मुख प्राणोंको धारण करनेवाले भीलोंके विषादको विस्तृत करता हुआ अशुभ चिह्न शीघ्र ही बार-बार प्रकट होने लगा।
८१. अत्यधिक लतामण्डपोंसे युक्त घोषोंकी बस्तीकी ओर जिनका तेज बढ़ रहा था, जिन्होंने भीलोंको व्याकुल बना दिया था और रथ के भारको धारण करनेवाले जिनके श्रेष्ठ ३५ घोड़े शीघ्रनासे युक्त सारथिके द्वारा प्रेरित हो रहे थे ऐसे सूर्य के समान वीर शिरोमणि जीव
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गचिन्तामणिः
[ ८२ जीवन्धरकुमारस्य - पुरः खमणिरिव वोरचूडामणिः कुमारः । पुनरकरोच्च तेषामयमधिज्यधन्वा अवसि ज्याधोषमुरसि शरासारं मनस्यावेगं चक्षुषि देगतिक मविजिनालान चकेडयां रथकटशां च ।
८२. एवमस्मिन्वीरदिनकरे व्यापारितकरे युगपदेव व्योमव्यापिभिर्वलक्षीकृतदिङ्मुखैः शिलीमुखैमयूखैरिव खण्डितैरन्धकारपिण्डैरिव गोधनलुण्टाकानां शिरोभिरधोऽवतोणरास्तीर्णायामरण्यभुवि, बालातपौघ इव कूलंकषे प्रवहति शोणितसरित्प्रवाहे, समास्तोम इव निहतध्वस्तावशिले पापिष्ठे जने' निजशौर्यधनेन गोधनमुत्सृज्य गिरिगह्वरमाश्रिते, विश्रुतो वीर: कुमारोऽपि 'मारितैः किमेतैर्मुधा कार्य सिद्धे सति । कामं यान्तु काका इव वराकाः' इति विचार्य निजशौर्याप्रेरिता रथधुर्यस्य ज्येष्टरथस्य तुरगप्रष्टा अश्वश्रेष्ठा यस्य तथाभूतः, वीरचूड़ामणिः शूरशिरोमणिः कुमारः
काष्ठाकारबलस्य काष्टाङ्गारसैन्यस्याधिक्षेपेण पराजयेन क्षीबा मतास्तेषां क्षेपीयो मटिति प्रतिसरतां १० संमुखमागतानां वनमोको येषां तेषां वनेचराणां पुरोऽने खमणिरिव सूर्य इव । पुनर करोच्चेति--
पुनरनन्तरम् अधिज्यं समौर्वी धनुर्यस्य तथाभूतोऽयं जीवंधरः तेषां बनौकसां अवसि कर्ण ज्याघोषं प्रत्यञ्चानादम्, उरसि वक्षसि शरासारं बाणवृष्टिं मनसि चेतसि आवेगं व्याकुलतां चक्षुषि नयने वेगविक्रमेण विजिता पराभूता अलातचक्रस्पेढया यया तां रथकट्यां च स्यन्दनसमूहञ्च ।
६८२. एयमिति-एवमनेन प्रकारेण अस्मिन् वीरदिनकरे बोरसूर्ये व्यापारितौ करौ हस्तौ पग्ने १५ व्यापारिता: कराः किरणा अस्य तथाभूते सति, युगपदेव व्योम च्याप्नुवन्तीत्येवंशीलैः वलक्षीकृतानि
धवलीकृतानि दिछमुखानि यैस्तैः शिलीमुखैर्बाणैः मयूखैरिव किरणैरिव खण्डितैश्छिन्नैः अन्धकारपिण्डैरिव तिमिरस्कन्धैरिव गोधनस्य लुण्टाकास्तेषां गोधनापहारिणां शबराणाम् अधोऽवतीरधापतितः शिरोभिः अरण्य भुवि बनवसुधायाम् आस्तीर्णायामाच्छादितायां सस्याम बालातपौव इव प्रातधर्मसमूह इब
कूलंकषे शोणितसरित्रवाहे रुधिरापगापूरे प्रवहति सति तमःस्तोम इव तिमिरसमूह इच निहताच २० वस्ताश्चेति निहतध्वस्ता मारितपीद्धिसास्तेभ्योऽवशिष्टः शेषस्तस्मिन् पापिष्टे पापीयसि जने निजशौर्यधनेन स्वशूरत्ववित्तेन सह गोधनमुत्सृज्य त्यवरवा गिरिगह्वरं पर्वतकन्दरम् आश्रिते सति प्रपलाय्य गिरिगुहास्वतहिते सतीत्यर्थः विश्रुतः प्रसिद्धो वीरः कुमारोऽपि जीवकस्वाभ्यपि 'कायें सिद्धे सति मुधा निधयोजन मारितः पतैः किं प्रयोजनम्, काका इव वायसा इव एते वराका दयनीयाः कामं यथेच्छ यान्तु गच्छन्तु'
न्धरकुमार काष्ठांगारकी सेनाके तिरस्कारसे उन्मत्त एवं शीघ्र ही सामना करनेवाले वन
वासी-भीलोंके सामने जा प्रकट हुए। प्रकट होते ही प्रत्यंचासहित धनुषको धारण करने • वाले जीवन्धरकुमारने उन भीलोंके कान में प्रत्यंचाके शब्दको, वनस्थलमें बाणोंकी वर्षाको,
मनमें घबराहटको और नेत्रोंमें वेग तथा पराक्रमसे पराजित अलातचक्रके द्वारा स्तुत्य रथसमूहको प्रकट कर दिया।
६८२. इस प्रकार वीररूपी सूर्य जब अपने कर एवं हाथरूपी किरणोंको व्याप्त कर आ रहा था तब एक ही साथ आकाशव्यापी दिशाओंके अग्रभागको शुक्ल करनेवाली किरणोंसे
खण्डित अन्धकारके समूह के समान, आकाशव्यापी एवं दिशाओंके अग्रभागको शुक्ल करनेवाले बाणोंसे खण्डित गोधनके लुटेरे-भीलोंके शिरोंने जब नीचे उतरकर वनकी सुधाको व्याप्त कर दिया। प्रातःकालिक घामके समूह के समान किनारोंको घिसनेवाला खूनको नदी
का प्रवाह जब बहने लगा और अन्धकारके समूहके समान नष्ट-भ्रष्ट होनेसे बाकी बचे पापी3. भील जब अपने पराक्रमरूप धनके साथ-साथ गोधनको छोड़कर पर्वत की गुफाओंमें जा छिपे तब प्रसिद्धिको प्राप्त हुए जीवन्धरकुमार भी कार्य सिद्ध होनेपर व्यर्थ ही मारे हुए इन
१. क० ख० पापिष्ठजने।
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१३७
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-विजयवृत्तान्तः ]
द्वितीयो सम्भः नुकूल पलापमानवमितपशिलादिगतसंरम्भ आसीत् ।
६८३. पुनरशरणशरण्योऽयमरण्यान्याः प्रतिनिवृत्य प्रतिलब्धजीवितानां गोधनाजीविनामच्चावचां प्रीतिवाचमुपशृण्वन्, विदारितद्विरदनखरायुधनखरादातरवशिष्टासुप्रणयिशबरदत्तमुक्ताप्रकररिव रणलक्ष्मीसंभोगसंभवामन्दस्वेदबिन्दुभिरलंकृतवक्षःस्थलः, मरुदान्दोलिताङ्केलिकोमलप्रबालेविपिनदाहिविपिनेचरजीवितहरणतृप्तवनलक्ष्मीवितीर्णैः प्रकीर्णकरिव वीज्यमानः, खरसररथ- ५ तुरगखुरपुटखननसमुद्भवदविरलधवलधूलीमण्डलेन चण्डांशोरंशुमभिभावुकेन भाविपतिवत्सलधात्रीसमर्पितधवलातपत्रेणेव समेतः, प्रथमतरोदयसंरम्भसाफल्यपल्लवितरागैरनारतमजहद्वृत्तिभिरंशैरिव इति विचार्य निजशौर्यानुकूलं स्वकीयपराक्रमानुरूपं पलायमाना ये विपिने वराः किरातास्तेषां विशसनं विधातस्तस्माद् विगतः संरम्भो यस्य विगतकोध आसीत् ।
नरिति-पुनरनन्तरम्, अशरणानां शरण्य इत्यशरणशरण्यः, अयं जीवंधरी महदरण्य-, मरण्यानी तस्याः प्रतिनिवृत्य प्रत्यागल्य प्रतिलब्धं पुनःप्राप्तं जीवितं येषां तेषां गोधनाजीविना गोपालानाम् उच्चावचा समुस्कृष्टां प्रीतिवाचं स्नेहभारतीम् उपशृण्वन् आकर्णयन् विदारिता द्विरदा गजा पैस्ते तथाभूता ये नखरायुधाः सिंहास्तषां मखराद् आ गृहीतैः भवशिष्टानामसूनां प्राणानां प्रणयिनः स्नेहमाजो ये शबरास्तैर्द तैः, मुकाप्रकरैरिव मुक्ताफलसमूहरिव, रणलक्ष्या रणश्रिया संभोगेन संभवाः समुत्पन्ना येऽभन्दाः स्वेदबिन्दवस्तरलंकृतं वक्षःस्थलं यस्य सः, मरुता वनवायुना आन्दोलिताः १. कम्पिता ये ककेलीनामशोकानां कोमलप्रवाहा मृदुलकिसलयास्तैः, विपिने दहन्तीत्येवंशीला विपिनदाहिनो घनदाहिनो ये विपिनेघराः किरातास्तेषां जीवितहरणेन प्रापापहारेण तृप्ता संतुष्टा या वनलक्ष्मीस्तया बितीण: प्रदत्तः प्रकीर्णकैरिव चामरैरिब बीज्यमानः प्रकीर्यमाणः, खरतरैस्तीक्ष्णतरै रथतरगाणां खरपुटैः रपननेन समजवत् समस्पधमानं यद भविरलं निरन्तरं धूलीमण्मुलं तेन चण्डांशोः सूर्यस्य अंशु किरणम् अमिभावुकेन तिरस्कारिणा ' लोकाग्ययनिष्ठाखकर्थतनाम्' इति कृयोगषष्ठीनिषेधः भाविपती भविष्यदमणे वत्सला स्नेहसम्पन्ना या धात्री मही तया समर्पितं प्रदर्स धवलातपत्रं सितच्छग्रं तेनेव समेतः सहितः, उदयाय संरम्म उदयसंरम्मोऽभ्युदयोद्योगः प्रथमतर आपतरो य उदयसंरम्भस्तस्य साफल्येन पलवितो वृद्धिंगतो रागः स्नेहो येषां तैः पक्षे प्रथमतरस्योदयसंरम्भस्य साफल्येन पल्लवितः किसलयलोगोंसे क्या प्रयोजन है ? कौओं के समान दीन-हीन लोग इच्छानुसार जावें' ऐसा विचारकर अपने पराक्रमके अनुरूप भागते हुए भीलोंकी हिंसासे निवृत्त हो गये।
६८३. तदनन्तर अशरणोंको शरण देनेवाले कुमार अटवीसे लौटकर नगरके समीप आ । गये। उस समय वे जिन्हें मानो प्राण ही वापस मिल गये थे ऐसे गोपालोंके ऊँचे-नीचे प्रेमके वचन सुनते जा रहे थे। रणरूपी लक्ष्मीके संभोगसे उत्पन्न अत्यधिक पसीनाकी उन यूँदोंसे उनका वक्षःस्थल अलंकृत हो रहा था जो हाथियोंको विदीर्ण करनेवाले सिंहोंके नखोंसे छीने एवं मरनेसे बाकी बचे प्राणप्रेमी भीलोंके द्वारा दिये हुए मोतियों के समूहके समान जान पड़ते थे । हवासे हिलते हुए अशोक के कोमल पत्तोंसे उन्हें हवा की जा रही थी जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बनको जलानेवाले भीलोंके प्राण हरनेसे सन्तुष्ट वनलक्ष्मीके द्वारा दिये हुए चमरोंसे ही उन्हें हवा की जा रही थी। रथके घोड़ोको अत्यन्त तीक्ष्ण टापोंसे खुद जानेके कारण उठती हुई लगातार सफेद-सफेद धूलीके मण्डलसे वे सहित थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य की किरणोंको तिरस्कृत करनेवाले, होनहार पति के साथ स्नेह करनेवाली , पृथिवीके द्वारा समर्पित सफेद छत्रसे ही मानों सहित थे। जिस प्रकार सूर्य, कभी अपना साथ न छोड़नेवाली लाल-लाल किरणोंसे दोषास्पद-रात्रिमें स्थित रहनेवाले राजा-चन्द्रमा
ताश्च
-धनेन
जनं
वन
रथ
कर णोंसे
करने
चाको नदी
नापी--
- जा - इन
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गद्यचिन्तामणिः
រដ
[ ८३-८४ जीवंधरकुमारस्य
मिश्रैमित्र इवांशुभिर्मुषितदोषास्पद राजदीप्तिः, निष्प्रत्यूहसमीहितसिद्धिरेध्वानमन्तरालबहुलं लच यन्नप्यविदितपरिश्रमा, क्रमेण पराक्रमकराकृष्ट्या म्युद्गच्छतां पुरोकसामतुच्छरभसाङ्घ्रिसंघट्टकेः काश्यपपृष्ठं काष्ठाङ्गारं च कम्पयन्कटकनिकट माटोकते स्म ।
८४ पुनः पराक्रमपुनरुक्त प्रेक्षणीयं पुराभ्यन्तरमाश्रयन्तं वोरश्रिया अभिनववर मादरादा५ लोकयितुमागतम्, आगमनपारवश्येन सूस्तकेशहस्तविन्यस्तवामहस्तम्, हस्ताङ्ग ुलिनखमयूखपुनरुदीरितचिकुरपल्लवापीडम्, शिथिलित नोवीप्रदेशनिहितापरपाणिपल्लवं पल्लवितरागादागतं कामिवाचतो रागोऽरुणिमा येषां तैः अनारतं निरन्तरम् अजहती वृत्तिर्येषां तैः सङ्गमजहद्भिरित्यर्थः, अवयवैरिव मित्रैः, अंशुभिः किरणैः मित्र इव सूर्य इव मुषिता समपहृता दोषास्पदराजस्य दुर्गुणस्थाननृपस्य काष्ठाङ्गारस्येति यावत, दीप्ति: शोभा येन सः, सूर्यपक्षे मुषिता दोषास्पदस्य रानिगोचरस्य राशन्द्रस्य दीसिर्येन सः, निष्प्रत्यूहा निर्विघ्ना समीहितसिद्धिर्यस्य सः, भन्तरालेन बहुल मिय्यन्तराष्ठ१० बहुलं दूरम् अध्वानं मार्ग लचयन्नपि भविदितः परिश्रमो येन सः क्रमेण क्रमशः पराक्रम युव करस्तेनाकृष्टिस्तथा, अभ्युद्गच्छतt संमुखमागच्छतां पुरौकसां नगरनिवासिनाम् भतुच्छरमसास्तीबदेगा येऽधिसंघट्टका पदाधातास्तैः काश्यपीठष्ठं महीपृष्ठं काष्टाकारं च कम्पयन् कटकमिकटं राजधानीसमीपम् भाटीकते स्म समाजगाम ।
८५. पुनः पराक्रमेति - पुनरनन्तरं पराक्रमेण शबरविजयरूपेण पुनरुकं भूयो भूयो यथा १५ स्यात्तथा प्रेक्षणीयो दर्शनीयस्तं पुराभ्यन्तरं मगराभ्यन्तरमाश्रयन्तं वीरश्रिया वीरलक्ष्म्या अभिनववरं नूतनपतिम् जीवंधरम् भवरात् भाछोकयितुं वष्टुमागतम् अबलारूपं नारीमयम् असंख्यमपरिमितम् अनङ्गबलं स्मरसैन्यं प्रतिप्रदेशं स्थाने स्थाने प्रत्यदृश्यत । अथ तस्यैव विशेषणान्याह – आगमनस्य पारवश्यं समुत्कण्ठाजनिता विवशता तेन, स्रस्ते बन्धनोन्मुक्तत्वादधोलम्बिते केशहस्ते केशपाशे विन्यस्तः स्थापितो वामहस्तो येन तत् हस्तासीनी करकरशाखाना नखमयूखैर्नखररश्मिभिः पुनरुदीरिताश्चिकुर पलवा२० पीड़ाः केशकिललयशेखरा यस्य तस् शिथिकिते उम्मुक्तबन्धनप्राये नीवीप्रदेशेऽधोवस्त्रप्रन्थिस्थाने निहितः स्थापितोऽपरपाणिपल्लवो येन तत्, अतएव पल्लवितरागाद् वृद्धिंगतप्रीत्या आगतं कामिजन. की दीप्तिको अपहृत कर लेता है उसी प्रकार जीबन्धरकुमारने भी सर्वप्रथम युद्ध की सफलतासे जिनका राग - प्रेम बढ़ रहा था और जो निरन्तर साथ न छोड़ने से अपने अंशोंके समान जान पड़ते थे ऐसे मित्रों से दोषास्पद - अनेक अवगुणोंके स्थान राजा-कारकीदीप्तिको २५ अपहृत कर लिया था । निर्विध्न मनोरथको सिद्धि हो जानेसे बहुत लम्बा मार्ग लाँघनेपर भी
उन्हें परिश्रमका अनुभव नहीं हो रहा था । और क्रम-क्रमसे पराक्रमरूप हाथ के स्वींचने से ही मानो सामने आते हुए नगरवासियोंके अत्यधिक वेगयुक्त चरणोंके आघातसे वे पृथिवीतल तथा काष्ठाङ्गार दोनोंको कम्पित कर रहे थे ।
३५.
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८४. तदनन्तर पराक्रम के द्वारा पुनः पुनः दर्शनीय, नगर के भीतर आते हुए वीरलक्ष्मी३० नूतन पति जोबन्धरकुमारको आदरसे देखनेके लिए जगह-जगह अनेक स्त्रियोंका मह समूह इकट्ठा हो गया जो कामदेव की असंख्य सेना के समान दिखाई देता था । शीघ्र आनेको विवशतासे उन स्त्रियोंके केशपाश खुल गये थे और उन्हें संभालने के लिए उनपर उन्होंने अपना बायाँ हाथ रख छोड़ा था। हाथकी अँगुलियोंके नखोंकी किरणोंसे उनके केशों में गुँथे हुए पल्लवों के समूह पुनरुक्त हो रहे थे । ढीलीं नीवीके स्थानपर उन्होंने अपना दूसरा हाथरूप
१. म० समीहितसिद्धे । २. ० ख० म० पराक्रमकरकुष्टः । ३. कटकनिकटं पत्तनसमीपमिति टिप्पणी । ४. क० ख० ग० अभिनवपरम् ।
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- विजयवृत्तान्तः ] द्वितीयो लम्मः
१५९ जनहृदयमिव करेण गृह्णत्, ईषदवगलितकुचांशुकं कुचकुम्भकुम्भिनो रतिरणसंरम्भाय घटयदिव मुखपटम्, विद्रावितविद्रुमच्छविना दन्तच्छदरागेण हृदयान्तर्गतरागप्राग्भारमिव प्रदर्शयत्, पलितपुरोभाग सौभाग्यचन्द्रचन्द्रिकोदमिव मन्दहसितममन्दादरा दाचारलाजनिकरमिब विकिरत, समारोपितचारुतरभ्रूलताचापं लक्ष्यभेददक्षतीक्ष्णकटाक्षशरमोक्षचतुरमबलारूपमनङ्गबलमसंख्यं प्रतिप्रदेशं प्रत्यदृश्यत ।
८५. तदपि दर्शनप्रसादेनपरितोषयन्नुल्लोकहर्षलोकलोचनमनोभिरनुगम्यमानः पराध्यंजमायं परिकल्पितानल्पमङ्गलाहपरिबर्हविराजितं निजभवनमासाद्य सद्यःसमुपसृतपद्ममुखप्रमुखंदउदयमिव कामुकजनमानसमिव करेण हस्तेन गृहत् दधत्, ईषद् मनाग् अवगलितं सस्तं कुचांशुकं स्तमवस्त्रं यस्य सन , अतएव रतिरणसंरम्भाय सुरतयुद्धोद्योगाय कुचकुम्भकुम्मिनः कुचकलशकरिणो मुखपट मुग्ववस्त्रं घटयदिव वितन्वदिव, विद्राषिता दूरीकृता विद्रुमस्य प्रशालस्य 'मूंगा' इति हिन्या प्रसिदस्य १० छविः कान्तियेन तेन दन्तच्छदरागेण अधरलोहितिम्ना हृदयान्तर्गतश्चासौ रामप्राग्मारश्च तं हृदयस्थित. प्रीतिसमूह प्रदर्शयदिच, धवलितः शुक्लीकृतः पुरोमायो यस्य तत्, सौभाग्यमेव चन्द्रस्तस्य चन्द्रिकोदयमित्र ज्योत्स्नोदयमिव, मन्दहसितं मन्दहास्यम् अमन्दादराद् भूयिष्ठादराद् आचाराय प्रचलितपतये लाजानां भर्जितधान्यपुष्पा निकरः समूहस्तं विकिदिव प्रकीर्ण कुदेिव, समारोपित: सप्रस्यीकृतचारुतरचूलताचापो पेन तन, लक्ष्यभेदे शरस्यभेदे दक्षाः समर्था ये तीक्ष्णकटाक्षा एव शरा बाणास्तेषां १५ मोले मोचने चतुरं विदग्धम् ।
८५. तदपीति--तदपि अनङ्ग पलं दर्शनमेव प्रसादस्तेन दटिपसादेन परितोषयन् संतुष्टं कुर्वन् उल्लोको हर्षो येषां त उल्लोकहर्षास्ते च ते लोकाश्च तेषां लोचनमनोभिर्नयनचेतोमिः अनुगम्यमानः, पराप्यं श्रेष्ठं जन्म यस्य सः, भयं जीपंधरः परिकलित रचितैरनल्पमङ्गलाहपरिवहभूयिष्ठमङ्गलयोग्योपकरणधिराजितं शोभितं निजभवन स्वसदनमासान प्राप्य समः शौच समुपसूसैः समीपागतैः पचमुखप्रमुखैः २० पल्लष रख छोड़ा था जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो बढ़ते हुए रागसे आगत कामीजनोंके हृदयको अपने हाथसे पकड़ ही रही हों । उनके स्तनका वस्त्र कुछ-कुछ नीचेकी ओर खिसक गया था उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो रतिरूपी युद्धको प्रारम्भ करने के लिए स्तनकलश रूप हाथीके मुखके वस्त्रको दूर ही कर रही थीं। मूंगाको कान्तिको तिरस्कृत करनेवाल ओठोंकी लालीसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो हृदयके भीतर स्थित रागकी , वल्लभताको ही दिखला रही हों। अग्रभागको सफेद करनेवाले एवं सौभाग्यरूपी चन्द्रमाकी चाँदनीके उदयके समान दिखनेवाले मन्द हास्यको वे प्रकट कर रही थी उनसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्वागत के लिए लाईका समूह ही बिखेर रही हों। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर प्रकुटिलतारूपी धनुषको चढ़ा रखा था और वे लत्यके भेदनेमें चतुर तीक्ष्ण कटाक्षरूपी बाणोंके छोड़नेमें चतुर थीं।
३० ६८५. जो उन स्त्रियों के समूह को भी दर्शनके प्रसादसे सन्तुष्ट कर रहे थे तथा अत्यधिक हर्षसे युक्त मनुष्यों के नेत्र और मनसे जो अनुगम्यमान थे ऐसे श्रेष्ठ जन्मके धारक जीवन्धर कुमार, रचे हुए अनेक मंगलमय उपकरणोंसे सुशोभित अपने घर पहुँचकर पर्वतसे सिंहके बच्चे के समान रथसे नीचे उतरे। शीघ्र ही सम्मुख आये हुए पद्ममुख आदि मित्रोंने उन्हें
१.क० ख० ग. अमन्दरागात् । २. क. 'प्रमुख पदं नास्ति ।
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१४०
· गद्यचिन्तामणिः [८५-८६ जीवंधरकुमारस्यतपाणिः पाणौ कुर्वन्निव प्रभावश्रियं शिलोच्चयादिव केसरिकिशोरः स्यन्दनादवरोह । प्रणनाम च सविनयं पितरं मातरं च प्रेमसंभारेण । संभावयामास संमुखमागतं गाढालिङ्गितेन प्रौढवचसा मुग्धहसितेन स्निग्धनिरीक्षणेन शिरःकम्पनेन करप्रसारेण च यथाप्रधान प्रथमानहृदयबन्धं बन्धुवर्गम् । पुननिसर्गचतुरः प्रणामाञ्जलिं पुरःपुजितं' नियुञ्जानः स्यन्दनयुग्यांश्च विश्रमाय प्रश्रयशालिपरिजनं विशन्वेश्मोदरमादरकातर्यादुदश्रुमुख्या प्रस्नविन्या जनन्या निर्तितनीराजनविधिरारुरोह हृच्छल्यविधानेन विद्विषां प्रेमबन्धेन बन्धूनां लावण्यातिशयेन पण्यनारीणां गुणगरिम्णा गुणलुब्धानां हृदयं सविलासनिवासेनासनस्य मध्यं च ।
८६. अथ प्रथितयशसा तेजसां निधिना पुत्रेण पवित्रतपसां योग्यादहं कुतो भाग्यात्पुत्रपमास्यप्रधानैर्दत्तः पाणियस्य तथाभूतः प्रमावलियं प्रमावलक्ष्मी पाणौ कुर्वजिव हस्ते विदधदिध शिलोचयापचंता केसरियशोद व
हायन्दनाद् रथाद् अवरोह समवत्ततार । सविनयं यथा स्यातथा प्रेमसंभारेण प्रीत्युबेकेण पितरं गग्धोत्कटं मातरं तस्पली च प्रणनाम नमश्चकार । संमुखमागतं प्रश्रमानो हृदयबन्धो यस्य तयाभूतं बन्धुवर्ग स्नेहिसमूह यथाप्रधानं गाढालिङ्गितेन प्रगाढाइलेपेण, प्रौढवचसा प्रकृष्टत्रचनेन, मुग्धहसितेन सुन्दरहास्येन, स्निग्धनिरीक्षणेन स्नेहाल्पविलोकनेन, शिर:कम्पनेन
मुर्धचालनेन करप्रसारण च, संमावयामास सच्चकार च । पुनरनन्तरं निसर्गचतुरः प्रकृतिविदग्धो जीवंधरः, १५ प्रणामाञ्जलिं प्रणामायाजलयो यस्य तथाभूतं पुरापुञ्जितमने संगतं प्रश्रयशालिपरिजनं विनयविशोभि
सेवकसमूह स्यन्दनयुग्यांश्च स्थवाहांश्च विश्रमाय नियुक्षानो समाज्ञपयन्, वेश्मोदरं भवनमध्यं विशन् , आदरकातर्यात् उदश्रमुख्या साश्रुवदनया प्रस्नविन्या क्षरस्कुचया जनम्या निर्वतितो नीराजनविधिर्यस्य सथाभूतोऽयं जीवंधरो हृदि शल्यस्य विधानं तेन चेतःशल्यसमुत्पादनेन विद्विषां शत्रुणा, प्रेमबन्धन
बन्धूनां स्नेहमाजाम्, कावण्यातिशयेन सौन्दर्याधिश्येन पण्यनारीणां रूपाजीवानां गुणगरिम्णा गुणगौरवेण २० गणेष लब्धास्तेषां गुणज्ञानां हृदयं चेतः सविकासश्वासी निवासश्च तेन सविकासनिवासेन भासनस्य विष्टरस्य च मध्यम् आस्रोह ।
६८६. अथेति-अथानन्तरं पितरि जनके पवित्रं तपो येषां तेषां पवित्रतपश्चारिणी योग्यात्
हाथका सहारा दिया जिससे वे प्रभावरूप लक्ष्मीको हाथमें करते हुए के समान जान पड़ते
थे। उन्होंने रथसे उतरकर प्रेमातिरेकसे विनयपूर्वक पिता और माताको नमस्कार किया। २५ तथा जिनके हृदयका बन्धन प्रसिद्ध था ऐसे सम्मुखागत बन्धु वर्गमें किसीको गाढ़
आलिंगनसे, किसीको प्रौद वचनोंसे, किसीको सुन्दर हास्यसे, किसीको स्नेह-भरी दृष्टिसे, किसीको शिर हिलानेसे, और किसोको हाथ पसारनेसे जो जैसा प्रधान था उस तरह सत्कृत किया। तदनन्तर स्वभावसे ही चतुर जीवन्धर कुमारने प्रणाम करने के लिए हाथ जोड़कर
आगे खड़े हुए विनयावभासी परिजनोंको रथके घोड़ोंको विश्राम करानेकी आज्ञा दे महलके ३० भीतर प्रवेश किया। वहाँ आदरकी कातरतासे जिसका मुख हर्षाश्रुओंसे व्याप्त था तथा जिसके स्तनोंसे दूध झर रहा था ऐसी माताने उनकी आरती उतारी। तदनन्तर वे हृदय में शल्य करनेसे शत्रुओंके हृदयपर, प्रेमके बन्धनसे बन्धुओंके हृदयपर, सौन्दर्य की अधिकतासे वेश्याओंके हृदयपर और बिलासपूर्ण स्थितिसे आसनके मध्यभागपर आरूढ हुए।
६ ८६. तदनन्तर 'प्रसिद्ध यशके धारक तथा तेजके भाण्डाररवरूप इस पुत्रसे मैं पवित्र
१.म० प्रणामालिपुर:पुज्जितम् ।
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-विजयवृत्तान्तः]
द्विसीयो लम्भः वानस्मीति विस्मयस्नेहमुखरे पितरि, वितर्कयति कथमुदकः स्याग्निसर्गवीरकुमारवीर्यस्येति विचारनिष्ठे काष्ठाङ्गारे, प्रतिदिशं प्रतिदेश' प्रत्यगारं च कुरुकुलशिखामणेः कुवलयकुटीरसंकटनिवासनिबिडिताभोगां भोगावलीमुपलालयति बाले जरति यूनि च जने, रामभद्रमिव भ्रात्रा प्रलयसमयमिव मित्रमण्डलेन महोधमिव वंशजातेन चन्द्रमसमिव सद्भिः सकलगुणनिकरपरिपूरितैर्वयस्यैः परिवृतं कुमारमभिवन्द्य नन्दगोपः स्वसंतानस्य पुरातनतां राजकुलभृत्यतां च ५ पुरातनपण्मुखमुखविशिष्टानामविशिष्टजातिजाताङ्गनासंगमसंकथां च कथयन् 'भवद्विहितनिर्हेतुकोपकारस्य प्रत्युपकारमपश्यता मया दिश्यमानां परिणयतु मे कन्याम् । न मन्येतान्यत्' इति सदैन्यमयाचत । स च कुरुवंशनभोंशुमाली नीचकुलललनासंपर्कमविवेकिवर्गसुलभमाकलयन् कुतो भाग्याद् भागधेयाद् अहं प्रथितयशसा प्रसिदकीर्तिना तेजसा प्रतापानां निधिना भाण्डारेण पुत्रेण जीवकेन पुत्रवान् सपुत्रोऽस्मीति विस्मयस्नेहाभ्यां मुखरस्तस्मिन् तथाभूते सति, निसर्गेण वीरो निसर्गवीरः १० स चासो कुमारस्सस्य वीर्यस्य पराक्रमस्य उदकः परिणामः कथं की रक् स्यात् इति विचारनिष्ठे काष्ठाङ्गारेवितर्कयति विचारयति सति, प्रतिविशं प्रतिकाटं, प्रतिदेश प्रतिजनपदं प्रतिस्थानं वा प्रत्यगारं च प्रति. भवनं च पाले, जरति वृद्ध यूनि तरुणे च जने कुरुकुलशिखामणेः कुरुवंशशिरोरत्नस्य स्वामिनः, कुवलयं महीमण्डलमेव कटीरं तत्र संकटनिवासेन संकीणांवासेन निषिद्वित: सान्द्रीभूत आभोगो विस्तारो यस्यास्तां भोगावली कीसिंगाथाम् उपळालयति सति, रामममिव दाशरथिमिव भात्रा नन्दायेन पक्षे लक्ष्मणादिना, १५ गलपसमयमिव कल्पान्तकालमिव मित्रमण्डलेन सुहृत्समूहेन पक्षे सूर्यसमूहेन, महीध्रमिय पर्वतमिव बंशजातेन कुलोरपनेन पके वेणुसमूहेन, चन्द्रमसमिव चन्द्रमिव समिः नक्षत्रैः पक्षे सजनैः, सकलगुणानां निखिल गुणानां निकरण समूहेन परिपूरितास्तथाभूतैर्वयस्यैः परिवृतं कुमारं जीवंधरम् अभिवन्ध नमस्कृत्य नन्दगोपः स्वसंतानस्य निजसंततेः पुरातना प्राचीनतां राजकुलस्य राजवंशस्य भृत्यतां दासतां च पुरातनाः पूर्वभवाः षण्मुलमुखाः षण्मुखप्रधाना ये विशिष्ट विशिष्टपुरुषारतेषाम् भविशिष्टजाति जातानानाम् २० असमानजातिसमुत्पन्ननारीणी संगमकथा या समागमवार्ता तां च कथयन् 'भवता विहितो यो निहतुव उपकारस्तस्य प्रत्युपकारम् अपश्यताऽनवलोकमानेन मया दिश्यमानां प्रदीयवानां मे कन्या परिणयतु विबहतु । अन्यत् अन्यथा न मन्धेत' इति सदैन्यं यथा स्यात्तथाऽयाचत । कुरुवंशनोऽशुमाली कुरुवंशतपके धारक जनोंके योग्य किस भाग्यसे पुत्रवान् हुआ हूँ' इस प्रकार पिता गन्धोत्कट जय
आश्चर्य और स्नेहसे मुखर हो रहे थे-उक्त शब्द प्रकट कर रहे थे। काष्ठांगार जब इस २५ प्रकारके विचारमें निमग्न था कि स्वभावसे वीर जीवन्धर कुमारके पराक्रमका परिणाम किस प्रकार होगा ? दिशा-दिशामें, देश-देशमें और घर-घर में जब बालक, बूढ़े और तरुण पुरुष कुरुवंशके शिरोमणि जीवन्धर कुमारकी उस विरुदावलीको प्रशंसा कर रहे थे कि जिसका विस्तार पृथिवीमण्डलरूपी छोटी-सी कुटिया में संकीर्णता पूर्ण निवास करनेसे सान्द्रताको प्राप्त हो रहा था। तदनन्तर जो रामचन्द्रजीके समान अपने भाईसे सहित थे, प्रलयकालक ३० समान मित्रमण्डल-सूर्यमण्डल (पझमें मित्रगण) से युक्त थे, पर्वतके समान वंशजात-बाँसोंके समूह (पक्षमें उत्तम कुलों के समूह) से सहित थे, चन्द्रमाके समान नक्षत्रों (पक्षमें सज्जनों) से युक्त थे और समस्त गुणोंके समूहसे परिपूर्ण मित्रोंसे घिरे हुए थे ऐसे जीवन्धर कुमारको नमस्कार कर नन्दगोपने बड़ी दीनतासे यह याचना की कि आप मेरी कन्याको स्वीकृत कीजिएअन्यथा न समझिए। याचना करते समय उसने अपने वंशको प्राचीनता बतलायी । मैं राज-31
१. ख० प्रतिप्रदेश, प्रतीपदेशम् । क. प्रतिदिशं प्रतोपदेशम् । ग. प्रतिदिशं प्रतिप्रदेशम् । २. म० राजकुलकुलभूत्यताञ्च ।
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गचिन्तामणिः
[ जीबंधरकुमारस्य - 'अलमत्यर्थमथितया । माम, यथाभिमतम्' इति स्वमतानुरूपमुदीरयामास ।
६८७. स च तावता तुष्टो गोपप्रष्ठस्तद्वचनमाकर्ण्य सुखार्णवे निमज्जस्तर्णककुलचविताग्रदूर्वागुच्छशबलितोपशल्यं निःशल्यः प्रविश्य गृहं गृहिण्या अप्यनया वार्तयाप्रवर्तयश्रवणोत्सवं दुहितृकल्याणमहोत्सवे महान्तमकुरुत संरम्भम् । अथ प्रथमानवीर्यधनकुमारसंबन्धेन गोधनोपलम्भादपि शंभरसंभ्रमे!संख्यानां मुख्यस्य गुणैः प्रवृद्धे द्विगुणितोत्सुक्यजनविहितविवाहोत्सवकर्मणि पल्लवितरागवल्लवरामाकरपल्लवसंपकंपुनरुक्तरागरवतमृदुपलिप्तभित्तो रम्भास्तम्भगगनसूर्यः स च जीवंधरी नीश्चकुलललनामा अधमगोत्रोत्पन्नस्त्रियाः संपर्कस्तम् अविवेकिवर्गसुलभमसुधीजनसुलभम् आकलयन् विचारयन् 'अत्यर्थ प्रचुरम् अपितया याचनयाऽलं पर्याप्तम् । हे माम ! यथाभि
मतम् अमिमतमनतिक्रम्येति यथाभिमतं यथा तवेष्टं तथैव मे स्वीकृत मिति यावत्' इति स्वमतानुरूपं १० स्वामिप्रायसदृशम् , उदीरयामास कथयामास ।
६७. स चेति-तावसा तावन्माण तुष्टः स च गोपप्रष्ठो नन्दगोपः तब्दचनं जीवंधरवचनम् आकर्य श्रुत्था सुखार्णवे सुखसागरे निमजनू अन् तर्णककुलैवरससमूहश्चर्वितं मक्षितमनं येषां तथाभूता ये दूर्वागुरुछाः शतपर्वस्तवकास्तैः शवलितं चिग्नितमुपशल्यं समीपप्रदेशो यस्य वयाभूत गृहं सदनं
निःशल्यः शाक्यरहितः सन प्रविश्य, अनया वार्तया भनेन समाचारेण गृहिण्या अपि भार्याया अपि १५ श्रवणोत्सर्व कर्णोल्लासं प्रवर्तयन् दुहिसुः पुथ्याः कल्याणमहोत्सवो विवाहमहोत्सवस्तस्मिन् महान्तं
संरम्ममुद्योगम् अकुरुत । अथानन्तरम् प्रथमानं अथितीभवद् वीर्यमेव धनं यस्य तथाभूतो यः कुमारी जीवधरस्तस्य संबन्धेन गोधनोपलम्मादपि गोधनप्राश्यपेक्षयापि शंभरः सुखोस्पादकः संभ्रमो येषां तैः गोसंख्यानां गोपानां मुख्यस्य गुणैः, द्विगुणितमौत्सुक्यं यस्य तथाभूता ये जनास्तैर्विहितं कृतं यद विवाहोत्सवकर्म परिणयनोत्सवकर्म तस्मिन् प्रबुद्धे सति, परकवितेति-पल्लवितो वृद्धिंगतो रागो यासो २० तथाभूता या बालवरामा गोपगृहिण्यस्तासां करपलचाना हस्तकिसलयानो संपर्कण पुनरुफराया
पुनरुदीरितलौहिल्या या रकमृद् कोहितमृत्तिका तयोपलिप्ता भित्तयः कुख्या यस्मिन् तस्मिन्, रम्भतिवंशका कुलपरम्परागत सेवक हूँ"यह कहा और साथ ही उसने षण्मुख आदि विशिष्ट पुरुषोंका सामान्य जातिमें उत्पन्न स्त्रियों के साथ समागम हुआ है यह कथा सुनायी। आपने
मेरा अकारण उपकार किया है, मैं बदले में आपका दूसरा उपकार न देख अपनी कन्या २५ समर्पित कर रहा हूँ"यह भाय प्रकट किया।
६८७. कुरुवंशरूपी आकाशके सूर्य जीवन्धरकुमार, 'नीचकुलकी स्त्रियों के साथ सम्पर्क करना अविवेकी मनुष्यों के लिए सुलभ है' ऐसा विचार करते हुए बोले कि 'अत्यधिक याचना करना व्यर्थ है। मामाजी! आप जो चाहते हैं वह मुझे इष्ट है' इस प्रकार कहकर उन्होंने
अपने अभिप्रायकी अनुकूलता प्रकट की। गोपालोंका स्वामो नन्दगोप उतनेसे ही सन्तुष्ट हो ३० गया । वह उनके वचन सुन सुखके सागरमें निमग्न हो गया। जिनका अग्रभाग बछड़ों के
द्वारा चबाया गया था ऐसी दूबाके गुच्छोंसे जिसका समीपवर्ती स्थान चित्रित था ऐसे घरमें निःशल्य भावसे प्रवेश कर उसने इस समाचारसे अपनी बीके भी कानोंको आनन्द उत्पन्न कराया । वह अपनी पुत्रीके विषाहोत्सबकी बड़ी-बड़ी तैयारियाँ करने लगा। तदनन्तर प्रसिद्ध
पराक्रमरूपी धनके धारक जीवन्धर कुमारके साथ सम्बन्ध होनेसे, गोधनकी प्राप्तिको अपेक्षा ३५ भी अधिक सुख और संभ्रमको धारण करनेवाले गोपपति नन्दगोपके गुणोंसे जो अत्यधिक
वृद्धिको प्राप्त हो रहा था, दुगुनी उत्सुकतासे युक्त मनुष्यों के द्वारा जहाँ विवाहोत्सबके कार्य किये गये थे, रागसे भरी गोपालखियोंके हस्वरूपी पल्लवोंके सम्पर्कसे पुनरुक्त लालिमासे
१. क० ख० ग० माम, अयथाभिमतम् ।
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११३
-विवाहवृत्तान्तः]
द्वितीयो लम्मा शुम्भितद्वारि समदंविषटितघटघटाप्रबहदूधस्याज्यदधिकर्दमितभुवि हरितगोमयोपलिप्तस्थलनिष्पादितदम्यशष्पाकुरतृषि कोलाहलक्षुभितवत्सवात्सल्याकुलकुण्डोध्नीकुण्डलितविषाणकोटिविघटितजनविमर्दै गोसंख्यमुख्यावासे स्नातानुलिप्तामलंकृतविस्मितामालोक्य विस्मयस्मेरमुखाभिल्लव वल्लभाभिः 'अस्या वल्लभ एना केन सुकृतेन क्षीरमधुरस्वरामपनीतनबनीतमार्दवाडम्बरां तदात्वगतसपिःसंकाशकायकान्ति मुकुलितथिकामुकुलघवलिम'सौकुमार्यदन्तपडिक्त ५ निर्वासितवायसकालिमकचपल्लवामुद्भिद्यमानदृषककुदोपहासिकुचयुगलामनुभोक्तुं लब्धवान्' इति व्यक्तमुपलाल्यमानां गोदावरीदुहितरं गोविन्दामानीय नन्दगोपः कुमारकरकमले वारि समावर्जयत् । कुमारोऽपि 'अमुं मामेव गात्रमात्रभिन्नं मन्यस्व' इति वदन् 'पद्ममुखाय' इति रम्भास्तम्भोंचास्तम्भैः शुम्भितानि द्वारि यस्य तस्मिन् , संमर्देति-संमर्दैन विघटिता या घटघटा घटश्रेणयस्ताभ्यः प्रवहद्भिः अवस्याज्यदधिमिदुग्धधृतदधिमिः कर्दमिता पशिला भूर्यस्मिस्तस्मिन्, १० हरितेति-हस्तिगोमयेन हरिद्वर्णगोवरेणोपलिप्तैः स्थलैर्निप्पादिता दम्यानो तर्णकानां शष्पाकरतृष्ट् हरिद्धासाङ्करतृष्णा यस्मिंस्तस्मिन्, कोलाहलेति-कोलाहलेन कलकलरवेण क्षुभिताः प्राप्तक्षोभा थे वस्सास्तेषां बारसमयेनाकुलाः याः कुण्डोयो गावस्तासां कुण्डलिवामिवक्रीकृताभिर्विषाणकोटिभिः सामागैर्विघटितो विद्रावितो जमविमर्दो जनसमूहो यस्मिस्तस्मिन् गोसंख्यमुख्यावासे नन्दगोपभवने, आदौ स्नासा पश्चादनुलिप्ता ताम्, अलंकृता धासौ विस्मिता र ताम् आलोक्य विस्मयेनाश्चर्येण स्मेरमुखास्तामिः १५ पल्लववल्लभाभिर्गोपाङ्गनाभिः 'भस्था पक्कमः क्षीरमिव मधुरः स्वरो यस्यास्ताम, अपनीतो दूरीकृतो नवनीतमार्दवाडम्बरो यया वाम् , सदात्वहुतं तरकालनिस्यन्दितं यत् सर्पिघृतं सस्य संकाशा कायकान्तिदेहदीतिर्यस्यास्ताम् , मुकलिताः कुन मलिता पा यूथिकास्तासां मुकुलानां कुमकानामिष धवकिमा सौकुमायं च यस्यास्तथाभूता दसपक्तिर्यस्यास्ताम् , निर्वासितो दूरीकृतो वायसाना काकानां कालिमा पैस्तथाभूताः कचपकषा यस्यास्ताम्, उनियमान प्रकटीमवत् वृषककुदोपहासि कुथुगलं २० पस्यास्ताम् , एवंभूताम् एनां पुत्रीम् भनुमोक्तु केन सुकृतेन केन पुण्येन कब्धवान्' इति म्यतं यथा स्यात्तथा युक्त लाल मिट्टीसे जहाँ दीवालें लीपी गयी थी, जहाँ केलेके खम्भोंसे दरवाजे सुशोभित हो । रहे थे,भीड़की अधिकतासे फूटे हुए घड़ोंके समूहसे निकलकर बहनेवाले दूध, घी और दहीके द्वारा जहाँकी भूमिमें कीचड़ मच रही थी, हरे-हरे गोबरसे लिपे हुए स्थलमें जहाँ बछड़ोंको घासके अंकुरोंकी तृष्णा उत्पन्न हो रही थी, और कोलाहलसे क्षुभित बछड़ोंके स्नेहसे व्यन २५ गायोंके गोल-गोल सींगोंके अग्रभागसे जहाँ मनुष्योंकी भीड़ तितर-बितर की जा रही थी ऐसे नन्दगोपके भवनमें स्नानके अनन्तर लेपको धारण करनेवाली आभूषणोंसे सुसज्जित और आश्चर्थको उत्पन्न करनेवाली गोदावरीकी पुत्री गोविन्दाको देख आश्चर्य से खिलनेवाले मुखांसे मुक्त गोपालक स्त्रियाँ उसकी इस प्रकार प्रशंसा करने लगी | जिसका स्वर दूधके ममान मीठा है, जिसने मक्खनकी कोमलताका आडम्बर दूर कर दिया है, जिसके शरीरकी ३० कान्ति तत्काल पिघलाये हुए घीके समान है, जिसके दाँतोंकी पंक्तिने जुहीको बोंडियोंकी सफेदी
और सुकुमारनाको निरस्कृत कर दिया है, जिसके केशोंके अंचलने कौएको कालिमाको दूर कर दिया है, और जिसके बैलको काँदोलकी हँसी उड़ानेवाले स्तनोंकी जोड़ी उठ रही है ऐसी इस कायाको उपभोग करने के लिए इसके पति ने किस पुण्यसे प्राप्त किया है ? गोविन्दाको लाकर नन्द गोपने जीवन्धर कुमारके हस्तकमलमें जल छोड़ा। और कुमारने भी इसे शरीरमात्रसे ३५
१.क.० स० ग. धवलितम ।
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५४४
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गचिन्तामणिः [ जीवंधरस्य विवाइवृत्ताम्तः - पयोधारां पर्यग्रहीत् । पभमुखस्तदनु गोविन्दा प्रदक्षिणभ्रमणपिशुनितशुभोदाचिषः सप्ताचिषः संनिधौ तदीयपाणिपल्लवस्पर्शपल्लवितरागस्तां पर्यणेषोत् ।
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८८. इति श्रीमदादीसिंहसरिविरचिते गद्यचिन्तामणी
गोविन्दालम्भो नाम द्वितीयो लम्भः ।
५ उपलायमानां प्रशस्यमानां गोदावरीदुहितरं गोविन्दामानीय मन्दगोपः कुमारकरकमले जीवंधर
हस्तारविन्दे वारि समावर्जयत् ददौ। कुमारोऽपि 'श्र, पुरोवर्तमानं मामेव गानमात्रेण शरीरमात्रेण भिनं मन्यस्त्र' इति वदन् कथयन् 'पभमुखाय' इति वार्यहम् एतां वारिधारामहं पद्ममुखाय गृहामीति कथयिस्वा पयोधारां जलधारी पर्यप्रहीत् । सदनु पप्रमुखस्तदीयपाणिपल्लवस्पर्शन पएकवितो वृद्धिंगतो
रागो यस्य तथाभूत: सन् सो गोविन्दाम् प्रदक्षिणभ्रमणेन पिशुनितः सूचितः शुमोदकों यैस्तथाभूता१० भ्यचौषि ज्वाला यस्य तस्य सप्ताषिोऽग्नेः संनिधौ पर्यणैषीत् परिणीतवान् ।
६८८. इति श्रीमहादीमसिंहसूरिधिरचिते गयचिन्तामणौ गोविन्दालम्भो नाम द्वितीयो कम्भः ॥२॥
भिन्न मुझे ही समझो' यह कह पामुखके लिए जलधारा ग्रहण की। तदनन्तर गोविदाके हस्त
रूपी पल्लवके स्पर्शसे जिसका राग बढ़ रहा था ऐसे पद्ममुखने, प्रदक्षिण भ्रमणसे शुभफलको १५ सूचित करनेवाली ज्वालाओंसे युक्त अग्निके सानिध्यमें उसे विवाहा।
६८८. इस प्रकार वादीमसिंह सूरि-विरचित गद्यचिन्तामणिमें गोविन्दासम्म ( गोविन्दाको
प्राप्तिका वर्णन करनेवाला ) नामका द्वितीय रूम्भ पूर्ण हुमा ।
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नान्तः
नाचिषः
तृतीयो लम्भः $ ८६. अथ परिस्फुरत्पड्वेस्हङ्गिभासुरमुखे पद्ममुखे पचनसखसाक्षिक सानन्देन नन्दगोपेन दत्तामिन्दुमुखीं गोविन्द परिणीय निजावर्जननैपुणपरिहृतपङ्कजशशाङ्कपरस्परविरोधपुनरावृत्ति शङ्कयेव तया सह सदा संगते रममाणे गोविन्दारमणे, वीरश्रीजीवितेश्वरे जीवककुमारेऽप्यनुदिनम् 'अनुजीवककुमारं वीर्यवन्तः शौर्यशालिनो मान्या वदान्याः प्राप्तरूपा अभिरूपाश्च' ५ इति गुणलुब्धैरभिष्ट्रयमानगुणराशौ राजति, राजपुरीवास्तव्यः समस्तगुणशेवधिरन अधिकश्नीः श्रोदत्तो नाम बैंश्योत्तमो वित्तोपचये व्यासक्तमतिरेवं व्यचीचरत् ।
जीपंधररमात्रेण हामीति द्धिंगतो गभूता
::॥२॥
हस्तरुलको
८. अथेति-अथानन्तरं परिस्फुरन्ती विकसन्ती या पधेरहमङ्गिः कमलपरम्परा तहासुरं मुखं यस्य तस्मिन् पप्रमुखे जीवंधरसुहृदि पवनसखो वह्निःसाक्षी यस्मिन्कर्मणि यथा स्यात्तथा सानन्देन सयमादेन बम्पनीषन म.पालामखन सामपिताम इन्दमुखी चन्द्रवदना गोविन्द परिणीय विवाह निजावर्जननैपुणेन स्वकीयवशीकरणचातुयण परिहृतो दूरीकृतो यः पङ्कजशशाकयोः कमलचन्द्रमसोः परस्परविरोधस्तस्य पुनरावृत्तेः शङ्का तयेव, एममुखः पद्मसरशमुखत्वेन पनरूपो गोविन्दा च चन्द्रमुखीरवेन चन्द्ररूपी, लोके पद्मचन्द्रयोविरोधः प्रमिथः परन्तु पवामुखेन स्ववशीकरणपाटबेन स विरोधोऽपास्तः, स तया चन्द्र मुख्या सह मिलितः इस्थं दरी कृतो विरोधः पुनरावृत्तो न भवेदिति शङ्कयेय स सया सह सदा संगतोऽभवदिति भावः। तया गोविन्दया सह सदा संगते मिलिते गोविन्दारमणे पभमुखे रममाणे १५ सुरतानन्दमनुभवति सप्ति, 'यस्य च भावे भावलक्षणम्' इति सप्तमी। वीरश्रिया वीरतम्या जीवितेश्वरी वल्लभस्तस्मिन् जीयककुमारेऽपि अनुदिनं प्रतिदिवसं 'वीर्यवन्त: पराक्रमिणः शौर्यशालिनः शूरत्वशोभिनः मान्या आदरणीया वदान्या उदाया: प्रातरूपाः सुन्दरा अमिरूपाः कुलीनाश्च जोधककुमारमनु' 'हीने' इत्यनेन कर्मप्रवचनीयस्वादनुयोगे द्वितीया जीवन्धरकुमाराद् हीनाः सन्तीति शेषः, इतीरथं गुणलुब्धैः अभिष्ट्रयमानो गुणशशिर्यस्य तस्मिन् , राजति शोममाने सति, राजपुरीवास्तव्य एतमामराजधानीनिवासी, समस्तगुणानां शेवधिनिधिः अनवधिका श्रीर्यस्य तथाभूतः श्रीदत्तो नाम वैश्योत्तम उरुजश्रेष्टो वित्तोपचये धनार्जने ध्यासका मतियस्य तयाभूतः सन् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण व्यचीचरत् विचारयामास ।
६८६. अथानन्तर खिले हुए कमलकी शोभासे सुशोभित मुखसे युक्त पद्ममुख जब अग्निको साक्षीपूर्वक हर्षित नन्दगोपके द्वारा प्रदत्त चन्द्रमुखी गोविन्दाको विवाह कर अपने वशीकरणकी चतुराईसे दूर किये हुए कमल और चन्द्रमाके पारस्परिक विरोधसम्बन्धी पुनरावृत्ति- २५ की आशंकासे ही मानो उसके साथ सदा संगत रहकर क्रीड़ा करने लगा और चोरलक्ष्मीके स्वामी जीवन्धरकुमार भी जब प्रति दिन गुणोंके लोभी मनुष्यों के द्वारा 'संसारमें जितने वीर्यवन्त, शक्तिवन्त, माननीय, उदार, रूपवन्त और कुलवन्त हैं वे सब जीवन्धरसे पीछे हैं-उनसे हीन है' इस प्रकार स्तुति किये जानेवाले गुणों के समूहसे युक्त हो सुशोभित होने लगे तब राजपुरीमें रहनेवाला, समम्न गुणोंका भण्डार, असीमलक्ष्मीसे युक्त श्रीदत्त नामका ३० वैश्य धनसंचय करने में आसक्तचित्त हो इस प्रकार विचार करने लगा।
१.क० स० ग० भासुरतरमुखे । २. २० ख० ग० राजति अथ राजपुरीबास्तव्यः ।
१९
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गयचिन्तामणिः
[३० श्रीदसवैश्यस्थ९०. अस्मपितृपितामहादिभिरजितमस्तोकमस्ति चेदपि वस्तु स्वहस्ताजितमिवोन्नतचित्तस्य न चित्तप्रसादमावहति । आवहतु वा । कथं तदायरहितं धनमव्ययं स्यात्, शश्वदुपभोगे गिरिरपि नश्यतीति जनवादश्रुतेः । बीतवित्ततायाश्च किमपरमरुन्तुदम् । असुभृतां हि दारिद्रय
मसुभिर्युक्तं मरणमशस्त्रसंपाचं हृच्छल्यमनात्मप्रशंसनं हास्यतानिदानमनाचारपरिक्षय उपेक्षा५ हेतुरपित्तोद्रेकज मुन्मादान्ध्यमक्षपास्फुरणममित्रतानिमित्तम् । किमपरमुदीर्यते । रिक्तस्य न चचो
जीवति, नाभिजात्यं जागति, न पौरुषं परिस्फुरति, न विद्या विद्योतते, न शोलमुन्मोलति, न शेमुषो समुन्मिषति, न धार्मिकता संभाव्यते, नाभिरूप्यं निरूप्यते, न प्रश्रयः प्रशस्यते, न कारुण्यं गण्यते, पाकः पलायते, विवेको विनश्यति, किमन्यन्न भ्रश्यति । धनोपचये तु लोकद्व
९०. अस्मदिति-अस्मपितृपितामहादिमिर्यपूर्व पुरुषैर्जितम् अस्तोकं विपुलं वस्तु वित्तम् १. अस्ति चदपि तथापि स्वहस्तनार्जितं संचितमिवोन्नतचित्तस्य उदाराशयस्य चित्तप्रसादं मनोहर नावहति ।
आवतु वा। आयरहितं वृद्धिरहितं तद्धनम् अव्ययं विनाशरहितं कथं स्यात् । शश्वदुपभोगे निरन्तरीपमोगे गिरिरपि पर्वतोऽपि नश्यतीति जनवादश्रुतेः लोकोक्तिश्रवणात् । वीतं वित्तं यस्य तस्य भावस्तस्या निर्धनतायाश्च अपरमन्यत् अरुंतुदं ममेव्यथकं किम् । असुभृतां प्राणिनां हि दारिद्रय निधनरवम्
असुमिः प्राणयुक्तं मरणम जीवितसरणतुल्यमित्यर्थः, न शस्त्रेण संपायमियशस्त्रसंपाचं हृच्छल्पम् , न १५ विद्यत आत्मप्रशंसनं यस्मिन् तत् अनात्मप्रशंसनम् आत्मश्लाघारहितं हास्यतानिदानं हास्यताकारणम्,
न विद्यत श्राचारस्य परिक्षयो यस्मिन् तथाभूतं उपेक्षाहेतुरनादरनिमित्तम्, न पित्तस्योद्रकेण जातमिरयपित्तोडेकजम् उन्मादान्धरामुन्मादजनितान्धत्वम्, न विद्यते क्षपायां निशायां स्फुरणं यस्य तथाभूतम् अमित्रतानिमित्तं सूर्याभावकारणं पक्षे शत्रुताकारणम् अपरं किम् उदीयते निगद्यते । रिक्तस्य
दरिद्रस्य न वचो जीवति, न आभिजात्यं कुलीनत्वं जागर्ति प्रकटीभवति, न पौरुवं पुरुषत्वं परिस्फुरति २० योतते, न विद्या पाण्उिस्यं विद्योतते प्रकाशते, न शीलं सौजन्यम् उन्मीलति प्रकटोभवति, न शेमुषी
मनीषा समुन्मिपति विकसति, न धार्मिकता धर्म चरति धार्मिकस्तस्य भायो धर्माचरणं संभाव्यतेऽ. नुमीयते, न आमिरूप्यमानुकूल्यं निरूप्यते, न प्रश्रयो विनयः प्रशस्यते श्लाध्यते, न कारुण्यं दयालुता गण्यते प्राद्रियते, पाको निष्ठा मर्यादेत्यर्थः पलायते विद्रवति, 'पाको जरापरीपाके स्थाल्यादौ क्लेद
६६०. यद्यपि हमारे पिता और पितामह आदिके द्वारा संचित बहुत धन विद्यमान हैं २५ तथापि वह अपने हाथसे संचितके समान उदात्तचित्त मनुष्य के चित्तमें प्रसन्नता
उत्पन्न नहीं करता। अथवा करे भी। परन्तु आयसे रहित वह धन अविनाशी कैसे हो सकता है। निरन्तर उपभोग होनेपर पर्वत भी नष्ट हो जाता है ऐसा लोगोंका कहना सुना जाता है। और निर्धनतासे बढ़कर मर्मको भेदन करनेवाली अन्य वस्तु क्या हो सकती है। यथार्थ में
प्राणियोंकी दरिद्रता प्राणोंसे सहित मरण है, शस्त्रके बिना की हुई हृदयकी शल्य है, अपनी प्रशंसा३० से रहित हास्यका कारण है, आचरणके विनाशसे रहित उपेक्षाका कारण है. पित्तके उदेकले
बिना ही होनेवाला उन्माद सम्बन्धी अन्धोपन है, और रात्रिके आविर्भावके बिना ही प्रकट होनेवाली अमित्रता ( पक्षमें सूर्याभाव ) का निमित्त है। अधिक क्या कहा जाये, दरिद्र मनुष्यका न वचन जीवित रहता है न उसकी कुलीनता जागृत रहती है, न उसका पुरुषार्थ
देदीप्यमान रहता है, न उसकी विद्या प्रकाशमान रहती है, न शील प्रकट होता है, न बुद्धि ३५ विकसित रहती है, न उसमें धार्मिकताकी सम्भावना रहती है, न सुन्दरता देखी जाती है, न विनय प्रशंसनीय होती है, न दया गिनी जाती है, निष्ठा-श्रद्धा भाग जाती है, विवेक नष्ट हो
१. क० नहि वचो जीवति । ख० ग० रिक्तस्य हि वनो जीवति ।
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-समुन्न यात्रावृत्तान्तः]
द्वितीयो लम्भः योचितपुरुषार्थोऽप्यप्रार्थित एव स्वयमायाति । ततो यतितव्यं वित्ताय' इति विचारानन्तरमखिलान्तरायध्वंसनकृते कृतजिनसपर्याविधिदिहिनदिविधपात्रदानो यानपात्रमारुह्य रत्नाकरमगाहिष्ट, न्यवतिष्ट च निखिलद्वीपोपचितनिःसीमवसुराशिः, अशिश्रियच्च पारावारस्यावारपर्यन्तम् ।
६१. अत्रान्तरे नितान्तजवनपवनपथप्रापितपयोधिपयःसंभारस्थलावशेषितरत्नाकररलनिकरैस्तार कितमिव तारापथमधःप्रकटयन्स्फाटिकदण्डाकारनीरधारावलिधारासंपातः समावि- ५ रासीत् । पुनरुपर्युपरि प्रचुरतरीभवदासारेण स्फाररयेण समीरेण समुल्लासितसलिलनिधिकल्लोलकगस्फालनबलदलितदिनकृतीय तिमिरनिचये सूचीमुखनिर्भेद्ये सति, मन्देतरपरिभ्रमणमन्दरगन्थनिष्ठयोः' इति विश्वलोचनः । विवेको योग्यायोग्यविज्ञानं विनश्यति, अन्यत् किं न भ्रश्यति नश्यति । अपि तु सर्वमेव नश्यति । धनोपचये वित्तसंग्रहे तु लोकद्वयोचितपुरुषार्थेऽपि उभयलोकार्हपुरुषार्थोऽपि अप्रार्थित एवायाचित्तोऽपि स्वयम् आयाति । ततो 'विताय धनाय यतितव्यं चेष्टितव्यम्' विचारानन्तरम् १० अखिलाश्च तेऽन्तरायाश्च तेषां धंसनकृते विनाशाय कृतो जिनस्य सपर्याविधिः पूजाविधियन सः, विहितं सकृतं विविधं नानाप्रकारं पानदानं येन तथाभूतः सन् यामपानं पोतम् आरुय रत्नाकर सागरम अगाहिष्ट प्रविवेश, निखिलद्वीपेषु समस्तद्वीपेषपचितः समर्जितो निःसीमवसुराशिरसंख्यधनराशियेन तथाभृतः सन् न्यवतिष्ट च प्रत्याजगाम च, पारावारस्य सागरस्य श्रवारपर्यन्तम् एतत्तटम् अशिश्रियच्च प्रामोच्च।
६९१. अत्रान्तर इति-अन्नान्तरे एतन्मध्ये नितान्तजवनेन तीनवेगेन पवनपथे गगने प्रापितो या पयोधिपयःसंभारः सागरसलिलसमूहस्तेन स्थलावशेपितस्य रिकीकृतस्य रत्नाकरस्य सागरस्य स्ननिकरा मणिसमूहास्तैः तारकाः संजाप्ता यस्मिस्तत् तथाभूतमिव नक्षत्रनिचयनिचितमिव तारापधं गगनम् अधः प्रकटयन् नीचैर्दर्शयन् स्फाटिकदण्डाकारा नीरधारावलयो यस्मिन् तथाभूतो यो धारासंपात आसारो धोरवृष्टिः समाविरासीत् प्रादुरभूत् । पुनरिति-पुनस्तदनन्तरम् उपर्युपरि अग्रेऽग्रे प्रचुरतरीमवलासारो २० यस्मिन्तेन दो?भवद्धारासंपातेन स्फाररयेण तीयवेगेन समीरेण नभस्वता समुल्लासिताः समुरक्षेपिता ये सलिलनिधिकल्लोला: सागरतरङ्गास्त एव करा हस्तास्तेषामास्फालनबलेन प्रसारणबलेन दलितः खण्डितो दिनकृत् सूर्यो येन तस्मिन् तिमिरनि चये ध्वान्तसमूहे सूचीमुखनिर्भये प्रगाढे सति मन्देवरं सोनं परिभ्रमणं जाता है अथवा और क्या नहीं नष्ट होता। इसके विपरीत धनका संचय रहने पर दोनों लोकोंके योग्य पुरुषार्थ भी बिना प्रार्थना किये ही स्वयं आ जाता है। अतः धनके लिए यत्न करना २५ चाहिए। इस प्रकार के विचार के अनन्तर समस्त विघ्नोंको नष्ट करने के लिए जिसने जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की थी और नाना प्रकार के पात्रों के लिए दान दिया था ऐसा श्रीदत्त जहाज पर बैठकर समुद्र में प्रविष्ट हुआ और समस्त द्वीपोंमें असीम धन राशिका संचय कर लौट आया । लौटते समय वह समुद्र के इस तटके समीप आया ।
६६१. इसी बीचमें स्फटिकके दण्डके समान बड़ी मोटी जलधाराओंके समूहसे युक्त ३० मुसलधार वर्षा होने लगी। उसी समय समुद्रका समस्त जल तोत्र वेगसे आकाशमें पहुँच चुका था और स्थलमें समुद्र के रत्नोंका समूह ही शेष रह गया था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे युक्त आकाशको वह नीचे ही प्रकट कर रही हो । सूचीमुखसे दुर्भेद्य-धनघोर अन्धकारका समूह फैल गया। उससे ऐसा जान पड़ता था मानो पुनः पुनः ऊपर-ऊपर धाराबद्ध वृष्टिको अत्यन्त प्रचुर करनेवाले एवं तीत्र वेगसे युक्त वायुके द्वारा समुद्रकी लहरे रूप जो हाथ ३५ ऊपर की ओर उल्लसित हो रहे थे उनके संचालन के बलसे सूर्य नष्ट ही हो गया था। समुद्रका
१. क० ख० ग. विविध पदं नास्ति । २. क. 'मन्थ' पदं नास्ति ।
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गचिन्तामणिः
[ ११ श्रीदत्तवैश्यस मथनेनेव घूर्णमाने भृशमर्णवार्णसि, प्रपञ्चतरीभवत्प्रभञ्जनभञ्जनजनितजलनिधिकल्लोलनूत शोणितकणपुञ्ज इव रञ्जितसनीडे पाटलचिद्रुमलतापटले प्लवमाने, चटुलाचलपाटनपाटवस्फु तपयोधिस्फीतास्थिसंघ इवासंख्यशङ्खनिवहे प्रेवति, विशृङ्खलतोयाशयशोकफूत्कार इव श्रूयमा
भोकरलहरीप्रहाररवे, निघृणसमीरणपीडितनीरधिरोषकृपोटयोनाविव बाडवानले परिस्फुर्रा ५ स्फीतबलान्धगन्धवहप्रतिग्रहणप्रवण इव जवनजलनिधिजलवेणीप्रयाणे प्रेक्ष्यमाणे, प्रतिसरत्सलिर
वेणीबलसमीपसंचारिणि चामरवितान इव बहलधवलफेनजाले प्रचलति, तुच्छेतरपयोराश्यावर्तग पयोदवृन्द इव पयःपूर्णे घूर्णमाने यानपात्रे, कर्णधारवदनग्लानिकण्ठोक्तपोतविनाशविनिश्चये यस्य तथाभूतो मन्दरो मेरुरेव मन्थो मन्थन दगडस्तेन मथनेनेय दिलोडनेनेव अर्णवार्णसि सागरसलि. भृशमत्यन्तं चूर्णमाने सति भ्रमति सति, प्रपनतरीभवन् दीर्घतरीभवन यः प्रभञ्जनः प्रचण्डपवनस्तेन भजन ब्रोटनं तेन जनितः समुत्पन्नो जलनिधिकल्लोलेपु तोयधितरङ्गेयु नूतनो नवीनी यः शोणिवकणपुजी रुधिः कणसमूहस्तद्वत् , रञ्जितसनीडे रक्तवर्णीकृतपाइर्वप्रदेशे पाटलमीपद्रक्तं यद् विदुमलतापटलं प्रवालवल्ली समूहस्तस्मिन् प्लबमाने तरति सति, चटुलानां वायुवशेन चलितानामचलानामन्तःस्थगिरीणां यत्पाटनपाटर विदारणसामध्यं तेन स्फुटितः प्रकटीकृतः पयोधेः सागरस्यास्थिसच इव कीकससमूह इव असंख्यशङ्क
निवहे प्रचुरकम्बुकलापे प्रेङ्कति सति चलति सति, विश्लेन वृद्धिंगतो यस्तोयाशयस्य जलनिधेः शोकस्तस्त्र १५ फूरकार इव रोदनध्वनाविव भीकरो भयोत्पादको यो लहरीप्रहारस्तरङ्गाघातशब्दस्तस्मिन् श्रयमाणे
निशम्यमाने, निर्धगसमीरणेन निर्दयपवनेन पीडितो यो नीरधिस्तस्य रोषकृपीटयोनाघिव क्रोधाग्नाविव बाडवानले बाढवाग्नी परिस्फुरति देदीप्यमाने सप्ति, स्फीतवलेन प्रचुरपराक्रमेणान्धो यो गन्धवहः पवनस्तस्य प्रतिग्रहणेऽवरुध्य परिग्रहणे प्रवण इव समर्थ इव जवनं वेगशालि यज्जलनिधिजलस्य सिन्धु.
सलिलस्य वेणीप्रयाणं प्रवाहप्रसरणं तस्मिन् प्रेक्ष्यमाणे दृश्यमाने, प्रतिसरत् प्रतिगच्छद् यरसलिलवेणी२० बलं जलप्रवाहसैन्यं तस्य समीपे निकटे संचरतीत्येवंशीलस्तस्मिन् चामरवितान इव बालव्यजनसमूह
इव बहलं विपुलं धवल सितं च यत्फेनजालं डिण्डीरसमूहस्तस्मिन् प्रचलति सति, तुच्छेतरो दीर्घतो यः पयोराश्यायतः समुद्रभ्रम एव गर्तस्तस्मिन् पयोदवृन्द इव मेघसमूह इव पयःपूणे जलभृते यानपात्रे जल अत्यधिक घूमने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो अत्यधिक परिभ्रमणसे युक्त
मन्दराचल रूप मथानीसे मथे जानेके कारण ही घूमने लगा था। समीपवर्ती प्रदेशको लाल १ लाल करनेवाला मूंगाकी श्वेतरक्त लताओंका समूह तैरने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने
लगा मानो उत्तरोत्तर अत्यन्त प्रचण्ड होनेवाली आँधोके द्वारा की हुई टूट-फूटसे उत्पन्न समुद्रकी तरंगोंके नये-नये खूनके कणोंका समूह ही तैरने लगा था। असंख्यात शंखोंका समूह चलने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो चंचल पर्वतोंकी तोड़-फोड़ सम्बन्धी सामर्थ्यसे
ट्ठी हुई समुद्रकी विस्तृत हड्डियोंका समूह ही चलने लगा था। भयंकर लहरोंके प्रहारसे १. उत्पन्न शब्द सुनाई देने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो बढ़ते हुए शोकके कारण
समुद्र फुक्के हो मार रहा हो-जोर-जोरसे रो रहा हो। निर्दय वायुके द्वारा पीडित समुद्रको क्रोधाग्निके समान सब ओर बडवानल चमकने लगी। समुद्र के जलके रंगशाली प्रवाह निकलनिकलकर बहते हुए दिखाई देने लगे और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो वे प्रवाह
अत्यधिक बलसे अन्धे पवनको पकड़ने के लिए समथे ही हों। बहते हुए जल-प्रवाह के समीप ३५ चलनेवाला अत्यधिक सफेद फेनका समूह इधर-उधर चल रहा था उससे ऐसा जान पड़ता
था मानो चमरोंका समूह ही चल रहा हो। और विशाल समुद्रकी भँवररूप गर्त में मेघ
१.क० जवनजलधिजल।
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- समुदयात्रावृत्तान्तः ]
द्वितीयो लम्मः
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निश्चेतनगात्रान्यानपात्रप्रध्वंसनात्प्रागेव प्राप्तशोकसागरान्नाविकानालोक्यायमधोती जिनशासने स्वयमपगताधिरपास्तसकलसङ्गश्च भवन्सांयात्रिकः श्रीदत्तो दत्तहस्तावलम्बनः 'किं बत, बालिशा इव भवन्त: क्लिश्यन्ते । किं वा क्लिश्यमानान्न दैवतं क्लिश्नाति । न वा क्लिश्नातु तथाप्यापदागामिनीति मनसिकृत्य शोकवशीभवजनः स्वयमेवात्मानमास्तां भवान्तरे तदात्व एव विपदा घटयति । सर्च कषविषादादविसह्या विपदपरा का भवेत् । अतो न विषादः कार्यः । किं ५ तु धैर्यमविलम्बितमवलम्ब्यताम् । धृतिमन्तो हि निजोपान्तगतां पोडामेव पीडयन्त: परपीडामपि विभजेरन' इति कारुण्याजितमतिरभिदधे। तिरोदधेच तरणिः । संनिदधे च कोऽपि कपखण्डः ।
पोने घूर्णमाने सति भ्रमति सति, कर्णधारस्य नात्रिकस्य यद् वदनं मुखं तस्य ग्लानिनिः श्रीकता नया कण्ठोक्तः स्पष्टप्रकटितो यः पोतविनाशनिश्चयो जलयानविनाशविनिर्णयस्तन निश्चेतनं जडप्रायं गात्रं येषां तान् , यानपात्रस्य नौकायाः प्रध्वंसनं विनाशस्तस्मात् प्रागेव पूर्वमेव प्राप्तो सन्धः शोकसागरो यैस्तान् । नरविकान् नौयायिन भालोक्य इष्टवा, अयमेष जिनशासने विषयार्थे सक्षमी अधीतमेमेत्यधीती जिनशास्त्रा. ध्ययनकुशल इति यावत् , अपगतो नष्ट आधिर्मानसिकन्यथा यस्य तथाभूतः अपास्तस्यक्तः सकलसङ्गो निषिलपरिग्रहो येन तादृशश्च सन् सांयात्रिकः पोतवणिक् 'सांयात्रिक पोतवणिक कर्णधारस्तु नाविकः' इत्यमरः श्रीदत्तस्तन्नामवैश्यपत्तिः दसं हस्तावलम्बनं येन तथाभूतः सन् इतीत्थं कारुण्यावर्जितमतिर्दयाधीनबुद्धिः भवन् अनिदधे जगाद। इसीप्ति किम् । बत इति खेदे भवन्तो बालिशा इवाज्ञानिन इव किं २५ क्लिश्यन्ते दुःखीभवन्ति । किं वा क्लिश्यमानान् दुःस्त्रीभवतो जनान् दैवतं दैवं न क्लिश्नाति न पीडयति । धा पक्षान्तरे न क्लिइनातु न दुःखीभवतु तथापि आपद् भापत्तिः भागामिनी इति मनसिकृत्य निश्चित्य शोकवशीभवन् शोकायत्तीभवन् जनः स्वयमेव आत्मानं स्वम् भास्तां दूरीभवतु मवान्तरेऽन्य. स्मिान्मनि तदारव एव तत्कालमेव विपदा विपत्या घटयति योजयति । सर्वकषशासौ विषादति सर्वकषविषादो निखिलोस्पीडिखेदस्तस्माद् अपरा भिन्ना सविसमा सोढुमशक्या का विपद् मवेत् । न २० कापीत्यर्थः । अतोऽस्मात्कारणात विषादः खेदो न कार्य; । किन्तु धैर्यम् अविलम्बिस विलम्बनं बिना अवलम्व्यता स्वीक्रियताम् । कृतिमन्तो हि धैर्यशालिनी हि जना निजोपान्तगत स्वसमीपायासां पीडामेव पीडयन्तः कदर्थयन्तः परपीडामपि अन्यजनदुःखमपि विभजेस्न विभक्तुं समर्था मवेयुः। तिरोदधे चान्त
समूह के समान जलसे भरा जहाज घूमने लगा । तदनन्तर कर्णधार-केवट के मुखकी ग्लानिसे स्पष्ट कहे हुए जहाज के नाशका निश्चय हो जानेसे जिनके शरीर निश्चेतन-निष्ट हो गये २५ थे तथा जहाजके नष्ट होनेके पूर्व हो जो शोकरूपी सागरको प्राप्त हो चुके थे ऐसे जहाजके अन्य साथियोको देख जिनशासनका अध्ययन करनेवाला श्रीदत्त वैश्य स्वयं मानसिक पीड़ाको दर कर तथा समस्त परिग्रहका त्याग कर हस्तावलम्बन देता हआ उनसे इस प्रकार कहने लगा-अरे बड़े खेदकी बात है, आप लोग मूखों के समान क्यों दुःखी हो रहे हैं ? क्या दुःखी होनेवालोंको दैव दुःखी नहीं करता ? अथवा न भी दुःखी करे तो भी 'आपत्ति आनेवाली 30 है' ऐसा मनमें विचार कर जो मनुष्य शोकके वशीभूत होता है वह स्वयं ही अपने-आपको दूसरे भवकी बात जाने दो उसो भव में तत्काल ही विपत्तिसे युक्त करता है । सर्वकष-सबको नष्ट करनेवाले विषादसे बढ़कर असहनीय दूसरी आपत्ति क्या हो सकती है ? इसलिए विषाद नहीं करना चाहिए। किन्तु शीघ्र ही धैर्य धारण करना चाहिए। क्योंकि धैर्यशाली मनुष्य अपने समीप आयी हुई पीडाको ही पीड़ित करते हुए दूसरेकी पीड़ाको भी विभक्त कर ३५
१. शोकवशी जनः।
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गर्याचन्तामणिः
[१२ श्रीदत्तवैश्यस्यततश्चायमकितागति तमधिरुह्य कमपि कमनीयोद्देशं द्वीपमविशत् ।।
६.९२. तत्र क्वचिदुपसागरं सिकतिलतले निषण्णः किंचिदिव विषण्णोऽयं पोतवणिग्वरः
'संसारासारभावोऽयमहो साक्षात्कृतोऽधुना । यस्मादन्यदुपक्रान्तमन्यदापतितं पुन: ॥' इति भावयन्पाकविघटितशुक्तिपुटमुक्तमुक्ताप्रकरं धारासंपातपतितकरकनिकरमिव कलयन्५ चलतरङ्गतरङ्गिणीपतितरङ्गपरम्पराविलुठदकठोरकर्कटकावलोकनसकौतुकं कादम्बकादम्बकमप्या
लोकयन्कांचन कालकलां गमयांबभूव । बभूव च तत्र परत्रेव गच्छन्नतुच्छतेजो मनुजः कोऽपि वणिजस्तस्य नयनोचर: । तदवलोकनेन जातसंप्रीति: प्रसभमनुधावन्नुदधिवृत्तान्तमस्मै सविस्मय
.
.............
हिंतश्च तरणिनौंः, संनिदधे च । निकटस्थश्च बभूव कोऽपि अतर्किसायात: उपखण्डो नौकादण्डः। ततश्च
तदनन्तरं च अयं श्रीदत्तः अतर्किता आगतिर्यस्य तं सहसोपस्थितं तं नौकादण्डम् आरुह्य कमप्यज्ञान १० कमनीयोहेशं सुन्दरस्थान द्वीपम् अविशत्।
६६२. तत्रेति-तत्र द्वीपे क्वचित् कस्मिंश्चित्स्थाने सागरस्य समीपमित्युपसागरं सिकताः सन्ति यस्मिन् तत् सिकतिलं तच्च तत्तलं चेति सिकतिलतलं तस्मिन् वालुकामयभूपृष्ठे निषण्ण: स्थितः किंचिदिव मनागिव विषण्ण: खेदखिन्नोऽयं पोतवणिग्वरः श्रीदर इति भावयन् चिन्तयन् । इतीति किम् ।
संसारेति-अधुना साम्प्रतम् अयमेष संसारस्याजवअवस्यासारभावो निःसारता साक्षात्कृतः स्वयमेवाब१५ लोकितः इस्यहो आश्चर्यम् । यस्मा तोरन्यत् कार्यमुपक्रान्तं प्रारब्धं पुनरनन्तरम् अन्यद् भापतितं प्राप्तम् ।
पाकेति-पाकम् परिकामेनीपनि पुसिनि यानि बुरित्युदानि तेभ्यो मुक्तः पतितो मुक्ताप्रकरो मौक्तिकसमूहस्तं धारासंपातेन धोरवृष्टय पतितो यः करकनिकरो वर्षोपलसमूहस्तमिव कलयन् विचारयन् , चलाश्चपलासगा: कल्लोला यस्य तथाभूतो यस्तरंगिणीपति: सागरस्तस्मात्पतिता उच्छलिता ये
तरंगा ऊर्मयस्तेषां परम्परया श्रेण्या विलुरन्तो येडकठोरकर्कटकाः कोमलकर्कास्तेषामवलोकने सकौतुक २० कुतूहलाक्रान्तं कादम्बकानां कलहंसानां कदम्बकं समूह 'निकुरम्बं कदम्बकम्' इति धनंजयः अपि आलोक
यन्पश्यन् कांचन कामपि कालकलां समयमात्रां गमयांबभूव व्यजीगमत् । बभूव चासीच्च तत्र तो परत्रेव अन्य त्रेध गच्छन् भतुच्छ तेजो यस्य विपुलप्रतापः कोऽपि मनुजो मयः तस्य वणिजः श्रीदत्तस्य नयनगोचरो दृष्टिविषयः। तदवलोकनेन तदर्शनेन जातसंग्रीतिः समुत्पन्नस्नेहः प्रसमं बलाद् अनुधावन् पश्चाद्धाव
सकते हैं बाँट ले सकते हैं। उस समय श्रीदत्तकी बुद्धि दयाके अधीन थी-बहुत भारी २५ दयालुतासे उसने नावपर बैठे अन्य साथियोंको उपदेश दिया था । जहाज अन्तर्हित हो गया
और एक मस्तूल समीपमें आ पहुँचा। तदनन्तर अचानक आये हुए उस मस्तूलपर चढ़कर श्रीदत्त रमणीय स्थानोंसे युक्त किसी द्वीप में प्रविष्ट हुआ।
६६२. वहाँ । समुद्र के समीप रेतीले स्थानपर बैठा हुआ जहाजका व्यापारी श्रीदत्त कुछ-कुछ खेदखिन्न होता हुआ विचार करने लगा कि 'अहो! इस समय मैंने संसारकी इस ३० असारताका स्वयं साक्षात्कार कर लिया क्योंकि कुछ प्रारम्भ किया था और कुछ आ पड़ा।
इस प्रकार विचार करते हुए तथा पक जानेके कारण खुली हुई सीपके पुटसे छोड़े मोतियाके समूहको धाराबद्ध वृष्टिके समय पतित ओलोंके समूहके समान समझते हुए एवं चंचल तरंगों से युक्त समुद्रकी तरंगोंमें लोटते हुए कोमल केंकड़ोंके देखने में कौतुकसे सहित हंसोंके समूहको
देखते हुए श्रीदत्त वैश्यने कुछ कालकी कला व्यतीत की। वहाँ विशाल तेजको धारण करने३५ वाला कोई एक ऐसा मनुष्य जो दूसरी ओर जाता हुआ-सा जान पड़ता था, उस श्रीदत्तके
१. म. सिकतिले तले। .
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-समुद्रयात्रावृत्तान्स; ] द्वितीयो छम्मः
१५१ मुवाच । स च प्रत्युवाचैनमेतदोयदीनतावोक्षणप्रविजृम्भितकारुण्य इव 'वैश्यवरेण्यस्त्वमशरण्यः कथमरण्यानीमधिशे : दिवस मादपर दो महापालिका र वेदसि पराङ्मुखः । परमतः पश्याम: कार्यम्' इति । अर्यश्रेष्ठोऽपि तथेति हृष्टस्तनिर्दिष्टं क्रमेल कमधिरुह्य सहसा विहायसा ययौ ।
$ ९३. तावता च पुर:समोरणसंचार्यमाणगगनधुनोफेनसंचयेनेव कञ्चुकितं विशदशारदवारिदव्यूहेनेव संनाहितं, नभश्चरतरुणोकुचाभोगच्युतक्षौमोत्तरीयनिचयेनेव, निचुलितमाका- ५ लिकतुषारवारिशोकरक्षोदवर्षेणेव वलक्षितमन्तरिक्षमलक्षयत् । तत्प्रेक्षणेन वैश्यप्रतीक्ष्योऽयं कौतुकाक्षिप्तचेताः 'न चायं क्षीरवारांनिधिर्जललहरीशिखरविहारिडिण्डीरपिण्डः । न हि तत्र नरैगन्तुं
मानः अस्मै जनाय सविस्मयं साश्चर्य यथा स्यात्तथा उदधिवृत्तान्त सागरोदन्तम् उवाच । स चेतिच पूक्तिः पुरुष एनं श्रीदत्तं प्रत्युवाच-एतदीयदीनताया वीक्षणेन प्रविज़म्भितं वृद्धिंगतं कारुण्यं यस्य तथाभूत इव 'वैश्यवरेण्यस्त्वं वैश्यश्रेष्टस्त्वम् अशरण्यः शरण्यरहितः सन् अरण्यानीं महावनी कथमधि- १० वसेः निवासं कुर्याः। न चेदसि परामुखो विमुखस्तहि दिवसमात्रमेकदिनं यावत् अस्मद्गृहे आसिका निवासं गृहाण स्वीकृत। अतः परं पश्चात् कार्य करणीय कार्य पश्यामो विलोकयामः इति । अर्यश्रेष्ठोऽपि वैश्यश्रेष्ठोऽपि अर्य: स्वामिवैश्ययोः' इति विश्वलोचनः तथेति हष्टः सन् निर्दिष्टं संकेतितं क्रमेलकमुष्टम् अधिरुपाधिष्ठाय सहसा अगिति विहायसा गगनेन ययौ जगाम ।
६६३. तावतेति-ताबसा च कालेन पुरःसमीरणेन अग्रचरवायुना संचार्यमाणो यो गगनधुन्या १५ वियद्गङ्गायाः फेनसंचयो डिण्डीरसमूहस्तेन कञ्चुकितमिव व्याप्तमित्र, विशदा धवला ये शारदवारिदा शरस्तुमेघास्तेषां व्यूहेन समूहेन संनाहितमित्र व्याप्तभिव, नमश्चराणां विद्याधराणां तरुण्यस्तासां कुचाभोगात्स्तनप्रदेशाच्युतं यत् क्षामोत्तरीयं तस्य निचयेन निचुलितमिव च्याप्तमिब, भाकालिका असमयोत्पन्ना ये तुषारवारिशीकरा हिमजलकणास्तेषां क्षीदाश्चूर्णानि तेषां वर्षेणेन वलक्षिसं धवलितम् अन्तरिक्षं गगनम् अलक्षयत् । तत्प्रेक्षणेन तदवलोकनेन कौतुकाक्षिप्तं चेतो यस्य कुतूहलाकान्तहृदयः अयं वैश्यप्रतीक्ष्य अरुज २० श्रेष्ठः श्रीदतः अयं दृश्यमानो जललहरीण तोयसराणां शिखरेपु विहारी डिण्डीरविण्डोऽब्धिकफसमूहो यस्य तथाभूतः क्षीरवारानिधिः क्षीरसागरो न च विद्यते। हि यतस्तत्र क्षीरसागरे नरैर्मनुजैर्गन्तुं न
नयनगोचर हुआ । उसके देखनेसे जिसे प्रेम उत्पन्न हुआ था और जो जबरदस्ती उसके पीछेपीछे चल रहा था ऐसे श्रीदत्तने उसे आश्चर्यके साथ समुद्रका वृत्तान्त कहा। इसकी दीनवाके देखनेसे जिसकी दयालुता बढ़ रही थी ऐसे उस पुरुषने श्रीदत्तसे कहा कि अहो श्रेष्ठ वैश्य ! २५ अशरण होकर इस अटवीमें किस कारण रह रहे हो ? यदि आप विमुख न हों तो एक दिन हमारे घर सुखसे निवास कीजिए। फिर इसके आगेका कार्य देखेंगे। श्रीदत्त वैश्य भी 'तथास्तु' कह हर्षित होता हुआ उसके द्वारा बताये हुए ऊँटपर सवार हो सहसा आकाशमार्गसे चल पड़ा।
६६३. वहाँ उसने उस धवल आकाशको देखा जो आगे-आगे चलनेवाली वायुके १० द्वारा विखरे हुए आकाशगंगाके फेनसमूहसे ही मानो व्याप्त था। अथवा शरदऋतुके सफेद बादलोंके समूहसे व्याप्त था। अथवा विद्याधरस्त्रियोंके स्तनतटसे पतित रेशमी ओढ़नीके समूहसे व्याप्त था। अथवा असमयमें होनेवाली तुपारजलके छींटोंकी वर्षासे ही मानो सफेद था । उसे देखनेसे जिसका चित्त कौतुरुके वशीभूत हो रहा था ऐसा चैश्यपति इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि 'यह जलकी तरंगोंके शिखरपर विहार करनेवाले फेनके समूहसे युक्त ३५
१. क० ख० ग० लार्यश्रेष्धोऽपि ।
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गधचिन्तामणिः
[ ३ श्रीदत्तवैश्यस पार्यते । न चेदमुदयारम्भसंभवदुदंशोः शिशिरांशोरच्छांशुभिर्विच्छुरितहरिन्मुखम् । न हि कौबे ककुभि कुमुदबन्धोरुदयानुबन्धः । न च विकचविचकिलफुल्लोल्लसद्वनवल्लरोप्रतानसवित गगनम् । न हि तस्यैवमुच्चस्तलोपलम्मा संभवति । किमिदम् ।' इति चिन्तया किंचिदन्त मतिक्रामन्पुण्डरीकषण्डमिव पुजीभृतं शीतगभस्तिमालिगभस्तिप्रतानमिव स्त्यानमपास्तसमस्त तमःस्तोमं प्रशस्त विविधविद्यापारगपरमपुरुषपरिषत्पक्षीकृतमक्षयानन्ददानदक्षमतिशुक्लशुक्लध्या मिव बहिः पिण्डोभूतं पाण्डुरितवनराजि राजतगिरिमेक्षिष्ट, अभ्यमनायिष्ट' च परमश्रुतप्रतिपादि यथाश्रुतं तमुत्पश्यन्वैश्यपतिः, अप्राक्षोच्च प्रीतिविस्फारितेक्षणः सहचरं खचरम् 'खेचरगोचरे
पार्यते न शक्यते । न चेदं दृश्यमानम् उदयारम्भे समवन्त उदंशव ऊर्ध्वरश्मयो यस्य तथाभूतस्य शिशिर शोश्चन्द्रमसः अच्छांशुभिरुज्ज्वलमरीचिभिः बिछुरितहरिन्मुखं व्याप्तदिग्मुखम् । हि यतः कौबेरककुरि उत्तरदिशि कुमुदबन्धोः शशिन उदयानुबन्ध उदयस्थितिः न भवति । न च विकचानि विकसितानि या चिचकिलफुल्लानि सैवलसन्तीना वनवल्लरीणां प्रतानेन समहेन सवितान सहितं गगनम् । हि यतस्तर एवमित्यम् उच्चस्तलोपलम्म उच्चतरस्थानप्राप्तिः संभवति । किमिदम् । इति चिन्तया विचारे किञ्चिन्मनाग अन्तरमन्तरालम् अतिक्रामन् उल्लङ्घयन् पुजीभूतं पुण्डरीकपण्डमिव श्वेतकमलसमूहमिय
स्त्यानं प्रतिविम्बितं शीतगमस्तिमालिनः शशिनो गभस्तिप्रतान भिव किरणकलापमिव, अपास्तो दूरीकृत १५ समस्ततमःस्तोमोऽन्धकारसमूहो यस्मिन् स्तम्, प्रशस्तासु श्रेष्ठासु विविधविद्यासु नानाविद्यासु पारय
निष्णाला ये परमपुरुषा उत्कृष्टपुरुषास्तेषां परिषरसम्हस्तेन पक्षीकृतं स्वीकृतम् , अक्षयानन्दस्य स्थायि हषस्य दाने दक्षं समर्थम् , बहि:पिण्डीभूतं राशीभूतम् अतिशुक्लध्यानमिव चतुर्थध्यानमिव, पाण्डु. रिताः शुक्लीभूता वनराजयो काननपरक्तयो यस्मिन् सं राजतगिरि विजयाधपर्वतम् , ऐक्षिष्ट, परमश्रुत.
प्रतिपादितं जिनागमनिरूपितं तं राजतादि श्रुतमनतिक्रम्येति यथाश्रुतं यथाशास्त्रम् उत्पश्यन् उदवलोक२० यन् अभ्यमनायिष्ट च ज्ञातवांश्च । अवाक्षीच्च प्रीत्या विस्फारिते विस्तारित ईक्षणे नयने यस्य तथाभूतः
।
क्षीरसागर तो है नहीं क्योंकि वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते । उदय के प्रारम्भमें जिसकी उत्कृष्ट किरण फैल रही हैं ऐसे चन्द्रमाको उज्ज्वल किरणोंसे व्याप्त यह दिशाका अग्रभाग भी नहीं है क्योंकि उत्तर दिशामें चन्द्रमाका उदय नहीं होता। खिले हुए विवकिल के फूलोंसे सुशोभित
वनकी लताओंके समूहसे व्याप्त आकाश भी नहीं है क्योंकि उसका इतनी ऊँचाईपर पाया २१ जाना सम्भव नहीं है । तो फिर क्या है ? इस प्रकारकी चिन्ता करता हुआ जब वह कुछ और
आगे गया तब उसने उस विजयाध पर्वतको देखा जो इकट्ठे हुए सफेद कमलों के समूहके समान जान पड़ता था अथवा फैले हुए चन्द्रमाकी किरणों के समूह के समान दिखाई देता था। समस्त अन्धकारके समूहसे रहित था | प्रशंसनीय एवं नाना प्रकारको विद्याओंके पारगामी
श्रेष्ठ पुरुपोंके समूहसे अंगीकृत था। अक्षय आनन्दके देने में समर्थ था। बाहर इकट्ठे हुए ३० अत्यन्त निर्मल शुलध्यान के समान था,और सफेद-सफेद वनकी पङ्क्तियोंसे युक्त था। परमा
गममें जैसा उस पर्वतका वर्णन किया गया है और जैसा उसने सुन रखा था वैसा ही उसे देखकर उसने निश्चय कर लिया कि यह विजयाधेपर्वत ही है। तदनन्तर प्रीतिसे विकसित नेत्रों को धारण करनेवाले श्रीदत्तने अपने साथी विद्याधरसे पूछा कि विद्याधरोंके निवासभूत
१. अभ्भमनायिष्ट-ज्ञातवान् इति टिप्पणी ।
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- विजयागिरी प्राप्तिः]
नृतीयो लम्मः ऽस्मिन्विजयागिरी किमर्थमस्मदागमनम् इति ।
६ ९४. स किचिदिव स्थित्वा प्रत्यवोचत्-'अयि भोः, श्रूयताम् । इह विश्रुतायां विद्याधरधरायां विविधवृत्तिदानदक्षदक्षिणश्रेण्या श्रेणीभूतपुर ग्रामकान्ते गान्धारविषये योषाजनभूपालोकतिरस्कृतदिनकृदुदयालोको नित्यालोक इत्याख्यया विख्यातः कोऽपि विराजते स्कन्धायारः । तस्य पतिर्गगनेचरकिरीटाविरूढशासनो गरुडवेगो नाम । तस्य च महिषी सकल- ५ गुणमनोहारिणी धारिणो नाम 1 तयोः सुता देहकान्तिव्यामोहितचितभूचित्ता गन्धर्वदत्ता । तस्या जन्ममुहूर्त एव मोहतिकाः ‘कन्येयं मेदिन्यामनन्यसाधारणवीणावादननैपुण्यादेनामतिशयानस्य कस्यचित्कुमारस्य राजपुर्या भार्या भविष्यति' इति व्याहार्षुः ।
शता
सन् सहचरं सहगामिनं रखचरं विद्याधरं खे खरगोचरे विद्याधरवसतो अस्मिन् विजयागिरी अस्मदागमनं किमयं किम्प्रयोजनकम् इति ।
६६४. स किंचिदिवेति-स खवरः किंचिदिव अल्पसमयमिव स्थिस्दा विश्रम्य प्रत्यवोचत्अयि भोः श्रयतामाकर्ण्यताम् । इह विश्रतायां प्रसिद्धायां विद्याधरधराय नमश्वरवसुधायां विविधवृत्तीनां दाने दक्षा या दक्षिण मी मरमा घोषणा पनि कहिरी पुरनामैनंगरनिगमैः कान्ते मनोहरे गान्धारविषये तक्षामजनपदे योपावनभूषाणां ललनाजनालङ्काराणामालोकेन प्रकाशेन तिरस्कृतो दिनदुदयालोकः सूर्योदयप्रकाशो यस्मिन् तथाभूतो नित्यालोक इत्याख्यया नाम्ना विख्यातः प्रथितः कोऽपि विचित्रः स्कन्धावारो राजधानी विराजते शोभते । तस्य स्कन्धावारस्य पतिः स्वामी गगनेचराणां विद्याधराणां किरीटेषु मकुटेप्वधिरूढ़ शासनं यस्य तथाभूतो गरुडवेगो नाम बभूवेति शेषः । तस्य च गरुडवेगस्य सकलगुणनिखिलदयादाक्षिण्यादिगुणमनो हरतीत्येवंशीला धारिणी नाम महिषी कृताभिषेका राझी आसीदिति शेषः । सा च स च इति तो तयोः देहकान्या शरीरसुषमया म्यामोहितं चिसभुवो मदनस्य चितं यया तथाभूता गन्धर्वत्ता नाम सुता बभूवैति योज्यम् । तस्याः सुताया जन्ममुहूर्त एव अनुवेलायामेव २० मौहर्तिका दैवज्ञा इयं कन्या मेदिन्यां धरायां राजपुयां नगर्याम् अनन्यसाधारणमसदृशं यद् वीणावादननैपुण्यं विपञ्चीवादनचातुर्य तस्मात्, एनां कन्याम् अतिशयानस्य पराजयमानस्य कस्यचित् कस्यापि कुमारस्य मार्या मविष्यति इति व्याहामुनिजगदुः ।
इस विजयार्धपर्वतपर हम लोगोंका आगमन किसलिए हुआ है ? साथी विद्याधरने कुछ देर ठहरकर उत्तर दिया कि अये मित्र ! सुनिए ।
२५ ६४. इस प्रसिद्ध विद्याधरोंकी वसुधामें नाना प्रकारकी आजीविकाके देने में समर्थ दक्षिणश्रेणीमें पंक्तिबद्ध नगर और ग्रामोंसे सुन्दर एक गान्धार नामका देश है और उसमें स्त्रियों के आभूपणोंके प्रकाशसे सूर्योदयके आलोकको तिरस्कृत करनेवाला नित्यालोक नामका एक प्रसिद्ध नगर सुशोभित है। विद्याधरोंके मुकुट पर अधिरूढ आज्ञासे युक्त गरुडवेग नाम
का विद्याधर उस नगरका राजा है और समस्त गुणोंसे मनको हरनेवाली धारिणी उसको ३० 'रानी है। उन दोनोंके शरीरकी कान्तिसे कामदेवके चित्तको मोहित करनेवाली गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री है। उसके जन्म समय ही ज्योतिषियोंने कहा था कि यह कन्या पृथिवीपर राजपुरी नगरी में किसी ऐसे कुमारकी स्त्री होगी जो वीणा बजाने विपयक अपनी असाधारण चतुराईसे हमें पराजित कर देगा।
१ क. परग्रामकान्ते । २. स्कन्धावार:-राजधानी इति टि। ३. क. ग. चिनजचिता। ४. क, ३५ ख. ग. वीणावादनप्रावीण्यात् ।
२०
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५.
१५४
गद्यचिन्तामणिः
[ ९५ विजयार्ध
$ ६५ अथ सा कल्याणी कदाचन पञ्चकल्याणोपवासपारणादिवसे परिवारेण साधं विजयार्धभूभृतः किरीटायमानं सिद्धकूटजिनचैत्यसदनं सपर्याविधानपुरःसरमधिकभक्तिरभिप्रणम्य समागत्य चतुर्गतिभ्रमण प्रशमनभेषजं जिनाङ्घ्रिपङ्केरुहस्पर्शनेन पावनं प्रसूनं सविनयं पित्रे समर्पयामास । राजापि सप्रश्रयं प्रतिगृह्य तां शेषामशेषदोषक्षयायेति शिरसा वहन्संप्राप्तगौवनसामान्यामिमां निर्दयं जामनिर्देदो निवर्तयंश्चक्षुष्यमपि जनं महिष्या सममेकान्ते चिन्तयामास - 'आसीदियं तरुणी तारुण्याम्रेडितलावण्या । भवन्ति चास्याः पश्यन्तः पयोधरोन्नति पार्थिवजाताश्चातका इव जातास्थाः । इदं हि संसारिणां सांसारिकप्रसूतिजातेष्वरुन्तुदं दुर्जातं यदात्मसंभवानामात्माभिर्वाधितानां च कन्यानामन्येन केनाप्यदृष्टपूर्वेण घटनं तस्मादप्यनुरूपवरा
8. अथेति - अथानन्तरं सा कल्याणी कल्याणवतो गन्धर्वदत्ता कदाचन जातुचिद् पञ्चकल्याणं १० व्रतविशेषस्तस्योपवासस्य पारणादिवसो व्रतान्तभोजनवासरस्तस्मिन् परिवारेण परिजनेन सार्धं विजयार्धभूभृत: खेचराः किरीटायमानं मुकुटायमानं सिद्धकूटजिनचैन्यसदनं सिकूटजिनालयं सपर्याविधान पुरःसरं पूजाविधिसहितम् अधिका भक्तिस्यास्तथाभूता सती अभिप्रणम्य नमस्कृत्य समागत्य च चतुर्गतिभ्रमणस्य नरकादिगतिचतुष्कपर्यटनस्य प्रशमनभेषजं शाम्य्यौषधं जिनापिरुहस्पर्शनेन जिनेन्द्रचरणारविन्दस्पर्शनेन पावनं पवित्रं प्रसूनं पुष्पं सविनयं पित्रे जनकाय समर्पयामास । राजापि गरुडवे गोऽपि १५ तां शेष पुष्परूप सश्रयं सविनयं गृहीत्वा अशेषदोषाणां निखिलटुप्कर्मणां क्षयस्तस्मा इति हेतो: शिरसा मूर्ध्ना वहन् संप्राप्तं यौवन साम्राज्यं यया तां पूर्णयौवनवतीम् इमां कन्यां निर्वर्ण्य दृष्ट्वा जातो निर्वेदो यस्य तथाभूतः समुत्पन्नखेदः सन् चक्षुष्यमप्यनुकूलमपि जनं निवर्तयन् विसर्जयन् महिष्या राया समभू एकान्ते विजने स्थाने चिन्तयामास विचारयामास - ' तारुण्येन यौवनेनावेदितं द्विगुणितं कावण्यं यस्यास्तथाभूता इयं तरुणी यौवनवती आसीत् । अस्याः पयोधरोहतिं कुचोन्नति पक्षे मेवोमसिं २० पश्यन्तः पार्थिवजाता राजसमूहाः चातका व जाता समुत्पन्ना आस्था आदरबुद्धिर्येषां तथाभूता भवन्ति । संसारिणां प्राणिनामिदं हि सांसारिकप्रसूतिजातेषु सांसारिकसन्ततिसमूहेषु अरुन्तुदं मर्मष्यथकं दुर्जातं दुष्कर्म अस्ति यद् आत्मसंभवानां स्वसमुत्पन्नानाम् आत्माभिवर्धितानां स्वपोषितानां च कन्यानां पति
६ ९५. तदनन्तर किसी समय उस कल्याणवती कन्याने पंचकल्याणक व्रतका उपवास किया और उसकी पारणाके दिन परिवार के साथ विजयार्ध पर्वतके मुकुटके समान आचरण २५ करनेवाले सिद्धकूट जिनालय में जाकर जिनेन्द्र भगवानकी पूजा की, बहुत भारी भक्ति से नमस्कार किया और वहाँ से आकर चतुर्गति के भ्रमणको शान्त करनेकी ओषधिस्वरूप, जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलोंके स्पर्शसे पवित्र पुष्प विनयपूर्वक पिता के लिए समर्पित किया । राजाने भी उस आशीर्वादात्मक पुष्पको विनयसे लेकर 'यह समस्त दोषोंका क्षय करने के लिए हैं' ऐसा निश्चय कर शिरपर रख लिया। उसी समय यौवनके साम्राज्यको ३० प्राप्त हुई इस कन्याको देखकर राजाको कुछ निर्वेद उत्पन्न हुआ और वह प्रीतिपात्र मनुष्यों को
भी अलग कर एकान्तमें रानीके साथ इस प्रकार विचार करने लगा । 'यौवनसे जिसका सौन्दर्य पुनरुक्त हो रहा है ऐसी यह कन्या अब तमणी हो चुकी । जिस प्रकार पयोधरमेोंकी उन्नतिको देखते हुए पपीछे प्रीति से युक्त होते हैं उसी प्रकार इसके पयोधर - स्तनोंकी उन्नतिको देखते हुए राजा लोग प्रीति से युक्त हो रहे होंगे। सांसारिक प्रसूतियों के समूह में ३५. संसारी जीवों को यह बात सबसे अधिक मर्मभेदी पीड़ा देनेवाली है कि अपने से उत्पन्न एवं अपने द्वारा बढ़ायी हुई कन्याओंका जो पहले कभी देखने में नहीं आया ऐसे किसी अन्य
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वृत्तान्तः]
तृतीयो सम्भा
न्वेषणं ततोऽपि सुखासिकाचिन्तनम्' इति । चिन्तानन्तरममात्यान्तरं नाम्ना घरमाय माम् 'अस्माकमस्ति मित्रं धात्रीतलराजिनि राजपुरे कोऽप्यूरव्यपतिः, एनमधुनैवानय' इत्यभ्यधत्त । अहमपि कार्यपारतन्त्र्यादार्य प्रतायुवमानीतवानस्मि' इति।
६६६. अथ यथावदवगतपोतोपद्रवविरहेण विश्रुतबान्धववियच्चराधोशसकाशसंगमलाभेन च सायानिकः संमदपरवशो धरेण साकमुपसरन्दूरादेव बधिरितश्रवसा तुमुलरवेण सरभसमागच्छे- ५ त्यात्मानमिवाह्वयन्तम्, समन्तादुद्गच्छदतुच्छरत्नांशुप्रांगुतरगोपु रपक्षोपलक्षितमन्तरिक्षावसान
वराणाम् अन्यन पूर्व न दृष्टमित्य दृष्टपूर्व तनानवलोकितपूर्वेण केनापि यूना घटनं मलनं तस्मादपि अनुरूपवरस्यान्वेषणं मागणं ततोऽपि सुखसिकाचिन्तनं सुखनिवासध्यानम्' इति । चिन्तानन्तरं राज्या सह विचारानन्तरम् अन्योऽमात्योऽमात्यान्तरस्तं सचिवान्तरं नाम्ना धरं धरनामधेयं सचिवान्तरम् माम् आय आकार्य 'धात्रीतलराजिनि महीतलशोमिनि राजपुरे राजपुयाँ नगयों कोऽपि ऊरच्यपतिश्यपतिः अस्माकं १० मित्रमस्ति, एनं वैश्यपतिम् अधुनैव सद्यः आनय' इत्यभ्यघत्त कथयामास । अहमपि धरोऽपि कार्यपारतन्त्र्यात् आयं भवन्त वनयिरवा, पवमनेन प्रकारंण नौकाशादिप्रदर्शनविधिना आनीतवानस्मि आनिनाय।
६९६. अथ यथावदिति-अधानन्तरम् यथावत् सम्यक् अवगतो विदितः पोतोपद्रवस्य नौकानाशस्य विरही येन तथाभूतः 'तव पोतो न नष्टः किन्तु मायया तारशः प्रकारो दर्शितः' इति ज्ञानयुक १५ इत्यर्थः, बन्धुरेव बान्धवः विश्रुतश्चासौ बान्धवति विश्रुतबान्धवः स एच वियश्वराधीशो विद्याधरनरेन्द्रस्तस्य सकाशस्य सामीप्यस्य संगमलामस्तेन च सांयात्रिकः पोतवणिक् श्रीदत्तः संमदपरवशो हर्रयत्तः सन् 'मुस्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसंमदाः' इत्यमरः,धरेण विद्याधरसचिवेन साकं सहोपसरन समीपमुप. गरछन दूरादेव निष्यालोकमतन्नामधेयनगरमालोक्य दृष्टा नितरामत्यन्नं व्यस्मेष्टाश्चर्यान्वितो बभूव । अथ नित्यालोकस्य विशेषणान्याह-वधिरितं श्रवणशक्तिरहितीकृतं श्रवो येन तेन तुमुलरवेण उौःशन्देन २० सरभसं सवेगम् आगच्छ इति आस्मानं स्वम् आहुयन्तम् साकारयन्तम् , समन्तात्परित उद्गच्छजिहारि याद्भिरतुच्छरत्नांशुभिर्विशालमणिमरीचिभिः प्रांशुतराणि समुन्नतानि यानि गोपुराणि पुरद्वाराणि 'पुरद्वार तु गोपुरम्' इत्यमरः तान्येव पक्षा गरुतस्तैरुपलक्षितं सहितम् अतएव अन्तरिक्षस्य नमसोऽवसान
पुरुपके साथ सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। उससे भी अधिक अनुकूल वरका खोजना और उससे भी अधिक उनकी सुख-सुविधाको चिन्ता करना है । चिन्ताके बाद ही मुझ धर नामक २५ मन्त्रीको बुलाकर उसने कहा कि पृथिवीतलपर सुशोभित राजपुर नामक नगरमें कोई पद बैश्यपति मेरा मित्र है उसे इसी समय यहाँ लाओ। मैं भी कार्यकी परतन्त्रतासे आपको धोखा देकर इस प्रकार ले आया हूँ |
६६. तदनन्तर जहाज के उपद्वका यथार्थ ज्ञान होने और प्रसिद्ध बन्धुत्वके धारक विद्याधराधिपति गमड़वेगका समागम प्राप्त होनेसे हर्षविभोर होता हुआ श्रीदत्त, धरमन्त्रीके ३० साथ ज्यों ही आगे गया त्यों ही नित्यालोक नगरको देखकर आश्चर्यमें पड़ गया। उस समय उस नगरमें कानोंको बहरा करनेवाला जोरदार शब्द हो रहा था और उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो 'शीव आओ' इस तरह उस श्रीदत्तको बुला ही रहा था! सब ओर उठती हुई विशाल रत्नोंकी किरणोंसे अत्यन्त ऊँचे दिखाई देनेवाले गोपुररूपी पंखोंसे सहित था
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१५६
[ ९६ विजयार्ध
निरीक्षण कौतुकादुडुयितुमिवेच्छन्तम् अलङ्घनीयसालश्रृङ्खलावलयेन विशृङ्खल गतिनिरोधाय निगलितायमानम्, सदातन सलिलभर भरितपरिखाचकालवालपयः परिवर्धित मूलतया स्वयमुत्पादितेरिव सकलर्तुकुसुमफलैः समृद्धम्, समृद्धिमय सोधशिखरपिनद्धपताकाग्रपाणिपल्लवेन शशाङ्कमपि कलङ्करहितं संपादयितुमिव संमार्जन्तम् क्वचिद्भिद्यमानपद्यरागमणिमहःस्तब कित वियदन्तरालैरा५ कालिकबालातपारेकामा रचयन्तम् क्वचित्कोक मिथुन विरह वितरणनिपुण किरणापीडगारुडरत्न राशिशङ्कितशर्वरी समागमसंरम्भम् क्वचिज्जाल कितगभस्तिजालस्थगित दिङ्मण्डलैराखण्डलनीलोपलघटिततरकाण्ड प्रसारितभोजनशालास्थलकदलोपलाशसंशीतिसंपादिनम्, सर्वतश्च सविभ्रमं विह
1
चिन्तामणिः
समाप्तिस्तस्य निरीक्षणस्य कौतुकं तस्मात् नयितुमुत्पतितुमिच्छन्तमिवाभिलपन्तम्, अलङ्घनीयोऽनतिक्रमणीय: सालः प्राकारो यस्य तम् अतएव विशृङ्गका स्वच्छन्दा या गतिस्तस्या निरोधाय निवारणाय १० शृङ्खलावलयेन निगलितायमानं निगदितमित्राचरन्तम् सदातनेन सदास्थायिना सलिलभरेण जलसमूहेन
भरितं परिखाचक्रमेव स्वयमण्डलमंबालवाल आवापस्तस्य पयसा जलेन परिवर्धितं मूलं यस्य तस्य भावस्तत्ता तया स्वयं स्वत उत्पादितैरिव कुसुमानि च फलानि चेसि कुसुमफलानि सकलवून निखिल सन्तावृतूनां कुसुमफलानि तैः समृद्धं समृद्धियुक्तम्, समृद्धिमयाः सम्पत्तियुक्ता ये सीधा राजसदनानि तेषां शिखरेष्वप्रभागेषु पिनद्वाः संलग्ना या पताका वैजयन्भ्यस्तासामग्राण्येव पाणिपल्लवः करकिसलय स्तन १५ शशाङ्कमपि चन्द्रमसमपि कलङ्करहितं निर्मलं संपादयितुमिव कर्तुमिव संमार्जन्तं शोधयन्तम्, कचित् कुत्रचिद् भिद्यमानाः खण्डमाना ये पद्मरागमणयो लोहितमणयस्तेषां महसा कान्या स्तबकितानि गुच्छितानि यानि वियदन्तरालानि गगनमध्यानि तैः आकालिकोऽसमयोत्यनो यो बालातपः प्रभातधर्मस्तस्यारंकां शङ्काम् आरचयन्तं कृतवन्तम्, क्वचित् कुत्रापि कोकमिथुनानां चक्रवाकयुगलानां विरहवितरणे विरहपीडादाने निपुणां दक्षः किरणापीडो रश्मिसमूहो येषां तथाभूतानि यानि गारुदरत्नानि नीलमणय२० स्तेषां राशिना शङ्कितः संदिग्धः शर्वरीसमागमसंरम्भो रजनोसमागमनोद्योगो यस्य तम्, क्वचित् कुत्रापि जालकिर्तन कोरकवदाचरितेन गमस्तिजालेन किरणककापेन स्थगितमाच्छादितं दिङ्मण्डलं येस्तैः जालकः कोरके दम्मप्रभेदे जालिनीफले' इति विश्वलोचनः आखण्डलनीलोपलैरिन्द्रनीलमणिभिर्वटितानि यानि तानि कुहिमानि तैः अकाण्डेऽसमये प्रसारितानि विस्तारितानि भोजनशालास्थले भोजनगृह भून ले
इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशका अन्त देखनेके कौतुकसे उड़ने की इच्छा ही कर २५ रहा था । वह अलंघनीय कोटरूपी सांकलके कड़ेसे युक्त था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो स्वछन्द गतिको रोकने के लिए बेड़ीसे ही युक्त था। सदा विद्यमान रहनेवाले पानीके भारसे भरे परिखाचक्ररूपी क्यारीके जलसे जड़ोंके वृद्धिंगत होनेके कारण स्वयं उत्पन्न हुएके समान अनायास सिद्ध समस्त ऋतुओंके फूल और फलोंसे समृद्ध था। वह समृद्धिसम्पन्न महलों के शिखर पर लगे हुए पताकाओंके अग्रभागरूपी हस्तपल्लवोंसे चन्द्रमाको भी कलंक३० रहित करने के लिए मानो निरन्तर झाड़ता रहता था। कहीं पर विदीर्यमाण पद्मराग मणियों की कान्ति आकाशका अन्तराल व्याप्त होनेसे असमयमें प्रकट होनेवाले प्रातःकालके धामकी शंका उत्पन्न कर रहा था। कहीं चकवा चकवियोंको बिरहके देनेमें निपुण किरणों के समूह से युक्त गाड़ रत्नोंकी राशिसे रात्रिके समागमकी शंका उत्पन्न कर रहा था । कहीं जालके समान आचरण करनेवाली किरणोंसे दिशाओंको आच्छादित करनेवाले नीलमणि निर्मित
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१. म० अलङ्घतोयसालम् - २क. संभाजयन्तम् । ३ क समागमनसंरम्भम् ।
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वृतान्तः ]
तृतीयो लम्भः
१०
रन्तीनां विद्युल्लतानामिव विद्याधरीणामलक्तकरसाञ्चित चरणन्यासेन रञ्जितं स्वयमपि रागातुरमिव निरूप्यमाणम् इन्दुभिरिव नन्दितोदये रुदधिभिरिवोत्तालसत्त्वैर्मन्त्रिभिरिव मन्त्रसिद्धेः पारिजातैरिव परिपूर्णितार्थिजालैः सुव्यक्तमुक्ताफलैरिव वृत्तोज्ज्वलशरीरैः कोदण्डदण्डेरिव गुणावनम्रै राजमगलैरिव सुगति सुन्दरैर्मधुकरैरिव सुमनोन्तरङ्गे बसि रैरिवातमोभिभूतैर्जनैरलंकृतम्, कदलीपलाशानि मोचादलानि तेषां संशीतिः संशयस्तस्याः संपादिनं विधायकम्, सर्वतश्च समन्ततश्च ५ सविश्रमं सविलासं यथा स्यात्तथा विहरन्तीनां विद्युल्लतानामिव तडिहारीणामित्र विद्याधरीणां खेचराङ्गनानाम् अलककरसेन यावकेनाञ्चिताः शोभिता ये चरणाः पादास्तयां न्यासेन निक्षेपेण रञ्जित रक्तवर्णीकृतम् अतएव स्वयमपि रागानुरमित्र प्रेमपीडितमित्र निरूप्यमाणं दृश्यमानम् इन्दुभिरिव सुधासूतिमिवि नन्द्रितः प्रशंसित उदद्य उद्गमनं पक्षेम्युदयो वैभवं वा येषां तैः उदधिभिरिव सागरैरिव उत्ताला उत्कटाः सुरक्षाः प्राणिनः पक्ष स्वभावो येषां तैः 'सत्वं जन्तुषु न स्त्री स्यात्सध्धं प्राणात्मभावयो:, इति विश्वलोचनः, मन्त्रिभिरिव सचिवैरिव मन्त्रे विमर्श सिद्धास्तैः पक्ष सिद्धानि मन्त्राणि श्रेयां तः 'वाहिताग्न्यादिषु' इति निष्टान्तस्य चैकल्पिकः परनिपातः, पारिजातैरिव कल्पवृक्षैरिव परिपूर्णितं कृतार्थीकृतमर्थिनां याचकानां जालं समूहो यैस्तैः सुव्यक्तमुक्ताफलैरिव सुप्रकटितभांतिकैरिव वृत्तं वर्तुलमुज्ज्वलं देदीप्यमानं शरीरं येषां तैः पक्षवृत्तेन सदाचारेणोज्ज्वलं निर्मलं शरीरं येषां तैः कोदण्डदण्डेरिव धनुर्दण्डैरिव गुणेन मौन्यत्रनम्राणि तैः पक्षं गुणैईयादाक्षिण्यादिभिरवनम्रा विनीतास्तैः, राजमरालैरिव राजहंसपक्षिभिरिव सुगत्या १५ सुन्दरगमनेन सुन्दरास्तैः पक्षे सुगत्या सुष्टुज्ञानेन शोभनदशया वा सुन्दरा मनोहरास्तैः, मधुकरैरिव भ्रमरैरिव, सुमनसां पुष्पाणामन्तरङ्गेर्मध्यगतैः पक्षे सुमनसां विदुषामन्तरभैरवायैः, वासरेरिव दिवसेंरिव फर्श से असमय में भोजनशालाकी भूमि में फैलाये हुए केले के पत्तोंका संशय उत्पन्न कर रहा था। और सब ओर हाव-भावपूर्वक विहार करनेवाली बिजलीकी लताओंके समान विद्यावरियोंके महावर के रंगसे सुशोभित पैर रखने से लाल-लाल हो रहा था जिससे स्वयं रामसे २० पीडितके समान दिखाई देता था। वह नित्यालोक नगर उन मनुष्योंसे अलंकृत था जो चन्द्रमाओंके समान नन्दितोदय थे अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा आनन्ददायी उदयसे सहित होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य भी आनन्ददायी वैभव से सहित थे । अथवा समुद्रों के समान उत्ताल सत्य थे अर्थात् जिस प्रकार समुद्र उत्ताल सत्त्व -- मगरमच्छ आदि भयंकर प्राणियोंसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी उत्तालसत्त्व-अधिक पराक्रमके धारक थे। अथवा २५ मन्त्रियों के समान मन्त्र सिद्ध थे । अर्थात् जिस प्रकार मन्त्रबादी लोग मन्त्र सिद्ध-मन्त्रोंको सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी मन्त्रसिद्ध — गुप्त विमर्शसे कृतकृत्य थे । अथवा कल्पवृओंके समान परिपूर्णार्थजात थे अर्थात् जिस प्रकार कल्पवृक्ष याचक समूहको सन्तुष्ट करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य भी याचक समूहको सन्तुष्ट करनेवाले थे । अथवा अच्छा तरह प्रकट हुए मुक्ताफलोंके समान वृत्तोज्ज्वलशरीर थे अर्थात जिस प्रकार मुक्ताफल ३० वृत्तोज्ज्वलशरीर- गोल और देदीप्यमान शरीर के धारक होते हैं उसी प्रकार से मनुष्य भी वृत्तोज्ज्वलशरीर - चरित्रसे निर्मल शरीरके धारक थे। अथवा धनुर्दण्डके समान गुणाबनम्र थे अर्थात् जिस प्रकार धतुर्दण्ड गुगावनम्र - डोरीस नम्रीभूत रहते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी गुणाचनम्र-विद्या-बुद्धि-विनय आदि गुणोंसे नम्रीभूत थे । अथवा राजहंसों के समान सुगति सुन्दर थे अर्थात् जिस प्रकार राजहंस सुगति सुन्दर-सुन्दर बालसे मनोहर ३५ रहते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी सुगति सुन्दर - उत्तम दशा से मनोहर थे । अथवा भ्रमरोके समान सुमनोऽन्तरंग थे जिस प्रकार भ्रमर सुमनोऽन्तरंग - फूलोंके भीतर गमन करनेवाले होते है उसी प्रकार वे मनुष्य भी सुमनोऽन्तरंग - विद्वानों के भीतर गमन करनेवाले थे ।
१५७
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१५८
[१७ विजयाधआत्मदुरासदमालोक्य नित्यालोकं नितरां व्यस्मेष्ट । व्यतनिष्ट च विशिष्टसुकृतोदयागताप्यापन्मम संपदे जाता' इति सानन्दश्चिन्ताम् ।
5 ९७. तदनु प्रविशतां निष्पततां च निरवधिकतया तत्र तत्र स्थितैरिव सर्वद्वीपराष्ट्रभवै. जनः सृष्टिस्थानमिवाधिष्ठितमुपसृत्य राजद्वार दौवारिकमहत्तरेण धरचोदितेन विज्ञापिताहूतः ५ सकौतुकं राजगृहमवगाहमानस्तत इतोऽप्यदृष्टपूर्वतया दृष्टिं व्यापारयन्नपरिमितानि व्यतीत्य कक्ष्या
न्तराणि नातिदवोयसि प्रदेशे शातकुम्भस्तम्भशुम्मिनश्चन्द्रातपच्छेदच्छविचन्द्रोपकचुम्बिताम्बरस्य निष्टप्ताष्टापदघटित कुट्टिमनिर्यत्तरुणतरतरणिकिरणायमानमरीचिमञ्जरीपिजरितहरितः खेचरेन्द्रातमसा तिमिरण नाभिभूना नाकान्तास्तैः पदं तमोगुणानाकान्तः जन की अलंकृतं शोभितम् आत्मदुरा
सदम् स्वदुर्लभम् । व्यतनिष्ट च चकार च विशिष्टसुकृतोदयात्सातिशयपुण्योदयात् भागतापि प्राप्तापि १० आपद् मम संपदे लामाय जाता' इति सानन्दः सहयः चिन्ताम् विचारम् ।
६९७. तदन्विति तदनु तदनन्तरं प्रविशतां प्रवेशं कुर्वतां निष्पातां निर्गच्छतां च जनानामिति शेषः निरवधिकतया निःसीमतया तत्र तत्र तत्तत्स्थानेषु स्थितैरिव विद्यमान रिष सर्वद्वीपराष्ट्रभवैरखिलद्वीपदंशसमुत्पन्नः जनः अधिष्टितं सहितमत एवं सृष्टिस्थानमिव ब्रह्मणः सृष्टिनिर्माणस्थानमिव
राजद्वारं नरेन्द्र मन्दिरद्वारम् उपसृस्य प्राप्य धरचोदितेन धरप्रेरितेन दौवारिकमहत्तरेण प्रधानद्वारपालेन १५ आदी विज्ञापितः पयादाहूत इति विज्ञापिताहतो निवेदिताकारितः सकातुकं सकुतूहलं राजगृहं नृपतिसदनम्
अवगाहमानः प्रवेशं कुर्वाणः तत इतोऽपि यत्र तत्र अदृष्टपूर्वतया पूर्वमनालोकित्वेन दृष्टिं व्यापारयन् चलयन् अपरिमितानि बहनि कक्ष्यान्तराणि प्रकोष्ठविवराणि व्यतीत्य समतिक्रम्य नातिदवीयसि नातिदूरतरे समाप इति पावत् शासकुम्मस्तम्मैः सुवर्णस्तम्भः शुम्भतीत्यवंशीलस्तस्य, चन्द्रातपस्य
कौमुद्याश्छेदाः खण्डानि तद्वच्छवियंस्य तथाभूतेन धन्द्वोपण वितानेन चुम्बितमाश्लिष्टमम्बरं गगनं यन २० तस्य, निष्टप्तन नितरां . तप्तेन भधापदेन स्वर्णन घटितं निष्पादितं यत्कुष्टिमं मयाभोगस्तस्माभिर्यन्तो
निर्गच्छन्तो ये तरुणतरणिकिरणा मध्याह्नदिनकरदीधितयस्तद्वदाचरन्स्यो या मरीचिमनों रश्मिततय
अथवा दिनोंके समान अतमोऽभिभूत थे अर्थात् जिस प्रकार दिन अनमोऽभिभूत-अन्धकारसे आक्रान्त नहीं रहते उसी प्रकार वे मनुष्य भी अतमोऽभिभूत-तमोगुणसे आक्रान्त
नहीं थे। उस नगरको श्रोदत्त अपने लिए दुरासद-दुष्प्राप्य समझता था । 'प्राप्त हुई २५ आपत्ति भी विशिष्ट पुण्य के उदयसे मेरी सम्पत्तिके लिए हो गयी' इस प्रकार आनन्दसे विभोर श्रीदत्त मन ही मन विचार कर रहा था।
७. तदनन्तर वह राजद्वार में पहुँचा । राजद्वार समस्त द्वीप और समस्त राष्ट्रोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंसे अधिष्ठित था इसलिए मृष्टिके स्थानके समान जान पड़ता था। वहाँ
प्रवेश करनेवाले और बाहर निकलनेवाले लोगोंकी बहुलतासे ऐसा जान पड़ता था कि सब३० लोग जहाँ के नहीं खड़े ही हैं। धाविद्याधरसे प्रेरित होकर प्रधान द्वारपालन राजाको खबर
दी। तदनन्तर बुलाये जानेपर उसने बड़े कौतुक के साथ राजमहल में प्रवेश किया। बैसी सुन्दर रचना उसने पहले कभी देखी नहीं थी इसलिए प्रवेश करते समय वह अपनी दृष्टि इधर-उधर चला रहा था। अनेक कझाओंके अन्तरको पार कर वह उस विशाल मण्डपमें पहुँचा जो कुछ
ही दूरवर्ती स्थानपर स्वर्ण के खम्भोंसे सुशोभित था। चाँदनीके टुकड़ों के समान कान्निवाले ३५ चदोवासे जो आकाशको चूम रहा था। अत्यन्त तपाये हुए स्वर्णसं निर्मित फर्श से निकलने
वाली एवं मध्याह्नके सूर्य की किरणों के समान आचरण करनेवाली किरणावलीसे जो दिशाओं
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- वृत्तान्तः ] तृतीयो लम्मः
१५९ नुचरणधिषणोपसरत्सूर्येन्दुसंदेहमावहतो महतो मण्डपस्य मध्ये स्थितम्, अस्तोकस्नेहभयाक्रान्तस्वान्तैरुनयनपङ्क्तिभिः पक्तिस्थितखचरेन्द्ररजलिकञ्जमुकुलपुजेनेवाभ्यच्यमानम्, अष्टापदसुप्रतिष्ठभृङ्गारकमकुरचमर जतालवृन्तवृन्दग्राहिणीभिर्विग्रहिणोभिरिव तडिल्लतामिललनाभिरभितोऽपि दिग्वधूभिरिव परिवृतम्, महति हरिविष्टरे समुपविष्टमपि विधरश्रवसश्चापकाण्डमकाण्डे दर्शयन्त्या मण्डनपुनरुक्तया कायकान्त्या मण्डपे सर्वस्वतेजसा दिगन्तेषु स्वान्तेन स्वदुहितृविवाहकर्मणि मन्द- ५ स्मितेन सावितसमीहितागतेषु सामन्तेषु कटाक्षपातेन प्रसादावर्जनदीनारसहसूदानेपु श्रवणप्रदानेन नानाजनपदोपसर्पदपसर्पवचः श्रवणेषु प्रतिविम्बनिभेन खेचरेन्द्रबृन्दारककिरोटेणु नेत्रेण मित्रगाने स्ताभिः पिञ्जरिता पिङ्गलवर्णीकृता हरितो दिशा यस्मिन् तस्य, खेचरन्द्रस्य विद्याधरघराबल्लभस्य ग्रानुचरणधिषणा सेवाबुद्धिस्तयोपसरन्तौ समीपमागच्छन्तौ यो सूर्येन्द्र तयोः संदेहं संशयम् आवहतो दधतो महतो विशालस्य मण्डपस्य मध्ये स्थितं समुपविष्टम्, अस्तोकाभ्यां विपुलाभ्यां स्नेहभयाभ्यामरकान्तं १० चित्तं येषां तैः, उगता नयनपछितर्यषां तैः अचं पश्यतिरिष्यथः परिस्थिताश्च ते खचरेन्द्राश्च ते: श्रेणीस्थितविद्याधरेन्द्रः अालय एव कामकलानि कमलकटमलानि तेषां पुनः समूहस्तेन अभ्यय॑मानमि पूज्यमानमिव, अष्टापदस्य सुवर्णस्य सुप्रतिष्टकं तीर्थपात्रं भृङ्गारकः कलशः मुकुरो दर्पणः चमरजो बालन्यजनं तालवृन्तं व्यजनं च तेषां वृन्दस्य समूहस्य ग्राहिण्यस्ताभिः स्वर्णनिर्मितमङ्गलद्व्यधारिणीमिरिति यावत् विग्रहिणीमिः शरीरधारिणोमिः तहिल्लताभिरिव विरवल्लरीभिरिव ललनाभिरङ्गनाभिः अभितोऽपि १५ समन्तादपि दिग्वधूभिरिव कानाकामिनी मिगिन परिक्षत रिलेटिनम, महति विस्तृत हरिविष्टरे सिंहासने समुपविष्टमपि समासीनमपि विष्टस्यवसः पुरन्दरस्य चापकाण्डं धनुर्दण्डम् अकाण्डऽसमय दर्शयन्त्या प्रकटयन्त्या मण्डनपुनरुनया भूषणविरुदीरितया कायकान्स्या देहदीप्त्या मण्डपं, सर्वस्वं तेजः प्रतापस्तेन दिगन्तेषु काष्टान्तेयु, स्वान्तेन चेतसा स्वदुहितुः स्वपुत्र्या विवाहकर्म तस्मिन् , मन्दस्मितेन : आदौ साधितसमीहिताः पश्चादागतास्तेपु कार्य साधयित्वा समागतेषु सामन्तेषु मण्डलेश्वरेषु, कटाक्ष- २० पातेन प्रसाईनावर्जनमानुकूल्यं तेन दीनारसहस्राणां स्वर्णमुद्राणां दानानि तेषु, श्रवणप्रदानेन कर्णदानेन नानाजनपदेभ्यो नैकदेशेभ्य उपसपन्तः समीपमागच्छन्तो येऽपसर्पा गुप्तचरास्तेषां वचःश्रवणेषु गुप्तवार्ता
को पीतवर्ण कर रहा था और विद्याधर राजाकी सेवाकी बुद्धिसे समीपमें आते हुए सूर्य तथा चन्द्रमाका सन्देह उत्पन्न कर रहा था। राजा गरुडवेग उसी विशाल मण्डपके मध्यमें स्थित था । जिनके चित्त बहुत भारी स्नेह और भयसे आक्रान्त थे, तथा २५ जिनके नयनोंकी पंक्ति ऊपरकी ओर उठ रही थी ऐसे पंक्ति रूपसे स्थित अनेक विद्याधर राजा हाथ जोड़े हुए उसके समीप बैठे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वे अंजलिरूप कमलको बोड़ियों के समूहसे उसकी पूजा ही कर रहे थे। स्वर्णनिर्मित ठौना, झारी, दर्पण, चमर और पंखा आदि मंगल द्रव्योको धारण करनेवाली अनेक स्त्रियाँ जो शरीरधारिणी विद्यलताक समान जान पड़ती थीं उसे चारों ओरसे घेरे हुए थी और उनसे ३० वह ऐसा प्रतीत होता था मानो दिशारूप त्रियाँ ही उसे घेरे हों। वह यद्यपि सिंहासनपर बैठा था तथापि असमयमें इन्द्रधनुषको दिखलानेवाली एवं आभूषणोंसे पुनरुक्त शरीरकी कान्तिसे समस्त मण्डपमें सर्वस्व रूप तेजसे दिशाओंके अन्तमें, हृदयसे अपनी पुत्रीके विवाह कार्यमें, मन्द मुसकानसे इष्ट कार्य सिद्ध कर आये हुए सामन्तोंमें, कटाक्षपातसे प्रसन्नताको प्राप्त मनुष्यों के लिए हजारों दीनारोंके देने में कर्णदानसे नाना देशोंसे पास आनेवाले गुप्तचरों ३५
१. मुप्रतिटकम्-तीर्थपात्रम् । २. मण्डपसर्नस्थं म० । ३. क. नानाजनपदोपसर्पवचःथवणेषु ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ ९८ विजयार्ध
निवसन्तं तं नभश्चराधिपमधिकभक्तिः समुद्वोक्ष्य संमदभरदुर्भरं वपुः समुद्वोढुमपारयन्निव घरायां पतन्सप्रश्रयं प्राणसीत् । खेचरेन्द्रोऽपि रुचिरां दशनज्योत्स्नां निःसरन्त्याः सरस्वत्याः पुरःसरafrofia दर्शनधरितजलधररवगाम्भीर्येण कुशलपरिप्रश्नादिचतुरोपचारगर्भेण मधुरतरेण स्वरेण 'सायात्रिकं संभाव्य समुचितकशिपुभिः समग्रमेनं संपाद्य पुनरानय' इति घरमब्रवीत् ।
$ ९८. अथ घरम्य सवनि वर इदायमूख्यचूडामणिरुपलाल्यमानः क्षपामपि तत्रैव क्षप यित्वा प्रभात एव प्रसरन्त्यां गन्धर्वदत्तायाः क्षितितलप्रयाणवार्तायाम्, तन्मुखकान्तिजिते कांदि - शोक इव मन्दतेजसि गते चन्द्रमसि उडुगणेऽप्युडुपतिपराजयादिव तिरोदधति, पूर्वादधिवेलां
ܕ
1
कर्णने, प्रतिबिस्वनिभेन प्रतिकृतिव्याजेन सेवरेन्द्रवृन्दारकाणां विद्याधरधरावल्लभश्रेष्टानां किरीटेषु मुकुटेषु, नेत्रेण च नयनेन च मित्रगा श्रीदत्तवैश्यपतिशरीरं निवसन्तं तं नमश्वराधिपं विद्याधर नरेन्द्र गरुडवेगम १० अधिक मक्तिरुएकटानुरागः समुद्रक्ष्य समवलोक्य संमदमरेण हर्षभरेण दुर्भरं दुःखेन धर्तुं शक्यं वपुः शरीरं समुद्रोढुम् धर्तुमपारयन्निव जरायां पृथिव्यां पतन् प्राणंसीत् नमश्चकार । खेचरेन्द्रोऽपि गरुडयेगोऽपि रुचिरां मनोहरां निःसरत्या निर्गच्छन्त्याः सरस्वत्या वाण्याः पुरःसरदीपिका मित्र असरदीपिकामिव दशनदन्तकौमुदीम् दर्शयन् प्रकटयन् अधरितं तिरस्कृतं जलधराणां घनानां स्वस्य गर्जनस्य गाम्भीर्य येन तेन चतुराणामुपचारश्वतुरोपचारः कुशलपरिप्रश्नादिश्चतुरोपचारो गर्ने यस्य तेन तथाभूतेन मधुरतरेण १५ अतिशय मधुरंण स्वरेण त्राचा सांयात्रिकं पीतवणिजं संमान्य सस्कृत्य समुचितकशिपुभिः योग्यानवस्त्रादिभिः समयं संपूर्ण संपाद्य एवं पुनरानय इति घरं सनामामात्यम् अग्रवोत् ।
भति-अथ परस्य मन्त्रिणः सद्मनि गृहे वर इव जामातेव उपलाल्यमानः सेव्यमानः अग्रम् करण्यचूड़ामणिवैश्यशिरोमणिः श्रीदत्तः क्षपामपि निशामपि तत्र धरामात्यभवन एव क्षपयवा व्यपगमय्य प्रभात एवं प्रत्यूष पुत्र गन्धर्वदत्ताया गरुडवेगसुतायाः क्षितितले प्रयाणस्य वार्ता २० तस्यां भूतगमन प्रवृत्तौ प्रसरन्त्यां सत्याम् तस्या गम्बदशाया मुखकान्त्या वदनसुषमया जितः पराभूत
स्तस्मिन् अतएव कांदिशीक एवं भयद्भुत इव मन्दतेजसि क्षीणप्रकाशे चन्द्रमसि गते सति, उडुगणेऽपि नक्षत्रनिचयेऽपि उडुपतिपराजयादिव चन्द्रपराभवादिव तिरोदधति अन्तर्हिते भवति विकसितं कमलानां
के वचन सुनने में प्रतिबिम्ब के बहाने विद्याधर राजाओंके मुकुटोंमें, और नेत्रसे मित्रके शरीर पर निवास कर रहा था । विद्याधरोंके राजा गड़वेगको देखकर श्रीदत्तको भक्ति उमड़ पड़ी २५ और उसने पृथिवीपर पड़कर बड़ी विनयसे उसे नमस्कार किया | पृथिवीपर पड़ते समय बह ऐसा जान पड़ता था मानो हर्षके भारसे दुर्भर शरीरको धारण करनेके लिए असमर्थ ही हो गया था । राजा गरुडवेगने भी निकलनेवाली सरस्वतीके आगे-आगे चलनेवाली दीपिका के समान दाँतों की सुन्दर कान्ति दिखलाते हुए मेघगर्जना के गाम्भीर्यको निरस्तवाले एवं कुशल प्रश्न आदि चतुर जनोंके उपचारसे युक्त अत्यन्त मधुर स्वरसे श्रीदत्तका सन्मान कर धर ३० मन्त्री से कहा कि इन्हें योग्य भोजन तथा वस्त्र आदिसे सत्कृत कर फिर लाओ ।
ई ६८. अथानन्तर धर मन्त्री र श्रीदत्तका वरके समान सत्कार हुआ। रात्रि भी उसने बहीं बितायी। प्रातःकाल होते-होते यह बात सर्वत्र फैल गयी कि गन्धर्वदत्ताका प्रथित्री reat ओर प्रयाग होनेवाला है । गन्धर्वदत्ता के मुखकी कान्निसे पराजित होनेके कारण हो मान जिसका तेज फीका पड़ गया था ऐसा चन्द्रमा भयभीत के समान कहीं चला गया३५ अस्त हो गया । नक्षत्रोंका समूह भी नक्षत्रपति -- चन्द्रमाका पराजय देख तिरोहित हो गया ।
१. ६० ख० ग० 'तं' नास्ति । २. कशिपुभिः
अन्नवस्त्रादिभिः इति टि० ।
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ध
रायां
सर
-नान्तः]
नृतीयो लम्भः विकसितकमलमुखे चन्द्रमुखीमुखावलोकनरागादिव सरागे रवी समासीदति, सीदति दुहितविरहकातर्येण धारिणीहृदये, हृदयज्ञे च राजि 'राजीवलोचने, सुलोचनानां जननस्थानमुत्सृज्य गरितामिवान्यत्र सरणं किमु सांप्रतिकम् । अतो न सांप्रतमेवं तव वैक्लव्यम्' इत्युदोर्य हरति धारिणीमनःखेदम्, सोऽपि श्रीदत्त: खेचरेन्द्रान्तिकममन्दादरादुपसरन्नुत्तमाङ्गचुम्बिताम्बुराशिरशनः सविनयं तस्थौ । तावता च जातास्थाः 'कन्यकायाः प्रस्थानलग्नः प्रत्यासन्नः' इति मुहर्मुहरू- ५ नमोहुतियाः।
५.९, अथ सत्वरपरिजनचरणसंघट्टनरणिते श्रवांसि बधिरयति, प्रतिदिगं ग़मागच्छ
क्षप
बेला
फुटेप
वेगम्
सरीर
चिरां शन
स्तरण
मुग्यं यन तस्मिन् , चन्द्रमुख्या गन्धर्वदत्ताया मुखस्वावलोकन रागः प्रेमातिशयस्तस्मादिव सरागे सप्रेमणि पक्ष सलाहित्य खो दिनकरे पूर्वोदधिवेलां पूर्वसागरतटीं समासीदति समागच्छति सति, दुहितृविरहेण पुत्रीवियोगेन यत्कात यं भी तेन धारिणी हृदये राजीचेतसि सीदति दुःखमनुभवति सति, हृदयज्ञेच १० राजीहृदयविशे च राज्ञि गरुडवेगे राजीवलोचने, हे कमलनयने, सुलोचनानां नारीणां जननस्थानं जन्मधाम उत्सृज्य त्यक्त्वा सरितामिव नदीनामिव अन्यत्र सरणं गमनं किमु सांप्रतिकम् आधुनिकम् । अतो न एवम नेन प्रकारेण तव चैकलव्यं वैचिस्यं न सांगतं न युक्तम्, इति उदीर्य निगद्य धारिणीमनःखेदं राजीहृदयदुःखं हरति सति, सोऽपि श्रीदत्तः अमन्दादराष्प्रचुरसन्मानात खेचरेन्द्रान्तिक विद्याधरधरापतिसमीपम उपसरन् गच्छन् उत्तमान शिरसा चुम्बित। अम्बुराशिरशना मही यन तथाभूतः सन् सविनयं सप्रश्रयं १५ यथा स्यात्तथा तस्थी। तावता च तावरकालेन च जाता आस्था येषां ते समुत्पत्नप्रत्यय देवज्ञाः 'कन्यकाया गन्धर्वदत्तायाः प्रयाणलग्नः प्रस्थानसमयः प्रत्यासन्नी निकटस्थः' इति मुहर्मुहुः भूयो भूय ऊचुः।
दभिः
मानः
एव
वार्ता
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भूत
णेऽपि लानां
६९९. अथ सत्वरेति-अथानन्तरं सरवरा: सशैध्या ये परिजना परिवारजनास्तेषां चरणानां पादानां संघट्टनं विमदनं तेन समुत्परणितं शब्दस्तस्मिन् धवांसि श्रोत्राणि बधिरयति सति प्रतिदिशं २०
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परोर
काके शल घर
खिल हुए कमलके समान मुखको धारण करनेवाला लाल लाल सूर्य पूर्व समुद्रके तटपर आ गया। उस समय वह सूर्य ऐसा जान पड़ता था मानो चन्द्रमुखी-गन्धर्वदत्ताको देखने के गगसे ही मराग-प्रेमसहित (पक्षमें लाल-लाल) हो गया था। धारिगीका हृदय पुत्रीके विरहकी कातरतासे दुखी होने लगा, और उसके हृदयकी बात जाननेवाले राजा 'हे कमललोचने : नदियों के समान त्रियोंका जन्म स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना क्या आजकी २५ यान है ? इसलिए तुम्हें इस प्रकार बेचैन होना योग्य नहीं है' यह कहकर उसके मनका खेद दूर करने लगे। उसी समय वह श्रीदत्त भी बहुत भारी आदरसे विद्याधराधिपनि राजा गमड़वेगके समीप आया और पृथिवीपर मस्तक टेक विनयपूर्वक खड़ा हो गया। इतने में ही श्रद्धा को धारण करनेवाले ज्योतिषी बार-बार कहने लगे कि कन्याके प्रस्थानका समय निकट आ पहुँचा है।
६९९. तदनन्तर जब शीघ्रतासे युक्त परिजनोंके चरणों के संघट्टनसे उत्पन्न हुआ शब्द कानोंको वहिरा कर रहा था। जब प्रत्येक दिशासे आनेवाली प्रस्थानकालिक प्रचुर सामग्री
भी थेवी
या।
१. ख. 'जातास्थाः पदं नास्ति।
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गरचिन्तामणिः
[ ६ गन्धर्वदत्तादतुच्छप्रयाणपरिच्छदे चढूंषि चरितार्थीकुर्वति, सर्वथाभवत्तरुणीविप्रयोगे विधुरयति प्रेमान्धबन्धुजनमनांसि, मांसलपटवासगन्धे वाणरन्ध्र नीरन्ध्रयति, समधिकधवलोष्णीषवारबाणधारिणा गृहीतकनककोक्षेयकवेत्रष्टिना निरहुंकारभयपलायितसत्त्वसार्थविभक्तपुरोभागेन प्रवयसा प्रतीहारलोकेनाधिष्ठिताग्रस्कन्धस्य बन्धुरभूषणमणिमहःप्रचविद्युदुद्योतद्योतितवियतः स्फुटितमन्दार५ दामकामुकमधुकरनि कुरुम्बविलुलितालकस्य परस्परपरिहासकथाप्रसङ्गस्फुरितहसितकुसुमिताधररुचकस्य महतः स्त्रैणस्य मध्ये महीभृदाज्ञया समायान्ती, परिचयातिप्रसङ्गसंक्रान्तैविजयार्धशिख
प्रतिकाष्टं समागच्छन् योऽतुच्छः प्रचुरः प्रयाणपरिच्छदः प्रस्थानमामग्रीसंचयस्तस्मिन् चक्षुषि दर्शकानां नयनानि चरितार्थीकुर्वति सफल यति सति, सर्वथा सर्वप्रकारेण भवन जायमानो यस्तरुणीविप्रयोगो
गन्धर्वदत्ताविरहस्तस्मिन् प्रेमान्धानि च तानि अन्धुजनमनासीति प्रेमान्धबन्धुजनमनांसि विथुस्यति सति १० दुःखीकुर्वाणे सति, मांसलः परिपुष्टो यः पटवासगन्धः सुगन्धितर्ण गन्धस्तस्मिन् वाणरम्धं नासाविवरं
नीरन्ध्रयति, निश्छिद्रीयति सति, समधिकवलौ धवलतरी यावष्णीषवारवाणी शिरोवेष्टनकंचुको तयोर्धारिणा तेन गृहीतं कनककोग्रवनधी सदनमण्डी येन तेन, निरहवारस्य भयन पलायितो यः सत्वसाथः प्राणिसमूहस्तेन विभक्तः पुरोभागो यस्य तेन प्रवयसा स्थविरेण प्रतीहारलोकेन कञ्चकोजनेन
अधिष्ठितो युक्तोऽग्रस्कन्धोऽग्रप्रदेशों यस्य तस्य, बन्धुरभूषणानां मनोहरामरणानां मणयो स्नानि तेषां १५ महाप्रचयस्तेजःसमुहः स एव विद्यदुयोतस्तढिरप्रकाशस्तेन घोतितं प्रकाशित वियद् व्योम येन तस्य
स्फुटितानि विकसितानि यानि मन्दारद्रामानि कल्पवृक्षमाल्यानि संपां कामुका अमिलापुका ये मधुकरा भ्रमरास्तेषां निकुरुम्मेण समूहेन विलुलिता अलकाश्चूर्णकुन्तला यस्य तस्य, परिहासकथाया नर्मवार्तायाः प्रसङ्गेन स्फुरितं प्रकटितं यद् हसितं तेन कुसुमितं पुष्पितम् अधररुचकम् अधरबिम्वं यस्य तस्य, महतो विपुलस्य स्त्रैणस्य स्त्रीसमूहस्य मध्ये महीभृदाज्ञया राजादेशेन समयान्ती समागच्छन्ती गन्धर्वदत्ता सत्वरं । सशैघ्र सादरं च तन्मुखे तद्वक्त्रे वलितं म्रोटितं मुखं पां तथाभूतैः सभाजनैः पारिषदः दहशे हटा अथ तस्या एव विशेषणान्याह-परिचयेति-परिचयातिप्रसङ्गेन परिचयाधिक्येन संक्रान्तमिलितैः विजयाध
.-
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नेत्रोंको चरितार्थ कर रही थी। जब सदा के लिए होनेवाला गन्धर्वदत्ताका वियोग प्रेमान्ध वन्धुजनोंके हदयको दुःखी कर रहा था और जब सुगन्धित चूर्णकी बहुत भारी सुगन्धि
नासिका विवरको निश्छिद्र कर रही थी-व्याप्त बना रही थी तब राजाकी आज्ञासे गन्धर्व२५ दत्ता आयी और सभाके लोगोंने शीव्रता और आदर के साथ उसकी ओर मुख फेरकर उसे
देखा । वह गन्धर्वदत्ता उस बहुत भारी स्त्री-समहके बीच आ रही थी जिसका कि अग्रभाग अत्यन्त सफेद साफा और वारबाणको धारण करनेवाले. स्वर्णमय तलवार और छडीको ग्रहण करनेवाले, तथा अत्यन्त कठोर हुंकारके भयसे भागते हुए प्राणियोंसे जिसे आगे खाली मैदान दिया गया था ऐसे वृद्ध प्रतीहार जनोंसे अधिष्ठित था । नतोन्नत आभूषणों में लगे हुए मणियों३० के तेजःसमूहरूपी बिजलीके प्रकाशसे जिसने आकाशको प्रकाशित कर रखा था। खिली हुई गन्दारकी मालाओंके इच्छुक भ्रस के समूहसे जिसके आगेके बाल अस्त-व्यस्त हो गये थे
और पारस्परिक हास-परिहासकी कथाओंके प्रसंगसे प्रकट मन्द हास्यसे जिसके अधर बिम्ब फलोंसे युक्त-जैसे जान पड़ते थे। वह गन्धर्व दत्ता उस समय परिचयको अधिकनासे संक्रान्त,
१. क. विद्युदुद्योतितवियतः।
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-वृत्तान्तः
तृतीयो कम्मः रिधातुधूलिभिरिव रजितमलपतकरसतानं तनुतररेखामयशुभलाञ्छनाञ्चितमतिसुकुमारभुदरं दधद्भयां पादपल्लवाभ्यां पल्लवयन्तो भुवम्, विषमबाणतूणीरनिर्माणमातृकानुकाराभ्यामुद्यन्नूपुरविमलमुक्ताफलकरः स्निग्धबन्धुमनोभिरिव गमन प्रतिबन्धाय गृह्यमाणाभ्यां क्रमवृत्तस्निग्धानतिप्राशुभ्यां जवाभ्यां भासमाना, न्यक्कृतराजरम्भाकाण्डाभ्यामूरुस्तम्भाभ्यां घनजघननगराभोगभारमुद्वहन्ती, विलसदमलफेनपटलवलो महता बोलेगा प्रसारामु ने राजतगिरिकिरण- ५ जातेनेव कुतपरिष्कारा,तारुण्यसिन्धुपुलिनयोर्जधनयोः सारसविरावाञ्चितां काञ्चोमुदञ्चता करेण
शिखरी गगन चरादिस्तस्य धानुभूलिमिगरिकरणुभी रजितमिव लोहितमिव अलक्तकरसन यावकरसन तानं रकवर्णम् , तनुतररेखामयानि कृशतररंखारूपाणि यानि शुभलाञ्छनानि शुभचिह्नानि तैरचिनं शोभितम्, अतिसुकुमारं मृदुलतरम उदरं मध्यं दद्धयां पादपल्लवाभ्यां चरणकिसलयाभ्यां भुवं प्रथिवी पल्लवयन्तो किसलयन्ती रक्तवर्णीकुर्वन्तीत्यर्थः, विषमवाणेति-विषमवाणो मदनस्तस्य तूणीरस्यपुधे. १० निर्माण रमनायां मातृकानुकाराभ्यां मातृकातुल्याभ्याम् उद्यन्त उत्पतन्नो ये नपुरविमलमुक्ताफलानां मनोरकामलमौक्तिकानां करा: किरणास्त: स्निग्धानि च तानि बन्धुमनांसि सनाभिस्वान्तानि ते: गमनप्रतिबन्धाय गमननिषेधाय गृह्यमाणाम्यामिव स्वीक्रियमाणाभ्यामिव क्रमवृत्ते कमवर्तुले स्निग्धे मरणे अनतिप्रांशू च नातिदीर्घ च ताभ्यां जनाभ्यां प्रसृताभ्यां भासमाना शोममाना, न्यकृतति-न्य स्कृतस्तिरस्कृती राजरम्माकाण्डो मोचातरुप्रकाण्डो याभ्यां ताभ्याम् अरुस्तम्माभ्यां सक्थिदण्डाम्याम , धनजघनमेव १५ स्यूलनितम्बमव नगरं तस्यामोगमारं विस्तारमारम उद्वहन्ती दधती, विलसदिति-विल सच्छोभमान यदमक फेनपटनं निर्मलडिण्डीरसमूहस्तद्वद्वलक्षेण प्रवलेन महता विस्तृतेन क्षौमेण चीनांशुकेन प्रयाणे प्रस्थाने यदनुसरणं यदनुगमनं तस्य कृतं समायाता ये राजगिरिकिरणाः खगगिरिरश्मयस्तेषां जातेन समूहन कृतपरिष्कारा विहितालिङ्गना, तारुण्यति-तारुण्यमेव सिन्धुनदी तस्याः पुलिनयोस्तटयोः जघनयोनितम्बयोः सारसानां गोनर्दानां विराव इव विरावः शब्दस्तेनाञ्चितां शोभितां तनुतया कृशस्वेन पतना-२० भिमुखं पतनतत्परं मध्यमवलनम् गृह्णन्तीमिव काची रशनाम् उद्धता समुत्थापयता करेण पाणिना धार
विजयापर्वतकी धातुओंकी धूलिसे रंगे हुए के समान, अलक्तक रसके समान ताम्रवर्ण, अत्यन्त सूक्ष्म रेखाकार शुभ चिह्नोंसे सुशोभित, एवं अत्यन्त सुकुमार तलुएको धारण करनेबालं पादपल्लवोंसे पृथिवीको पल्लवित कर रही थी । कामदेव के तरकश बनाने में जो माताका अनुकरण कर रही थी, न पुरोंमें लगे निर्मल मोतियोंकी उठती हुई किरणोंस जो ऐसी जान २५ पड़ती थीं मानो स्नेही बन्धुजनोंके मनोंने गमनमें रुकावट डालने के लिए ही उन्हें पकड़ रखा हो तथा जो क्रम-क्रमसे गोल, चिकनी और कुछ थोड़ी लम्बी थी ऐसी जंघाओं-पिंडरियोंसें वह सुशोभित हो रही थी। राजरम्भा-राजकेलक स्वम्भीका तिरस्कार करनेवाली ऊरओंसे यह स्थूल नितम्बरूपी नगर के विस्तृत मैदानको धारण कर रही थी। वह अत्यन्त सुशोभित फेन समूहके समान सफेद बहुत भारी रेशमी वस्त्रसे अलंकृत थी और उससे ऐसी जान पड़ती ३० थी मानो प्रयाणके समय पीछे-पीछे चलनेके लिए आये हुए विजयार्ध पर्वत की किरगोंके समूह से ही सुशोभित हो । यौवनरूपी सागरफे तटोंको समानता रखनेवाले दोनों नितम्बोपर सारस पक्षियों-जैसी ध्वनिसे सुशोभित करधनीको वह ऊपरकी और उठते हुए
२. का ख. ग० रणभिरिव ।
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गचिन्तामणिः
[ गन्धर्वदसातनुतथा पतनाभिमुखं मध्यमिव गुल्ती धारयन्ती, रोमावलोतमालवनराजोसंवर्धमानामृतसलिलकूरविभ्रमं नाभिमण्डलं बिभ्रती, कमनीयकायकल्पवल्लरीस्थूलस्तबकसंपदौ शोक्तेयहारचरों पयोघरी दधतो, विलाससमीरसमुत्थापितलावण्यतरङ्गिणीतरङ्गरेखा रमणीययोर्भुजलतयोविमला
गुना मलमा पितृपुरियाईपुष्पाञ्जलिविधानायेव दधाना, कम्बुकान्तिकण्ठभूषणमाणि५ क्याखण्डालोकं बालातपमित्र कुचचक्रवाकमिथुनाविश्लेषाय प्रकाशयन्ती, कालाजनपुजनीलाल.
कबन्धबन्धुरापरभागमपरान्तनिबिडनिविष्टतमःपटलमिवोडुपतिबिम्बं बिम्बारुणोष्टसंपुटशुक्तिगर्भनिर्भासुरदशनमौक्तिकापोडं ललाटेन्दुनियंदमृतधारायमाणनासावंशं विमलांशुजाललधित पोल.
यन्ती दधतो, रोमावलीति-रोमावल्यंच तमालवनराजी तापिच्छकक्षपतिस्तस्यां संवर्धमानो योऽमृतसलिलकूपः पीयूषपानीयप्रहिस्तस्यैव विभ्रमः शोभा यस्य तद नामिमण्डलं तुन्दिचक्रवालं बिभ्रता दधता, कमायति—कमनीया मनोहरा, या कायकरुपवल्लरी शरीरकल्पलता तस्याः स्थूलस्तवकाविय विशाल. गुच्छाविव सम्पद् ययोस्ता शक्तियहारधरी मुक्ताफलहारधारिणी पयोधरी वक्षोजी दधी विनती, विला. सेति-बिलास एव समोरः पवनस्तेन समुस्थापिता या लावण्यतरङ्गिीतररंखा सौन्दर्यस्रवन्तीभङ्गरेखास्तद्वद् रमणीययोः कमनीययोः भुजलतयोर्बाहुवल्लयोः विमला निर्मला याङ्गुली नखाना करशाखानखराणां
मयूखमाला किरणसन्ततिस्ताम् पितुर्जनकस्य पुरस्क्रियाहा॑णि प्राभृतयोग्यानि यानि पुष्पाणि तेषामञ्जलि१५ विधानायव हस्तसंपुटकरणायव दधाना बिभ्रती, कम्बुकान्तीति-कम्बुकान्तिः शङ्गसुन्दरो यः कपटस्तस्य
यानि भूषणमाणिक्यानि आमरणरत्नानि तपामखण्डालोकोऽविरक प्रकाशस्तं कुचावेव स्तनावेव चक्रवाकमिथुनं स्थाङ्गयुगलं तस्याविश्लेषाय भविप्रयोगायेव बालातपं प्रत्यूषधर्म प्रकाशयन्ती प्रकटयन्ती, कालाअनेति-कालाअनपुजेनेव कृप्पणाजिनसमूहनेव नीलालकबन्धेन घनामचूर्णकुन्तलवन्धेन बन्धुरो मनोहरोड
परमागो यस्य तद् अतएव अपरान्ते पृष्टभागे निबिडं सान्द्रं यथा स्यात्तथा निविष्टं स्थितं तमःपटलं तिमिर२० समूहो यस्य तथाभूतम उडुपतिविम्वमिव चन्द्रमण्डलमिव, बिम्बमिव रुचकमिवारुणं रतं यदोष्ठसंपुटं
दशनच्छदयुगलं तदेव सुतिस्तस्या गर्ने मध्ये निर्मासुरो देदीप्यमानो दशनमौक्तिकानां रदनमुक्ताफलानामापीडः समूहो यस्मिन् तत्, ललाटेन्दोनिटिलचन्द्रमसो नियंन्ती निर्गच्छन्ती यामृतधारा तद्वदाचरन् नासा
हाथसे पकड़े थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो कृशताके कारण पतनोन्मुख कमरको
ही पकड़े श्री । रोमावलीरूपी तमाल वनकी पंक्तिके मध्य बढ़ते हुए अमृत जलके कुएँ के समान २५ सुशोभित नाभिमण्डलको धारण कर रही थी। सुन्दर शरीररूपी कल्पलताके स्थूल गुच्छोंके
समान सुशोभित एवं मोतियों के हारसे युक्त स्तनोंको धारण कर रही थी। विलासरूपी वायुसे उठी सौन्दर्यरूपी नदीकी लहरों के समान मनोहर भुजलताओंमें वह निर्मल अंगुलियोंके नखोंकी किरणावलीको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो पिताको भेंट देने
के योग्य पुष्पाञ्जलि ही तैयार कर रही हो। शंख सदृश कण्ठ में पहने हुए आभूपोंके मणियों ३० के अखण्ड प्रकाशको प्रकाशित कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो स्तनरूपी
चक्रवा-चक का जोड़ा बिछुड़ न जाय इस भावनासे प्रातःकालका घाम ही प्रकट कर रही थी।
बह उस मुखको धारण कर रही थी जो काले अंजनके पुंजके समान नीले-नीले अलकोंके बन्धन। . से नतीन्नत था और इसीलिए जो उपरितन भागमें स्थित सघन अन्धकारके समूह से युक्त चन्द्र.
बिम्बके समान जान पड़ता था। जो बिम्बफलके समान लाल ओठोंके पुदरूपी सीपके भीतर ३५ देदीप्यमान दाँतरूपी मोतियों के समूहसे युक्त था। जिसका नासावंश, ललाटरूपी चन्द्रमासे
१. क.० ख० ग० गृल्लुन्तीम् । २. 20 शौक्तिकेयहारधरौ।
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- वृत्तान्तः ]
तृतीयो सम्मः
मण्डलमाणिक्य कुण्डलमण्डितश्रवणयुगल मलिचुम्बितविकचकुवलयदीर्घलोचनं विभ्रमलास्यलासिकविलास भ्रूलताननं बिभ्राणा गन्धर्वदत्ता सत्वरं सादरं च तन्मुखदलितमुखेः सभाजनैर्ददृशे ।
१०० ततश्च तामुत्तमाङ्गस्पृष्टविसृष्टमहीपृष्ठां तिष्ठन्तीं खेचरेन्द्रः सादरमा श्लिष्य 'पुत्रि, श्रीदत्तेनास्माकं कुल क्रमागता मंत्री । गात्रान्तरस्थं मामेत्र तावदमुं मन्येथाः । कन्ये, जनकस्तेवायं जननी चास्य गृहिणी गृहाणामुना प्रयाणे मतिम् | अलं कातर्येण | गगनेचराणां ५ राजपुरी किं न भवनद्वारसमा ।' इति सानुनयं समभ्यधत्त । सापि यथाज्ञापयति' इति सबाष्पवदना पितरो बन्धुजनं च प्रणम्य परिष्वज्यापृच्छय तुच्छेतरशुकशारिकाचामरतालवृन्तकन्दुवंशो यस्य तत् विमलांगुजालेन निर्मलकिरणकलापेन लङ्गितमतिक्रान्तं कपोलमण्डलं गण्डस्थलं याभ्यां तथाभूतं ये माणिक्यकुण्डले रलमयकर्णाभरणे ताभ्यां मण्डितं शोभितं श्रवणयुगलं कर्णयुगं यस्मिन् तत्, अलिचुम्बिते भ्रमराङ्कितं विकचकुवलये इव विकसितनीलोत्पले इव दीर्घलोचने यस्मिन् तत् विभ्रमलास्यस्य १० सविलासनृत्यस्य लासिका नर्तकी तस्या इव विलासो यस्याः तथाभूता भूलता कुटियारी यस्मिन् तत्, आननं मुखं बिभ्राणा ।
१०० ततश्चेति ततश्च सदनन्तरं घ उमाङ्गेन शिरसा आदी स्पृष्टं पश्चाद्विसृष्टं महीपृष्टं यया तां तिष्ठन्तीं स्थितां तां गन्धर्वदत्तां सादरं सस्नेहम् आलिप्य 'पुत्रि, सुर्वे, श्रीदत्तेन वणिक्पतिना साकम् अस्माकं कुल क्रमागता वंशपरम्परायाता मैत्री अस्तीति शेषः । तावत्साकल्येन 'यावत्तावश्च साकल्यंऽवधी मानेऽवधारणे' इत्यमरः, अमुं श्रीदत्तं गात्रान्तरस्थं शरीरान्तरस्थितं मामेव मन्येथाः जानीहि । कन्यं ! अयं यमानस्तथ जनकः पिता अस्य गृहिणी च तव जननी सवित्री ! अमुना सह प्रयाणे गमने मति बुद्धि गृहाण । कातर्येण दैम्येन अलं पर्याप्तं व्यर्थमित्यर्थः । गगनेचराणां विद्याधराणां किं राजपुरी भवनद्वारसभा
१५
प्रतीहारतुल्या किं न वर्तत इति शेषः । इति सानुनयं सस्नेहं समभ्यधत्त कथयामास । सापीति - सापि गन्धर्वदता, 'यथाज्ञापय वि - यथादिशति तातः' इति सवाप्यं वदनं यस्यास्तादृशी सानुमुखी सती २० माता च पिता चेति पितरौ सौ मातापितरौ 'पिता मात्रा' इति पितृशब्दस्यैकशेषः बन्धुजनं सनामिसमूहं च प्रणस्य नमस्कृत्य परिष्वज्य समालिङ्गय आपृच्छ्यामन्त्र्य च, शुकः कीरः सारिका मदनिका चामरं प्रकीर्णक
१६५
freeती हुई अमृत की धाराके समान आचरण करता था। जिसके कानोंका युगल, निर्मल किरणावलीसे कपल मण्डलको आक्रान्त करनेवाले मणिमय कुण्डलोंसे सुशोभित थे। जिसके नेत्र भ्रमरोंसे चुम्बित खिले हुए नील कमलोंके समान दीर्घ थे और जिसकी अकुटिरूपी लता २५ हाव-भावरूपी नर्तकी के विलास के समान जान पड़ती थी ।
$ १००. तदनन्तर गन्धर्वदत्ता पृथिवीपर मस्तक टेककर खड़ी हो गयो । राजा गरुड़वेगने उसका आलिंगन कर बड़े प्रेमसे कहा कि - 'पुत्रि ! श्रीदत्त के साथ हमारी कुलपरम्परासे चली आयी मित्रता है। तू इसे दूसरे शरीर में स्थित मुझे ही समझ | बेटी ! यह तेरा पिता है और इसकी स्त्री तेरी माता है । तू इसके साथ जाने की बुद्धि कर । भय करना व्यर्थ हैं । ३० विद्याधरों के लिए राजपुरी क्या मकानके द्वारके समान नहीं है।' गन्धर्वदत्ता भी 'जैसी आज्ञा हो' यह कह साश्रुमुखी हो माता-पिता तथा बन्धुजनों को प्रणाम कर, आलिंगन कर तथा सबसे पूछकर विमान में आरूढ हो श्रीदत्त के साथ आकाशमार्गसे चल पड़ी और क्षणभर में राजपुरी पहुँच गयी । उस समय जिसप्रकार मयूरियों से मेघपंक्ति घिरी होती है उसीप्रकार वह गन्धर्वदत्ता भी अत्यधिक तोता-मैना, चामर, पंखें, गेंद, वस्त्र, ३४
१. क० ख० ग० जनकश्च तवायम् । २. क० गृहाणाधुना ।
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गयचिन्तामणिः [१००-1 गन्धर्षदत्तायाःकाम्बरताम्बूलपरिवादिनीप्रमुखपरिबर्हपाणिभिस्तरुणीभिर्वहिणोभिरिव पयोदपक्तिरभिसंवृता निभृतेतरगगनेचरपृतनाभिरक्षिता क्षणादन्तरिक्षण विमानमारुह्य धरदर्शितपोतदर्शनोत्तालहर्षचित्तेन श्रीदत्तेन समं गत्वा राजपुरो शिथिये।
१०१. ततः श्रीदत्तोऽपि गन्धर्वदत्तायाः समागमननिमित्तावबोधेन दुर्लीलतस्वान्तो ५ विधाय बन्धुसमष्टि काष्टाङ्गारमप्युम्हारपुरःसरमनुज्ञापयन्ननुगणलग्ने प्रक्रम्य यथाक्रमं कतु
भर्मरत्न रजत जातनिर्माणं, निन्दितनिलिम्पग्रामणीसभाशोभं भासुरानन्त रत्नरतम्भजम्भमाणप्रभाप्रतानवितानीकृतयामिनीप्रसङ्गं प्रान्तलम्बितबहुगुण हरितकम्बलयवनिकावरणं 'भ्रमराचान्तोद्वान्त
तालवृन्तं व्यजनं कन्दुक गन्दुकम् अम्बरं यस्यं ताम्बूलं नागवल्लीदलं परिवादिना वीणा यंपा द्वन्द्वः ताः प्रमुखा ये तानि तुच्छेतराणि महान्ति शुकादिप्रमुखानि परिबर्हाणि उपकरणानि पाणिपु यासां ताभिरतरुणीमिअहिणीमिरमिसंघृता वेष्टिता पयोदपवितरिव घनमालेव निभृतेतराश्चञ्चला या गगनेचरपृतनास्तामिरभिरक्षिता प्राता क्षणाद अन्तरिक्षण गगनेन विमानं व्योमयानम आरुह्याधिष्टाय धरण विद्याधरेण दुर्शितस्य प्रकटितस्य पोतस्य दर्शने नोत्तालहर्ष समुष्कटानन्द चित्तं यस्य तेन श्रीदत्तन ससं साधं गत्वा राजपुरी तनामनगरी शिनिये श्रितवती।
६१.१ ततः श्रीदत्तोऽपोति-ततस्तदनन्तरं श्रीदत्तोऽपि गन्धर्व दत्तायाः खगाधिपसुतायाः २५. समागमननिमित्तावत्रोधेन समागम हेतुविज्ञानेन बन्धुसमष्टिं परिजनसमूह दुर्ललितं स्वान्तं यस्थास्ता हत्फुिल्लमानसां विधाय कृत्वा काष्टाङ्गारमपि तात्कालिकनृपतिमपि उपहारपुरस्सरं प्राभूतपूर्वम् अनुज्ञापयन् सूचयन, अनुगुणलग्ने शुभमुहूर्तं यथाक्रम क्रममनतिक्रम्य कर्तुं विधातुं प्रक्रम्य प्रारभ्य कमप्यनिर्वचनीयं वीणावादनमण्डपं परिवादिनीवादनास्थानगृहं निर्मापयामास रचयामास । अथ तस्यैत्र
विशेषणान्याह-मर्मरत्नरजतैः स्वर्णमणिरूप्यकर्जातं निर्माणं यस्य तम्, निन्दिता गर्हिता निलिम्पग्रामण्य २० इन्द्रस्य समाशोभा समितिसुषमा येन तम्, भासुरानन्तरत्नस्तम्भैदेदीप्यमानापरिमितमणिमयस्तम्भजम्भ
माया वर्धमाना या प्रभा कान्तिस्तस्याः प्रतानेन समहन वितानीकृतः गयीकतो यामिनासको निशा. यसरी यस्मिन् तम. प्रान्त समीपे लम्बित दीघांकृतं बहगुणहरितकम्बलयवनिकानां वहसत्रहरिद्वर्णकम्बल नेपथ्यानामावरणं यस्य तथाभूतम् , भास्वादिताः भ्रमरैरलिभिरादावा वान्ता पश्चादुद्वान्ताः प्रकटिता --- .----. ......-... -..
पान और वीण! आदि उपकरणोंको हाथों में धारण करनेवाली स्त्रियोंसे घिरी थी। आते समय २५ धर मन्त्रीने श्रीदत्तका जहाज ज्योंका त्यों दिखला दिया इसलिए उसका चित्त अत्यन्त हर्षित हो उठा था।
६१०१. अनन्तर श्रीदत्तने गन्धर्वदत्ताके आगमनका कारण बतलाकर अपने समल बन्धुजनोंको प्रसन्नचित्त किया और काठांगारको भी उपहार आदि देकर उससे आज्ञा
प्राप्त की। तत्पश्चात् अनुकूल लग्नमें क्रमसे बनवाना प्रारम्भ कर कोई अद्भुत वीणा३० बादन मण्डप बनवाया । उस भण्डयका निर्माण स्वर्ण, रत्न तथा चाँदीसे हुआ था।
वह इन्द्रकी सभाकी झोभाको तिरस्कृत कर रहा था । देदीप्यमान अनन्त रत्नमय खम्भोंकी चढ़ती हुई कान्तिके समूहसे उसमें रात्रिका प्रसंग मन्द पड़ गया था। उसके प्रान्तभागमें अनेक गुणोंसे युक्त हरे रंगके कम्बलों के परदोंका आवरण पड़ा हुआ था । भौंरोंके द्वारा
१.क०ख० ग० भ्रमरचान्तोद्वान्त ।
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- स्वयंवरायोजनम् ]
तृतीयो लम्भः
मधुरस विसरवर्षिकुसुमदामोत्करमनोहरं रणित मणिकिङ्किणीमालिकालिङ्गितविकटविद्रुमयष्टिप्रतिष्टितपवनतरलधवलध्वजपटपङ्क्ति परिहसितसुरसरितरङ्गजालं, जालविवर विसर्पिमन्दसमोरसीमन्तायमानकाला गुरुधूपपरिमलाञ्चितवियदन्तरालमचिन्त्या भोगरूपसंस्थानं नभस्तलमिव समस्तलोकावगाहनावकाशदानदक्षम्, सागरमिव नैकरत्नसंपन्नम् अनिमिषसदनमिवानिमेगलोचनताविधानविदग्धम्, चन्द्रशेखरमिव शेखरीकृतशीतांशुमण्डलम्, विष्णुमिव विष्णुपदव्यापिनम् शतानन्दमिव ५ सदा लोकसंपादिनम्, जिनेश्वरमिव जगत्त्रयश्लाघनीयम्, महनीयनिर्माणातिशयविशेषविस्मापित
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मधुरस विसरवर्षिकुसुम दामोत्करा मकरन्दरससमूह वर्षिपुष्पस्त्रक्स महास्तैर्मनोहरम्, रणिकाभी रणरणनयुकाभिर्मणिकिणीमालिकामा रत्नमयक्षुद्रघण्टिका संततिमिरालिङ्गिता वेष्टिता या विकटविदुमयष्ट्यो विशालप्रभालदण्डास्तासु प्रतिष्टिता या पत्रनतरलघबलम्व जपाको वायुचपलसितबैजयन्तीवस्त्रप यस्ताभिः परिहसितं तिरस्कृतं सुरसरितो मन्दाकिन्यास्तरङ्गजाले कलोलसमूहो यस्मिन् १० तन् आलविवरेषु याशापनरन्ध्रेषु विसर्पिणा प्रसरता मन्दसमीरेण मन्दपवनेन सीमन्तायमानः स्त्रीकेशविन्यासवदाचरन् यः कालागुरुधूपस्तस्य परिमलेनाञ्चितं शोभितं विग्रदन्तरालं व्योममध्यं यस्मिन् तथाभूतम् आभोगश्च विस्तारश्च रूपं च शोमा च संस्थानमा कृतिश्चेस्या भोगरूपसंस्थानानि, अचिन्त्यानि आभोगरूपसंस्थानानि यस्य तम्, नभस्तलमिव गगनतलमिव समस्तश्वासी लोकश्चेति समस्तलोकः त्रिचत्वारिंशदुत्तरत्रिशतरज्जुपरिमितो लोकस्तस्यावगाहनाय स्थानायावकाशदाने दक्षं समर्थ पक्षे समस्ताश्च ते लोकाचेति समस्तलोका निखिलजन (स्तेषामवगाहनाय विकाशदाने दक्षम्, सागरमिव रत्नाकरमिव नैकर स्नैर्विविधरत्नैः पक्षे नानाविधोकृष्ट पदार्थों: संपनं सहितम्, अनिमिपसदनमिव देवभवनं- स्वर्गमित्र अनिमिषलोचनताया treat पक्षे विस्मयातिशयेन नेत्रपक्ष्मपावराहित्यस्य विधाने विदग्धं चतुरम्, चन्द्रशेखरमिव शिवमिक पोखरीकृतं मुकुटीकृतं शीतांशुमण्डलं चन्द्रबिम्बं येन तमू, शिवः स्वभावाच्चन्द्रशेखरो मण्डपस्तुश्चत्वा चन्द्रचुम्बी बभूवेति भावः विष्णुमिव विष्णुपदे गगने व्याप्नोतीत्येवंशी कस्तम् विष्णुविक्रियाकृतचरणत्रयेण २० गगनं व्याप्नोत् मण्डपस्तु विस्तारातिशयेन गगनग्याभ्यासीदिति भावः, शतानन्दमित्र ब्रह्माणमित्र सदा सर्वदा लोकसंपादन] लोकस्त्रशरम् पक्षे संश्चासावालोकश्चेति सदालोकः समीचीनप्रकाशस्तस्य संपादिनम्,
१५
चाटकर उगले हुए मकरन्द रसके समूहको वर्षानेवाले फूलों की मालाओंके समूह से वह मनोहर था । रुनझुन शब्द करनेवाली मणिमय क्षुद्रघण्टिकाओं की पंक्तिसे आलिंगित मूँगाकी बड़ी-बड़ी लाठियोंपर लगी हुई हवासे चंचल सफेद वस्त्रको ध्वजाओं की पंक्तिसे वह २५ आकाशगंगाको तरंगों के समूहकी हँसी उड़ा रहा था। जालीके छिद्रों में प्रवेश करनेवाली मन्दायुके सीमन्त - केशपाशके समान दिखनेवाले कालागुरु चन्द्रन की धूपकी सुगन्धिसे उसने आकाशके अन्तरालको सुशोभित कर रखा था। उसका विस्तार रूप और आकार अचिन्त्य था । वह आकाश के समान समस्त मनुष्योंको अवगाहन देनेवाले अवकाशके देने में समर्थ था । समुद्र के समान अनेक रत्नोंसे सम्पन्न था। अनिमिषसदन – देव भवन के समान ३० अनिमेषलोचनता - देवपना ( पक्ष में टिमकाररहित नेत्रोंके करनेमें निपुण था । महादेवके समान चन्द्रमण्डलको सेहरा बनानेवाला था अर्थात् जिसप्रकार महादेव अपने शिरपर चन्द्रमण्डलको धारण करते हैं उसीप्रकार वह मण्डप भी ऊँचाईके कारण अपने अग्रभागपर चन्द्रमण्डलको धारण कर रहा था । विष्णुके समान विष्णुपद - आकाशमें व्याप्त था । शतानन्द - ब्रह्मा के समान सदालोकसम्पादी था अर्थात् जिसप्रकार ब्रह्मा सदालोक - संसारकी ३५ रचना करनेवाले हैं उसीप्रकार वह मण्डप भी सदालोक - समीचीन प्रकाशको करनेवाला
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गद्यचिन्तामणिः
[१०२-१.३ गम्धवदत्ताया:निर्मातृहदशम, कमपि वोणावादनाला निर्माणामाः।
5 १०२. ततश्चायमाज्ञया राज्ञः समाहूय चाण्डालम् 'चतुरुदधिमेखलायां मेदिन्यामनन्यसाधारणेन वीणावादननैपुण्येने पल्लवितपरिवादिनीपाण्डित्यगर्वा गन्धर्वदत्तां मम दुहितरमध
रयिष्यति यस्त्रैवणिकेषु तस्येयं दारा इति नगरे पटुतरं पटहमाताडयताम्' इति तत्कर्मणि ५ दक्षमादिक्षत् ।
१०३. अनन्तरमन्त्यजेन तदाजावर्तसितशिरसा तथैव ताडिते पटहे तत्क्षणेन क्षणदापगमविसृमरमिहिरमरीचिसहनरसहजतेजःपरिवृतहरितः समसमयचलदलघुबलभरविनमदनिभरणजिनेश्वरमिव जिनेन्द्रमिव जगत्त्रयश्लाघनीयं लोकत्रयप्रशंसनीयम् , उमयन समानम्, महनीयन प्रशंसनीयेन निर्माणतिशयविशेषेण रचनातिशयविशेषेण विस्मापितं निर्मातृहृदयं रचयितृचेतो येन तम् ।
१०२ ततश्चायमिति- ततश्च तदनन्तरं च अयं श्रीदत्तः राज्ञः काशङ्गारस्य भाज्ञया आदेशेन चण्डाल घोषणाकर्तारम् समाहूय समाकार्य 'चतुरुदधयो चतुःसागर मेखला रशना यस्यास्तस्यां मेदिन्यां माम् अनन्यसाधारणेन विशिष्न वीणावादने विपनीचादने नैपुण्यं चातुर्य तेन पल्लवितो वृद्धिंगतः परिवादिनीपाण्डिस्यगर्यो वीणाचैदुष्यदी यस्यास्तां गन्धर्वदत्ताम् एतनामधेयां मम दुहितरं पुत्रीम्
अधरिष्यति पराजेयते यः कोऽपि त्रैवरिकेपु बामणादिवत्रयजातेपु तस्ययं दाराः स्त्री, इतीस्थं नगरे १५ पटुतरम् उच्चस्तरं पटहं पाद्यम् आताडयताम् , इति तस्कर्मणि घोषणावितरणकायें दर्श समर्थ जनम् ___आदिक्षत् आज्ञपयामास ।
६१०३ अनन्तरमिति ~अनन्तरं तदनु, तदाज्ञया श्रीदत्तादेशेन , वर्तसितं विभूषितं शिरो यस्य तेन तथाभूतेन अन्त्य जेन चाण्डालेन तथैव यथादेशं पटहे बकायां ताहिते सति, तरक्षणेन तस्कालेन
भूभुजो राजानः समेत्य समागत्य समन्तात् परितः आसीना उपविष्टा या नानाजनपदजनता बैकराष्ट्रजन२० समूहास्ताभिर्जनितः समुत्पादितः संमर्दो यस्मिन् तत्, सर्वतः परितः लम्बमानैः स्रसमानमुकासर
सहस्रेमौक्तिकमालासहरमण्डितं शोभितम्, स्वयंवरमणिमण्डपिकाया स्वयंवररत्नास्थानस्य मध्यम् मध्यरुक्षन् अधिरूढा बभूवुः । अथ भूभुजो विशेषणान्याइ-क्षणदेति-क्षणदाया रजन्या अपगमे विगमे प्रत्यूष इति श्रावद् विसमराः प्रसरणशीका ये मिहिरमरीचयः सूर्यरश्मयस्तत्सहचरेण तस्सदृशेन सहज
तेजसा स्वाभाविकप्रतापन परिवृता हरितो दिशो येस्ते, समेति-समसमयं युगपञ्चलन योऽलघुबलभरो २५ था। जिनेन्द्र भगवान् के समान तीनों लोकोंमें प्रशंसनीय था और श्रेष्ठ रचनाके अतिशय विशेषसे वह बनानेवाले लोगोंके हृदयको भी आश्चर्यमें डाल रहा था।
६१०२. तदनन्तर श्रीदत्तने राजाकी आज्ञासे घोषणा करने में निपुण चाण्डालको बुलाकर आदेश दिया कि चार समुद्ररूप मेखलाको धारण करनेवाली पृथिवीमें अपने अनुपम
वीणावादनके कौशलसे वीणाविषयक पाण्डित्यके गर्वको वृद्धिंगत करनेवाली हमारी पुत्री ३० गन्धर्वदत्ताको ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन त्रिवर्णके लोगोंमें जो भी पराजित कर देगा उसीकी यह स्त्री होगी इस तरह नगर में जोरदार भेरी बजा दी जाये।
१०३. तदनन्तर श्रीदत्तकी आज्ञासे सुशोभित शिरको धारण करनेवाले चारडालके द्वारा उसी प्रकार भेरी ताडित होनेपर तत्काल राजा लोग आ आकर सब ओर बैठे हुए नाना
देशोंकी जनतासे जिसमें भीड़ हो रही थी तथा जो सब ओर लटकने वाली मोतियोंकी हजारों ३५ मालाओंसे सुशोभित था ऐसे मणिमय स्वयंवरमण्डपके मध्यमें आ बैठे। आनेवाले राजाओंने प्रातःकालके समय फेलनेवाली सूर्यको किरणोंके सदृश अपने स्वाभाधिक तेजसे दिशाओं
१. म० नैपुणेन ।
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- स्वयंवरायोजनम् ]
तृतीयो लम्मः
खिन्नसंपन्नपन्नगपतिमौलयः समदमदावलकपोलतलगलदविरलमदजल जम्बालितभुवः, प्रभूतजवभरदुनिवारवनायुजवल्गनचटुलखुरशिखरसुदूरोत्थापितरेणुनिकरनिवारितवासरमणिमरोचयः काचमेचककरवालकरालमयूखपटलघटिताकालरजनोरीतयः शतमखशातशतकोटिशकलनशङ्कापलायमानसानुमत्सब्रह्मचारिशताङ्गशतशारितदीथयः स्फोतपरिकर्मपरिवर्धितकान्तयः , काशोपतिकाश्मोरक
टिकालिङ्गकाम्भोजचोलकेरलमालवमगधपाण्ड्यपारसीकपुरोगाः पुरंदरसदृशभूतयो भूभुजः समेत्य ५ समन्तादासीननानाजनपद जनताजनितसंमर्द सर्वतोलम्बमानमुक्तासरसहमण्डितं स्वयंवरमणिमण्डापिकामध्यमध्यरक्षन् ।
१०४. तत्र च स्थानस्थाननिवेशितानि विडम्बितहाटगिरिकटकानि निकटघटितनक
विशालसैन्यभारस्तेन विनमन्ती यावनिः पृथिव तस्या भरणे धारणे विनसंपन्ना आदी रिवनाः पश्चान्संपन्नाः पनगपतेः शेषस्य मौलनी मूर्धानो यैस्ते, समदति-समदा मदमहिता ये मदाबला गन्धग जास्तेषां १० कपोलतला गण्डस्थलप्रदेशाद् गलता पत्तता अविरलम दजलेन निरन्तरदानसलि हेन जम्बालिसा पकिलीकृता भूयस्ते, प्रसृतेति-अभूतेन प्रचुरेण जवभरण वेगसमूहन दुनिवारा निरोद्धमशझ्या ये बनायुजा (विशेषास्तेषां वलानेन संचारंण चटुलं यरखुरशिखा शफाग्रं तेन सुदूरमतिदूरमुत्थापितो यो रेणुनिकरो धूलिसमूहस्तन निवारिता दूरीकृता वासरमणिमरीचयो दिनकरदीधितयो यस्त, काति--काचवन्मेचकाः श्यामा ये करवालाः कृपाणास्तषी कराला मयक्करा ये मयूखाः किरणास्तेषां पटलेन समूहन घटितोप- १५ स्थापिता-अकालरजनीरीतिरकाण्डनिशारीतियेस्ते, शसमखेति-शतमखस्य पुरन्दरस्य शाततीक्ष्णो यः शतकोटिवज्र तेन शकलनं खण्डनं तस्य शङ्कया भयंन पलायमाना ये सानुमन्तो गिरयस्तेषां सब्रह्मचारिणो ये शताला स्थास्तेषां शतेन मारिताः न्यासा वीधित्रत्म यस्ते, स्पीतेति-स्फीतमत्यधिक यत्परिकमअङ्गसंस्कारस्तेन परिवर्द्धिता वृद्धिंगता कायकान्तियेषां त 'परिकर्माङ्गसंस्कारः' इत्यमरः, काशीति-काशीपन्यादयः पुरोगा अग्रेसरा येषां ते, पुरन्दरेति-पुरन्दरसहशी शकसमाना भूतिरैश्वर्य येषां ते । २०
10. तत्र चेति-तच स्वयंवरमणिमण्डपिकायाम, स्थाने स्थाने निवेशितानि तसस्थानस्थापितानि, विडम्बितोऽनुकृतो हाटकगिरेः स्वर्णशैलस्य कटकः शिखरं यस्तानि, निकटवरितानि पार्श्व
को अम्हादित कर दिया था । एक साथ चलती हुई बहुत भारी सेनाके भारसे झुकी पृथिवीके धारण करनेसे शेषनागके मस्तकको खेद-खिन्न कर दिया था। मदमाते हाथियोंके गण्डस्थलसे लगातार झरते हुए मदजलसे पृथिवीको पंकयुक्त कर दिया था। अत्यधिक वेगके २५ भारसे दुर्निवार घोड़ोंकी दौड़में उनके चंचल खुरोंके अग्रभागसे बहुत ऊँची उठी धूलिके ममूहसे सूर्य की किरणोंको रोक दिया था। काँचके समान श्याम नलवारोंकी भयंकर किरणावलीसे असमयमें रात्रिकी स्थिति प्रकट कर दी थी । इन्द्र के तीक्ष्य वनसे खण्ड-खण्ड होनी शंकासे भागते हुए पर्वतोंके समान सैकड़ों रथोंसे गलियाँ व्याप्त कर दी थीं। अत्यधिक साजसजावटसे उनकी कान्ति बढ़ रही थी। काशीपति, कश्मीर, कर्णाट, कलिंग, कम्भोज, ३० चोल, केरल, मालव, मगध, पापद्य और पारस देशके राजे उनमें प्रधान थे। तथा इन्द्र के समान सबकी विभूति थी।
१०४. उस मण्डपमें स्थान-स्थानपर रखे हुए उन उत्तम सिंहासनॉपर वे राजा लोग बंटे हुए थे जो स्वर्णगिरि-सुमेरु पर्वतकी मेखलाकी हँसी उड़ा रहे थे। पास-पास में लगे हुए ...
१. का. रजनीततयः । २. शारितवीधयः-व्याप्तबीययः इति टि।
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गधचिन्तामणिः
[ ५० ४ गन्धर्वदत्तायाःरत्नमरीचिजालपुनरभिहितोत्तरच्छदानि,द्विगुणितस्तबरकोपधानाधिष्ठितपृष्ठभागानि निरतिशयवितरणकौशलशिक्षाकृते कृतमहीतलावतरणेनेव पश्चादवस्थितेन पारिजातपादपेन पल्लवितकान्तीनि, दिगन्ततटप्रतिहतिपरिक्षुभ्यदात्मीययशःक्षीरोदपूरोदरोत्पतितफेनपटलपाण्डुरेण समुत्तम्भितमाणिक्य
मयदण्डधारितेन रोहणगिरिशिखरावतरदमृतकरमित्रेण धवलातपत्रेण तिलकितोपरिभागाणि परा५ क्रमपराजयप्रणतैरिव पञ्चाननरञ्चितपादानि सिंहासनान्यधिवसन्तः, समन्तादा धूयमानरनिल.
वलदरितारक मलदलनिवरसुच्छायैश्चामरकलापैः कलितोज्झितहरिन्मुखाः, परस्परसंघट्टनजन्मना भूषणमणिशिजितेन तदङ्गसङ्गकौतुकानुबन्धेन गन्धर्वदतामाह्वद्भिरिवावयवैराविकृतशोभाः, संभावनासमभ्यधिवर्गीयमाननिज भुजविजयभोगावलोवाचालितवदनन्दिभिरभिनन्दितपार्श्व खचितानि पानि नैकरत्नानि विविधमण यस्तेषां मरीचिजालेन किरणकलापेन पुनरभिहित: पुनरुक १० उत्तरच्छदो येषां तानि, द्विगुणितस्तचरकाणि द्विगुणितस्तबरकवस्त्रसहितानि यान्युपधानानि समाध्यायः
( 'तक्रिया इति हिन्दीभाषायां प्रसिद्धम्' ) तैरधिष्टितः सहित: पृष्टभागो येषां सानि, निरतिशयं निरुपमानं यद्वितरणकौशलं दानकोशलं तस्य शिक्षायाः कृते समभ्यासाय कृतं महीतलावताणं येन तथाभूतेनेव पश्चात् पृष्टतोऽवस्थितन विद्यमानेन पारिजातपादपेन कल्पवृक्षेण पल्लविता वृद्धिंगता कान्तिर्येषां तानि, दिगन्ततटेपु
काष्टान्ततीरेपु प्रतिहत्या प्रतिधातेन परिक्षुभ्यत क्षोमं प्राप्नुवद् यदात्मीय स्वकीयं यशः कीर्तिस्तदेव क्षीरोदः १५ क्षीरसागरस्तस्य पूरोदरापूरमध्यादुष्पतितं यत्फेनपटलं डिण्डीरपिण्डस्तद्वापाण्डुरं तेन, समुत्तम्भितेन समु
स्थापितेन माणिक्यमयदण्डन रखमयदण्डेन धारितं तेन, रोहणगिरिशिखरात अवतरन्योऽमृतकरश्चन्द्रस्तस्य मित्रं सदृशं तन धवलातपण सितातपवारणेन तिलकितः शोमित उपरिभागो येषां तानि, पराक्रमस्य पराजयन प्रणता नम्री भूप्तास्तैरिव पञ्चाननैः सिंहै: अञ्चिताः पादा येषां तानि तथाभूतानि सिंहासनानि
हरिविष्टाणि अधिवसन्त: 'उपान्वध्यावसः' इत्याधारस्य कर्मत्वम् , समन्तात्परित आधूयमानैराकीयमाणः २० अनिलेन वायुना चलन्ति यानि असितेतरकमलानि शुक्लसरसिजानि तेषां दलानां निचयः कलिकासमूह
स्तदरसुचछाया येषां तैः चामरकलापालन्यजनसमूहः कलितोज्झितानि प्रस्तोन्मुमानि हरिन्मुखानि दिक मुखानि येषां तैः, परस्परं संघटनारसंघाताजन्म यस्य तेन भूषणमणीनां शिक्षितमन्यनशब्दस्तेन तस्या अङ्गसङ्गे ग्रत्कौतुकं कुतूहलं तस्यानुबन्धस्तेन गन्धर्वदत्ताम् आह्वयद्धिरिवाकारयद्भिरिव अवयवैः प्रतीकैः
आविता प्रकटिता शोमा येषां ते, संभावनायाः समभ्यधिकास्तैराशाधिकः, गीयमाना या निजभुजयोः २५ अनेक रत्नोंकी किरणावलीसे जिनके चादर पुनरुक्त हो रहे थे। दुहरे स्तवरकके
तकियोंसे जिनके पृष्ठ भाग सुशोभित थे। अत्यधिक दानकी कुशलता सिखलानेके लिए ही मानो पृथिवतल पर उतरकर पीछे की ओर स्थित पारिजात वृक्षसे जिनको कान्ति बढ़ रही थी। दिशाओंके अन्तिम तट पर आघात लगनेसे क्षभित अपने यश
रूपी नीरसागरके मध्यसे उछले डा नसमूहकं समान सफेद ऊपर खड़े किये हुए ३० माणिक्यनिर्मित दा ढमें लगे, एवं रोहणगिरिको शिखरसे उत्तरते हुए चन्द्रमाके मद्देश सफेद
छत्रसे जिनका ऊपरित नभाग व्याप्त था और पराक्रमसे पराजित होनेके कारण नम्रीभूतकी तरह दिखनेवाले सिंहासे जिनके पाये सुशोभित थे। सब ओरसे दुलनेवाले एवं वायुसे हिलते हुए सफेद कमलकी कलिकाओंके समूह के समान कान्निवाले चामरीके समूहसे वे राजा लोग
दिशाओंको आच्छादित कर छोड़ रहे थे । परस्परके संबटनसे उत्पन्न भूषणमें लगे मणियोंकी ३५ झनकारसे जो उसके शरीरके समागमके कौतुकसे गन्धर्व दत्ताको मानो बुला हो रहे थे ऐसे अवयवोंसे उनकी शोभा प्रकट हो रही थी। संभावनासे अधिक गायी जानेवाली अपनी
१. म. पाण्डुरेण । २. म० समन्तादथूपमानः ।
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१७१
-- स्वयंवरायोजनम् ।
तृतीयो सम्मः श्रियः, श्रीदत्ततनयागमनं प्रतीक्षमाणाः क्षोणोपतयः क्षणमासांचक्रिरे ।
६ १०५. तावता च तमःस्तोममेचककचभारचितमणीचक्रनिचयनिर्भरपरिमलनिपतितन निखिलयुबतिसाम्राज्यचिह्नन नोलातपत्रेणेव पट्पदपटलेन परिवृताम्बरा, त्र्यम्बकानयनदहनदग्धमदनपुनर्जीवनदक्षान्कटाक्षानायराग जलधिजठरपरिप्लव मानपार्थिवहृदयमत्स्यजिघृक्षया दिशि दिशि नोलजुवलयदलदामनिमिता वागुरामित्र प्रशारयन्ती, प्रियसखोसंलापसमयनिर्गताभिरमलदशन- ५ किरणकन्दलोभिश्चन्द्रातपमिव दिवापि विपमशरसाहायकाय गंपादयन्ती, बदनकमलविकासभङ्ग
स्ववाहाविजयभागावली विजयप्रशस्तिस्तथा वाचालिन मुसरित वदनं वनं येषां नः बन्दिनिवारण, अभिनन्दिता श्रीपां ते, श्रीदत्ततनयागमनं गन्धर्वदत्तागमनं प्रतीक्षमाणाः क्षोगीपत यो राजानः क्षणमलकालपर्यन्तम् आसाञ्चक्रिरे तस्थुः 'दयायासश्च' इत्याम् ।
०५. तावतेति-तावता च कालेन गन्धर्वद तो प्रत्यदृश्यत इति कर्तुकर्मसंबन्धः । अथ तामेव १० विशेषयितुमाह-तमःस्ताम इति-तमास्ताम इव तिमिरसमृद्द इन मंचकः कृष्णा यः कचभारः केशसमूहस्तस्मिन् खचितः संलमा यो मणीचकनिचयः पुष्पसमूह स्तस्य निभरपरिमलेन सातिशयसौगन्ध्येन नियसितं झमित नेन, निखिलयुपतानां समस्तसीमन्तिनीनां साम्राज्यस्य चिह्न तेन नीलातस्त्रेणेव नीलच्छत्रेणेव षट्पदपटलन भ्रमरसमूहन पनि व्यापितमम्बरं गगनं यया सा, त्र्यम्बकेति-व्यम्कस्य शिवस्य नयनदहनेन नेवानलेन दाधी भस्मीकृत यो मदनो मारस्तस्य पुनर्जीवने दक्षाः समस्तान् कटाक्षान् ककरान् १५ अक्षयोऽधिनाशी यो सग एक जलधिः प्रातिपारावास्तस्य जरे मध्ये परिप्लवमानाः समन्तातरतीय पार्थिव हृदयमस्या नृपतिचित्तपाठीनास्तेषां जिघृक्ष या गृहीनुमिच्छया दिशि विशि प्रतिदिशं नोलकुवलयदलदाममिनीलारविन्ददलमाल्यनिर्मिता रचितो धागुरां जालं प्रसारयन्तीव प्रक्षिपन्तीन, प्रियसखीति-प्रियसखीभिः सह संलापो वार्तालापस्तस्य समय निर्गतास्ताभिः अमलदशनकिरणकन्दलीभिर्विमलदतदोधितिकन्दलीभिः दिवापि दिवसऽपि विषमशरसाहायकाय मदरसाहाय्याय चन्द्रातपं चन्द्रिका संपादयन्तीद २० रचयन्तीय, बदनैति-वदनकमलस्य मुखारविन्दस्य विकासः समुलासस्तस्य मङ्गो विनाशस्तस्य भयेन
.... --
भुजाओंकी विजय प्रशस्तियोंस जिनके मुख शब्दायमान थे ऐसे बन्दीजन, उनकी लक्ष्मीका अभिनन्दन कर रहे थे । इसप्रकार श्रीदत्तकी पुत्री के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए राजा लाग क्षण एकवटक उसी समय उन्ह आताहुइवह गन्यवदत्ता दिखा।
६१.५. जो अन्धकार के समूह के समान श्याम केशपाश में लगे हुए पुष्पसमूहको २५ ।। सातिशय मुगन्धिस गिरे, एवं समस्त स्त्रियों के साम्राज्य के चिह्नस्वरूप नील छत्रके समान । दिखनेवालं भ्रमर समूहसे आकाटाको व्याप्त कर रही थी। जो महादेवक नेत्रानलस जले कामदेवको पुनर्जीवित करने में दक्ष कटानोको प्रत्येक दिशा में चला रही थी और उससे
मी जान पड़ती थी माना कभी नष्ट नहीं होनेवाले गनरूपी सागरके मध्यमें नैरनेवाले राजाओंके हदयरूपी मच्छों को पकड़नकी इच्छासे प्रत्येक दिशामें नील कुवलय दलकी ३० मालाओंसे निर्मित जाल ही पसार रही थी। जो प्रिय सखियांक साथ वातालाप करते समय निकली हुई दाँतों को निमल किरणावलोसे ऐसी जान पड़ती थी मानो कामदेवकी सहायता करनेके लिए आकाशमें चाँदनीको ही पहुँचा रही हो। मुखरूपी कमलके विकास के भंगसे
१. ३०
मणिकुम्भव। २. । 'पार' नास्ति ।:प० दिन ।
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૧૨
गद्यचिन्तामणिः
[१०५ गन्धर्वदत्तायाः - भयविदारितेन तरुणतरणिकिरणनिकरेणेव कुण्ठितकुसुम्भकुसुमसोकुमार्यस्य दशनच्छदमणेररुणेनांशुजालेन रागजलेनेव सिञ्चन्ती समन्तादासीनमवनिपाललोकम्, आगामिदयितहृदयगृहप्रवेशमङ्गल. विकीर्णसुमनःसौभाग्यहरेण हारेण पुलकितस्तनकलशयुगला, नवदलितकदलोगर्भकोमलं वासो
बसाना, वासुकिसमाविष्टमन्दरमथितमहोदधिसमुद्गतां संसक्तडिण्डीरपाण्डुरितनितम्बां •निन्दन्ती ५ श्रियम्, काभिश्च न करकलितकनकाञ्चीभिः, काभिश्चन कमलनिलीनकलहंसपरिभावुकपटपल्लव
परिष्कृतपाणिपुटाभिः, काभिश्चन काचनमयमपि पञ्जरं काचकल्पितमिव निजकान्तिकल्लोलरा
विदारितन प्रकटितम, तरुणतरगिमध्याह्नसूर्यस्तस्य किरणनि करेणव, रश्मिसमूहनेव कुष्टितं विरुद्धं कुसुम्भकुसुमस्य रक्तवर्ण पुष्पविशेषस्य मौकुमार्य मृदुत्वं येन तस्य दशनच्छदमणः ओष्टभ्रंटस्य अरुगन रकेन अंशुजालन किरणकलापन राग पुत्र जलं तेन प्रीतिपानीय नेत्र समन्तात्परित शासन विद्यमानम् अवनिपाललोक नृपतिसमूहम् सिञ्चन्ती, आगामीति-आगामी भविस्यन् दयितहृदयप्रवेशः स्वामिस्वान्तसदनप्रवेश एवं मङ्गलं तस्मिन् विकीर्णानि विस्तारितानि यानि सुमनांसि पुष्पाणि तेषां सौभाग्यस्य हरस्तन हारेण मुकासरेण पुलकितं रोमान्चितं स्तनकलशयुगलं यस्याः सा, नवेति- नवदलितः प्रत्यप्रखपिरतो यः कदली. गों मोचातरुमध्यभागस्तद्वत् कोमलं मदु बासो वस्त्रं वस्ते इति बसाना आच्छादयन्ती 'वस आच्छादने'
इत्यतः शानच, अत एवं वासुकीति-वामकिना शंयोग समाविशी पदरोगरोर मथितो विलोडिती १५ यो महोदधिर्महासागरस्तस्मान् समुद्गतां नि.सतां संसक्तेन विरंग पाण्डरितो धवलितो नितम्बो
यस्यास्तां धियं लक्ष्मी निन्दन्ती तिरस्कुर्वन्ती, काभिश्वन करें कलिता हस्ते धृता कनककाजी स्वर्णमेखला याभिस्ताभिः, काभिश्चन कमलेषु सरोज्पु निलीनाः स्थिता ये कलहंसाः कादम्बास्तषां परिभाचुकन तिर. स्कर्या पटपल्लवेन वस्त्राञ्चलेन परिष्कृताः सहिताः पाणिपुरा हस्तपुटा यासा ताभिः, काभिश्वन काञ्चनमयमपि स्वर्णनितिमति पञ्जरं शलाकागृहं निजकान्तिकल्लाल: निजाभारः काचकल्पितमिव काचरचितमिव
-.-..-... - -.- . . . - २० विदारित तरुण सूर्य के किरणसमूह के समान, कुसुमके फूलको सुकुमारताको नष्ट करनेवाले ,
ओठरूपी मणिको लाल-लाल किरणोंके समूहसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानों सब ओर बैठे हुए राजाओं के समूहको रागम्पो जलसे सींच ही रही हो। आगे होनेवाले पति के हृदयरूपी गृह में प्रवेश करते समय मंगलाचारके रूपमें विखरे हुए फूलोंके सौभाग्यको हरनेवाले हारसे
जिसके स्तनकलशों का युगल पुलकित हो रहा था। जो नवीन खण्डित केलके भीतरीभागके २५ समान कोमल वस्त्रको पहने हुई थी और उससे एसी जान पड़ती थी मानो वासुकि नागसे
लिपटे मन्दराचलसे मश्रित महासागरसे निकली एवं लगे हुए फेनसे सफेद नितम्बोंको धारण करनेवाली लक्ष्मीको निन्दा ही कर रही हो । जो सब ओर लटकनेवाली मोनियोंकी मालाओंसे सुशोभित, सूर्यको किरणों के उद्गमको अपहत करने वाले मणिसमूह के प्रकाशसे मनुष्योंकि
नेत्रांको आकुलित करनेवाल, नाना प्रकार के फलॉस च्यान, एवं पुष्पक विमानके जीतने में ३. चतुर पालकोमें सवार थी और अत्यन्त बुद्धिमती गू इसे गूद भावों को प्रकट करनेवाली
समीपमें विद्यमान आत्मतुल्य सखियाँ सैकड़ों प्रिय वचनोंसे जिसे प्रसन्न कर रही थीं। गन्धर्वदत्ताकी पालकीका समीपवर्ती प्रदेश अनेक परिचारक स्त्रियोंसे व्याप्त था। उन परिचारकस्त्रियों में कितनी ही स्त्रियाँ हाथों में स्वर्ण की मेखलाएँ धारण कर रही थीं। कितनी ही स्त्रियोंक
हस्तपुट कमलोंपर वैटे कलहंस पक्षियों को तिरस्कृन करनेवाले वस्त्रके पल्लवों-रूमालोंसे ३५ सहित थे। कितनी ही स्त्रियाँ स्वर्ण के पिंजरेको अपनी कान्निके समूहसे काचसे निर्मिनके
१. म० क दलगर्भ। २. म० कट के लितकाला वाभिः ।
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स्वयंवरायोजनम् ]
नृतीयो लम्भः पादयन्तमुद्वहन्तीभिः क्रोडाशुकम्, काभिश्चन भर्तृदारिकायदनसौन्दर्यचौर्यागतं चन्द्रमसमिव स्फाटिकमणिदर्पणं करेण गृह्णन्तीभिः', काभिश्चन कलितबकुलदामपुलकितसंनिवेशा: संमुखसमोरस्पर्शमन्द्ररणिततन्त्रीवलया वसुधापालेपु वल्लभोऽस्याः कः स्यादिति मिथो मन्त्रयन्तीरिव विविधा विपञ्चीरुदञ्चयन्तीभिः परिचारपुरंध्रीभिर्नीरन्ध्रितपरिसरं परितो लम्बमानमुक्तासरविभूषितं मुषितदिवसकरमरीचिसमुद्गममणिगणालोकेराकुलितलोकलोचनमाकीर्णविविधपुष्पं पुष्पकविजय- ५ चतुरं चतुरन्तयानमधिरूटा, प्रौढमतिभिगूढानपि भावानाविष्कुर्वतीभिरन्तिकतिनीभिरात्मनिविशेषाभिः प्रियवचनशनः प्रसाद्यमाना, प्रत्यदृश्यत गन्धर्वदत्ता ।
१. ६. प्रादुरभवंश्च तनिरीक्षणन महीक्षितां मन्मथमहिमनिवेदनचतुरा विकाराः । तथा हि---कदिचन्नभश्चराधिगत्तनये, तव कुचतटपरिणाहपर्याप्तं वा न वेति निरीक्ष्यतामिदमिति आपादयन्तं क्रीडाक कलिकीरम उद्वहन्तीमिः दधीभिः, कामिश्चन भदारिकाया राजपुच्या वदनसौन्द- १८ यस्य मुखलावण्यस्य चौर्याय समपहरणायागतं चन्द्रमसमिव शशिनमिव स्फाटिकमणिदर्पणं श्वेतोपल. मुकुरुन्दं करण हस्तेन गृह्णन्तीभिरिव आददानाभिरिव, कामिश्चन कलितैर्धारितैर्वकुल दामभिर्वकुल कुसुममाल्यैः पुलकितो रोमाञ्चितः संनिवेशो यामां ताः संमुखसमीरस्य संमुखस्थपबनस्य स्पर्शेन मन्द्रं गभीर यया स्यातथा रणित; शब्दायमानस्तन्त्रीवल.यो तन्त्रीनिचयो यासां ताः, 'वसुधापालेषु विहामानेषु नृपतिषु अस्था गन्धर्वदत्ताया वल्लभः प्रियः कः स्यादिति' मिथों परस्परं मन्नयन्तीरिव विमर्श कुर्वन्तीरिव १५ विविधा नानाप्रकारा विपजाणा उदयन्तामिः उत्थापयन्ताभिः परिचारपुरम्धीभिः सेवकस्त्रीभिः नीरधितो निरवकाशीकृतः परिसरः समीपप्रदेशो यस्य तत् , परितो लम्बमानः समन्तारसमा मुन्नासरे मुनाफल. हारविभूषितमलंकृतम्, मषितश्चारितो दिवसकरस्य सूर्यस्य मरीधीनां किरणानां समुद्गमो येस्तैः मणिगणा लोके रखराशिप्रकाशैः श्राकुलितानि लोकलोचनानि नरनयनानि येन तत्, आकीर्णानि समन्तात्प्रक्षिप्तानि विविधपुष्पाणि नानाकुसुमानि यस्य तत, पुष्पकस्य कौवेश्यानस्य विजय चतुरं निपुणं तथाभूतं चतु- २० रन्तयानं शिविकाम् अधिरूदाधिष्टिता, प्रौढमतिभिः प्रगल्मबुद्धिभिः गूढानति गुप्तानपि भावान् आविष्कुर्व - ताभिः प्रकटयन्तीभिः अनिनकवतिनीभिः निकटस्थायिनीभिः, आत्मनिर्विशेषाभिः स्वतुल्याभिः सीभिरित्यर्थः प्रियवचन शतैः बहुमिः प्रियवचनः प्रसाद्यमाना प्रसन्नी क्रियमागा।
१०६ प्रादरभूवश्वति--तस्या गन्धर्वदत्ताया निरीक्षणेन समवलोकनन महीक्षितां राज्ञां मन्मथमहिम्नः प्रद्युम्नप्रभावस्य निवेदनं प्रकटने चतुराः परयः विकार श्रेष्टाः प्रादुरभूवम् प्रकटिता अभूवन् । २५ तथा हि तदव प्रकटयति । कचिदिति---निकोऽपि नृपः, हे नभश्वराधिपतनये, है खगेन्द्रनन्दिनि, इदं
समान दिखलाने वाले कीड़ा शुकको लिय हुए थी। कितनी ही स्त्रियाँ राजपुत्रीके भुरकी सुन्दरताकी चोरीके लिए आये हुए चन्द्रमाक समान स्फटिकमणिके दर्पणको हाथसे लिये हुए थीं । और कितनी ही स्त्रियाँ नाना प्रकारकी उन वीणाओंको धारण कर रही थीं जिनके कि अवयव पहनायी हई मौलश्रीकी मालाओंसे पुलकित थे, और सामनेसे आना हई वायके 30 सह जिनके नारोंका समूह गम्भार गर्जना कर रहा था तथा उससे 'इन राजाओंमें इसका पति कौन होगा ? इस प्रकार परम्पर ललाह करनी हुई-सो जान पड़ती थी।
१०६. गन्धर्वरताक दिखते ही राजाओंके कामकी महिमाके प्रकट करनेमें चतुर विकार भाव प्रकट होने लगे। किसी राजाने वक्षःस्थलसे जनेऊ उठाकर विलासपूर्वक अपने कन्धेपर रग्ब लिया मानो वह यह कहना चाहता था कि हे विद्याधर राजपुत्रि ! देखो हमारा ३५
१. म. गृहन्तीभिः ।
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गद्यचिन्तामणिः
[१०६ गन्धर्षदसायाःविवक्षुरिव वक्षःस्थलादुपवीतमुपादाय सविलासमंसदेशे न्यवेशयत् । कश्चित्कमलकोमलेन करेण कनकधरणीधरकटकविशङ्कटवक्षःकवाटलम्बिनी विकचरवतोत्पलदलनिचयविरचितां प्रालम्बमाला परामृशन्कुण्डलितकोदण्डेन कुसुमशरासनेन मनसि निखातां विशिखमालामुन्मूलयन्निवामन्यत । कश्चित्प्रियसुहृदभिहितनर्मभणितिसंभावनास्मितविनिर्गतविमलदशनकिरणकन्दलैरिन्दीवर शस्तस्या: करपीडनकुतुहलाकु रानिव हृदयालबालरूढानिर्गमय्य दर्शयन्निवादृश्यत । कश्चिदवनमय्य मणिमयकिरीटकिरणमञ्जरीमालिन मौलिमालोकयन्नधरितगगनाभोगमात्मभुजान्तरं पूर्वप्रविष्टामिमां बिम्बोलोमनुभवितु स्वयमप्यन्तःप्रविविक्षुरिवालक्ष्यत ।
१० सविभ्रमम
१५
वक्षःस्थलं तर कुचाटायोः स्तनतश्याः परिणाही विशालता तस्मै पर्याप्त पुष्कलं न वेति निरीक्ष्यता एश्यसाम् इति विचक्षुरिव कथयितुमिच्छुरिव वक्षःस्थलादुर स्थलात् उपवीतं यज्ञसूत्रम् उपादाय गृहीत्वा सविलास सविनमम अंसदेशे बाहशिरसि न्यवेशयत स्थापयामास । कश्चिदिति-कश्चित्कोऽपि नृपः कमल कोमलन परजमृदुलन करेण हस्तन कनकधरणीधरस्य स्वर्णशैलस्य कटक इव शिखर इव विशङ्करे विशाले वक्षःकवाटे लम्बत इत्येवंशीला ता विकचरकोपलानां विकसितलोहितकमलानां दलनिचयन कलिकाकलापन विरचिता निर्मिता तां प्रालम्बमालाम् अजुलम्बिमालाम् 'प्रालम्बमृजु लम्बि स्यात्कण्ठाहकक्षिक तु तत् । यत्तियक्षिप्तमुरसि' इत्यमरः परामृशन् स्पृशन् कुण्डलितं वक्रीकृतं कोदण्डं धनुर्यस्य तेन कुसुमशरासनेन मदनेन मनसि चेतसि निखाता निम्नचितां विशिसमाला बाणपडितम् उन्मूलयसिव समुल्लातयन्निव अमन्यत । कश्चिदिति-प्रियसुहृदा वल्लमवयस्थेन अभिहिता निगदिता या नमणितिहास्योक्तिस्तस्याः संभावनायां सत्कृतौ यस्मितं मन्दहसितं तेन विनिर्गतास्तैविमलदशनानामुज्ज्वलदस्ताना किरणकन्दलै रश्मिनबारैः 'कन्दलं कलह युद्धे न वाकरकपालयोः' इति विश्वलोचनः, इन्दीवरदश उत्पलाक्ष्याः
तस्या गन्धर्वदत्तायाः करपीडनस्य पाणिग्रहणात्य कुतूहलं तस्याङ्करास्तानिव हृदयमेवालवालं तस्मिन् २० रूढास्तान चित्तवापसमुत्पन्नान् निर्गमय बहिनिःसाय दर्शयचिव प्रकटयन्निव अदृश्यत । कश्चिदिति
मणिमयकिरीटस्य रत्नमयमाले: किरणमञ्जरीमाला रश्मिराजिक विद्यते यस्य तं तथाभूतं मौलि मस्तकम् अबनमय्य ननं विधाय अधरितो न्यकृतो गगनाभोगो व्योमविस्तारो येन सद् आत्मनः स्वस्य भुजयोरन्तरमारमभुजान्तरं स्ववक्ष आलोकयन् पश्यन् , पूर्वप्रविष्टां प्राकृत प्रवेशाम् इमां बिम्बोष्ठी गन्धर्वदत्ताम् अनुभवितुमुपभोकुं स्वयमपि अन्तर्मध्य प्रविविक्षुरिच प्रवेशोत्सुक इवालक्ष्यत अदृश्यत ।।
२५ वक्षःस्थल तुम्हारे स्तनतट के विस्तार के लिए पर्याप्त है या नहीं। कोई राजा कमल के समान
कोमल हाथसे सुमेरु पर्वत के कटकके समान विशाल वक्षःस्थलपर लटकने वाली, खिले हुए लाल कमलोंकी कलिकाओंके समूहसे निर्मिग लम्बी मालाका स्पर्श कर रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुण्डलाकार धनुपका धारण करनेवाले कामदेवके द्वारा मनमें
गड़ायी हुई बाणों की मालाको ही उखाड़ रहा हो। कोई राजा प्रिय मित्रके द्वारा कहीं ३० हान्योक्तिके प्रति आदर प्रकट करने के लिए प्रकट हुई मुसकानसे निकली निर्मल दाँतोंकी किरणावलीसे ऐसा दिखाई दे रहा था मानो उत्खलनयन! गन्धर्षदत्ताके लिए अपने हृदयरूपी आलवाल में उत्पन्न विवाह सम्बन्धी कुतूहलके अंकुरोको बाहर निकालकर दिखला रहा हो। और कोई एक राजा मणिमय मुकुट की किरणरूप मंजरीकी मालासे युक्त अपना शिर नीचेको
ओर झुकाकर आकाशके विस्तारको तिरस्कृत करनेवाले अपने वक्षःस्थलकी ओर देख रहा था ३५ तथा उससे ऐसा जान पड़ता था मानों पहले प्रविट हुई विम्बोष्ठीका उपभोग करने के लिए
स्वयं भी मोनर प्रवेश करना चाहना हो।
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-स्वयंवरायोजनम् ]
तृतीयो लम्भः
१०७. एवं बिजुभ्नमाणे विश्वासपतोनां पञ्चशरपराक्रमपयोधिविज़म्भणविवरणचतुरेप विकारेषु सा च गाडवेगसुता सुवाकरालोकप्रतिभटं' कुसुमशरयशोराशिमिव राजमानं स्वयंवरपरिषदन्तरवस्थापितं स्फटिकगृहमाविश्य दृश्यमाननिखिलावयवा निजसखीजननिवेद्यमाननिखिलपार्थिवसार्थस्वरूपा परिसरगतायाः परिचारिकायाः पाणिपल्लवादादाय वीणामुपवीणयितुमुपास्त । ... ६ १०८. 'विनमदमर श्रेणीमौलिस्फुरन्मणिमालिका
किरणलहरीपातस्त्यायनख द्युतिकन्दलम् । प्रणतदुरितध्वान्तध्वंसप्रभातदिवाकरो
दिशतु भवतां श्रेयः शीघं जिनाङ्घिसरोरुहम् ॥'
६१.७ एवमिति एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विश्वम्मसपतीनां राज्ञां पञ्चशरस्य कामस्य पराक्रम एव १० । पयोधिः परावरस्तस्य विज़म्भणं वृद्धिस्तस्य विवरण प्रकटने चतुरास्तेषु शिकारेषु विजम्ममाणेपु वर्धमानेषु सरसु, सा च गरूडवेगसुसा गन्धर्वदत्ता सुशकरालोकस्य चन्द्रप्रकाशस्य प्रतिभटं प्रतिनिधिं कुसुमारस्य मीनकेतनस्य यशोराशिमिव कीर्तिपुङ्गमिव राजमानं शोभमानम्, स्वयंबरपरिषदः स्वयंवरसभाया अन्तमंध्येऽवस्थापित विनिवेशितं स्फटिकगृह स्फटिकोपलनिकेतनम् आविश्य प्रवेश कृत्वा दृश्यमानाः समवलोक्यमाना निखिलावयवा यस्यास्सथाभूता निजसखीजनन स्ववयस्यावृन्देन निदेद्यमानं कथ्यमानं निखिलपार्थिवसाधस्य समस्तभूपालसमूहस्य स्वरूपं यस्यास्तथाभूता सती परिसरगताया निकटस्थितायाः परिचारिकायाः सेविकायाः पाणिपल्लवात् कटकिसलयात् आदाय गृहीत्वा वीणां विपञ्चीम् उपवीणयितुं वीणया स्तोतुम् उपाक्रस्त तत्पराभूत् ।
१० विनमदिति-विनमन्तो नम्रीभवन्तो येऽमरश्रेण्या देवपक्रमौलयो मानि तेषां स्फुरन्त्यो देदीप्यमाना या मणिमालिका नामानि तेषां किरणलहों मरीचिन्ततयस्ताभिः स्त्यायन्तो २० वर्धमाना नख यतयो नखररश्मय एव कन्दलायङ्करा यस्य तत, प्रणतानां नम्रीभूतानां दुरितं पायमेव ध्वान्नं तिमिरं तस्य ध्वंने विनाशने प्रमातदिवाकरः प्रत्यूषाहमणिः, जिनाघिसरोरुह जिनेन्द्रपादारविन्दं शीघ्रं झटिति भवतां श्रेयः कल्याणं दिशतु निगदतु प्रदर्शयविति भावः ! हरिणीच्छन्यो रूपकालङ्कारश्च । ..
. ..------- ६१०७. इस प्रकार जब राजाओंके कामदेवके पराक्रमरूपी सागरकी वृद्धिके प्रकट करनेमें चतुर विकार वृद्धिंगन हो रहे थे तब गरुड़वेगकी पुत्री गन्धर्वदत्ता, चन्द्रलोकके सहश २५ अथवा कामदेवके कीतिपुंज के समान सुशोभित, स्वयम्बर सभाके बीच में स्थित स्फटिकगृह में प्रवेश कर समीपमें स्थित परिचारिकाके हस्तरूपी पल्लबसे वीणा लेकर बजाने के लिए उद्यत हुई। उस समय उसके समस्त अवयव दिखाई दे रहे थे तथा अपनी सखीजनोंके द्वारा उसे समस्त राजसमूहका स्वरूप बतलाया जा रहा था । वीणा बजाते-बनाते उसने गाया कि
१८. 'नम्रीभूत देवसमूह के मुकुटोंमें चमकती हुई मणिमालाओंको किरणावलीके ३० पड़नेसे जिनके नखोंकी कान्तिरूप कन्दल वृद्धिंगन हो रहा है तथा जो नम्रीभूत प्राणियोंके पापरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए प्रातःकालिक सूर्य हैं ऐसे श्रीजिनेन्द्र भगवान के चरणकमल शीव ही आप सबको कल्याण प्रदान करें ।
१. म. सुधाकरलोकप्रतिभटम् । २. क. ख० ग० मण्डलम् ।
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१५
गधचिन्तामणिः
[१०९ गन्धर्वदत्तायाः१०६. इत्येवमभिव्यक्तसप्तस्वरमुन्मिषितग्रामविशेषमुच्छ्वसितमूर्च्छनानुबन्धमतिबन्धुरमाहितकर्णपारणमाकर्ण्य तस्यास्तदुपवीणनमतिप्रहर्षेण परिपत्परिसरतरवोऽपि कोरकव्याजेन रोमाञ्चमिवामुञ्चन् । तिर्यञ्चोऽपि तिरस्कृतापरव्यापतयस्तदाकर्णनदत्तकर्णाः समुत्कीर्णा इव निःस्पन्दनिखिलावयवास्तत्क्षणमैक्षिषत | महीक्षितस्तु मृगेक्षणाया नि:शेषजनकर्षणवशीकरणकार्गणमाकी वल्लकोबादनं वामलोचनेयमनेन विजेतुमिह जगति न केनापि शवयत इति निश्चित्य निःश्वासैः सह पाणिपोडनाशां मुञ्चन्तः पञ्चशरवञ्चिता: कंचित्कालमानतवदननिवेदितनिजहुदयगतविषादा जोषमासिषत । कतिचित्कन्दलितपरिवादिनीपाण्डित्यमात्मानं मन्यमाना: प्रारभ्य वादयितुं परिवादिनीं परिवादमेव फलमलभन्त । एवमुपकमसमसमय एव समा
६१०९ इत्येव मिति-अनेन प्रकारेण अभिव्यक्ताः स्पएं प्रकरिताः सप्तस्वरा निषादादयो यस्मिन् तत् 'नियादर्पभगान्धारपजमध्यमधैवताः । पञ्चमश्वेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वरा' इत्यमरः, उम्मिषिताः प्रकटिता ग्रामविशेषाः स्वराणामारोहावरोहक्रमविशेषा यस्मिन् तत्, उरछ्वसितः प्रकटितो मूछनानामनुबन्धः संयन्धो यस्मिन् तत् , अतिवन्धुरमतिमनोहरम्, आहिता कर्णयोः श्रवणयोः पारणा विशिष्टभोजनं येन सथाभूतं तस्या गन्धर्वदत्तायाः तन् पूर्वोक्ताकारम् उपवीणनं वीणया स्तवनम् आकग्य निशम्य अतिग्रहण प्रमोदाधिक्येन परिषदः मभायाः परिसरतरवोऽपि निकटानोकहा अपि कोरकव्याजेन कुडमलकाटेन रोमाञ्जमिव पुलकमिव, मामुञ्चन दधति स्म । तिर्यच्चोऽपि पशवोऽपि तिरस्कृता तरीकृता अपरच्याहतोऽन्यचेष्टा यैस्ते, तस्योपवीणनस्थावणेन श्रयण दत्तकः प्रदत्त श्रवणाः समुन्कीर्णा इव समुल्लिखिता इव निःस्पन्दा निश्चला निखिलावयवा येषां तथाभूना सन्तः तरक्षणम् ऐक्षिपत . विलोकयामासुः । महीक्षितस्तु राजानस्तु मृगेक्षणायाः कुरङ्गलोचनाया गन्धर्वदत्तायाः निःशेषजनानां निखिललोकानां कर्णवशीकरणे कार्मणं समर्थ वल्लकीवादनं वीणावादनम् आकर्ण्य श्रुग्वा वामे मनोहरे लोचने अस्यास्तथाभूतेयं गन्धर्वदत्ता अनेकवीणावादनेन विजेतुं परामचितुम् इह जगति लोकेऽस्मिन् केनापि बिदग्धेन न शक्यते न पार्यत इति निश्चित्य निर्णय निःश्वासै: सह श्वासोच्छ्वासैः साधं पाणि
शां विवाहाभिलाषं मुञ्चन्तस्यजन्तः पञ्चशरण प्रद्यम्नेन वञ्चिताः प्रतारिताः भवन्तः कश्चित्काल कमपि समयं यावत्, आनतवदनेन विनम्रवक्त्रेण निवेदितः सूचितो निजहृदयगतो निजान्तःकरणस्थिती विषादः खेदो यैस्तथा नूताः जोषं तूरणीं यथा स्यात्तथा आसिषत तस्थुः । कतिचिदिति कतिचित् कियन्तोऽपि कम्दलितमङ्करित परिवादिनीपाण्डित्यं चीणावैदुष्यं यस्य तं तथाभूतम् आत्मानं मन्यमाना परिवादिनी वीणां वादयितुं प्रारभ्य परिवादमेष निन्दामेव फलम् अलभन्त प्राप्नुवन् । एवमिति एव.
६१०९. इस तरह जिसमें सातों स्वर प्रकट थे, जिसमें ग्राम-विशेष प्रकट थे, जिसमें मूर्छनाका सम्बन्ध स्पष्ट था, जो अत्यन्त मनोहर था और जिसमें कानों के लिए पारणास्वरूप सत्र कुछ विद्यमान था ऐसा उसका वीणा व ज्ञाना सुनकर तीब्रहपसे स्वयंवर-सभाके समीपवर्ती वृक्ष भी वौड़ियों के नहाने मानो रोमांच धारण कर रहे थे। तिथंच भी अन्य सब
कार्य छोड़ उसी के सुनने में कान देकर उकेरे हुपके समान निश्चेष्ट समस्त अवयवांसे युक्त हो ३. उस क्षणको देखने लगे। किन्तु राजा लोग समस्त मनुष्यों के कानोंको वश करने में निपुण उस
मृगनयनीका वीणा बजाना सुन 'यह वामलोचना इस क्रियासे तो संसारमें किसीके द्वारा नहीं जीती जा सकती यह निश्चय कर श्वासोच्छ्वास के साथ-साथ विवाहकी आशा छोड़ चैटे और कामसे प्रतारित हो कुछ समय तक नम्रीभूत मुखसे अपने हृदयका विशद प्रकट करते हुए चुप बैठ गये। कुछने रवयंको वीणावादनका पण्डित मान वीणा बजाना प्रारम्भ
१. क० ख० ग० 'तु' नास्ति ।
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श्रु
-स्वयंवरवृत्तान्तः ]
तृतीयो लम्भः
सादितपराजयलज्जाकज्जलितहृदयेषु पार्थिवपृथ्वीसुरवेश्येषु विश्रुतविश्वविद्या वेशा रद्यविस्मापितजीवको जीवकrवामी स्वयंवरकृते कृतमण्डनः पितुरनुज्ञापुरःसरमनुसद्भि रात्मनि विशेष रशेषः स्वमित्रमित्र इव मयूखैः शतमख इव मखाशनैः शातकुम्भगिरिरिव कुलगिरिभिरर्धारितविन्ध्यगिरिगरिमाणं गन्धकरिणमधिरुह्य धराधरशिखरनिषण्णं केसरिणमवधीरयन्नधः कृत्तमदनरूपाभिमान ग्रहो ५ निजगृहान्निरगात् ।
१७७
$ ११०. अनन्तरं तदीयलावण्य प्रसूवणे प्रवहति प्रक्षालयितुमीक्षणयुगल मतिदोह्लादहमहमिकया समधिरुह्य सौधमणिवल भीमनुगवाक्ष माहितवदन चन्द्रमसामिन्दीवरदृशाम् 'इन्दुशेखरेण पुरापुरत्रयेन्धन समिद्धहुतवहविरोचमाने विलोचने सरभसमदाहि मन्मथ इति वितथमालपति
मनेन प्रकारेण उपक्रमसमय एवं प्रारम्भकाल एव समासादितेन प्रासेन पराजयेन पराभवेन या लक्षा १० पा तथा कज्जलितानि मलिनानि हृदयानि येषां तेषु पार्थिवाः क्षत्रियाः पृथ्वीसुरा विप्रा वैश्या वणिज एष द्वन्द्वस्तेषु विश्रुतं प्रसिद्धं यद् विश्वविद्यासु निखिलविद्यासु वैशारथं वैदुष्यं तेन विस्मापिता आश्चर्यकितीकृता जीव लोका येम राधा जीवकस्वामी जीवंवर स्वयंवरकृते कृतमण्डनो तालंकारः पितुस्वातस्य अनुज्ञापुरःसरमादेशपूर्वकम् अनुसरद्भिरनुगच्छद्भिः धात्मनिर्विशेषः स्वः अशेषैनिखिलैः स्वमित्रैः स्वकीयसुहृद्धिः, मयूखैः किरणैः मित्र इव सूर्य इव, मखाशनैर्देवैः शतमख व शक्र इव कुल १५ गिरिभिः कुलाचलैः शातकुम्भगिरिरिव सुमेरुरिव, अधरितस्तिरस्कृतो विन्ध्यगिरिगरिमा विन्ध्याचलगौरवो येन तं गन्धकरिणं मदस्राविमतङ्गजम् अधि घरावरस्य पर्वतस्य शिखरं निषण्णं विद्यमानं केसरिणं मृगेन्द्रम् अवधीरयन् तिरस्कुर्वन् अधःकृतो दूरीकृतो मदनस्य मारस्य रूपाभिमानग्रहः सौन्दर्यगवंही न तथाभूतः सन् निजगृहात् स्वभवनात् निरगात् निरगच्छत् ।
१०. अनन्तरमिति - अनन्तरं तदनु प्रवहति प्रगच्छति तदीयलावण्यमेव 'प्रस्रवणं तस्मिन् तदीयसौन्दर्यनिर्शरे' ईक्षणयुगलं नयनयुगं प्रक्षालयितुम् अतिदोहलान्प्रचुराभिलाषात् अनुगवाक्षं वातायने वानायते श्रतिवदनचन्द्रमसां स्थापितमुखमृगाङ्कानाम् इन्डीवरदृशां ललनानाम्, 'इन्दुशेखरेण शिवेन पुरा पूर्व पुरत्रयमेवेन्धनं तेन समिन्द्र प्रज्वलितो यो हुतवहो वह्निस्तेन विरोचमानं देदीप्यमानं तस्मिन् विलोचने नयने सरभसं सवेगं यथा स्यासधा मन्मथो मदनः अदाहि दुग्ध इतीरथं लोको जनो वितथ
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करके निन्दा हो फल पाया। इसप्रकार जब ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य प्रारम्भ समय में ही प्राप्त पराजय सम्बन्धी लजासे मलिनमुख हो गये तत्र प्रसिद्धिको प्राप्त समस्त विद्याओंके २५ पाण्डित्य से जिन्होंने बृहस्पतिको भी आश्चर्य में डाल दिया था तथा स्वयंवर के लिए जिन्होंने आभूषण धारण किये थे ऐसे जीवन्धरकुमार, पिताकी आज्ञा प्राप्तकर विन्ध्याचल के गौरवको निरस्कृत करनेवाले मदमाते हाथीपर सवार हो पर्वत के शिखर पर स्थित सिंहको तिरस्कृत करते हुए . अपने घर से निकलें। उस समय उन्होंने कामदेव के सौन्दर्य के अभिमानको नष्ट कर दिया था तथा पीछे-पीछे चलनेवाले अपने समस्त समान मित्रोंसे वे किरणोंसे सूर्य के समान, देवोंसे इन्द्र के समान और कुलाचलों से सुमेरुके समान सुशोभित हो रहे थे।
३०
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$ ११०. तदनन्तर उनके बहते हुए सौन्दर्यरूपी झरने में नेत्रयुगल धोने के लिए स्त्रियाँ, महकी मणिमयी छपरियों और झरोखों में मुखरूपरी चन्द्रमाको लगाकर परस्पर इस प्रकार बार्तालाप करने लगी- कोई कहनी है कि 'पहले महादेवने पुरत्रयरूप इनसे प्रज्वलित अग्निसे देर्दाध्यमान नेत्रमें शीघ्र ही कामदेवको भस्म कर दिया था' यह लोग झूठ ही कहते हैं ३५
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गधचिन्तामणिः
[१११ गन्धर्वदत्तायाःलोकः । यदयमशेषयोषिदीक्षणचकोरपारणपौर्णमासीचन्द्रकरायमाणकान्तिकन्दल: कामो निकाममानन्दयत्यस्मान् । किमकृत सा सुकृतं पुरा पुरंध्री यास्य प्रत्यग्रघटितघनतरघुसृणपङ्कपटलपाटले वक्षःकवाटे निबिडगैरिकपङ्कालते गिरितटे मयूरीव विहरिष्यति । आस्तामिदमस्तोकमस्य लावण्यम् । प्रावीण्यमपि वीणावादने निद्वितोयमेतदीयम् । आभ्यामखिल भुवनाभिनन्दिताभ्यां विनिजिता विजयार्धपतेः सुता नियतमेनं वरिष्यति' इत्येतानि चान्यानि वचास्यवतंसयन्कर्णयोस्तूर्णमुपासरत्परिसरं स्वयंवरसदसः ।
१११. सदस्याश्च ययस्य: सह मंनिहितमेनमपनीतनि मेषोन्मेपेण चक्षुषा निरीक्षमाणाः क्षण मेणाक्षीपाणिग्रहणमहोत्सवप्रीतिभाजनं जनोऽयमिति मेनिरे । बहमेने च सा गानिनी मदन
मनृतम् आलपति कथयति । यद यस्मारकारणात अयं दृश्यमानः अशेषयोषितां निखिलनारीणामीक्षणान्यव १० चकोरा जीवंजीवास्तेषां पारणाय भोजनाय पौर्णमासीन्द्र करायमाणानि राकारजमीरमणरश्मिवदाचरन्ति
कान्तिकन्दलानि दीप्यकुरा यस तथाभूतः कामः स्मरः निकाममयन्तम् अस्मान् आनन्दयति । किमकृतेति-सा पुरन्ध्री बनिता पुरा किं किनामधेयं सुकृतं पुण्यमकृत या अस्य जीवस्य प्रत्यग्रघटितेन नूतनरचितेन धनतरेण सान्द्रतरण धुमृणपङ्कपटलेन कमदवसमृहेन पारले रक्तवर्ण वक्षःकपाटे वक्षःस्थले
निविडेन सान्द्रेण गरिकपडून धातवेणाति सहिते गिरितरे शैलतो मयूरीव बहिव विहरिष्यति १५ क्रीडिष्यति । अस्य इदमैतत् अस्तोकं प्रचरं लावण्यम् आस्ताम्, एतदीयम् वीणावादने तन्त्रीचादने
प्रावीण्यमपि नैपुण्यमपि निद्धितीयमसाधारणं विद्यते इति शेषः, अखिलभुवनेन निखिलविष्टपेनामिनन्दिते प्रशंसिते ताभ्याम् अ.भ्या लावण्यत्रीणावादननैपुण्याभ्यां विनिर्जिता पराभूता विजयार्धपतेः सुता गरुडवेगनन्दिनी एनं नियतं निश्चितं वरिष्यति स्वीकरिष्यति' इत्येतानि अन्यानि चेतराणि च वचांसि कणयोस्वतंत्रयम् शृण्वन् तूर्ण शीघ्रं स्वयंवरसदसः स्वयंवरसभायाः परिसरमभ्यम् उपासरत् उपजगाम ।
1 सदस्याश्चेति सदसि भवाः सदस्याः सभासदश्च वयस्यमित्रैः सह संनिहितं निकटस्थितम् एनम् अपनीतो दूरीकृती निर्मघोन्मेषौ पक्ष्मपालोत्पातौ यस्मात् तथाभूतेन चक्षुपा नयनेन निरीक्षमाणा विलोकमानाः सन्तः अयं जनः क्षणमल्पेनैव कालेन एणाक्ष्या मृगनेत्र्या गन्धर्वदत्तायाः पाणिग्रहणमहोत्सवस्य विवाहमहोत्सवस्य प्रीतिभाजनं प्रीतिपानम्, इति मंनिरे मन्यन्ते स्म । सा मानिनी च
----- --- - -- क्योंकि समस्त स्त्रियोंके नेत्ररूपी चकोर पक्षियों को पारणा करानेके लिए पौर्णमासीके चन्द्रमा२५ की किरणों के समान आचरण करनेवाले कान्तिरूप कन्दलसे युक्त यह कामदेव हम लोगोंको
अच्छी तरह आनन्दित कर रहा है। कोई कह रही थी कि उस स्त्रीने पूर्व भवमें कौन-सा पुण्य किया था जो इसके नवीन लगाये हुए केशरके गाढ़ेगा लेपसे लालवर्ण वक्षःस्थलपर गेम के सघन पंकसे युक्त पर्वतके तटपर मयूरीके समान क्रीड़ा करेगी। कोई कह रही थी कि
इसकी यह अत्यधिक सुन्दरता रहने दो, वीणा बजाने में इसकी चतुरता भी इसके अद्वितीय है3. अपनी झानी नहीं रखती। समस्त संसार के द्वारा प्रशंसित इनके इन्हीं दो गुणोंसे पराजित
हुई गन्धर्वदत्ता निश्चित ही इसे वर लेगी। स्त्रियों के इन तथा अन्य वचनोंको कानोंका आभूषण बनाते हुए जीवन्धरकुमार शीघ्र ही स्वयंवर सभा के समीप पहुँच गये।
६१११. स्वयंवा सभामें जो सदस्य बैठे थे वे मित्रोंके साथ आये हुए जीवन्धरकुमारको टिमकाररहित नेत्रोंसे देखने लगे और क्षण-भर में उन्होंने निश्चय कर लिया कि ३. इस मृगनयनीके विवाह महोत्सवकी प्रीतिका पात्र यही मनुष्य होगा। मानवती गन्धर्वदत्ता
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-स्वयंवरवृत्तान्तः ]
तृतीयो लम्भः महनीयरूपमेनमालोकयन्ती। अचिन्तयच्च' 'यद्यसौ लभ्येत पतिः पराजय एव जयाम्मे परं श्रेयः' इति श्रीदत्ततनया । अथ कुमारः रामवतोर्य मातङ्गादनङ्ग इत्र लब्धाङ्गः कुरङ्गलोचनायाः पुरस्तादवस्थापितमनुरूपमासनमलं व कार । ततश्च कोरने वायाः परिचारिकाभि: प्रदर्शिताः प्रत्येक शास्त्रनेत्रनिरोक्षणाद्दोषानुद्घोषयन्घोषवतीरदुषयत् । अभाषत च परिचारिका: 'परिवादिनी काचन परिहृतनिखिलदोषा भूषति भवद्वंशम् । आशु तामानयत' इति । तावता च तत्सदशस्तविद्यायां ५ न विद्यत इति जनितपरितोषया वीणावत्या वितोर्णा वीणामुपादाय वादयितुमुपचक्रमे चक्रवती कलानाम् । ११२. 'जिनस्य लोकत्रयवन्दितस्य प्रक्षालयेत्पादस रोजयुग्मम् ।
नखप्रभादिव्यसरित्प्रवाहै: संसारपङ्घ मयि गाढलग्नम् ।।' इति । मानवती च गन्धर्वदत्ता मदनेन मारण महनीय इलाघनीयं रूपं यस्य तथाभूतम् एनम् आलोकयन्ती पश्यन्तो बहुमंने श्रेष्ठं मन्यते स्म । अचि तयच्चति-'यसी पतिर्वल्लभी लभ्येत प्राप्येत तहिं में पराजय पव जयात् परमत्यम् श्रेयः कल्याणम्' इति श्रीदत्ततनया गन्धर्वदता अचिन्तयञ्च विचारयामास च । अथेति-अयानन्तरं कुमारी जीवंधरी मातङ्गात् करिणः समवतीय लब्धाङ्गः प्राप्तशरीरः अनङ्ग इव काम इव कुरङ्गलोचनाया हरिणाझ्याः पुरस्ताद ऽवस्थापितम् अनुरूपमनुकूलमासनं विष्टरमलंचकार शोमयामाय । ततश्च-ततश्च तदनन्तर चकोरस्पेव नेत्रे यस्थास्तस्या गम्वदत्तायाः परिचारिकाभिः सेविकाभि १५ प्रदर्शिता घोषवतीवीणा एकामेका प्रत्यक शास्त्रमेव ने तन निरीक्षणं तस्माच्छास्त्रनयनदर्शनात् दोषानवगुणान् घोषयन् प्रकटयन अदृषयत् । अमाषत च निजगाद च परिचारिकाः सेधिकाः परिहनादरीकृता निखिलदोषा यया तथाभूता काचन कापि परिवादिनी विपञ्चा भपदृशं युप्मरकुलं भूषयति ताम् आशु शीघ्रम् आनयत' इति । तावता चति--सावता च कालेन तद्विद्यायां तन्त्रीवादनविद्यायां तत्सरशों जीवंधरतुल्यो न विद्यत इति जनितपरितोषया समुत्पादितसंतोषया वीणावस्या गन्धर्व उत्तया वितीणी वीणां परिवादिनीम् उपादाय कलानां चक्रवर्ती सात्यन्यरिर्धादयितुम् उपचक्रम तत्परोऽभूत् ।
५१२. जिनस्येति-लोकत्रययन्दितस्य जगत्त्रयामिपूजितस्य जिनस्याहेतः पादसरोजयुग्म घरणारविन्दद्वन्द्वं नवप्रभत्र नखदीप्तिरेव दिव्यसस्ति तस्याः प्रवाहास्तैः मयि गाढलग्नं तीवास संसारपङ्कमाजवजवकर्दमम् प्रक्षालयेत् । उपजातिवृ रूपकालङ्कारः। इति । भी कामदेव के समान महनीय रूपको धारण करनेवाले जोवन्धरकुमारको देखती हुई बहुत २५ अच्छा मानने लगी। उसने देखते ही के साथ यह विचार किया कि यदि यह पति मिलता है तो मुझे जीत की अपेक्षा पराजय ही अधिक कल्याणकारी है। तदनन्तर जो शरीरवांग कामदेवके समान जान पड़ते थे ऐसे जीवन्धरकुमार हाथीसे उतरकर मृगनयनी गन्धर्वदत्ताके सामने रखे हुए अपने योग्य आसनको अलंकृत करो । तत्पश्चात् चकोरलोचना--- गन्धवेदत्ताकी परिचारिकाओंने जो भी वोगाएँ दिखलायी झालरूपी नेत्रसे देखने के कारण है. उनके दोष प्रकटकर जीवन्धरकुमारने उन सबको दूषित बता दिया। साथ ही परिचारिकाओंसे कहा कि यदि समस्त दापोंसे रहित कोई वीणा आपके वंशको अलंकृत करती हो तो उसे शीघ्र ही लाओ। गन्धर्वदत्ताको जीवन्धरकुमार की उतनी हो पातसे सन्तोष हो गया कि इस विद्या में इनके समान दूसरा नहीं है अतः उसने अपनी वीणा उन्हें दे दी और कलाओं के चक्रवर्ती जीवन्धरकुमार उस वीणाको लेकर जाने लगे। बजाते हुए उन्होंने गाया। ३५
११२. 'तीनों लोकोंक द्वार वन्द्रित श्रोजिनेन्द्र भगवान के चरण-कमलों का युगल, नखोकी कान्तिरूपी गंगाके प्रवाहसे मुझमें अत्यन्त लगे हुए संसाररूपी पंकको धायें ।
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गचिन्तामणिः
[ ११३-१४ गन्धर्वदत्तायाः-. ११३. तेन च श्रवणसुभगगीतिगर्भमुद्भ तरागमनुगतग्रामं वादयता वल्लकों विजिग्ये विद्याधरराजतनया ।
६११४. अनन्तरमाविर्भवदभङ्ग रामर्षतरङ्गितहृदयेषु विजृम्भमाणव्यलोककल्पितकालिमकर्दमितमुखेषु , ललाटरङ्गतविहरदसितभ्रुकुटीनटेषु, निविडनिर्गच्छदतुच्छदुःखवेगोष्मल दीर्घनिः५ स्वारासमीरममरिताधरपल्लवेषु पश्यत्सु स्वयंवरास्थानवास्तव्येप, वसुधापालेप सा गरुडवेगनन्दना
सानन्देन सखोजनेन समुपनोता कुमारोपकण्ठं वधितोत्कण्ठा कण्ठे जीवककुमारस्य कुसुमशरविकारकम्पमानेन प्रहर्ष गुलकजस्तित्वचा पाणिपल्लवेन यबन्ध बन्धुरां स्वयंवरजम् ।
६५१३. तेन च श्रवणसुभगा कर्णप्रिया गोतिर्गमें यस्मिन् कमणि यथा स्यात्तथा, उद्धतरागं प्रकटितरागम् अनुगतनाममनुगतस्वरसमूह यथा स्यात्तथा चलकी कोणां बादयता विद्याधरराजतनया १२ स्यगाधिपपुत्री विजिम्य विजिता ।
६११४, अनन्तरमिति-अनन्तरं तदनु भाविभवन् प्रकट भवन् योऽभङ्गुरोऽनश्वरोऽमर्पः क्रोधस्तन तरङ्गितानि चपलानि हृदयानि येषां तंपु, विज़म्ममाणेन वर्धमान न्यलोकेन मन्दाक्षेण कल्पितो यः कालिमा तन कर्दमित मलिनं मुखं येषां तपु, ललाटरङ्गतदेपु निटिलरङ्ग भूमितटेषु विहरतोऽसित.
भृकुटय पुत्र ना येषां तेषु, निबिडं सघनं यथा स्यान्निगच्छन्तोऽतुच्छदुःखवेगेन भूयिष्ठदुःखरयणाप्मका १५. उणस्वभावा ये दीनिःश्वासा आयतश्वासोच्छवासास्तषां समीरण पवनेन मर्मरिताः शुरुका अधरपल्लवा
आष्टकिसलया येषां तेषु, स्वयंवरास्थानवास्तव्येपु स्वयंवरसमास्थितेषु वसुधापालेषु पृथिवीपतिपु पश्यत्सु बिलोकयत्सु, सा गरुडवंगनन्दना गन्धर्वदत्ता सानन्देन सप्रमोदन सखीजनेन समुपनाता समुपस्थापिता बधितोत्कण्ठा च सती जीवककुमारस्य कण्ठे कुसुमशरविकारण स्मरविभ्रमण कम्पमानस्तेन,
प्रहर्षपुलकेस्तीवानन्दरोमाञ्चैर्जजरिता वा यस्य तेन पानिपल्लवन करकिसलयन बन्धुरां मनोहरां स्वयंबर२० वजं स्वयंवरमाला बन्ध ।
६११३. इसप्रकार कानोंको प्रिय लगनेवाला गीत जिसके बीच-बीच में मिला हुआ था, जिसमें अनेक राग-रागिनियाँ प्रकट थीं, तथा जिसमें अनुकूल प्राम-स्वरोंका समूह प्रकट था उस तरह वीणा बजाने वाले जीवन्धरकुमारसे विद्याधर राजपुत्री-गन्धर्वदत्ता पराजित हो गयी।
१५४. तदनन्तर प्रकट होते हुए तीव्र क्रोधसे जिनके हदय लहरा रहे थे, बढ़ती हुई लज्जासे उत्पन्न कालिमासे जिनके मुख श्याम पड़ गये थे, जिनके ललाटरूपी रंगभूमिके तटोपर श्याम पटिरूपा नट विहार कर रहे थे, और बड़ी सघनताके साथ निकलनेवाले तात्र दुःग्य के वेगसे उष्ण एवं लम्बी-लम्बी साँसोंको वायुसे जिनके आष्टरूपी पल्लव सूख गये थे ऐसे स्वयंवर सभामें स्थित समस्त राजाओंके देखते-देखते वह गरुड़वेगकी पुत्री, आनन्दसे भरी सस्त्रियोंके द्वारा जीवन्धरकुमार के पास ले जायी गयी। तदनन्तर जिसकी स्वयं उत्कण्ठा बढ़ रही थी ऐसी गन्धवदत्ताने कामके विकारसे काँपते एवं हर्षको प्रकर्पतासे उत्पन्न रोमांचोंसे जर्जरित त्वचाक धारक हाथरूपी पल्लबसे जीवन्धरकुमार के गले में ऊँची-नीची) स्वयंवर माला बाँध दी।
१. क० आविभवद् भङ्गरामर्गतरङ्गितहृदयेषु ।
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- स्वयंचरवृत्तान्तः]
तृतीयो लम्मा ११५. अथ तामनवद्यतपोबलादावजितसुकृतानामन्तिकं श्रियमिव श्रयन्ती स्वयं जीवकस्वामिनः स्वामिगृहां ज्येष्ठः काष्ठाङ्गार: सामर्ष निर्वर्ण्य वरवणिनीम् 'नितरां निकृष्टः धेष्ठिसुतोऽयं पुरा तिरस्कृतास्मबलं नाफलसैन्यमनन्यसहायो विजित्यास्माकममन्दं मन्दाक्षमाक्षिपत् । एवमत्युल्बणप्रलस्यास्य वालस्य खेचरा अपि सहचरा यदि भवेयुभवेदेवास्मदीयराज्यमप्येतदीयहस्तस्थम् । अतः पार्थिवसुतैः साधं स्पर्धा वर्धयित्वा वर्धयाम्यस्य दोवलदर्पम्' इति विचारमारचयत् अतितरां ५ च समवृक्षयन्महीक्षिदात्मजान् ।
११६. वैश्यसुतोऽयं पश्यतामेव पराक्रमशालिनां परायवस्तुपला भयोग्यानामयोग्यः कथं भोग्यामिमा राज्यश्रियमिव समाधयेत् । समुत्सायनमुरव्यसूनृमूरोक्रियामुरिमा नारोम्' इति ।
६११५. अथेति-~-अथानन्तरम् भरवयत्य निर्दोषस्य तपसी बलं सामयं तस्माद् आवर्जितसुकृतानां संचितपुण्यानाम् अन्तिकं समापं श्रयन्तीम.गच्छन्तीं श्रियमिव लक्ष्मीमिव जीवकस्वामिनी. १० उन्तिक स्वयं श्रयन्ती तां वरवणिनी सुन्दरी सामर्ष सक्रोधं निर्वण्य दृष्ट्या स्वामिद्रहां राजहोहिण ऽग्रेसरः काठाजारः इति विचारम् धारचयत् । इतीति किम् । नितरामत्यन्तम् निकृष्टो नीच: अयं श्रेष्ठिसुतो गन्धोत्कटाङ्गजः पुरा प्राक अनन्यसहायोऽन्यजनसाहाय्यरहितः सन् तिरस्कृतं पराभूतभस्मबलं मत्सैन्यं येन तथाभूतं नाफलसैन्यं वनचरच विजित्य अस्माकममन्दमत्यधिकं मन्दाक्षं हियम् 'मन्दाक्षं हीस्वपा ब्रोडा लजा,--' इत्यमरः, आक्षिपत् । एवमनेन प्रकारेण अत्युलमणवलस्य प्रभूतपराक्रमस्य अस्य १५ बालस्य खेचरा अपि विद्याधरा अपि यदि सहचराः सहगामिनो भत्रेयुस्तहि अस्मदीयराज्यमपि मामकीनराज्यमपि एतदीयहस्तस्थ एतदायतं मवेदेव संभावनायां लिइ । अतः पार्थिव सुतै राजपुग्नैः सार्ध स्पर्धा मात्सर्थ वर्धयित्वा अस्य दोबलदपं बाहुवीर्य वर्धयामि छेदयामि' वृथु छेदने । महीक्षिदात्मजान् नरेन्द्रनन्दनान् च अतितरामत्यन्तं समधुक्षयत् समुदतेजयत् ।
६११६. वैश्यसुतोऽयमिति–पराक्रमशालिमां वीर्य विशानिनाम् परार्ध्यवस्तूनां श्रेष्टवस्तूना- २० मुपलम्मस्य प्राप्लेयोग्यास्तेषां युष्माकं पश्यतामेव अयोग्योऽनहः अयं वैश्य सुतो वणिक्पुत्रो सज्यश्रियमिव राज्यलक्ष्मीमिव भाग्यां भीगाहामिमां कन्यां कथं समाश्रयेत् प्राप्नुयात् । एनम् ऊरव्यसूनुं वैश्यसुतं समुत्सायं दूरीकृत्य इमां नारीम् ऊरीक्रियासुः स्वीक्रियामुः' इति । आशिषि लिङ । ततश्चवमिति
६११५. तदनन्तर निषि तपके बलसे पुण्यका संचय करनेवाले मनुष्योंके समीप जिसप्रकार स्वयं लक्ष्मी पहुँचती है उसी प्रकार जीवन्धरस्वामीके समीप स्वयं पहुँचनेवाली उस २५ अनवध सुन्दरी गन्धर्वदत्ताको देख स्वामीद्रोहियों में श्रेष्ठ काष्टाङ्गार क्रोधसे आगबबूला हो इसप्रकार विचार करने लगा कि 'इस अत्यन्त नीच सेठके पुत्रने पहले हमारी सेनाको तिररकृत करनेवाली भीलोंकी सेनाको अकेले ही जीतकर हम लोगोंको बहुत भारी लज्जा उत्पन्न करायी थी । इस प्रकार यह बालक होनेपर भी अत्यधिक पराक्रमसे सहित हैं। इन नेपर भी यदि विद्याधर भी इसके मित्र हुए जाते हैं तो हमारा राज्य भी इसीके हाथमें स्थित हो ३० जायेगा । अतः राजपुत्रों के साथ स्पर्धा बढ़ाकर इसकी भुजाओं के बलका घमण्ड चूर करता हूँ। एसा विचारकर उसने राजपुत्रोंको अत्यधिक भड़का दिया ।
६११६. उसने कहा-पराक्रमसे सुशोभित और श्रेष्ठ वस्तुओंके पानेके योग्य आप लोगों के देखते-देखते ही यह अयोग्य वैश्यका लडका भोगने योग्य राज्यलक्ष्मीके समान इसे कैसे प्राप्त कर सकता है ? अतः इस वैश्य के लड़केको हटाकर आप लोग इस स्त्रीको स्वीकृत करें । तद- ३१
१. क. ग. विचारमारचयन् अतितरां च ।
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गद्यचिन्तामणिः
[१६ गन्धर्वदत्तायाःततश्चैवं कपटधर्मपटिष्ठेन काष्टाङ्गारेण संधुक्षितानां गन्धर्वदत्ताभिनिवेशविशृङ्खलविज़म्भितमन्युपरवशमनसा महीपतीनां स्वयंवरमालानिभादुपलब्धसौभाग्यपताकेन कुमारेण सह निपात्यमान. निशितहेतिसंघट्टितोद्भटसुभटकवचविसर्पद्विस्फुलिङ्गसूत्रिताग्नेयास्त्र प्रयोगचमत्कारम्, चण्डासिधारा
खण्डितवेतण्डकुम्भकूटपतदविरलमुक्ताफलपटललाजालितपितसमरदैवतम्, साहसप्रतिष्टप्रतिभट५ करकरवालखण्डितदेवीभवद्योधपरिष्वङ्गपर्युत्सुकहृदयपुजीभवदमरपुरंध्रीनीरन्ध्रिताम्बरम्, निकृत्त
चारुभटकण्ठकुहर प्रणालीनिःस्वन्दमानरुधिरासारकर्दमितकाश्यपीतलम्, मज्जदध्रिसमुद्धरणा यस्यददवीयम्,आकर्णकुण्डलीक्रियमाणसुभटकोदण्डटङ्कारपर्यायांपरायलक्ष्मीपादतुलाकोटिक्वणितमुखरितततश्च तदनन्तरं च, एबमनेन प्रशारण कपटधों पटिएस्तेन कपरधर्मपटुतरण कारागारण संथुक्षितानां
समुत्तेजितानां गन्धर्वदत्त,या अभिनिवेशेन मनोरथेन विशृङ्खलं स्वच्छन्द यथा स्यात्तथा विजम्भितो १० वृद्धिंगतो यो मन्युः क्रोधस्तन परवशं परायतं मानसं येषां तेषां महीपतीनां राज्ञाम्, स्वयंवरमालानिभात्
स्वयंवरसम्व्याजात उपलब्धा प्राप्ता सौभाग्यपताका यंन तन संप्राप्तसौभाग्यध्वजेन कुमारण जीवंधरण सह अति महद् विशालं युद्धम् अवर्धत । अथ युद्धस्य विशेषणान्याह-निपात्यमानेति-निपात्यमाना मुच्यमाना या निशितहतयस्तीक्ष्णशास्त्राणि ताभिः संघट्टिता ये उद्भटसुभानां प्रचण्डवीराणां कवचा
वारबाणास्तेो विसतितिविधियोजित प्रारब्ध आग्नेयास्त्राणां प्रयोगस्य चमरकारो १५ यस्मिन् तत् , चण्डासीति—चण्डाभिः प्रतिज्ञाभिरसिधासमिः कृपाणधाराभिः सण्डिता विवारिता ये
वेतण्डकुम्भकूटा गजगण्डाग्रमागास्तभ्यः पतन्ति यान्यविरलमुक्ताफलपटलानि निरन्तरमौक्तिकसमूहा तान्येव लाजाालयस्तैस्तपितं समरदैवतं युद्धदेवता यस्मिन् तत्, साहसेति-साहसंऽवदाने प्रतिष्ठाइस्था यषां तथाभूता ये प्रतिमा योहारहतेषां करकरवाल: पाणिपारादी खण्डिता: पश्चाद देवीभवन्तो ये
योधास्तपां परिवङ्गे पर्यानिङ्गने फ्युत्लुकह दो समुस्कण्ठितचेतसा पुजीमवन्त्यो या अमरपुरपुरन्ध्यो २० देवाङ्गनास्तामिनार धितं रिवकाशितमम्वरं गगनं यस्मिन् तत्, निकृत्तेति-निकृसाश्मिाश्रारमटानां
सुभटाना याः कारकुहरमणाल्यो ग्रीवागुहप्रणाल्यस्ताभ्यो निःस्यन्दमानेन प्रबहता रुधिरासारेण रक्तवृष्टया कर्दमितं पकिलीकृतं काश्यपीतलं पृथिवीपृष्टं यस्मिन् तत् , मजदिति-मज्जतां रफकदमे पतताम् अङ्घीणां चरणानां समुद्धरणे समुस्थापन आयस्यत् खेदमनुमवद् अश्चीयं हयसमूहो यस्मिन् तत् , आकर्गेति
आकर्ण कर्णपर्यन्तं कुण्डलोक्रियमाणानां वक्रोक्रियमाणानां सुभटकोदण्डानां सुयोधधनुषा कारः पर्यायो २५ नन्तर इसप्रकार कपटधर्म में निपुण काष्टाङ्गारके द्वारा जो भड़काये गये थे एवं गन्धर्वदत्ता
की प्राप्तिके अभिप्रायसे स्वच्छन्दतापूर्वक बढ़ते हुए क्रोधसे जिनके मन विवश हो रहे थे ऐसे राजाओंका स्वयंवरमालके याने सौभाग्यरूपी पताकाको प्राप्त करनेवाले जीवन्धरकुमारके साथ बहुत भारी युद्ध हुआ। इस युद्ध में गिराये जानेवाले तीक्ष्ण शस्त्रोंकी टकरको प्राप्त
उद्भट योद्धाओंके कवचसे निकलनेवाले तिलगांसे आग्नेय बाणके प्रयोगका चमत्कार सूचित ३० हो रहा था। पैनो तलबारकः धारासे खण्डित हाथियोंके गण्डस्थलसे लगातार गिरते हुए
मोतियों के समूहरूपी लाईकी अंजलियोंसे युद्ध के देवता सन्तुष्ट किये जा रहे थे। साहसी प्रतिद्वन्दीके हाथकी तलवारस खण्डित होकर देव होनेवाले योद्धाओंके आलिंगनके लिए उत्सुक हृदयसे इकट्ठा होनेवाली देवांगनाओंसे वहाँका आकाश व्याप्त हो रहा था। योद्धाओं
के कटे हुए कण्ठ कुहरको नालीसे निकलनेवाले मधिरकी लगातार वर्षासे वहाँका पृथिवीतल ३५ कीचड़से युक्त हो गया था। उस कीचड़में डूबे हुए पैरोंके उठाने में घोड़ों के समूह बहुत भारी खेद का अनुभव करते थे। कानों तक कुण्डलाकार किये हुए योद्धाओंके धनुपोंकी टंकाररूपी
१. म० अमगपुरंधी । २. म० चारभट ।
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-स्वयंवरवृत्तान्त: ] तृतीयो लम्भः
३३ हरिदवकाशम्, आकाशकबलनसनादविरलधरापरागधूसरदिवसकरकिरणालोकम्, उत्पतदवपतदनकशतशरपुञ्जपरितरोदोविवरम्, उद्धरपदातिरवस्मयमाणमथनसमयसमुत्तालजलधिकल्लोलकोलाहलम्, अनुवेलनिपतदतिपीवरकबन्धगुरूभवदुर्वीभारजर्जरितकमठपरिबृढपृष्टाष्ठीलम्, अष्टापदरथकोटिपातनिष्पिष्टदन्तावलदशनशिलास्तम्भम्, उत्तम्भितकुन्तयष्टिप्रोतविपक्षशिरःशीर्णकचसटाचामरमरुदपनीयमानवीरविक्रमपरिश्रमम्, विश्वजगदात इजनकम्, अतिमहाद्धमवर्धत ।
$ ११७. ततश्च तस्मिन्नाविष्कृतालीढशोभिनि मण्डलोकृत्य कोदण्डमकाण्डघनाघन इव
५
यस्य तथाभूतं यन् साम्पसयलक्ष्म्या रणश्रियाः पादतुलाकोटिश्वणिम चरणमीरकशिक्षित तेन मुखरितः शब्दायमानो हरिदवकाशो यस्मिन् तत् , आकाशेति-आकाशस्य कबलने संन ह्मन् तत्परो भवन योऽविरलधरापरागो निरन्तरमहीधूलिस्तेन धूसरो मलिनीकृता दिवसकरस्य सूर्यस्य किरणालीको मरीचिप्रकाशो यस्मिन् तत् , उत्पतदिति-उत्पतन्त उद्गच्छन्तोऽवपतन्तोऽधोगच्छन्तो येऽनेकशतवारा बहु- १० संख्यकबाणास्ते पुन समूहेन पञ्जरितं शलाकागृहीकृतं रोदोदिवरं द्यावापृथिव्यन्तरालं यस्मिन् तत्, उधुरेति--उधुर उस्कटो यः पदातिरवः पत्तिशब्दरतेन रमर्यमाणो मथन समय समुत्तालः प्रचुरीभूतो जलधिकल्लोलानां तरङ्गिणीपतितरङ्गाणां कोलाहल: कलकलशब्दो यस्मिन् तत् , अनुवेलेति-वेला वेलामन्विति अनुवेलं प्रसिसमयं निस्तन्तोऽतिपीवराः स्थूलतरा में कदन्धाः शिरोरहितदेहास्तगुरूभवाती या उर्वी मही तस्याभारेण जर्जरितं कमलपरिवृढस्य कच्छपेश्वरस्य पृष्ठाटीलं पृष्टास्थि यस्मिन् तत् , अष्टपदस्थकोटीन १५ सौवर्णस्यन्दनकोटीनां पातेन निप्पिष्टाश्च कृता दन्तावलदशना एवं द्विरदनरदना एवं शिलास्तम्मा: पाषाणस्तम्मा यस्मिन् तत् , उत्तम्भितेति-उत्तस्मितासूसमितामु कुन्तयष्टिपु गासदण्डिकासु प्रोतानि निस्यूतानि यानि विपक्षशिरांसि शत्रुमूर्धानस्तेषां शीर्णा विकीर्णा या कचसटा कंशपछिका सैव चामरा वालव्यजनानि तेषां महता पवनेनापनीयमानो दूरीक्रियमाणो वीराणां सुभटानां विक्रमपरिश्रमो पराक्रमस्वेदो यस्मिन् तन्, विश्वेति-विश्वजगतो निखिलविष्टपस्यातङ्कजनकं भयोस्पादकम् ।
१७. ततश्चेति-ततश्च तदनन्तरं च आविष्कृतेन प्रकटितेनालीन रणासनविशेषेण शोभत इत्येवंशीलस्तस्मिन् , घनतरः प्रचुरीभूतो यो मौत्रानिनदः प्रत्यञ्चाशब्दः स एवं गम्भीरगों मन्द्रशब्दस्तेन तर्जिताः प्रतिभटाः शत्रवस्तेषु स्फुटः प्रकटः कपिलो लोहितपीतवर्णो यः कोपरागः स एव विद्युत्तडित् तयोयोतितं वपुः शरीरं यस्य तथाभूते, तस्मिन् जीवंधरे कोदण्डं धनुः मण्डलीकृत्य वक्रीकृत्य अकाण्ड
युद्धलक्ष्मीके नूपुरोंकी झनकारसे दिशाओंका अन्तराल शब्दायमान हो रहा था। आकाशको २५ असने के लिए उद्यत लगातार उठनेवाली पृथिव की धूलिसे सूर्यको किरणों का प्रकाश मटमैला हो रहा था। ऊपर जाते और नीचे आते हुए सैकड़ों बाणों के समूहसे आकाश और पृथिवीके बीचका अन्तराल पिंजड़े के समान हो गया था। योद्धाओंके उत्कट शब्दसे वहाँ मथनके समय होनेवाले समुद्रको लहरोंके विशाल कोलाहलका स्मरण हो रहा था। क्षण-क्षणमें गिरते हुए अत्यन्त स्थूल कबन्धों ( शिररहित धड़ों) से भारी होनेवाली पृथिवीके भारसे कमठेन्द्रके ३० पीटकी हड़ी जर्जर हो रही थी। स्वर्णमयी रथकी कोटियोंके पड़नेसे हाथियोंके दाँतरूपी पत्थरके खम्भे पिसकर चूर-चूर हो गये थे। ऊपर उटाये हुए भालोकी लाठियों में पिरोये शत्रुओंके शिरोंके जीर्ण-शीर्ण बालरूपी चामरोंकी हवासे वीर मनुष्यों के पराक्रमका परिचय दूर किया जा रहा था तथा वह युद्ध समस्त संसारको भय उत्पन्न करनेवाला था।
६११७. तदनन्तर जो धनुषको गोल कर प्रकट किये हुए आलीढ आसनसे सुशोभित थे, ३५ डोरीके उच्च शब्द रूप गर्जनासे जिन्होंने शत्रुयोद्धाओंको डाँट दिखलायी थी और गालोंपर
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गचिन्तामणिः
[११७ गन्धर्वदत्त्या सहघनतरमौर्वीनिनदगम्भीरगर्जतजितप्रतिभटस्फुटकपिलकोपरागविद्युदुद्द्योतितवपुषि वर्षति पृषत्कधारां सत्यंधरतनूजन्मनि धरापतिधराधराणां प्रत्यग्नखण्डितेभ्यः कण्ठकुहरेभ्यो मुखरितनिखिलहरिदववाशा, काशकुसुममजरोचाभिश्चामरैरारचितफेनपटलविभ्रमा, शरदभ्रकुलमित्रैरातपत्रैरासूवितपुण्डरीकपण्डइम्बरा, विडम्बितशिखण्डिबहभरः कचनिचयः कल्पितर्शवालविलासा, विलसद्शिकनिमल.पि.मर; प्रकटितपलिनशोभा, हरिदिभकरदण्डानुकारिभि जैर्भुजङ्गमैरिव तरद्भिस्तरलीकृता, वृत्तपातितान्पादपानिव कबन्धान्कर्पन्ती, दिगन्तकूलंकषा क्षतजवाहिनी प्रावतिष्ट । न्यतिष्ट च भयाविटमनाः काष्ठाङ्गारप्रमुखः प्रश्नानिधनैकफलात्प्रत्यर्थिपार्थिवलोकः ।
Po
घनाघन इवाकालिकमेव इव पृषत्कधारां बाणसन्तति वर्षति सति, धरापतयो राजान पुत्र धराधराः पर्वता१० स्तेषां प्रत्यग्रखण्डितेभ्यो नृतनविदारितेभ्यः कण्ठकुहरेभ्यो ग्रीवागुहाभ्यः क्षतजवाहिनी रुधिरस्रवन्ती
प्रावर्तिष्ट प्रवृत्ताभूत् । अथ क्षतजवाहिन्या विशेषणान्याह-मुखरितेति-मुपरिताः शब्दिता निखिला हरिदवकाशाः कान्तराणि यया सा, काशेति-काशकुसुममञ्जरीवच्चारुभिः सुन्दरैः चामरैलिन्यजनैः आरचित: कृत: फेनपटल विभ्रमो डिण्डीरपिण्डसंदेहो यया सा, शरदभ्रेति- शरदभ्राणां शरदवारिदानां
कुलमित्रैः शुक्लैरित्यर्थः आतपत्रैश्छन्नः आश्रितः प्रारब्धः पुण्डरीकपण्डस्य श्वेतारविन्दएमूहस्य डम्बरो१५ नुकारी यस्यां सा, विडम्बितेति-विम्बितस्तिरस्कृतः शिखण्डिवहणिां मयूरपिच्छाना भर: समूहो येस्तैः
कचनिचयैः केशकलापैः कल्पिती विहितो शैवालविलासो जलनीलीविभ्रमो यस्यां सा, बिलसदितिविलसन्तो द्योतमाना य उडुनिकरा नक्षत्रसमूहास्तद्वनिमलैः मौलिमौक्तिकप्रकरः मुकुटमुक्ताफलसमूहै: प्रकटिता पुलिनशोमा तटशोमा यस्याः सा, हरिदिभेति-हरिदिभानां दिग्गजाना करदाताः शुण्डाददास्ताननुकुर्वन्तीत्येवंशीलस्तैः भुजैर्बाहुभिः तरद्भिः प्लवमानैः भुजङ्गमैरिव नागरिव सरलीकृता चलीकृता, कृत्तेति-आदी कृत्ताश्छिमाः पश्चात्पातिता इति कृत्तपातितास्तान् तथाभूतान् पादपानिव वृक्षानिव कथधान् शिरोरहितमृतमानवदेहान् कर्षन्ती नयन्ती दिगन्तानां कूलं तर कषतोति खण्डयतीति दिगन्तकूल. कषा 1 न्यवर्तिष्ट चेति-मयेन भीत्याविष्टं मनो यस्य तथाभूतः काष्ठाङ्गारप्रमुखः प्रत्यर्थिपार्थिवलोकः शत्रुनृपतिसमूहः प्रधनान् समरात् न्यवतिष्ट च निवृत्तो बभूव च ।
प्रकट हुई क्रोध जनित लालिमारूपी बिजलोसे जिनका शरीर प्रकाशमान हो रहा था ऐसे २५ असमय में प्रकट हुए मेघके समान जीवन्धरकुमारने ज्योंही बाणोंकी धाराको वर्पाना शुरू
किया त्यों ही राजारूपी पर्वतोके नवीन खण्डित कण्ठरूपी कन्दराओंसे म्बुनकी वह नदी वह निकली जिसने कि अपने शब्दसे समस्त दिशाओंके अन्तरालको शब्दायमान कर रखा था। काशकी पुष्पमंजरीके समान सुन्दर चामरोंसे जिसमें फेनपट लकी शोभा उत्पन्न हो रही थी।
शरद ऋतुके मेघमण्डलके समान छत्रोंसे सफेद कमलोंके समूहका आडम्बर प्रकट हो रहा १. था। मयूरकी पिच्छावलीकी विडम्बना करनेवाले केशोंके समूहसे जिसमें शैवालको शोभा
प्रकट थी। चमकते हुए नक्षत्रसमूह के समान निर्मल मोतियों के समूह से जिसमें तटोंकी शोभा प्रकट थी। दिग्गजोंके झुण्डादण्डके समान भुजाओंसे जो तैरते हुए सोसे हो मानो चंचल थी। काट कर गिराये हुए कबन्धोंको जो वृक्षोंके समान खींच रही थी और जो दिशाओं
के अन्तरूपी किनारोंको घिस रही थी। काष्ठाङ्गार आदि शत्रु राजाओंका समूह भयभीत हो ३५ मृत्युमप एक फलसे युक्त युद्धसे वापस लौट गया।
१. म० स्फुटकपोलकोपराग।
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-- जीवंधरस्य विवाहः ] तृतीयो कम्मः
१८५ - ११८. तदनु यथायथं गतेषु पलायमानबलपु पराजयलज्जानिमीलितमुखच्छायेयु पाणिवेषु परिहृतामरुम्मिषितगुणानुरागैः पौरवृद्धरभिनन्दितगुणगणगरिमा जीवकस्वामो जीवितवल्लभया जयलक्ष्म्येव मूर्तिमत्या श्रीदत्ततनयया सह समसमयअहतमृदङ्गमर्दलपटहमेरो जन्मता नव जलधरवानामोरेयेगा लेग गरीशिलपिड माडलकाण्डे ताण्डवयन्नात्ममुखकमलविलोवनविनिर्गतयुवति नयनकुवलयितगवाक्षेण नवसुधालेपधवलितवलभीनिवेगेन स्पर्शनचलितशिखर- ५ पताकापटताडितपयोधरमण्डलेन विमलसलिलधारासंदेहिमुग्धचातकचञ्च चम्व्यमाननिर्यहनिहितमुक्तासरेण द्वारदेशनिवेशितपूर्णकुम्भेन समुत्तम्भितमणितोरणमरीचित्रितेन्द्र चापचमत्कारेण विप्र
११५. तदन्विति--तदनु युद्धविजयानन्तरम् पलायमानं बलं मन्यं षां तप पराजयन पराभवेन या लज्जा पा तया निमीलिता मुखच्छाया बदनकान्तियेषां तेषु पार्थिवेषु नृपेषु गतेपु सासु परिहतस्त्यकोऽमर्षः कोधी ग्रंषा तैः, उनिमषितः प्रकटितोऽनुरागो येषां तैः परिवृद्धागरिकवृद्धजनै: अभिनन्दितः १० प्रशंसितो गुणगरिमा यस्य तथाभूतो जीवकस्वामी जीवितादपि वल्लमा प्रिया तया मतिमत्या जयलक्ष्म्यच . विजयक्रिय व श्रीदत्ततन यया गन्धवंदत्तया सह समसमयं युगपत् प्रहतास्ताडिता या मृदङ्गमदलपटहभेर्यो मुरजादयो वादिविशेषास्तेभ्यो जन्म यस्य तन, नवजलधराणां नृतनवारिदानां ध्यानस्य शब्दस्यावधीरणे तिरस्करण धौरेयः प्रमुखस्तेन, वेण शम्देन नगरीशिखण्डिमण्डल पुरीकलापिकलापम् अकाण्डऽसमये ताण्डवयन् नटयन् , आत्मेति-मात्मनः स्वस्य मुखकमलस्य बदनारविन्दस्य विलोकनाय विनिगत- १५ नि:मनयंतिनयनस्तरुणीलोचनः कुवलयिता नीलोत्पल युक्ता गवाक्षा यस्मिन् तेन, नवेतिनवसुधाया नूतनचूर्णस्य लेपेन, धवलिताः शुक्लीकृता बलमीनिवेशा गोपानसीसमूहा यस्मिन् तेन, स्पशनेति-स्पर्शनेन वायुना चलितानि शिखराणि यासा तथाभूता याः पताका वजास्तासां पटेन ताडितं पयोधरमण्डलं मंघमण्डलं यस्मिन् तेन, विमलेति-विमलसलिलधारा उज्ज्वलजलधाराः संदिहन्तीत्येवंशीला ये मुग्धचातकास्तेषां चञ्चुभिस्त्रोटिभिश्चुलुम्ब्यमाना नि!हंषु मत्तबारणेषु २० निहिताः लग्थिता मुक्तासरा मौकिकदामानि यस्मिन् तेन, हारेति-दारदेशेषु प्रतीहारपक्षेपु निवेशिताः स्थापिताः पूर्णकुम्माः पूर्णकलशा यस्मिन् तेन, समुत्तम्मितेति-समुत्तम्मिताः समुत्थापिता ये मणि. तोरणास्तेषां मरीचिमिः रश्मिभिः सूचितः प्रारब्ध इन्द्रबापचमत्कारः शक्रशरासनचमत्कारो यस्मिन् तेन,
पहासा,
लोकः
शुरू
बिह था।
शोभा टोंकी
६ ११८. तदनन्तर जिनकी सेना तितर-बितर हो गयी थी और पराजयजनित लज्जासे .. जिनके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी ऐसे राजा लोग जब यथायोग्य स्थानोंपर चले गये २५ तब क्रोधसे रहित एवं गुणों में अनुरागको प्रकट करनेवाले नगर के वृद्ध पुरुपोंसे जिनके गुण. समूहकी गरिमाका अभिनन्दन हो रहा था, ऐसे जीवन्धरस्वामी, मूर्तिमती विजयलक्ष्मीके समान प्राणवल्लभा गन्धर्वदत्ताके साथ गन्धोत्कटके भवनको प्राप्त हुए। भवनकी और जाते नमय वे एक साथ ताड़ित मृदङ्ग, मर्दल, पटह और भेरीसे उत्पन्न एवं नूतन मेघगर्जनाको तिरस्कृत करनेमें निपुण शब्दसे नगरीके मयूरमण्डलको असमयमें ही ताण्डव नृत्यसे युक्त कर ३० रहे थे। वे जिस मार्गसे जा रहे थे उसके झरोखे अपना मुखकमल देखने के लिए निकली हुई तरुण स्त्रियों के नेत्रोंसे कुवलयित-नील कमलोंसे व्याप्त हो रहे थे । वलभियाँ नवीन कलई. के लेपसे सफेद थीं। हवासे चंचल शिखरोंकी पताकाओंके वस्त्रसे वहाँ मेघमण्डल ताड़ित हो रहा था। उसके छज्जोपर जो मोतियोंकी मालाएँ टॅगी हुई थीं उन्हें निर्मल जलधाराका सन्देह करनेवाले चातक पक्षी अपनी चोंचोंसे चूम रहे थे। दरवाजोंपर पूर्ण कलश रखे हुए थे। ३१ खड़े किये हुए मणिमय तोरगोंकी किरणीसे वहाँ इन्द्रधनुपका चमत्कार प्रकट हो रहा था ।
२४
मानो
ना
ति हा
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गद्यचिन्तामणिः
[ ११९ गन्धर्वदशया सहकीर्णविविधकुसुमपुलकित धरणीतलविराजिना राजमार्गेण किंचिदन्तरमतिक्रम्य दिशि दिशि दृश्यमानतुङ्गशिखर सहसूसंकोचितवियदाभोगमहिमकररथमार्गनिरोधनोन्मुखं विन्ध्याचलमिव विलोमानं क्वचिदद्भितमिव सिन्धुरैः क्वचित्तरङ्गितमिव तुरङ्गमैः क्वचित्पल्लवितमिव पद्मरागप्रभाप्रसरैः क्वचिच्छाद्वलितमित्र महेन्द्रनीलमयूखलतावितानैः क्वचित्सिकतिलमिव मुक्ताफलराशि५ भिरुपरि शोभमानं मधरितकुबेरभवन वैभवं बहुविधैश्वर्योत्कटं गन्धोत्कटसदनं समाससाद
$ ११९. अथ गुणरात्रापण गुगवति वधूमनोरथकल्पशखिनि वरहृदयानन्दपयोधिविजृम्भणचन्द्रोदये चारणचकोरजीवितवर्धनजीभूते कुसुमके लुकलहंस के लीकमलकानने
१८६
विद्यकीर्णेत्रि—विद्यकीर्णानि प्रसारितानि यानि विविधकुसुमानि तैः पुलकितं धरणीतलं तेन विराजते शोभत इत्येवंशीलस्तेन राजमार्गेण प्रधानमार्गेण किंचित् किमपि अन्तरमन्तरालम् अतिक्रम्पोहरुङज्य गन्धोत्कट१० सदनं समाससाद प्रापेति कर्तृक्रियासंबन्धः । अथ गन्धोत्कटभवनस्य विशेषणान्याह - दिशि दिशीति-दिशि दिशि प्रतिदिशम् दृश्यमानानि त्रिलोक्यमानानि यानि शिखराणि सूत्रतशृङ्गाणि तेषां सहस्रेण संकोचितो विषदाभोगो गगनविस्तारो येन तत्, अहिमंति- अहिमकरस्य सूर्यस्य यो रथः स्यन्दनं तस्य मार्गस्य निरोधन उन्मुखं तत्परं तत्, अतएव विन्ध्याचलमित्र विन्ध्यादिमित्र विलोक्यमानं दृश्यमानम्, कुत्रापि सिन्धुरैर्गजैः अभ्राणि संजातानि यस्मिन् तत् अभ्रितं मेधयुक्तमिव क्वचित् कुत्रापि १५ तुरङ्गमैरश्वैः तरङ्गाः संजाता यस्मिन् तत् कल्लोलयुक्तमित्र, क्वचित् कुत्रापि पद्मरागाणां लोहितप्रममणीनां प्रमाप्रसरः कान्तिसमूहैः पल्लवाः संजाता यस्मिन् तत् किसलययुक्तमिव क्वचित्कुत्रापि महेन्द्रनीलस्य मणिविशेषस्य मयूखाः किरणा एत्र लताविताना वल्लीसमूहास्तैः शादकाः संजाता यस्मिन् तत् हरितघास मित्र क्वचित्कुत्रापि मुक्ताफलराशिमिमौतिकपुत्रैः सिकता विद्यन्ते यस्मिन् तत् सिकतिलमिव सिकतायुक्तमित्र, उपरि ऊर्ध्वं शोभमानम्, अधरितः कुबेरभवनस्य वैमवो येन तत्, बहुविधं नाना२० प्रकारं यदैश्वर्यं तेनोत्कटं संपनम् ।
२५
११. अथेति — अथानन्तरं गणरात्रापगमे श्रहुरजनी व्यपगमे सति गणकराणेन देवशवृन्देन गणिते गुणवति प्रशस्त गुणसहिते वध्वा मनोरथस्य वल्पशास्त्री तस्मिन् वधूमनोरथपूरक इत्यर्थः, वरस्य हृदयस्यानन्द एव पयोधिः सागरस्तस्य विजृम्भणे वर्धने चन्द्रोदये, चारणा भागधा एव चकोराः पक्षिचिदशेपास्तेषां जीवितस्य वर्धनाय जीमूतो मेघस्तस्मिन् कुसुमकेतुः काम एव कलहंसः कादम्वस्तस्य केलो और afrat हुए नाना प्रकार के फूलोंसे पुलकित पृथिवीतलसे सुशोभित था । उस राजमार्गसे कुछ अन्तरको लाँघकर वे गन्धोत्कटके उस भवन में पहुँचे जहाँ प्रत्येक दिशा में दिखाई देनेवाली हजारों ऊँची शिखरोंसे आकाशका विस्तार संकोचित हो रहा था। जो सूर्यके रथ के मार्गको रोकने के लिए उन्मुख विन्ध्याचल के समान दिखाई देता था जो कहीं हाथियोंसे मेघों से व्याप्त के समान जान पड़ता था । कहीं घोड़ोंसे लहराता हुआ-सा ३० दिखाई देता था । कहीं पद्मराग मणियोंकी प्रभाके समूह से पल्लबोंसे व्याप्त के समान मालूम होता था । कहीं इन्द्रनील मणियोंको किरणलता के विस्तारसे हरी-हरी घाससे युक्त जैसा जान पड़ता था । कहीं मातियोंकी राशिसे बालूसे युक्तके सदृश शोभायमान था । कुबेरके भवन के वैभवको तिरस्कृत करनेवाला था और नानाप्रकार के ऐश्वर्य से श्रेष्ठ था ।
$ ११२. तदनन्तर कुछ रात्रियों के व्यतीत होनेपर ज्योतिषियों के समूह से निर्धारित, ३५ गुणवान, वधूके मनोरथोंको पूर्ण करनेके लिए कल्पवृक्ष, वरके हृदयसम्बन्धी आनन्दसागरको बढ़ाने के लिए चन्द्रोदय, चारणरूपी चकोरोंके जीवनको बढ़ाने के लिए मेघ,
१. क० तुरः । २. ० ० ० मुक्ताफलराशिभिरुपशोभमानम् । ३. क० ख० गु० आससाद |
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-जीवंधरस्य विवाहः ]
सृतीयो लम्भः कलगीतिकलकण्ठनिनदावतारवसन्ते संतोषसरसिजविकासदिवसारम्भे संनिहितवति परिणयनदिवसे प्रशस्ते च मुहूर्ते मोहूर्तिकानुमते जीवकस्वामी तदात्त्रपरिकल्पितं प्रयतमहीसुरहूयमानहुतवहं संनिहितसमिदाज्यलाजं स्थानस्थानस्थितबन्धुलोकमुल्लो कदीयमानताम्बूल कुसुमाङ्गरागमुद्भटताड्यमानमङ्गलपटहं वाद्यमानवादित्रवल्लकीवल्गुरववाचालितं पूर्यमाणासंख्यशङ्खवेणुशब्दायमानदशदिशापरिसरं परिणयनमणिमण्डपमधिरुह्य पुरंदरदिशाभिमुखस्तिष्ठन्स्नातानुलिप्तः प्रत्यग्रविहिताभि- ५ पेकाम, आपादमस्तकमारचितेन चन्द्रमरीचिगौरेण चन्दनाङ्गरागेण निजदुहितशङ्कया दुग्धजलनिधिनेव परिष्वक्ताम्, आभरणमणिमयूखमालाच्छलेन रमणपरिरम्भणाय न पर्याप्तं भुजयमिति फीडा तस्य कमलकाननं पारिजविपिनं तस्मिन् , कलगीतयः सुन्दरगीतय एवं कलकण्ठनिनदाः कोकिलकलरवास्तेषामवताराय वसन्तस्तस्मिन्, संतोष एवं सरसिजानि कमलानि तेषां विकासाय दिवसारम्भा. हर्मुखं तस्मिन् , परिणय दिवसे विवाहवासरं मोहूर्तिकानुमते देवजस्मते प्रशस्तं शुभ मुहूर्तं च संनिहित- १० वति सति, जीवकस्वामी जीवंधरः तदात्वे तत्काले परिकल्पितं निर्मितं प्रयतैः सावधानमही सुरविप्रैहूयमानो हुतवहो यस्मिन् तम्, समिधश्चाज्यञ्च लाजाश्चति समिधाज्यलाजा होमन्धनधृतभर्जितधान्यपुष्पाः संनिहिताः समीपस्थिताः समिधाज्यलाजा यस्मिन् तम्, स्थाने स्थान स्थिता बन्धुलोका इष्टजना यस्मिन् तम्, उल्लोकैहत्कृष्टजनैः उहलोकं भूयिष्टं वा यथा स्यात्तथा दीयमानास्ताम्बूल कुसुमारामा नाग वल्लीदलादयो यस्मिन् तम् उद्भटमत्यन्तं यथा स्यात्तथा ताब्यमाना मगलपटहा मजलानका यस्मिन् तम्, ११ 'भानकः परहो ढक्का' इत्यमरः, वाघमानानि वादियाणि वाद्यानि वल्लकीनां वीणानां वल्गुरबाश्च सुन्दरशब्दाइस तैर्वाचालितं मुखरितम्, पूर्यमाणमुखवायुना भ्रियमाणैरसंख्यशङ्खवेणुमिरपरिमितकम्बुवंशैः शब्दायमानो दशदिशापरिसरो यस्मिन् तम्, तधाभूतं परिणयनमणिमण्डपं विवाहरनास्थानम् अधिरुह्य, पुरन्दरदिशामिमुखः प्राच्यभिमुखः तिष्ठन् आदी स्नातः पश्चादनुलिप्त इति स्नातानुलिप्तः सन् गन्धर्वदत्ता विधिवत् यथाविधि उपायंस्त परिणिनाय 1 अथ गन्धर्षदत्ताया विशेषणान्याह-प्रत्यग्नं नवीनं यथा . स्यात्तथा विहितोऽमिचेको यस्यास्ताम्, आपादमस्तकं पादादारभ्य आमस्तकमित्यापादमस्तकम् आरचितेन कृतन चन्द्रमरीचिगौरेण हिमकरकरधवलेन चन्दनाङ्गरागण मलयजाविलेपनन निजदुहनृशष्ट्या स्वसुतासन्देहेन दुग्धजलनिधिनेव क्षीरसागरेण परिष्वक्तामिवालिङ्गितामिव, आभरणानां मणिमयूरलाः रस्मरश्मयस्तेषां मालायाश्छलेन रमणपरिरम्भणाय पत्यालिङ्गनाय भुजद्वयं बाहुयुगलं पर्याप्तम् इति इंतो: कामरूपी कलहंसकी क्रीड़ाके लिए कमलवन, सुन्दर संगीतरूपी कोयलकी कण्ठध्वनिको २५ प्रकट करनेके लिए घसन्त और सन्तोषरूपी कमलोंको विकसित करने के लिए प्रातःकाल स्वरूप विवाह दिवसके निकट आनेपर ज्योतिषियों के द्वारा अनुमत प्रशस्त महत में जीवन्धरस्वामी विवाह के उस मणिमय मण्डपमें अधिरूढ़ हुए जिसकी रचना तत्काल की गयी थी, प्रयत्नशील ब्राह्मणों के द्वारा जहाँ अग्निमें हवन किया जा रहा था, जहाँ समिधा घी और लाई पास में रखी हुई थी, जहाँ जगह-जगह बन्धजन बैठे हुए थे, 30 जहाँ उत्तम मनुष्यों के द्वारा पान, फूल तथा अंगराग दिये जा रहे थे, जहाँ मंगलमय बाजे। जोर-जोरसे ताडित हो रहे थे, जो वजाये जानेवाले बाजों और चीणाकी सुन्दर ध्वनिसे शब्दायमान था, और पूरे जानेाले असंख्यात शंखों तथा बाँसुरियोंसे जहाँ दशों दिशाओंक तट शब्दायमान हो रहे थे। स्नानके बाद चन्दनका लेप लगाये हुए जीवन्धरस्वामी उस विवाहमण्डपमें पूर्वाभिमुख होकर बैठे। तदनन्तर जिसे अभी हाल स्नान कराया गया था। , पैरसे लेकर मस्तक तक लगाये हुए, चन्द्रमाकी किरणोंके समान गौरवर्ण चन्दनके अंगरागसे जो एसी जान पड़ती थी मानो अपनी पुत्रीकी झंकासे झीर समुद्र के द्वारा ही आलिगिन हो। आभूषणों में लगे मणियोंकी किरणाचलीके छलसे जो ऐसी जान पड़ती थी मानो पतिका
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गद्यचिन्तामणिः
बहूनि बाहूनारचयन्तीम् अवतंसकुसुमपरिमलचपलैरतिमधुरं क्वर्णाद्भरलिकुलैः 'इह जगति जीवकाद्वरीयान्वशे कश्चित्' इति व्यामि कर्ण कंदर्पशरासनपतितां विशिखकुसुममालामित्रकावली स्तनकलशयोरन्तरे कलयन्तीम्, दुर्वहत्रपाभरेणेव किंचिदवनतमुखीम्, रणता रत्ननूपुरयुगलेन 'निखिलयुवतिदुर्लभं वल्लभमियमिव समासादयितुं चरत दुश्चरं तपः ' : इत्युपदि५ शतेवोपशोभिताम् उपात्तमङ्गलवेषाभिरुन्मिर्पितभूषणप्रभाकुलित लोकलोचनाभिरवनिमवतीर्णाभिरभगुराभिरपराभिरिव विद्युद्भिविद्याधरवनिताभिरुपनीताम् गृहीतार्थवेषेण श्रीदत्तेन प्रतिपादितां गन्धर्वदत्तां विधिवदुपायंस्त ।
१२० इति श्रीमद्राभसिरिविरचिते गद्यचिन्तामणी गन्धर्वदत्तालम्भी नाम तृतीयो लम्भः ।
१८८
३५.
बहून् बाहून् भुजान् आर वयन्तीमित्र अवतंसकुसुमानां कर्णाभरणपुष्पाणां परिमलेन सौगन्ध्येन चपलास्तरला१० स्तैः अतिमधुरं मिष्टतरं यथा स्यात्तथा क्वणद्भिः शब्दं कुर्वाणैः अलिकुलैर्भ्रमरशब्दः इह जगति लोकेऽस्मिन् जीवकाद वरीयान् श्रेष्ठो वरः कश्चित् कोऽपि न विद्यते इति कर्णजापै कथ्यमानाभित्र कन्दर्पस्य कामस्य शरासनाद् धनुषः पतितां भ्रष्टां विशिखकुसुममालाभित्र बागपुष्पराज मित्र एकावलीम् एकयष्टिम् स्तन - कलशयोः कुचकलशयोः अन्तरे मध्ये कलयन्तीं दधतीम्, दुर्बहो दुःखेन वोढुं शक्यो यस्त्रपाभरो लज्जासमूहस्तेनैव किंचित् मना अवनतं नत्रं मुखं यस्यास्ताम्, रणतः शब्दं कुर्वता रत्ननू पुरयुगलेन मणिमय१५ मञ्जीरकयुग्मेन 'निखिल युवतिदु मं सकलयोषादुष्प्राप्यं वल्लमं प्रियम् इयमित्र गन्धर्वदत्तेन समासादयितुं
लब्धुं दुश्वरं कठिनं तपः चरत' इतीत्यम् उपदिशतेव कथयतेव उपशोभितामलंकृताम् उपात्तो गृहीतो मङ्गलवेषो याभिस्तामिः उन्मिपितया प्रकटितया भूषणप्रभयाकुलितानि चिल्लीकृतानि लोकलोचनानि नरनयनानि याभिस्ताभिः अवनिं महीम् अवतीर्णामि: आगनाभिः अपराभिरन्याभिर्विद्युद्धिविद्भिरिव विद्याधरवनिताभिः खगाङ्गनाभिः उपनीतां प्राप्तां सहितामिति यावत् गृहीतो धृत आर्यचेपो येनं तेन २० श्रीदत्तेन वैश्यपतिना प्रतिपादितां दत्ताम् ।
+
§ १२८. श्रीमङ्कादीमसिंह सूरिविरचितं गद्यचिन्तामणी गन्धर्वदत्तालम्भी नाम तृतीयो लम्भः ।
आलिंगन करने के लिए दो भुजाएँ पर्याप्त नहीं हैं इसलिए बहुत-सी भुजाएँ ही रच रही हो। कर्णभूषण के फूलों की सुगन्धिसे चपल एवं अत्यन्त मधुर शब्द करनेवाले भ्रमरसमूह उसके कानों में मानो यही कह रहे थे कि इस संसार में जीवन्धरसे बढ़कर कोई दूसरा वर नहीं हैं । २५ जो कामदेव के धनुषसे पड़ी बाणरूप पुष्पमाला के समान एक लड़ की मालाको स्तनकलशों के बीच में धारण कर रही थी । बहुत भारी लज्जा के भारसे ही मानो जिसका मुख कुछ-कुछ नीचेकी ओर झुक रहा था। जो रुणझुण करनेवाले रत्नमयी नूपुरोंके उस युगलसे सुशोभित थी जो मानो यही उपदेश दे रहे थे कि समस्त युवतियोंके लिए दुर्लभ पतिको पानेके लिए इसके समान कठिन तपश्चरण करो। मंगलवेपको धारण करनेवाली, भूषणोंकी जगमगाती प्रभासे ३० मनुष्यों के नेत्रों में चकाचौंध उत्पन्न करनेवाली और पृथिवीपर उतरी हुई दूसरी स्थायी बिजलियोंके समान विद्याधरोकी स्त्रियों जिसे अपने साथ लायी थीं और जो आर्यवेशको धारण करनेवाले श्रीदत्तके द्वारा दी गयी थी ऐसी गन्धर्व दत्ताको जीवन्धरस्वामीने विधिपूर्वक विवाहा ।
५२०. इस प्रकार श्रीमान् वादामसिंह सूरिकं द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिम गन्धर्वदत्तकरंभ नामका गन्धर्वदत्ता की प्राप्तिका वर्णन करनेवाला तीसरा
लम्भ समाप्त हुआ ॥ ३ ॥
१. क० ख० ग० धारयन्तीम् ।
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चतुर्थो लम्भः
६ १२१. अथ तामुपयम्य स विकचकुसुममजरीजाल चूडालस्य चूततरोरधरछायायामालिखितेन रतियलयपदचिह्नशोभिभुजशिखरनिवेशितकामुकेण करकलितकतिपयकाण्डेन । कुसुमकोदण्डेनाधिष्ठितहिरिम्, दह्यमान कालागुरुधूमपटलकर्बुरेण कलिन्ददुहितृपरिष्वङ्गमेचकितसुरसरि- पवल त्प्रवाहसहोदरेण दुकूलवितानेन विलसितोपरिभागम्, अनङ्गयशोराशिसंनिकाशेन कैलासगिरितटविशालेन विमलोत्तरच्छदपरिष्कृतेन पकेण पाण्डुरिततलम्, अनुतलिममवस्थापितमणिपादुका- ५ युगलम्, अन्तर्गतताम्वूलदलवोटिकाश्यामायमानचामीकरकरण्डम्, कर्पूररेणुपरिसंबन्धच्छुरणपरि
६१२१. अथेति-अथानन्तरं तां गन्धर्वदत्ताम् उपयम्य विवाह्य स जीवंधरः कमलदृशा पद्माक्ष्या गन्धर्वदत्तयति यावत् सह कौतुकागारं क्रीडानिकंतनम् भगाहत प्रविधेश । अप कौतुकागारस्य विशेषणान्याह----विकचेसि-विकचेन प्रफुल्लेन कसममअरीजालेन पुष्पमञ्जरीसमूहन चूहालचूढायुक्तन । स्तस्य चूततरोराम्रवृक्षस्याधश्छायायामनात आलिखितेन अकितन, स्तेः स्वभार्याया वलयपदस्य मणिबन्ध- १० स्य चिह्नन शोभि विराजमान यद् भुजशिखरं तत्र निवेशितं स्थापित कार्मुकं धनुर्यस्य तेन, करयोहस्तयोः कलिता ताः कतिपयकाण्डा कतिपयआणा यस्य तन, कुसमकोदण्डन मदनन अधिष्ठित युक्त बहिवार यस्य तत्, दह्यमानेति-दह्यमानो भस्मोक्रियमाणो यः कालागुरुः कृष्णागुरुस्तस्य धूमपटलेन धूम्रसमूहेन कवुरेण चित्रितेन, अत एव, कलिन्ददुहितुर्यमुनायाः परिप्वङ्गेण समालिङ्गानेन मेचकितः श्यामलो यः सुरसरिस्प्रवाही गङ्गानदीप्रवाहस्तस्य सहोदरेण सहशेन दुकूलवितानेन क्षौमचन्द्रोपकेन विलसितः १५ सुशोभित उपरिभागो यस्य तत्, अनङ्गति-अनङ्गस्य स्मरस्य यशोराशिः कीर्तिपुञ्जस्तस्य संनिकाशः सशस्तन, कैलासगिरिवर इब हरगिरितट इन विशाल स्तन बिमलोत्तरच्छदेन समुज्ज्वलोत्तरपटेन परि
कृतः सहितस्तेन, पर्यण पाण्डुरितं धवलितं तलं यस्य तत्, अन्विति-अनुतलिम शय्यायाः समर्मापे. ऽवस्थापितं मणिपादुकायुगलं यस्मिन् तत्, अन्तर्गतेति-अन्तर्गतामिमध्ये स्थितामिस्ताम्बूलदलवीटिकामिनागवल्लीदलपुटिकाभिः श्यामायमानं चामीकरकरण्डं स्वर्ण करण्ड यस्मिन् तत् , कपूरेति-कर्पूरस्य २०
६१२१. अथानन्तर जोवन्धरकुमार गन्धर्व दत्ताको विवाह कर उसके साथ उस कौतुकगृह-क्रीडागृह में प्रविष्ट हुए. जिसका कि बाह्यद्वार खिली हुई पुष्पमंजरीके समूहसे चूडायुक्त आम्रवृक्षके नीचे लिखित, रतिकी कलाईके चिह्नसे सुशोभित भुजाके शिखर पर धनुषको रखनेवाले एवं हाथमें कुछ बाण धारण करनेवाले कामदेवसे सहित था। जलती हुई कालागुरुको धूमके समूहसे चित्रित अतएव यमुनाके समागमसे श्याम गंगा नदीके प्रवाह के २५ समान रेशमी चॅदोवासे जिसका ऊपरी भाग सुशोभित था। कामदेवके यशकी राशि के समान, कैलास पर्वतके तटरे, समान विशाल एवं निर्मल चद्दरसे सुशोभित पलंगसे जिसका फर्स सफेद-सफेद हो रहा था, जहाँ विस्तर के समीप ही मणिमयी पादुकाओंको जोड़ी रखी हुई थी, भीतर रखे हुए पानके बोड़ोंसे जहाँ सोनेकी डिब्बी हरी-हरी दिख रही थी, कपूरकी धूलिके
१. अनङ्गयशोराशिसन्निवेशावकाशेन । २. ख० सन्निवंशेन गः सनिवेशाकाशेन ।
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१९.
गधचिन्तामणिः
[ १२९ गन्धर्वदत्तया सहमलितदशेरनिशप्रज्वलितैरङ्गजप्रतापरिव मूर्तिद्भिर्मङ्गलप्रदीपमहितोपकाण्ठम्, हाटकपतद्ग्रहसनाथशयनीयपाश्चम, प्रदश्यमानविविचित्रवितीर्णनयनकौतुकम्, कौतुकागारं कमलदशा सहागाहत ।
१२२. अथ कतिचिदहानि हरिणाक्षी वैलक्ष्याकृष्यमाणा रमणमनोरथान्न पूरयामास । ततश्च शनैः शनैः कुसुमचापचापलसंधुक्षणविचक्षणोऽयमाक्षिप्य तदीयममन्दं मन्दाक्षमनया सममत्युल्बणरागान्धया गन्धर्वदत्तया क्रमादतिनिबिडपरिरम्भपरिपीडितस्तनतटस्, आवेगचुम्बितविधुताधरपल्लवम्, आदरविधीयमानकेशग्रहम्, आग्रहपुनरभिहिताघ्राणजर्जरितकपोलाङ्गरागम्, अङ्गविवर्तनविलुलितोत्तरच्छदकथितकामशास्त्रानुष्ठानवेशद्यम, अविरल घर्मबिन्दुजालकिततिलघनसारस्य रणवः परागास्तपां परिसंबन्धधुरणन संपण परिमलिताः सुगन्धिता दशा वर्तिका येषां
तैः अनिशप्रज्वलितः सततं प्रज्वलितैः मूर्तिमद्भिः सविग्रह: अङ्गजप्रतापरिव कामत जीभिरिव, मङ्गलप्रदीपैर्मङ्ग१० लोहेश्यकश्रेष्ठदीः महितोपकण्ठं शोभित समीपप्रदेशम् , हाटकेतिहाटकस्थ स्वर्णस्य पतहहेण 'पीकदान'
इति हिन्धी प्रसिद्धेन सनाथः सहित: शयनीय राञः पर्यनिकर प्रदेशो यस्मिन् तत् , प्रदृश्यमानैतिप्रदृश्यमानरवलोक्यमानविविधचित्रै नाचित्रेवितीण प्रदत्तं नयनकौतुकं यस्मिन् तत् ।।
६१२२. अथेति-अथानन्तरं हरिणस्येवाक्षिणी यस्याः सा तथाभूता गन्धवंदसा बैलक्ष्याकृष्य. माणा अपावशीभूना सती कतिचिदहानि कतिपयदिवसान् यावत् रमणमनोरथान् पत्यभिलषितानि न १५ पूरयामास । ततश्चेति--ततश्च तदनन्तरं च शनैः शनि मन्दं गाणस्य कामम्य चापलं चञ्चलत्वं
तस्य संधुक्षणे प्रदीपने विचक्षणो निपुणस्तथाभूतः, अयं जीवंधरः तदीयं तसंवन्धि अमन्दं विपुलं मन्दाक्षं त्रपाम् आक्षिप्य दूरीकृत्य अत्युत्बणेन तीव्रण रागेणान्य तया अनया गन्धर्वदत्तया नवोदया सम सार्क क्रमात अतित्रलं दीर्घकालपर्यन्तं सुरतं संभोगम् अन्वभवत् । भयं तस्य विशेषणान्याह-अति
निविडेन सान्त्रतरेण परिरम्भण समालिङ्गनेन परिपीडितं स्तनतटं यस्मिन् तत् , आवेगेन समोत्करध्येनादौ २० चुम्बितः पश्चाद्विधुतः कम्पितोऽधरपल्लवो यस्मिन् तत् , भादरेण प्रेमातिशयन विधीयमानः क्रियमाणः
कंशग्रहो यस्मिन् तत् , आग्रहेण हठेन पुनरभिहितं पुनरुक्तं यदाघ्राणं नासाविषयीकरणं तेन जर्जरितो विरलीकृतः कपोलयोरङ्गरागो यस्मिन् तत् , अङ्गविवर्तनन शरीर परिवर्तनेन विलुलितोऽस्तव्यस्तीकृतो य उत्तरच्छदः शय्योत्तापटस्तन कथितं सूचितं कामशास्त्रानुष्ठानस्य वैशद्यं नैपुण्यं यस्मिन् तत् , अविरलै.
सम्बन्धसे व्याप्त होने के कारण जिनकी बत्तियाँ अत्यन्त सुगन्धित थीं, जो रात-दिन जलते २५ रहते थे और मूर्तिधारी कामदेव के प्रतापके समान जान पड़ते थे ऐसे मंगलमय दीपोंसे
जिसका समीपवर्ती प्रदेश सुशोभित था, जहाँ शय्याका पार्श्वभाग सोनेके पीकदानसे सहित था, और दिखाई देनेवाले नाना चित्रों के द्वारा जिसमें नेत्रों के लिए कौतुक प्रदान किया जा रहा था।
१२२. तदनन्तर कितने ही दिन तक मृगनयनी गन्धर्वदत्ताने लज्जासे वशीभूत होने के ३० कारण पनिके मनोरथ पूर्ण नहीं किये। तत्पश्चात् धीरे-धीरे कामदेव की चपलताको वृद्धिंगत
करने में निपुण जीवन्धरकुमार उसकी वहुत भारी लज्जाको दूर कर अत्यधिक रागसे अन्धी इस गन्धर्वदत्ताके साथ क्रम-क्रमसे दीर्घकाल तक सम्भोगका अनुभव करने लगे। उनके उस सम्भोगमें अत्यन्त गाढ़ आलिंगनसे स्तनोंके तट पीड़ित हो रहे थे। अधर पल्लव वेगसे चुम्बित
होने के कारण काँप रहा था। आदरपूर्वक केश ग्रहण हो रहा था-शिरके बाल सहलाये ३५ जा रहे थे । आग्रहपूर्वक बार-बार सूंघनेसे गालोपरका अंगराग जर्जर हो रहा था। शरोरके परिवर्तनसे अस्तव्यस्त हुए चादरसे कामशास्त्रमें कहे अनुष्ठान कार्यकी विशदता
१. क० ख० ग० लक्षण्याकृष्यमाणा ।
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जीवंधरस्य विलासाः ]
चतुर्थी लम्भः
कम्, अपत्रपानिर्वापित निकटदीप्रदीपम् अतिरभसकच ग्रहविशीर्णमाल्य कुसुमपुलकितशयनम्, अतितारसीत्कार विडम्बित मदनमौर्वीरसितम् आकस्मिक प्रणयकलहविहितपादप्रहार रणितमणिनूपुरम्, अश्वान्तवर्धमानकुतूहलम् अतिवेलं सुरतमन्त्रभवत् ।
1
$ १२३. इत्यमनुभवति संसारसोख्यसारासारङ्गदृशा तथा सह तस्मिन्रतिविलासाविषमशरस्य साचिव्यमिवारचयितुमाजगाम जगती रुशिखरशेखरैः खरेतर किसलयराशिभिरुप- ५ शोभितवनान्तो वसन्तः । प्रविशति भुवनगृहमनङ्गनृपसामन्ते वसन्ते पुण्याहमिवोच्चारयांबभूवुभूतकलरवमुखरितकण्ठाः कलकण्ठाः । क्रमेण च विकचकुसुमनिचयपरिमलितदशदिशि, मनोनिरन्तरैर्धर्म विन्दुभिः स्वेदसलिलशीकरैजल कितं व्याप्तं तिलकं यस्मिन् तत् अपनाया लज्जातिशयेन निर्वापिता विव्यापिता निकटदीनाः समीपे प्रकाशमानाः प्रदीपा यस्मिन् तन्, अतिरभसेन वेगातिशयेन यः कचग्रहः केशग्रहस्तेन विशीर्णानि त्रुटितानि यानि माल्यानि तेषां कुसुमैः पुष्पैः पुलकितं रोमाञ्चितं १० व्याप्तमिति यावत् शयनं यस्मिन् तत् अतितारेण विपुलपरिमाणेन सीत्कारेण दशनच्छददशनजनितेन विम्बितं तिरस्कृतं मदनस्य स्मरस्य मौवरसितं प्रत्याशब्दो यस्मिन् तत्, आकस्मिकेन प्रणयकलहेन विहितः कृतो यः पादप्रहारस्तेन रणितानि शिञ्जितानि मणिनूपुराणि यस्मिन् तत् अश्रान्तं यथा स्यात्तथा वर्धमानं कुन रास्मिन मत्
"
1
१२३. इत्थमिति - इत्थमनेन प्रकारेण तस्मिन्नू जीवके सारङ्गटा मृगनेध्या तथा गन्धर्वदत्तया १५ सह संसारसौख्येषु भव सुखेषु सारा: श्रेष्ठशस्तान् रतिविलासान् संभोगविभ्रमान् अनुभवति सति, विषमशरस्य मारस्य साचिव्यं साहाय्यम् भारचयितुमिव कर्तुमिव जर तीरुहाणां वृक्षाणां शिखराणि तेषां शेखराणि शीर्षालङ्कारभूतानि तै: खरेतर किसलयानां मृदुलपल्लवानां राशिभिः समूहैः उपशोभितो वनान्तो येन तथाभूतो वसन्त ऋतुराजः आजगाम । प्रविशतीति — अनङ्गनृपस्य कामभूपालस्य सामन्तो मण्ड श्रस्तथाभूते वसन्ते मत्री भुवनगृहं संसारसदनं प्रविशति सति उद्भूतेन समुत्यनेन कलरवेण मुखरिता २० चाचाला : कलकण्ठाः मधुरकष्ठा येषां तथाभूताः कलकण्ठाः पिकाः पुण्यरहमिव मङ्गलपाठमिव उच्चारयांबभूवुः । क्रमेणेति — क्रमेण च मधुसमये वसन्तर्ती प्रकृष्यमाणे सति अथ मधुसमयस्य विशेषणान्याह - विकचेति - विकचानां प्रफुल्लानां कुसुमानां सुमनसां निचयेन समूहेन परिमलिताः सुगन्धिता दश दिशो
}
१९१
प्रकट हो रही थी । लगातार प्रकट हुए पसीनाकी बूँदोंसे तिलक जालीसे युक्त जैसा हो रहा था। लनाके कारण समीप जलता हुआ देदीप्यमान दीपक बुझा दिया गया था । २५ अत्यन्त वेगपूर्वक बाल खींचनेसे टूटी हुई मालाओंके फूलोंसे शय्या पुलकित हो रही थी । जोरदार सी-सी शब्द से कामदेव के धनुपको डोरीका शब्द विडम्बित हो रहा था। अचानक
कहके कारण किये हुए पादप्रहारसे मणिमय नूपुर झनकार कर रहे थे और बिना किसी थकावट के कौतूहल बढ़ रहा था ।
६१२३. इसप्रकार जब जीवन्धरकुमार उस मृगनयनी के साथ संसारसुखके सार ३० भूत कामदेव सम्बन्धी रति-विलासों - संभोग-क्रीड़ाओंका अनुभव कर रहे थे तब उनकी सहायता करने के लिए ही मानो वृक्षोंके शिखरों पर सेहरों के समान सुशोभित कोमल पल्लवोंके समूह से बनके अन्तभागको सुशोभित करनेवाली वसन्त ऋतु आ पहुँची । कामदेवरूपी राजा के सामन्तस्वरूप वसन्तने ज्यों ही संसाररूपी घर में प्रवेश किया त्यों ही प्रकट हुई अव्यक्त मधुर ध्वनिसे जिनके कण्ठ शब्दायमान हो रहे थे ऐसे कोयल मानो 'पुण्याहं पुण्याहु ३५ शब्दका उचारण करने लगे । क्रम-क्रमसे खिले हुए फूलों के समूहसे जहाँ दसों दिशाएँ
१. क० 'दीप' पदं नारित ।
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गद्यचिन्तामणिः
[१२३ गन्धर्वदत्तायाः - रथाधिकमकरन्दलाभमत्तमधुकरम शिञ्जितमुखरितवनभुवि, नवसहकारकन्दलदलनकेलीदुर्ललितकलनोकिलगलगुहागर्भसंचितपञ्चमप्रपजिनम-नाशर नेमावेटिव मानिस हिणि निद्नमाणदक्षिणासमोरणतरलिततरुणपल्लवचूडालचूतविटपिनि, स्फुटितपाटलीकुसुमपाटलिमपल्लविताकाण्ड
संध्यासंपदि, समुन्मिषितकोरकपुलकितकुरवकमनोहारिणि, मन्मथमहोत्सवसमारोपितमणिप्रदीप५ सहचरित चम्पकशाखिनि, चञ्चरीकचक्र चरणाक्रमणपत्तदविरलसुमनोभरसमुन्नतवलतरशिरसि,
प्रभजनप्रकम्पितकरजशिखरविकीर्यमाणसुमनःसूचित्तकुसुमशरसहचरागमहर्षविहितवनलक्ष्मीलाजबर्षे, प्रकृष्यमाणे मधुसमये, अभिनववनागगावगाहनकेलीदोहलतरलितमनसः पौराः सह पुरंध्रीयस्मिन् तस्मिन् , मनोरथेति-मनोरथादभिलषितादधिकस्य मकरन्दस्य कौसुमर य लाभेन 'मत्ता थे
मधुकरी विरेफास्तेषां मम्जुशिक्षिरेन मनोहराज्यक्तशब्देन मुखरिता बाचाला वनभूः काननखनिर्यस्मिन् १० तस्मिन , नवेति---नवानां नूतनानां सहकारकन्दलानामतिसौरभाम्राराणां दलन केल्या खण्डनक्रीडया
दुलहिता मनोहरा याः कलकोकिलगलगुहा अन्यतमधुरपिककण्ठगहराणि तासां गर्भ मध्ये संचितो यः पञ्चमः पञ्चमाझ्यस्परविशेषस्तेन प्रपञ्चिता वर्धिता या पञ्चशस्वेदना कामपीडा तस्या वेगेन विवशा व्याकुला विरहिणी वियोगिनो यस्मिन् तस्मिन् , विहरमाणेति-विहरमाणेन चलता दक्षिणसमीरणेन
मलयमरता तरलिताश्चपलीकृता ये तरुणपलमाः प्रत्यमकिसलयास्तैश्चदालाः चूदायुक्ताश्चतविटपिनी माकन्द१५ महीमहा यस्मिन् तस्मिन् , स्फुटितेति--स्फुटितानि विकसितानि यानि पाटलीकुसुमानि 'गुलाब' इति हिन्यां प्रसिद्धानि पुष्पाणि तेषां यः पालिमा श्वेतरतिमा तेन पल्लविता वधिता अकाण्डसच्यासंपद् आकालि कपितृप्रसूशोभा यस्मिन् तस्मिन् , समुन्मिषितेति-समुन्मिषितानि विकसितानि यानि कोरकाणि कुडमलानि तैः पुलकिता न्याता थे कुरवका वृक्षविशेषास्तैमनो हरतीत्येवंशीलस्तस्मिन्, मन्मथेति
मम्मथमहोत्सवाय कामोशवाय समारोपिताः स्थापिता ये मणिप्रदीपा रनदीपास्तैः सहचरिता सदृशाश्व२० म्पकसाखिनश्याम्पेयानोकहा यस्मिन् सस्मिन्, चचरीकेति-चचरीकचक्रस्य भ्रमरसमूहस्य 'चरणानामाक्रमणेन पतन्तो येऽविरलसुमनोमरा निरन्तरपुष्पप्रचयास्तैः समुसतानि वकुलतरुशिरांसि बकुलानोकहशिखराणि यस्मिन् तस्मिन् ,'प्रमझनेति-प्रभञ्जनेन तीयपवनेन प्रकम्पिताः चलिता ये करजाः करवृक्षास्तेषां शिखरेभ्यो विकीर्यमाणानि यानि सुमनांसि पुष्पाणि तैः सूचितं निवेदितं कुसुमर्शरसहचरस्य कामेंसुहेद
आगमहर्पण आगमनारम्येन विहितं कृतं वनलक्ष्मीलाजवर्ष वनश्रीलाजवृष्टिर्यस्मिन् तस्मिन् , अभिनषा २५ नूतना चा बनापगावगाहकेल्यो धनत्रवन्तीप्रवेशकोडास्ताभिस्तलितानि पश्चलीकृतानि मनांसि येषां तथा
सुगन्धित हो रही थीं। ईच्छासें अधिक मकरन्दकी प्राप्तिसे मंत्त भ्रमरों की मनोहर गुंजारसे जिसमें बनकी वसुधा शदीयमान हो रही थी । आमकी नयी-नयी कोंपलों के खण्डन करनेकी क्रीडासे मधुर कोकिलाओंकी सुन्दर काटरूपी गुहाके भीतर संचित पंचम स्वरसें बढ़ी हुई
कामवेदनाके वेगसे जिसमें विरही मनुष्य विवश हो रहे थे। चलती हुई मलय वायुसे चंचल ३० नकण पल्लवोंसे जहाँ आमके वृक्ष चोंटीसे सहित के समान जान पड़ते थे। खिले हरा गुलाबके
फलों को गुलाबीसे जहाँ असमयमें ही सन्ध्यार्की सम्पदा प्रकट हो रही थी। जो सब ओरसे प्रकट हुई बोडियोंसे युक्त कुरचक वृक्षोंसे मनको हरण कर रहा था । काम महोत्सव के लिए चढ़ाये हुए मणिमय दीपकोंके समान जहाँ चम्पाके वृक्ष सुशोभित हो रहे थे। भ्रमरसमूहके
चरणों के आक्रमणसे लगातार फूलोंका भार गिर जानेके कारण जहाँ मौलश्रीके वृक्षोंके शिखर ३५ ऊँचे उठ रहे थे। और जहाँ वायुसे कम्पित करंजके वृक्षोंके अग्रभागसे बिखरनेवालं फलोंसे
कामदेवके मित्र-बसन्त के आगमनकी खुशी में वनलश्मीके द्वारा की हुई लायाकी वर्षा सूचित हो रही थी ऐसा वसन्तका समय जब वृद्धिको प्राप्त होने लगा तब वनको नदियों में नवीन
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-जीधरस्य च विलासवृत्तान्तः चतुर्था लम्भः
१९३ भिर्नीरन्त्रितककुभस्तुङ्गान्मातङ्गान्मनोहारिणीः करिणीः शातकुम्भाङ्गाशताङ्गाशितखुरेदारितमहीर झांस्तुरङ्गाश्चाभीकरपत्रभङ्गचतुरोपान्तानि चतुरन्तयानानि च समधिमा सादरं नगरानिरगमन् ।
5 १२४. तस्मिश्च समये समस्तजननयमजीवातुर्जीवकस्वामी सह सुहृद्धि गरजननवीननदीपूरविहारबिलोकनाय विनिर्गत्य पुरोपकण्ठाक्रीडेपु क्रोडापरवशानि पादपमूलरचितकिरालय- ५ शयनाभोगानि भोगभूतलदम्पतीकल्पानि कलितकामदोहलानि युगलानि रालिलावगाहनरामुद्यताः . कर्णशिखरसमारोपित कुन्तल पुनरभिहितावतंसकुवलया वकुलदामनियमितके शपक्षास्तत्क्षणदृढ़घटितमेखलाबन्धबन्धुरनितम्बबिम्बाः मुदूरसमुत्सारितपारिहार्यरिक्तमणिबन्धाः प्रेमान्धदयितभुजशिखरभूताः पौराः नागरिकाः पुरन्धीमिललनामिः सह नीरन्ध्रिता अतिशयन व्याप्ताः ककुभो दिशा यस्तान तुङ्गानुनतान् मातङ्गान करिणः, मनोहारिणीः चेतोरमा: करिणीहस्तिनीः, शातकुम्भानान् सुवर्णमयाङ्गान् शताङ्गान् । स्थान् , शितखुरैस्तीक्षाशारिताः खण्डिता महीरङ्गा भूपृष्टा यस्तान तुरङ्गान् हयान् , चामीकराणां स्वर्णानां पसमझेन दलीपना हो राय मणि उपान्तानि समीपप्रदेशा येषां तानि तथाभूतानि धनुरन्त. यानानि शिविकायानानि च समधिरुह्य समधिष्ठाय सादरं यथा स्यात्तथा सादरं नगरान्निरगमन् निर्जग्मुः ।
२४. तस्मिन् चेति-तस्मिन् च मधुसमये समस्तजनानां निखिललोकानां नयनेभ्यो जीवातुः पीयूषतुल्यो जीवकस्वामी जीवंधरः सुद्धझिमित्रः सह नगरजनानां पुरपुरुषाणां नवीनो नृतनो यो १४ नदीपूरे बिहारः क्रीडनं तस्य विलोकनाय विनिगत्य विनिःसृत्य पुरोपकपठाक्रीपु नगराभ्योद्याने क्रीडापरवशानि केलिमिमग्नानि, पादपमूलेषु तरुसलेषु रचिता: किसलयशयनामोगाः पल्लवशय्याविस्तारा येषां तानि, भोगभूत र दम्पतीकल्पानि भोगभूमितलजायापतितुल्यानि कलितं धृसं काम दोहलं यैतानि युगलानि द्वन्द्वानि सलिलावगाहने जलप्रवेशने समुद्यतास्तत्पराः कर्णशिरपरे श्रवणोपरिभागे समारोपितानि धृतानि यानि कुन्तलानि तैः पुनरभिहितं पुनरुक्तमवतंसकुवलयं कर्णाभरणनीलकमलं यास ताः, वकुलदामभिनियमिता बद्धाः केशपक्षा यास ताः तक्षणे तरकाले दृढं यथा स्थात्तथा घटितो यो मखलाबन्धी तेन बन्धुरं नतोसतं नितम्ब विम्बं यास ताः, सुदूरं समुत्सारितेन समुच्चाटितेन पारिहार्येण कटकेन रिक्तः शून्यो मणिपन्धो यासां ताः प्रेमान्धानां दयितानां बल्लमानां भुजशिरघरे नवीन प्रवेश करने की कोड़ाकी इच्छासे जिनके मन चंचल हो रहे थे ऐसे नगरवासी लोग, अपनी स्त्रियों के साथ, दिशाऑको न्याप्त करनेवाले ऊँचे-ऊँचे हाथियां, मनको हरण करनेवाली .. इथिनियों, स्वर्णनिर्मित अवयवोंसे युक्त रथों, पैने खरोंसे पृथिवीतलको खोदनेवाले घोडों और सुवर्णमय पत्तोंके वेल-बूटोंसे सुसज्जित तटोंवाली पालकियोंपर सवार हो आदरपूर्वक नगरसे निकले।
६१२४. उसी समय समस्त मनुष्योंके नेत्रोंके लिए अमृतस्वरूप जीवन्धरकुमार भी मित्रों के साथ नगरवासी लोगोंकी नदीके पूरमें होनेवाली नूतन क्रीडाको देखने के लिए निकले .
और नगर के समीपवर्ती वनों में स्त्री-पुरुषोंके उन युगलोंको जो कि क्रीड़ासे विवश थे, वृक्षोंके नीचे जिन्होंने पल्लवोंकी शय्याएँ बना रखी थीं, जो भोगभूमि में उत्पन्न दम्पतियों के समान जान पड़ते थे तथा काम क्रीडाको धारण करनेवाले थे। साथ ही उन युवतियोंको जो कि जलमें प्रवेश करने के लिए उद्यन थीं, कानोंके शिखरपर लटके हुए अलकोंसे जिनके कर्णाभरणके नील कमल पुनरुक्त हो रहे थे, जिनके केशपाश मौलश्रीकी मालाओंसे बँधे हुए थे, तत्काल , पहिनी हुई मेखलाओंके दृढ़ बन्धनसे जिनके नितम्ब ऊँचे-नीचे हो रहे थे, बहुत दूर तक चढ़ाये ।
१.क.ल. ग. शासखुर । २... ग. किसलयरचनामोगानि । ३. म. भोगभूतदम्पती।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १२५ सारमेयस्यनिवेशितबाहुलता युवत्तीश्च सविलासं सहायान्संदर्शयन्दर्शनीयकायकान्तिश्चिरं विजहार ।
६ १२५. तथा विहरतस्तस्याग्रतः क्वचिदग्रजन्मनामतिमहान्कोलाहल: प्रावर्तत । तमाकर्ण्य तदभ्यर्णमभिपतति समित्रे पवित्रचारित्रेऽस्मिन्क्वचिदादरनिष्पादिताहारावाणकुपित
धरणीसुरकरतलकलितदण्डोपलघटेन विघटिततनुरतनुवेदनावेगोकामदसुराससार सारमेयः सरणि__ मक्ष्णोः । तन्निरोक्षणक्षणोपजम्भमाणकरुणः कारुणिकानामग्रेसर: कुमारः 'सारमेयोऽयमपगतासु
प्रायतया प्रत्युज्जोवयितुमशक्य' इति निर्णीय तहकर्णमूले सादरं सत्वरं सानुक्रोशं च मूलमन्त्र
बाहुशिरसि निवेशिता स्थापिता बाहुलता यासां तश्राभूना युवतीच तरुणांश्च सबिलासं सविभ्रमं यथा स्यात्तथा सहायान् सहचरान संशयन् समवलोक्यन् दशनीया कायकास्तियस्य तथाभूतः सुन्दरशरीरसुषमा सन् चि चिरकालपर्यन्तं विजहार विहरनि स्म ।
१२५. तथेति–तथा तेन प्रकारेण विहरतो भ्रमतस्तस्य जीवधरस्य अग्रतः पुरस्तात् क्वचिस्कुत्रापि अग्रजन्मनो ब्राह्मणानाम् अतिमहान भूयिष्टतरः कोलाहल: कलकलशब्दः प्रावर्तत । तं कोलाहलम् श्रावण्यं निशम्य समिग्रे ससुहृदि पविनचारित्रे पूताचारे अस्मिन् जीवंधरे तदस्यणं कोलाहलपाश्चम अमि. पति गच्छति सति क्वचित् कुत्रचित् भादरेण निष्पादितो निर्मिती य आहारस्तस्याघ्राणेन नासाविषयी
करणेन कुपिता रुष्टा ये धरणीसुरा विधास्तेषां करतले पाणित कलिततर्दण्डोपलैण्डपाषाणर्घटनेन ताटनेन २५ विघटिता स्वण्टिसा तनुत्रं यस्य सः, अतनुवेदनायास्तीचपीडाया वेगेनोकामन्त। निःसन्तोऽसवः प्राणा
यस्य स सारमेयो रानिजागरः अक्षणोनयनयोः सरणिं मार्गम् आससार आजगाम | तन्निरीक्षणेति-तस्य सारमेयस्य निरीक्षणक्षणे विलोकनवेलायाम्पजम्भमाणा बधमाना करुणा दया ग्रस्य तथाभूतः कारुणिकाना दयास्तूनां 'स्थायालुः कारुणिकः' इत्यमरः, अग्रेसरः प्रमुखः कुमारो जीवकः 'अयं सारमेयः कुक्कुरोऽभगतासु
प्रायराया मृतप्रायस्वेन प्रत्युज्जीवयितुं पुनर्जीवितं कर्तुमशक्य इति निर्णीय निश्वित्य तत्कर्णमूले तरचण२० समीपे सादरं सत्वरं सशेवयं सानुक्रोश सदय 'कृपानुकम्पानुक्रोशी हन्तोक्तिः करुणा दया' इति धनंजयः मूलमन्त्रं
'णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं णमो आदरियाणं । णमो उवाया णमो लोए सब्यसाढणं ।'
हुए आभूषणोंसे जिनकी कलाइयाँ खाली दिखाई दे रही थी एवं प्रेमसे अन्धे पति के कन्धेपर
जिन्होंने अपनी मुजलता रख छोड़ी थी...विलाससहित अपने साथियोंको दिखलाते हुए २५ चिर काल तक क्रीड़ा करते रहे। उस समय उनके शारीरकी कान्ति देखते ही बनती थी ।
६१२५. तदनन्तर उस प्रकार विहार करते हुए जीवन्धरकुमार के आगे कहीं ब्राह्मणांका बहुत भारी कोलाहल प्रवृत्त हुआ। उस कोलाहलको सुचकर पवित्र चारित्रके धारक जीवन्धर कुमार ज्यों ही अपने मित्रों के साथ उस कोलाहल के निकट पहुँचे त्यों ही कहीं आदर
पूर्वक बनाये हुए आहारको सूंघ लेने मात्रसे कुपित ब्राह्मणों के हस्ततलोंमें स्थित डण्डों और १० पत्थरोंकी मारसे जिसका शरीर टूट रहा था तथा बहुन भारी वेदनाके वेगसे जिसके प्राण
निकले जा रहे थे, ऐसा एक कुत्ता उनके नेत्रों के मार्ग में आया- उन्हें दिखाई दिया। उसके देखनेके क्षण ही जिनकी करुणा बढ़ने लगी थी तथा जो दयालु मनुष्यों में अग्रेसर-प्रधान थे ऐसे जीवन्धरकुमार, 'प्रायः प्राण निकल जानेसे यह कुत्ता जीवित नहीं किया जा सकता' यह निर्णय कर उसके कर्णमूलमें आदरपूर्वक विता और दयाके साथ णमोकार मन्त्रका उप
३५
१. म० दण्डोपलघटन विघटित ।
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- देवत्ववृत्तान्तः ]
चतुर्थों लम्भः मुपादिक्षत् । उपदिष्टं च दिष्ट्या तदवस्थोऽपि तरलितवालधिरुत्कणं: समाकर्णयन्नेव सारमेयः शरीरमत्याक्षीत्, प्राविक्षच्च देवीं तनुम् । ततो मुहर्तमात्र एव पूर्णगानस्तत्रैव तथाविधदिच्यतनुलाभमूलकारणकुमारावलोकनकुतूहलादागत्य तथा जपत एवास्य पुरस्तादस्थात् । अस्तोककायगभस्तिप्रसरैरालिम्पन्तमम्बकयुगमेनं दृष्ट्वा कुमारोऽयं विस्मयाविष्टः पृष्टवान्–'आचक्ष्व भद्र, न चेदेष दोषः कस्त्वं कुतस्त्यः कस्मादस्मरसमीपमामतोऽसि' इति ।
१२६. स च प्रत्यभापत भाषणचर:--'कुमार, विद्धि माममुमेव सारमेयम् । सारगुणधाम्नस्तव महिम्ना नाम्ना सुदर्शन: सन्प्राविशं यक्षकुलाधिपत्यम् । भवत्पादसेवावृते च कृतमिदमागमनम् । किमिह मया कर्तब किया वक्तव्यम् । का या बदनुभावं कथयितुमलं भारती। हत्याकारकं पञ्चनमस्कारमन्नम् उपादिक्षन् । उपदिष्टं च मूलमन्त्रं दिष्ट या भाग्येन सावस्था यस्य तदवस्थोऽपि तथाभूतोऽपि सारमयः तरलितयालधिचलितपुच्छः उत्कर्ण उन्नमितश्रवणः समाकर्ण यन्नेव शृण्वमेव शरीरम् १० अस्याक्षीत् अम्रियत । प्राविक्षच देवी देवसंबन्धिी तनं शरीरम् । ततोऽनन्तरं
एक घटीय एव पूर्णगानः पूर्णशरीरः सन् तव वनवसुधायां तथाविधाया दिव्यतनी क्रियिकशरीरस्य लाभे प्राप्ती मूलकारणं यः कुमारस्तस्यावलोकनस्य कुतूहलं तस्मात् भागस्य तथा तेन प्रकारेण जपत एव मूलमन्यं जपत एव अस्य कुलारस्य पुरस्तात् अग्रे अस्थात् । अस्तीकति-मस्तोका बहवो ये कायगमस्तयः शरीररश्मयस्तेषां प्रसरैः समूहैः अम्बकयुगं नत्रयुगलम् आलिम्पन्तम् एनं देवं दृष्ट्वा अयं कुमारः विस्मयेनाविष्ट- १५ आश्चर्यचकितः सन् पृष्टवान्-मद, हे सत्पुरुष, एप दोषो न चेत्तहि त्वं कः, कुत आगत इति कुतस्त्यः कस्मात्कारणात् अस्मत्समपं मपाश्त्रम् आगतोऽसि इति आचक्ष्य कथय' इति ।
१२६. स चेति--स च भूतपूर्वो भषण इति भषणाचरः कुक्कुर चरः 'भूतपूर्व चरट्' इति चरट प्रत्ययः वेधः प्रत्यभाषत प्रत्यवोवत-कुमार, अये स्वामिन् , मां पुरो वर्तमानम् अमुमेब सारमेयं कुक्कुरं विद्धि जानीहि । सारगुणानां श्रेष्टगुणानां धाम स्थानं तस्य तथाभूतस्य तव महिम्ना माहात्म्येन नाम्ना २० नामधेयेन सुदर्शनः सन् सुदर्शननामयुक्तः सन् यक्षकुलस्याधिपत्यं यक्षकुलाधिपत्यं यक्षेन्द्रवं प्राविक्षं प्रविधान् । भवत्पादसंवाकृते च मञ्चरणसंवाथ चेदमागमनं कृतम् । इह स्थाने मया कि कतव्यं विधेयं किं वा वान्यं कथनीयम् । का चा भारती वाणी भवदनुराब भवस्प्रभावं कथयितुं निगदितुम् अलं पर्याप्ता
देश देने लगे। उस कुत्तेका भाग्य अच्छा था इसलिए वैसी अवस्था होनेपर भी उसने पूँछ हिलाकर तथा कान खड़े कर उस उपदिष्ट मन्त्रको सुना और सुनते-सुनते ही शरीरका त्याग । किया। शरीरत्यागके बाद वह देवोंके शरीर में प्रविष्ट हुआ-मरकर देव हुआ। तदनन्तर मुहूर्तमात्रमें उसका शरीर पूर्ण हो गया। उस प्रकारके दिव्य ागीरकी प्राप्तिका मूल कारण कुमार हैं यह विचार, उन्हें देखनेके कुतुहलसे वह देव आकर पूर्व की भाँति जपते हुए जीवन्धर कुमार के सामने खड़ा हो गय।। शरीरकी बहुत भारी किरणों के समूहसे नेत्रयुगलको लिप्त करनेवाले इस देवको देखकर कुमारने आश्चर्यचकित हो पूछा-'हे भद्र ! यदि कोई दोष । नहीं हो तो कह । तू कौन है, कहाँका रहनेवाला है और कहाँ से हमारे पास आया है. ?'
६१२६, कुत्तको जीव-देव बोला कि हे कुमार ! आप मुझे यही कुत्ता समझिए । श्रेष्ठगुणों के स्थानस्वरूप आपकी महिमासे ही मैं सुदर्शन नामधारी होता हुआ यशोंके आधिपत्यको प्राप्त हुआ हूँ। आपके चरणोंकी सेवा के लिए हो मेरा यहाँ आना हुआ है । यहाँ मुझे क्या करना चाहिए ? अथवा क्या कहना चाहिए ? यह मैं नहीं जानता। अथवा आपका ३१
१. क० अम्बकयुगलमेनम् ।
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गधचिन्तामणिः
[ १२६ सारमेयस्यतथाहि'--निकारणमिदं मत्परित्राणमिति सति कार्पण्यकारणे रिक्तं वचः । दृष्टो मन्त्रस्य महिमेति जिनशासनलघुकरणम्। ईदशसामर्थ्यशालिता नानावि क्वचिदित्यपि न वार्तम् । प्रतिनियतसामर्थ्या हे पदार्थाः । अचरमोऽयमुपकार इति भवदवधानपरिच्छेदः । कृतार्थीकृतस्त्वयामिति त्रिभुवनकार्तार्थ्यविधायिनस्ते न विशेषसमर्थनम्। साक्षादसि प्रत्यक्षसर्वज्ञ इति चरमदेहधारिणस्ते ५ सिद्धानुवादः । समाश्रितकल्पद्रुमोऽसीति निशितप्रज्ञावधृतपात्रप्रकर्षस्य ते निकपः । भवति पर्यव
न कापीत्यर्थः । तथा हि-इदं मापरित्राणं मदक्षर्ण निष्कारणं निर्मिमित्तम् इति कार्पयकारणे देन्यता मति वचो रिनं शून्यं व्यर्थमिति यावत् । मन्त्रस्य महिमा प्रभावी दृष्टो विलोकित इति जिनशासनलघू. करणं जिनशासनस्य ततोऽप्यधिककर्तृत्वे शकत्वात् । ईशसामध्यंशालिता एतादृशशक्तिशोभिता
स्वचित् कुत्रापि नानावि न श्रुता इत्यपि न वातं न युवतम् , हि यतः पदार्थाः प्रतिनियतं सामर्थ्य शास्वं १.. येषां तथाभूताः सन्तीति शेषः । अचरमोऽन्तरहितोऽयमुपकार इति कथने भवदवधानस्य परिच्छेदस्त्वदीय
शक्तिनिर्धारणम् । अहं त्वया कृतार्थीकृतः कृतकृत्यो विहित इति निवेदनं त्रिभुवनस्य लोकत्रयस्य काय विदधातीत्येवंशीलस्तस्य ते तव न विशेषसमर्थनं चैशिष्टयसूचकम् । 'वं साक्षात् प्रत्यक्षसर्वज्ञः असि' इति निवेदनं चरमदेहधारिणस्ते तद्भवमोक्षगामिनस्त सिद्धानुबादः कथितस्य पुनः कथनम् । समाश्रितानां
शरणागतानां कल्पगुमो देवतरसीति निवेदनं निशितप्रज्ञया तीक्ष्णबुद्धयावतो विज्ञात; पात्रप्रकर्षः पात्र१५. वैशिष्ट्यं येन सथाभूतस्य त निकर्षा होनत्वं कल्पवृक्षः पात्रापात्रविवेकरहितस्त्वं तु तन सहित इति कल्य.
दुमीपमानेन तब हीनत्वं स्यादिति भावः । भवति त्वयि परोपक्रिया परोपकारः पर्यवस्यति परिपूर्णा - - - माहात्म्य कहनेके लिए कौन-सी वाणी समथे हे ? फिर भी यदि यह कहता है कि आपने अकारण ही मेरी रक्षा की है तो दीनताका कारण रहते हए मेरा वह कहना खाली जाता है
अर्थात् आपने मुझे दोन आभारी बनाने के लिए मेरी रक्षा की है अतः उसे अकारण बनाना २० उचित नहीं है । यदि यह कहता हूँ कि मन्त्रकी महिमा देख ली तो यह कहना जिनशासनको
लघु करना है क्योंकि उसकी महिमा तो इससे भी बढ़कर है। ऐसी सामर्थ्य से सुशोभित होना किसी दूसरेमें नहीं सुना यह कहना भी व्यर्थ है क्योंकि पदार्थ प्रतिनियत सामर्थ्यसे सहित हैं। यदि यह कहूँ कि आपका यह सबसे बड़ा उपकार है तो ऐसा कहना आपकी मनो
वृत्ति की सीमा निश्चित करना होगा। यदि यह कहूँ कि आपने मुझे कृतार्थ कर दिया है तो २५ यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि तीनों लोकोंको कृतार्थ करनेवाले आपकी यह विशेषताका
समर्थन होगा। अर्थात् जो सामान्य रूपसे सबको कृतार्थ करनेवाला है उसके लिए पृथक् रूपसे कहना कि यह अमुकको कृतार्थ करनेवाला है यह उचित नहीं। यदि यह कहा जाय कि आप साक्षात् प्रत्यक्ष सर्वज्ञ हैं तो यह कहना चरमशरीरको धारण करनेवाल आपके लिए
स्वयंसिद्ध वस्तुका कहना होगा। अर्थात् चरमशरीरी होनेसे आप सर्वज्ञ तो होग ही अतः ३. आपको सर्वज्ञ कहकर आपकी विशेषता बताना उचित नहीं है । यदि यह कहूँ कि आप
आश्रित मनुष्योंके लिए कल्पवृक्ष हैं तो तीक्ष्ण बुद्धिसे पात्रकी श्रेष्टनाको समझनेवालं आपके लिए अपवादकी बात होगी । अर्थात् जब कि आप अपनी तीक्ष्ण बुद्धिसे पात्रको सारता और असारताका विचार कर सकते हैं तव कल्पवृक्ष इस विचारसे रहित है उससे तो जो भी माँगें वही प्राप्त कर लेता है अतः आपको कल्पवृक्ष कहना ठीक नहीं है। यदि कहा जाये कि आपमें
१. ग. तथापि । २. म० ते विशेषसमर्थनम् ।
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- देवत्ववृत्तान्तः ]
चतुर्थो लम्भः
स्थति परोपक्रियेति स्वभावव्यावर्णनम् । साक्षादकारि कारुण्यस्वरूपमिति कार्यं पुनरुक्तम् । उदात्तशैलोयमिति ज्ञातज्ञापन श्रमः । तथापि हि किमप्यावेद्यते । आगतवति कृच्छे क्वचिदनुस्मर्तव्योऽयं जन:' इत्यभिधाय कृतप्रणामः सप्रणामः सप्रणयं परिष्वज्य परोक्षतामभाक्षीत् ।
१९७
$ १२७, अथान्तरितवति तस्मिन्नुपान्तवर्तिनः कस्यचिदुद्यानतरोरधस्तादवस्थाय कुमार: प्रस्तुत देववृत्तान्तममन्दादरादनुजवयस्यैः सममावर्तयन्मुहूर्तमत्यवायत् । अत्रान्तरे राजपुरवासि - ५ वेदपतिसुतयोः प्रख्यात सख्ययोरपि स्नानीय चूर्णगुणागुणविचारेण विवदमानयोः सुरमञ्जरीगुणमालयोः परस्परं स्पर्धा भृशमधिष्ट । अतानिष्टां च ते संविदं विदांवरमुखादाकणिते चूर्णे पराजयः स्यादावयोर्यस्यास्तया नादेयजलस्नातया न भवितव्यमिति । प्राहिणुतां च निजचूर्णो
मरतीति निवेदनं स्वभावव्यावर्णनं निसर्गनिरूपणम् । कारुण्यस्थ दयालुतायाः स्वरूपं साक्षादकारि साक्षादृष्टमिति निरूपणं कार्येण पुनरुक्तमिति कार्य पुनरकम् । इयम् उदात्तस्योदारशैली रीतिरिति निवेदनं १० ज्ञातस्य बुद्धस्य ज्ञापने प्रकटने श्रमः खेद्स्तथाभूतः । तथापि हि किमप्यायतं किमपि कथ्यते क्वचित् कुत्रापि कृच्छ्रे कष्टें आगतवति सति अयं जनोऽनुस्मर्तव्यः पुनः पुनः स्मरणीयः' इत्यभिधाय कथयस्था कृतप्रणामो चिहितनमस्कारः सप्रणयं सस्नेहं परिष्वज्य समालिंग्य परोक्षतामदृश्यताम् अभाक्षीत् प्राप ।
६१२७. अथेति - श्रथानन्तरम् तस्मिन् सुदर्शने अन्तरितवत्ति तिरोहिते सति कुमारो जीवकः कस्यचित्कस्यापि उद्यानतरोराकी दानो कहस्य अधस्तात् नीचैः अवस्थाय प्रस्तुत देववृत्तान्तं प्रकृतसुरोदन्तम् १५ अमन्दादरात् उत्कटादरात् अनुजवयस्यैः कनिष्ठसहोदरैः समं सार्धम् आवर्तयन् पुनः पुनरुच्चरन् मुहूर्तम् अत्यवायत् व्यपगमयामास । अत्रान्तर इति – अन्नान्तरे एतन्मध्ये राजपुरवासिनो वैश्यपतेः सुतं तयोः प्रख्यासं प्रसिद्धं सख्यं मैत्री ययोस्तथाभूतयोरपि स्नात्यनेनेति स्वामीयं तच तच्चूर्णमिति स्नानोयचूर्ण तस्य गुणागुणयोर्गुणदोपोविचारेण विवदमानयोर्विवादं कुर्वाणयोः सुरमअरीगुणमालयोः एतन्नाग्न्योः परस्परं मिथो स्पर्धानुसूया भृशमत्यन्तम् अवर्धिष्ट ववृधे । अतानिष्टामिति - ते सुते विदांवरमुखाद् चूर्णे आकर्णिते २० श्रुते सति आवयोर्मध्ये यस्याः पराजयः पराभवः स्यात् तया तथा इदं नादेयं तच तज्जलं चेति नादेयजल नदीसलिलं तस्मिन् स्नाता कृतस्नाना तथा न भवितव्यम् इति संविदं प्रतिज्ञाम् अतानिष्टाम् विस्तारयामासतुः । प्राहिणुतां प्रेषयामासतुश्च निजचूर्णयोरकर्षनिकष हीनत्वाधिक्ये तयोर्निर्णयाय घवर्णानां
२५
परोपकारका पर्यवसान हैं अर्थात् आप सर्वाधिक परोपकारी हैं तो यह कहना भी आपके स्वभावका वर्णन कहलाया अतः उचित नहीं है । यदि यह कहूँ कि दयाका स्वरूप साक्षात् कर लिया तो यह कहना कार्यसे पुनरुक्त है । अर्थात् आपने दयाका कार्य तो किया है उसे शब्दोंद्वारा क्या कहना ? और यदि यह कहा जाये कि यह उत्कृष्ट मनुष्यों की शैली ही हैं तो यह जानी हुई बातको पुनः चतलानेका श्रम होगा। इस प्रकार यद्यपि कुछ कहना अशक्य हैं तथापि कुछ तो भी कहा जाता है और वह यह कि कहीं कोई कष्ट आये तो यह जन स्मरण करने के योग्य है । इतना कहकर प्रणाम कर तथा प्रेमपूर्वक आलिंगन कर वह देव परोक्षताको ३० प्राप्त हो गया - अदृश्य हो गया ।
६ १२७. तदनन्तर उस देवके अन्तर्हित हो जानेपर कुमारने किसी निकटवर्ती बगीचाके वृक्ष के नीचे बैठकर छोटे भाई और मित्रोंके साथ बड़े आदरसे प्रस्तुत देवके वृत्तान्तको दुहराते हुए एक मुहूर्त व्यतीत किया होगा कि इसी बीच में राजपुर नगर के रहनेवाले सेठोंकी पुत्रियों-सुरमंजरी और गुणमाला में परस्पर बहुत भारी स्पर्धा बढ़ गयी । यद्यपि उन दोनों ३५ पुत्रियोंकी मित्रता प्रसिद्ध थी तथापि स्नान करने के योग्य चूर्णके गुण-दोषोंका विचार करतेकरते उनमें विवाद उठ खड़ा हुआ था । उन दोनोंने प्रतिज्ञा कर ली कि 'किसी श्रेष्ठ विद्वान के
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गद्य चिन्तामणिः
[ १२७ चूर्णपरीक्षा
त्कर्षनिकर्षनिर्णयाय लब्धवर्णानामभ्यर्णमात्मपरिचारिके । ते च निखिलकर्मनिर्माणपटिष्ठे चेट्यो दिशि दिशि परिभ्रम्य परिसरं कुमारस्य सादरमुपासरतामभ्यधत्तां च दत्ताञ्जलि पाणितलप्रणयितपनीय करण्डगते स्नानीयचूर्णे प्रदर्श्य 'कथय मिथो विशेषमनयो ।' इति । तद्वचनसमाकर्णनेन निर्वयं चूर्णे तूर्णमसी गुणज्ञः 'सगुणमिदं गुणमालाचेटिकायाश्चूर्णम्' इत्यवर्णयत् । श्रुत्वा तद्वचनं ५ सुरमञ्जरो परिचारिका परिकुपितहृदया सती 'भवदादिष्टमतिवैशिष्ट्यं विशेषदृष्टेः प्रावकस्यचित्कथमवगन्तव्यम् । परोऽपि जनः पृष्ट एवमन्यथा न व्याचष्टे स्म । किमध्येषु भवानप्यमीभिरेवम् । ननु जोवक एवं जीवलोके विवादपदनिर्णायीत्याकयं खलु भवति तिष्ठावहे इत्यभापिष्ट । सात्यंधरिरपि सत्यापयामि हि मदुक्तम्' इति तदुभयमुभयकरेण गृह्णन् 'गृन्तु चञ्चरीकाचूर्ण
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विदुषाम् अभ्यनिकदम् आत्मपरिचारिके निजनिजचढ्यौ । तं च निखिलकर्मणां समग्रकार्याणां निर्माण १० साधने पटि अतिचतुरं चेत्री दास्यौ दिशि दिशि प्रतिकाष्ठं परिश्रम्य परिभ्रमणं कृत्वा कुमारस्य जीवंधरस्य परिसर निकटं सादरं यथा स्यात्तथा उपासरतामाजग्मतुः दत्ताञ्जलिं यथा स्यात्तथा पाणितलस्य करतलस्य प्रणयि यत्तनीयकरडं स्वर्णभाजनं तत्र गते स्थिते स्नानीय चूर्ण प्रदर्श्य 'अनयोर्णयोमिथो परस्परं विशेषं वैशिष्टयं कथय' इति अन्यधत्ताम् च न्यगदताञ्च । तद्वचनेति तयोश्चेट्योर्वचनस्य समाकर्णनं श्रवणं तेन चूर्णे निर्वदृष्ट्वा गुणतोऽसौ जीवंधरा तूर्णं शीघ्रं गुणमालाचेदिकाया इदमेतत् चूर्ण मनुणं सोत्कर्षम्' १५ इतीत्थवर्णयत् । तस्य जीवकस्य वचनं श्रुत्वा समाकयं सुरमञ्जरी परिचारिका सुरमक्षरीचेटी परिकुपितं क्रुद्धं हृदयं यस्यास्तथाभूता सती 'भरता आदिष्टं भवदादिष्टं भवन्निरूपितम् अतिवैशिष्टयं प्रकर्षातिशयत्वं विशेषविशेषदर्शनात् प्राक् पूर्व कस्यचित् कस्यापि श्रोतुः कथं केन प्रकारेण अवगन्तव्यं ज्ञातव्यम् । परोऽपि जनोऽन्योऽपि लोकः पृष्टः सन् एवं अनेन प्रकारेण अन्यथा न च्या स्म न नियति स्म -रवदनुरूपमन्येनापि जनेन निगदितमिति शेषः । किम् भवानपि श्रमाभिः पुत्रमित्थम् अध्यैष्ट अधीतवान् । २० ननु निश्वयेन जीवक एव जीवंधर एत्र जीवलोके संसारे विवादपदस्य विसंवादस्थानस्य निर्णाय निर्णयकर्ता इत्याकर्ण्य श्रुत्वा खलु वाक्यालंकारे भवति त्वयि तिष्ठा निर्धायिकत्वस्यास्थ्योपस्थितौ भवावः' इति
अभाषिष्ट कथयामास । सात्यंधरिरपीति – सत्यंधरस्यापत्यं पुमान् सात्यंधरिजविंधरोऽपि तर्हि मदुक्तं स्त्रकथनं सत्यापयामि सत्यं साधयामि' इति कथविस्त्रेति शेषः तदुभयं गुणमालासुरमञ्जरीवेयोश्वर्णम्
मुखसे चूर्ण के गुण-दोपके श्रवण करनेपर हम दोनोंमें जिसकी हार होगी वह नहाके जलमें २५ स्नान नहीं करेगी। उन दोनोंने अपने चूर्णकी उत्कृष्टता और निकृष्टताका निर्णय करनेके लिए अपनी दासियाँ विद्वानोंके समीप भेजी। समस्त कार्योंको सिद्ध करने में अत्यन्त चतुर दोनों दासियाँ प्रत्येक दिशा में घूमकर बड़े आदर के साथ जीवन्धर कुमारके पास आयीं और हाथ जोड़कर तथा हथेली में स्थित स्वर्ण की डिब्बी में रखे हुए अपने-अपने स्नानीय चूर्ण दिखला कर बोली कि आप परस्पर इन चूर्णांकी विशेषता कहिए। उनका कहना सुन तथा दोनोंके चूर्ण ३० देख गुणों के ज्ञाता जीवन्धर कुमारने शीघ्र ही कह दिया कि 'यह गुणमालाकी दाखीका चूर्ण सगुण है- उत्तम है'। उनके बचन सुन सुरमंजरीकी परिचारिकाने कुपित हो कहा कि आपने जो गुणमाला के चूर्ण की उत्तमता बतलायी है सो विशेषताको देखने के पहले उसे कोई कैसे जान सकता है ? दूसरे लोग भी पूछने पर ऐसा ही कहते हैं अन्यथा नहीं | क्या आप भी इनके साथ ऐसा ही पढ़े हैं ? 'संसार में जीवन्धर हो विवाद स्थानोंका निर्णय करनेवाले हैं' यह सुनकर हम दोनों आपमें आस्था रखते हैं ? 'अच्छा मैं अपना कहा सत्य सिद्ध कर दिखाता हूँ' यह कहकर जीवन्धर कुमारने दोनों चूर्णों को दोनों हाथोंसे ले 'जो चूर्ण वास्तव में उत्तम है उसे भ्रमर ग्रहण करें' यह कह ऊपर उछाल दिया । तदनन्तर भ्रमरों के समूह बहुत
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- वृत्तान्तः] चतुर्थो लम्मा
१६६ मञ्चितमञ्जसा' इत्युदोरयन्नुपरि चिक्षेप । क्षेपीयः क्षितितलपतनमसहमानैरिव मधुलिहां वृन्दैरमन्दादराद्गुणलुब्धेरिव गुणाधिके गुणमालाचूर्णे तूर्णमङ्गोकृते, भृशमङ्गनास्वासक्तजन इव क्षणादधस्तादपतदपरम् । अवर्णयच्चायमभियुक्तः 'चूर्णयुक्तायुक्तेतरकालकरण्णादासीदसुरभित्वं सुरमञ्जरीचूर्णस्य' इति ।
5 १२८. तदेतदुपलभ्य चेटीमुखात्सुरमञ्जरी, सुरतरुमञ्जरो सुरकुजरभजनादिव ५ जातवेवा, विवादविरहितसाक्षिभिः साक्षानिणर्णीतेऽपि निजचूर्णगुणक्षये 'गुणमालापक्षपातापेक्षिताहम् । अपेक्षा यदा जायेत मयि गन्धोत्कटनन्दनस्य तावदहं कटाक्षेणापि नेक्षे पुरुषान् । वर्षशतं वा विधास्यामि तपस्यां तज्जनदास्यसंपादिनीम्' इति कृतसंगरा, सङ्गगौरवात् 'वयस्ये,
उभयकरण हस्तयुगलेन गृह्णन् 'अञ्जसा याथायनाञ्चित शोभितं चूर्ण चञ्चरीका अलयो गृह्णन्तु स्वीकुर्वन्तु' इत्युदीरयन् कथयन् उपरि चिक्षेप क्षिपति स्म । क्षेपीय इति-क्षेपीयः शीघ्र क्षितितलपतनं पृथिवीपृष्टाव- १० पातम् असहमानैरिव मधुलिहां भ्रमराणां वृन्दैः समूहै: अमन्दादरान् भूयिष्टादरात्, गुणेषु लुब्धास्तैस्तथाभूतैरिव गुणेनाधिको गुणाधिकस्तस्मिन् गुणमालाचूणे तूर्ण क्षियम् अङ्गीकृते स्वीकृते सति भृशमत्यन्तम् अजनासु वनितासु आसनजन इव क्षणाद् अल्पेनैव कालेन अपरं सुरमञ्जरीचूर्णम् अधस्तात् नीचे अपराद् । अवर्णयचति-'अनर्णयच जगाद ध अभियुक्तो विद्वान् जीवंधरः चूर्णयुक्ती चूर्ण योजने उको निरूपितो यः कालस्तस्मादितरकाले मिन्नसमये करणात विधानात् सुरमञ्जरीचूर्णस्यासुरमित्वं दौगन्ध्यम् १५ भासीन्' इति ।
६१२८. तदेतदिति-सदेतत्पूर्वोन चेटीमुखाल्परिचारिकावक्त्रान् उपलभ्य भास्वा सुरमअरी, सुरकुभरभञ्जनाद् देव द्विरदरखण्डनात् सुस्तरमन्जरीव कल्पवृक्षमञ्जरीव जातं समुत्पन्नं वैवण्यं मालिन्यं यस्यास्तथाभूता सती विवादविर हतसाक्षिभिः विसंवादरहितयुक्तिभिः निजचूर्णस्य गुणक्षयस्तस्मिन् निजचूर्णगुणावकले निर्णीतेऽपि 'गुणमालायाः पक्षपातस्तस्माद् गुणमालायाः स्नेहाधिक्यात अहमुपेक्षिता उपेक्षा. २० विषयीकृता । गन्धोत्कटनन्दनस्य जीवधरस्य यदा मथि अपेक्षा जायत तावत् कालपर्यन्तमहं कटाक्षणापि नेत्रकोणेनापि पुरुषान् नेक्षेन विलोकये। वर्षशतं वा शतवपपर्यन्तं वा सज्जनस्य जीवंधरस्य दास्यसंपादिनी दासत्वकारिणी तपस्यां तपश्चरणं विधास्यामि वा करिष्यामि वा'। इतीत्यं कृतसंगरा विहित
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भारी आदरसे गुणमालाके अधिक गुणवान चूर्ण को शीघ्र ही अंगीकन कर लिया सो ऐसा जान पड़ता था मानो वे भ्रमरोंके समूह उसके चूर्णका पृथिवीपर गिरना सहन नहीं करते थे २४ और गुणोंके लोभी थे। दूसरा सुरमंजरीका चूर्ण स्त्रियों में अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्यके समान क्षणभरमें नीचे गिर गया । बुद्धिमान् जीवन्धर कुमारने इसका कारण भी बतलाया कि चूर्ण बनाने के लिए जो काल कहा गया है उससे भिन्न काल में बनाने के कारण सुरमंजरीका चूर्ण सुगन्धित नहीं हो सका है।
६१२८. दासीके मुखसे यह जानकर, जिस प्रकार ऐरावत हाथ के द्वारा तोड़े जानेसे ३० कल्पवृक्षकी मंजरी विवर्ण हो जाती है उसी प्रकार सुरमंजरी बिवर्ण हो गयी-उसके मुखको
कान्ति फीकी पड़ गयी। यद्यपि विवादरहित साक्षियों के द्वारा सुरमंजरीके चूर्णकी निकृष्टता । निर्णीत हो चुकी थी तथापि सुरमंजरीने समझा कि गुणमालाके पक्षपातसे ही मेरी उपेक्षा की
गयी है । जब तक जीवन्धर कुमारकी मुझमें अपेक्षा नहीं होगी–वे मुझे नहीं चाहने लगेंगे तबतक मैं पुरुषोंको कटाक्ष से भी नहीं देग्गी । अथवा मैं सौ वर्ष तक उनकी दासता प्राप्त ३१ करानेवाली तपस्या करूँगी। ऐसी प्रतिज्ञा कर विना स्नान किये ही अपने घर लौट आयी ।
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गचिन्तामणिः
[ १२९ गजोपद्धक्षमस्व दास्याः परिस्खलनम्' इति पादयोः प्रणमन्ती गुणमालामपि मालामिव मौलिच्युतामनादृत्यास्नातेव निजसदनमासदत् । अचीकरच्च पितुराज्ञया पुरुषसंम्पशिमरुतापि' निजमन्दिरान्तिकमस्पृष्टम् ।
१२९. अथ तादृशं तस्याः सख्या वैमुख्यमुपलभ्य तन्निदानं चूर्णविगानमनुशोचन्ती, ५ यानमारुह्य नगरवाह्यात्प्रतिनिवृत्य निकटगतचेटीजनचाटुमपि श्रवणकटुकं गणयन्ती गुणमाला
शन. ना धाया प्रतिगन्तुमारण्या । तावता समन्ततो धावन्मनुजानाममन्दार्तस्वरगर्छन् 'गच्छ, गच्छ, गजेन्द्रः' इति रुन्द्रस्वनः श्रोत्रेण्वतिमात्रमासीत् । आसीदति स्म च सोदतः स्त्रैणस्य तस्य समीपं संहृतसर्वलोकः, काल इव कलितमूर्तिः, अधोमुर्धकशावशतकलितगात्रतया स्वयमूर्ध्वगैरव्य
प्रतिज्ञा, सङ्गेति-सङ्गे गौरव तस्मात् 'वयस्य सखि ! दास्याः सेविकायाः परिस्वलनं त्रुटि क्षमस्व' इति पादयोश्चरणयोः प्रणमन्तीं नमस्कुर्वती गुणमालामपि मौलिच्युतां मुकुटपतितां मालामिव खजमिव अनादृत्य तिरस्कृत्य निजसदनं स्वकीयभवनम् आसदत् प्राप । अवीकरच पितुर्जनकस्याझया निजमन्दिरान्तिकं निजभवननिकटम् पुरुपसंस्पर्शिमरुताऽपि पुरुषस्पर्शिवायुनापि अस्पृष्टं स्पर्शरहितं कारयामास ।
६१२१. अथेति-अथानन्तरं तस्याः सख्याः सुरमार्या वैमुख्यं प्रातिकूल्यम् उपलभ्य ज्ञावा तन्निदानं तत्कारणं चूर्णविगानं चूर्णनिन्दनम् अनुशोचती, यानं शिविकाम् आरुह्य नगरबाह्यात् प्रतिनिवृत्य १५ प्रत्यागस्य निकटगतश्चासौ चेटीजनश्चेति निकटगतचेटी जनः पार्श्वस्थपरिचारिकाजनस्तस्य चाटुमपि मधुर
वचनमपि श्रवणकटुकं कांप्रियं गणयन्ती मन्यमाना गुणमाला शनैमन्दं स्कन्धावारं राजधानी प्रतिगन्तुम् आरब्धा तत्पराभूत् । तातंति-तावना तावरकालेन समन्ततः परितो धावन्मनुजानां पलायमानपुरुषाणाम् भमन्दास्तीना य आर्तस्वराः पीडाध्वनयस्तैः मूछन् वर्धमानः 'गच्छ गच्छ पलायस्व पलायस्व गजेन्द्रः करीन्द्र आगच्छत्तीति शेषः' इति रुन्द्रस्वन उच्चैःशब्दः अतिमात्रं प्रचुरतया श्रोत्रेषु श्रवणेपु आसीत् । आसीदति स्मंति- आसीदति स्म च समागच्छति स्म च सीदतो दुःखीभवतस्तस्य पूर्वोकस्य स्त्रैणस्य स्रीसमूहस्य समीपं कोऽपि मदवारणो मत्तमतङ्गजः। अथ तस्यैव विशेषणान्याह-रहृता नाशिताः सर्वलोका येन तथाभूतः अतएव कलितमूर्ति तशरीरः काल इव यम इव, अधो मूर्धा येषां तेऽधोमूर्धकाः
यद्यपि संगके गौरव से 'हे सखि ! दासीकी भूलको श्नमा करो' यह कह गुणमाला उसके पैगमें प्रणाम करने लगी तथापि सुरमंजरीने शिरसे गिरी मालाके समान उसका कुछ भी आदर नहीं किया-उसकी प्रार्थना ठुकरा दी । उसने पिताकी आज्ञासे अपने भवनके समीपवर्ती प्रदेशको पुरुषका स्पर्श कर आनेवाली वायुसे भी अस्पृष्ट-अछूता करवा लिया अर्थात् पुरुपकी बात तो दूर रही उसका स्पर्श कर आनेवाली वायु भी उसके भवन के समीप नहीं फटक पाती थी।
६१२९. तदनन्तर सखीकी वैसी विमुखता जान उसके कारणभूत चूर्णकी निकृष्टताका शोक करती हुई गुणमाला वाहनपर सवार हो नगर के बाहरी भागसे लौटकर धीरे-धीरे नगरकी ओर आ रही थी। पास में स्थित चेटियाँ जो कर्णसुहानी मीठी-मीठी बातें कर रही थीं उन्हें वह कर्णकटु समझ रही थी। उसी समय सब ओर दौड़ते हुए मनुष्यों के बहुत भारो दुःखपूर्ण शब्दोंसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ, 'हटो, हटो, गजराज है।' यह जोरदार शब्द अत्यधिक मात्रामें
कानों में आ पड़ा । और आनेवाले स्त्रीसमूहके समीप तत्काल ही कोई हाशी आ पहुँचा। वह 1. हाथी सव मनुध्यांका संहार करनेवाला था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो शरीरधारी
१.क० मस्तामपि । २. क. ग. 'गच्छ गच्छ गजेन्द्र गजेन्द्र' इति ।
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- वृत्तान्तः ]
चतुर्थो लम्भः पेत इब 'पादैः, उद्दोयमानविहङ्गसंगताङ्गतया मक्षु जनजिघृक्षया पक्षीकृतपक्ष इव लक्ष्यमाणः, क्षितिधर इव लब्धानिः , अधःकृताधोरणनिवारण: कोऽपि मदवारणः ।।
$ १३०. ततस्तत्मनिधिना निधिलाभेन नोचपरिज्ञान इव परिजने परिक्षीणे, सरभसमुत्सृज्य चतुरन्तयानं दिगन्तं यहत्सु बाहकेषु, सा दरिद्रमध्या दारिद्रयादिव सहन रविगमादेकाकिनो तस्थौ । तथा तिष्ठन्तोमिमां दृष्ट्वा गुणमालां प्रियंवदेति तस्याः पिग यग्यो, 'पानसमामिमां मत्प्राणत्राणाय विहाय कथमपनपा प्रयामि । प्रयान्तु ममासवः प्रागेतन्मृतिप्रेक्षणात् इति पृष्ठोकृय तां
ते च न शानाश्त्यामर्थक्शाया अधीमाकमिशवस्तषां प्रतन याहुल्यन कलितं युनं गात्रं यस्य तस्य भावस्तत्ता तया स्वयं स्वत: अध्यगरूर्वगामिभिः पादश्चरण: अध्यपेत इन सहिन इव तन करिणाश्रोमस्तका उपरि पादा बहवी बालकाः शुषडयोत्याप्योपरिश्ता तेन स अभ्यंग मिमिरधिभिः सहित इत्र यभाविति मावः; उद्दयमानरुत्पतद्भिर्थिहङ्गैः पक्षिभिः संगतमङ्गं यस्य तस्य भावस्तया, महक्षु शीघ्रं जन- १० जिवृक्षया जनान् गृहीतुमिच्छ-या पक्षीकृताः स्वीकृताः पक्षा गरुती बन तथाभूत इब लक्ष्यमाणो दृश्यमानः, रब्धानिः प्राप्तपादः क्षितिधर इव पर्वत इव, अधःकृतानि तिरस्कृतान्याधारणस्य नियन्तुनिवारणानि येन तथाभूतः।
१०. तन इति-ततस्तदनन्तरम् तत्संनिःधना गजेन्द्र संनिधानेन निधिलाभन संपत्तिमाप्त्या नीचपरिज्ञान इवाधमजन विवेक इव परिजने परिकरजने परिक्षीणे विद्रुते सति सरभसं सवेगं चतुरन्यानं १५ शिविकामुत्सृज्य त्यक्त्वा वाहकै दिगन्त काष्ठान्तं बहसु गच्छःसु सत्सु, दरिदं कृशं मध्यमवलग्नं यस्यास्तधाभूता सा गुणमाला दारिद्रयादिय निर्धनस्वादव सहचविगमात सहायिजनविदवणात् एका. किनी असहाया तस्य । तथेति-तथा पूनिका कारण तिष्ठन्तीं विद्यमानाम् इमां गुणमालां दृष्ट्वा प्रियंवदतिनामधेया तस्याः प्रियसी प्रियाली 'मम प्राणा मत्प्राणास्तेषां नाणाय सदसुरक्षणाय प्राणसमा प्राणसदृशीम् इमां गुणमालां विहाय अपनपा निलं जा सती कथं प्रयामि गच्छामि। एतस्या मृतेः प्रेक्षणमवलोकनं २०
यमराज ही हो । उस हाथी का शरीर जिनका मस्तक नीचेकी ओर तथा पैर ऊपर की ओर थे ऐसे सैकड़ों वञ्चोंसे सहित था इसलिए वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वयं ऊपरकी ओर जानेवाले पैरोंसे सहित था । उसके शरीरपर कुछ उड़ते हुए पक्षी भी आ बैठे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो शीघ्र ही मनुष्योंको पकड़ने के लिए उसने पंख ही धारण कर रखे हों। वह पैरोको प्राप्त करनेवाले पर्वतके समान जान पड़ता था तथा उसने महावतको नीचे २५ गिरा दिया था।
६१६०. तदनन्तर उस हाथी के पास आते ही गुणमालाके परिजन उस तरह नष्ट हो गये-इधर-उधर भाग गये जिस तरह कि निधि मिलनेसे नीच मनुष्यका ज्ञान नष्ट हो जाता है और पालकीमें लगे कहार भी पालकी छोड़ शीघ्र ही दिशाओंके अन्त तक-बहुत दूर भाग गये। जिस प्रकार दरिद्रताके कारण सब मित्र बिछुड़ जाते हैं और मनुष्य अकेला रह जाता ३० है उसी प्रकार पतली कमरको धारण करनेवाली गुणमाला भी उस समय सव साथियोंके चले जानेसे अकेली खड़ी रह गयी । गुणमालाकी एक प्रियंवदा नामकी सखी थी। वह गुणमालाको उस तरह अकेली खड़ी देख विचार करने लगी कि इस प्राणसदा सखीको छोड़ अपने प्राणों की रक्षाके लिए निर्लज्ज हो मैं कैसे भाग जाऊँ ? इसकी मृत्यु देखने के पहले ही मेरे
१. क. ग० ततस्तत्मनिधानात।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १३१ गजोपद्वबिम्बोष्ठों, बद्धाञ्जलिः कुञ्जरस्य पुरस्तादस्थात् ।
६१३१. अवसरेऽस्मिन्नाकरिमकागतिस्तव परत्रोपाजितसुकृतवैभवाद्विभव इव स धीरः कुमारः संन्यधात् । व्यथाच्च तद्दशानिशामनमात्रेण विजृम्भितक्षात्रधर्मः स्वमर्मस्पृगुपद्रवविद्रावणप्रवण इव प्रगुणं गुणमाला रक्षणाय तत्क्षणे प्रयासम् । पुन: प्रतिमल्लविलोकनादुल्लोकरोषोद्धरस्य ५ सिन्धुरस्य दान्तये दन्तयोर्मध्ये निजमणिकुण्डल शैलेन गण्डशैलेनेव प्रचण्डं प्राहार्षीत् । अनन्तर
मन्तरिततज्जिवृक्षावेगो वेतण्डश्चण्डरोषप्रसारितशुण्डः शूरप्रकाण्डस्य तस्याभिमुखमभ्यवर्तत, प्राव
तस्मान प्राक्पूर्व ममापत्रः मम प्राणाः प्रयान्तु निगच्छन्तु' इनीयं तो बिम्बोष्ठी रनरदनच्छदां तां गुणभाला पृष्टीकृत्य पश्नाकुन्य बद्धाञ्जलिः सती कुतरस्य करिणः पुरस्तात् अग्ने अस्थान् ।
६१३१. अवसरेऽस्मिन्निनि-अस्मिन्नवसरे तत्कालम् परवान्यस्मिन् जन्मनि उपार्जितस्य १० संचितस्य सुकृतस्य पुण्यस्य यट वैभवं तस्माट विमा तलिट जाकरिता गतिरतर्कितोपस्थितिः सः
धीरो गम्भीरः कुमारो जीवकः तत्रैव गजेन्द्रोपद्वस्थान एव संन्यधात् निकटस्थोऽभूत् । व्यधाचेतितदशाया गुणमालावस्थाया निशामनमात्रेण विलोकनमात्रेण विम्भितो वृद्धिंगतः भात्रधर्मो यस्य तथाभूतः स्वमर्मस्पृश उपद्रवस्य विद्रावणे दूरीकरणे प्रवण इव दक्ष इब तत्क्षणे तत्काले गुणमालारक्षणाय गुणमाला
बापाय प्रगुणं प्रकृष्टं प्रयासं प्रयाप्नं व्यधाच्च चकार च । पुनरिति-पुनस्तदनन्तरं प्रतिमल्लस्य प्रति१५ द्वन्द्विनो विलोकनं तस्मात् उल्लोकंन भूयसा शेपेण कोपेनोदरस्य दुर्दान्तस्य सिन्धुरस्य गजरय दान्तये
दमनाय दन्तयोदशनयोमध्ये गण्डशैलेनेव गपढोपलेनेव निजमणि कृण्डलशैलेन स्वकीयरस्नमयकवणानपिण्डेन 'कुण्डलं कर्णभूषायां तथा वलयपाशयोः' इति विश्वलोचनः, प्रचण्ई तीव्र प्राहार्षीत् प्रजहार । अनन्तरमिति-सदनु अन्तरितस्तिरोहितस्तज्जिघृक्षाया गुणमालाग्रहणेच्छाया वेगो ग्यो यस्य तथाभूतो
वेतण्डो गजः चटरोषेण तीवक्रोधेन प्रसारिता शुण्डा करो वन तथाभूत: सन् शूरप्रकाण्डस्य वीरशिरोमणेः २० तस्य जीवकस्य अभिमुखं संमुखम् अभ्यवर्तत आमगाम प्रहाँ प्रहारं कर्तुं प्रावर्तत च प्रवृतोऽभूत् ।
-- --- --.. .--... --. .--- --.-....--. ---- प्राण निकल जावें तो अच्छा हो' ऐसा विचार कर वह उस बिम्बोष्ठीको अपने पीछे कर तथा हाथ जोड़कर हाथी के सामने खड़ी हो गयी।
१३१. तदनन्तर जिस प्रकार पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावसे अकस्मात आकर वैभव समीप आ जाता है उसी प्रकार धीर वीर जीवन्धरकुमार भी उसी अवसरपर अकस्मात् आते २५ हुए वहाँ समीप आ पहुँचे। और गुणमालाकी दशा देखने मात्रसे जिनका क्षात्र धर्म वृद्धिको
प्राप्त हो गया था ऐसे जीवन्धरकुमार उसी क्षण उसकी रक्षा करने के लिए उस तरह अनुकूल प्रयास करने लगे जिस तरह कि मानो वे अपने मर्म को स्पर्श करनेवाले उपद्रवको दूर करने में ही निपुण हों। अर्थात् गुणमालाके उपद्रवको अपना उपद्रव समझ उसका निराकरण करने के
लिए वे तत्काल तैयार हो गये । तदनगर प्रतिद्वन्द्वीको देखने के कारण जो बहुत भारी क्रोधसे ३० उद्दण्ड हो रहा था ऐसे उस हाथीका दमन करनेके लिए इन्होंने उसके दाँतों के बीच में अपने
मणिमय ऋड़ेके अग्रभागसे इतना नीत्र प्रहार किया मानो गण्डौल-छोटे पहाड़से ही प्रहार किया हो । तत्पश्चात् जिसका गुणमालाको पकड़नेकी इच्छाका वेग अन्तरित हो गया था ऐसा हाथी तीत्र क्रोधसे सूंड फैलाकर शूर वीरोंमें श्रेष्ट जीवन्धरकुमार के सामने आया और
१. क० धीरकुमारः।
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। वृत्तान्तः ] चतुर्यो सम्भः
२०३ र्तत च प्रहर्तुम् । तादात्विकोपायप्रयोगचतुरः कुमारोऽप्यनेकपमनेकप्रकारमायास्य, परिणमति तस्मिन्करिणि चरणमध्येन प्रविश्य, पृष्ठतो निरगच्छदतुच्छधी: । सा च मोचितापि कुमारेण मोचासमोरूमरिमातङ्गकृतातका समजनि । जनितमदनबेदनाविवशाङ्गी तन्यङ्गी तत्क्षणसमानीतमनुयायिभिरधिरुह्य चतुरन्तयातमन्तःप्रविष्टं कुमारमवलोकनितुमिवाधोमुखो, मुहुर्मुहरापतद्भिनिःश्वासरत्युष्णतया मर्मरिताधरपल्लवैराकुलितकुचोत्तरोया, निरुत्तरतया दत्तनमगिरः प्रियसखी: ५ खेदयन्तो विवेश विविधसंनिवेशकान्तं निशान्तम् ।
१३२. अथैनां तुहिनपरामर्शपरिम्मानपङ्कजिनीसच्छायां सत्वरमुपेत्य माता दुहितरं
तादाविति -- तादाविकास्ताकालिका य उपाया रक्षासाधनानि तपां प्रयोगे चतुरो दक्षः अनुच्छधीविशालप्रतिभः कुमारोऽपि अनेकपं गजम् अनेकप्रकारं यथा स्यात्तथा आयास्य खखिन्नं विधाय तस्मिन् करिणि परिणमति तियगदन्तप्रहारं कतुमुद्यते सति चरणमध्यन पादमध्यन प्रविश्य पृष्टतः पश्चादागेन १० निरगच्छत् निर्जगाम । सा चेति-मोचासमोरुः कदलीतुल्यसविधः सा गुणमाला , कुमारेण जीवकेन मोचिताऽपि त्याजितापि गजेन्द्रादिति शेषः मारमातङ्गेन कामकरिणा कृत आनको यस्यास्तथाभूता समजनि । जनितति--जनितया समुरपझया मदनवेदनया कामपीच्या विवानि परायतान्यङ्गानि यस्यास्तथाभूता तन्वङ्गी कृशानी सा गुणमाला अनुयायिभिरनुगामिजनैः तत्क्षणं तत्काल समानीतं चतुरन्तयानं शिविकायानम् अधिल्य समधिष्टाय अन्तः प्रविष्टं हृदयमध्य प्रविष्टं कुमारं जीवंधरम् १५ अबलोकयितुमित्र द्रष्टुमिव अधोमुखी नम्रवक्ता, मुहुर्मुहुर्भूयोभूयः आपतभिर्निःसरद्भिः, अत्युष्णतया प्रचुरौप्पयतया ममरित शुष्कपत्रीकृताऽधरपालदा यस्तः निःश्वास. वासोच्छ्वासपबनः आकुलितं चञ्चलीकृतं कुचोत्तरीयं स्तनोपरिवस्त्रं यस्यास्तथाभूता निरुत्तरत्या मूकीभूतत्वेन दत्तनमगिरः प्रदत्तक्रीडावाशीकाः प्रहासिनीरिति यावत् प्रियसीः गियालीः खेदयन्तो विविधसंनिवेशै नारचनाभिः कान्तं मनोहरं निशान्तं भवनं 'निशान्तपस्त्यसदनं भवनागारमन्दिरम्' इत्यमरः । विवेश प्रविश्वती। २०
६१३२. अथैनामिति -अथ गृहप्रवेशानन्तरं तुहिनस्य हिमस्य परामर्शन संबन्धन परिम्लामा -.-..--......-- ...-.
- --- .--. . -- उनपर प्रहार करने के लिए उन्नत हुआ । तात्कालिक उपायोंके प्रयोग करनेमें चतुर जीवन्धरमार भी उस हाथीको अनेक प्रकारसे खेदखिन्न कर ज्योंही वह तिरछा दन्त प्रहार करने के ए तत्पर हुआ त्योंही उसके पैरोंके बीचसे घुमकर पीछेसे निकल गये। विशाल बुद्धिके
रक जो थे । केले के स्तभके समान जिसकी जाँचें थीं ऐसा गुणमालाको कुमारने यद्यपि २५ . श्रीके उपद्रव से छुड़ा दिया था तथापि बह कामरूपी हाथ के आतंक से युक्त हो गयी।
उत्पन्न हुई कामको वेदनासे जिसका शरीर विवश हो रहा था ऐसी कृशांगी गुणमाला, संवकों के द्वारा तत्काल लायी हुई पालकीपर सवार हो घरकी ओर चली। उस समय उसका मुख नीचेकी ओर था और उससे ऐसी जा न पड़ती थी मानो हृदयके भीतर प्रविष्ट कुमारको
खने के लिए ही उसने नीचेकी ओर मुख कर लिया था। बार-बार निकलती एवं तीर गरमोसे ३. अधर पल्लवको मर्मर-शुक पत्र-जैसा बना देनेवालो साँसांसे उसके स्तनकी चूनरी हिल रही थी। और कोड़ाके वचन कहनेवाली प्रिय सखियों को वह उत्तर न देनेके कारण खिन्न कर रही थी। इस तरह चलती हुई उसने नाना प्रकार की रचनाओस सुन्दर महल में प्रवेश किया।
इ १३२. तदनन्तर तुपारके सम्बन्धसे मुरझायी कमलिनी के समान कान्तिका धारण ३५
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गद्यचिन्तामणिः [ १३२ गुणमालाया जीबंधरस्य चदुःखदीनाक्षरमप्राक्षोत्--'मातः, किमिति भवती कठोरतरतरणिकिरणतापितमणालिनी ग्लानिमनुभवति । निवेदयन्ति च नितान्ततीनिःश्वास मरुतः स्वान्तसंतापम् । करिकदर्थनादतो भवत्याः वि.मस्त्यन्योऽपि मन्युहेतुः :' इति । एवमुक्तापि मुक्तनिश्वासा प्रतिवचसा नाश्वासया
मास मातरं मंदिराक्षी । अधाधिक्षोणाशमभिषङ्गादङ्गजायाः किमनाक्रमणेन किग्विदग्रहाणां ५ ग्रहणेनाहा स्विदपरेण केनापि वा विवागेऽयमा विरासोदिति वितर्कविह्वलगनारा गतायां मातरि,
सहपांसूक्रीडापरिच: पेशलो: प्रियसखीरपि निद्रामिण विद्राव्य समुत्सारितसकल परिवारा, प्रविश्य
शयनगृहं शथीयनिपतिताङ्गी, निरङ्कुशनिपतदन शनिघण भूता, प्रभूतकुमारसौकुमार्यसम्पतनुस. या पक्षजिनी पद्मिनी नस्वाः स रकामा संशा ना मुहार पुत्री सदर श बमुत्य माता दुग्न दानान्य.
राणि यस्मिन् तद्यथा स्यात्तथा अपाशीत--'मातः, स्त्रीजनाचितं संबुद्विवचनम् किं. कंन कारणेन १. इतीत्थं भवती कठोरत रस्तीक्षणतरैस्तरणिकिरण: सूर्यरश्मिभिस्तापिता या मृणालिनी कमलिनी नहुन
ग्लानि म्लान सामनुभवति । निवेदयन्तीति-नितान्तमःयन्तं तीवाश्च ते निःश्वासमस्तश्चेति नितान्ततीवनिश्वासमात उष्णतरश्वासोच्छ्वासघायवः स्वान्तसंतापं मनस्तापं निवेदयन्ति च सूचयन्ति च । अतोऽस्मान करिकदर्थनान गजनिपीउनात् अन्योऽपीतरोऽपि कि मन्युईनुः शोककार म् अस्ति ।' इति ।
एवमिति–एवमनेन प्रकारेण उमापि निगदिताऽपि मुननिश्वासा यकश्वासोच्छ्वासा मदिराक्षी २५ मत्तलोचना प्रतिधचसा प्रत्युत्तरेण मातरं जननी नाश्वासयामास न संतोपयाञ्चकार । अथेति-अथानन्तरम् . आधिक्षीणायां मानसिकव्यथाध्यथितायाम्, अङ्गजामा: पुश्याः किमयं विकार, अभिषनारपः भवात् किम्
अनाक्रमगेन कामोपग्रहेण किंस्विदथवा ग्रहागां रावादीनां प्रहगेत आपरेण वा केनापि कारगन निमित्तेन वा भाविरासीत् प्रकटीवभूव इति वितण विवारण विह्वलं मनी यप्यास्तस्यां मातरि गतायां सत्याम्,
सहपांसुफ्रीडायाः सहधूलिकेल्याः परिचयन पंशला मनोरमाः प्रियसखोरपि प्रीतिमाजनवयस्या भपि १० निद्रामिषेण 'मम निद्रा समायाति' इति ज्याजेन विद्राव्य दृरीकृत्य समुत्सारितो दूरीकृतः सकल
परिवारों यया तथाभूना सती शयनगृह शय्यागारं प्रविश्य शयनीये शल्यायो निपतितमङ्गं यस्यास्तथाभूता, निरङ्कुशं स्वच्छन्दं यथा स्यात्तथा निपतताम् अनङ्गशराणां कामबाणानां निषङ्गीभूता-इपुधीभूता
करनेवाली पुत्री गुणमालाके पास दशान हो जाकर माताने दुःखसे दोन अक्षरों का उच्चारण करती हुई पूछा कि बेटी ! क्यों तू इस तरह अत्यन्त तीक्ष्ण सूर्य की किरणों से तापित मृणालिनीके ५ समान ग्लानिका अनुभव कर रही है ? अत्यन्त नीत्र इवासोच्छवासको वायु तेरे हृदयके
संतापको प्रकट कर रही है। इस हस्तिपीड़ाके सिवाच तेरे दुःखका कारण क्या और भी कुछ है ?' माताके इस प्रकार कहनेपर भी इस मदिराक्षी ने प्रत्युत्तरसे माताको सन्तुष्ट नहीं किया--उसने कुछ उत्तर नहीं दिया। तदनन्तर मानसिक व्यथासे क्षीणा एवं निम्नांकित विचारसे बिह्वल चित्तको धारण करनेवाली माता जब यह सोचती-सोचती चली गयी कि पुत्रीका यह विकार क्या तीत्र आसक्तिसे उत्पन्न है ? या कामदेवकै आक्रमासे, या ग्रहों के ग्रहणसे अथवा अन्य किसी दूसरे हेतुसे प्रकट हुआ है ? नत्र लिद्राके बहाने साथ-साथ धूलि कोड़ाके परिचयसे कोमल प्रिय सखियों को भी विदा कर गुणमालाने समस्त परिवार को अपने पाससे दुर हटा दिया । बह शय्यागृह में प्रवेश कर बिस्तर पर पड़ गयी। बिना किसी रोकटोकके पड़ते हुए काम के बागोसे वह नरकश के समान हो गयी । उसका अन्त:करण जीवन्धर
१. य० ख० ग तापितांचनमृणालिनीव । २. ३०० किमुतान्योऽपि मन्युहे । ३. म० एक मुक्ता प्रतिवयसा। ४. भ. परिचयपेशलप्रियसखोरांप ।
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-स्नेहासमिवृत्तान्तः]
चतुर्थो लम्भः स्मरणसरणिसंचरदन्तःकरण। तदुपलम्भोपायान्वेषणलम्पटमतिः क्रीड़ाशुकं शोकप्रहाणये पाणी कुर्यती, सर्वमस्मै समीहितमावेद्यते विद्यते किमयोपाय इति सप्रणयं सवपर्ण सानुनयं सनीडं चान्येयुक्त । स च कीरः, 'क्रिमम्ब कातर्येण । कार्यमिदगवनी चेत्पार्यत एव मया साधयितुम्' इति सधीरं समभ्यधत्त । सा च मदनकृतोन्मादा प्रमदा प्रमाणस्य परां कोटि कोड़ाशुकवचसा सद्यः समासाद्य तमेव सात्यंधरिसकाशे ससंदेश प्राहिणोत् । स च विहङ्गमो विहायसा सहसा ५ पतन्परितः परिभ्रम्य परिश्रमच्छेदाय गन्धर्वद तागृहोद्यानगतस्य कस्यचित्कवलिताकाशाबाशस्य शाखिन: शाखाग्रे सविपादं निषीदति स्म ।।
६१३३. स चामसितमदहस्तिमदाडम्बरः कुमारः पुनमारकरनिपतवासारकुसुमपत्रि. प्रभूता भूथिटा या कुना व समापसंद मदुत्वसंपत्तिस्तस्या अनुम्मरणसरणी चिन्तनभार्ग संचरद् अन्तःकरणं मनो यस्यास्तशभूता, तस्य कुमारस्यापलम्भस्य प्राप्तेः य उपायास्तवमन्वेषणेऽनु- १० मार्गणे लम्पा मतियस्यास्तथा भूता सती, शोकाहाणये शोकदूरीकरणाय क्रीडाशुक कैलिकरि पाणो करे कुर्वती भस्मै केलि शुकाय सर्व निखिलं समाहितमभिलषितम् आवेध कथयित्वा 'किम् अत्रोपायस्तत्माप्तिसाधन विद्यते' इति सप्रणयं सस्नेहं सकृपणं सत्यं सानुनय मनुनयसहितं सबीई सलज अन्वयुक्त पप्रच्छ । स चेति–स घ कीरः शुकः 'अरब, कातर्यण देन्येन किम् । इदं कार्यम् अवनी वसुधायां चेत् तर्हि मया साधयितुमेव पायते शक्यते' इति सधीरं प्रगल्भं यथा स्यात्तथा समभ्यवत्त कथयामास । १५ सा चंति-मदनेन मारेण कृत उन्मादी यस्यास्तथाभूता सा प्रमदा च गुणमाला च क्रीडाशुकवचसा केलिमेरिवचनन प्रमाणस्य याथार्यस्य परां चरमा कोटिं सीमानम् सद्यः सत्वरम् समासाद्य तमंव कोडाशु ससंदेश संदेशसहित सात्यंधरिसकाशे जीयंघरसमीप प्राहिणोत् प्रेषयामास । स चेति-सच विहङ्गमः पक्षी विहायसा व्योम्ना सहसा इगिति पतन् गच्छन् परितः समन्तात् परिभ्रम्य परिश्रमच्छेदाय श्रान्तिदूरीकरणाय गन्धर्वदतागृहोद्यानगतस्य खगेन्द्रनन्दिनीगृहारामस्थितस्य कवलितो प्रस्त आकाशाव- २० काशो येन तस्य कस्यचिन् शाखिनो विटरिना शाखाग्रे सविषादं यथा स्यात्तथा निषादति स्म निषण्णोऽमत् ।
६१३३. स चापहसितेति-अपहसितस्तिरस्कृतो मदहस्तिनी गन्धगजस्य मदाडम्बरी येन तथाभूतः स च कुमारी जीवकः पुनस्तदनु माररय स्मरस्य कराभ्यां हस्ताभ्यां निपतन् आसारो धारासंपातो
कुमार की अत्यधिक सुकुमारतामें संचार कर रहा था। उन्हींको प्राप्तिके उपाय खोजने में उसकी २५ बुद्धिलीन थी। अन्तमें उसने शोक दूर करने के लिए क्रीड़ाशुकको हाथमें ले उसे अपना सब मनोरथ बतलाया और उससे स्नेह, दीनता, अनुनय और लज्जाके साथ पूछा कि इस विषयमें-जीवन्धरकी प्राप्ति में क्या कोई उपाय है ? क्रीडाशुकने बड़ी धीरवाके साथ कहा कि हे मान: ! दोनतासे क्या काम है ? यदि यह कार्य पृथ्वीपर है तो मेरे द्वारा अवश्य ही सिद्ध किया जा सकता है । कामके द्वारा किये हुए उन्मादको धारण करनेवाली गुणमालाने क्रीडा- ३० शुककै उक्त वचन से प्रमाणकी परम कोटिको प्राप्त कर शोघ्र ही उसी क्रीडाशकको सन्देश के साथ जीवन्धर कुमार के पास भेजा। वह पनी भी आकाशमागसे सहसा उड़ता हुआ चारों ओर घूमा और अन्त में थकावट दूर करने के लिए गन्धर्वदत्ताके घर के किसी ऐसे वृक्ष की शाखाके अग्रभागपर कि जो आकाशके अवकाशको आच्छादित कर रहा था विपादसहित वैट गया।
६१३३. तदनन्तर जिन्होंने मदमाते हाथी के मदाडम्बरकी हँसी उड़ायी थी, कामदेव१. म० सौ कुमार्य सञ्च र दन्तः- । २. पार्यते सत्यमेव ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १३३ गुणमालाया जोवंधरस्य -
पतनपरवशगात्रः, कर्तव्यान्तरं विस्मृत्य विविधप्रयोग चतुरसहचरचारुगोर्ष्वपि गजनिमीलनं कुर्वन्, गुरुतरगुणमालाभिलाषभारवह्नखिन्न इव स्विन्नवपुः, अत्युष्णमायतं च निःश्वस्य निजावसथमभ्येत्व निवारितनिखिलानुयायिवर्गः स्वर्गौकसामपि दुरासदं निजैसदनोद्यानमासदत् । तत्र क्वचित्प्रच्छायशीतले महीतले निषण्णो विषण्णहृदयः स्वहृदयनिविष्टां तां बिम्बोष्टीं वहिरानीयेव प्रत्यक्षयितुकामः तत्कामिनोरूपमभिरूपोऽयमखिलकलासु क्वचिदतिविद्यङ्घटे प्रकटिततदवस्थामालिखत् । अथ तामा लेख्यगतामन्यादृशाभिख्यामतिदीननयनामधिकपरिम्लानवदनामागलितवसनामत्युत्त्रगारानामध्याजकरुणा वहां गुणमालामालोक्य कुरुवंशशिखामणिरहो महिमा मकर -
२०६
१०
यं तथाभूता में कुसुमपचिणः पुष्पशरास्तेषां पतनेन परवशं परायतं गात्रं शरीरं यस्य तथाभूतः, अन्यत्कर्तव्यमिति कर्तव्यान्तरं कार्यान्तरं विस्मृत्य विविध योगे नानाप्रयोगे चतुरा विदग्धा में सहचरा मित्राणि तेषां चारुगि। रमणीयवाण्यस्तास्वपि गजनिमीलनमुपेक्षां कुर्वन् गुरुतरां भूयिष्टशे यी गुणमालाभिलाषमारस्वस्य वहनेन धारयन खिन्नः श्रान्तस्तद्वत् स्विन्नं स्वेदाक्तं वर्गात्रं यस्य तथाभूतः सन् अत्युष्णम् आयतं दीर्घं च निःश्वस्य निजावसथं स्वकीयसदनम् अभ्येत्य समागत्य निवारितो निषिद्धो, निखिलीऽसिलोऽनुयायिवर्गोऽनुचरसमूहो येन तथाभूतः स्वर्गेकसामपि देवानामपि दुरासदं दुर्लभं सदनोद्यानं मनोपत्रम् आससाद । तत्रेति तत्र गृहोद्याने क्वचित्कुत्रापि प्रकृश छाया प्रच्छायं तेन शीतलं १५ शिशिरं तस्मिन् महीतले भूतले निषण्ण उपविष्टः विषण्णहृदयः खिन्नचेताः स्वहृदयनिविष्टां स्वस्वान्तस्थितां तां विष्टरक्करदनच्छदां गुणमालां बहिरानीय तत्कामिनीरूपं गुणमाला सौन्दर्य प्रत्यक्षयितुकाम इत्र प्रत्यक्षं द्रष्टुमुत्सुक इव अखिलकलासु निखिल वैदग्धषु अभिरूप विदग्धोऽयं कुमारः कचित् कस्मिंश्चिदपि अतिविशङ्कटे विशालतरे पटे तस्या अवस्था तदवस्था प्रकटिता चासौ तदवस्था प्रकटिततवस्था तां प्रकटितगुणमाला शाम् अलिखत् गजोपद्रवकाले गुणमालाया यावस्थासीत् तां चित्रपदे २० लि लेखेति भावः । अथेति — अथानन्तरम् आलेख्यगतां चित्रगताम्, अन्यादृशी स्वाभाविकेतरा अभिख्या शोभा यस्यास्ताम्, अतिदीने दीनतावहे नयने यस्यास्ताम् अधिकं यथा स्यात्तथा परिम्लानं मलिनं वदनं मुखं यस्यास्ताम्, आग. लतमोत्पतितं वसनं वस्त्रं यस्यास्ताम्, अम्युल्बणमत्युत्कटं व्यसनं दुःखं यस्यास्ताम्, अध्याजकरुणावहां निश्चलद्याधारिणीम् गुणमालाम् आलोक्य, कुरुवंशशिखामणिजीवंधरः हाथसे वारवार पड़ते हुए पुष्पमय वाणोंसे जिनका शरीर परवश हो रहा था, अन्य सब कार्य भूलकर जो नाना प्रकार के प्रयोगों में चतुर मित्रोंकी सुन्दर सुन्दर चाणी में भी उपेक्षा कर रहे थे, गुणमालाकी अभिलाषारूप बहुत भारी भारके धारण करनेसे खिन्न हुए के समान जिनका शरीर पसीनासे तर हो रहा था, अत्यन्त गरम और लम्बी-लम्बी साँसे भरते. अपने घर आये थे और घर आते ही जिन्होंने समस्त अनुयायियों को दूर कर दिया था हुए जां ऐसे जीवन्धरकुमार देवताओंके लिए भी दुर्लभ अपने घर के उद्यान में आये । तदनन्तर जो ३० वहाँ सघन छायासे शीतल किसी वृक्ष के नीचे बैठ गये थे, जिनका चित्त खेइसे युक्त था, जो अपने हृदय में स्थित उस विम्बोष्ठीको बाहर लाकर ही मानो उसके रूपको प्रत्यक्ष देखना चाहते थे, एवं जो समस्त कलाओं में निपुण थे ऐसे जीवन्धरकुमारने किसी विशाल पटपर उसकी उस प्रकटित अवस्थाको लिखा- हाथके उपद्रव से पीडित गुणमालाका चित्र बनाया । तत्पश्चात् जिसकी शोभा दूसरे ही प्रकारकी हो गयी थी, जिसके नेत्र अत्यन्त दोन थे, ३५ जिसका मुख अधिक मुरझा गया था, जिसका वस्त्र नीचे की ओर खिसक गया था, जो बहुत भारी दुःखका अनुभव कर रही थी और जो निश्छल करुणाको धारण कर रही थी ऐसो
२५
१. म० निजसदनी ।
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- स्नेहासक्तिवृत्तान्तः]
चतुर्थों लम्मः ध्वजस्य, साक्षादिव तो संनिहिताममन्यत । यतस्तां पञ्चशरवञ्चितोऽयमवाञ्छदालिङ्गितुम्, आरभत तस्यै किमप्यावेदयितुम्, विषोदति स्म तस्यां जोषमवस्थितायाम् ।।
६१३४.एवमवस्थान्तर गच्छत्यनुच्छतदासङ्गारसरकाङ्गजे इतरतरुविरनिलीन सकेलीशुकः साकूतं ससंभ्रमं च संभ्रमन्तमेनं प्रसारितशिरा:सुचिरमुत्पश्यन् 'अयमेवास्माभिरन्विष्टो विशिष्टः । स्पष्टमयमप्याविष्ट इव मदनग्रहेण । गुणमालया भणितमिदं चिह्नमप्यह्रायारिमन्नविसंवादमश्नुते । तत- ५ स्तमुपसमि' इत्यारचितविचार: कुमारनिकटमाटीकते स्म । कुमारोऽपि सविस्मयं साशङ्खच सपत्रमेनं पत्रिणमुद्रीक्ष्य न केवलोऽयम् । न हि निराशङ्कविहङ्गममात्रस्य त्रासं निवर्त्य मर्त्यसनीडागतिघिटीति। 'अहो मकरध्वजस्य मारस्य महिमा' तो चित्रलिखित साक्षात् संनिहितामिव निकटस्थितामिव अमन्यत । यती अस्माकारणात् पळशरवञ्चितः कामप्रतारितोऽयं जीवधरस्ताम् आलिङ्गितम् अवाञ्छत इयेप, तस्यै गुणमालाय किमपि गुहा तत्वमिति यावत् आवेदयितुं कथयितुम् आरमत तत्पराभूत, तस्यां गुणमालायां १० जोषमवस्थितायां तूष्णीं विद्यमानायां विषीदति स्म विपपणाभून ।।
१२५. एवमिति- एवमनेन प्रकारेण तस्यामासङ्गस्तदासङ्गः, अतुच्छश्चासौ तदासन श्वे. त्यतुच्छतदासजस्तस्मान् तीव्रतरतदासः सत्यं धराङ्गजे जीवंधरे अवस्थान्तरं दशान्तरं गछति सति, तुङ्गतरतरशिखरे समुन्नतशाखिशाखायो निलीनः स्थितः स केप्लीशुकः क्रीडाशुकः साकृतं साभिप्राय ससंभ्रमं च सविलासं च भ्रमन्तं संघरस्तम् एनं कुमारम् प्रसारितशिराः प्रसारितमस्तक सुचिरं सुदीर्घ- १५ कालम् उत्पश्यन् विलोकयन् 'अयमेव एष एवास्माभिः अन्विष्टोऽनुमागितो विशिष्टोऽसाधारणः पुरुषः । स्पष्टं व्यफम् अयमपि मदन ग्रहेण स्मरपिशाचेन आविष्ट इवाक्रान्त इन दृश्यत इति शेषः । गुणमालया भणितं निवेदितं चिह्नमपि लक्षणमपि अह्वाय शीघ्रम् अस्मिन् अविसंवाद विरोधाभावम् अश्नुते व्याप्नोति । ततः कारणात् तं दृश्यमानं जनम् उपसमि सस्य समीय गच्छामि' इतीत्यम् आरचितो विचारो येन तथाभूतः सन् कुमारनिकटं जीवंधराभ्यर्णम् भाटोकते स्म आगमत् 'टीकृ गतौ । २० कुमारोऽपीति-कुमारोऽपि जीवंधरोऽपि सविस्मयं साश्वयं साशकं च सपत्रं पनसहितम् एनं पत्रिणं पक्षिणम् उद्वीक्ष्य-उदवलोक्य 'न केवलोऽयं विहङ्गमः । हि अतो न विहङ्गममात्रस्य पशिमात्रस्य निराश निःशव यथा स्यात्तथा वासं भयं निवस्यं दूरीकृत्य भयंसनीदागतिः पुरुषपाश्र्वागतिः जाघीति संघटते । उस चिनलिखित गुणमालाको देख कुरुवंझके शिखामणि जीवन्धर कुमार साक्षात् निकटमें स्थित जैसी मानने लगे यह कामकी ही आश्चर्यजनक महिमा थी। क्योंकि कामसे प्रतारित २५ हो जीवन्धरकुमार उसका आलिंगन करनेकी इच्छा करने लगे उसके लिए कुछ रहस्यपूर्ण वार्ता बतलाने के लिए तैयार हो गये और उसके चुप रहनेपर विपादयुक्त हो गये-खेदका अनुभव करने लगे।
६१३४. इस प्रकार गणमालाकी बहुत भारी आसक्तिसे जब जीवन्धरकुमार दुसरो ही अवस्थाको प्राप्त हो रहे थे तब बहुत भारी ऊँचे वृक्ष के शिखरपर बैठा हुआ वह क्र.डाशुक ३० खास अभिप्राय एवं संभ्रमके साथ भ्रमण करते हुए इन जीवन्धरकुमारको अपना शिर पसारकर बहुत देर तक देखता रहा । वह विचार करने लगा कि हम जिस विशिष्ट पुरुषको खोज रहे हैं वह यही है। यह भी तो स्पष्टतया कामरूपी पिशाचसे आक्रान्त-जैसा दिखाई दे रहा है । गुणमालाने जो चिह्न कहा था वह शीघ्र ही इसमें बिना किसी विवादके घटित होता है । अतः मैं इसके पास जाना हूँ', ऐसा विचार कर वह जीवन्धर कुमारके पास गया। ३१ जीवन्धर कुमार भी विस्मय और आशंकाके साथ इस पत्रसहित पक्षीको देखकर विचार
१. म० चिह्नमलाय।
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गद्यचिन्तामणिः
1. गुणमालाया जीवंधरस्य चबाढमनेन च क्रीडाशुकेन भवितव्यम् । किं चायं शुकः किंशुकातिशायिचञ्चुपुटे धत्ते किमपि पत्रमपि । दिष्या सापि किमस्मद्यते यास्मानित्यमुन्मत्तयति । अचिन्त्यानुभावं हि भवितव्यम् । पुष्पबाणोऽपि वा निष्फलप्रयासः किमस्मास्वेव साय संघले । संगमयितुमावां समुत्सुकस्य तस्य तस्यामपि विद्धानां हि मनोषितसिद्धिः' इतीत्यमन्यथाप्यमन्यत । तथा मन्यमानं मारमहनीयं ५ कुमारमादरादभिप्रणम्य सप्रश्रयं समर्पितरांदेश: समुत्क्षिप्य दक्षिणपादं यमिदं पपाठ क्रोडाशुकः ।
२०८
२०
$ १३५. विषयेषु समस्तेषु कामं स फलयन्सदा । गुणमालां जगन्मान्यां जीव त्वं जीवताच्चिरम् ॥'
बाद
१०
स्पष्टम् अनेन च क्रीडाशुकेन कलीकीरण सवितव्यम् गावें प्रयोगः । किं च, अन्यत् किमपि अयं शुकः किंशुकातिशायिचम्बुपुढे पलाशपुष्पातिशायित्ररिटे किमपि पत्रमपि लेखलमपि धत्ते दधाति । दिया देवेन सापि गुणमालापि किम् अस्मद्यते अहमिवाचरति या अस्मान् इत्थमनेन प्रकारेण उन्मत्तयति उन्मत्तं करोति । अचिन्त्योऽविचार्योऽनुमावः प्रभावो यस्य तथाभूतं हि भवितव्यं भावि मवर्तीति शेषः । पुष्पबाणोऽपि वा कामोऽपि वा निष्फल प्रयासो मोघोद्योगः सन् किम् अस्मत्स्वेव सायकं बाणं संधत्ते । आवां द्वौ संगमयितुं मेलयितुं समुत्सुकस्य समुत्कण्ठितस्य तस्य मदनस्य तस्यामपि गुणमालायामपि विद्वायां सत्यां कृतव्रणायां सत्यां हि मनीषित सिद्धिरमिलषितसिद्धिः', इतीत्यमन्यथापि अन्य प्रकारेणापि अमन्यत मन्यते स्म । तथा तादृशं मन्यमानं जानन्तं मार हव महनीयस्तं काम्पूजनीयं कुमारम् आदरात् अभिप्रणम्य नमस्कृत्य सप्रश्रयं सविनयं समर्पितः संदेशो येन तथाभूतः सन् दक्षिणं वामेतरं पारणं समुत्क्षिप्य समुत्थाप्य दद्यमिदमधोलिखितं क्रीडाशुकः पपा
६ १३५. विषयेष्विति - हे जीव, हे जीवक, त्वं सदा कामं यथेच्छं यथा स्थात्तया जगन्मान्यां जगत्पूज्यां गुणमालां गुणसन्ततिम् पक्षे गुणमालानाम्नी कन्याम् समस्तेषु विषयेषु सफलयम् चिरं दीर्घकालं यावत् जीवतान् जीवितो भव । अनुष्टुब् छन्दः ।
२५
करने लगे कि 'यह केवल पक्षी नहीं हैं क्योंकि केवल पक्षीका निःशंक हो भय छोड़कर मनुष्य के पास आना संगत नहीं होता । निश्चित ही इसे क्रीड़ाशुक होना चाहिए। इसके सिवाय यह पक्षी पलाश पुष्पको पराजित करनेवाली चोंच में कुछ पत्र भी धारण कर रहा है। भाग्यवश वह गुणमाला भी, कि जो हमें इस तरह उन्मत्त बना रही है क्या हमारे ही समान आचरण कर रही हैं ? भवितव्य की महिमा अचिन्त्य है । अथवा कामदेव भी निष्फल प्रयास हो केवल हमारे ऊपर ही बाण धारण करता है । यदि कामदेव हम दोनोंको मिलाना चाहता है तो गुणमाला भी विद्ध होनेपर उसके मनोरथकी सिद्धि हो सकती है । इस तरह तथा अन्य तरह भो जीवन्धरकुमारने विचार किया। उस प्रकारका विचार करनेवाले एवं कामदेव के समान प्रशंसनीय जीवन्धरको बड़े आदरसे प्रणाम कर तथा विनयपूर्वक सन्देश सुनाकर दाहिना पैर ऊपर उठा कीड़ाशुकने यह इलोक पड़ा |
६ १३५. 'विषयेषु समस्तेषु कामं सफलयन् सदा । गुणमालां जगन्मान्यां जीवयञ्जीव ताच्चिरम् ॥
समस्त विषयों में इच्छानुसार सदा सफल होते हुए आप जगत द्वारा माननीय गुणकी पंक्तिको ( पक्ष में गुणमाला नामकी कन्याको ) जीवित रखते हुए चिरकाल तक जीवित रहें ।
३५.
१. व.० ख० ग० जीवत्वं जीवताच्चिरम् । हे जीव ! हे जीवक त्वं वर्धस्य इति टि० म० जोवयज्ञ्जोक्ताच्चिरम् ।
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-स्नेहामनिवृत्तान्तः
चतुर्थी लम्भः १३६, तदुपश्रुत्य विश्रुतविश्वबंदुष्योऽयममुष्य पाण्डित्यमतिचतुरं संभाव्य ससंभ्रमं मंदेशं बाचयामाग। आसोच्चास्य तत्कन्यालिखितमनन्यजग जातसंज्वरस्य संजीवनौषधम् । अबुध्यत चात्मानमध्यप्रयासं गन्धोत्कटयूनुः । प्रादेपोच्च सं गनोपी मनीषितार्थसमर्थनपरचतुरवचन गर्भप्रतिगमलाभेन प्रगुणापा ममतापानी ही डाकम् ।
$ १३५. सा च तदागमनं प्रतीक्षमाणा प्रतिक्षणविजम्भमाणोत्कण्ठा 'किमयं शुक्रस्तं ५ जनं पश्येममाहितमपि नाग साधयेत् । कदा वा समागच्छेत् ।' इत्युत्पन्नमतिमद्ग्रीवा चातकीव जीमूतागमनारया गगनं समुद्रीय सविषादं निषसाद | तथा भिषीदन्ती निरन्तरनिपतदायल्लक-..
६५३६. नदुपश्रुत्यति-तत्पद्यमाशीर्शदात्मकं उपत्य निशम्य विश्रत प्रसिद्ध विश्ववैदुष्यं निखिलपापित्यं यस्य तथानोऽयं जीवंधरः अमुप्य क्रीडाशकस्य पागि इत्यं चैदुष्यम् अति चतुरमत्तिविदग्धं सं माव्य ससंभ्रमं संभ्रमण सहितं संदेशं वाचयामास कथयामास । मामाच्च बभूव च कन्या- १० लिखितं तत् पत्रम् अनन्यजेन कुसुमपुणा संजातः संज्वरो यस्य तथाभूनस्य अस्य जीवकस्य संजीवनौषधं प्रागप्रदोषधम् । अनुध्यत च-अमन्यत च गन्धोत्कटसूनुजीबंधर आत्मानम् अवध्यप्रयास सफल प्रयलम् । प्राहपोरचेति-प्राह पात्प्रेषयामास च स मनीषो बुद्धिमान् जीबंधरो मनीषितार्थस्याभिलपिताथस्य समर्थनपराणि चतुरवचनानि विदग्धवचासि गमें यस्य तधाभुतं यत्प्रनिपग्नं तस्य लाभन मान्या प्रगुणः प्रचुरः प्रहपों यस्य नं क्रीडाशुक केलीकारम् गुणमाल. सनी ई गुणमालासमीपम् ।।
६१३७, सा चेति-सा च गुणमाका च तदागमनं क्रीडाशुकप्रत्यागमनं प्रतीक्षमाणा प्रतिक्षणं प्रति समय विजम्भमाण, वर्धमानोत्कण्ठा समोत्सुक्यं यस्यास्तथाभूता 'किमयं शुकः कीरः तं जनं जीबंधर पश्यन् समाहितमपि मनीषितमपि साधयेत् । कदा वा समागच्छन्' संभावनायां लिङ', इन्युत्पन्ना मतिर्यस्यास्तथाभूता, उत्थापिता ग्रीवा यस्याः सा, जोमूतस्य मंघस्यागमन आस्था यस्यास्तथाभूता चातकीव गगनं नमो समुद्रीश्य समवलोक्य सविपाद सखेदं यथा स्यात्तथा नियमाद , निपण्णाऽभून् । तथेति-या तेन प्रकारेण निषीदन्ती सपनि निरन्तरमनवरतं निपतन्ती य
ई १३६. जिनका समस्त विषयोंका पाण्डित्य प्रसिद्ध था ऐसे जीवन्धरकुमारने क्रीड़ाशुकके उक्त लोकको सुनकर तथा उसके अत्यन्त चतुर पाण्डित्यको प्रशंसा कर शोव्रतासे सन्देशको बाँचा। कन्या द्वारा लिखा हुआ वह सन्देशपत्र कामञ्चरसे पीड़ित जीवन्धरकुमार के लिए संजीवन औपध हुआ। उन्होंने अपने आपको सफल प्रयाससे युक्त समझा।। तदनन्तर बुद्धिमान जीवन्धर कुमारने अभिलषित अर्थके समर्थन करने में तत्पर चतुर वचनोंसे युक्त बदलेका पत्र प्राप्त होनेसे जिसका हर्ष बहुत बढ़ गया था ऐसे उस क्रोडाशुकको गुणमाला के पास वापस भेज दिया।
१३.७. उधर क्षण-क्षण में जिसकी उत्कण्ठा बढ़ रही थी ऐसी गुणमाला क्रीडाझुकके आगमनकी प्रतीक्षा करती हुई विचार कर रही थी कि यह शुक क्या उन्हें देख सकेगा? 30 मनोरथको सिद्ध कर सकेगा ? अथवा कर वापस आयेगा? इस प्रकार विचार करती हुई वह मेघ आगमन में श्रद्धा रखने वाली चातकाके समान गरदन ऊपर उठाकर आकाशको और दग्यती हुई विपादसहित बैठी थी । तदनन्तर जो उस प्रकार प्रतीक्षा करती हुई वैठी थी,
१. म . स मनीपिताधसमर्थन-! २. आपलक: मदनः, इति टि० ।
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गद्यचिन्तामणिः [ १३८ गुणमालाया जीवंधरस्य चभल्लबाहुल्यादकल्यामकल्याणा कृत्तिमारादालोक्य शुकस्ता विच्छायावमानमवच्छेत्तुमलं प्रगल्भस्तल्पशरणां गुणमालां समभ्यगमत् । तथा सा च तमन्तरिक्ष एवं वीक्षमाणा, प्रसभं प्रतिगृह्य वाढं परिरभ्य हर्षायुभिरध्वममिवापहतुमभिपिञ्चन्ती, मुञ्चती रोमाञ्चम्, मुहुः शिरस्याघ्राय मुहूर्त मुद्दामसंभ्रमा वामोमाक्षिपन्देन परिचितनिमित्तलाभेन प्रागेव सूचितशुभागमा, शुकमुख५ प्रसादोवतां पुनरुक्तां समीहितसंप्राप्तिं सात्यंधरिसंदेशतः संदेहविकल माकलयत् 1
ॐ १३८. ततस्तां मञ्जुभाषिणीं किचिद्गलमनस्यां वयस्यामुखेनें वसन्तबन्धुविकारचिह्नेन जीयंत्ररतास्थया समुपस्थिततदवस्था समुपलभ्य पितरी भृशं प्रीणन्ती 'गुणमालैव सत्यमियं गुणमाला, यदियमपहस्तितास्थानगतास्था सर्वथा योग्ये भाग्यादृते दुर्लभे वल्लभबुद्धि
२१०
आयल्लकभल्ला मदनमहलस्तां बाहुल्यादादिक्यात् अकल्यामस्त्रस्याम्, अकल्याणी आकृतिर्यस्यास्ताम् १० तत्वशरण राय्यावतिनां गुणमानाम् आराद हसन 'आदरसतीपयोः ' इत्यमरः, आलोक्य दृष्ट्टा विच्छायावमानं निष्प्रभताचमानम् अवच्छेतुं ज्ञातुम् अलं प्राभः शुकः समस्यगमत् समीपं जगाम । तथेति — तथा तेन प्रकारेण सा च गुणमाला च तं गुरुम् अन्तरिक्ष एवं नमस्येव वीक्षमाणा त्रिलोकमाना प्रसभं हटान् प्रतिगृह्य करेण गृहीत्वा बाढं सातिशयं परिरभ्य समालिङ्गय श्रञ्चश्रमं मार्गखेदमपहर्तुमित्र हर्षाश्रुभिः अभिषिञ्चतीमा पुलकं मुञ्चन्ती दवती, मुहुर्भूयः शिरसि मूर्ध्नि आघाय नासाविषयीकृत्य मुहूर्त्त १५ मुहूर्त्तपर्यन्तम् उदाससंभ्रमा उत्काविलासा वामोरुः सुमत्रिधः वासाक्षिस्पन्दन दक्षिणेतर नेत्रस्पन्दनेन परिचितनिमित्तलाभन प्रागनुभूतनिमितप्राप्या च प्रात्र पूर्वमेव सूचितः शुभागमो यस्यास्तथाभूता सती शुकस्य प्रसादेन प्रसन्नतयोक्त! तां तथाभूतां पुनरुको पुनरुदीरितां समीहितसंप्राप्तिं वाािर्थप्राप्ति सात्यंधरिसंदेशतो जीवंघरसंदेशतो संदेहविकलं निःसन्देहं यथा स्यात्तथा आकलयत् ज्ञातवती ।
१६. तनस्तामिति -- ततस्तदनन्तरम् तां मज्जुभाषिणीं सुभाषिणीम् किंचित् मनारा विगलत् २० यद् वैमनस्यं यस्यास्तां वयस्यामुखेन सहचरीवक्त्रेण वमन्त धुर्मदनस्तस्य विकारस्य चिह्नं तेन जीवंधरगतास्थया जीवकाभिलषितेन समुपस्थिता तदवस्था यस्यास्तथाभूतां समुपलभ्य पितरी मातापितरौ भृशमत्यर्थम् प्रीणन्त संतुष्यन्ती 'इयं गुणमालैव सभ्यं यथार्थ गुणमाला गुणपक्तिः, यद्यस्मात्कारणात् इयम् अपहस्तिता दूरीकृता अस्थानगता अपात्र संबन्धिनी आस्था यया तथाभूता सती सर्वथा सर्व
निरन्तर पड़ते हुए काम के बाणोंकी अधिकतासे जो अस्वस्थ जान पड़ती थी, जिसकी आकृति २.५ अमंगल रूप थी तथा बिस्तर ही जिसका शरण था ऐसी गुणमालाको आदरपूर्वक देख, निष्प्रभताका कारण जानने में अत्यन्त चतुर कोड़ाशुक उसके सम्मुख गया। तदनन्तर उसने आकाशमें देखते ही उस क्रीड़ाशुकको जबरदस्ती पकड़ लिया, उसका खूब आलिङ्गन किया, मार्गकी थकावट दूर करनेके लिए ही मानो हर्षाश्रुओंसे उसका अभिषेक किया, स्वयं रोमांच छोड़े, शिरपर बार-बार सूँघा और स्वयं उत्कट संभ्रम से युक्त हो मुहूर्त-भर बैठी रही । ३० यद्यपि चायीं आँख के फड़कने से तथा परिचित अनुभूत निमित्तके मिलने से उसे शुभ समागमको सूचना पहले ही मिल चुकी थी तथापि उसने शुकके मुखकी प्रसन्नता से कही हुई मनोरथकी पुनरुक्त प्राप्तिको जीवन्धरकुमारके सन्देशसे निःसन्देह जान लिया !
$ १३८. तदनन्तर जिसकी उदासीनता कुछ-कुछ नष्ट हो गयी थी और जो मधुर भाषण करने लगी थी ऐसी गुणमालाको, सखीके मुखसे तथा कामविकार के चिह्नसे जीवन्धर ३५ सम्बन्धी अनुरागके कारण उक्त अवस्था से सम्पन्न जानकर उसके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए । 'चूँकि यह अन्य अयोग्य पुरुषमें आदबुद्धिको दूर कर सदा तथा सब प्रकार से योग्य
१० कल्याणकृतिपादक २ ० स्मुखे वसन्त वसन्त वन्धु । ३. म० सर्वदा सर्वया ।
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-त्रिवाह वृत्तान्तः ]
चतुर्थों लम्भः बध्नाति' इति स्फारमुपलाल्य दुहितरं तत्कल्याणपरायणायभृताम् । प्राहिणुतां च गन्धोत्कटसविधे विविध_दुष्यावामुप्यावणी वर्षीयांसी पुरुषो। तावधि सादरभरमभ्येत्य तमिभ्यपतिमियत्तादूरमितरासंभवं तेन संभावितौ च 'तत्रभवतोः किमत्रागमने प्रयोजनम् ? नियोजयतां समोहिते मां कर्मणि' इति सानुनयमनुयुक्तो छ मुहुर्ववतुमीप्सितमुपाक्रमाताम्--'अयि महाभाग, धात्रीतले 'तव पुत्राय नः पुत्री समर्पयाम इति न प्रसति व्यवहारः । नापि भवतस्तनयस्य ५ भुवनप्रतीक्ष्यत्वादपेक्ष्यतेऽस्माभिरयमर्थः । श्रुत्वेदमत्रभवान् प्रमाणम्' । इति सकृपणं राप्रणयं च
प्रकारंण योग्य भाग्याहत देवा बिना दुलं दुमय वल्लपबुन्द्रि भाभियं नाति' इगि स्फारमत्यन्त या स्यात्तथा दुहितरं पुनीम उपलाल्य :शस्य तस्याः कल्याणं तत्कल्या नमिन परायणी अभूताम् । प्राहिणुतां च प्रपयामास तुश्च गन्धोत्कटसविधे वैश्यपति रमापं विविधबंदुप्यो नानाप्रकारपाण्डित्यो आमुन्यायणी कुलीनी वर्षीयान्सौ वृद्ध तरी पुरुपौ। तावपीति-तौ पुरूमावपि तं पूर्वोक्तम् इम्यपति १० धनिकुपति गन्धोत्कटं सादरभरम् श्रादरातिशययुन. यथा स्यात्तथा अभ्यत्य संमुखं गत्वा इयत्तादूरं मर्यादातीतम् इनरासंभवम् अन्जनासाधारणं तेन वैश्यपतिनासंभावितौ सत्कृती च तत्रभवतोमाननीययोर्भवतीः अत्रागमनं कि प्रयोजनम् । मां समाहितऽभिलषिते कमगि नियोजयताम् जियुवा ,
इ नर सस्नेहं मुहुः पुनः पुनः अनुयुक्तौ पृष्टौ च इप्सितमभिलषितं वन्तुम् उपार्कसाताम् तत्परावभूताम्अयि महामाग, अये महाशय, धात्रीतले पृथिवीनले 'तव पुत्राय जीवंधराय नोऽस्माकं पुत्री रस्मर्पयामः' १५ इति व्यवहारो न प्रसर्पति तथापि भवतस्तनयस्य पुत्रस्य भुवनम्नतीक्ष्यत्वा जगत्पूज्यत्वात अस्माभिः अयमर्थः अपश्यतेऽमिलप्यते । यद्यपि 'तव पुत्राय वयं स्वपुत्रों समर्पयामः' इति व्यवहारो न योग्यो विद्यतं भवदपेक्षयास्माकं होनशक्तिवान् । तथापि भवतस्तनयस्य भुवन प्रतीक्ष्यवादमामिरपि पुत्र:समर्पगाय तदपंक्षा क्रियत इति मावः । इदं श्रुत्वा समाकार्य अत्रमवान् माननीयस्त्वम् अन्न विषये प्रमाणम्' इतीअं सकृपणं सदैन्यं सप्रणयं सस्नेहं ताभ्यां वर्षीयोभ्याम् प्रणीतं निवेदितं प्रतीच्छन् अभिलपन् २०
और.भाग्यके बिना दुर्लभ पुरुपमें ही वल्लभको बुद्धि धारण कर रही है इसलिए यह गुणमाला सचमुच ही गुणों की माला ही है। इस प्रकार उसकी बहुत भारी प्रशंसा कर उसके कल्याण करने में विवाह करने में तत्पर हो गये। उन्होंने नाना प्रकार के पाण्डित्यको धारण करने वाले अपने पक्षके दो वृद्ध पुरुप गन्धोत्कट के समीप भैजे । दोनों वृद्ध पुरुष बहुत भारी आदर के साथ वैश्यशिरोमणि गन्धोत्कट के निकट गये । गन्धोत्कटने दोनोंका मर्यादासे २५ रहित तथा अन्य मनुष्योंके लिए. दुर्लभ सत्कार कर उनसे विनयपूर्वक पूछा कि आप महानुभावोंके यहाँ आनेका प्रयोजन क्या है ? आप हमें अभिलपित कार्यमें नियुक्त कीजिए। इस प्रकार गन्धोत्कट ने जब बार-बार प्रेमपूर्वक पूछा तब वे इस प्रकार अपन! मनोरथ कहनेके लिए तत्पर हुए। उन्होंने कहा कि 'हे महानुभाब ! हम आपके पुत्रके लिए पनी पुत्री समर्पण करते हैं। यह व्यवहार यद्यपि पृथ्वीतलपर नहीं फैल रहा है तथापि चूँ कि आएका ३० पुत्र संसार के द्वारा पूज्य है, इसलिए हम यह कार्य चाहते हैं। भावार्थ-अपनी अयोग्यता देखते हुए तो यह कहनेका साहस नहीं होता कि हम अपनी पुत्री आपके पुत्र के लिए समर्पित कर रहे हैं परन्तु आपके पुत्रकी जगन्मान्यता देख हम लोग चाहते हैं कि यह कार्य हो जाये तो अच्छा है । यह सुनकर इस विषय में आप ही प्रमाण है', इस प्रकार दीनता और स्नेहके साथ उन दोनों वृद्ध पुरुषों के द्वारा कथित प्रार्थनाको 'दोनांका विवाह सम्बन्ध हो क्या दोष ३५
१. म०पलाल्य तत्पल्याण' ।
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रायचिन्तामभिः
ताभ्यां प्रणीतं वणिक्प्रवेकः प्रतीच्छन् 'अस्तु, को दोषः । इत्यभ्युपागच्छत् ।
$ १३९. अथ गन्धोत्कटे तयोरत्युत्कटप्रार्थनया तमर्थमभ्युपगतवति, प्रतिक्षणसमापतद्वान्धवशतसहस्रसमाकुले प्रणयिजनप्रेषितप्रभूतप्राभृतभरितखलूगेपरिसरे प्रवृशिल्पिलोककल्यमानपरिकर्मविकल्पकमनीयनिवेशे नैकशतवित्तानोपधान पताकाद्युपयोगपट्यमानपट्टांशुकपटले पद्म५ रागमणितोरणोत्तम् शुभितर्द्वािरवितदिके वित्तवितरणानन्दिवन्दि निवृन्दार वृन्दपाटयमान प्रशस्तिकाव्यकलकलमुखरे मुहुर्मुहुरा मानपरिणयनोपकरणसंनिधापन कर्मकर्मान्तिके गृहचिन्तकचिन्त्यमानसदन प्रतिविधेये विधेय चामीकरकारविधीयमानमण्ड नाटकघट्टनटङ्कारवाचालिताभ्यर्णे निर्वर्त्य
२१२
[ १३९ गुणमालाया जीवंधरस्य च
वणिकः 'अस्तु, को दोपः इति अभ्युपागच्छत् स्वीचकार ।
६ ३९ अथेति - अथानन्तरं गन्धोत्कटे तयोः यो अत्युत्कटार्थनया प्रार्थनातिशयेन तम् १० अथम् अभ्युपगतवति स्वीकृतवति सति चधूवयोर्भवने वधूवरभवने कन्याजामातृसदनं बभूवतुः इति कर्तृक्रयासम्बन्धः । अथ तयोरेव विशेषणान्याह प्रतिक्षणेति प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति समापतन्तः समागच्छन्तो ये बान्धा इष्टजनास्तेषां शतसहस्रेण बाहुल्येन समाकुले व्याप्तं प्रणयति--प्रणयिनो जना इति प्रणयिजनास्तैः स्नेहिपुरुषः प्रेषितैः प्रहितैः प्रभूतप्राभूतैरत्यधिकोपहारवस्तुभिर्भरितः खल्टीपरिसरः स्थानविशेषपाययोस्तं प्रकृष्टेति – प्रकृष्टैः श्रेष्ठेः शिसिलोक कार्यकरैः कल्प्यमानानि निर्मीयमाणानि १५ यानि परिकर्माणि रचनाविशेष स्तेषां विकल्पैश्वान्तरभेदः कमनीयां मनोहरी निवेशां यया, नैकति नैकश सं प्रभूतपरिमाणानि यानि वितानोपधानवताकादीनि चन्द्रोपकोपधानध्वजप्रभृतीनि तेषामुपयोगय पाठ्यमानानि पशुकपटलानि श्रौमवस्त्रग्लानि ययोस्ते, पथरागति---- पद्मरागमणितोरणानां लोहितानमणितोरणानामुत्तम्भन समुत्थापनेन शुस्मिता शोभिता बहिर्द्वारविनिका प्रयोस्ते वित्तति---वित्तवितरणन धनप्रदानेनानिये वन्दिवृन्दारकाः मागधास्तेषां वृन्देन समूहेन पाठयमानानि समुच्चार्यमाणानि २० यानि प्रशस्तिकायानि तेषां कलकलेन कलकलशब्देन मुखरे शब्दायमाने मुहुरिति मुर्मुहुर्भूयोभूय आहूयमाना आकायैमाणाः परिणयनोपकरणानां विवापकरणानां संनिधानकर्मणः समुपस्थापन कर्मण: कर्मान्तिकाः सेवका ययोस्ते, ग्रहेति---गृहचिन्तकैः चिन्त्यमानानि विचार्यमाणानि सदन प्रतिविधेयानि गृहकार्याणि ययोस्ते विधेयति--विधेया दासीभूता ये चामीकरकाराः स्वर्णकारास्तैविधीयमानं क्रियमाणं तू मण्डनाटकस्य भूषणमणी घट्टनं वाडनं तस्य कारण अव्यक्तशब्देन याचालितं शब्दायमानमभ्यर्ण २५ हैं यह कहते हुए स्वीकृत कर लिया
§ १३६. अथानन्तर उन दोनों वृद्ध पुरुषोंकी बहुत भारी प्रार्थनासे जब गन्धोत्कट उस कार्यको स्वीकृत कर लिया तब जो प्रत्येक क्षण आते हुए लाखों रिश्तेदारोंसे व्याप्त थे, प्रेमीजनों द्वारा भेजे हुए बहुत भारी उपहारोंसे जिनके शस्त्राभ्यास के योग्य स्थानोंके समीरवर्ती प्रदेश पर चुके थे, उत्तमोत्तम कारीगरोंके द्वारा बनाये जानेवाले आभूषणों के प्रकारोंसे ३० जिनके बैठकखाने सुन्दर दिखाई पड़ते थे, सैकड़ों चंदावों, तकियों और पताकाओं आदि उपयोग के लिए जिनमें पाटके वस्त्रोंके थान फाड़े जा रहे थे, पद्मरागमशियोंके तोरण खड़े किये जाने से जिनके बाह्य द्वार के चबूतरे सुशोभित हो रहे थे, धनके देने से हर्षित श्रेष्ठ बन्दी जनों के समूह द्वारा बार-चार पढ़े जाने वाले प्रशस्ति काव्यों की कलकल ध्वनिसे जो शब्दाथमान थे, जहाँ विवाह सम्बन्धी उपकरणोंको उपस्थित करनेके कार्य में नियुक्त सेवक बार-बार ३५ बुलाये जा रहे थे, जहाँ घरकी चिन्ता रखनेवाले मनुष्योंके द्वारा घरके प्रत्येक कार्य की चिन्ता की जा रही थी, सेवाकार्य में नियुक्त स्वर्णकारों के द्वारा बनाये जानेवाले आभूषणोंके स्वर्ण को पीटने के कारण उत्पन्न हुए टनटन शब्दसे जहाँ समीपवर्ती प्रदेश शब्दायमान हो रहे थे
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-विवाहवृत्तान्त:]
चतुर्थो लम्भः मानमङ्गलवसनताम्बूलाङ्गरागे वधूवरभवने बभूवतुः ।
१४०. ततः समागतबति सकलमौहतिकमहिते विवाहदिवसे, दीप्यमानशिखाजालजटिलितस्य शिखिनः पुरस्तादास्थावदाकल्पकालिप्तधनतरघनसारसुरभिपटोरपङ्कपरिमलितदेहाम्, देहजजगद्विजयाभिषेककलशकौशलमलिम्लुचकुचबुगलविलम्बमानहारतारक्तितनुम्, तदात्वफुल्लबन्धनकान्तिवान्धवरबतांगवापाटलितनितम्बाम्, उग्रदम्बरमणिकिरणकलापलोहितसकाशाम्, : पाकशासनदिशामिव दृश्यमानाम्, दर्शनीय भूपणमाखलता बुलितलोकदाम्, तटितमिय चिराघरथायिनोम, अवस्थापितकुसुमदामसारेण रोहदुइवटलजरिततिमिरविराजिविभावरी विलास
ययोस्त, निर्वत्येति -- निर्वयमाना रव्यमाना मङ्गलबसनताम्मूला राग मालवननागवल्लादलागलपनानि यास्त ।
१०. तत इति-तस्तदनन्तरं सकलभाति महिला तस्मिन् निखिलदेवज्ञप्रशंसित विवाह- १० दिवसे परिणयवासरं समागतर्वात दीप्यमानेन प्रज्वलता शिखाजालेन जरिलितस्य व्याप्तस्य शिरिखनाs. नलस्य पुरस्तात् भने नआस्थावन्त आदरयुक्ता य आकल्पका आभूषकास्तैरालिप्तो यो बनतरवनसारो निविडकपूरं तेन सुरभिः सुगन्धियः पीरपक्षश्चन्दनद्रवस्तेन परिमसितः संजालपरिमलः सुगन्धित इति · . यावत् देहो यस्यास्ताम् , देहजस्य मदनप यो जगद्विजयाभिको भुबनविजयाभिमपनं तस्य कलशाना कुम्भानां यत्कीशलं तस्य मलिम्लुचमपहारक य कुत्रयुगलं रहमयुगं तत्र बिलम्पमानेन पतता हारेण १५ मोनिकमाल्येन तारकिता व्याप्ता तनुः शरीरं यस्यारताम्, तदात्वफुल्लानां तत्कालविकसितामा बन्धूकानां जीवककुसुमानां कात्या बान्धवाः सरशानि यानि रमाकानि लोहितवम्याणि तैः पाटलितो इवतरक कृतौ नितम्बो यस्यारताम्, उद्यत उद्गच्छतोऽम्बरमणः सूर्यस्य विरकलाः रश्मिराशिमिर्लोहितो रकवर्णीकृतः सकाशः समीपप्रदेशो य:यास्तथाभूतां पाकशासनदिमिव प्रा मित्र दृश्यमानाम् , दर्शनीयानि द्रयानि मनोहराणि यानि भूपणानि तेषां मयूखलतया फिरणवल्ला आकुलितादिल्लीकृता लोकदशो २० जननयनानि यया ताम् , चिरावस्थायिनी दाधकालावस्थायिनी तटितमित्र सौदामनीमिव, अबस्थापितेन भृतेन कुसुमदाम्ना सारः श्रेष्टस्तन रोहतामुग्रतामुडूनां नक्षत्राणां पटलंन समृहेन जर्जरितं खण्डितं यत्
और जहाँ मंगल वस्त्र, पान तथा अंगराग तैयार किये जा रहे थे ऐसे वधू और उरके भवन हो गये।
१४०. नदनार समस्त ज्योति पियों के द्वारा संमत विवाहका दिन आनेपर देदीप्य- २५ मान शिखाओं के समूहसे व्याप्त अग्निके सामने समस्त जीवों के जीवन के रक्षक जीवन्धरकुमारने कुवेरमित्र के द्वारा दी हुई बिनयमालाको पुत्री गुणमालाको गुणवान् लग्नमें आदरसहित विवाहा । उस समय गुणमालाका हार श्रद्धावन्त सजावटकर्ताओंके द्वारा लिप्त अत्यधिक कपुरसे सुगन्धित चन्दनके पंकसे सुरभिन हो रहा था। उसके नितम्ब तत्काल फूले हुए दुपहरियाक फूलोंकी कान्तिसे सहिन लाल वस्त्र ( तृल ) से लाल थे। इस- ३० लिए वह उदिन होते हुए सूर्यको किरणाचलीस जिसका समीपवर्ती भाग लाल हो रहा था ऐसी पूर्व दिशाके समान दिखाई देती थी । सुन्दर-सुन्दर आभूषणोंकी किरणरूपी लतासे वह मनुष्योंके नेत्रोंको आक्रुलित कर रही थी इसलिए चिरकाल तक स्थिर रहनेवाली बिजलीके समान जान पड़ती थी। और जिसमें फूलों की श्रेष्ट माला लगायी गयी थीं या जो ददित
१. म० देह जजगज्जयाभिषेक ।
३५
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गद्यचिन्तामणिः चोरेण चिकुरभारेण कामपि सुशोभामाविर्भावयन्तीम्, कुबेरमित्रदत्तां विनयमालासुतां गुणमालां गुणवति लग्ने लग्नकः सकलजन्तुजीवनस्य जीवंधरः सादरमुपयेमे ।
६१४१. इति श्रीमदादोभभिहरिविरचिते गचिन्तामणो गुणमालालम्भो नाम चतुर्रा लम्भः ।
तिमिरं तेन विराजिना विशोमिनी या विमावरी रात्रिस्तस्या विलासस्य शोभायाचौरेण तस्करण, चिकुरमारेण ५ केशसमूहन कामप्यनिर्वचनीयाम् सुशोभाम् आविभावयन्ती प्रकटयन्तीम् , कुबेरमित्रेण तन्नामजनकन
दत्ता साम, विनयमालाया एतनामधेयायाः सुता पुत्री ताम्, गुणमालामतनामधेयाम् गुणवति योग्य. गुणयुक्त लग्ने समये, सकलजन्तुजीवनस्य निखिलपाणिजीवनस्य लग्नको रक्षको जीवंधरः सादरं यथास्यात्तथा उपमं परिणिनाय ।
1:1, इति श्रीमहावीमसिंहसूरिविरचिते गयचिन्तामणौ र मालालम्भो नाम चतुर्थो लग्भः ।
१० होते हुए नक्षत्रों के समूहसे जर्जरित अन्धकारसे सुशोभित रात्रिकी शोभाका चोर था ऐसे केशों के समूह से वह किमी अनिर्वचनीय शोभाको प्रकट कर रही थी। ६३४१. इसप्रकार श्रीमद्वादीभसिंह सूरिक द्वारा विरचित गचिन्तामणिमें गुणमाला
लम्भ (गुणमालाकी प्राप्ति)का वर्णन करनेवाला चतुर्थ लम्म पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥
१. म० शोभा । २. लग्नकः---रक्षकः, इति टि० ।
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पञ्चमो लम्भः
१४२. अथ परिणयनानन्तरमन्तरायरहितविजाभणेन विषमशरेण समारोपितो रागशिखर शिखरदशनया तश समं संसारसहकारपचेलिमफलायमानान्मन्दोकृत महेन्द्रोपभोगमहिमाभोगान्भोगाननुभवितुमारभत वुमारः। तथा हि-नवपल्लबदलनिचयनिर्मितशयनेष परिमलतरलमधुकर पटलपटायगुण्टितपरिसरेप ,गृहोद्यानलतागृहेषु लक्ष्योभूतः कुसुमशरशराणां कमलदशा तया सह सचिरगमत! यारणापतिरित्र बनसरसि करिणोसखः कंदर्पविजयपताकया तया ५ तनितम्बधिम्बाहतिजर्जरिततरङ्गमालासु तदात्वसंभ्रमदम्भःसंक्षोभितकमल समुड्डोनरोलम्बकदम्ब-गर.
१४२ अर्थति-अति मङ्गलाऽव्ययम् 'मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकालन्यवथो अथ' इत्यमरः, परिणयनानन्तरं विवाहानन्तरम् अन्तरायरहित निरन्तरं विजम्भगं वृद्धिर्यस्य तेन विषमशरेण कामेन रागशिखरं रागचरमप्तीमानम् समारोपितः प्रापितः कुमाः शिखराः पक्वदाडिमबीजाभा दशना दन्ता यस्यास्तया "शिरसरः शैल वृक्षाग्रे कशापुलककोटिषु । पक्वदाडिमबोजाममाणिक्यशकलेऽपि च ॥" इति विश्व- १० लोचनः, तया गुणमालया समं संसार एवं सहकारोऽतिहारभाम्रस्तस्य पचेलिमफलानीवावरन्तीति संसारसहकारपलिम'फलायमानास्तान , मन्दीकृतस्तुच्छीकृतो महेन्द्रोपमोगस्य महिमामोगो महस्वविस्तारो येस्तयाभूतान् भोगान् अनुभवितुम् भारमत तत्परोऽभूत् । तथा हि-नवपल्लवदलानां नृतनकिसलय. खण्डानां निचयन समूहेन निर्मितं रचितं शयनं येषु तेषु, परिमलेन विमरिथेन जनमनाहरण गन्धेन तरलाः सतृष्णा यं मधुकर भ्रमरास्तेषां पटलं समूह एवं पटो वस्त्रं तेनायगुण्ठितः समाच्छादितः परिसरः समोर. १५ प्रदेशो यंपु तेषु "विग्दो थे परिमलो गन्धे जनमनोहरे' इत्यमरः गृहोद्यानस्य गेहोपत्नस्य लतागृहेषु निकुञ्जेषु कुसुमश काराणां कामबाणानां लक्ष्मीभूनः शराभूतः सन् कमलशा पद्माक्ष्या तया गुणमालया मह सुचिरं सुदीर्घकालम् अरमत क्रीडति स्म । वारणेति-वनसरसि काननकासारे करिण्याः सखा करिणीसखो इस्ति नीसहितो पार गपतिरिद गजराज इन कन्दर्पस्य मोनकेतनस्य विजयपताकया विजयवैजयन्त्या तया गुणमालया साकं तस्या नितम्वबिम्नेन नितम्बमण्डलेन या आहतिराघातस्तया जर्जरिताश्चूभूना- २० स्तरङ्गमाला: कल्लोलसन्ततयों यासु, तदावे तत्क्षणे संभ्रमत् संचलद् यदम्भी जलं तेन संशोभितानि
६१४२. तदनन्तर विवाह के बाद निग्न्तराय बढ़ते हुए कामदेव के द्वारा जो रागके शिखर पर चढ़ाये गये थे ऐसे जीवन्धरकुमार उस पके हुए अनारके बीजों के समान दाँतोवाली गुणमालाके साथ संसाररूपी अत्यन्त सुगन्धित आमके पके हुए फल के समान आचरण . करनेवाले एवं इन्द्र के भोगोपभोगकी महिमाको तिरस्कृत करनेवाले भोगोंका अपमान करने २५ लगे। वह कभी तो नूनन पल्लव और पुष्पकलिकाओंके समूहसे जिनमें शय्याओंकी रचना की गयी थी, तथा सुगन्धित चपल भ्रमरसमूह रूपी वरसे जिनके समीपवर्ती प्रदेश आच्छादित थे से घरके उद्यानके निकुंजों में काम के बाणोंका निशाना बनकर उस कमलनयनी गुणमाला के साथ चिरकाल तक रमण करते थे। कभी उनके सरोबरमें हस्तिनीसे सहित हाथीके समान कामदेवकी विजयपताकास्वरूप उस गुणमालाके साथ उसके नितम्ब बिम्ब- ३० की टक्कासे जिनकी तरंगोंकी श्रेणियाँ जर्जर हो रही थी एवं तत्काल चलते हुए जलसे क्षोभको
१. म.
क्षाभिकमल ।
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गद्यचिन्तामभिः
[ १४३ गुणमालया सह-- कलिताम्बराडम्वरासु क्रीडावापीपु चिरं चिक्रीड । अध्यास्य तनुमध्यया सुमध्यया सह समन्तादास्तीर्णतुलशयनान्भवामणिवलभिनिवेशानिशासू निशापतेनिर्यद मृतनिःस्यन्दान्कारकन्दलान्प्रती. च्छनिच्छाधिक विनोदयामास विलोचननकोरमिथुनम् ।
६१४३, इत्थं गमयति कालं कलानिधी कामतन्त्रपरतन्त्रे जीवकस्वामिनि भामिनीसखे ५ सखेदः स गुणमालोपद्रवकर: वारी तत्कुण्डलाइतिजातवैलक्ष्यः प्रक्षीणतनुरतनुपरितापपरीतमना
मन्त्रागपि मन्दतस्यत्नेन यन्त्रा सानुनय साधिक्षेपमार्चमाणमतीव स्वादिष्ठमपि नाददे कबलम् । तीनिःश्वासदीर्घमुष्ण च मुञ्चन् पुष्करलिखितमहीतलः कवलं पाकलाशङ्किभिरशोकृतविविधभैषज्य
शहरवा
कम्पितानि यानि कमलानि तेभ्यः समुत्नेन समुत्पत्तिता रोला कदम्नेन भ्रमरम्पभूल कलिता व्याप्तो.
अम्बराटम्बरो गगनाभोगो यामु तासु क्रीडाबापी लिवापिकामु चिरं निक्रीड क्रीदति स्म । अ यास्यनि१० सनु कृशं मध्यं कटियस्यास्तश्राभूतया सुमध्यया सुन्दराबलग्नया गुणमालया सह समन्तात्परितः
ऑस्तीर्णानि विस्तृतानि तूल शयनानि येषु तान् , मवनस्य मणिनिर्मितान् बलभिनिवेशान् गोपानसीनिवेशान् अध्यास्य अधिष्ठाय 'अधिशीलस्थासां कर्म' इत्याधारस्य कर्मसंज्ञा, निशासु रजनी निशाप्तेश्चन्द्रमसो निर्यन निर्गच्छन् भमृतनिःस्पन्दः पीयूषनिःस्यन्दो येभ्यस्तयाभूतान् करकन्दलान् किरणाङ्कुरान प्रतीच्छन् ,
अमिलएन इच्छाधिकं यथा स्यात्तथा विलोचने एव चकोरी तयोमिथुनं युगं बिनोदयामास हर्षयामास । १५ १ ४३ इत्थमिति–इन्थमनेन प्रकारेण कलानां वैदग्धीनां निधिस्तस्मिन् कामतन्त्रस्य परतन्त्र
स्तस्मिन् भामिन्याः सखा मामिनीसखस्तस्मिन् 'राजाह सखिभ्यष्टच्' इति टचसमासान्तः जीवकस्वामिनि जीवधरं कानं गमयति सति, सखेदः खिन्नः गुणमालामा उपद्रवस्य करः स करी गजः तस्य जीवकस्य कुगइलेन करणेनाहत्या ताडनेन जनितं वैलक्ष्यं लग्ना यस्य तथाभूतः, प्रक्षीणतनुः कृशकायः अतनुपरितापन
प्रचुरसंतापन परीतं मनो यस्य तथा भूतः सन् मम्देतरयत्नेन प्रभूतप्रयानवता यन्या-आधारणेन सानुनयं २० सस्नेह साधिक्षपं समर्पनम् अयमाणं प्रदीयमानम् अतीवात्यन्तं स्वादिष्टमपि मधुरमपि कबलं प्रासं
मनागपि किंचिदपि नाददे न जमाह । निःश्वासमिति-कंवलं मात्र दीर्घमायतमुणं तितरं च निःश्वास मुझन् पुष्करण शुण्डाग्रेण लिखित स्पृष्टं महीतलं येन तथाभूतः, पाकलं कुन्नरवरमानकात इपवंशीलास्तैः
प्राप्त कमलोंसे उड़े हुए भ्रमरोंके समूहसे जिनके आकाशका विस्तार व्याप्त था एसी क्रीडा
वापिकाओं में चिरकाल तक क्रीड़ा करते थे। और कभी उस पतली कमरवाली गुणमालाके २५ साथ जिनमें सब ओरसे रुईके गद्दे बिछे हुए थे ऐसी भवनकी मणिमयी छपरियों में बैठकर
रात्रिके समय अमृत के निस्यन्दको झरानेवाली चन्द्रमाकी किरणोंको चाहते हुए नेत्ररूपी " चकोरोंके युगलको इच्छासे भी अधिक विनोदित करते थे।
६१४३. इसप्रकार कला भाण्डार, कामशास्त्रके पारगामी जीवन्धर वामी जब स्त्रीके साथ समय व्यतीत कर रहे थे तब गुणमालाके उपद्रव को करनेवाले, जीवन्धरकुमार के ३० हाथ के कड़ोंकी मारसे लजित, दुर्वल शरीर एवं बहुत भारी संतापसे व्यान मनको धारण
करनेवाले उस खेदखिन्न हाथीने बहुत भारी यन्न करनेवाले महावत के द्वारा प्रेम और तिरस्कारके साथ भी दिये हुए अत्यन्त मधुर आहारका एक ग्रास भी ग्रहण नहीं किया। वह लम्बी और गरम-गरम साँसे छोड़ता हुभा ढूँड़के अग्रभागसे पृथिवीतलको छूता रहता था और
१. म० तनुमभ्यया सह।
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- स्वयंवरानन्तरवृत्तान्तः]
पञ्चमो लम्भः भिषक्तमैस्तथा चिकित्स्यमानो न तादृशीं दशां क्षणमप्येत्याक्षीत् ।
१४४. अथ कुण्ठीभूतसकलभैषज्यप्रयोगजनितलज्जेषु वैद्येषु, बहुदिवसपरिहृतकाबल. ग्रहक्षीणवपुषि दिल वितनिजवननविषण्णनिषादिनि नितरां सादिनि दन्तिनि, तस्य तथाविधविकारकारणमाधोरणा जीवकृतां कुडलाहतिमेव समाकलय्य पापिष्ठाय काष्ठाङ्गाराय सावेगमावेदयामासुः । स च शबरचारूभटशूरगृहीतगोधनपुनरानयनप्रकटितपराक्रगपाटवाहितेन, निजवार- ५ वामलोचनावर्गान्तरङ्गीभवदनङ्गमालाङ्गीकरणप्ररूढेन, गन्धर्वदत्तापरिणयनसमयसंजातपरिभवरिणतेन. निजाधोरणनिवेदितवारणातिनवणसमीरसंधुक्षितेन रस्फुटितजपाकुसुमपाटलनयनप्रभापटल'पाकला कुञ्जरज्वरे' इत्यमरः अङ्गीकृतानि स्वकृतानि विविधभैषज्यानि नानौपधानि यस्तयाभूनः मिपक मैवद्यश्रेष्ठ चिकित्स्यमानः तादशी तथाभूतां दशामवस्था क्ष. मपि नात्याक्षान न तन्याज ।
६१११. अथेति-अथानन्तरं वैयेचु भिन्नरवरेपु कुण्ठीभूतो उग्रश्रीभूतो यः सकल भेषज्यानां १० निखिलौषधीनां प्रयोगस्तेन जनिता लज्जा हायषां तथाभूतेषु सत्सु, बहुदिवसान् अनवरतं बहुदिवसमारभ्य परिहृतस्त्यक्तो यः कत्रलग्रहो ग्रासादानं तेन क्षाणं कृशं वपुः काय! यस्य तस्मिन् , बिलचितस्तिरस्कृतनिजवचनैविषण्णो विषादयुको निषादी यन्ता यस्य तस्मिन् दन्ति नि हस्तिनि नितरामत्यन्तं सादिनि सति दुःखमनुमत्रति सति, तस्य हस्तिनः तथाविधविकारकारणं ताग्विकृतिनिमित्तम् आधोरणा निषादिनः जीवककृतां जीवंधरकुमारविहितां कुपहलाहतिमेव कङ्कणमहतिमव समाकलरय निश्चित्य पापिष्टाय १५ प्रचुरपापोपेताय काष्ठाकाराय सावेगं यथा स्यात्तथा आवेदयामासुः सूचयामासुः । स चेति-स च काष्ठङ्गारः शवराणां पुलिन्दानां बारुमटारः प्रकृष्टयोद्धारगृहीतस्यात्मसात्कृतस्य गोधनस्य यन् पुनरानयनं पुनः स्ववशीकरणं तस्मिन् प्रकटितेन प्रदर्शितन पराक्रमपाटवेन विक्रमसामध्ये नाहितस्तन, निजधास्वामलोचनावर्गस्य स्वकीय वेश्यासमूहस्य अनारङ्गीमवन्ती प्रधानीमवन्ती या अनङ्गमाला तन्नाम्नी वेश्या सस्या अङ्गीकरणेन स्वीकरणेन प्ररूदः समुत्पन्नस्तेन, गन्धर्वदत्ताया गरुडवेगसुतायाः परिणयनसमग्रे स्वयंचरण- २० वेलायां संजातः समुत्पन्नो यः . परिभवोऽनादरम्तेन परिणतेन परिपक्वेन निजाधोरणः स्वकीय यन्तृभिनिवेदिता सूचिता या वारणाहतिगंज्ञाहतिस्तस्याः श्रवणमेव समारः पचनस्तेन संधुचितेन प्रज्वलितेन,
हाथियोंके घर की आशंका करनेवाले एवं नाना प्रकारकी औपत्रियोंसे युक्त उत्तमोत्तम वैद्य उसकी यद्यपि चिकित्सा कर रहे थे तथापि वह वैसी दशाको नहीं छोड़ना था ।
६१४४. तदनन्तर जब वैद्य लोग समस्त औषधियों के प्रयोगके व्यर्थ होनेसे लॅजित हो २५ उठे, और अनेक दिनोंसे आहारका ग्रहण छोड़नेसे जिसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया था एवं अपने वचनों का उल्लघंन करनेसे जिसका महावत विपादसे युक्त था ऐसा हाथी अत्यन्त दुःखी हो रहा था तब महावतोंने हाथी के उस विकारका कारण जीवन्धर कुमारके कड़ोंकी मारको ही निश्चित किया और बहुत घबराहट के साथ उन्होंने पापी काष्ठांगार के लिए इसकी सूचना दी। सुनते ही काष्ठांगारकी वह क्रोधाग्नि भभक उठी जो कि भीलोंके शूरवीर योद्धाओं- ३० के द्वारा अपहत गोधनको वापस लाने के लिए प्रकटित पराक्रमकी सामथ्र्यसे लाकर उपस्थित की गयी थी, अपनी वेश्याओंके समूह में प्रधान अनंगपाला नामक वेश्याको स्वीकृत करनेसे उत्पन्न हुई थी, गन्धर्वदत्ताके विवाह के समय उत्पन्न पराभवसे जो परिपाकको प्राप्त हुई थी, अपने महावतों के द्वारा सूचित हाश्रीकी मारके सुनने रूप वायुसे जो धौंको गयो श्री, और फूले
१. क. 'अपि' नास्ति । २. क ख ग जोवककुमावृताम् । २८
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गचिन्तामणिः
१४५ काष्टाङ्गारस्य - च्छलादतिप्रभूततया हृदयादपि बहिनिर्गच्छता तुच्छेतरेण कोपहुतवहेन प्रलयसमयविसृमरप्रगुणकिरणकलापकालतदिवपरिसरः पतिरिव तेजसामशेषजननयनदुनिरीक्ष्यस्यक्ष इव त्रिभुवनपरिक्षयचिकीर्ष गविवृत्तभैरवाकृतिन्मर्षलक्ष्मीप्रवेशमङ्गलमणितोरणसविभ्रमभ्रुकुटिबन्धेनान्धकारित - ललाटफलक: परिसरवर्तिनः पुरुषानादिक्षत् 'आनीयतामनेन क्षणेन दुरात्मा जीवकः' इत्यारूढकोपकाष्ठः काष्ठाङ्गारः । तेऽपि तनया इव यमस्य, प्ररोहा इव साहसस्य, प्रकर्षा इव पराक्रमस्य, विग्रहा इव सामरा, करकरि तक रवालालमाटातोमर भिडिपालप्रभृतिविविधायुधा यौधाः कुमारभवनमरुन्धन् ।
१४५. अथ निरुपमपराक्रमपाटवमदोत्कटो गन्धोत्कटतनवः स्वगृहानिर्गत्य निरवधिकस्फुदिनं विकसितं यत जपाकुसुमं तद्वत्पारला श्वेतरक्ता या नयनप्रभा तस्याः पटलस्य समृहस्य कलं १० व्याजं तस्मात् अतिप्रभूततया प्रचुरतरत्वेन हृदयादपि चतसोऽपि बहिर्निगच्छता निःसरता नुच्छेतरण भूयसा
कोपहतबहेन क्रोधानलेन प्रलयसमय कल्यान्तवेलायां विममराः प्रसरणशीला ये प्रगुणकिरणाः प्रभूतरश्मयस्तेषां कलापन कलितो व्याप्ती दिक्परिसरः काष्ठातटो यन तथाभूतः तेजसा पतिरिव सूर्य इध अशेषजननयननिखिललोकलोचनै निरीक्ष्यो दुरवलोक्यः, त्रिभुवनस्य परिक्षयः संहारस्तस्य चिकीपुः
कर्तुमिच्छुः यक्ष इव रुद्द इब आविष्कृता प्रकटिता भैरघा भयावहा आकृतियन तथामृतः, भमर्पलक्ष्म्या : १५. क्रोधश्रियाः प्रवेशमङ्गलाय यानि मणितोरणानि तेषां सविभ्रमेण सदृशेन भ्रुकुटिबन्धन अन्धकारितस्तिमिरितो
ललाटफलको निटिलतटो यस्य तथाभूतः, आरूढा कोपकाष्टा येन सः आचटितक्रोधचरमावधिः काष्ठाझारः परिसरवर्तिनो निकटस्थान् पुरुषान् 'दुरामा दुष्टो जीवको जोबंधरः अनन क्षाणेन एसेनेव कालेन आनीयताम् इतीस्थम् आदिक्षत् आदेश ददौ । तेऽपीति-ते आविष्टा यमस्य कालस्य तनया इव सुता इव, साहसस्या
वदानस्य प्ररोहा इवारा इव, पराक्रमस्त्र विक्रमस्य प्रकर्षा इव चरमसीमान इव, सामथ्यस्य शक्तेः २० विग्रहा इव शरीराणीव, करकलितानि हस्ते शृतानि करवारप्रभृतीनि विविधायुधानि यस्तधाभूता योधाः कुमारभवनं तदीयनि नेतनम् अन्धरम्धन अनुरुरुधुः।
५५ अथ निरूपमेति-अथानन्तरं निरुपमपराक्रमस्यासाधारणविक्रमस्य सस्पाटवं सामध्य तस्य मदन गर्नेण उत्कटः प्रचण्डः गन्धोत्कटतनयो जीवंधरः स्वगृहान्निजनिकेतनात् निर्गस्य निःसृत्य
हुए जालौन के फूल के समान लाल-लाल नेत्रोंकी कान्ति के समूह के बहाने जो अत्यधिक होने के २५ कारण हृदयसे भी मानी बाहर निकल रही थी। उस विशाल क्रोधाग्निसे जो प्रलयके समय
फैलनेवाली तीक्ष्ण किरणावलीसे दिशाओंके समीपको व्याप्त करनेवाले सूर्य के समान समस्त मनुष्यों के नेत्रों के लिए दुनिरीक्ष्य था, तीन लोकका क्षय करने के लिए इच्छुक अतएव भयंकर आकृतिको प्रकट करनेवाले महादेवके समान जान पड़ता था, क्रोधरूपी लक्ष्मीके प्रवेशके लिए मंगलमय रत्न-तोरणोंकी उपमा धारण करनेवाले सृकुटि वन्धसे जिसका ललाटतट ३० श्यामवर्ण हो रहा था और जा क्रोध की चरम सीमापर चढ़ा हुआ था ऐसे काष्टांगारने निकट
वर्ती मनुष्यों को आदेश दिया कि 'दुष्ट जीवन्धरको इसी क्षण लाया जाये। आज्ञा पाते ही उन योधाओंने जो कि यमराजके पुत्रोंके समान, साहसके अंकुरोंके समान, परराक्रमके चरम सीमाके समान, अथवा सामथ्य के शरीरके समान जान पड़ते थे और जो हाथों में तलवार,
करण, तर्पण, प्रास, तोमर तथा भिडिपाल आदि नाना प्रकार के शस्त्र लिये हुए श्रे, जाकर ३५ कुमारका घर घेर लिया।
६ १४५. तदनन्तर अनुपम पराक्रम और सामर्थ्य के मदसे उत्कट जीवन्धर अपने घरसे
१.० ख० ग० गन्धोत्कटासः ।
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- कोपवृत्तान्तः] पञ्चमो लरमा
२१९ रोषप्रसर: केसरीव हरिणयूथं तरणिरिव तमःस्तोमं दावदहन इव वनतरुपण्डं प्रलयपवन इव पर्वतनिबह करिकलभ इव कदलीकाननं तत्क्षणेन क्षपयितुमात्मजिघृक्षागतमशेष बलमारभत । आरम्भसमसमयमागत्यास्य जनयिता 'जात, नैवं कर्तव्यम् । स्थातव्यं हि निदेशे देशाधिपते: । तस्योपसरेम परिसरम् । प्रज्ञापरिबर्हविरहिता हि पराक्रमा न क्रमन्ते क्षेमाय । तदमोभिः सह गच्छेम राजभवनम् । अनुभवेम भाविनमर्थम्' इत्यभिदधान एव निवार्य तं यौधेनिधनोद्यतमात्म- ५ जमात्म जन्मदिवसादारभ्याजितमशेपं वित्तमुपायनोकृत्य तेन सह नीतिवत्म कबन्धुर्गन्धोत्कट: काष्ठाङ्गारस्यागारमयासीत् ।
१४६. प्रविश्य मणिमण्डपस्थ गध्ये महति विष्टरे समुपविष्टमेनं ज्वलन्तमिव कोपदहनेन
निरवधिको निःसोमा संघप्रसरः क्रोधग्रसरो यस्य तथाभूतः सन हरिणयूनं मृगसमूह केसरीव सिंह इव, तमःस्तोमं विसिरसमूहं तरणिरिव तिमिरारिरिव, वनतरूपई वृक्षवृन्द दावदहन इव दवाग्निरिव, १० पर्वतनिवह शैलसमूह प्रलयपवन इव कल्यान्तानिल इव, कदलीकाननं भोचावनं करिकलभ इव करिशावक इच आत्मनः स्वस्य जिघृक्षया गृहीतुमिच्छया आगतं प्राप्तम् अशेष बलं सैन्यं तत्क्षणेन सद्यः क्षपयितुं नाशयितुम् आरभत । आरम्भेति-आरम्भसमसमयं बलक्षमणप्रारमणवेलायामव आगत्य अस्य जीवकस्य जनयिता तातो गन्धोत्कट इति यावत् 'जात ! हे पुन! नैवं कर्तव्यं नेत्यं विधेयम् 1 हि यतो देशाधिपते राज्ञो निदेशे आज्ञायां स्थातव्यं वर्तितव्यम् । तस्य देशाधिपते: परिसरं निकटम् उपसरम उपगच्छेम । १५ प्रज्ञाया विवेकयुद्ध याः परिवण परिकरण विरहिताः पराकमाः क्षेमाय श्रेयसे न हि क्रमन्ते नोक्ता भवन्ति । तत्तस्मात् अमीभी रामपुरुषैः सह राजमवनं गच्छेम । भाविनं भविष्यन्तमर्थम् अनुभबैम' इति अभिधान एव निगरन्न व योधनिधनोद्यतं भटमारणोयुक्तम् आत्मज पुत्र निधाय निर्षिय आत्मजन्मदिवसात् स्वोत्पत्ति वासरात् आरभ्य अर्जितं संचितम् अशेष निखिलं वित्तं धनम् उपायनीकृत्य प्राभृतीकृत्य नातिवत्मनो म्यामागस्यैकबन्धुः गन्धोत्कटः तेन जीवन सह काष्टाङ्गारस्य कृतघ्नस्य आगारं गृहम् २० अयासीत् ।
६१४६. प्रविश्येति-विश्य मणिमण्डपस्य स्वास्थानस्य मध्य महत विस्तृत विष्टर सिंहासने समुपविष्टं स्थितं कोपदहवेन क्रोधानलेन ज्वलन्तमित्र देदोधमानमिव, दारुणोऽतिकटिनो यः कोपचयः
निकलकर, जिसप्रकार अत्यधिक क्रोध के विस्तारको धारण करनेवाला सिंह हरिणोंके समूहको, सूर्य अन्धकारके पुंजको, दावानल वन के वृक्षसमूहको, प्रलयपवन पर्वतोंके समूहको, २५
और हार्थीका बचा केलेके वनको नष्ट करता है उसी प्रकार उसी क्षण अपने-आपको पकड़नेकी इच्छासे आयी हुई समस्त सेनाको नष्ट करने के लिए जुट पड़े। परन्तु प्रारम्भ के समयसे ही . उनके पिता गन्धोत्कटने आकर तथा यह कहकर कि 'हे पुत्र ! ऐसा नहीं करना चाहिए। हम सबको राजाकी आज्ञामें रहना चाहिए। हमें उनके पास चलना चाहिए। बुद्धिके वैभवसे रहित पराक्रम कल्याण के लिए नहीं होते अतः इन सबके साथ हम राजमहल चले और भवि- ३० ध्यत्में होनेवाले कार्यका अनुभव करें, योद्धाओंके मारने के लिए. उद्यत जीवन्धरकुमारको रोक दिया तथा अपने जन्मदिनसे लेकर संचित समस्त धनकी भेंट लेकर जीवन्धरकुमारके साथ काष्ठांगारके घर गये । गन्धोत्कट नीतिमार्गमें चलनेवालोंके अद्वितीय बन्धु जो थे।
६१४६. तदनन्तर प्रवेश कर जो मणिमण्डपके मध्य में विशाल आसनपर बैठा था,
१. म. यौनिधनोद्यतम् ।
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२२० गचिन्तामणिः
[१५६ काष्टाङ्गारस्य दारुणकोपचयपलायितपरिजन मकाण्डविरचितनिद्राभङ्गविम्भितामर्षभीपणकपुषमिव केसरिणं भीतभीतः कथंकथमप्युपसत्य तनयेन सह गन्धोत्कटस्तन्निकटे हाटबराशिममरेशनिशितशतकोटिशकलितसुमेरुशिख रसहचरं संनिधाप्य 'सह्यतामयमपराधः शिशोः । दीयताममष्य प्राणाः' इति प्रणयकृपणमभाणोत् । काष्ठा ङ्गारस्तु कारुण्यास्पृष्टहृदयः 'किमष्टापदेन ।' इति प्रत्यादिष्टकुमार५ प्राणप्रणयनभणिति धरणीतलविनमितशिरसं कृपणवचनमुखरितवदनमतनुतरतनयस्नेहान्धं गन्धो
कटम् 'गम्यताम् इति सावज विमृज्य समक्षमवस्थितान रक्षकाध्यक्षान 'अन्यपराक्रममदक्षोबस्य शेणीवा क्षषयतासून्' इति नरोपमभ पत । तेऽपि तथेति तदाज्ञामजलिबन्धेन प्रतोच्छन्तः प्रगृह्य कुमारमतित्वरित पदप्रचारप्रचलितभुवः प्रस्थातुं वध्यस्थानं प्रति प्रारभिरे ।
क्रोधसमुहस्तेन पलायिताः प्रभावित परिजनाः परिकरपुरुष। यस्य तम्, अकागद ऽसमय यिरचितः कृतो यो १० निहाभङ्गस्तेन विजुम्मिना वधिता योमस्ते भीषणं वपुर्यस्य तथाभूतं केसरिणभिव सिंह मिव गनं काष्ठा
ङ्गार भीतभीतः अतिशयेन भात, सन् कथं कथमपि केन केनापि प्रकारेण तनयन पुश्रेण सह उपमृत्य समुपगम्य गन्धोकी वैश्यपतिः, अमरंशस्य पुरन्दरस्य निशितशतकोटिना तीक्ष्णवज्रेण शकलितं स्वण्डितं यत् सुमेरुशिखरं स्वर्णाद्रिशङ्गं तस्य सह वरं सशं हाटकराशि स्वर्ण चयं संनिधाप्य समुपस्था 'शिशोरबोधबाल.
कस्यायमपराधः स हातां शम्यताम्. अमुष्य बालकस्य प्राणा दीयन्ताम्' इतीथं प्रणयकृपणं स्नेह दोनम् १५ अमाणीत् अचकयत् । काष्ठाङ्गारस्थिति-कारुण्येन दयया अस्, हृदयं यस्य तथाभूनः काष्टाङ्गारस्तु
'अष्टापदन स्वर्णेन किं किं प्रयोजनम् ?' इतोत्थं प्रत्यादिष्टा निराकृता कुमारस्य जीवक्रस्य प्राणानामसूनां प्रणयनस्य याचनस्य मणितिरुतिर्यस्य तम्, धरणीतले भूतले विनमितं नम्रीभूतं शिरी यस्य तम्, कृपणवचनेन सदैन्यवचनन मुखरित शक्ति वदनं मुखं अस्य तम्, अतनुतरेण तनयस्नेह नान्धस्तं प्रभूतपुत्रप्रेमान्धं गन्धोरकटम् 'गम्यताम्' इतीस्थं सावज्ञमनादरोपेतं विसृज्य दूरीकृत्य समक्ष सम्मुखम् अवस्थितान् विद्यमानान् आरक्षकाध्यक्षान् राजपुरुषश्रेष्टान् 'पराक्रममदन विक्रमगर्वेण श्री उन्मत्तस्तस्य अस्य वणिक्सुतस्य सून् प्राणान् क्षेपीयः शीघ्रं शपयत नाशयत' इतथं सरोष सक्रोधं यथा स्यात्तया अभापत । तेऽपि भारक्षकाध्यक्षा अपि तथेति 'सास्त्वित्युक्त्वा' तदाज्ञा काठाजारनिदेशम् अञ्जलि बन्धन प्रतीच्छन्ती गृहन्त: कुमारं जीवंधरम् प्रगृह्य प्रबन्य अतित्वरितन शैभ्यातिशययुक्तेन पदप्रचारण चरणप्रचारंग प्रचलिता
प्रकम्पिता भूः पृथिवी यस्तथाभूताः सन्तः वध्यस्थानं प्रति प्रस्थातु प्रयातुम् प्रारंभिरे तत्परा अभवन् ।। २५ क्रोधाग्निसे जल रहा था, भयंकर क्रोधके भय से जिसके परिजन दूर भाग गये थे, और जो
असमयमें किये हुए निद्रा भंगसे वृद्धिंगत क्रोधसे भयंकर शरीरको धारण करनेवाले सिंहके समान जान पड़ता था ऐसे काटांगारके समीप गन्धोत्कट पुत्रको साथ ले डरते डरते किसी तरह पहुँचे और उसके समीप इन्द्र के तीक्ष्ण वनसे खण्डित सुमेरुक शिखर समान स्वर्णराशि
रखकर स्नेहवश दानता प्रकट करते हुए बोले कि 'बच्चेका यह अपराध क्षमा किया जाये ३० तथा इसे प्राण दिये जाय' । परन्तु जिसके हृदयको दया छू भी न गयी थी ऐसे काष्टांगारने
'स्वर्णसे क्या प्रयोजन हैं ?' यह कह, कुमारकी प्राण-भिक्षापरक गन्धोत्कट की प्रार्थनाको ठुकरा दिया तथा पृथिवीतलपर जिनका सिर झुक रहा था, और जो पुत्रके बहुत भारी स्नेह से अन्धे थे ऐसे गन्धोत्कटको 'हटो' इस तरह अनादरके साथ धुतकार कर उनके सामने ही
पुलिस के प्रधान पुरुषांसे क्रोधपूर्वक कहा कि 'पराक्रमके नशासे पागल इस जीवन्धर के प्राण ३५ शीघ्र ही नष्ट किये जायें-इसे प्राण दण्ड दिया जाये । आज्ञा पाते ही पुलिस के प्रधान पुरुष भी 'तथास्तु' कह हाथ जाड़ उसको आज्ञाको स्वीकृत करते हुए कुमारको पकड़कर बध्यस्थानकी
१. क ख ग निधाप । २. म भणिति ।
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• कोपवृत्तान्तः ]
पञ्चमो लम्मः
$ १४७. अथ प्रतिहतवचसि प्रभूतविषादविषमूर्च्छालमनसि विस्मृत कर्तव्य वर्त्मनि सद्यः सद्म समासाद्य निजसुतविनिपात विजृम्भमाणदारुणशुच मवि रलनिर्यदथु जलविलुलित दृशमश्रान्तविरचिताक्रन्दां सुनन्दाम् 'अलं संतापेन । संस्मर पुरा चर्यार्थमागतेन तपोधनेन सविस्तरमुदीरितां कुमाराभिवृद्धिशंसिनों कथाम् | अवितथव चसो हि मुनयः' इति सान्त्वयति समवगत मृतोदन्तप्रबन्धे गन्धोत्कटे, कटकवासिनि जने जनितानुशयेन 'राजते राजता काष्ठाङ्गारस्य । कष्टमिदमकाण्डे ५ विधिचण्डालस्य विलसितम् । अथ निराश्रया श्रीः, निराधारा घरा, निरालम्बा सरस्वती, निष्फलं लोकलांवतविधानम् निःसारः संसारः, नौरसा रसिकता, निरासदा वोग्ता' इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोद्गारिणीं वाणीम् सखेदायां च खेचरचक्रवतिदुहितरि दयितविमोक्षणाय
१४७. अथेनि -- अथानन्तरं प्रतिहतं निरकृतं वचो यस्य तस्मिन् प्रभूतेन प्रचुरण विषादविषेण खेदगरलेन मूर्च्छालं मूर्द्धायुक्तं मनो यस्य तस्मिन् विस्मृतं स्मृतिपथातीतं कर्तव्य करणीयमार्ग १० यस्य तस्मिन् गन्धोत्कटे सद्यः समिति सद्मसदनं समासाद्य प्राप्य निजसुतस्य स्वकीयपुत्रस्य विनिपातो मृत्युस्तेन विजृम्भमाणा वर्धमाना दारुणशुक् कठिनशोको यस्यास्ताम् श्रविरलं निरन्तरं यथा स्याचथा नियंता निर्गच्छता अनुजलेन विलुलिते दशौ यस्यास्ताम् अश्रान्तं यथा स्वातका विरचित आक्रन्दो यथा ताम् सुनन्दाम् एतन्नामधेयां स्वपत्नी 'सत्तापेन परितापेन अलं व्यर्थ पुरा पूर्वं चर्यार्थमाहारार्थम् आगतं तपोधनेन मुनिना सविस्तरं यथा स्यात्तथा उदीरितां कथितां कुमाराभिवृद्धिशंसिनीं जीव घरैश्वयं - १५ सूचिकां कथां संस्मर सम्यक् प्रकारंण संस्मरणविषयी कुरु । हि निश्वयेन मुनयो यतयः अवितथं सत्यं वचो येषां तथाभूता मत्रन्तीति मावः इति समवगतः सम्यकप्रकारेण विज्ञातः सुतोन्यप्रबन्धः पुत्रवृत्तान्तप्रबन्धो येन तथाभूते गन्धोत्कटे सान्वयति शमयति सति, कटकवासिनि राजधानीनिवासिनि जने जनितानुशयेन समुत्पन्नपश्चात्तापुन 'काष्ठाङ्गारस्य कृतघ्नशिरोमणेः राजता राज्यं राजते विद्यते । अकाण्डेऽकाले विधिचण्डास्य दैवजनङ्गमस्य इदं विललितं चेष्टितं कष्टं कष्टकरम् । अथ श्रीलक्ष्मी: निराश्रया आश्रयहीना, २० धरा पृथिवी निराधारा, सरस्वती वाणी निरालम्बा, लोकलो चनविधानं तरनेत्रनिर्माणं निष्फलं निष्प्रयोजनम्, संसारो निःसारः, रसिकता नीरसा, वीरता निरास्पदा निःप्रतिष्ठा' इतीत्थं मिथः परतरं प्रणयोद्धारिणी स्नेहप्रदर्शिनों वाणीं प्रवर्तयति सति संखेदायां सविषादायां खेचरचक्रवर्तिदुहितरि च गन्धर्वदत्तायां
ओर जाने के लिए उद्यत हो गये । उस समय शीघ्रता से भरे उनके पैरोंसे पृथिवी काँप रही थी ।
§ १४७. अथानन्तर जिसके वचन ठुकरा दिये गये थे, जिनका हृदय बहुत भारी २५ विपादरूपी पिसे मूच्छित हो रहा था, और जो कर्तव्य मार्गको भूल गये थे ऐसे गन्धोत्कट अपने घर वापस आये तो क्या देखते हैं कि अपने पुत्रके मरणसे बढ़ते हुए भयंकर शोकको धारण करनेवाली सुनन्दा लगातार निकलते हुए अनुजलसे नेत्रोंको तर करती हुई गला फाड़फाड़कर रो रही है । गन्धोत्कट पुत्र के समस्त वृत्तान्तको अच्छी तरह जानते थे इसलिए वे यह कहकर सुनन्दाको सान्त्वना देने लगे कि 'सन्ताप करना व्यर्थ है ? पहले चर्या के लिए ३० आगत मुनिने कुमारकी वृद्धिको सूचित करनेवाली जो कथा विस्तारसे कहीं थी उसका स्मरण कर | मुनि सत्यवादी होते हैं । उस समय नगर निवासी लोग बड़े पश्चात्तापके साथ परस्पर प्रेमको प्रकट करनेवाली यह वाणी कह रहे थे कि अब काष्ठागारका राज्य है । खंदकी बात है. कि दैवरूपी चाण्डाल असमय में ही अपनी चेष्टा दिखला रहा है । आज लक्ष्मी आश्रयहीन हो गयी, पृथिवी आधाररहित हो गयी, सरस्वती आलम्बनशून्य हो गयी, मनुष्यों के नेत्रोंका ३५ निर्माण व्यर्थ हो गया, संसार असार हो गया, रसिकता नीरस हो गयी, और वीरता स्थानभ्रष्ट हो गयी। विद्याधरोंके राजा गरुड़वेगकी पुत्री गन्धर्वदत्ता भी खेदयुक्त हो पतिको छुड़ाने
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गचचिन्तामणिः
[ ५४८ सुदर्शनदेवेन - क्षणादाविर्भावयन्त्यामन्तिके स्वविद्यां विद्याधरकुलक्रमागताम्. व्रामज्ञः स कुमारोऽपि मारयित पारयन्नप्यात्मपरिभवविधानलम्पटान्भटान् किमेभिनिष्फलं निहतैः ! नासीदति गुरु जनादिष्टः काष्ठाङ्गारवधसमयः' इति गाहमाग संननागानमात्मानं निबार्य, सुदर्शननाम्नो देवस्य सस्मार ।
५४८. स च कृतज्ञः कृतज्ञ चरों देवस्तदाध्यानानन्तरमन्तरिक्षपथमभिनवतमालकाननकालिममलिम्लुचैः कालमेघनिचयैः कवचयन्, नभस्तलस्त्यानमेदिनीपरागपुरद रान्तरितदिवाकरेण समुन्मूलितोरिक्षप्तवृक्षषण्डसंमोलिताकाशदिगबकाशेन चण्डाभिघातपूर्णमानगिरिशिखरविशीर्णगण्डशैलेनेतस्ततस्तुललीलया नीतगृहपटलीपटलेनाभिपातताडनविखलितावनीतलविलुठदखिलजोवधनेन झझासमोरेण समुत्सारित सकलारक्षकबल:, सहेलमादाय कुमारमन्तरिक्षेण क्षणादिव गत्वा
दयितस्य पत्युर्विमाक्षणाय क्षणात् अन्तिक समीप विद्याधरकुल क्रमागतां स्वविद्याम् आविर्भावयन्त्यां १० प्रकटयन्त्यां सत्यां क्रमं जानातीति क्रमज्ञः कमज्ञानवान् स कुमाराऽपि जीवकोऽपि अात्मनः स्वस्य परिभवस्य
तिरस्कारस्य विधाने करणे लापटास्तान तथाभूतान् भटान मारयितुं पारयन्नपि शक्नुवन्नपि निष्फलं निष्प्रयोजनं निहतैसरितैः एभिः किम् । गुरुजनेनादिष्टो गुरुजनप्रदर्शितः काष्ठागारवधसमयो नासीदति न प्राप्नोति' इति हेतोः साहसाय अबदानं प्रदर्शयितुम् संनयमानमुद्यन्तम् आत्मानं निवाय सुदर्शननाम्नो देवस्य सस्मार 'अधीगर्थदयेशा कर्मणि' इति षष्ट ।
१८. स चेति स च कृतं जानाति कृतज्ञः कृतोपकारज्ञानवान् भूतपूर्वः कृतनः कुक्कुर इति कृतज्ञचरः स देवः सुदर्शनयक्षाधिपतिः तदाध्यानानन्तर जीवंधरस्मरणानन्तरम् अभिनवतमालानां नूतनतापिच्छवृक्षाणां काननं वनं तस्य कालिम्नो मलिम्लुचाश्वोरास्तैः कालमपनि चयैः कृष्णबारिदवृन्दैः अन्तरिक्षपथं गगनमार्ग कवचय व्याप्तं कुर्वन् , नमस्तलस्त्यानेन गगनतल व्यापिना परागपूरेण रजो.
राशिना दूरान्तरितो दिवाकरो गगनमणियन तन, आदी समुन्मूलिताः पश्चादुरिक्षप्ता उपरि क्षिप्ता य २० वृक्षास्तरवस्तेषां षण्डेन समूहेन संमीलितो दूरीकृत आकाशदिशां गगनककुभाम् अवकाशो येन तेन,
चण्डाभिघातेन तीवप्रहारेण घूर्णमानानि कम्पमानानि यानि गिरिशिखराणि तभ्यो विशीर्णा विगलिता गण्डशैला येन तेन, इतस्ततो यत्र तत्र तूललीलया नीतानि गृहपटलीपटलानि गृहनी निकरम्बाणि येन नाममा
M तेन, अभिपात: संमुखागमनं ताडनं प्रहरणं ताभ्यां विह्वलितं विचित्र भतएवावनीतले पृविधीतले विलुटत्
अखिलजीवधन निखिल पाणिधनं येन तंत, झझासमारंण सजलप्रबलपवनेन 'प्रकम्पनो महावातः २५ सम्झावातः सवृष्टिकः' इत्यमरः स पुत्सारित विद्रावितं सकलं निखिलभारक्षकवलं राजपुरुषसैन्यं येन
तथाभूतः सन् कुमारं जीवक सहेलं यथा स्यात्तथा आदाय गृहीत्वा अन्तरिक्षेण नमसा क्षणादिव गरवा के लिए विद्याधरोंके कुलक्रमसे आगत अपनी विद्याको समीपमें आविर्भूत करने लगी। इधर जब यह सब हो रहा था तब उधर क्रमको जाननेवाले कुमारने, अपना तिरस्कार करनेमें
समर्थ योद्धाओंको मारने के लिए समर्थ होनेपर भी 'निष्प्रयोजन मारे हुए इन लोगोंसे क्या ३० लाभ है ? अभी गुरुजनों के द्वारा बताया हुआ काष्टांगार के मारने का समय निकट नहीं आया
हैं। इस विचारसे साहस के लिए उद्यत होनेवाले अपने-आपको रोककर सुदर्शन देवका स्मरण किया ।
६१४८, स्मरण करते ही कृत उपकारको जाननेवाला वह कुत्तेका जीव सुदर्शनदेव, नूतन तमालवनकी कालिमाको अपहत करनेवाले काले-काल मेघोंके समूहसे आकाशमार्गको ३५ व्याप्त करता हुआ तथा आकाशतल में फैलनेवाली पृधि की धूलिके समूहसे जिसने सूर्यको
दूरसे ही आच्छादित कर रखा था, उखाड़-उखाड़कर ऊपर फेंके हुए वृक्षों के समूहस जिसने दिशाओंका अवकाश दूर कर दिया था, तोत्र प्रहार से हिलनेवालं पहाड़के शिखरोंसे जिसमें
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- जीवंधरस्योपकारः] पञ्चमो लम्भः
२२३ गीर्वाणसदनसदृक्ष मक्षयसुखसंगतं शृङ्गपरामृष्टचन्द्रं चन्द्रोदयं नाम निजशैलमशिनियत् । अकार्षीच्च तत्र हर्षोत्फुल्लमख: शतमखसदनातिशायिसोधाभ्यन्तरस्थापित भद्रासनमध्यमध्यासीनस्य जीवकस्वामिनः स्वगतमुखपरिज्ञातकुमारमहोपकारितात्यादरैर्दारैः सार्ध पयोवाधिपयोभिरभिषेकम् । व्याहार्षीच्च--'कुमार', मां विश्वदूषणपात्रे भषण गात्रे स्थितमेवं पवित्रोकृतवतस्ते 'पवित्रकुमारः' इति भवितव्यं नाम्ना" इति । एवं कृतज्ञानां धुरि वृतदीक्षेण यशेण कृतां पुरस्क्रियामनुभूय ५ भूयसीं भूयस्तेन सरकारानमध्युष्या सरसामतिपेलवं नाट्यमालोकयति कुमारे, कुमारमारणाय प्रेरित: स चौरिकाध्यक्षोऽपि प्रतारणदक्षतया 'क्षपितजीवं जीवककुमारमकार्पम् इति वचसा
गीर्वाणसदन सदृशं स्वर्गसदृशम् अक्षयसुखसंगतमविनश्वरमुखसहि तम् शृङ्गेण शिखरेण परामृष्टः स्पृष्ट. श्रन्द्री येन तं चन्द्रोदयं नाम निजशैलं स्थगिरिम् अशिश्रियत् प्राप। अापीच्चेति-तन्त्र चन्द्रोदय़ाद्री हर्षेण निजोपकारिजनचरणारविन्दसंगतिसमुत्पन्नन प्रमोदेन उन्फुल्लं प्रसन्नं मुखं यस्य तथाभूत: सुदर्शन: १० शतमखसदनातिशायिन इन्द्रमन्दिरातिशायिनः सोधस्य प्रासादस्याभ्यन्तर मध्ये स्थापित विनिवेशितं यद् भद्रासनं तस्य मध्यम् अध्यासीनस्याधितिष्टतो जीवकस्वामिनः स्वभतुर्मुखात् परिज्ञाता या कुमारस्य महोपकारिता तयातिशय आदरो येषां तबाभूतैः दारेचल्लभाभिः साधं पयोवाधिपयोमिः क्षीरसागरसलिलैः अभिषेक स्नपनम् अकार्षीच्च न्यधाच्च । न्याहार्षीच्चेति–'कुमार ! विश्वेषां दृषणानां पात्रं तस्मिन् निखिलावगुणभाजने भषणगाने कुक्कुरकाये स्थिसं माम् एवमनेन प्रकारेण अपविग्नं पवित्रं कृतवत १५ इति पवित्रीकृत वतस्तं भवतः 'पवित्र कुमार' इति नाम्ना भवितव्यम् इति । एवमिति-एवमनेन प्रकारण कृतज्ञानां कृपमुपकारं जानताम् धुयने कृता दीक्षा यस्य तन कृतज्ञ शिरोमणिना यक्षेण सुदर्शनेन कृता विहितां भूयसी विपुलां पुरस्क्रियां सक्रियाम् अनुभूय भूग्रस्तदनन्तर तेन समं साकम् एकासनमाविष्टरम् मध्युप्य अधिष्टाय अप्सरसा देवाङ्गनानाम् अतिपेलवमतिमनोहरं नाट्यं नृत्यम् अवलोकयति पश्यति सति कुमारे, कुमारमारणाय प्रेरितः कृतादेशः स चौरिकाध्यक्षोऽपि प्रधानचण्डालोऽपि प्रतारणदक्षतया प्रवचना- २० कुशलतया 'जीवककुमारं जीवंधरं क्षपितो जीवो यस्य तथाभून निमाणम् अकार्षम्' इति वचसा काष्टाङ्गारं गोल चट्टानें खिसक रही थीं, जिसने मकान के छप्परोंको रईके समान इधर-उधर उड़ा दिया था और जिसमें समस्त जीव संमुखागमन तथा ताड़नसे विह्वल हो पृथिवीतलपर लोट रहे थे ऐसे वर्षायुक्त तूफानसे समस्त पुलिसकी सेनाको दूर हटाना हुआ और जीवन्धरकुमारको अनायास ही उठाकर आकाशमार्गसे जाता हुआ क्षण एकमें देवभवनके समान अविनाशी २५ सुरवसे सहित एवं दिशखरोंसे चन्द्रमाको छूनेवाले 'चन्द्रोदय' नामक अपने पर्वत पर जा पहुँचा। वहाँ हर्षसे जिसका मुख फूल रहा था ऐसे सुदर्शनदेवने, इन्द्रभवनको अतिक्रान्त करनेवाले अपने भवनके भीतर स्थापिन मंगलमय आसनपर बैठे हुए जीवन्धरस्वामीका अपने पति के मुखसे कुमारका महोपकारीपन विदित होनेके कारण अत्यधिक आदर प्रकट करनेवाली स्त्रियोंके साथ, क्षीरसागरके जलसे अभिऐक किया और कहा कि 'हे कुमार ! चूँकि ३० समस्त दोषोंके पात्र स्वरूप कुत्ते के शरीर में स्थित रहनेवाले मुझको आपने पवित्र किया है इसलिए आपका पवित्र कुमार' यह नाम होना चाहिए।' इसप्रकार कृतज्ञ मनुष्यों के अग्रसर यमके द्वारा किये हुए सरकार का अनुभव कर जब कुमार उधर उसी यक्षके साथ एकासनपर बैटकर अप्सराओंका अत्यन्त मधुर नृत्य देख रहे थे तब इधर कुमारको मारने के लिए प्ररित पुलिसके प्रधानने धोखा देने में कुशल होने के कारण 'मैंने जीवन्धरकुमारको निष्प्राण ३५
१. म.सममेकासनमध्याम्या ।
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गचिन्तामणिः
[ १४९ सुदर्शनदेवेन - हर्षकाष्ठां गतं काष्ठाङ्गारं विधाय तदीयं प्रसादमनासादितपूर्व लेभे ।
१४६. ततः सुनन्दासुतोऽपि सुदर्शनयक्षावरोधजनेन वर इव परमया मुदा संभाव्यमानः संपदं यःपतेने जोमेव निर्व्याजं गणयन्नपि गणरावापगमे 'किमत्र मुधावस्थितिरास्थीयते !
गुरुपदिष्टराज्यप्रवेशावास रात्पूर्वमपूर्वचैत्यालयवन्दनेन कन्दलयागः सुकृतप्रबन्धम्' इति मनो ५ बबन्ध । प्रियवन्धुरप्यस्य बन्धुरमभिसंधि तदनुवन्धिफलोपनते रनवधिकतामप्यवधिचक्षुषा वीक्षमाणः श्रोणीभ्रमणेन कुमारोपलभ्यस्य फलस्य भूयस्तया कथमप्यन्वमस्त । अदाच्च तस्मै ‘मा स्म कुरुथाः कुरुकुलपते, तत्र प्रध्यस्थ प्रार्थनाकदर्थनेनावज्ञाम्' इति यात्रापूर्वक सर्वविषापहरणे कामरूपित्वक ल्प शविता गम ननसाय । अभ्यधाच्च 'कु. मार कुरुकुलकुमुदेन्दो, हर्षकाष्टां प्रमदपरावधिं गतं प्राप्त विधाय पूर्व नासादित गित्यनासादिनपूर्वम् अलब्धपूर्व प्रसाद
१० पुरस्कार लेभे ।
६५४३. तत इति-ततस्तदनन्तरं सुनन्दासुतोऽपि जीवंशेऽपि सुदर्शनयक्षस्यावरोधजनेन अन्तःपुरजनेन वर इव जामातेव परमयोत्कृष्टया मुदा हर्पण संभाव्यमानः सक्रियमाण; यक्षपतेः सुदर्शनस्य संपदं नै जीमेव स्वकोयामंव नियाजं निश्छलं यथा स्यात्तथा गणयमपि जानन्नपि गणरात्रापगमे बहुनिशासु व्यतीतासु गणरानं निशाययः' इत्यमरः 'किमन्त्र सुदर्शनसदने मुधावस्धितिनिष्प्रयोजनावस्थान
भास्वीयते । गुरूपदिश्वासौ राज्य प्रवेशाहवासरच तस्माद् गुरुप्रदर्शितसज्य प्राप्तियोग्यदिनात् पूर्व प्रार १४ अपूर्वाश्च ते त्यालयाश तेषां वन्दनेन सुकृतप्रायन्धं पुण्यप्रबन्धं कन्दलयामः समुत्पादयामः' इति मनो
बवन्ध चेतसि विचारमकरोत् । प्रियघन्धुरपि सुदर्शनोऽपि अस्थ जीवकस्य बन्धुरं मनोहरम् अभिसन्धिमभिप्रायम् तदनुबन्धि तत्सम्बद्धं यस्फलं तस्योपनतेः प्राप्तेरनवधिकतामपि असीमतामपि अवधिचक्षुषावधिज्ञानविलोचनेन वीक्षमाणो विलोकमानः क्षोपयां भ्रमणं तेन महीभ्रमणेन कुमारोपलभ्यस्य कुमारप्राप्यस्य फलस्य भूयस्तया प्रचुरतया कथमपि केनापि प्रकारण अन्धर्मस्त स्वीचकार । अदाचेति-'कुरुकुल पते ! हं कुरुवंशशिरोमण ! तव भवतः प्रेप्यस्य दासस्य प्रार्थनाकदर्शनेन याजानङ्गीकरणेन अवज्ञा तिरस्कृति मा स्म कुरुथाः' इति याापूर्वक सर्व विषापहरणे निखिलगरलदरीकरणे गानविद्यायां संगीतविद्यायां वैशारघरम बैदुप्यस्य करणं विधाने कामरूरित्वकल्पनेऽपि यथेच्छरूपनिर्माणेऽपि अल्पा शक्तियस्य तत् प्रचुरशनियुक्त मन्त्रनयम् अमन्दादरान विपुल गौरवात् तस्मै कुमाराय अदाच्च ददौ च । अभ्यधाच्चेति--इति अभ्यधाच्च
कर दिया है। इस वचनसे काष्ठाङ्गारको अत्यन्त हर्पित कर उसके अप्राप्तपूर्व पुरस्कारको २५ प्राप्त किया।
६१४९. तदनन्तर सुदर्शन यक्षके अन्तःपुरके लोगों के द्वारा वर के समान जिनका वहत बड़े हर्षसे सत्कार किया जा रहा था ऐसे सुनन्दासुन-जीवन्धरकुमार यद्यपि यक्षपनिकी संपत्तिको निष्कपट रूपसे अपनी ही मानते थे तथापि कुछ रात्रि व्यतीत होनेपर उन्होंने ऐसा विचार किया कि 'यहाँ व्यर्थ क्यों रहा जाये ? गुम्के द्वारा बताये हुए राज्य-प्रवेझके योग्य दिनके पहले-पहले हम अपूर्व चैत्यालयोंकी वन्दनाके द्वारा पुण्य घन्ध करते हैं। जीवन्धरकुमारके इस अभिप्रायको तथा इससे प्राप्त होने वाले फलकी अधिकताको अवधि- ' ज्ञानरूपी नेत्रके द्वारा देखनेवाले प्रियवन्धु--सुदर्शन यनने पृथिवीपर भ्रमण करनेसे जीवन्धरको जो फल प्राप्त होंगे उनकी अधिकताका विचारकर किसी तरह अनुमति दे दी। साथ ही
१. १० ख० ग. 'क' नास्ति ।
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- जीवंधरस्योपकारः ]
पञ्चमो लम्भः
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कुमुदैश्वर्यासम, समर साहस लम्पटसुभटभुजदण्डखण्डन प्रचण्ड, निबिडघटित कोटी रकोटिवित तियुत्तगणनविरहितनरपदृढ रचितसभायां स्वयंवरानन्तरं विवाहसमये मरणपरिणतिमेष्यन्ति यदरयोऽपि, तवोदयोऽपि समासीदति मासि द्वादशे मदुक्तमिदं द्रक्ष्यसि पुनर्मोक्ष्यसि च' इति । एवममृतायमानममृताशिनो वचनमदसीयाप्सरसां सरसानि वचांसि च श्रवणयोरवतंसोकुर्बति पर्वतादवरुह्य मह्यां गन्तुमारभमाणे कुमारे, सुदर्शनयक्षोऽप्यक्षमो भवन्विरहृव्यथां सोढुं गाढं परिरभ्य पथान्त- ५ रोदन्तं चेदनमा व्याहृत्य विसृज्य कुमारमादरकातर्यात्पुनरप्यनुसूतकतिपयपदः प्रतिनिवृत्य
२२५
अकथयच्च । इतीति क्रिम् । कुरुकुलमेव कुमुदानि तेषामिन्दुश्चन्द्रस्तरस्तु हे कुरुकुलकुमुदेन्दो ! कुमुदा दैत्यभेदास्तेपामिवैश्वयं तेनासमोsनुपमस्तत्सम्बुद्धौ हे कुमुदैश्वर्यासम ! 'कुमुदो नागदिग्नागदैस्यान्तरवनकसि' इति विश्वलोचनः, अथवा 'कुमुदैश्वर्य' इति पृथक्पदम् 'असम' छवि समरसाहसस्य विशेषणम् । समरसाहसे युद्धावाने लम्स्टा: समासता ये सुभद्राः सुयोधास्तेषां भुजदण्डानां बाहुदण्दानां खण्डने १० प्रचण्डस्तत्सम्बुद्धी हे कुमार निश्चिडं सान्द्रं यथा स्यात्तथा वटिता मिलिता याः कोटीरकोटयो मुकुटाप्रभागास्वासविता पक्त्या युताः सहिता ये गणनविरहिता असंख्या नरा राजानस्तैदृढं यथा स्यात्तथा रचिता निर्मिता या सभा तस्यां स्वयंवरानन्तरं विवाहसमये पाणिग्रहणवेलायां यद्यस्मात् भरयोऽपि शत्रवोऽपि मरणपरिणतिं मरणमेव परिणति बन्दि उद सतत उदयोऽपि राज्यवैभवमपि समास इति निकटस्थं भवति मदुक्तमिदं सर्वं द्वादशे द्वादशतमे मासि 'पहनोमास इति सूत्रेण मास १५ शब्दस्य 'मास' आदेशः द्रक्ष्यसि विलोकयिष्यसि पुनस्तदनन्तरं मोक्ष्यसि च मुक्तश्च भविष्यसि' इति । एवमिति---अमृतायमानं पीयूषायमाणम् अमृताशिनो देवस्य वचनम् अदसीयाप्सरसां तदेवीनां च सरसानि स्नेहानि च च श्रवणयोः कर्णयोः अवतंसीकुर्वति कर्णाभरणीकुर्वति कुमारं जीवंधरे पर्वतात् चन्द्रोदयाद्रो अवरुह्य नीचैरागत्य मां पृथिव्यां गन्तुम् आरभमाणे तत्परं सति सुदर्शनयोऽपि विरहृव्यथां वियोगपीडां सोढुम् अक्षमोऽसमर्थो भवन् गाढं यथा स्यात्तया परिरभ्य समाकिङ्गय पथाम्सरोदन्तं २० च मार्गान्तिरवृत्तान्तं च इदन्तयानेन प्रकारेण व्याहृत्य निगद्य कुमारं विसृज्य विमुच्य, आदरकातर्यात्
यह प्रार्थना कर कि 'हे कुरुवंशके स्वामिन्! मैं आपका सेवक हूँ अतः प्रार्थनाको ठुकराकर मेरी अवज्ञा न कीजिए' सर्वप्रकारका विष दूर करने में गानविद्या में निपुणता प्राप्त कराने में तथा इच्छानुसार रूप बनाने में अत्यधिक शक्ति रखनेवाले तीन मन्त्र बहुत भारी आदर के साथ प्रदान किये। सुदर्शन यक्षने यह भी कहा कि 'हे कुमार! हे कुरुवंशरूपी कुमुदोंको २५ विकसित करने के लिए चन्द्रमा, दैत्य विशेषोंके समान ऐश्वर्य से अनुपम, युद्ध सम्बन्धी साहस करने में लम्पट योद्धाओंके भुजदण्डके खण्डन करनेमें प्रचण्ड एवं सघन रूपसे स्थित, मुकुटके अग्रभागकी पंक्तिसे युक्त अगणित राजाओंसे अच्छी तरह निर्मित राजसमामें स्वयंवर के बाद विवाहका समय आनेपर आपके शत्रु मृत्युको प्राप्त होंगे तथा आपका अभ्युदय भी निकट आ रहा है। आप बारहवें महीने में मेरे द्वारा कहे हुए कार्यको ३० देख लेंगे और तदनन्तर मोक्षको प्राप्त होंगे। इस प्रकार देवके अमृत के समान आचरण करनेवाले वचनको और उसकी अप्सराओंके सरस वचनोंको कानोंका आभरण बनाते हुए जीवन्धरकुमार जब पर्वतसे नीचे उतरकर पृथिवीपर बिहार करनेके लिए उद्यत हुए तब विरद्दकी पीड़ाको सहन करने के लिए असमर्थ होते हुए सुदर्शन यक्ष ने उनका गाढ़ आलिंगन किया, 'इस तरह जाना' इत्यादि रूपसे मार्ग के बीच का सब समाचार कहा और उसके बाद ३५ कुमारको विदा कर वह अपने पर्वतको ओर चला । आदरजन्य कातरतासे वह फिर-फिर
१. म० भुजादण्ड । २. क० नरपति |
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गचिन्तामणिः
[१४९ जीबंधरस्य यात्राप्रस्खलितपद: स्वपदाभिमुखस्तन्यपदे पदे पृष्ठावलोकनं साहाय्यमनुष्ठातुमनुचरमिव कुमारस्य कुवलयितकुवलयं लोचनयुगल प्रेरयन्प्रचुरानुशयः शनैः शनैनिजशैलमशिथियत् । एवं चिरा दधिरुह्यान्तरिक्षमन्तहिते यक्षेन्द्रे, मृगेन्द्र इव वीतभीतिः स्ववीर्यगुप्तः स कुरुकुलकुमुदेन्दुरप्यमन्दादरा
दरण्यशोभापहितेक्षणों विहरन्विगतातपत्रमेनमातपात्त्रातुमिव निराकृतातपान्मार्गपादपानिरन्तर५ निपतन्निर्झरनिभेन निसहायकुमारनि रोक्षणदाक्षिगयविगलदविरलाश्रप्रवाहरांभृतानिव महीभृतश्च गोशमा प्रत्यासित मितचिम महान्तं कान्तारपथमल घयत् ।
पुनरपि अनुसृतानि कतिपय पदानि ग्रेन तथाभूतोअनुगाकतिपयपदः प्रतिनिवृत्य प्रत्यावृत्य प्रस्सक्तिं पदं यस्य तथाभूतः प्रतिपनित चरणः स्वपक्षाभिमुखों निजनि केन नाभिमुखः पदे पद चरणे चरण पृष्टावलोकन
पश्चादवलोकनं वितन्वन् कुर्वन कुमारस्य साहाय्यम् अनुष्ठातुं विधातुम् अनुचरमिव सेवकमिव कुवलयितं १० कुवलयानि नीलारविन्दानि संजातानि यस्मिन्नन् तथाभूतं कुवलयं भूमण्डलं येन तत् लोचनयुगलं नयन
युगं पोरयन् चलयन् प्रचुरानुशयो विपुलपश्चातापयुतः शनैः शनैः मन्द-मन्दं निजशैलं स्वासगिरिम् भशिश्रियत् । एवमिति-वमनेन प्रकारेण चिराद् दीर्घकालानन्तरम् अन्तरिक्षं गगनम् अधिरा यक्षेन्द्रे मुदर्शनेऽन्तहित तिरोहिते सति, मृगेन्द्र इव सिंह इब वोनभीतिनिर्भय: स्ववीर्यगुप्त: स्वपराक्रमपालित: स
पूर्वोक्तः कुरुकुलकुमुदेन्दुः कुरवंशकुमुदकलाधरोऽपि अमन्दादरान प्रचुरादरात भरण्यशोभायां काननसुपमायां १५ प्रहित ईक्षणे नयने येन तथाभूतो चिहरन विगतं दुरीभूतमातपयं छन्नं यस्य तयाभूतम् एनं कुमारम्
आतपाद् धर्मान, वातुभिध रक्षितुसिव निराकृत भातपो यैस्तान दूरीकृतधर्मान् मार्गपादपान् बत्मविनिरुहान् , निरन्तरं यथा स्यात्तथा निपततां निराणां वारिप्रवाहाणां निभेन व्याजेन निःसहायस्य एकाकिनः कुमारस्य जीवकस्य निरोक्षगे चद् दाक्षिण्यं सरलत्वं तेन विगलन् पतन् योऽविरलाअग्नवाहस्तेन संभृतानिव पूर्णानिव
महीभृतश्च गिरीश्च प्रेक्षमाणी विलोकमानः प्रत्यक्षि तानि प्रत्यक्षं दधानि यशोदितःनि सुदर्शन यक्षनिवेदितानि २० चिहानि यस्मिस्तम् महान्तं दीर्घ कान्तारपथं वनमार्गम् अहाय झगिति अलङ्घ यत् अस्यकमीत् ।
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लौट आना था तथा कुछ कदम उनके पीछे-पीछे चलने लगता था। चलते समय उसके पैर लड़खड़ा जाते थे। यद्यपि वह अपने निवास स्थानकी ओर जा रहा था तथापि पद-पदपर पीछेकी ओर देखता जाता था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुमार की सहायताके
लिए सेवकके समान कुवलय-पृथिवी मण्डलको कुवलयित-नील कमलोंसे व्यात-जैसा २५ करनेवाले नेत्रयुगलको प्रेरित कर रहा था। इस तरह बहुन भारी खेदसे युक्त होता हुआ
वह धीरे-धीरे अपने पर्वत पर जा पहुँचा। इस प्रकार बहुत देर बाद वह यक्षेन्द्र जी आकाशमें अधिरूद्ध होकर अन्तर्हित हो गया तब सिंहके समान निर्भय और अपने पराक्रमसे सुरक्षित कुमकुलकुमुदचन्द्रमा जीवन्धरम्वामी भी बहुत भारी आदरसे वन की शोभा देखने के
लिए नत्राको प्रेरित करते हुए विहार करने लगे। बिहार करते हुए वे छत्ररहित अपने ३० आपको घामसे बचाने के लिए ही मानो घामको दूर करने वाले मार्ग के वृक्षों को और निरन्तर पड़ते हुए झरनोंके बहाने सहायरहित कुमारको देखनेके कारण सरलतावश झरनेवाले अविरल .
आँसुओंके प्रवाहसे युक्त पर्वतीको देखते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। इस तरह उन्होंने जहाँ यनके द्वार। कहे हुए चिह्न प्रत्यक्ष दिवाई दे रहे थे ऐसे वहुंन भारी जंगली मागको शीर ही पार कर दिया।
१. कानन पटावलोकन । २. क. ग. देशाधिरह्म ।
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-दावानलवृत्तान्तश्च
पञ्चमो लम्भः १५०. ततश्चानतः चिदुग्रत रोमदुष्प्रापे विस्फुलिङ्गायमानपासूत्करे करिनिष्टयूतकरशीक रावशिष्टपयसि , निःशेषपर्णक्षयनिविशेषाशेपविटपिनि, निर्द्रवनिखिलदलनिर्मितममररवरितहमिलि मशाना साहाचा पसरति नरेशुलापहरणकृते निजकायच्छायाप्रदायिदन्तिनि वारणशोणितपारणापरायणपिपासातुरकेसरिण्युदन्यादैन्यप्रपञ्चवञ्चितहरिणगणलि ह्यमानस्फटिकद्दपदि मरकतमयूखरेखापरहरिताकु रहि मृगतृष्णिकाविलोकनोन्मस्तकसलिलतृपि.गुल्मसंदेहसमापादन चतुरबर्हि- ५ वहन्तिःप्रविशदातपयलान्तबालफणिनि, भक्ष्यभिक्षतानुपलक्षित व माहाकुक्षिणि तारता यद्दीकर.
१५०. सतश्चायत इति-ततस्तदनन्तरम् क्यचिन कुवापि मर भास्थले इति विशेविशेग्यसम्बन्धः । अथ मस्पृष्टस्य विशेषणान्याह-उनतरंण तीतरंग मा निदापत्वेन दुप्पा दुलझे, विस्फुलिङ्गायमानः वह्निकणवावरन् पांसूरकरी धूलि समूहो यस्मिस्सस्मिन् करिभिहस्तिभिः निष्टयता विमुक्ता ये करशीकुराः शुण्डादण्डसलिलकणास्त एयावशिष्टं पयो यस्मितस्मिन् , निःशेषरनामखिल. १० पत्राणां भर्यण निविशेपाः सदृशा अशेषविरपिनो निखिलद्रमा अरिमस्तस्मिन् , निवाणि शुष्काणि यानि निखिलदलानि समयपर्णानि तैनिर्मितो यो मर्मस्वस्तन भरिता हरिती दिशा यस्मिस्तस्मिन् , मसरवस्य वढेः सब्रह्मचारी समानो महावनो यस्मिंस्तस्मिन् , करणाहस्तिन्यास्तापी धर्मजन्यम्लेशस्तस्य हरणकृत दूरीकरणाय निजकायस्य छायां प्रदद्वतीत्येवंशःला दन्तिनो गजा स्मितस्मिन् , धारणशोणितेन गजरुधिरेण पारणायां भोजने परायणास्तत्परा: पिपासातुरा उदन्यापीड़िता: केसरिणः सिंहा यस्मिस्तस्मिन् , १५ उदन्यया पिपासया यो दैन्यप्रपञ्चो दीनगाविस्तारस्तेन वशित; प्रतारिनो यो हरिणगणो मृगसमूहस्तन लिह्यमाना जिलया स्पृश्यमानाः स्फटिकदषदः श्वेतोपला चस्मिस्तस्मिन् , मरकतमयूखरंखापरा मरकतमणिकिरणरेखासदृशा ये हरितारास्तेषां ध्रुक तस्मिन् , मृगतृपिकाया मृगमरीचिकाया विलोकनेनोन्मस्तका वृद्धिंगता सलिलतृट् पानीयपिपासा यस्मिस्वस्मिन् , गुल्माना दुपाणां संदेहस्य संशयस्य समापादने चतुराणि दक्षाणि यानि बहिबर्हाणि मयूरपिच्छानि तपामन्तमध्ये प्रविशन्त आतपक्लान्ता धर्मपीडिता २० बालफणिनो बालसर्प यस्मिस्तस्मिन् , भक्ष्यस्य खाप्रपदास्य दुभिश्नतया दुर्लभतयानुफ्लक्षिताः कृशत्वे. नादर्शनार्थी बनमहिषाणां काननसैरिमाणां कुभयो जठराणि यस्मिस्तस्मिन् , तापेन धर्मातिशयन ताम्यन्ता
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६ १५०, तदनन्तर चलते-चलते उन्होंने कहीं एक ऐसा मकस्थल देखा जो अत्यन्त तोत्र गरमीके कारण दुष्प्राप्य था-जहाँ पहुँचना कठिन था। जहाँ धूलिका समूह अग्निके तिलगोंके समान आचरण करता था। पानी के नामपर जहाँ हाथियोंके द्वारा उगले हुए हूँड़के २५ छींटे ही अवशिष्ट थे। समस्त पत्तों का क्षय हो जाने से जहाँ सब वृक्ष एक समान हो गये थे। सूखे हुए समस्त पत्तोंक द्वारा निर्मित मर्मर शब्दसे जहाँ दिशाएँ भरी हुई थीं। जहाँ अग्निके समान वायु बह रही थी । जहाँ हस्तिनीका सन्ताप हरनेके लिए हार्थी अपने शरीरको छाया । प्रदान कर रहे थे । हाथियों के रुधिर के भोजन करने में तत्पर सिंह जहाँ प्याससे पीड़ित हो रहे थे । ग्याससम्बन्धी दीनताके विस्तारसे ठगे हुए हरिगोंके समूह जहाँ स्फटिकमणिक ३० पत्थरोंको चाट रहे थे । जो मरकत मणियों की किरणरेखाके समान हरे अंकुरोके साथ द्रोह कर रहा था। मृगतृष्णाके देखनेसे जहाँ पानीकी प्यास और भी अधिक बढ़ रही थी। खाने योग्य पदार्थोकी दुर्लभतासे जहाँ जंगली भैंसोंके पट दिखाई ही नहीं पड़ते थे । गरमासे
१. ख० ग० हरिताहि , क. हरिताकानगुहि, म० हरिताङ्करहि ।
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गद्यचिन्तामणिः
[1५० दावानल - भोकरशत्कारकान्दिशीवश्वाविधि, मगगणनिसिताकृतमगयोपेक्षाब भक्षितवनौकसि. वनदहनदह्यमानवंशपरिपाटीपाटनप्रभवझटझटारवचकिताध्वगमनसि: दीनताशान्तवानरकुललीलाकर्मणि ,धर्मसमयारम्भसमधिकदु:सहोम'धर्माभिधानरसातलज्येष्ठे मरुपृष्ठे, निश्चरचिश्छटाबलोढवेणस्फोटस्फुटपुरःपटहेन शुष्काण्यपि शिरांसि महीरुहां ज्वालाभिः किसलयितानि कुर्वाणन, दन्द ह्यमान - ५ नोडोडीननिरालम्बाम्बरभ्र मणखेदपतितपत्रिपत्रपालीचटचटायितरटितवाचाटेन विपिनसत्त्वसंतानविविधवसागन्धानुबन्धविममायेय सपदि निर्दग्धस्निग्धकालागुरुतगहनैरात्मानं धूपयता, कुसुम
दुःखीभवन्ता यं दुर्वी कराः सस्तियां भीकरशन्कारेण भयावहशूत्कारशब्दन कान्दिशीका भय द्रुताः इवावियश्वाण्डाला यस्मितस्मिन् , मृगगगस्य हरिणसमूहस्य निमांसतया काश्योतिशयेन मांसहिततया कृता विहिता या मृगयोपेक्षा आखेटोरक्षा तया भुक्षिताः क्षुधातुरा वनीकसी बनेचरा यनिमस्तस्मिन् , वनदहन १० दावाग्निना दह्यमाना भस्मीक्रिपमाण। या वंशपरिपाटो वेणुसंततिस्तस्याः पाटनं विदारणं प्रभवः कारणं
यस्य तथाभूती यो झरझटारवो झामटाशन्दस्तेन चक्रितानि प्रस्तानि अध्वगमनांसि पथिकजनचतासि यस्मिंस्तस्मिन् , दीनतया दौर्बल्यजनितदन्येन शान्तानि वानरकुलस्य कपियूथस्य लीलाकर्माणि क्रीडाचेष्टितानि यस्मिस्तस्मिन् , धर्मसमयस्य निदाएकालस्यारम्भण समधिकं यथा स्यात्तथा दुःसही य अप्मा
औपयं तेन धर्माभिधानरमानलात् स्नप्रभापृथिवीतलादपि ज्येष्ठोऽधिकस्तस्मिन् । तथाभृते मरुपृष्ठे १५ दावपावकेन दावानलेन इति विशेषणविन्यसम्बन्धः । अथ 'दावपावन' इत्यस्य विशेषणान्याह
निश्चरन्ति निर्गच्छन्ति ग्रान्यचीपि ज्यालास्तेषां छटया समूहेनावलीढा व्यापता ये वेणदो बंशास्तेषां स्फोटाः स्फुटनशब्दा एवं स्फुटाः स्पष्टाः पुरपटहा अनेचरवाद्यानि यस्य तथाभूतेन, शुक्रायपि अनायिपि महोल्हां तरुणां शिरांसि शिवराणि ज्वालाभिः किसलयितानि पल्लवितानि कुर्वाणेन, दन्दह्यमाना अतिशयेन
दयमाना ये नीताः कुलायास्तभ्य उईना उत्पतिता निराकम्बाम्बानमणखेदपतिता निराधारगगनभ्रमण१० खेदपतिता ये परिणः पक्षिणस्तेषां पत्रपाल्या: पक्षसन्ततेश्चटचटायितरटितेन चटचटाशदन बाचाटो
वाचालस्तन, विविधसत्वानां नानावनजन्तूनां संतानस्य समूहस्य या विविधा नानाप्रकारा बप मेदासि तासां गन्धस्तस्यानुबन्धः संस्कारस्तस्य विगमार्यत्र दूरीकरणायेव सपदि शीघ्र निर्दग्धाः स्निग्धा य कालागुरुतरवः कृष्णागुरुचन्दनवृक्षास्तेषां गहनैवनैः आत्मानं स्वं धूपयता धूपन सुगन्धिं कुर्वता, कुसुमानि
छटपटाते हुए साँपोंकी भयंकर सूसूफारसे जहाँ शिकारी भयसे भाग रहे थे। मृगसमूह के २५ मांसरहित होने के कारण की हुई शिकारको उपेक्षासे जहाँ बनवासी लोग भूखसे युक्त हो
रहे थे। बनको दावानलसे जलते हुए वंशसमूहके फटनेसे उत्पन्न झटझटा झन्दसे जहाँ पथिकोंके मन चकित हो रहे थे। जहाँ दीनताके कारण वानरसमूहको लीलाएँ शान्त हो गयी थी । और प्रोष्म ऋतुके प्रारम्भ होनेसे अधिकताको प्राप्त हुई दुःसह गरमीके कारण जो धर्मानामक पहलो पृथिवीसे भी कहीं अधिक जान पड़ता था। उस मरुस्थलमें उन्होंने उस . दावानलसे घिरे हुए अनेक हाथी देखें कि जिसके आगे-आगे निकलती हुई बालाओंकी छटा
से व्याप्त वाँसोक चट स्पनेसे मामो बाजे ही बज रहे थे । जो वृक्षोंके सूखे शिखरोंको भी ज्वालाओंसे पल्लवित कर रहा था | जलते हुए घोंसलोंसे उड़े और निराधार आकाशमें भ्रमण करनेके खेदसे पतित पक्षियोंके पंखों की चटचदा ध्वनिसे जो शब्दायमान हो रहाथा। जंगलके प्राणीसमूहकी नाना प्रकार की गन्धका संस्कार दूर करनेके लिए ही मानो जो अपने-आपको ५ शीध्र जलाये हुए स्निध कालागुरुकं वृक्षों के बनसे धूप दिखा रहा था-धूपसे सुगन्धित कर
१. क० ख० ग• दुःसहे धर्माभिधान रसातलज्येष्टे । २. क० ख० ग. दह्यमान।
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-वृत्तान्त:]
पचमो लम्मः चषकपुटेषु कृतमधुरसास्वादनमदवशादिव प्रतिदिशं पतता, साटोपं कबलयता स्वाहितवलाहकगृह्य तागहोव बहिणव्यूहान्, वैरिवारिसंभवरुषेव शोषितसरसीगर्भस्थितानि वारिजजालानि लेलिहता, गृहीतगरुडस्वभावेनेव निर्विशङ्कचऱ्यामाणदुर्वहभोगभीमभोगिना, निजजीवितापहारिजीमूतमूलच्छेदेच्छयेव स्फुलिङ्गव्या र चियक्ति समुद्ग छला, दुकालोच लुच्छेतरधूमप्रच्छादितद्यावापृथिवीविभागेन, पात्र दानेनेव भूतिविधायिना, बौद्धेनेव लब्धसर्वस्वभक्षिणा, तत्त्वज्ञानेनेव ५ तमोपहेन, अतृप्तिमत्त्वादतिगृध्नुजनदेशीयेन, प्राप्तदूषणाद्वेश्याजनवेषान्तरेण, दुष्प्रवेशत्वादाढयपुप्यायव चषकपुटानि पानपात्रस्थलानि तय कृतं विहितं यन्मथुरसस्यास्वादनं तन मदी मोहस्तस्य वशादिव प्रतिदिशं प्रतिकाप्ट पतता, सालोपं साम्बरं यथा स्यात्तथा स्वरय दावपावकस्याहिताः शत्रवो ये वलाहका मेवास्तवां गृह्यता मित्रता तस्या गहयेव निन्दयेव बहिणव्यूहान कला पिकलापान कबलयता नसता, वैरिवारिषु शत्रुभूतसलिलपु संभवः समुत्पत्तिस्तस्य रुपेत्र क्रोधेनेव शोपिता निर्जलाकृता याः सरस्यः १० कासारास्तेषां गर्भ मध्य स्थितानि वारिजजालानि नीरजनिकुरम्माणि लेलिहता जिह्वाविषयीकुर्वता, गृहीतो गरुडस्य ताक्ष्यस्य स्वभावो यन तथाभूतेनेव निर्विशङ्क निर्भयं यथा स्यात्तथा चयमाणा दन्तैः शकलीक्रियमाणा दुबहभागीमा विपुलफणा भयंकरा भोगिनः सर्पा येन तेन, निर्जीवितस्य स्वकीयमाणानामहारी यो जीमूतो मंघस्तस्य भूळच्छेदस्वेच्छयेव वान्छयत्र स्फुलिङ्गम्याजेन अनलकणकपटेन वियति नभसि समुद्गच्छता समुत्पतता, दुष्टः कालो दुष्काळस्तेनेव कुकालेनेव तुच्छेतरण महता धूमन प्रच्छादितो १५ यावापृथिव्योराकाशावयार्वि मागो येन तेन, पात्रदानेनेव मुन्यायिकाप्रभृतियोग्यपानदान व भूतिविधायिना संपत्तिविधायिना पक्षे भस्मविधायिना 'भूनिर्भस्मानि संपदि' इत्यमरः बौद्धनेव ताथागतेनेव लब्धं प्राप्त सर्वस्वं भक्षयति खादतीत्येवंशीलस्तेन पक्षे यत्प्राप्त तत्सर्व दग्धं शीलेन, तत्त्वानि जीवाजीवास्तवबन्धसंबरनिर्जरामोक्षाभिधानानि तेषां ज्ञानेनेव तमोपहन मोहापहारिणा पभे तिमिरापहारिणा, अतृप्तिमत्वात् संताप. रहितत्वाद् भतिगृनुजन देशीयन औदारिकजनतुल्येन, प्राप्तस्य दृषणं तस्माद् वेश्याजनस्य कुलटाजनस्य २० रहा था । फूलरूपी प्यालियों में किये हुए मधु रसके आस्वादनसे उत्पन्न नशासे विवश होने के कारण ही मानो जो प्रत्येक दिशामें गिर रहा था। अपने अहितकारी मेघोंकी मित्रताजन्य निन्दाके कारण हो जो मानो मयूरोंके समूहको बड़े आडम्बरोंके साथ ग्रस रहा था । जो सूखे हुए सरोवरोंक मध्यमें स्थित कमलों के समूहको बार-बार चाट रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'ये कमल हमारे शत्रुस्वरूप जलसे उत्पन्न हुए हैं। इस क्रोध से ही मानो उन्हें २५ चाट रहा था । गरुड़के स्वभावको ग्रहण किये हुए के समान जो बिना किसी शंकाके दुर्वह फनोंसे भयंकर साँपोंको चबा रहा था। अपने जीवनको हरण करनेवाले मेघोंका मूलच्छेद करनेको इच्छासे ही मानो जो तिलगोंके बहाने आकाश में उड़ा जा रहा था। दुकालके समान जिसने बहुत भारी धुएँ से आकाश और पृथिवीके विभागोंको व्याप्त कर रग्गा श्र: । जो पात्र दानक समान था क्योंकि जिस प्रकार पात्र दान भूतिविधायी-नाना प्रकारकी सम्पत्ति- ३० को करनेवाला है उसी प्रकार वह दाबानल भी भूतिविधायी था-भस्मको उत्पन्न करनेवाला था। जो बौद्ध के समान लब्धसर्वस्वभक्षी था अर्थात् जिस प्रकार बौद्ध अनित्येकान्तवादी होनेसे प्राप्त हुए समस्त पदार्थोंको झणभंगुर वर्णन करता है अथवा आचार-विचारसे रहित होने के कारण जो कुछ भी मिलता है उस सबको खा जाता है उसी प्रकार वह दावानल भी लन्धसवस्वभक्षी था अर्थात् जो भी पदाथे प्राप्त होता था उस सबका वह जला देता था। ३५. जो तत्त्वज्ञान के समान तमोपह-अन्धकारको दूर करनेवाला (पक्ष में मोहको दूर करनेवाला)
१. क० बारिजदलानि । २. क० ख० म० समुपगच्छता ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १५१ दावानलोपशास्तिगृहातिशायिना, सुजनलोकेनेव पांसुलस्थले स्पर्शरहितेन, गुणराशिनेव वंशोत्कर्षप्रकृष्यमाणेन, तस्करेणेव रक्षाभूयिष्ठे निवृत्तसंरम्भेण दाबपावकेन परितः परीततया परितापपराधीनान्कृपाधीन. मनाः स दोनोद्धरणोचितः कुमारः शतह्रदाशतवलयितानिव वलाहकाननेकपानक्षिष्ट ।
१५१. दृष्टमात्रेष्वेव तेषु स्वगात्रस्पृगुपद्रवादिव दूयमानः सुतरां सुदर्शनमुहृदयं तदुपद्रव५ परिहृतये हृदयनिहितजिनपतिपदपङ्कजः सुप्तमोनहद इव निभुतनियन्दाक्षिपक्ष्मा क्षणमस्थात् !
MP
वेषान्तरणव नेपथ्यान्तरंगेय वेश्याजनाऽपि यः किल प्राप्ती भवति तं स्वमायया दूषयनि, दुष्प्रवेशत्वात दुःखेन प्रवेष्टुं शक्यत्वात् माध्यगृहातिशायिना धनिकजनगृहमतिक्राम्यता धनिकजनगृहमपि रक्षकजनावृतच्याद् दुःपवेशं भवति, सुजनलोकने व सत्पुरुषेणेघ पांसुलस्थले पापस्थाने पक्षे सधूलिस्थाने स्पर्शरहितेन ग्रन्त्र
पांसबो मन्ति तत्रानलो न प्रसरतीति लोकसिकम् ' गुणराशिनेव गुणसमूहनेन वंशस्य कुलस्योत्कण १० श्रेष्ठत्वेन प्रकृप्यमाणो बर्धमानस्तन पक्षे वेणूकप्रकृष्यमाणेन, तस्करणेत्र चारेणे। रक्षाभूयिष्ठे रक्षा
बहुले स्थान निवृत्त: संरभो यस्य तेन पक्षे भस्मबहुले स्थाने निवृत्तसं रम्भेण दूरीकृतोद्योगेन । एवंभूतन दाबपात्रके न दावानलेन परितः समन्तात् परीततया व्याप्ततया परितापेन संतापन पराधीनास्तान , शतहदा. शतेन विद्युत्समूहेन वलयितान् युक्तान् बलाहकानित मेधानिय लनेकपान करिणः कृष्णधीनं मनो यस्य
तश्राभूतो दयालुचित्तः दीनानामुद्धरण उचित इति दीनोद्धरणोचितः अथवा उचितमभ्यस्त दीनोद्धरणं यस्य १५ तथाभूतः बाहिताग्न्यादित्वात्परनिपात: कुमारी जीबंधर ऐक्षिष्ट ददर्श ।
६१५१. दृष्टमात्रग्वेवेति-तेयु अनेकपषु दृष्टमानेष्वेव स्वगानस्पृग् स्वशरीरस्पशी य उपद्वस्तस्मादिव सुतरामत्यन्तं दूयमानः परितप्यमानः अयं सुदर्शनसुहृद् सुदर्शनयक्षस खो जीवंधरः तदुपद्रवपरिहृतये गोपद्वपरिहाराय हृदयं चेतसि निहिते स्थापिते जिनपतेरहतः पदपङ्केजे चरणारविन्दे येन तथाभूतः
सुप्ता मीना मत्स्या अस्मिस्तयाभूनो हद इत्र जलाशय इव निभृतमत्यन्तं निप्पन्दं निश्चेमक्षिपक्ष्म नयन२० रोमराजियस्य तयाभूतः सन् अणम् अस्थात् क्षणं यावन्निश्चलोऽभूदिति यावत् । तावतेति-जावत्ता
था। जो तृप्तिसे रहित होने के कारण अत्यन्त लोभी मनुष्यके समान जान पड़ता था । जो प्राप्त हुए पदार्थ में दोष लगा देनेके कारण वेश्याजनोंके दूसरे वेषके समान जान पड़ता था। जो दुःखसे प्रवेश करने के योग्य होने के कारण धनाढ्य मनुष्यक घरको भी अतिक्रान्त करनेवाला था। जो सजन मनुष्यों के समान पांसुल स्थल-पापी मनुष्योंके स्थल में स्पर्शसे रहित २५ था ( पक्षमें धूलिपूर्ण स्थल में स्पर्शसे रहित था)। जो गुणराशिके समान वंशोत्कर्षसे प्रकृष्य. माण था-चाँसोंकी अधिकतासे बढ़ता जाता था (पक्षमें कुलकी उत्कृष्टतासे बढ़नेवाला था)।
और जो चोरके समान था क्योंकि जिस प्रकार चोर रक्षाबहुल स्थानमें--पहरेदारोंसे युक्त स्थानमें प्रवृत्तिसे रहित होता है उसी प्रकार वह दावानल भी रक्षाबहुल स्थानमें अधिक तर भस्मसे युक्त स्थानमें प्रवृत्तिसे रहिन था। उक्त दावानलके द्वारा चारो ओरसे घिरे होनके कारण वे हाथी सन्तापसे युक्त थे तथा सैकड़ों बिजलियोंसे घिरे हुए मेघोंके समान जान पड़ते थे। जीवन्धर स्वामी दीन प्राणियोंका उद्धार करने के अभ्यस्त थे इसलिए उन हाथियों को देख उनका हृदय दयाके अधीन हो गया।
. १५१. उन हाथियों के दिखते ही जीवन्धरकुमार इतने अधिक दुःखी हुए मानो वह
उपद्रव स्वयं उनके शरीरपर ही हो रहा हो । उनका उपद्रव दूर करने के लिए चे हृदय में जिनेन्द्र ३५ भगवान्के चरणकमलोको विराजमान कर क्षण-भरके लिए स्थिर खड़े हो गये । उस समय
उनके नेत्रोंकी बरौनियाँ अत्यन्त निश्चल थी और उससे वे उस सरोवरके समान जान पड़ते थे जिसमें कि मछलियाँ सोयी हुई हो। उसी क्षण जो अत्यन्त तीक्ष्य प्रकाशसे नेत्रों को निमी.
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२३१
- वृत्तान्तः ]
पञ्चमी लम्भः
तावता ववृषुः परुषतरालोकनिमीलिताम्ब कानामम्बरमा लिम्पता मकालबालातपरुचां शम्पासहाणामजस्रोन्मेषणमण्डिताः शुण्डालौर सशुण्डादण्डप्रकाण्डतुल्यस्थौल्यनोरधारा निरन्तरितान्तरिक्षाः प्रतिक्षणसुलभफणिपतिरणरणकवितरणचतुरगम्भीर गर्जितजर्जरितश्रवसः पर्जन्याः ।
$ १५२. तदनु च निजोद रनिलीनसानुमति सलिलाह्रणधिषणागतनी रदाय मानद्विरदपरिषदि बाडवकृपीटयोनितुलित विलविवरपीयमानपयसि शौक्तिकनिक रानुकारिकर कोत्क रहारिणि विडम्बि - ५ विद्रुमलतायितानद्रुम किसलयापशीमिनि सागर सत्रह्मचारिणि प्रवति या प्रवाहे दावचित्रभानोः परित्रातानालोक्य गजान्गजेन्द्रगामी गतानुशयः शनैरतिक्रम्य मरुभुवं गत्वा गव्यूतिमात्रं तत्रैव
सावत्कालेन च पर्जन्या मेवा ववृपुरिति कर्तृक्रियासम्बन्धः । अथ पर्जन्यानां विशेषणान्याह - परुत्रतरेण तीक्ष्णतरेण आलोकंन प्रकाशेन निमीलितानि अस्वकानि नेत्राणि येस्तेषाम् अम्बरं गगनम् आलिम्पताम्, अकालवालात इव अकाण्डप्रभातात इव रुक् कान्तिर्येषां तेषां शम्पासहस्राणां विद्युत्सहस्राणाम् अजस्रं १० निरन्तरं यदुषणं तेन मण्डिताः शोभिताः, शुण्डालानां गजानां य औरसा बालकास्तेषां गुण्डादण्डप्रकाण्डानां श्रेष्ठशुण्डादण्डानां तुल्यं समानं स्थौल्यं यासां तथाभूता या नीरवारास्वाभिर्निरन्तरितमन्तरीक्षं वैस्तथाभूताः प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति सुलभं फणिपतेः शेषनागस्य रणरणकवितरणे चतुरं निपुणं गम्भीरं सातिशयं च यद् गर्जितं स्तनितं तेन जर्जरितानि जीर्णीकृतानि श्रवांसि श्रोत्राणि यैस्तं ।
६ १५२. न्विति तदनु तदनन्तरम् निजोदरे निजमध्ये निलीनोऽन्तर्हितः सानुमान् पर्वतो येन १५ तस्मिन् सलिकाहरणस्य जलग्रहणस्य धिषणया बुद्धया आगता ये नीरा मेघास्तद्वदाचरती द्विरदपरिषद् गजघटा यस्मिंस्तस्मिन् बाडवकृपीटयोनिना बडवानलेन तुलितैः शैलविवरैर्विकः पीयमानं पयो यस्य तस्मिन् भौतिकनिकरानुकारिणो मौक्तिकसमूहानुकारिणो ये करका वर्षांपास्तेषामुत्करेण समूहेन हारिणि मनोहरे, विडम्बितास्तिरस्कृता विद्रुमलताघिताना प्रवालवल्लीसमूहा यैस्तथाभूता ये डुम किसलया वृक्षपल्लवास्तैरुपशोभत इत्येवंशीले, सागरसब्रह्मचारिणि सिन्धुसदृशे पयःप्रवाह पानी पूरे प्रवहति सति, २० दात्रचित्रभानोर्दावानलात् परित्रावान् रक्षितान् गजान् आलोक्य गजेन्द्र इव गच्छतीत्येवंशीलो गजेन्द्रगामी जीवंधरी गतानुशयां विगतपरितापः शनैर्मन्दम् महभुवं रजःस्थानम् अतिक्रम्य व्यपगमय्य गत्यूवि
fer करनेवाली, आकाशको लिप्त करनेवाली और असमय में प्रकट हुए प्रातःकालके नाम के समान कान्तिको धारण करनेवाली हजारों बिजलियोंके निरन्तर होनेवाली कौंध से सुशोभित थे । हाथियोंके बच्चों शुण्डाइण्ड के समान मोटी-मोटी जलकी धाराओंसे जिन्होंने आकाश- २५ व्याप्त कर रखा था और क्षण-क्षण में सुलभ एवं शेष नागको उत्कण्ठा उत्पन्न करने में चतुर गम्भीर गर्जनासे जिन्होंने कान जर्जर कर दिये थे ऐसे मेघ बरसने लगे ।
१३२. तदनन्तर जिसने पर्वतोंको अपने उदर में विलीन कर लिया था, जिसके बीच हाथियों का समूह पानी लेने की बुद्धिसे आये हुए मेघों के समान जान पड़ता था, बडवानल के समान त्रिलोके छिद्रोंसे जिसका पानी पिया जा रहा था, जो मोतियोंके समूहका अनुकरण ३० करनेवाले ओलोंके समूह से सुशोभित था, जो मूँगाकी लताओंको विडम्बित करनेवाले वृकी लहलहाती लाल-लाल कोंपलोंसे सुशोभित था और सागर के समान जान पड़ता था ऐसा जलका प्रबाहु जब बहने लगा तब उन हाथियों को दावानलसे सुशोभित देख गजराज के रहत समान गमन करनेवाले जीवन्धरकुमार पश्चात्तापसे महित हो धीरे-धीरे उस स्थलको लाँचकर दो कोश आगे गये होंगे कि उन्होंने एक पर्वत देखा । वह पर्वत महावंशतया - बड़े- ३५
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२३२ गद्यचिन्तामणि
[ १५२ जीवंधरस्थमहावंशतया महासत्त्वतया महामृत्तथा महोन्नतितया पात्मानमनुयुर्व-तं कमपि पर्यतं तदखर्वगर्वनिर्वासनाय निवेशयितुमिव निजाघ्रियुगमस्य शिरसि सिंहपोत इव शिलाविभङ्गन साहंकार: समविरह्य महीभृतस्तस्य मणिमकुटायमानं जिनपतिसदनम्', पिपासातुर इव धाराबन्धमादरान्धः समासाद्य, सद्यः संफुल्लमल्लिकावकुलमालतीप्रमुखप्रफुल्लगुच्छ: पूजाइमर्हन्तमतिभक्तिरभिपूज्य, ५ पुनरपि तरणतरणिरिव गीर्वाणगिरि प्रकृष्टमनोरथः प्रदक्षिणं भ्रमन्, त प्रत्यया जिनशासन रक्षियक्षि
देवतया सादरपादितकशिपुः, ततो विनिर्गत्य विश्वतः शश्वदपपादिततरुणो चरणयावकरससंपर्क
गम्यूतिमा कोशष्ट्यप्रमितं गत्वा तत्रैव महावंशतया उच्च कुलत या पक्षे महावेगुसहिततया, महासत्वतया विपुलपराकमतया पक्षे वृहदाकारजाबसहितत्वेन महीभृत्तया राजतया पक्षे पृथिवीधरस्बेन, महोन्नतितया
च प्रचुरोदायतया च पक्षे महोत्तुगतया च आस्मानं स्वम् अनुकुर्वन्तं कमपि पर्वत शैलं तस्य पर्वतस्य १० योऽखों गवा भूयिष्टोऽहंकार-तस्य निर्वासनाय दूरीकरणाय अस्प शिरसि मस्तकं पक्षे शिखरे निजाघ्रियुगं
स्वकीयचरणयुगलं निवेशयितुमित्र स्थापयितुमिव सिंहपात इव मृगेन्द्रमाणवक इव साहंकारः सगर्व: शिलाविमलेन शिलाखण्डेन समधिहह्म तस्य महीभृतः पर्वतस्य पक्षे राजः मणिमकुटायमान सममालिबदावरत् जिनपतिसदनं जिनेन्द्रमन्दिरम् पिपासातुर उदन्यापीडितो धाराबन्धमिव जलाशयमिव आदरान्धः
सन् समासाद्य लब्ध्वा सद्यो झटिति संफुल्लानि बिलसितानि यानि मल्लिकाबकु र मालतीप्रमुखफुल्लानि १५ तेषां गुच्छैः स्तयकैः पूजाह सपर्यायोग्यम् अर्हन्तं जिनेन्द्रम् अतिभक्तिः प्रगाढभक्तियुक्तः सन् अमिपूज्य
पूजयित्वा पुनरपि पूजानन्तरं तरुणतरणिर्मध्याह्नमार्तण्डो गीर्वाणगिरिमिव सुमरुमिव प्रकृष्टमनोरथः श्रेष्ठाभिप्रायः प्रदक्षिणं भ्रमन् परिकाम्यन् तत्रत्यया तत्रभवया जिनशासनरक्षिणी या यक्षिदेवता तया सादरं ससम्मानं यथा स्यात्तथा संपादितः कशिपूर्वस्वाच्छादने यस्य तथाभूतः, ततो जिनपतिसदनतो विनिर्गत्य वित्रतः सर्वत: शश्वद् निरन्तरम् उपपादितस्य तरुणीचरणयावकरसम्य युवतिपादालतकस्य संपण
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२० बड़े वाँसोंसे युक्त होने के कारण ( पक्षमें उच्चकुलीन होनेसे ) महासत्वतया--अत्यधिक जीव
जन्तुओंसे सहित होनेके कारण (पक्षमें अत्यन्त शक्तिशाली होनेसे) महीभृत्तया-पृथिवीको धारण करने के कारण (पक्ष में पृथिवीका पालन करनेसे और महोन्नतितथा-अत्यधिक ऊँचाई के कारण ( पक्ष में अत्यधिक उदार होनेसे ) जीवन्धर स्वामीका अनुकरण कर रहा
था । उस पर्वतका बहुत भारी अहंकार दूर करने के लिए ही मानो उसके सिरपर-शिखरपर २५ अपना पैर रखने के उद्देश्यसे वे उसपर उस प्रकार चढ़ गये जिस प्रकार कि अहंकारसे युक्त सिंह का बच्चा चट्टानों के खण्डोंपर पैर रखता हुआ जा चढ़ता है। ऊपर चढ़कर उन्होंने उस पर्वतरूपी राजाके मणिमय मुकुट के समान आचरण करनेवाला एक जिनमन्दिर देखा। जिस प्रकार प्याससे पीडित मनुष्य बड़े आदरसे जलाशयके पास पहुँचता है उसी प्रकार
जीवन्धर स्वामी भी आदरसे अन्ध होते हुए उस जिनमन्दिर के पास पहुँचे। उन्होंने तीत्र ३० भक्तिसे युक्त हो शीघ्र ही विकसित जुही, मौलश्री तथा मालती आदि प्रमुख-प्रमुख फूलोंके
गुच्छोंसे पूजाके योग्य आहेन्त भगवानकी पूजा की। और मध्याह्नका सूर्य जिस प्रकार सुमेकपर्वतकी प्रदक्षिणा देता है. उसी प्रकार उन्होंने उन्नम मनोरथोंसे युक्त हो उक्त मन्दिरकी बारबार प्रदक्षिणा दी। उस मन्दिर में जिनशासनकी रक्षा करनेवाली जो यक्षा देवी रहती थी उसने उन्हें आदरपूर्वक वस्त्र तथा भोजन प्रदान किया। यहाँ से निकलकर वे उस पल्लव
१. क० ख० ग० जिनसदनम् ।
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पञ्चमो कम्भः
- यात्रावृत्तान्तः }
रक्तततया स्वयमपि पल्लवितरागमिव पल्लवव्यपदेशे देशमशिश्रियत् ।
$ १५३ दसमध्यनिवेशितं निर्दोषतया दोषाधिपतिरिति सदा सुवृत्ततया व्यव स्थाविकलवृत्त इति कलाक्षयरहिततया परिक्षणकल इति न परिभवन्तं चन्द्रम्, चन्द्राभं नाम कमपि स्कन्धावारम्, नेकवारसंभवदसंभविनिमित्तोपलम्भेन ससंभ्रमं गाते स्म |
$ १५४ तस्मिन्नपि स्थानस्थानेषु वाचंयमानामिव वर्जितव्याहृतीनां सद्यः समुद्यताहस्कर - ५ तामिव बालनिष्पादनव्यसन जुषां भूरिफलभरितभूरुहामिव विनम्रशिरतां पुरीकसां नालनिष्कुसम्बन्धेन रक्तमवणं तलं यस्य तथाभूतस्तस्य भावस्तया स्वयमपि स्त्री पल्लवितो वर्धितो रागो यस्य तथाभूतमिव पल्यपदेशं पवनामधेयं देशम् अशिश्रियत् ।
५३. तदति तदनु च पल्लवदेशाभिगमानन्तरम् तन्भव्यनिवेशितं तदेशमध्यस्थले विद्यमानं निर्दोषतथा दोपरहितन्त्रेन पक्षं रात्रिरहितत्वेन दोषाधिपतिर्गुणस्वामी पक्षं रात्रिपतिः इति १० सदा सुवृत्ततया सदाचारयुक्तत्वेन पक्षे सुगोलाकारत्वेन व्यवस्थात्रिकलं वृत्तं चारित्रं यस्य पक्षे व्यवस्थाविकलः परिवर्तनशील वृत्ती गोलाकार इति, कलाक्षयरहितया वैदग्धीविनाशरहितत्वेन पक्षे पोडशभागक्षयरहितत्वेन परिक्षीणा नश्वराः कला यस्य तथाभूत इति हेतोः चन्द्र शशिनम् परिभवन्तं तिरस्कुर्वन्तं चन्द्राभं नाम कमपि स्कन्धावारं राजधानीम् नैकवारं संमवन्ति यान्यसंभवोनि निमित्तानि शकुनान तेषामुपलम्भन प्राप्त्या ससंभ्रमं यथा स्यात्तथा गाहृते स्म प्रविशति स्म । स्कन्धावारो निर्दोष: चन्द्रस्तु . १५ दोषाधिपतिर्गुणस्वामी पक्षे रजनीपविरिति चन्द्रेण तस्य परिभवन सुचितमेव, स्कन्धावारस्तु सदा सुवृत्तः सदाचारयुक्तः चन्द्रस्तु व्यवस्थाविकलवृत्त इति तेन तस्य परिहारो योग्य एव । स्कन्धावारस्तु कलापरिक्षयरहितश्चातुर्य विनाशरहितः चन्द्रस्तु परिक्षीणकल इति हेतोस्तेन तस्य पराभवनमहमेवेति व्यतिरेक: ।
२३३
S
१५४. तस्मिन्नपि तस्मिन्नपि चन्द्राभस्कन्धावारेऽपि स्थानस्थानेषु प्रतिस्थानं वाचंयमानामिव गृहीत मौनानामिव वर्जितन्याहुतीनां व्यक्तवाचाम् सद्यः समुद्यतो योग्हस्करः सूर्यस्तस्यैव श्रुत् कान्तिर्येषां २० तेषामिव वापनिपादनव्यसनमत्पत्तिष्यसनं जुषन्ते इति बाष्पनिप्पादनव्यसन जुषाम् एकत्र दुखेन बापोत्पत्तिः, अन्यत्र द्युतां चाकचक्येनेति मात्रः भूरिफलैर्विपुल परिमाणफलैर्भरिता ये भूरुहो वृक्षास्तेषामिव विनशिरसा नतशीर्षाणाम् एकत्र दुःखातिशयेन अन्यत्र च फलभरेण विनाशिरस्त्वं ज्ञेयम्, पुरौकसां देश में पहुँचे जहाँ निरन्तर तरुण स्त्रियोंके चरणोंके महावर के सम्पर्क से पृथिवीतल लाल-लाल दिखाई देता था और उससे जो ऐसा जान पड़ता था मानो स्वयं ही रागको पल्लवित कर रहा हो --- वृद्धिंगत कर रहा हो ।
२५
$ १५३. तदनन्तर उस देश के मध्य में स्थित चन्द्राभ नामक किसी नगर में उन्होंने बारचार होनेवाले अनेक असम्भव निमित्तोंके मिलने से संभ्रमपूर्वक प्रवेश किया। वह नगर निर्दोष था और चन्द्रमा दोषाधिपति दोषोंका स्वामी ( पक्ष में दोपा-रात्रिका स्वामी था ), नगर सदा सुवृत्त - गोल अथवा सदाचार से सहित था और चन्द्रमा व्यवस्थासे रहित गोल था- ३० कभी गोल रहता था और कभी अर्धगोल आदि रहता था अथवा सदाचार से रहित था । और नगर कलाओंके अयसे रहित था जब कि चन्द्रमाको कलाएँ क्षीण होती रहती थीं इसतरह वह नगर चन्द्रमाका भी पराभव कर रहा था।
६ १५४. उस नगर में भी जगह-जगह जो मौनियोंके समान वार्तालापसे रहित थे, तत्काल होमे हुए साकल्य के समान अश्रु उत्पन्न करने के व्यसनसे सहित थे, और अत्यधिक ३५ फलोंसे भरे हुए वृक्षोंके समान जिनके सिर नम्रीभूत थे ऐसे मनुष्योंके नालसे तोड़े हुए
१. ० ० ० स्वमपि । २ ० ० सास्कविपामिव ।
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गद्यचिन्तामणिः
[१५४-५५पमाया:
षितनलिनानीव प्रम्लानवदनानि प्रेक्षमाणः प्रान्तवतिनं कमपि दान्तहृदयं पुरुषममृतवर्षायमाणदशकिरणः सकरुणमिव सिञ्चन् वनकुञ्जरोत्पाटितविटपिपेटकस्येव विश्वस्यापि जनस्य विच्छायतानिदानम् 'किमवगच्छसि ?' इत्यपृच्छत् ।
१५५. स च कुमारमादरादभिपत्यैवमब्रवीत्-"भद्र, भद्रासिकार्थियार्थिवपरायकिरी५ टपादपीठप्रतिष्ठितपादपल्लवः पल्लवदेशापदेशकुबेरकोशगृहपतिः पतितजनदुरालोको लोकपालो नाम राजा भवत्यस्या राजधान्याः । तस्य च सकलगुणगरीयसी कनीयसी प्रज्ञाशालिजनकलाभेन जडाशयप्रभवेति पतिदेवतावतभाविबहुमानप्राप्त्या बहुपुरुषाभिलाषिणीति लोकपालसहजसंगमेन लोकविनाशकारगरलसोदरेति च गईमाणा पद्मां पद्मा नाम । कन्यामिमामिदानीं कन्यागृहा
पौराणां मालान् निष्कषितानि नलिनानि तद्वत् नालनुटिसकमलानीव अम्लानबदनानि विषण्णवस्त्राणि १. प्रेक्षमाणो विलोकमानो जीवकः प्रान्तवतिनं निकटस्थितं दाम्तहृदयं दुःखितचेतसम् कमपि पुरुषम् अमृत
वर्षायमाणाः पीयूषनृविदाचरन्तो ये दशनकिरणा रदनरश्मयस्तैः सकरुणमिव सदयमिव सिञ्चन् वनकुञ्जरेण कानन-करिणोपाटित उन्मलितो यो विटपिपेटको वृक्षसमूहस्तस्येव विश्वस्यापि, निखिलम्यापि जनस्य विच्छायतानिदानं निष्प्रमताकारणम् 'किम् अवगच्छसि जानासि' इति अपच्छन् ।
६१५१. स चेति स च पुरुष आदरात् ससन्मानं कुमारम् अभिपन्य तस्य संमुखमागस्य एव१५. मित्थम् अब्रवीत्-'मद् ! हे कल्याणिन् ! भद्रासिकार्धाः सुखासिकाभिलाषिणो ये पार्थिवा राजानस्तेषां
पराय किरीटानि श्रेष्ठमुकुटान्येव पादपीठानि चरणासनानि तेषु प्रतिष्ठिताः स्थिता: पादपलवावरणकिसलया यस्य तथाभूतः, पल्लवदेशोऽपदेशो ब्याज यस्य तथाभूतं यत् कुबेरकोशगृह धनाधिपनिधिनिकेतनं तस्य पति: स्वामी, पतितजनानां भ्रष्माण दुरालीको दुःखेनालोकितुं शक्यो लोकपालो नाम अस्या राजधान्या
राजा मवति । तस्य च लोकपालस्य सकलगुणनिखिलैर्दयादाक्षिण्यादिभिर्गुणैर्गरीयसी श्रेष्ठतरा कनीयसी २० युवति: 'युवाल्पयोः कनन्यतरस्याम्' इति कनादेशः पमा लक्ष्मी गहंयन्ती निन्दन्ती पझा नाम कन्या
अस्ति । अथ पद्माया गर्हणानिमित्तमाह--प्रज्ञाशाली बुद्धिविभूपितो यो जनकस्तस्य लाभेन, जहाशयो मूर्खः प्रभवो जन्मदाता यस्याः सा पक्षे जलाशपः सागरः प्रभवो यस्याः सा, कन्या तु प्रज्ञाशालिजनकेन समुत्पन्ना पमा च जहाशयेन समुत्पन्नेति व्यतिरेकः परिहारपक्षस्तूतः । पतिदेवताव्रतेन पातिवस्येन भावि
भविष्यद् यद् बहुमानं तस्य प्राप्तिस्तया, बहुपुरुषानभिलपतीत्येवं शीला नानापुरुषाभिलाषिणी न्यमि२५ चारिणीत्यर्थः पक्षेऽनकपुष्पामिलाषिणी, इति । कन्या पतिव्रतात्वेनाने सन्मानमवाप्स्यति लक्ष्मीस्वनेक.
कमलोंके समान मुरझाये हुए मुखांको देखते हुए उन्होंने निकटवर्ती किसी दुःखी मनुष्यसे पूछा कि जंगली हाथीके द्वारा उखाड़े हुए. वृक्ष-समूहके समान सभी लोगोंकी कान्तिहीनताका
कारण क्या तुम जानते हो ? पूछते समय अमृत वर्षाके समान आचरण करनेवाली दाँतोंकी - किरणोंसे स्वामी ऐसे जान पड़ते थे मानो दयापूर्वक उम पुरुषाः नृत ही सींच रहे हों।
६१५५. उस पुरुषने आदरपूर्वक कुमारके सामने नम्रीभूत होकर इस प्रकार कहाहे भद्र ! सुखपूर्वक निवासकी इच्छा करनेवाले राजाओंके श्रेष्ठ मुकुटरूपी पादपीठपर जिसके चरण-पल्लव स्थित है, जो पल्लव देशरूपी कुवेरके खजानेका स्वामी है तथा एतित मनुष्योंको जिसका दर्शन दुर्लभ है ऐसा लोकपाल नामका राजा इस राजधानीका स्वामी हैं। उसकी
समस्त गुणोंसे श्रेष्ठ पद्मा नामकी कन्या है। वह कन्या चूँकि बुद्धिमान् पितासे उत्पन्न थी र जव कि लक्ष्मी जडाशयप्रभवा-मूर्ख पितासे (पक्षमें जलाशयसे) उत्पन्न थी। कन्या 'पातिव्रत्य धर्मसे बहुत भारी सम्मानको प्राप्त होनेवाली थी जब कि लक्ष्मी अनेक पुरुपोंकी
अभिलापिणी होनेसे पुंश्चली कहलाती थी। और कन्या लोकपाल नामक भाईसे सहित थी
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-विषहरणवृत्तान्तः
पञ्चमो लम्भः निर्गत्य गृहोद्याने स्वकरावजितजलसेकेन सस्नेहमभिवधिता पुष्पवतो जाता माधवीलतेति महोत्सवमारचयन्ती तद्वदनगोचरशशाङ्कशङ्कयेव भुजङ्गमः कोऽप्यस्प्राक्षीत् । नरेन्द्राश्चासन्नरेन्द्रा इव प्रबलप्राथिनो व्यर्थप्रयासाः । तन्निमित्तोऽयं मानां शोकः । शाकुनिकस्तु कश्चिन्निश्चेतनेयं यदि जातापि कन्यका तावदेनामनन्यसाधारणविषहरणनैपुणः कोऽपि प्राणैः समं सांप्रतमेव संगमयतीति संगिरते | नरपतिरपि तवचनविश्वासाद्विश्वदिश्यपि शक्तिमदन्वेषणाय शुद्धान्तादपरमन्तिकचरं ५ प्राहैषोदघोषयच्च ‘विपहरणसमर्थाय मम राज्या वितरिष्यामि' इति । महाभाग, महीपतिना विषविद्याविदग्धान्वेषणाय प्रेषितेष्वहमप्यन्यतमः कश्चिदस्मि । कार्येऽस्मिन्कच्चिदार्य, भवतोऽन्य
पुरुषामित्कापि गीति हताः कुलटेति व्यतिरेकः परिहारस्तूनः । कन्या लोकपाल इति नामधेयः सहजः सहोदरस्तस्य संगमेन पक्ष लोकरक्षकसहादरप्राप्त्या लोकविनाशकरस्य गरलस्य विषस्य सोदरा भगिनीति व्यतिरेकः परिहारस्तूतः । कन्यामिति-इशानी सामातम् कन्यागृहात् कन्यान्त:पुरात् १० निगत्य निःसृत्य रोगाने गृहात सको तय असं तस्य सेकेन सेचनेन सस्नेहम् अभिवर्धिसा पालिता माधवीलता पुष्पव्रती सपुष्पा जातेति हेतोः महोत्सवम् आरचयन्तीम् इमां कन्यां तद्दनगोचरस्तन्मुख विषयो यः शशाको मृगाङ्कस्तस्य शङ्कया संदहनेव कोऽपि भुजङ्गमी विटः पझे नागः अस्त्राक्षात् पस्पर्श । नरेन्द्राश्च विपद्याश्च प्रबलं प्रकृएवलोपेतं प्रार्थयन्त इति प्रबलप्राधिनो नरेन्द्रा इव राजान इव ध्यर्थप्रयासा मोवोद्योगा आसन् । तसिमित्तं निदानं यस्य तथाभूतोऽयं मानो शोको विषादः । शाकुनिक- १५ स्तु शकुनज्ञस्तु कश्चिरकोऽपि 'इयं कन्यका यदि निश्चेतनाऽपि जाता निश्चेष्टाप्यभूत् तथापि तावत् साकल्यन अनन्यसाधारणमनुपमं विषहरणनैपुणं सरलापहरणवैदग्ध्यं यस्य तथाभूतः कोऽपि प्राणैः समं साम्प्रतमेव इदानीमेय संगमयति मेलयति, इति संगिरते निवेदयति । नरपतिरपि राजापि तस्य शाकुनिकस्य वचने विश्वासः प्रत्ययस्तस्माद् विश्वदिश्यपि समयकाष्टायामपि शक्तिमतो विषापहरणसामध्यवतोऽन्वेषणाय शुद्धान्तादन्तःपुरात् अपरम् अन्तिकचरं सेवकं प्राहैपीत् प्रेषयामास अघोपयच्च घोपणां च चकार-'विष- २० हरणसमर्थाय गरलापहारदक्षाय मम स्वस्य राज्याध वितरिप्यामि दास्यामि' इति । महाभाग ! हे महानुभाव ! महीपतिना राज्ञा विषविद्यायां गरलापहरणविद्यायां विदग्धस्य चतुरस्यान्वेषणं तस्मै प्रेषितेषु अहमपि ऋश्चित् अन्यतम एकोऽस्मि । 'अस्मिन् कार्य हे आय ! हे पूज्य ! कञ्चित् कामप्रवेदने भवतोऽपि जब कि लक्ष्मी लोक का विनाश करनेवाले विपकी वहिन थी। इस प्रकार वह लक्ष्मीको तिरस्कृत करती रहती है। अपने हाथमें लिये हुए जलके सोंचनेसे जिस माधवी लताको २५ इसने बड़े स्नेहके साथ बढ़ाया था वह आज सर्वप्रथम पुष्पवती हुई है-उसमें सर्वप्रथम फूल निकले हैं इसलिए वह कन्यागृहसे निकलकर घरके बगीचामें बड़ा भारी उत्सव कर रही थी कि उस के मुखको चन्द्रमा समझकर ही मानो किसी भुजंग-साँपने ( पक्ष में विट पुरुपने ) उसका स्पर्श कर लिया-उसे डस लिया। विपवैद्य, बलवान् राजाके सम्मुख प्रयाण करनेवाले राजाओंके समान व्यर्थ प्रयास हो गये हैं अर्थात् विय दूर करने में कोई भी विध- ३० वैद्य समर्थ नहीं हो सके हैं। इसी कारण मनुष्योंको यह शोक हो रहा है। यद्यपि यह कन्या चेतनारहित हो चुकी है तथापि शकुनशास्त्रका ज्ञाता कहता है कि विष दूर करने में असाधारण निपुणताको धारण करनेवाला कोई पुरुष आकर इसे अभी हाल प्राणोंसे सहित करता है। राजाने भी उसके व वनों में विश्वास होनेसे सभी दिशाओं में शक्तिशाली पुरुषकी खोज करनेके लिए अन्तःपुरसे अतिरिक्त भृत्य भेजे हैं और घोषणा करायी है कि 'मैं विष हरण ३५ करने में समर्थ पुरूपके लिए अपना आधा राज्य दूंगा'। हे महाशय ! समस्त विद्याओंमें चतुर मनुष्यकी खोज करने के लिए राजाने जो भृत्य भेजे हैं, उनमें मैं भी एक हूँ। हे आर्य !
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२३६ गचिन्तामणिः
[ १५६ पनाया: - धिकारोऽस्ति ।" इति।
१५६. तद्वचनानन्तरं जीवकस्वामी च' 'जीवमात्रस्याप्युपद्रवो विद्रावयितव्यः । किमुत प्रबलोऽयमवलाजनस्य !' इत्यत्ताश्चन्तयन् 'अयि भाः, तथ यामो ययम् । अस्तु वा न वा प्रस्तुतकर्मणि नावीण्यम्' इति प्रणिमदोव राजगृहमपमृत्य प्रवर्तमानतु मुलनिवतितवर्षधरनिवारणयन्त्रणमनामन्त्रित एवं प्रविश्य कन्यान्तःपुरं तत्र सर्वतोऽपि सर्वीसहापृष्ठे वेष्टमानगाष्ट्रि कष्टां दशामापनमाक्रन्दमयमिव शोकगयमिव विलापममिव व्यामोहमयमित्राथुमयमिवामयमयमिव निरूप्यमाणं जनं तन्मध्यगतां बबलकोमलकदल्यन्तर्दलच्छायप्रच्छदाच्छादितशयनीयमधिशयानां मुणालिनीमिद विच्छिन्नमूलां विच्छायां कन्यकामपश्यत् । व्यचिन्तयच्च तदङ्गकान्तिकन्दलित
कन्दर्पदपंः 'न चेयमप्सरमः, न हि तस्याश्चक्षुः पक्षीवृत्तपक्षमक्षोभम् । न वासौ तडिल्लता, न १० तवाप्यधिकाराऽस्ति ।" इति ।
१५६. नद्वचनानन्तरमिति--तद्वचनानन्तरं जीवकस्वामी च जीवन्धरऽपि च 'जावमानस्यापि प्राणिमानस्यापि उपद्रवो विद्वावयितच्यो दूरीकरणीयः किमुत अनलाजनस्य वीजमस्य अयं प्रबलो भूथिष्टः' इतीस्थम् तिर्मनसि चिन्तयन् 'अग्रि मोः वयं सन्न यामो गच्छामः प्रस्तुतकर्मणि प्रकृतकार्य
प्रावीण्यं दक्षत्वम् अस्तु न बाप्यस्तु' इति प्रणिदल्नेव कथयन्नेव प्रवर्तमानतुमुन जायमानकलकलशब्देन १५, निवर्तिता दूरीकृता वर्षअनिवारणयन्त्रणा प्रतिहारप्रतिरोधयन्त्रणा यस्मिस्तथाभूतं राजगृहं नरेन्द्र मन्दिरम्
उपसृत्य समुपगम्य अनामन्त्रित एबानाकारित एव कन्थान्तःपुरं कन्यागृह प्रविश्य तत्र सर्वतोऽपि समन्तादपि सर्वसहापृष्टे वसुधापृष्ट वष्टमाना गायष्टियस्य तम्, कष्टो सदुःखाम् दशामवस्थाम् आपन्नं प्राप्तम् भाक्रन्दमअमिय रोदनमयमिव, शोकमयमिव निषादमयमिन, विलापमयमिव परिदेवनमयमित्र, व्यामोहमयमित्र
मू.मय मिय, अश्रुमयमिव सबाप्पमित्र, आमयमयमिव रोगमयमिव, निरूप्यमाणं रश्यमानं जनम् तेषां २७ जनानां मध्यगता ताम धवलः सित: कोमलो मृदुलः कदल्यन्तर्दलसच्छायो मोचान्तर्दलममृणकान्तिश्च यः
प्रच्छद आवरणपटस्तनाच्छादितं यच्छयनीय शय्या तद् अधिशयानामप्रितिष्ठन्तीम् विच्छिन्नं खण्डितं मूलं यस्यास्तथाभूतां मृणालिनीमिव विसिनीगिध विच्छायो कान्तिरहित कन्यकाम् अपश्यत् । व्यचिन्तयश्चेतितस्या कन्यकाया अङ्गकान्त्या दहप्त्या कन्दलितोऽङ्कुरितः कन्दर्पदपोऽनङ्गगर्यो यस्य तथाभूतोऽयं कुमाये इस कार्य में आपका भी क्या अधिकार है ?
१५. उसके बचन सुनते ही जीवन्धरस्वामी भीतर-हो-भीतर विचार करने लगे . कि 'जीवमात्रका उपद्रव दूर करना चाहिए फिर अबलाजन-स्त्रीजनके इस प्रवल उपद्रवकी तो बात ही क्या है ?---यह तो अवश्य ही दूर करने योग्य है' ऐसा विचार कर उन्होंने कहा कि 'हम वहाँ चलते हैं प्रकृत कार्य में निपुणता हो अथवा न हो'। ऐसा कहते हुए वे राज
महलकी ओर चल पड़े और होनेवाले जोरदार शब्दसे जहाँ द्वारपालों के रोकनेकी यन्त्रणा ३० दूर हो गयी थी ऐसे कन्याके अन्तःपुर में बिना बुलाये ही भीतर प्रविष्ट हो गये। वहाँ आकर
उन्होंने पृथ्वीपर कन्याके शरीर को सब ओरस घेरकर बैठे हुए उन लोगों को देखा कि जो कष्टकारी अवस्थाको प्राप्त थे, और आक्रन्दनमय, शोकमय, विलापमय, व्यामोहमय, अश्रुमय, और रोगमयके समान दिखाई देते थे। उन्हीं मनुष्यों के बीच में उन्होंने सफेद एवं कोमल
केले के भीतरी पत्तोंके समान कान्तिके धारक चदरसे आच्छादित शय्यापर शयन करनेवाली ३५ कन्याको देखा। वह कन्या उस समय जिसकी जड़ कट गयी थी ऐसी कमलिनोके समान कान्तिहान दिखाई पड़नी थी। कन्याके शरीरकी कान्तिसे जिनके काम का गर्व बढ़ रहा था
१. फ. ० 'च' नास्ति । २. के. निवतित । ३. म० छिन्नमूलाम् । ४. क० ग० कन्दपंदर्पण ।
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-विपहरणवृत्तान्तः ] पञ्चमो लम्भः
२३७ हि तस्या अप्येवमतिपेलवाङ्गोपाङ्गसंगतिः । न चैवासो रतिः, न हि तस्यास्तनूजन्मना भुक्तोच्छिष्टाया एवमक्लिपनयष्टिता घटते । नूनमियं भुजङ्गनाप्यनङ्गाविष्टेन किं स्पृष्टा ।' इति ।
१५७. एवं चान्यथा चिन्तयन्तमन्तिकचरमुखापरब्यमहिम्गि महीपतावपि सपादपतनमवरजाकृच्छमुच्छेन मुपच्छन्दयति तदिच्छां विनापि तत्कर्मणि व.म्रोऽयमान म्रोद्वारी कुमारस्तथेति तात्रमालोक्य निमेषमात्रेण ता निर्विषोचकार । स्वीचकार च पुनरेनां कन्दर्पसर्पः । ५ वपुःमान्मारो हि कुमारः । कथमेनं साक्षादुद्धीक्ष्य चक्षुष्मतो कन्या न भवेदवन्यजाक्रान्ता ? ततश्च
व्यचिन्त यच विचारग्रामास च । न चयं कन्यका अप्सरसो दवाङ्गना, हि यत्तस्तस्याश्चक्षुः पक्षीकृतः स्वीकृत; पक्ष्मामी नयनरीमजिस्पन्दनं येन तथाभूतमस्ति । न चासो कन्यका तदिना विशुदल्ली, हि यतस्तस्यास्तबिल्लवाया अपि एवमीटग अतिपलवातिमनोहरा अङ्गानि हस्तादादीनि उपाङ्गानि करशाखाप्रभृतीनि तेषां संगतिः प्राप्तिः 'गाउया बाह्र य तहा नियंत्रपुटी उरो व सांसो य । अव दु अंगाई देह सेसा उबंगाई।" इत्यङ्गोपाङ्गपरिगणना 1 न चैवासौ कन्यका रतिः कामकामिनी, हि यतस्तनूजन्मना ।" कामेन भुननोपभोगेनोच्छिष्टा तस्याः कृतोपभोगाया धीम् अस्लिप्टायष्टिता-अरलान्तशरीरयहिता घटते योग्या भवति । नुनमुध्प्रेक्षायाम् यं कन्या भुजङ्गनापि नागेनापि अनङ्गाविष्टेन कामाकुलितेन किं स्पृष्टा कृतस्पर्शा।' इति ।
६१५७. एव मिति–एवं पूर्वाभप्रकारम् अन्यथा चान्य प्रकारेण च चिन्तयन्तं कुमारम् अन्तिक । चरमुखात्सेवकमुखात् उपलब्धो महिमा यन तस्मिन् विशालप्रभावे महीपतावपि नस्पतावपि सपादपतनं ' यथा स्यात्तथा चरणेषु पतित्वेति यावत् अवरजाया लधुभगिन्याः कृच्छु कष्टम् उच्छेत्तुं दूसकर्तुम् उपच्छन्दयति प्रार्थयति सति तदिच्छाम् विनिवारणवान्छो विनापि तत्कर्मणि तत्कायें कम्रः कुशलः पातम्रोद्धारी विनयावनतोद्धारकोऽयं कुमारः तथेति स्वीकृत्य तस्याः पमाया वक्त्रं मुखमिति तद्वक्त्रम् आलोक्य निमेषमात्रेण आणेनैव तां पामिशनां कन्यां निर्थियोचकार विषरहितां विदधे । स्वीचकार च पुनरंनां पना कन्दर्पः काम एव स भुजङ्ग इति कन्दर्प सपः कामेन पीडिताऽभूचित्यर्थः । हि निश्चयन कुभारो जीवंधरो वपुष्मान् सशरीरो मारो मदनः । एवं कुमारं साक्षात् उद्वीक्ष्य चक्षुष्मती सलोचना कन्या अनन्यजेनाकान्ता तथा
ऐसे जीवन्धरकुमार विचार करने लगे कि 'यह आसरा तो है नहीं क्योंकि उस के नेत्र विरूनियों के संचलनसे सहित नहीं होते हैं। यह बिजलीरूपी लगा भी नहीं है क्योंकि उसके अंगोपांगोंकी संगति इस तरह अत्यन्त कोमल नहीं है। यह रति भी नहीं है, क्योंकि कामदेवके द्वारा भोगकर जूठी की हुई उसकी हास्यष्टि इस तरह क्लेश रहित-अम्लान नहीं ५ रह सकती। जान पड़ता है कि इसे साँपने भी कामसे युक्त होकर ही छुआ है।
६१५७. जीवन्धरकुमार उक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार चिन्ता कर रहे थे कि सेवकके मुखसे उनकी महिमाको जाननेवाला राजा भी उनके पैगमें पड़कर पुत्रांका कष्ट दूर करनेकी हठ प्रार्थना करने लगा 1 जो उस विपयकी इच्छा न होनेपर भी उस कार्य अत्यन्त निपुण थे । एवं नम्र मनुष्योंका उद्धार करनेवाले थे ऐसे जीवन्धर कुमारने 'तथास्तु' कहकर राजाको प्रार्थना स्वीकृत को और पद्माके मुखकी ओर दख्ख उसे निमेषमात्रमें विपरहित कर दिया। कन्या साँपक विषसे रहित तो हो गयी परन्तु कामदेवरूपी साँपने उसे फिरसे वशीभूत कर लिया । यथार्थमें जीवन्धरकुमार शरीरधारी कामदेव थे फिर नेत्रोंको धारण करनेवालो
।
१. म० मवैवासी रतिः ।
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गद्यचिन्सामणिः
[१५७ पभायाः
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सा सकृदवलोकनकृतव्यसनभूयस्तया भूयः कुमारमपारयन्ती द्रष्टुं विषवेगमिषेण पश्चादपि निमेषणमेवात्मनः शरणममस्त । अतर्कयच्च प्रथमतरमनुभूयमानस्मरविकारा कथयन्ति निकामं कामो नाम कश्चिदस्तोति । किमयं सः।' इति । तदवस्थालोकनेन लोकपालभभुजि पुनरपि गरलसद्भावशङ्काभयालिङ्गिते भृशमिङ्गितज्ञः कुमारोऽपि कामतन्द्रालुमन्त्रयन्निवानङ्गातुरमात्मानमपि तदङ्ग५ स्पर्शेन चरितार्थीकुर्वन्समानयोगक्षेमतां लेभे । मुमुचे सा च मोचोरुस्तदीयचतुरकरतलस्पर्शनमनुमहिम्ना प्रद्युम्नगरलधेगात् । उदस्थाच्च तल्पादाकुलिताकल्पा । बुबुधे च सविधगतान्विविधोषधहस्तान्समस्तानपि पुरुषान् । तिरोदधे च तिर्यग्वलितमुखी पर्यावरुह्य होयन्त्रणेनाष्टा संनिकृष्ट
मदनाक्रान्ना न भवेत् । ततश्चति--ततश्च तदनन्तरं च सा कन्या सकृत् एकवारम् अवलोकनन दर्शनेन
कृता विहिता या व्यसनभूयस्ता कष्टबहुलता तथा भूयः पुनः कुमारं द्रष्टुम् अपारयन्ती अशक्नुवती विष- १० वेगमिपेण गरलवेगव्याजेन पश्चादपि पुनरपि निमेषणमेव नयननिमीलनमव आत्मनः स्वस्य शरणं रक्षकम्
असंस्त । अतकंगच्चेति -प्रथमतरं सर्वप्रथमम् अनुभूयमानः स्मरविकारो मदनविकारी यया तथाभूता सा इत्यतयच्च । इतीति किम् । कामो नाम कश्चित् कोऽपि अस्तीति निकाममत्यन्तं कथयन्ति किम् स कामः अयं जोबंधर एवेति । तदवस्थेति-तस्या अवस्थाया आलोकनेन लोकपालभूभुजि लोकपालनृपती
पुनरपि भूयोऽपि गरलसद्भावस्य विषसत्त्वस्य शङ्का संभावना तस्या मयनालिङ्गिते सति भृशमत्यन्तम् १५ इङ्गितज्ञो हृमचेष्टितना कुमारोऽपि जीवकोऽपि कामेन स्मरेण तन्द्रालुस्तन्द्रायुको मवत् मन्त्रयन्निव मन्त्रं
जपन्निव अनङ्गातुरं कामाकुलम् भात्मानमपि तस्याः पद्माया अङ्गस्पर्शत कायस्पशन चरितार्थीकुर्वन् सफली. कुर्वन् मलब्धस्य प्राप्तियोगः प्राप्तस्य रक्षण क्षेमं समाने योगक्षेमे यस्य तस्य भाषस्ताम् लेभे प्राप । मुमुचे सेति-मोचोरू; कदलीतुलितसक्थिः सा पद्मा च सदीयस्य चतुरकरतलस्य स्पर्शचमेव मनुस्तस्य महिम्ना माहात्म्येन प्रद्युम्नगरलवेगात् कामविषवेगात् मुमुचे मुक्ता। आलिताकल्या संचलिताभरणा च सती २० तल्पाच्छयनान् उदस्थात उस्थिता बभूध । बुबुधे च विज्ञातवती च सविधगतान् निकटस्थितान् विविधौषध
इस्तान् नानाभैषज्यपाणीन् समस्तानपि निखिलानपि पुरुषान् जनान् । तिरोदधे च अन्तरधाश्च तिर्यक् सापि चलितं भ्रोटितं मुखं यया तथाभूता सा पर्यशाच्छय्याया अवरुद्ध हीयन्त्रणेन लजापारवश्येनाकृष्टा सती
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कन्या इन्हें साक्षात् देख कामसे आक्रान्त क्यों नहीं होती ? तदनन्तर एक ही बार देखनेसे .जो उसे दुःख हुआ था उसकी अधिकतासे वह कुमारको पुनः देखने के लिए समर्थ नहीं हो २५ सकी। इसलिए उसने विषवेगका बहाना कर फिरसे नेत्र बन्द कर पड़ रहना अपने आपको
शरण माना। सर्वप्रथम काम-विकारका अनुभव करनेवाली कन्या विचार करने लगी कि 'लोग कहते है कि काम नामका कोई पदार्थ है क्या वही यह है ?' उसकी अवस्था देख राजा लोकपालको शंकाजन्य भय होने लगा कि कहीं फिर भी विपका सद्भाव तो नहीं रह गया है. ? तदनन्तर चेताओंको जाननेवाले कुमार भी कामसे अलसाते हुए मन्त्र पढ़ते ३० हुए. की तरह कामसे पीड़ित अपने आपको कन्याके शरीरके स्पर्शसे कृतकृत्य करते हुएके समान
योगक्षेमताको प्राप्त हुए। अर्थात् कन्याके स्पर्शसे स्वयं सुखी हुए और अपने स्पर्शस उन्होंने केन्याको सुखी किया। कदलीके समान जाँधोंवाली वह कन्या भी उनके चतुर करतल के स्पर्शरूपी मन्त्रको महिमासे कामरूपी विषके वेगसे मुक्त हो गयी । अस्त-व्यस्त आभूषणोंको
धारण करती हुई वह शय्यासे उठ खड़ी हुई। और उसने समापमें स्थित तथा नाना ओप५ धियों को हाथ में धारण करनेवाले सब लोगोंको पहिचान लिया। जिसका मुख कुछ-कुछ तिरछा हो रहा था तथा जो लज्जाकी यन्त्रणासे आकृष्ट थी ऐसी कन्या पलंगसे उतरकर
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पञ्चमो लम्भः
8
चेटीपेटकस्य मध्ये । तावता तत्परित्राणविहस्तो जनः समस्तोऽप्युन्मस्तक हर्षमूर्तिः कर्तव्यान्धो गन्धर्वदत्तादयितं दत्ताञ्जलिरभिप्रणम्य ' प्रयाणाभिमुखान्प्राणान्प्रतिपादयन्प्राणनाथोऽप्ययमेवास्याः ' इति स्वयमेवाचोकथत् । लोकपालोऽपि 'लोकोत्तम, लोकोत्तरोऽयमुपकारः । किमिह तवाहं व्यारामि ? मग राज्यं मम भोज्यं मम गात्रं मम मित्रं मम प्राणा मम त्राणं च त्वदधीनम्' इत्यभिदधानः-, प्राप्तमनः प्रसादमेनं प्रासादे क्वचित्प्रचुरोपचारमवस्थापयन् अपास्तसमस्तजनं ५ मन्त्रागारं मन्त्रिभिरविरुह्य मन्त्रयामास -
- विषहरणवृत्तान्तः ]
,
२३६
$ १५८. 'अयि मान्याः कन्याया । प्रकृतोऽयमुपद्रवः सुकृतोदयादुपागमत् । अतः परं परीव्यमपारो ह्यन्याः प्रशस्तवरान्वेषणप्रभवः । ततः कथमनारोपितदोपं कथं कथमपि कमपि
संनिकृष्टो विकटस्थितो यश्वेटीपेटको दासोसमूहस्तस्य मध्ये । तावतेति तावता तावत्कालेन तस्याः पद्मायाः परित्राणेन रक्षणेन विहस्तो विदशो जनः समस्तोऽपि उन्मस्तका वृद्धिंगता हर्पमूर्तिर्यस्य तथाभूतः १० कर्तव्ये करणीयेऽन्ध इति तथाकर्तव्य विचारशून्यः सन् गन्धर्वदत्तादयितं जीवकं दत्ताञ्जलिर्वद्धाञ्जलिः सन् अभिप्रणम्य नमस्कृत्य 'प्रयाणे प्रस्थानेऽमिमुखा उद्यतास्तान् प्राणानसून् प्रतिपादयन् ददत् अयमेवास्याः कन्याया: प्राणनाथ इति स्वयमेव अचीकथत् कथयामास 'अचीकथत्' इति प्रयोगोऽपाणिनीयः । लोकपालोऽपीति - लोकपालोऽपि पद्माग्रजो लोकपालामिधानो राजापि 'लोकोत्तम ! हे लोकश्रेष्ठ ! अयमुपकारो लोकोत्तरो जगच्छ्रेष्टः । इहास्मिन् विषये तव भवतोऽहं किं व्याहरामि कथयामि । मम राज्यं मम मोज्यं १५ मम गात्रं शरीरं मम मित्रं सुहृद् मम प्राणा असवो मम श्राणं च रक्षणं चधीनं महदायत्तम्' इति अभिदधानो निगदन् प्राप्तो मनःप्रसादो चेतोहर्षो यस्य तम् एवं क्वचित्प्रासादे भवने प्रचुरा भूषांस उपचारा यस्मिन्कर्मणि यथा स्यात्तथा अवस्थापयन् निवासयन् मन्त्रिभिरमात्यैः सह अपास्ता विनिःसारिताः समस्तजना ग्रस्मिस्तम् मन्त्रागारं मन्त्रशालाम् अधिरुद्ध मन्त्रयामास विचारयामास ---
६ १५८. अयोति - भयि मान्या आदरणीयाः कन्यायाः पद्माया अयमेष प्रकृतः प्रस्तुत उपद्रवः २० सुकृतोदयात् पुण्योदयात् उपाशमत् उपशान्तोऽभूत् । अतः परम् एतदनन्तरं हि निश्रयेन अस्याः कन्यायाः प्रशस्तश्वासी वरति प्रशस्तव रस्तस्यान्वेषणं मार्गण प्रभवः कारणं यस्य तथाभूतोऽयम् अपरो द्वितीयोपारो महान् उपद्रवोऽस्तीति शेषः । ततस्तस्मात्कारणात् कथं केन प्रकारेण अनारोपिता दोषा यस्य तमप्राप्त
निकटस्थ सखियों के बीच में छिप गयी । तदनन्तर कन्याको रक्षासे जो बेहाथ हो रहे थे, जो बढ़े हुए हकी मूर्ति के समान जान पड़ते थे और जो क्या करना चाहिए इस विषय के २४ विचार में अन्धे थे ऐसे सभी लोग हाथ जोड़ जीवन्धरस्वामीको प्रणाम कर स्वयं ही कहने लगे कि चूँकि प्रयाणके सम्मुख प्राणोंको यही देनेवाले हैं अतः यही इसके प्राणनाथ भी हैं। लोकपाल भी कहने लगा कि 'हे लोकोत्तम ! आपका यह उपकार लोकोत्तर है— लोकमें सबसे श्रेष्ठ है । मैं यहाँ आपसे क्या कहूँ ? मेरा राज्य, मेरा भोज्य, मेरा शरीर, मेरा मित्र, मेरे प्राण और मेरी रक्षा-सब तुम्हारे आधीन है । तदनन्तर जिन्हें हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त ३० श्री ऐसे जीवन्धरकुमारको बहुत भारी सत्कार के साथ महलमें कहीं ठहराकर लोकपाल, अन्य समस्त जनोंसे रहित मन्त्रशाला में मन्त्रियोंके साथ बैठकर सलाह करने लगा ।
१५. उसने कहा कि 'हे माननीय जनो ! कन्याका प्रकृत उपद्रव तो पुण्योदय से शान्त हो गया । परन्तु अब इसके बाद इसके लिए योग्य वरको खोजने से उत्पन्न बहुत भारी. दूसरा उपद्रव आ खड़ा हुआ है । अतः हम किसी तरह निर्दोष जामानाको पाकर इस ३५
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गद्यचिन्तामणिः
१५८-५९ पद्मायाः
जामातरमुपलभ्य तमपि दुस्तरं बाढ़ निस्तरामः। कुमारोऽयमनवद्याकृतिरविद्यमानप्रत्युपकारमराकरोत् । अनुरूपश्च रूपयौवनसुगुणैः । कि च, तां मजुभाषिणी स्वहस्तेनास्पृशत् । या चास्माकमयमविदितगोत्रविशेषो वैदेशिक इति जाता संशोति: सापि सांप्रतं निरस्ता, यतस्तदोयों वृत्तान्तस्तदनुभावकण्ठोक्त्यायमवगतः । एवं गते सति यदत्र प्राप्तं प्राप्तरूपा निरूपयन्तु भवन्तः ५ इति । तन्निशम्ब नीतिविदः सचिवाश्च 'देव किमत्र विचारेण ? सर्वधा स एव योग्यः कुमार:' इत्युदोरयामामुः ।
$ १५९. अथैवमात्माभिमतमभात्यानुमतं च वधूवरसंगम संपादयितुमुल्लोकसंविधाविधायिनो पल्लवदेश भूभुजि, परश्वः खलु भविता पाणिपोडनमहोत्सव इति जनवादे विजृम्भमाणे विज
दुगुणं कमपि जामातरं कथमपि केनापि प्रकारेग उपलभ्य प्राप्य दुस्तरं कठिनं तमपि उपवं बाढ़ सम्यग् १० यथा स्यात्तथा निस्तरामः पारं कुर्मः। अनवद्या निदुष्टाकृतियस्य तथाभूतोऽयं कुमारः अविद्यमानः प्रत्युप
कारो यस्य तद्यथा स्यासथा उपाकरोत् उपकारं चकार । रूपं च यौवनं च सुगुणाश्चेति द्वन्द्वस्तैः अनुरूपः सदृशः । किं च द्वितीयं कारणमपि अस्ति ता मजुभाषिणी मथुरवादिनीम् अयम् स्वहस्तेन अस्पृशश्च । या च अस्मार्क सर्वेषाम् अयम् अविदिनोऽज्ञातो गोत्रविशेयो यस्य तथाभूतो वैदेशिकः विदेशजात इति
संशीतिः संशयो जाता सोऽपि साम्प्रतमिदानों निरस्ता दृरीभूता। यतो यस्मात् कारणात् तदीयस्तत्सं. १५ वन्धी अयमेष वृत्तान्त उदन्तः तदनुभावस्य तरप्रभावस्य कण्ठोक्त्या प्रत्यक्षकथनेनागतो विज्ञातः एवमिति
एवमित्थं गते सति अत्र विषये यत्प्राप्तं समुचितं प्राप्त रूपा विज्ञा मवन्तस्तत् निरूपयन्तु कथयन्तु' इति । तनिशम्येति--तत्स्वाम्युक्तं निशम्य श्रुत्वा नीतिविदो नीतिज्ञाः सचिवा मन्त्रिणश्च ‘देव ! अत्र विषये विचारेण किम् ? सर्वथा सर्वप्रकारेण स एव कुमारो जीवको योग्य' इत्युदीरयामासुः कथयामासुः ।
१५१. अथैवमिति- अथानन्तरम्, एवमनेन प्रकारेण आरमाभिमतं स्वामिनतम् अमात्यानुमतं । च सचिवसंमतं च धूवरसंगमं विवाह सम्पादयितुं कर्तुं पल्लवदेश भ्भुजि लोकपालमहीपाले उल्लोक
संविधां लोकोसरयोजना विदधाति करोतीत्यवंशीलस्तथाभूते सति, 'परश्वः खलु पाणिपीडन महोत्सवः परिणयमहोल्लासो मविता मविष्यति' इति जनवाद जनश्रुतौ बिजम्भमाणे सति, विजृम्मिता वृद्धिंगता दुस्तर उपद्रव को भी पार करना चाहते हैं। निर्दोष आकृतिको धारण करनेवाले जीवन्धर
कुमारने हमारा ऐसा उपकार किया है कि जिसका हम लोग कुछ भी प्रत्युपकार नहीं कर आ सकते हैं। ये रूप, यौवन तथा अन्य उत्तमोत्तम गुगोसे अनुरूप हैं। इसके सिवाय उस
मधुर वचन बोलनेवाली कन्याका इन्होंने अपने हाथसे स्पर्श भी किया है। जिसके गोत्रविशेषका पता नहीं ऐसा यह कोई परदेशी हैं। यह जो संशय हम लोगोंको उत्पन्न हो रहा था वह भी इस समय दूर हो गया। क्योंकि उनका वृत्तान्त उनके प्रभावकी कण्ठोक्तिसे
स्वयं अवगत हो गया अर्थात् यह स्वयं सिद्ध हो गया कि ऐसा प्रभावशाली पुरुप साधारण ३० वंशका नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में आपलोग जो उचित समझें वह कहें'। लोकपालका
उक्त कथन सुन नीनिके जाननेवाले मन्त्रियोंने कहा कि 'हे राजन् ! इस विषयमें विचार करनेसे क्या ? वही कुमार सब प्रकारसे योग्य हैं।'
६ १५९.. तदनन्तर इस प्रकार अपने आपके लिए इष्ट और मन्त्रियोंके द्वारा अनुमत वधूवरका संगम करानेके लिए जब पल्लवदेशका राजा लोकोत्तर तैयारी में जुट पड़ा और " 'कल पुत्रीका विवाह महोत्सव होगा' जब यह समाचार फैल गया तब कामकी बढ़ती हुई
१.क० पल्लवदेशाधिपतौ।
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पञ्चमो लम्मः
- विवाहवृत्तान्तः]
२४॥ म्भितमन्मथव्यथः कुमारोऽप्येकामपि त्रियामां सहस्यामां सर्वथा निश्चिन्वन्पश्चिमे यामे यामिनी- . स्वामिन्यपि स्वामिरहःसंभोगसमुद्वोक्षणत्रपयेव तिरोदधति, रतिव्यतिकरणविशीर्णबधूवरचिकुरविच्छुरितसुमनसीव विच्छायतामुपगच्छत्युनिकरे, निर्दयविमर्दाश्यान मिथुनाङ्गसंगतकुङ्कुमपङ्कपराग इव प्रसरति प्रसवरजसि, पुष्पवतीः स्पृष्ट्वा लताः पुनः स्पर्शभोत्येव शनैश्चरति समवगाढसरसि मरुति, सद्योविकचन्मणीचकनिचयमनोहारिणि महीरुहनिकरे निरन्तरनिस्यन्दिमकरन्दधारा ५ दम्पतिघटनार्थमम्बुधारामिवावर्जयति, स्फुटितकुसुमपण्डोद्भासिनि दीपमण्डितदीपदण्ड इव दृश्यमाने सनीड़गतचम्पकाविटपिनि, अतिरफारतया बहिःकुरज्जायापतिराग इब्रोन्मिपत्युपोरागे,
मन्मथव्यथा कामपीडा यस्य तथाभनोऽयं कुमारोऽपि एकामपि त्रियामा रजनी सहस्रयामां महनं यामाः प्रहरा यस्यां तथामा सर्वथा सर्वप्रकारेण निश्चिन्वन् पश्चिमे यामऽन्तिम प्रहर यामिनीस्वामिन्यपि शशिन्यपि स्वामिनो रहासंभोगस्य विजनसुरतस्य समुद्रीक्षणेन या त्रमा होस्तव निरीदनि सति अन्तर्दधति सति, १० रतिव्यतिकरण रतिव्यापारण विशीर्णा विखस्ता ये वधूवरचिकुरा दम्पतिकशास्तेषु विच्छुरित: सुमनाः पुष्पं तस्मिमिव उडुनिकर नक्षत्रनिचय विच्छायता निलभताम् उपगच्छत्ति सति, निर्दयविमन निर्दग्रालिङ्गनेनायानः शुष्को मिथुनस्य दम्पत्योरङ्गसङ्गतकुमपरागः शरीरसंगतकाररजस्तस्मिन्निव प्रसवरजसि कुसुमपरागे प्रसरति सति, पुष्पवतीः कुसुमयुक्ताः पक्षे रजस्वला लता वल्लरीः पक्षे नायिकाः स्पृष्ट्वा समवगाई सरो यन तथाभूते जलाशये निपत्य कृतस्नाने मुरुति पवने पुनःस्पर्शभीत्येव भूय.स्पर्शमय नेव शमन्दं चरति सति, १५ मगो झटिति विकचतां विकलता मणीचकानां पुष्पाणां निचयेन समृहन मनोहारिणि चेतोहरे महारहनिकरे पादपप्रचये दम्पति घटनाथ वधूवरमलनाथम् अम्बुधारामिव जलधारामिव निरन्तरमनवरस निस्यन्दिनी प्रवहमाना या मकरन्दधारा ताम् आवर्जयनि सति दुनि सति, म्फुटितानां विकपितानां कुसुमानां पुष्पाणां पण्डेन समूहेनोहासते शोभत इत्येवं शीलस्तस्मिन् सनीडगपश्चापो चम्पकविटपी च सस्मिन् निकटस्थितचायतरी दीपमगिद्धतः शोभितो यो दीपदण्ड: 'समाई' इति हिन्द्या प्रसिद्धस्तम्मिभित्र रश्यमाने विलोक्य- २० माने, भतिस्फारतया प्रचुरतया बहिःस्फुरन् प्रकटीभवन् जायाफ्योईम्पत्यो रागः प्रीतिरिव तस्मिन् उघोरागे
व्यथासे युक्त जीवन्धरकुमार भी तीन पहरोंवाली एक गात को हजारों पहरोंवाली निश्चय करते हुए रात्रिके पिछले पहर घरके बगीचामें गये। उस समय स्वामीके एकान्त संभोगको देखने की लज़ासे ही मानो चन्द्रमा छिपा जा रहा था। संभोगके समय छीना-झपटीके कारण विखरे हुए वधू-वरके केशोंमें लगे फूलों के समान नक्षत्रों का समूह निष्प्रभताको प्राप्त हो रहा २५ था। निर्दय आलिंगनसे सूखी स्त्री-पुरुपोंके शरीरमें लगो केशरके पंककी परागके समान फूलों की पराग इधर-उधर उड़ रही थी। पुष्पवती ( पक्ष में ऋतुधर्मसे युक्त) लताओंका छूकर तालाबमें अवगाहन करनेवाली वायु "अब फिरसे स्पर्श न हो जाय' इस भयसे ही मानो धीरे-धीरे चल रही थी। तत्काल खिले हुए फूलोंके समूहसे मनको हरण करनेवाले वृक्षों के समूह, वर-वधूको मिलाने के लिए जलधारा के समान निरन्तर झरनेवाली मकरन्दकी धाराको ३० धारण कर रहे थे । खिले हुए फूलों के समूहसे सुशोभित निकट में स्थित चम्पाके वृक्ष दीपोंसे सुशोभित समाईयोंके समान दिखाई दे रहे थे। अधिकताके कारण बाहर फैलते हुए स्त्री
१. क० मणिकचकनिचय । ग० मणि चकचकनिषध । मणिरिब स्थित इति टि ।
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गद्यचिन्तामणिः
भृङ्गावलिप्रक्वणिते मङ्गलपाठकवचसीव गृह्यमाणे, गृहोद्यानमण्डन माधवीलतामण्डपे कुसुमकोदण्डेन प्रदत्तां तां मत्तकाशिनी गन्धर्वदत्तापतिर्गन्धर्वविवाहप्रक्रमेण रागाग्निमाक्षिकं परिणीय पुनर्गुणवति लग्ने लोकपालेन वितीर्णां विधिवदुपायच्छत ।
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६ १६० इति श्रीमद्वादीभसिंह सूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी पद्मालम्भो नाम पञ्चमो लम्भः ।
प्रभात | रुणिमनि उन्मिषति सति प्रकटीभवति सति, भृङ्गावलिक्वणिते भ्रमरततिझाङ्कारे मङ्गलपाठकवचसीव मागमङ्गलध्वनाविव गृह्यमाणे सति, गृहोद्यानस्य महारामस्य मण्डनं यो माधवीलतामण्डपस्तस्मिन् कुसुमकोदण्डेन कंदर्पेण प्रदत्तां तां मत्तकाशिनी सुन्दरीं गन्धर्वदत्तापतिर्जीवंधरो गन्धर्वविवाहप्रक्रमण वधूवरेच्छाकृतविवाहपद्धत्या राग एवाग्निस्तस्य साक्षिकं यथा स्यात्तथा परिणीय विवाह्य पुनरनन्तरं गुणवति १० प्रशस्ते लग्नेऽवसरे लोकपालेन राजा विति प्रदत्तां तां विधिवत् यथाविधि उपायच्छत उदबोह |
६१६० इति श्रीमदादसिंहरिविरचिते गद्यचिन्तामणी पद्मालम्भो नाम पञ्चमो लम्मः ।
पुरुषोंके राग के समान ऊपाकी लालिमा प्रकट हो रही थी और भ्रमरोंकी गुंजार बन्दीजनों की विरुदावलीके समान जान पड़ती थी। उसी समय घर के बगीचाके आभूषणस्वरूप माधवी लतामण्डपमें कामदेव के द्वारा प्रदत्त उस सुन्दरीको जीवन्धरकुमारने पहले गन्धर्व विवाह१५ के क्रमसे रागरूपी अग्निकी सानीपूर्वक विवाहा और उसके बाद उत्तम लग्न में राजा लोकपालके द्वारा प्रदत्त कन्याको विधिपूर्वक स्वीकृत किया ।
१६०. इस प्रकार श्रीमद्वादीभसिंह सूरि द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिमें 'पद्मालम्भ' नामक —पद्माकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला पाँचवाँ लम्म पूर्ण हुआ ॥५॥
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षष्ठो लम्भः
५ १६ १. अथ तो नवयधूमवधूतत्रपां पवित्रकुमारः शनैः शनैः परिकल्पयन्, 'पङ्कजत्थेन द्विजपतिद्वेषेण मधुपसंपर्केण च निकृष्टं निर्दिष्टदोषराहित्यादवधीरयतः पद्म ं तव मुखपद्मस्य पद्मसदृशतां पञ्चानने, कविवर्त्मनि स्थिताः कथं कथयन्ति ।' इति मिथः कथयत्, नट इवावस्थागुणवचसि विट इव संभोगचातुयें वश्यमन्त्र इव वशीकरणविधौ शिष्य इवेच्छानुगुणवर्तने चक्रवाक इव विरह्रासहिष्णुत्वे भवन्, तत्तद्गुणेषु स्वयमपि तथा भवन्तीं कामिनी कामतन्त्रज्ञो ४ यथाकाममन्वभवत् ।
$ १६२. अनपीच्च तस्मिन्नेव राजसमन्यम्लानपाटलोत्पलदामपरिमलोद्गारिकबरी
$ १६१. अथेति — अथानन्तरं पवित्रवासी कुमारश्चेति पवित्रकुमारः पवित्रनामधेयो जीवंधरः पूर्वो नववधूं नवदां पद्मां शनैः शनैर्मन्दं मन्दम् अवधूता उपा यया तां दूरीकृतलजां परिकरूपयन् कुर्धन् 'हे पद्मानने! हे कमलइने ! कविवर्त्मनि स्थिताः कवय इत्यर्थः पङ्कजस्वेन कर्दमोद्भूतत्वेन १० पपपोत्पत्वेन द्विजपतिद्वेषेण चन्द्रद्वेषेण पक्षे ब्राह्मणद्वेषेण मधुसंपर्केण मकरन्दसंपर्केण पक्षं मद्यसंपर्केण च निकृष्टमधमं पद्मं कमलं निर्दिष्टैर्दोष राहित्यं तस्मात्पूर्वादोषरहितत्वाद् अवधीरयतस्तिरस्कुर्वतः त मुखपद्मस्य वदनारविन्दस्य पद्मसदृशतां कमलतुल्यतां कथं कथयन्ति ।' इति मिथोऽन्योऽन्यं कथयन्, अवस्थाया अनुगुणमनुरूपं वचो बचनं तस्मिन् नट इव शैलूष इव संभोगस्य सुरतस्य चातुर्यं तस्मिन् विर इव पीद्ग इय, वशीकरणविधी स्वायत्तीकरणकार्ये वश्यमन्त्र इव वशीकरण मन्त्र इव, इच्छानुगुणमभि प्रायानुकूलं वर्तनं तस्मिन् शिष्य इवान्तेवासीय, विरहस्यासहिष्णुस्वं तस्मिन् विप्रलम्भासहिष्णुस्खे चक्रवाक इव रथाङ्गदच, भवन्, ते ते च गुणा इति तत्तद्गुणास्तेषु तथाभवन्तीं कामिनीं पद्मां कामतन्त्रज्ञः कामशास्त्रशी जीवंधरो यथाकामं यथेच्छम् अन्वभवत् ।
3
१५
१६२, अनैषीचेति - जीवंवरस्तस्मिन्नेव राजसानि राजप्रासादे तथा पद्मया समं मैकाणि निदायसम्बन्धीनि कानिचिदहानि दिनानि अनैषीत् व्यजगमत् इति कर्तृक्रियासम्बन्धः । अथ पचाया २०
१६१. तदनन्तर कामशास्त्र के जाननेवाले पवित्र कुमार - जीवन्धरकुमार उस नववधूको धीरे-धीरे लज्जारहित करते हुए इच्छानुसार उसका उपभोग करने लगे। वे उससे परस्पर कहा करते थे कि हे कमलमुखि ! कमल तो पंक―पापसे ( पक्ष में कीचड़ से ) उत्पन्न हुआ हैं, द्विजपति - त्राह्मण ( पक्ष में चन्द्रमा) से द्वेष रखता है और मधुर - मद्यपायी (पक्ष में भ्रमर) से संपर्क रखता हैं, अतः निकृष्ट हैं जब कि तुम्हारा मुख उक्त दोषोंसे दिन होने के २५ कारण उत्कृष्ट हैं । इस तरह तुम्हारा मुख कमलका तिरस्कार करता है फिर भी कवि लोग उसे कमलके समान क्यों कहते हैं ? वे अवस्थाके अनुकूल वचन कहने में नटके समान, संभोगसम्बन्धी चतुराईके प्रकट करनेमें विटके समान, वशीकरण के कार्य में वशीकरण मन्त्र के समान, इच्छानुसार प्रवृत्ति करने में शिष्य के समान, और त्रिरहके सहन न करने में चक्रवाकके समान थे । नववधू पद्मा भी उन उन गुगों में स्वयं भी उस प्रकार परिणमन ३० करती थी।
§ १६२. उसी राजमहल में उन्होंने, जिसकी चोटीका बन्धन खिले हुए गुलाब और नीलकमलकी मालाओंकी सुगन्धिको प्रकट कर रहा था, जिसने शिरीषकी कलिकाओं से
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गद्यचन्तामणिः
[ १६२ जीवंधरस्य
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वन्धया, विरचितशिरीषकलिकावतंसया, दिवसकर संताप संत्रा सादति शिशिरदेश निवेशितेनेव शशाङ्कातपेन, घनसारसुरभिणा हिमजललुलितेनानतिविरलेन चन्दनविलेपनेन पाण्डुरितशरीरया, सलिलस्यन्दिधिसलताहारयति करित मुक्ता सरतरङ्गितस्तनतटया परिहृतकुङ्कुममाणिक्यभूषणया त्रिगुणतिरस्करिणीस्थगितवातायन दुरान्तरितद्युमणिकिरण दर्शनयां पल्लवितसायंतन सलिलकेलिको तु५ कया, निर्मोकपरिलघुपरिधानया धारागृहनिर्यद्वारिधारारवश्रवणनिर्वृतया चन्दर्नाशशिर शिलापट्टसंविष्टया प्रालेयशीकरासारखाहिन्या यामिन्येव हेमन्तस्य मौक्तिकराजिविराजिततनुलतया, वेण्येव ताम्रपर्ण्याः, झोतलचन्दनच्छायागृता मेखलयेव मलयशैलस्य, फेनपिण्डपाण्डुराम्बरया, वीच्यैव विशेषणान्याह—अम्लानेति — पाटलानि 'गुलाब' इति प्रसिद्धानि उत्पलानि नीलारविन्दानि, अम्लानानि विकसितानि यानि पाटलीपानि तेषां दान्नां माल्यानां परिमलं सौगन्ध्यं तस्योद्गारी कचरीबन्धी चूडा१० बन्धी यस्यास्तया, विरचितति-विरचितं निर्मितं शिरीषक लिकाभिरवतंसं कर्णामरणं गया तथा दिवसंति दिवसकरस्य सूर्यस्य संतापी वर्मस्तस्य संत्रासाद् भयात्, अतिशिशिरदेश निवेशितेन शीतलतरस्थानस्थापिते शशाङ्कातपनेत्र चन्द्रिकयंत्र, बनसारसुरभिणा कर्पूरेसौगन्ध्यवता, हिमजलेन तुहिनतान लुलितं वर्षितं तेन, अनतिविरलेन सान्द्रेण चन्दनविलेपनेन मलयजाङ्गरागेण पाण्डुरितं धवलं शरीरं यस्यास्तया सलिलति - सलिलस्यन्दिनी तोयप्रवाहिणी या बिसलता मृणालिनी तस्या हारव्यतिकरां १५ हारचेष्टितं तदाचरितेन मुक्तासरे मौक्तिकमा राती कल्लोलिताँ स्तनतटी कुचतटौ यस्यास्तया परिहृतंति--परिहृतानि निदाघत्वेन त्यक्तानि कुङ्कुममाणिक्य भूषणानि काश्मीरमाणिक्यालङ्करणानि यथा तया, त्रियुगति — त्रिगुणिताः पर्वत्र प्रसहिता या स्तिरस्करिण्यों यवनिकारताभिः स्थगितानि समाच्छादितानि यानि वातायनानि गवाक्षास्तंरान्तरितं घुमणिकिरणदर्शनं दिनकरकरावलोकनं यया तया, पल्लवितेति — पल्लवितं वर्धितं सायन्जनसलिट केल्यां दिनान्तकालिकजलक्रीडायां कौतुकं यस्यास्तया निर्माकिति — २० निर्मोक व कल्चुक इव परिघु सूक्ष्मतरं परिधानं वस्त्रं यस्यास्तया, 'समौ कञ्चुकनिर्मोकी' इत्यमरः, धारागृहेतिधारागृहाज्जलयन्त्रगृहान्निर्यन्त्यां या वारिधारा जलधारास्तासां स्वस्य शब्दस्य श्रवणेन समाकर्णनेन निर्वृतया संतुष्टया, चन्दनेति चन्दनेन पाटीरंण शिशिरं शीतलं यच्छिलापट्ट तस्मिन् संविश समासीना तथा प्रालेयेति प्रालेयशीकराणां तुहिनकणानामासारं वहतीत्येवंशीला तया हेमन्तस्य मार्गशीर्ष पौषव्यासस्य हेमस्ततर्यामिन्येव निशयंव, मौक्तिकेति – मौक्तिकानां मुक्ताफलानां राजि: २५ पकिस्ता विराजिता विशोभिता सनुलता यस्यास्तया ताम्रवर्ण्या एतन्नामधेयाया नद्या देण्येव प्रवाहव ताम्रपर्याः प्रवाहे मौक्तिकानि भवन्तीति प्रसिद्धिः, शीतलचन्दनस्य शिशिरमलयजस्य छायां कान्ति astra मत तथा मलयशैलस्य मलय महीधरस्य मेखलयेव तदथैव, फेनेलिफेनपिण्डमिव डिण्डीरकर्णाभूषण बनाया था, सूर्यके संताप के भय से अत्यन्त शीतल स्थान में रखे हुए चन्द्रमाके प्रकाशके समान, कपूर से सुगन्धित, बर्फ के जलसे मिश्रित अत्यन्त सघन चन्दन के लेप से १० जिसका शरीर सफेद-सफेद हो रहा पानीकी झरानेवाली मृणालरूपी लताके समान सुन्दर मोतियों की मालासे जिसके स्तनतट तरंगों से युक्त जैसे जान पड़ते थे, जिसके मणिमय आभूषणोंसे शरीर में लगी केशर छूट रही थी, तिहरे परदोंसे आच्छादित झरोखोंसे जिसके लिए सूर्यको किरणोंका दर्शन दूरान्तरित था, जिसका सायंकालीन जलक्रीडाका कौतुक बढ़ रहा था, जो साँपकी कांचुलीसे भी हलके वस्त्र धारण कर रही थी, फवारेसे निकलने३५ बाली जलधाराका शब्द सुननेसे जो संतुष्ट थी, जो चन्दनके समान शीतल शिलापट्ट पर बैठी थी, जो तुषार कणोंकी वर्षाको धारण करनेवाली हेमन्तकी रात्रिके समान जान पड़ती थी मीतियों से सुशोभित शरीररूपी लतासे युक्त होने के कारण जो ताम्रपर्णी नदीके प्रवाहके समान प्रतिभासित होती थी, शीतल चन्दनकी छाया ( पक्ष में कान्ति ) को धारण करने
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- पप्रया सह सुखोपभोगः]
षष्ठो कम्मः पयःपयोधेः, पद्मया तया सम स्फुटितपाटलकुसुमापोडपटुपरिमलविसरवासितरोदोविवराणि. प्रसरदुष्मलतरणिकिरणपरामर्शमर्मरितपक्ष्माणि, पटुतरातपकृतकोटरपुटपाकमन्दप्राणविष्किराणि स्फीतफलस्तवकभूरिभारनम्रशाखाम्रवणानि , चूडारत्नसंशयितवनवैश्वानरबिलेशयभुजङ्गानि, पत्रलानपद्मपण्डपिण्डितरोमन्थमन्थरवदनगोधनानि . दावदहनदाहविद्राणसारङ्गसङ्कलङ्घितमरुन्मार्गाणि, पानीयशालापन्नपथिकजनवाञ्छ्यमानसायाह्नानि, शुष्कसरसीविलोकननिराशशोकान्धसिन्धुरारब्ब- ५ करास्फोटानि रिक्तीकृतमहामहीधरनिर्झरसोतःसिरासंतानानि संज्वलितपतङ्गग्नावपावक प्रभापटलसमूह इव पाण्डुराणि धबलानि अम्बराणि वस्त्राणि यस्यास्तग्रा पक्षे फनपिण्डेन पाण्डुरं शुक्लीकृतमम्बरं व्योम यया तया पयःपयोधेः क्षीरसागरस्य वीच्येव लहयेव । अथ प्रैष्मकापमहानि विशेषयितुमाह-- स्फुटितति--स्फुटितानि विकसितानि यानि पाटलकुसुमानि 'गुलाब' इति प्रसिद्धपुष्पाणि तेपामापीडस्य शखरस्य यः पटुपरिमल उत्करसुगन्धिस्तस्य विसरेण समूहन वासितानि सुरमितानि सेदोवित्रराणि ग्रावा- १० पृथिव्यन्तरालानि पु तानि, प्रसरदिति-प्रसरन्त ऊप्मला उष्णा ये तरणिकिरणा रश्मिमालिरश्मयस्तेषां परामर्शन संस्पर्शन मर्मरितानि शुष्काणि पक्ष्माणि नयनरोमराजयो येषु तानि, पटुतरेति–पटुतरंण तिग्मतरेण मातऐन घर्मेण कृतो चिहितो यः कोटरे वृक्षविवरं पुटपाकस्तेन मन्दप्राणा मरणोन्मुरबा विकिराः पक्षिणी येषु तानि, स्फीतेति-स्मीता विस्तृता ये फलस्तबकाः फलगुच्छकास्तेषां भूरिमारेण प्रचुरभारेण नम्रशाखानि आभुग्नविटपानि आम्रवणानि रसालकाननानि येषु तानि, चूडति-चूडारत्नैः फणामाणिक्यः संशयित: १५ संशयविषयतापन्नो यो वन नैश्वानरी दावाग्निस्तेन विकेशयाः कृतबिल शयना भुजङ्गाः सर्पा येषु तानि, पन्नलेति---पत्रिका नूतनपत्रयुक्ता येऽनूपदुमा जलनायप्रदेशपादपास्तेपा पण्डे समूह पिण्डितानि एकन. स्थितानि रोमन्यमन्थरवदनानि चर्वितचर्वणमन्थरमुखानि गोधनानि येषु तानि, दावति--दावदहनस्य वनाग्नेहिन विद्राणा दरमुत्पतन्तो ये सारजसका हरिणसमूहास्तैलचितोऽतिक्रान्ती मरुन्मार्गो व्योम येषु तानि, पानीयेति–पानीयशालाः प्रपा आपन्नाः प्राप्ता ये पथिकजना अध्वगपुरुषास्तर्वाञ्छयमानानि २० अभिलप्यमाणानि सायाहानि येषु सानि, शुष्केति--शुपकसरसीणां निर्जलजलाशयानां विलोकनेन दशनेन निराशा अपगताशा अतएव शोकान्धा ये सिन्धुरा गजास्तैरारब्धाः करास्फोटा: शुलादण्डास्फोटा यंषु तानि, रिक्तीकृतेति----रिक्तीकृताः शून्यीकृता महामहीधराणां महापर्वतानां निरस्रोतसां वारिप्रवाहप्रवाहाणा सिशसंतानानां 'शिर' इति प्रसिद्धानां समूहा येषु तानि, संज्वलितेति--संज्वलिताः प्रदीप्ता ये पतङ्गप्रावाणः वाली होनेसे जो मलयाचलकी मेखलाके समान दिखाई देती थी और फेन समूह के समान २५ सफेद वस्त्रोस युक्त होने के कारण जो क्षीरसागरको तरंगके समान जान पड़ती थी ऐसी पद्माके साथ ग्रीष्मऋतुके कुछ दिन व्यतीत किये । वे प्रीष्मऋतुके दिन जिनमें कि खिले हुए गुलाबके फूलों की मालाओंकी जोरदार सुगन्धिके समूहसे आकाश और पृथ्वीका अन्तराल सुवासित हो रहा था। फैलती हुई सूर्यकी गरम-गरम किरणोंके स्पर्शसे जिनमें नेत्रोंकी बिरूनियाँ सूखकर मर्मर हो गयी थीं। जिनमें अत्यन्त तीक्ष्ण संतापके द्वारा कोटरमें किये हुए पुटपाकसे पक्षी ३० मन्दप्राण-निश्चेष्ट हो रहे थे। बड़े-बड़े फलसमूह के बहुत भारी भारसे जिनमें आम्र वनोंकी शाखाएँ नम्रीभूत हो रही थीं। चूड़ारत्नोंमें दावानलका संदेह होनेसे जिनमें साँप बिल में ही शयन करते रहते हैं । जलाशयके समीपवर्ती छायादार वृनसमूह के नीचे एकत्रित होकर जिनमें गायोंके मुख रोमन्ध क्रियासे मन्थर हो रहे थे। दावानलकी छाँह से भागते हुए भृङ्गसमूह जहाँ आकासको लाँच रहे थे-आकाश में लम्बी छलाँग भर दौड़ रहे थे। प्याऊओंके ३५ समीप आये पथिकजन जिनमें सायंकालकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सूखे सरोवर के देखनेसे निराश एवं शोकसे अन्धे हाथी जिनमें अपनी सँडे हिला रहे थे। जिनमें बड़े-बड़े पर्वतके झरनों के प्रवाही झिरोंके समूह खाली हो गये थे। देदीप्यमान सूर्यकान्तमणिकी अग्निते
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गचिन्तामणिः
[१६३ जीवधरस्य -
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लोढजाङ्गलद्रुमाणि, घोरतपांसोव मुक्ताहारशरीराणि, राजहृदयानीव तेजोऽधिकद्वेषोत्पादीनि, अपत्यानीव सदाकाभितपयांसि, पतितकर्माणीवाधस्तलावरोहणकारीणि, नाकस्त्रोमनांसीव मरुदोत्सुक्यविधायोनि, अतिरूक्षाणि ग्रेष्मकाणि कानिचिदहानि जीवंधरः।
$ १६३. अथैवं मनोरथदुरासद सततं तया सारङ्गशा सभ शमनुभवन्नपि विषयेष्व. ५ सक्ततामात्मनो विवरोतुमिव बिजयासूनुः, विषयान्तरमन्तहित एवं गन्तुमनाः समजनि । ताव.
तास्य तिरोधाय जिगमिषारनुकूलतां चिको परिवावसितदिवसब्यापारशेषः पूषा निकपास्तशैलसूर्यकान्तपाषाणास्तेषां पावकस्यानलस्य प्रभाषटलेन कान्तिसमूहेन लोढा व्याप्ता जाङ्गलमा बनानोकहा येषु तानि, घोरति-कठिनतपासीय मुनाहाराणि त्यतमोजनानि शरीराणि येषु तानि, पक्षे मुताहारमुका
दामभिरुपलक्षित नि शरीराणि यंपु तानि, राजेति--राज्ञा हृदयानि राजह दयानि तद्वत तजसा पराक्रमेण पक्ष १० दीप्त्याऽधिकेयु द्वेषं विप्रहमुत्पादयन्तीत्यवंशीलानि 'तंज: पराक्रम दीप्तो प्रभाव एल शुक्रयोः' इति विश्व
लोचनः, अपत्यानांव सूनव इव सदाकांक्षितं पयो जलं पक्षे दुग्धं येपु तानि, पतितकर्माणीव पापकार्याणांव अधस्तलेषु नरकेषु पक्षे भूगृहादिनीचैःस्थानेष्ववरोहणमत्रतरणं कुर्वन्तीत्यबंशीलानि, नाकबामनांसीव स्वर्गस्त्रीचतांसीव मरुस्सु देवपु पक्षे बालेवास्सुक्यं सतृप्णत्वं विदधतीत्येवंशीलानि, 'मरुस्पुंसि सुरे बाते' इति विश्वलोचन: अतिक्षाणि प्रतिग्मानि।
१६३. अथैव मिति-अथानन्तरम् एवं पूर्वामप्रकार मनोरथैरभिलषितर्दुरासदं दुष्प्राप्यं शं सुखं तया सारङ्गदृशा मृगनेच्या पद्मया समं सार्धम् अनुभवम्नपि विषयेषु पम्नेन्द्रियविषये स्पर्शादिषु 'स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दात्तदर्थाः' इति तत्त्वार्थाधिगमे सूत्रम् । असकताम् अनास कता तिवरीतुं प्रदयितुमिव विजयासून वंधरः अन्तर्हित एव गूद एव विषयान्तरं देशान्तरं गन्तुमना गन्तुमुखतः 'तुंकाममनसोरवि'
इति मकारस्य लोपः समजनि समभूत् । तावतंति–तावसा तावत्कालंन तिरोधायाऽन्तहितो भूत्वा जिगमिषो१० प्रभापटलसे जहाँ वनके वृक्ष व्याप्त हो रहे थे। जी घोर तपके समान थे क्योंकि जिस प्रकार
घोर तप मुक्ताहारशरीर अर्थात् आहारका त्याग करनेवालं शरीरसे युक्त होते हैं, उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी मुक्ताहार शरीर थे अर्थात् मोतियोंके हारसे सहित शरीरको धारण करनेवाले थे । जो राजाओंके हृदयों के समान थे क्योंकि जिस प्रकार राजाओंके हृदय तेजो. धिकद्वेपोत्पादी-अधिक तेजस्वी मनुष्यों के साथ द्वेष उत्पन्न करनेवाले होते हैं उसी प्रकार २५ ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी तेजोधिकद्वेषोत्पादी--अधिक उष्णपदार्थाक साथ द्वेष उत्पन्न करने
वाले थे । जो बच्चोंके समान थे क्योंकि जिस प्रकार बच्चों में सदा पय-दुधकी आकांक्षा रहती हैं उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके उन दिनों में भी सदा पय-पानीकी आकांक्षा रहती थी। जो पतित मनुष्योंके कााँके समान थे क्योंकि जिस प्रकार पतित मनुष्यों के कार्य अधस्तल---
नरकमें अवतरण करानेवाले होते हैं उसी प्रकार ग्रीष्मऋतुके वे दिन भी अधस्तल-नीचेके ३० ठगई स्थानों में अवतरण करानेवाले थे। जो देवाङ्गनाओंके मनके समान थे क्योंकि जिस
प्रकार देवाङ्गनाओंके मन मरुत्-देवोंकी उत्सुकताको करनेवाले हैं उसी प्रकार श्रीमऋतुके वे दिन भी महत्-वायुकी उत्सुकताको करनेवाले थे और जो अत्यन्त रून थे ।
१६३. इस प्रकार जीवन्धरस्वामी उस मृगनयनांके साथ निरन्तर यद्यपि मनोरथोंके लिए भी दुर्लभ सुखका अनुभव कर रहे थे तथापि विपयोंमें अपनी अनासक्ति बतलानेक ३१ लिप ही मानो ये गुप्त रूपसे दूसरे देश में जाने के लिए उत्सुक हो गये। उसी समय छिपकर जाने की इच्छा करनेवाले जीवन्धरस्वामीको अनुकूलता करने के लिए ही मानो सूर्य दिनका
१. क० ख० ग० अनुकूल कालचिकीपरिष।
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- पद्ममा सह सुखोपभोगः ]
षष्टो कम्भः
२४७
मलम्बत | आपतयालु निशानिशाचरीनिशातशूलशिखासमुत्खातं वासरस्य हृदयमिव स्थपुटितप्रस्थप्रस्थानविवाहनिवहविहृतस्यन्दनवि सूस्तमस्तगिरिगैरिकपङ्कचयखचितं रथाङ्गमिव च पातङ्गमङ्गमदृश्यत । ततस्तेजोनिधिरपि विनिवारितदोषोऽपि वारुणिसङ्गात्किमपरं रविरधः पपात । पद्मिनीरजः स्पृष्टमम्बरमपहाय मज्जत्यब्जिनीभुजङ्गे जलधिवेलान्ते' संततलाक्षिकयवनिकालक्ष्मीं बभार संध्या ।
$ १६४. ततश्च सवेगपत पयोधिपातपादितशक्ति पुटम्वतोत्थितमुक्तोत्रा इव निर्दयर्गन्तुमिच्छारस्य सात्यंधरे अनुकूलन कति समापितो दिवसव्यापारशेषो येन तथाभूतः पूषा सूर्य अस्तशैलमस्ताचलं निकषा तस्य समीपे 'अमितः परितः स मयानिकपाहाप्रतियोगेऽपि इति द्वितीया, अलम्बन लम्बितोऽभूत् । आपतयाविधि - आपततीत्येवंशीला आपतयालुरागमनस्वभावा या निशानिशाचरी क्षपाक्षपाचरौ तस्था यत् निशातं तीक्ष्णं शूलं तस्य शिखयाग्रभागेण समुल्यातं १० वासरस्य दिवसस्य हृदयमिव स्थपुटितानि नतोन्नसानि यानि प्रस्थानि शिखराणि तेषु प्रस्थानं प्रयाणं तेन विला दुःखीभूता ये चाहा अश्वास्तेषां निवहेन समूहेन विहतं प्रोटितं यरस्यन्दनं रथस्तस्माद् विस्रस्तं पतितम् अस्तगिररस्ताचलस्य गैरिकपङ्कचयेन धातुकसमूहेन खचितं निःस्यूतं रथाङ्गमित्र चक्रमिव एतस्यैवं पावकं सूर्यसम्बन्धि अङ्ग त्रिम्यम् अदृश्यत । तत इति ततस्तदनन्तरं तेजोनिधिरपि पराक्रमभण्डारोऽपि पक्षे दोसि भाण्डारोऽपि विनिवारिता दूरीकृता दोषा क्षपा पक्षेऽवगुणा येन तथाभूतोऽपि १५ वारुणीसङ्गात् पश्चिम दिशा संसर्गात् पक्षे कादम्बरीसंसर्गात्, अपरं किम्। रविरपि सूर्योऽपि अधः पपात पतति स्म । पद्मिनीति पश्चिम्याः कमलिन्या रजसा परागेण स्वम् अम्बरं गगनम् अपहाय त्यक्स्वा अब्जिनीभुजङ्गे सूर्ये पक्षे पद्मिनी पद्मिनीनाम नायिका तस्या रजसार्तवेन स्पृष्टमम्बरं वस्त्रम् अपहाय अब्जिनीभुजङ्गे पद्मिनीनायिकात्रिये जलधिवेलान्ते सागरतटे मज्जति सति स्नानुं प्रविशति सति संध्या पितृप्रसूः संतता समन्ताविस्तारिता या लाक्षिकयवनिका लाक्षारागरकयवनिका तस्या लक्ष्मीं शोभां बभार !
६४. ततश्चेति ततश्व तदनन्तरं च सवेगः सरयः पतङ्गस्य सूर्यस्य यः पयोध पातस्तेन पाटितेभ्यो विदारितेभ्यः शुक्तिपुटेभ्यो मुक्तोस्थिता आदी मुक्ताः पश्चादुत्थिता मुक्तोकरा इम मौक्तिक - समस्त कार्य समाप्त कर अस्ताचल के निकट जा पहुँचा । उस समय सूर्यका शरीर ऐसा दिखाई देता था मानो आनेवाली रात्रिरूपी राक्षसीके तीक्ष्ण शूल के अग्रभागसे उखाड़ा हुआ दिनका हृदय ही हो अथवा ऊँचे-नीचे शिखरांपर चलने से विह्वल घोड़ोंके समूह से तोड़े हुए रथसे २५ टूटकर गिरा अस्ताचलकी गेरूकी दलदल में फँसा चक्र ही हो। तदनन्तर जिस प्रकार अनेक दोषोंका निराकरण करनेवाला तेजस्वी पुरुष भी वारुणी - मदिरा के संगसे नीचे गिर जाता है उसी प्रकार और क्या विनिवारितदोष --रात्रिको दूर करनेवाला (पक्ष में अनेक दोपोंका निरा करण करने वाला) तथा तेजोनिधि- प्रतापका भण्डार (पक्ष में उष्णताका भण्डार) सूर्य भी वारुणीपश्चिम दिशा (पक्ष में मदिरा) के संगसे नीचे गिर गया। जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी स्त्रीके रज - आर्तव से हुए हुए अम्बर- वस्त्रको छोड़कर जलाशय में अवगाहन करता है, उसी प्रकार सूर्य भी कमलिनियों की रज - पराग (पक्ष में आर्तव ) से हुए हुए अम्बर - आकाश ( पक्ष में वख) को छोड़कर समुद्र जलके तट में स्नान करने के लिए ही मानो निमन्न हो गया । और संध्या लाखके रंग से रँगे फैले हुए परदाकी शोभा धारण करने लगी ।
३०
§ ६६४. तदनन्तर आकाश में तारे चमकने लगे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो वेगसहित ३४ सूर्य के समुद्र में पड़ने से फूटी हुई सीपोंके पुटसे छूटकर आकाश में उछटे हुए मोतियोंके समूह
4
१. भ० जलधिजलवेलान्ते । २. क० ख० ग० 'पतङ्ग' पदं नास्ति ।
५
२०
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२४
गधचिन्सामणिः
[१६४ जीवंधरस्य - मधुकरमर्दननिपतदनल्पकल्पतरुकुसुमप्रकरा इव च तारकाश्चकाशिरे । तदनु चागाधरसातलकासारगर्भपीतवासरतापसुखसमुत्तरत्समवर्तिवाहनवाहवैरिकायकायॆकञ्चुकितानीव, अहरवसानविहारमण्डनप्रवृत्तबलरिपुपुरपुरंध्रोजातयातयामतावधूतावतंसनीलकुवलयप्रभानुविद्धानीव समददिक्करिकुलकर्णतालताडनामेडनभय चकितबिद्राणषट्चरण चक्रचञ्चदचिश्चर्चामचकितानीव सर्वतः ५ शर्वरीकेशपाशदेशीयानि तमांसि मांसलिमानम भजन्त । क्रमेण चाभ्यागताभिमतरमणनीलकञ्च
ककदाशाकथिताभिरनुपदं प्रसारितपाणिभिरितस्ततो गृह्यमाणे स्वाभ्याशेष स्वैरिणीभिः, अतिबहलपङ्कपटलशङ्किभिरावजितपाश्वरानभृतं विलुठितुमूरोक्रियमाणे विपिनकुहरेषु वराहनिवहै:,
A
AAA-Demi-main
समूहा इव निर्दयं निष्करणं यन् मधुकरैरलिभिमदनं तेन निपतन्ती नितरां पतन्तों येऽनल्पतरुकुसुमप्रकरा
विपुलपादपपुष्पप्रच्या इव ३ तारका नक्षत्राणि चकाशिरे शुशुभिरे। तदन्विति-तमांसि तिमिराणि १. मांसलिमानं पुष्टिम् अमजन्त । अथ तमांसि विशेषयितुमाह अगाधेति-अगाधो गभीरो यो रसातलकासारः
पातालजलाशयस्तस्य गौण मध्येन पीतो दूरीकृतो यो वासातापो दिवससंतापस्तन सुखं यथा स्यात्तथा समुत्तरम् यः समवर्तिवाहनयाहवैरी यमघाहनमहिषास्य कायस्य काप्यं काळिमा तेन कञ्चुकितानीव प्याप्तानीव, अहरवसानेति-अहरवसाने दिनान्ते विहाराय भ्रमणाय यन्मण्डनं विभूषणधारणं तस्मै
प्रवृत्तानि तत्पराणि यानि वरिपुपुरस्य स्वर्गस्य पुरन्ध्रीजातानि स्त्रीसमूहास्तैर्यातयामतया गतप्रहरावधि१५ त्वेनावधूनानि दूरीकृतानि यान्यवतंसनीलकुवलयानि कर्णाभरणनीलकमलानि तेषां प्रभया कान्त्यानु
विद्धानीव मिलितानीव, समदेति-समदाः सदाना ये दिक्करिणो दिग्गजास्तेषां कुलस्य कर्णतालं कर्णव्यजन तेन ताडनस्य यद् आनेइन पुनरुक्तिस्तस्य मयेन चकिता मीता विदाणाः पलायिताच ये ट्चरणा भ्रमरास्तेषां चक्रस्य समूहस्य चन्चन्ति शोभमानानि यान्यचापि तेषां चर्चया लेपनेन मेचकितानीव
कृष्णीकृतानीव, सर्वतः समन्तात् शर्वर्या रजन्याः केशपाशदेशीयानि कचकलापकल्पानि । क्रमेणेति-क्रमण २० च क्रमशश्च अभ्यागताः संमुखं प्राप्ता येऽभिमतरमणा इष्टदयितास्तेषां नीलकन्चुकानां श्यामपसानां
कुरिसता आशा कदाशा तया कर्थिताः पीड़ितास्ताभिः, अनुपदं स्थाने स्थाने प्रसारिताः पाणयो याभिस्तामि: स्पैरिणीभिः कुलटामिः स्वाभ्याशेपु. निजनिकटस्थानेषु गृह्यमाणेऽङ्गीक्रियमाणे, अतिबहलमतिप्रचुरं यत्पसपटल कर्दमपटलं तच्छन्त इस्येवंशीकास्तैः तिमिरं पङ्कपटलं शङ्कमा रित्यर्थः, भावर्जितं धृतं पाइर्च यस्तैः
ही हों अथवा भ्रमरों के निर्दय मदनसे दृट-टूटकर...गिरते हुए कल्पवृक्षके फूलोंके पुंज ही २५ हो। तदनन्तर सब ओर अन्धकार वृद्धिको प्राप्त हो गया। वह अन्धकार ऐसा जान पड़ता
था मानो अमाध रसातलरूपी तालाब के मध्यमें दिनके संतापको नष्ट कर सुखसे तैरते हुए यमराजके वाहन स्वरूप भैसाओंके शरीरसम्बन्धी कालिमासे व्याप्त ही हो। अथवा सायं
कालिक विहारके लिए आभूषण धारण करने में प्रवृत्त इन्द्रपुरकी स्त्रियों द्वारा अपना पहर . समाप्त हो जाने के कारण निकालकर फेंके हुए कर्णाभरणके नीलकमलोंकी प्रभासे मानो व्याप्त ३० ही हों । अथवा मदमाते. दिमाजोंके कर्णरूपी तालपत्रके बार-बार ताडनके भयसे, चकित हो
भागले-हुए नमरसमूह की शोभायमान कान्ति के लेपसे मानो श्यामवर्ण ही हो अथवा रात्रि रूपी स्त्रीके बिखरे हुए केशपाश ही हों । तदनन्तर क्रम-क्रमसे संमुखागत इष्ट पति के साथ रमण करने के लिए नील चोगाकी दुराशासे पीड़ित अभिसारिकाएँ जिसे अपने समीप जहाँ
वहाँ हाथ फैला-फैला कर ग्रहण कर रही थीं। अत्यधिक कीचड़के समूहकी आशंका करने एवं ३५ पार्श्व माहाको धारण करनेवाले सूफरोंका समूह जंगलकी कुहरोंमें लोटने के लिए जिसे स्वीकार
४. क. 'च' नास्ति ।।.. .. .. . .....
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-पद्मागृहान्निष्क्रमणम् ] षटो लम्भः
२४९ अकाण्डजलदमण्डलभ्रमसंभ्रमसंभृतपुनःपलायनचिन्तैरुत्क्षेपचटुलपक्षसंपुटः सभयमभिवीक्ष्यमाणे सरःसु हंसः, संरम्भसमुद्भुतसटाच्छटैरुत्पुच्छयमानः कठोरकालायसपञ्जरधिया विघटयितुं व्यापारित- . नखकोटिभिः साटोपमुपदिश्यमाने गिरितटोयु कण्ठीरवैः, तिमिरापीडे जरठतां प्रतिपन्ने, प्राप्ते च निशोथे, निर्दयसंभोगव्यतिकरश्रमेण गाढाश्लिष्टनिद्रां तां बिम्बोष्ठीमतिसंधाय गन्धर्वदत्तापतिरन्तशिकैरप्यविदित एवान्तःपुरात्पुराच्च निर्गत्य ययौ ।
१६५, अथ पद्मबन्धौ पद्मिनीमिव पद्मां परित्यज्य पादयिते प्रयाते, प्रशिथिलितनितान्तस्वापा सा कान्ता कान्तकरपरिरम्भणसंभूष्णुशंभरानुपलम्भेन विजम्भमाणवेपथुभरादर
वराहनिवहै : शूकरसम्है: विपिनकुहरपु काननगतेषु विलु ठितुम् ऊरीक्रियमाण स्वीक्रियमाणे, अका जलदमण्डलस्य असमय वारिदवृन्दस्य यो भ्रमः संशयस्तेन संभ्रमं यथा स्यात्तथा संभृता कृता पुनःपलायनचिन्ता पुनर्मानससरःप्रयाणानुध्यान यस्तैः उत्क्षेपण समुनयनेन बटुलानि चमलानि पक्षसंपुरानि गरुत्पुटानि येषां १० तैः, हंसैमसलैः सरःसु कासारेषु समयं सत्रासं यथा स्यात्तथा अभिवादयमाणे दृश्यमाने, संरम्भंण कोपन समुधुता समुस्कम्पिता सदाच्छटा जटासमूहो यस्तैः उत्पुच्छयन्ते पुच्छमुन्नतं कुर्वन्तरि पुस्खुच्छयमानास्तैः, कटोरकालायसस्थ सुदृढकृष्णलोहस्य पञ्जरं शलाकागृहं तस्य धिया बुद्धचा विवटायितुं खण्डयितुं व्यापारिताः संगलिता नखकोटयो यस्तैः कण्टीरवैः सिंहै: साटोपगिरितटीपु शैलपरिसरेषु सारीपं यथा स्यात्तथा उपदिश्यमाने निर्दिश्यमाने तिमिरापीऽधकारसमूह जरठतां वृद्धिम् प्रतिपन्ने प्राप्ते सति निशीथेऽर्धराने १५ प्राप्ते च समागते च निर्दयो निष्कृपो यः संभोगव्यतिकरो रतिव्यापारस्तेन श्रमः खेदस्तेन गाढमत्यन्त यथा स्यात्तथा श्लिष्टा निद्रा पस्यास्तथाभूतां तां बिम्बोष्टीम् पनाम् अति संधाय वञ्चयित्वा गन्धर्वदत्तापतिजीवंधर: अार्वशिकरपि परिजनैरपि अविदित एवाज्ञात पुत्र अन्तःपुराइवरोधात् पुराञ्च नगराञ्च निर्गत्य ययौ जगाम।
६१६५. अथेति-अथानन्तरं पमबन्धी सूर्य पद्मिनीमिव कमलिनीमिव पक्षां तन्नाममार्या २० परित्यज्य पद्मादयिते जीवंधरे प्रयाते सति प्रशिथिलि तो मन्दीभूतो नितान्तस्वापो गादनिद्रा यस्यारतथा. भूता सा कान्ता बल्लभा कान्तकरस्य वल्लभहस्तस्य परिरम्मणेन समालिङ्गनेन संभूष्णोः संभवनशीलस्य शंभरस्य सुखस्यानुपलम्भेनाप्राप्त्या विजृम्ममाणो वर्धमानो वेपथुमरः कम्पनातिशयो यस्याः सा, आदरेण
कर रहा था । अकाल मेघमण्डलके भ्रमसे संभ्रमपूर्वक पुनः भागने की चिन्ता धारण करनेवाले एवं उड़नेसे चंचल पंखों के धारक हंस जिसे तालावोंमें डरते-डरते देख रहे थे और २५ संभ्रमपूर्वक गर्दन के बालोंके समूहको हिला पूँछको ऊपर उठानेवाले एवं कठोर काले लोहेसे निर्मित पिंजड़ा समझ तोड़ने के लिए नाखूनोंके अग्रभागको चलाने वाले सिंह पर्वत के शिखरोंपर जिसे खण्डित मागेका उद्देश्य बाँध रहे थे ऐसा अन्धकारका समूह जब अत्यन्त गहरा हो गया तथा मध्य रात्रिका समय आ गया तब निर्दय संभोगसे उत्पन्न थकावट के कारण गाढ़ निद्रामें निमग्न उस बिम्बोष्ठी-पद्माको धोखा देकर जीवन्धरस्वामी घरके लोगों के बिना ३० जाने ही अन्तःपुर तथा नगरसे निकल कर चले गये ।
६१६५. अथानन्तर जिस प्रकार कमलिनीको छोड़कर सूर्य चला जाता है उसी प्रकार जब जीवन्धर स्वामी पद्माको छोड़कर चले गये तब जिसकी गाद निद्रा शिथिल हो गयी थी, पतिके हाथ के आलिंगनसे होनेवाले सुखकी अनुपलब्धिसे जिसके शरीरकी सिहरन बढ़
१. क ख ग० गिरितटेपु० । २. का. ख० ग. 'कान्ता' पदं नास्ति ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १६५ पद्माया:
विवर्तितगात्रा निमीलितनेत्रैव प्रसारितपाणिः परितः पर्यङ्के पति व्यचेष्ट' । अदृष्ट्वा च तलिमसविधे धवमवधूतावशिष्टनिद्रा द्रुतमुत्थाय शयनगृहमभितः प्रदीपाट्टेषु प्रलम्बमानमणिकनक सुमनोदार्मानिकामस्थूलशातकुम्भस्तम्भच्छायास्वप्यतुच्छ- रणरणकविह्वला प्रहृतरपूर्वगात्रा धात्रीतलचुम्बितलम्बमान शिथिलकेशकलापा कलापिनीव नृत्तोयता, विद्युदिव मेघावलीवलयिता, वलय१५ रवमुखरितकरपल्लवैः पल्लवयन्तीव परामृशन्ती भुवं भूयः पर्यभ्रमत् । एवं नेकवारं वरदर्शनशङ्कया दरस्तम्भिताक्रन्दप्रसंगा स्वाङ्गच्छायामपि तच्छायां संदिहाना भूत्वापि निशान्ते कान्तं यदा 'नैक्षिष्टता ' हा हतास्मि इति परिदेवन मुखरितोपकण्ठा कलकण्ठो मुक्लकण्ठं रुरोद । तावता
२५०
गौरवेण विचर्तितं गात्रं शरीरं यया तथाभूता निर्मालिने नेत्रे यस्यास्तथाभूतैव मुकुलितको चनैव प्रसारितपाणिर्विस्वास्तिहस्ता सतीश पट अ । अदृष्ट्रा चेति-१० तलिमसविधे तल्पसमीपे धवं पतिम् अष्ट्वा चानवलोक्य च अबूता दूरीकृत अपशिष्टनिद्वा यथा तथाभूता सती, दुतं शीघ्रम् उत्थाय शयनगृहं शय्यागारमभितः परितः प्रदीप हे दीपस्थापकामदेशेषु मलस्वमानानि समानानि मणिकनकसुमनोदामानि रत्नभर्मकुसुममाल्यानि येषु तथाभूता ये निकामस्थूला अतिपीवरा: शातकुम्भकुम्भाः स्वर्णस्तम्नास्तेषां छावास्त्रपि अनुन्दर रणकेन प्रचुरीकन विला विचित् प्रह्वतरं नम्रतरं पूर्वगात्रं यस्याः सा धात्रीतलचुम्बिता महीतलम्बिता लम्बमानाः समानाः शिथिल१५ केशकलास शिथिलक समूहा यस्याः सा नृनोयता कलापिनष मयूरीव मेवाल्यां धनमालाया वलयिता वलयमिवाचरिता विद्युदिव तडिदिव वलयरत्रेण कङ्कणशब्देन मुखरिताः शय्यायमानाः ये करपल्लवाः करकिसलयास्तैः पल्लवयन्तीव किसलययुक्तां कुर्वन्तीय भुवं भूमिं भूयः पुनः पर्यभ्रमत् परितो भ्रमति स्म । एवमिति एवमनेन प्रकारेण नैकवारमनेकवारं वरदर्शनस्य वल्लभावलोकनस्य शङ्का संशीतिस्तया दरस्तम्भित ईषद्रवरूद्ध प्राक्रन्दप्रसङ्गो रोदनावसरी यथा २० स्वशरीरप्रतिकृतिमपि तस्य वल्लमस्य छाया प्रतिकृतिस्तां संदिहाना संशयाना भूत्वापि निशान्ते गृहे तथाभूता स्वाङ्गच्छायामपि कान्तं वं यदा नैक्षिष्ट नावलोकयामास तदा ' हा हतास्मि' इति परिदेवनेन करुणविलापेन मुखरितं शब्दायमान मुनक परिसरो यस्यास्तथाभूता कलकण्टी मधुरस्वरा पद्मा, मुक्तकण्ठमुच्चे रुरोद | रही थी, जिसने अपने शरीरको कुछ-कुछ घुमाया था और जो नेत्र बन्द किये किये ही हाथ फैला रही थी ऐसी पद्माने शय्यापर पतिको खोजा | जय शय्याके समीप उसे पति नहीं २५ दिखे तब अवशिष्ट निद्राको दूर कर वह शीघ्र ही उठकर खड़ी हो गयी और शय्यागृह के चारों तरफ दीपकों से सुशोभित अट्टालिकाओं में तथा लटकती हुई मणिमय और स्वर्णमय फूलोंकी मालाओंसे युक्त सुवर्णके स्थूल खम्भों की छात्राओं में भी उन्हें खोजती हुई बारवार घूमने लगी। उस समय वह अत्यधिक उत्कण्ठासे विह्वल हो रही थी। उसके शरीरका पूर्व भाग बहुत कुछ झुका हुआ था। उसके लटकते हुए ढीले केशोंका समूह पृथिवी तसे ३० चुम्बित था और उससे वह नृत्य करने के लिए उद्यत मयूरीके समान अथवा मेघमालासे घिरी हुई बिजली के समान जान पड़ती थी। वह चूड़ियोंकी खनक से शब्दायमान कर पल्लवों से पृथ्वी का स्पर्श कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानों पृथ्वीको पल्लवोंसे युक्त ही कर रही हो। इस प्रकार अनेक बार पतिके देखनेको शंकासे जिसके रोनेका प्रसंग कुछकुछ रुक गया था तथा अपने शरीरकी परछाईको भी जो उनके शरीरकी परछाई समझ ३५ बैठी थी ऐसी पद्माने जब रात्रिके अन्त समय पतिको नहीं देखा तब वह मधुरकण्ठी 'हा २. प्रदोषा
१. यचेष्ट-- अष्ट इति दि० । २ तलिमसविधे - तल्पसमीपे इति दि० । दीपाका प्रदेशेषु इति दि० ४. म० तदच्छायाम् ।
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-विरहवृत्तान्त: ]
२५१
प्रबुध्य दग्धहृदया निभृतेतरपदप्रसृतयो विसृमरकवभारतिमिरकवचितवियतः 'किं किम् ?' इति यामिनीनिभा यामिकयुवतयः समायासिषुः । अद्राक्षुश्च तां भग्नोषघ्नपादपां लतामिव पांसुलोद्गपत्रभङ्गां धात्रीतलशायिनीं शमयितुमिव शोकानलं नयनजलप्रवाहे प्लवमानामुद्दामदारिद्रयादप्युवेजनीयां वापसंपदिपि शोच्यां निर्घृणत्वादपि निन्दनीयां परदारपरिग्रहादपि निग्राह्यां नास्तित्र्यादप्यनास्थेबागवस्थामारूढां पद्माम् ।
$ १६६. ततच तास्वपि तस्याः परिदेवननिदानं परिज्ञाय परिवासपरात्री नासु परिजनमुखादेतदुपयोमुखी समागत्य तज्जननी जनितोद्वेगा निजोत्सङ्गे वत्सामारोप्य तदात्वोकुतियावत् हृदयं यासां
हायवेनि - तावता तावकान प्रयागुता
निवेतरा चपलतरा पद्मृतिश्वरणसंचारो यासां ताः, विमरः प्रसरणशीको यः कचभारः केशसमूहः स एव तिमिरं ध्वान्तं तेन कथितं व्याप्तं विषद्रव्योम याभिस्ताः किं किम्' इति बुवाणा १० इति शेषः, यामिनीनिमा रजनीतुल्या यामिकयुवतयः प्रहरिकपुरन्द्रयः समायासिपुः समागतवत्यः । अद्राक्षुश्चेति--अद्राक्षुत्र विलोकयामासु त पद्म भन्नः खण्डित उपनपादप आश्रयतस्यस्यास्ताम् अतएव पांसु धूलिधूसर उद्गमपत्रभङ्गः पुष्पपत्रावलिः पक्षे कुङ्कुमादिनिर्मितपुष्पपत्राकाररचना यस्यास्तधाभूतां लतामिव धात्रीनलशायिनी भूतलपतिताम्, शोक एवानलस्तं विषादवह्नि शमयितुमिव शान्तं कर्तुमिवापूरे पवमान मित्र तरन्तीमित्र उदामदारिद्र्यात्कट निर्धनत्वादपि १५ उजनीयाम् उद्वेगकारिणीम्, संस्कदिति निदासंगादपि शोच्यां शोचनीयां निर्घृणत्वाददि निद्र्यस्वादिनिन्दनीयां गर्हणीयां परस्य द्वाराः परदारास्तेषां परिमहादपि परपुरन्ध्रीपरिग्रहादविनिग्राह्मां निग्रहग्याम् नास्तिक्यादपि अनास्यामश्रद्धानीयाम् अवस्थां दशामारुताम् ।
षष्ठो लम्भः
५
६ १६६. ततति- - तदनन्तरं न तावपि श्रामिकयुवतिध्वपि तस्याः पद्मायाः परिदेवननिदानं विलापादिकारणं विज्ञाय परित्रास्त्र पराधीनासु परायत्तासु सतीषु परिजनमुबान परिकरवादनात् २० उपः समाकर्ण्य उदमुखं यस्यास्तथाभूता साश्रुवदना तज्जननी पद्माखवित्री समागत्य जनित उद्वेगी यस्याः समुत्पन्नखेदा सती बस दुहितरं निजोरसंग स्वक्रोड आरोप्य स्थापयितया तदावोचितै
हतास्मि' - 'हाय-हाय मारी गयी इस विलापसे समीप के प्रदेशको मुखरित करती हुई गला फाड़ फाड़कर रोने लगी। उसी समय पहरेपर रहनेवाली स्त्रियाँ जागकर 'क्या है, क्या है' यह कहती हुई उसके पास आ गयीं। इस आकस्मिक घटनासे उन स्त्रियोंके हृदय जल २५ चुके थे. उनके पैग बड़ी चंचलतासे शीघ्र शीघ्र पड़ रहे थे, बिखरे हुए केश समूह रूपी अन्धकार से उन्होंने आकाशको व्याप्त कर रखा था तथा वे रात्रिके समान ज्ञान पड़ती थीं । उन्होंने देखा कि पद्मा, जिसका आश्रय वृक्ष टूट गया है तथा जिसके फूल और पत्ते धूलिसे व्याप्त हो रहे हैं ऐसी लताके समान पृथ्वी तलपर पड़ी हुई है। शोकरूपी अग्निको शान्त करने के लिए ही मानो अश्रुओं के प्रवाह में तैर रही हैं। उत्कट दरिद्रतासे ३० भी कहीं अधिक उद्वेग करनेवाली है । निन्द्रा के संपर्क से भी शोचनीय हैं। निर्दयतासे भी अधिक निन्दनीय है । परस्त्रीके स्वीकारसे भी अधिक दण्डनीय हैं और नास्तिकता से भी अधिक अनादरणीय अवस्थाको प्राप्त हैं।
$ १६६. तदनन्तर पहरेपर रहनेवाली स्त्रियाँ भी जब उसके विद्यापका कारण जानकर भयसेवा हो गयीं तत्र परिजनोंके मुख से यह समाचार सुन पद्माकी माता रोती हुई ३५ चहाँ आयीं। उस समय उसे बहुत भारी उद्वेग उत्पन्न हो रहा था। उसने पुत्रीको गोद में
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गचिन्तामणिः
[१६६ तापसान् प्रति - चितैः 'शोफरशिशिरोपचारप्रकाराहारश्च विधाय लब्धसंज्ञा सात्यंधरिदयितां सदयमेवमन्वयुक'अयि पुत्रि, ते जामात्रा स्वयात्राभिव्यकिज किंचित्पुरस्तादुपन्यस्तमस्ति वा न वा' इति । सा च मजुभाषिणी किंचिद्धयात्वा स्मृत्वा च तदुक्तमित्थं प्रत्यब्रवीत्-'अम्ब, कदाचिदपहायाम्बरमम्बर
मणावम्बुराशिगाहनलम्पटे सति, तमवलोक्य जातमन्दहसित इव चकासति चन्द्रमसि, चन्द्रशाला ५ मया साकमधिवसन्मर्तृप्रवासपीडितां सनीडगृहामीडक्रीडागिरिनीडगतां कोकप्रियां प्रदर्शयन् 'प्रिये,
पक्ष्य भर्तृवियोंगे:पि पुनस्तत्रयोगसंभूष्णुतया विरहसहिष्णमिमाम्' इति मां साकृत समभ्यधात्' इति । दुहितवचःययणानन्तरं सग द्धवदुद्वामवृतिः पद्माजननी 'जहोहि वले, विचिकित्साम् । अनेन ह्यन्यापदेशेनोपादेशि त्वया बियोगः पुनः संप्रयोगश्च ते प्राणनाथस्य' इति प्रणिगदन्ती
सत्कालाहै : शोफरशिशिरोपचारप्रकाररतिशतलोपचारप्रकारः व्याहारश्च वचनैश्च सात्यंधरिदयितां १० जीवकजायां पनामिति यावत् लब्धसंजा प्राप्त चेतनां विधाय सदयं मयं यथा स्यात्तथा एवमनन प्रकारण
अन्वयुङ्न पप्रच्छ-'अयि पुत्रि! अयि बरसे ! जामात्रा जीवन तं तव पुरस्तादने स्वयात्राममिव्यमनीत्येवं शीलं स्वप्रयाणभूचकं किंचित् किमपि प्रकरणम् उपन्यस्तम् उपस्थापितमस्ति न वा न चैवोपन्यतम् ।' इति । सा चेति-सा च मजुमाघिणी मधुरमाषिणी किंचिन् किमपि ध्याचा ध्यानं कृत्वा स्मृत्वा च
तदुक्तं जीवघनिवेदनम् इत्य एतत्यकारं प्रत्यब्रवीत् प्रत्युवाच । -हं अम्ब ! ई मातः 'अम्बार्थनद्योढस्वः' १५ इति प्रातिपदिकम्य इस्वः । कदाचिमातुचित् अम्यरमणी सूर्ये अम्बरं गगनं पक्षे वस्त्रम् अपहाय स्यक्त्वा
अम्बुराशौ सागरंऽगाहनं प्रवेशनं तस्मिन् लम्पटे मति सूर्यास्तमनवेळायामिति यावत् , तमम्बरमणि तधाभूनमवलोक्य जातमन्दहसित इव समुत्पन्नमन्दहास्य इव चन्द्रमसि शशिनि शोममाने सति, मया पद्मश साकं चन्नशालामुपरितनप्रदेशम् अधिवसत् तन्न कृतनिवास: सन्, भर्तृप्रवासेन दयितदूर
गमनेन पीडिता ताम्, सनीडस्य सकुलायस्य गृहाक्रीडकोडागिरिनीडगता गृहोद्यानगृहामक्रोडाचला२० भ्यर्णनिकटस्थितां कोकप्रियां चक्रवाकी प्रदर्शयन् 'प्रिये पत्र विलोकय भनृवियोगेऽपि पुनः तत्संयोगस्य
मनुसमागमस्य संभूष्णुतया संभवीलतया विरहसहिष्णुं विप्रलम्भसहनस्वभावाम् इमाम्' इति मां साकृतं सामिनायं समभ्यधात् निजगाद इति । दुहित्यचावणानन्तरं पुनीवचनाकर्णनानन्तरम् समुहवन्ती समुल्पद्यमाना उद्दामतिरस्कटधेयं यस्यास्तथाभूता पद्माजननी 'जहीहि त्यज वत्से ! विचिकित्सा संशयम्
'विचिकित्सा तु संशयः,' इत्यमर । अनेन हि बलभेन अन्यापदंशेन परव्याजेन उपादेशि उपदिष्टः स्वया २५ सह ते प्राणनाथस्य तब बल्कमस्य विप्रयोगो विरहः पुनः संप्रयोगश्च संयोगश्च' इति प्रणिगदन्ती कथयन्ती
अत्यधिक शीतलोपचार तथा मधुर वचनोंसे पहले सचेत किया। तदनन्तर दयापूर्वक इस तरह पूछा-हे पुत्रि ! जमाईने तेरे लिए पहले कभी अपनी यात्राकी सूचना दी है या नहीं ? उस मधुरभाषिणीने कुछ ध्यान कर तथा स्मरण कर माताकी बातका यह उत्तर दिया कि'हे मा! किसी समय जब सूर्य आकाशको छोड़कर समुद्रमें अवगाहन करने के लिए च्या ३० हो रहा था और उसे वैसा देख मन्द हास्य करते हुए के समान जब चन्द्रमा सुशोभित हो
रहा था तब मेरे साथ महलके ऊपरी भागपर बैठे हुए उन्होंने पति के प्रवाससे पीड़ित समीपवर्ती गृहोद्यान के क्रीडागृह के घासलेमें स्थित चकत्रीको दिखाते हुए किसी खास अभिप्रायसे कहा था कि है प्रिय ! पनिका वियोग होने पर भी उनके पुनः होनेवाले संयोगको सम्भावनासे विरहको सहनेवाली इस चकवीको देखा। उक्त वचन सुनते हो जिसे बहुत भारी धैर्य ३५ उत्पन्न हुआ था ऐसी पद्माकी माता हे बेटी ! संशय छोड़, इन्होंने दूसरेके बहाने तुझे उपदेश दिया है कि तेरे साथ प्राणनाथका वियोग होगा और फिर संयोग होगा' यह कहतो
१. शोफरम् अधिकम् इति टि। २. म० इति वाकूतम् ।
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षष्ठो लम्भः
૨૨૩
जीवंवरस्य जैनधर्मोपदेश: ]
सुतामाश्वासयामास ।
$ १६७. अथ पद्मवल्लभोऽपि पल्लवजनपदपतिचोदितजङ्घालजन व्रातेनाप्यविदित एव लङ्घयन्नलङ्घनीयमरण्याध्वानमभिवन्दिता खिल पुण्यजिनभवनतया पावनतामुल्लाघतां च नीतः पल्लववर्षसोम्नि नाम्ना चित्रकूटं विचित्रचारित्राश्रयं तापसाश्रममध्वमच्छेदाय' शिश्रिये । अपयच्च तापसानामचितवृत्तोऽयं पञ्चाग्निमध्यस्थानादितः प्रपञ्चम् । अतर्कयच्चार्य कृपालुः "अहो देहिनां मोहनीयकर्मेदं दुर्माचप्रसरं यद्वश्या अमी मुधा क्लिश्यन्ते' इति । व्याहृरच्चायं परहितपरतन्त्रो मन्त्रायमाणं वचः 'अयि तपोधनाः, न हिस्यात्सर्वभूतानि इति विश्रुतां श्रुतिविद्वां सोऽपि 'कि हिंसनिदाने तपस्येकताना भवन्ति भवन्तः' इति । अदीदृशच्च दुर्दशो जडाटासुपुत्री पद्मामिति याचन् आश्वासयामास सान्त्वयांचकार ।
१५
६ ३६७, अथेति - अधानन्तरं पद्मावल्ल मोsपि जीवकांऽपि पदलवजनपदपतिना लोकपालेन १० चोदिता: प्रेरिता ये जादाः शीघ्रगामुकजनासीयां वातेनापि समूहेनापि अविदित एवाज्ञा एव अङ्घनीयमनतिक्रमणीयं महान्तमिति यावत् अरण्याध्यानम् काननपथं लङ्घयन् अतिकाम्यन् अभिनन्दितानि पूजितानि अखिल पुण्यजिन भवनानि निखिल पवित्र जिनेन्द्र मन्दिराणि यंन तस्य भावस्तता गया पानी पवित्रता तानां स्वस्थतां च नीतः प्रापितः सन् पल्लववस्य पल्लवाविधानजनपदस्य सीमा तस्याम्, नाम्ना नामधेयेन चित्रकूटं विचित्राणि यानि चारित्राणि येषामाश्रय आधारस्तम् तापलाश्रमं तपस्विनम् अध्यश्रमच्छेदाय मार्गखंदापनयनाय शिश्रिये प्राप । अपश्यच्च ददर्श च अनिवृत्तः पूजिता वारोऽयं जीवकः वारसानां पञ्चानामग्नीनां मध्ये स्थानं यस्मिन् तस पञ्चाग्निमध्यस्थानं तत् आदौ येषां तथाभूतानि यानि तांसि तेषां प्रपञ्चं विस्तारम् | अतर्कयच्चेति-— अतर्कयच्च व्यपारयश्चायं कृपालुयालुः, 'अहो आश्चर्यार्थीऽव्ययम् देहिनां प्राणिनाम् इदं मोहनीय कर्मचः प्रसरो यस्य तथाभूतमस्ति यद्वश्या यद्वशीभूता अमी मुग्धा मूर्खाः विकश्यन्ते २० इति । व्याह रच्चेति — परहितपरतन्त्रः परकल्याणोद्युक्तः अयं स्वामी मन्त्रायत इति मन्त्रायमाणं मन्त्रमुख्यं वचो व्याहच्च जगाद च अयि तपोधनाः ! 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' - कांश्चिदपि प्राणिनो न हिंस्यात्' इति विश्रुतां प्रथितां श्रुति वेदवाक्य विद्वान्सोऽपि जानन्तोऽपि भवन्तो हिंसानिद्राने हिंसाकारणे तपसि पञ्चाग्न्यादौ किं किमर्थम् एकतानाः समासक्ता भवन्ति इति । अस्य दर्शयामास च दुष्टा हुई पुत्रीको आश्वासन देने लगी- समझाने लगी ।
६ १६७. अथानन्तर पद्म के स्वामी जीवन्धरस्वामी भी पल्लव देश के अधिपति के द्वारा प्रेरित शीघ्रगामी मनुष्यों के समूह से भी अविदित रहकर अलंघनीय जंगली मार्गको लाँघते हुए समस्त पवित्र जिन-मन्दिरोंकी वन्दना करनेसे पवित्रता और नोरोगताको प्राप्त हो पल्लव देशकी सीमा पर स्थित, विचित्र चात्रिके आधारभूत चित्रकूट नामक तापसोके आश्रम में मार्गका खेद दूर करने के लिए पहुँचे । उत्तम चारित्रको धारण करनेवाले जीवन्धर ३० स्वामीने वहाँ तापसका पंचाग्नि के मध्य में बैठना आदि तपका प्रपंच देखा | दयालु तो 'थे हो अतः विचार करने लगे कि अहो ! प्राणियों का यह मोहनीय कर्म बड़ी कठिनाईसे छूटता है | इसके वशीभूत हुए ये प्राणी व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं। तदनन्तर पर हित में तत्पर रहनेवाले जीवन्धरस्वामी मन्त्र के समान आचरण करनेवाले बघन बोले । उन्होंने कहा कि हे तपोधनो ! 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि' - 'समस्त प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए' ३५ इस प्रसिद्ध श्रुतिको जानते हुए भी आप लोग हिंसा के कारणभूत तपमें क्यों लीन हो रहे हैं ?
यह
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१. म० श्रमपरिच्छेदाय |
५
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गद्यचिन्तामणिः
[१६८ प्रातःकाल - जालभ्रष्टजलावगाहनलग्न जलचरविसराणां विविधैधोबिबरविसर्पत्सादिजन्तुनामप्यमन्दविभावसौ दन्दह्यमानानां नयनवतामसा व्यसनम् । अबू बुधच्च तत्त्वमयं लब्धवर्णो वणिनां मध्ये कतिचिदत्यासन्नभव्यान्दिव्यैः श्राव्यहुंधेरनवद्यानेकान्तोद्दचोतिभिर्वचोभिः । आसीददपवर्गश्रियस्तेऽपि श्रीजिनधर्ममगृह्णन् ।
5 १६८. अथ तावता सद्धर्माभिमुखतापसहृदयोद्वान्ततमसेव श्यामोभवति दिङमुखे, इशामामुखविधेयकृत्य भनिनैः सममनुष्ठाय काष्टा शाररिपुः क्षपामपि तत्रैव क्षपयामास । तदनु च सन्मार्गसंदर्शनसावधानेन सवित्रा संगृहीतसम्यक्त्वरलबहिष्कृततापरामनस्तमोराशिपुनःसंपर्कभीत्येव दृग्येषां तान मियादृश: तान् जडान मूरखान जवानालाजासमूहाद् भ्रष्टाः पतिता जलावनाहने लग्ना
ये जल बरविरा जलवाजन्तुसमूहास्तव विविधानि यान्ये धांसि तेषां विवरंभ्यश्छिद्रेभ्यो विसपंन्तः १० प्रसपंन्तो ये सादिजन्ततस्तेषामपि, अमन्दधासौं विभावसुश्च त.स्मन् प्रचुरपावके दन्दहश्यमानाना
मतिशयेन चलता नयनवता नेत्युकानाम् असह्यमसहनीयव्यसनं दुःखम् । अबूबुधञ्च-अबुधन बोधयामास च लभयो विद्याम् अजीबंधशे गाह्मचारिणी साधूना मध्ये कतिचिद् केऽपि आसन्नमच्यान् निकर मध्यान् दिव्यैरलौकिकैः श्राव्यैः श्रोतुमहः हृद्युमनोहरः अनवचं निदुष्टमनेकान्त.
मुद्योतन्त इत्येवं शीलानि ले बोभिवचनैः 'वाग्बचो वचनं वाणी भारती मीः सरस्वती' इति धनंजयः। १५ आसीदन्ती निकटस्था भवन्ती अपवगेश्रीमशिलक्ष्मी तथाभूतास्ते वर्णिनाऽपि श्रीजिनधर्म जिनेन्द्रोन धर्मम् अगृहन् ।
१८. अथेति-प्रानन्तरं तावता तायर कालेन सद्धर्मस्य समोचीनधर्मस्थाभिमुखा ये तापसास्तपस्विनस्तरां हृदयेभ्यो मानसेन्य उद्वान्तमुद्गीण यसमस्तनेब दिनुख कष्टान्ते श्यामीभवति कृष्णी
भवति सति, श्यामायाः क्षपाया मुख प्रारम्भ सायंकाल इति यावत् विधेयं करणीयं यत्कृत्यं तत् मुभिजनैः २० समम् अनुष्ठाय कृत्या काष्ठङ्गाररिपुर्जीवंधरः क्षपामपि निशामपि तत्रैव तापसानों क्षपयामास व्यपगम
यामास । तदनु वेति-उदनु निशाव्यपगमानन्तरं च सन्मार्गस्य सुपथस्य संदेशने प्रकटने सावधानी दक्षस्तेन सावित्रा सूर्येण संगृहीतं स्वीकृतं यत्सम्यवं सम्यग्दर्शनं तस्य बलेन सामयन बहिष्कृतो यस्तापस
उन्होंने उन मूर्ख मिथ्यादष्टि लोगोंको जटाओं के समूहसे गिरे पानीमें अवगाहन करनेसे
लगे जलचर जीवांके समूह तथा नाना प्रकारकी लकड़ियोंके छिद्रों में चलनेवालं उन सर्प २५ आदि जन्तुओंका जो कि अग्निमें जल रहे थे, नेत्रवाले मनुष्यों के लिए असह्य दुःख दिखाया।
उन साधुओंके बीच कुछ अत्यन्त निकट भव्य भी थे। बुद्धिमान् जीवन्धरस्वामीने उन्हें दिव्य, श्रवण करने योग्य, हृदयको प्रिय लगनेवाले और अनेकान्तका प्रकाश करनेवाले वचनोंसे तत्वका वोध केराया। और मोझलक्ष्मी जिनके निकट आरही थी ऐसे उन लोगोंने भी जैनधर्म को स्वीकृत कर लिया।
६१६८, तदनन्तर यह सत्र होते-होते रात्रि हो गयी। समीचीन धर्मके सम्मुख तापसोंके हृदयसे उगले हुए अन्धकारके द्वारा ही मानो दिशाओंका अग्रभाग श्याम हो गया। रात्रिके प्रारम्भमें करने योग्य कार्यको मुनिजनों के साथ पूरा कर जीवन्धरस्वामीने रात्रि भी उसी आश्रममें पूर्ण की। तत्पश्चात् समीचीन मार्गके दिखानेमें सावधान सूर्यने जब, अच्छी
तरह ग्रहण किये हुए सम्यक्त्यके बलसे बहिष्कृत तापसोंके हृदयसम्बन्धी अन्धकार के ३१ समूहका पुनः संपर्क न हो जाय इस भयसे हो मानो समस्त अन्धकारके समूहको दूर हटा
३०
१. क. आसदतश्च । ख. आसीदधश्च । ग. आदधश्च । आसदतः-प्राप्यमाना टि० ।
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-प्रातर इयवणनम् ]
षष्ठो लम्भः निःशेपतमःस्तोमेऽपि निरस्ते, परिसरनगमलोत्थिते कुमारगोखगतिक इव सविराये सति वयसि, हरुगणेऽप्युट जाङ्गणभुवमुत्यज्य तृणचर्वणचापल्यादाश्रमोपशल्यमाश्रयति, शुचीतरविभागोपेक्षिणि सुगतमतावलम्बिनोवाम्बुजिनीरजःस्पर्शनलम्पटे वाति प्राभातिके मरुति, दिनपतिमुखावलोकनोहामदिवसश्रीराग इव प्रसरति तरुणातपे, तापसदारकसमिती च समित्कुशपलाशाहरणाय यथायथं बिहरन्त्याम्, विहितप्रगेतनविधिस्ततो विनिर्गत्य सात्यंधरिरन्ध कारितपरिसराणि--वणदलिकदम्ब- ५ कबलितशिखरचुसुमतङ्गतरुसहस्राणि विशृङ्खलखेलत्कुरङ्गग्नु र पुटमुद्रितसिकतिलस्थलाभिरम्याणि स्वच्छतलिलसर:समदिनकुमुदकुवलयमनोज्ञानि विमलवनापगापुलिनपुजितकलहंसरसितरजित
मनस्तमोराशिस्तपस्विचेतस्तमस्ततिस्तस्य पुनःसंपकण मोतिर्भयं तयेय निःशेषतम स्ताम निखिल तिमिरपुग्नेऽपि निरस्ने दूरीकृते . परिसरतरुपु निकटानोक आदौ सुप्तं पश्चादुस्थितं तयाभूते वयसि पक्षिणि आतित्वादे कवचनम्, सुम्मसुप्ति पृच्छतीति सौखसुप्तिका कुमारस्य सौरमसुप्तिकः कुमारसौत्रसुतिकस्तस्मिन्निव १० सविराधे विरावेण शब्देन सहितं तस्मिन् सति, रुरुगणेऽपि मृगसमूहेऽपि उटजाणणभुवं पर्णशालाचत्वरभूमिम् उत्सृज्य तृणानां शप्पाणां चवंगे चापल्यं तस्मात् आश्रमोपशल्यम् आश्रमोपकण्ठम् आश्रयति सति सति सति, शुचितरश्च इति शुचीतरी पवित्रापवित्रों या विभागीतापेक्षता इत्यवंशीले सगतमतावलग्थिन नीव बौद्धमतावलम्बिनीच अम्बुजिनीनां रजांसि परागास्तेषां स्पर्श ने लम्पर: सभासक्तस्तस्मिन् प्राभाविक प्रातःकालिके ममति बागौ वाति वहति सति, दिनपतिमुखस्य सूर्यवदनस्यावलोकने दर्शन य उहामदिवस. १५ धीराग उत्कटदिनलक्ष्म्यनुरागस्तस्मिन्निव तरुणात प्रत्यूप्रकालिकारुणवर्णधर्म प्रसरति सति, तापमाना तपस्विनां दारका नन्दनास्तेषां समितिस्ततिस्तस्यां समिधश्च इन्धनानि च कुशाश्व दांव पलाशानि च एनाणि च तेषामाहरणाय यथायथं यथास्थान विहन्त्यां भ्रमन्त्यां सत्याम् , विहितः कृतः प्रतनविधिः प्रातःकालिककार्य येन तपाभूतः सात्यंधरिविंधरः ततस्तारसाश्रमाद् विनिर्गत्य निःसृत्य कानिचित् कान्यपि काननानि वनानि नयनयोनें त्रयोः उपायनोचकार प्राभृतांचकार नयनः काननानि ददर्शति भावः । २० श्रथ काननानि विशेषयितुमाह-अन्धकारितति-अन्धकारितास्तिमिरिताः परिसराः समीपप्रदेशा येषां तानि, स्वणदिति-क्यणता गुञ्जता अलि रुदम्बेन भ्रमरसमूहेन कबलि तानि च्याप्लानि यानि शेखर कुसुमानि उपरित नभागपुमाणि तैस्तुङ्गान्युन्नतानि तहसहस्राणि वृक्षसहस्राणि यपु तानि, त्रिशृङ्खलेति--विश्वङ्कलं स्वच्छन्दं यथा स्यात्तथा खेलन्तः क्रीडन्तो ये कुरङ्गा मृगास्तेषां स्वरपुरैः शफप्रदेश हितानि चिह्नितानि यानि सिकतिलस्थलानि वालुकामयस्थानानि तैरभिरम्पाणि मनोहराणि, स्वच्छेति-स्वच्छं निर्मलं सलिलं २५
दिया। जब निकटवर्ती वृक्षोंपर सोकर उठे हुए पक्षी चहकने लगे मानो कुमारसे 'अच्छी तरह सोये' यह समाचार ही पूछ रहे थे, जब मृगोंके झुण्ड भी पर्णशालाओं के आंगनकी भूमिको छोड़कर घास खानेकी चपलतासे आलमके निकट बिखर गये । जब बुद्धमतका अवलम्बन करनेवालेके समान पवित्र और अपवित्र विभागकी उपेक्षा करनेवाला, एवं कमलिनीके परागका स्पर्श करने में लम्पट प्रातःकालका पवन बहने लगा। जब दिनपतिका ३० मुख देखने के लिए उत्कट दिनलक्ष्मीक रागके समान उपाकालको लालिमा फैलने लगी
और जब तापसोंके बच्चों के समूह ईंधन, कुशा और पत्ते लाने के लिए जहाँ-तहाँ घूमने लगे तब प्रातःकालकी क्रिया कर जीवन्धरस्वामी उस आश्रमसे निकले। आश्रमसे निकलकर उन्होंने उन चनों को अपने नेत्रोंकी भेंट चढ़ाया जिनमें कि हजारों वृक्ष, गुजार करनेवाले भ्रमर समूहसे व्यान शिखरपर लगे फूलोंसे उन्नत हो रहे थे। जो स्वच्छन्दतासे खेलते हुए ३५ हरिणा के बुरपुटांकी मुहरोंसे युक्त रेतीले स्थलोंसे सुन्दर थे । जो स्वच्छ जलके सरोवरोंमें
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गद्यचिन्तामणिः
[१६८ प्रातःकाल - श्रवणानि दृप्यच्छाक्यरशृङ्गकोटिविघटनविषमिततुङ्गवच्छानि विचित्रसुमनःपरिमलमांसलसमोर संचारसुरभीकृतानि कानिचित्काननानि नयनयोरुपायनोचकार। तानि च क्रमादतिक्रम्य गच्छन्विक्रमशालिविविधपुरुपपरिपदः पारुण्यविरामाभिरामरामालंकृतस्यायत्नोपनतरत्न रजतजातरूपजातजात
समृद्धडिण्डोरपिण्डपाण्डुरपुण्डरीकोद्भासिनः सलोलान्दोलितचारच मरबालमरुतःपरदुरासदसत्त्वाधिक५ नीर येषु नथाभूतानि यानि सरांति कासारास्तंग समुद्भिन्नानि विकसिनाजि यानि कुमुदकुचल यानि सिता. पितसरोरुहाणि तैमनोज्ञानि मनोहराणि, बिमलति-विमला निर्मला या वनापमा विपिनवाहिन्यस्तासा पुलिनेषु तटेषु पुञ्जिना एकत्रोपस्थिता ये कलहंसाः कादम्बास्तेषां सिनेन शब्देन रनिजतं प्रसन्नं श्रवणं श्रोत्रं ग्रेषु तानि, दृप्यदिति-दृप्यन्तो माद्यम्ती ये शाक्वरास्ता मवृषभारलेषां कोटिभिविषाणाग्रभागयंद विषरनं बिहारणं तेन विमिता उच्चावचीकृतास्नुनकच्छा उन्नतजलवायन देशा येषु तानि, विचिनेति१० विचित्राणि विवियानि यानि सुमनांसि पुष्पाणि तेषां परिमलेन सुगन्धिना मांसलः पुष्टो यः समीरः
पवनस्तस्य संचारंग समन्ताद्गमनेन सुरभीकृतानि सुगन्धित नि । तानि चेति--तानि च काननानि क्रमान् क्रमेण भनेक्रम्य समुल्ला य गच्छन् जीबंधरो बिम्बितोऽनुकृतः क्षोणीपती राजा ग्रेन तथाभूतस्य दक्षिणदेशस्य दाक्षिणात्यजनपदस्य कमपि धोजिनालयं श्रीजिनेन्द्रायतनम् अद्राक्षीत् इति क्रियासम्पन्धः। अध
दक्षिगदेशस्य विशेषणान्याह-विक्रमति--विक्रमशालिनी पराक्रमशोभिनी विविधपुरुषाणां नानाविध१५ राजपुरुषाणां पक्षे तनत्यनराणां परिषरसमूहो यस्मिस्तस्य, पारुप्यति--पारुण्यस्य कर्कश वस्य विगमेण
समास्या अमिरामा मनोहरा या रामा रमण्यस्ताभिरलंकृतस्य रमणीयस्य, उभयत्र समानम्, भयत्नति---- भयत्नमनायासं यथा स्यात्तथोपनसं समुपस्थितं यद् रन रजत जानरूपजातं मणिहिरण्यसुवर्णसमूहस्तेन जातसमृद्धः सम्पन्नो यो डिण्डोरपिण्डः फेमसमहस्तेन पाण्दुराणि पाण्डुवर्णानि यानि पुण्डरीकाणि सित
सरोरुहागि तैरदासते शोभत इत्येवंशीलस्तस्य पक्षे समानेन अप्रयासेनोपनतानि यानि रत्न-रजतजात२० रूपाणि मणिहिरण्यस्वर्गानि तेषां जातेन समन समृद्धं जातमिति जातसमृद्धं डिण्डोरपिण्डपाण्डुरं फंग
समूहधवलं यत्पुण्डरीक छत्रं तेनोझासिनः 'पुपरीकं सिनच्छन्ने सिताम्भोजेऽपि भेषजे' इति विश्व लोचनः । सलीलेति--सलील सविभ्रमं यथा स्यात्तथान्दालितै: चारुचमरबालैः सुन्दरचमरमृगकेशर्मरुन एवनो यस्मिस्तस्य, पक्षे सलीहं यथा स्यात्तधान्दोलितैश्चारुचमरैः सुन्दरवालव्यजनवाजो मन्दो मरुत्पवनो यस्य
खिले हुए सफेद और नील कमलोंसे मनोहर थे। जो जंगली नदियोंके स्वच्छ तटॉपर २५ एकत्रित कल हंसोंके शब्दोंसे कानों को प्रसन्न कर रहे थे। अहंकारसे पूर्ण बैलोंके सींगोंके
अग्रभागसे खुदने के कारण जिनमें ऊँचे-ऊँचे कछार विपम ऊँचे-नीचे हो रहे थे और जो नाना प्रकारके फूलों की सुगन्धिसे परिपुष्ट वायुके संचारसे सुगन्धित थे। क्रम क्रमसे उपचनोंका उल्लंघन कर जाते हुए जीवन्धर स्वामी किसी राजाका अनुकरण करनेवाले उस दक्षिण देशमें
पहुँचे कि जहाँ नाना प्रकार के पुरुषों की सभा पराक्रमसे सुशोभित थी (राजपक्षमें जिसके ३० कर्मचारी पुरुप विक्रम-विशिष्ट क्रम अथवा पराक्रमसे सुशोभित थे)। जो परुपताको . समाप्त करनेवाली सुन्दर स्त्रियोंसे अलंकृत था ( राजपक्ष में जो कोमलांगी सुन्दर स्त्रियोंसे
अलंकृत था)। जो बिना प्रयत्न के प्राप्त होने वाले रत्न, चाँदी, और स्वर्णके समूहसे समृद्ध ही उत्पन्न हुआ था (राजपक्ष में जो अनायास ही प्राप्त हुए रत्न आदिसे समृद्ध ही उत्पन्न हुआ था)। जो फेन समूहसे सफेद पुण्डरीक-श्वेत कमलोंसे सुशोभित था ( राजपक्ष में जो ३५ फेन समूहके समान सफेद छत्रसे सुशोभित था।) जहाँ चमरी मृगके बालों को लीला
सहित कम्पित करनेवाली वायु बहती रहती थी ( राजपाझमें लीला सहित बोले हुए सुन्दर चमरोंसे जहाँ हवा होती रहती थी)। जिसका निकटवर्ती प्रदेश दूसरोंके लिए दुष्प्राप्य
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२५०
D audiaidicine
LIMILIW.HIT-H
- वर्णनं जिनालयदर्शनं च]
षष्ठो लम्भः विविधभूभृदध्यासितसविधस्याजसाभिवधितवाहिनीसहससंपादितसंपदः पयोधरभरमनोहारिमहिषीमहितधाम्न: सदातनगोधनचकासिनः सकलजन्तु संरक्षणदक्षस्य विडम्बितक्षोणीपतेर्दक्षिणदेशस्य मणिमकुटायमानविकटशिखरचुलुपिताम्बरं जाम्बूनदोपपादितस्थूलस्थूणासहसूसंबाधमण्डितमण्डपमकाण्डभवदाखण्डलधनुःकाण्डशङ्कानिष्पादनशीण्डनै कपुष्पोपहारमहरहरभिवर्धमानसपर्यमविलयं कमपि श्रीजिनालयमद्राक्षीत् ।। श्लंपाव वयोरभेदः, परदुरासदा अन्यजनदुष्प्राप्याः सरवाधिकाः सिंहादिजन्तुप्रचुरा ये विविधभूभृतो नानाविधपर्वतास्तरध्यासितो युक्तः सविधः पाश्र्वप्रदेशो यस्य तस्य, पर्श परदुरासदेन शत्रुजनदुष्प्राप्येण सत्त्वेन पराक्रमणाधिका बलिष्ठा भूभृतो राजानस्तैरध्यासितो युक्तः सविधः समीपप्रदेशो यस्य तस्य, अजस्रति-अजस्र शश्वद् अभिवधि तानि यानि चाहिनीसहस्राणि नदीसहवाणि तैः संपादिता संपद् यस्य तस्य पक्षे अजस्र शश्वत् अमिवर्धिताः पोषिता या वाहिन्यः संनास्तासां सहस्रण संपादिताः १० प्रापिताः संपदः संपत्तयो यस्य तस्य, पयोधरति--पयोधरभरेण स्तनमारेण मनोहारियो या महिप्यो देहिकास्ताभिर्महितानि प्रशस्तानि धामानि गृहाणि यस्मिन् तस्य 'महिषी नाम देहिका' इति धनंजयः पक्षे पयोधरमरेण कुचभरेण मनोहारिण्या या महिष्यः कृताभिषेका राज्यस्तामिर्महितं शोभित धाम राजभवनं यस्य तस्थ, 'कृतामिपेका महिषी' इत्यमरः । सदातति-सदातनं शाश्वतं यद् गोधनं धेनुधनं पक्षे पृथिवीधनं चास्तीत्यवंशीलस्तस्य, सकलेति--सकल जन्तून निखिलप्राणिनां सिंहादीनां पक्षे विप्रादीनां संरक्षणे १५ दक्षः समर्थस्तस्य । अथ श्रीजिनालयस्य विशेषणान्याह-मणोति--मणिमकुटायमानेन रत्नशेखरायमाणेन विकटशिखरण विशालाग्रभागेन चुलकित तुच्छीकृतमस्मरं नभो येन तम्, जाम्बूनदेति--जाधून दोपपादितानि स्वर्णनिधूिलादिमीरागि पनि मागहमाग स्तम्भसहस्राणि तेषां संबाधन प्राचुर्यण मण्डितो मण्डपो अस्थ तम्, माण्डेति--अकाण्डेऽसमये भवन्ति समुत्पद्यमानानि यानि आखण्डलधनुःकाण्डानि शक्रशरासनदण्डानि तेषां शङ्कायाः संदेहस्य निम्यादने समुत्पादने शौण्डाः समर्था नैकपुप्पोपहारा नाना• २० कुसुमोपायनानि यस्मिस्तम्, अहरह इति---अहरहः प्रतिदिनमभिवर्धमाना सपर्या पूजा यस्मिस्तम् अवि. लयमविनश्वरम्।
-
जीवोंसे व्याप्त नाना पर्वतोंसे युक्त था ( राजपक्ष में जिसका समीपवर्ती प्रदेश दूसरोंके लिए दुर्लभ पराक्रमसे अधिक नाना राजाओंसे युक्त रहता था)। निरन्तर बढ़ती हुई हजारों नदियोंसे जिसको सम्पत्ति बढ़ती रहती थी (राजपक्षमें निरन्तर बढ़ती हुई हजारों २५ सेनाओंसे जिसको संपत्ति बढ़ती रहती थी)। जिसके घर स्तनोंके भारसे मनोहर भैंसोंसे सुशोभित थे ( राजपक्ष में जिसके घर स्तनोंके भारसे मनोहर पट्टरानियोंसे सुशोभित थे)। जो सदा स्थिर रहनेवाले गौरूपी धनसे सुशोभित था ( राजपक्ष में जो सदा स्थिर रहनेवाले पृथिवीरूपी धनसे सुशोभित था) और जो समस्त जोवोंकी रक्षा करने में गई या ( राजपक्षमें जो कलासहित प्राणियोंकी रक्षा करने में समर्थ था)। दक्षिण देशमें जाकर उन्होंने ३० किसी ऐसे जिनालयको देखा जो दक्षिण देशके मणिमय मुकुट के समान सुशोभित विशाल शिखर से आकाशको व्याप्त करनेवाला था। जिसका सुशोभित मण्डप स्वर्णनिर्मित हजारों मोटे-मोटे खम्भोंसे संकीर्ण था। जो असमयमें प्रकट होनेवाले इन्द्रधनुषकी शंकाके उत्पन्न करनेमें समर्थ नाना प्रकारके फूलोंके उपहारसे सहित था। जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई पूजासे सहित और अविनाशी था ।
१. म० मनोहरहिषी।
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गयचिन्तामणिः
[ १६ जीबंधकृत - १६६. तन्निरीक्षणक्षण एव क्षीणनिःशेषश्रमः श्रावकश्रेष्ठोऽयं काष्ठागतप्रमोदः साधुधौतपादः पादपवल्लरोतल्लजसंफुल्लफुल्सोकरमरविवादिहानुधावामधुकरण करेणापचित्यापचितिविधिज्ञोऽयं विहिताञ्जलिरधिकभक्तिभक्तिभरनिगलनिगलित इव कथंचिद्गलाद्गलति सकलवाङ्मयातिबतिकीर्तेर्भगवतः संस्तवे, संस्तवनौत्सुक्याङ्क रानुकारिरोमाञ्चं मुञ्चति शरोरे, शारदार५ विन्द इव मकरन्द्रबिन्दुभिरानन्दाश्रुजलैः प्लाविते लोचनयुगले, अचलितमूतिरतुलतूतिः कर्तव्यमपश्यावश्येन्द्रियस्त्रिकरणशूद्धिस्त्रि परीत्य क्षणमास्थितः श्रोपीठाग्रस्थितिरारचय्य कुसुमाञ्जलि
६१६१, तन्निरीक्षणेति-तस्य श्रीजिनालयस्य निरीक्षणक्षण एवं विलोकनावसर एव क्षीणों नटो नि शेयश्रमः संपूर्ण खेदो अस्य तथाभूत: प्रावकश्रेष्ठः श्रावकशिरोमणि: 'मूलोत्तरगुणनिष्टामधितिष्टन् पञ्चगुरुपदशरण्यः । दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधा श्रावकः पिपासुः स्यात्' इति श्रावकलक्षणम् । काष्ठागतश्वरमसीमगतः प्रमोदो हषों यस्य सः साधु सम्यक् धोती प्रक्षालितो पादौ येन तयाभूतः सन्, पादपाश्र वृक्षाश्च वल्लयश्च लताश्चेति पादपवलयः प्रशस्ताः पादपवली इति पादपवलरी तल्ल जा 'मल्लिका मचचिंका प्रकाण्डमुद्धतल्लो । प्रशस्तवाचकान्यमून्ययः शुभाबहो विधिः' इत्यमरः पादपवल्लरीतलजानां यानि संफुलफुल्लानि विकसितकुसुमानि तेषामुत्करः समूहस्तम्, अरविन्दसंदेहेन कमलविभ्रमणानुधावन्तो
मधुकरा भ्रमरा यं तेन करेण पाणिना अपचित्य संचितं कृत्वा अपचितिविधिनः पूजाविधिज्ञानवान् अयं १५ जीवधरी विहिताञ्जलिः कृताञ्जलिः अधिक मनिर्यस्य तथाभूतः सन्, सकलवाङ्मयस्यातिवर्तिनी
निखिलद्वादशाङ्गातिवर्तिनी कीर्तिर्यस्य तथाभूतस्य मगवतः संस्तवे मझिमर एव निगलो निगडो बन्धनं तन निगलिते इव निगडिते इव कथंचित् केनापि प्रकारेण गलान् कण्ठान गलति निजामति सति, शरीरे संस्तवने यदी सुक्यं तस्याङ्कराः प्ररोहास्तदनुकारी यो रोमाञ्चस्तं मुञ्चति सति, मकरन्दविन्दुभिः कौसुम
सीकरः शारदारविन्द इव शारदसरोरुह इव आनन्दाश्रुजलैहपाश्रुसलिलैलोचनयुगले नयनयुगे प्लावित २० इव, अचलिता निश्चला मूति: शरीरं यस्य सः, अतुलानुपमा तूतिः स्फूतियस्य सः कतव्यं करणीयम्
अपश्यन् अनवलोकयन् अवश्यानीन्द्रियाणि यस्य सोऽस्वाधीनहषीकः त्रिकरणैर्मनोवचःकायैः शुद्धिर्यस्थ तथाभूतः निः ब्रोन् रारान् परीत्य परिक्रम्य क्षणम् आस्थितः श्रीपीठाने श्रीसिंहासनाने थितिर्थस्थ
ई १६६. जिनालयके देखने के समय ही जिनकी समस्त थकावट दूर हो गयी थी, जो श्रावकोंमें श्रेष्ट थे, जिनका हर्ष चरम सीमाको प्राप्त हो रहा था, और जिन्होंने अच्छी २५ तरह पैर धोये थे ऐसे जीवन्धरस्वामी, कमलके सन्देहसे जिसके पीछे भ्रमर दौड़ रहे
थे ऐसे हाथसे उत्तमोत्तम वृक्ष और लताओंके खिले हुए फूलोंके समूहको तोड़कर बहुत भारी भक्तिसे युक्त हो हाथ जोड़ पूजा करने के लिए उद्यत हुए। वे पूजाको विधिको अच्छी तरह जाननेवाले थे। समस्त द्वादशांगको अतिक्रान्त करनेवाली कोर्तिसे
युक्त श्री जिनेन्द्र भगवान्का स्तवन भक्तिसमूहरूपी बेड़ीसे छूटे हुए के समान किसी तरह ३० उनके कण्ठसे बाहर निकलने लगा। उनका शरीर स्तवनकी उत्सुकतारूपी अंकुरोका अनु.
करण करनेवाले रोमांचको छोड़ने लगा। जिसप्रकार शरद् ऋतुका कमल मकरन्दकी बूंदोंसे च्याप्त हो जाता है उसीप्रकार उनका नेत्रयुगल आनन्दाश्रुओंके समूहसे व्याप्त हो गया। उस समय वे निश्चल शरीरके धारक थे, अनुपम शीघ्रतासे युक्त थे, दूसरे कार्यकी ओर
देखते भी नहीं थे, उनकी इन्द्रियाँ उनके आधीन नहीं थीं, और वे मन वचन कायकी शुद्धिसे ३५ युक्त थे। तीन प्रदक्षिणाएँ देकर वे क्षण भरके लिए रुक गये और भगवान के सिंहासनके
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-
-
१. क० ख० ग स्तवे । २. म० आनन्दाश्रुजालः ।
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- जिनेन्द्र स्तवनम् ]
मजिन जिनमस्तोकमस्तावीत्
$ १७०, 'तरन्ति संसारनहाम्बुराशि
यत्पादनावं प्रतिपद्य भव्याः |
अखण्डमानन्दभखण्डितश्रीः
लम्मः
श्रीवर्धमानः कुरुताज्जिनो नः ॥
३ १७१. विवेकिनो यस्य पदं भजन्ते
विमुच्य बाह्यान्विषयानसारान् । अवाप्तुमात्मीयगुणं गुणाब्धिजिनेश्वरो नः श्रियमातनोतु ॥
१७२. यदीयपादामृतसेवनेन
हरन्ति संसारगरं मुनीन्द्राः । स एष संतोषतनुजिनो नः
संसारताप शकलीकरोतु ॥ ' इति ।
२५९
तथाभूत. सन् कुसुमाञ्जलिं पुष्पाञ्जलिम् आरचय्य न विद्यते वाजिनं पापं यस्य तं जिनमहन्तम् अस्तोक भूयिष्ठं यथा स्यात्तथा अस्वावीत् तुष्टाव ।
५.
१०
१५
$ १७०. तरन्तीति- - मन्याः सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यन्तीति मन्या: यस्य पादावेव नौस्तां यत्पादना यचरणतरण प्रतिपद्य लक्ष्या संसार पत्र महाम्बुराशिस्तं भवार्णवं तरन्ति अखण्डिता श्रीरनन्तचतुरूपा यस्य सः श्रीवर्धमानो जिनः पश्चिमतीर्थकरो नोऽस्माकम् अखण्डमविनश्वरं पूर्ण वा आनन्दं प्रहर्षं कुरुतात् । रूपकालंकार उपजातिवृद्धम् ।
०१. विवेकिन इति - विवेकिनो हेयोपादेयविज्ञानयुक्ता जना आत्मीयगुणं अवाप्तुं २० लब्धुम् असारान् तुच्छान् बाह्यान् विषयान् स्पर्शादीन् विमुच्य त्यक्त्वा यस्य जिनेश्वरस्य पदं भजन्ते सेवन्ते गुणानामधिर्गुणाविधः गुणार्णवः स जिनेश्वरोऽहंन् नोऽस्माकं श्रियं लक्ष्मीं तनोतु विस्तारयतु | उपेन्द्रवज्रावृत्तम्।
६ १७२. यदीयेति मुनीन्द्रा यतीश्वरा यदीयपादावेवामृतं तस्य सेवनेन यत्पादपोत्रोपसेवनेन संसार एच गरे संसारगरं भवगरलं हरन्ति संतोषतनुः संतोषशरीरः स जिनोऽर्हन् नोऽस्माकं संसारस्य तास्तं संसारतापम् आजवं जवक्लेशं शकलीकरोतु खण्डयतु । रूपकालंकार उपजातिवृत्तम् ।
२५
आगे स्थित हो पुष्पाञ्जलि रचकर पापरहित जिनेन्द्र भगवान्की नीचे लिखे अनुसार अत्यधिक स्तुति करने लगे ।
१७०. 'जिनके चरणरूपी नौकाको प्राई कर भव्य जीव संसाररूपी महासागरको पार हो जाते हैं अखण्ड लक्ष्मी के धारक के वर्धमान जिनेन्द्र हम सबको अखण्ड आनन्द ३० प्रदान करें।
६ १७१. 'विवेकी मनुष्य आत्मीय गुणों को प्राप्त करने के लिए साररहित बाह्य विषयोंका त्याग कर जिनके चरणोंकी सेवा करते हैं गुणोंके सागर स्वरूप वे जिनेन्द्र भगवान् हमारी लक्ष्मीको विस्तृत करें ।'
९ १७२. 'जिनके चरणामृती सेवासे मुनिराज, संसाररूपी त्रिपको हर लेते हैं ३५ संतोषरूपी शरीरको धारण करनेवाले वे जिनेन्द्रदेव, हमारे संसार-तारको खण्ड-खण्ड करें।'
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गद्यचिन्तामणिः
[ १७३ क्षेमपुयां -
$ १७३. तावदवञ्चितया तदीयभयभक्तिकुञ्चिकयेव श्रोकवाटे स्वयं झटिति विघटते, तदवलोक्य निकटवर्ती मर्त्यः कश्चिदाहितात्याहितपरः पतिविस्फारित्रद्वयेन तपत्राञ्जलिपवित्रकुमारस्य पातयशस्य पादयोः पपात । तमवलोक्य लोकज्ञः कुमारोऽपि नात्यादरं दर्शितदशनज्योत्स्ना कृत्स्नगस्यागालिम्पन् 'कोऽसि । कुतस्त्यः । कस्मादस्मलदयोस्तव पतनम् ।' ४ इत्यपृच्छत् 1 स च तद्रचोलाभेन महाप्रसाद इव बढाञ्जलिरित्यं निजगाद - 'स्वामिन्, इतः क्रोशमात्रान्तरितप्रदेश निवेशितो वेशवाटिकेति विटे, विद्यामठिकेति विद्यार्जनोत्सुकः, विपण आतिथेयनिवास इत्यतिथिभिः, भोगभूरिति भोगापेक्षिभिः, आस्थायिकेत्यास्तिकैः,
२१०
1
६ १०३. तावदिति – तावत् तावत्कालेन अवचितया यथाश्रया तदीयमन्तिरं कुचिका तयैव श्रीnai श्रीजिनालयारे स्वयं स्वतो विवटिते सति तस्मादविघटनम् अवलोक्य दृष्ट्वा निकटवर्ती १० समीप स्थितः हितो नृतोऽत्याहितभर संतोषगारी येन तथाभूतः कश्चिन्नयः कोऽपि मनुष्यः प्रीत्या प्रेFat frenita freतारितं यन्नेत्रद्वयं तेन शतपत्राञ्जलिं कमळाञ्जलिं पातयनिव पवित्रकुमारस्य जीधरस्य पादयश्चरणयोः पपात । तं पुरुषम् अवलोक्य लोकज़ो लोकव्यवहारज्ञः कुमारोऽपि जीवंधरोऽपि नात्यादरं मनागावरं यथा स्यात्तथा दर्शिता प्रकटिता या दशनज्योत्स्ना दन्तचन्द्रिका तया अस्य पुरुषस्य कृत्स्नं समग्रम् अङ्गम् अलिम्पन् दिशं कुर्वन् 'कोऽसि त्वं कः । कुत आगतः कुतस्त्यः कस्माद्धेतोः १५ अस्मत्पदयोः मच्चरणयोः तव पतनम्' इति अपृच्छत् । स चेति स च पुरुषः तस्य जीवंधरस्य वचसो वचनस्य लाभेन लब्धः प्राप्तो महाप्रसादों यस्य तथाभूत इव बद्धाञ्जलिः सन् इत्थं निजगाद कथयामास - 'स्वामिन्! इतोऽस्मात्स्थानात् क्रोशना मारितो या प्रदेशः स्थानं तत्र निवेशित विद्यमानः शाटिका वारनिवावतीति विर्भुज, विद्यामठिकेति विद्याशालेति विद्यार्जनोत्सुकैर्विद्या क्योकैः, भोगानां पञ्चेन्द्रियविषयाणां भूभूमिरिति मोगापक्षिमिभगामिकारिभिः आस्थायिका समवसरणपरिषद् इति आस्तिकैः
२०
$ १७३. नन्तर जीवन्धरस्वामीके भय और वास्तविक भक्तिपरी कुंजीके द्वारा जिना - लय के कपाट स्वयं शीघ्र ही खुल गये । यह देख पास में रहनेवाला कोई मनुष्य, संतोष के अधिकतम भारको धारण करता हुआ, जीवन्धरकुमारके चरणों में आ पड़ा। उस समय उसके दोनों नेत्र प्रीति से विकसित हो रहे थे और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो जीवन्धरकुमार के चरणों में कमलों की अंजलि ही गिरा रहा हो । उसे देख लोकव्यवहारको जाननेवाले जीवन्धर २५ कुमार ने कुछ आदर दिखाते हुए उससे पूछा कि 'तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो ? और हमारे पैरोंमें तुम्हारा पतन किस कारण हुआ हैं ? पूछते समय जीवन्धरकुमार के दाँतों की किरणें दिख रही थीं जिससे वे ऐसे ज्ञान पड़ते थे मानो उसके समस्त शरीरको चाँदनीसे लिप्त ही कर रहे हों । जीवन्धरकुमारके वचनोंकी प्राप्ति होनेसे उस पुरुषको ऐसा लगा मानो उसे महाप्रसाद ही मिल गया हो। उसने हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा३० हे स्वामिन्! यहाँसे एक कोशकी दूरी पर स्थित क्षेमपुरी नामका एक नगर हैं। 'यह वैशवाटिका - वेश्याओंके रहनेका उद्यान है यह समझकर विट मनुष्य, 'यह विद्याका आयतन है' यह समझकर विद्यार्जन करनेमें उत्सुक विद्यार्थी, 'यह बाजार की गली हैं' यह समझकर व्यापारी, 'यह अतिथि सत्कारका निवास है यह समझकर अतिथि, 'यह भोगभूमि है' यह समझकर भोगोंकी इच्छा रखनेवाले, 'यह समवसरण है' यह
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१. ० ० ० आहितात्याद्दितभरत ।
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- जिनालयस्य कपाटविघटनवृत्तान्तः]
षष्टो लम्भः
२६.
गिरिदुर्ग इति क्षेमाथिभिः सेव्यः क्षेमपुरी नाम जननिवेशः । तत्र च प्रजापतिरधःपातिताखिलपृथिवीपतिः सुरपतिदेशीयो नरपतिदेवो नाम । तस्य च राजश्रेष्ठ स्य थेष्ठिपदप्राप्तः स्पर्शनशीलवेऽप्यकल्पितप्रदायित्वेन कल्पशाखिनं प्रज्ञाशालित्वेऽपि क्षमास्पदत्वेन बृहस्पतिमाढयत्वेऽप्यनुत्तरकाष्ठाश्रितधनिकतया धनदमप्यधःकुर्वन्सर्वगुणभद्रः सुभद्रो नाम । तस्माच्च तेजोधाम्नश्चन्द्रादिव चन्द्रिका पद्माकरादिव पद्मिनी पयःपयो धेरिव पङ्कजासना काचिदङ्गजा समज नि । सा चेन्दुमुखी ५ बन्धुजनप्रमोदेन सार्धमभिवृद्धा सांप्रतं प्रावृडिवोद्भिन्नपयोधरा सरांसि पित्रोर्मनसी कलुषयत्याकर्षश्रद्धालुमिः गिरिदुर्गः पर्वतदुर्ग इति क्षमार्थिभिः कल्याणार्थिमिः सेव्यः सेवनीयः क्षेमपुरी नाम जननिवेशः जनस्थानम् अस्तीति शेषः 'उल्लेखालंकारः 'एकस्यानेधोल्लेखो यः स उल्लेख उच्यते' इत्यभिधानात् । तत्र चेति- तन्न च क्षेमपुयाँ नगर्या च अधःपातितास्तिरस्कृता अखिल पृथिवीपतयो निखिलमहीपा येन सथाभूतः सुरपतिदेशीय इन्द्रकल्पः 'ईषदसमाप्ती कल्पप्देश्यदेशीयरः' इति देशीयप्रत्ययः । नरपतिदेवो १० नाम प्रजापती राजा अस्तीति शेषः। तस्य चेति-तस्य च राजसु श्रेष्ठस्तस्य नृपतिश्रेष्टस्य श्रेष्टिपदं प्राप्त इति श्रेष्ठिपदमातः स्पर्शनशीलत्वेऽपि दानस्वभावत्वेऽपि भकल्पितमयाचितं प्रददातीरयवंशीलस्तस्य मावस्तत्वेन कल्पशाचिनं सुरतरुम्, प्रज्ञाशालिस्वेऽपि बुद्रिविभूषितत्वेऽपि क्षमास्पदरवेन पृथिव्यास्पदत्वेन पक्षे शान्तिस्थानत्वेन बृहस्पति सुरगुरुम्, आख्यत्वेऽपि संपन्नत्वेऽपि नोत्तरकाष्ठाश्रितो नोदीचीदिशाधितो धनिकः कुचेरो यस्य तस्य भावस्तया पक्षे नोत्तरकाष्टाश्रिता नात्तमसीमस्थिता धनिका इस्या यस्य तस्य भावस्तत्ता १५ तया धनदमपि कुबेरमपि अधःकुन् तिरस्कुर्वन् सर्वगुणैर्भद्र इति सर्वगुणभद्रः सुभद्रो नाम अस्तीति शेषः । व्यतिरेका कारः । तम्माच्चेति-तेजसः प्रतापस्य धाम स्थानं तस्मात् तस्माच्च सुमद्रास चन्द्रापछशिनश्चन्द्रिकेत्र ज्योत्स्नेव पद्माकराकासारात् पमिनीव मृणालिनीव पयःपयोधेः क्षीरसागरात् पङ्कजासनेव लक्ष्मीरिव काचित् कापि अङ्गजा पुत्री समजनि । मालोपमा । सा चेति-इन्दुमुखी चन्द्रवदना सा चाङ्गजा बन्युजनप्रमोदेन सनामिजनहर्षेण सार्धम् अभिवृद्धा वृद्धिंगता साम्प्रतं प्रावृउिव वर्षतुरिव २० उहिलाः प्रकटाः पयोधरा मेघा यस्यां सा पक्षे उद्भिशी प्रकटौ पयोधरौ स्तनौ यस्यास्थाभूता सरांसि कासारान् , पित्रोर्मातापिनो मनसो कलुषयति मलिनयति युवान एवं शिखण्डिनस्तान् युवजनमयूरान् आकर्षयति च । तथा च श्रीहर्षचरिते-'उद्वेगमहावतें पातयति पयोधरोममनकाले। सरिदिव तटमनुवर्ष समझ आस्तिक-श्रद्धालु लोग और 'यह पहाड़ी दुर्ग है' यह समझ कल्याणके अभिलाषी मनुष्य इस नगरकी सेवा करते हैं। उस नगरीमें प्रजाका स्वामी तथा समस्त राजाओंको २५ नीचे गिरानेवाला इन्द्रतुल्य नरपतिदेव नामका राजा है। उस राजशिरोमणिके श्रेष्ठी पदको प्राप्त एक सुभद्र नामका सेठ है । वह सेठ दानशील होनेके कारण यद्यपि कल्पवृक्षके समान हैं तथापि कल्पवृक्ष संकल्पित पदार्थको देने वाला है और वह असंकलित पदार्थको देनेवाला है इसलिए अपने अकल्पितप्रदायो गुणसे वह कल्पवृक्षको तिरस्कृत करता रहता है। प्रज्ञा-विवेक बुद्धिसे सुशोभित होने के कारण यद्यपि बृहस्पतिके समान है तथापि बृहस्पति ३० क्षमास्पद नहीं है, स्वर्गास्पद है और सेठ क्षमास्पद---पृथिवीमें रहनेवाला है इसलिए अपने क्षमास्पदत्व गुणसे वह बृहस्पतिको तिरस्कृत करता है और धनाढ्य होनेके कारण यद्यपि कुबेरके समान है तथापि कुबेर उत्तर दिशामें रहनेवाला धनिक है और सेठ दक्षिण दिशामें रहनेवाला धनिक है इसलिए अपनी इस विशेषतासे वह कुबेरको भी तिरस्कृत करता रहता है । जिस प्रकार चन्द्रमासे चाँदनी, कमलाकरसे कमलिनी और क्षीरसागरसे लक्ष्मी उत्पन्न ३५ हुई थी उसी प्रकार तेजके स्थानस्वरूप उसे सेठसे कोई एक पुत्री उत्पन्न हुई है। वह चन्द्रमुखी कन्या बन्धुजनोंके हर्षके साथ बढ़ती हुई इस समय यौवनवती हुई है सो जिस प्रकार उद्भिन्नपयोधरा-प्रकट हुए मेघोंको धारण करनेवाली पावस ऋतु सरोवरोंको कलुषित
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गधचिन्तामणिः
[ १७४ क्षेमपुर्या यति च युवशिखण्डिनः । देवजास्तु तज्जन्मदिवस एव 'एतज्जिनभवनद्वाराररपुटस्य स्वयं विघटनं निकटगते यस्मिजाघटोति प्रकटितानुभावस्य तस्येयं पाणिगृहोतो' इत्यभाणिपुः । अहमपि तस्य विश्रुतमहिम्नो वैश्यपतेश्चक्षुष्यः कोऽपि भुजिष्यः । ततः प्रभृति तन्नियुक्तोऽत्र निवसन्नहं निर्वा
सितहृच्छल्यं प्रतीक्ष्य जगत्प्रतीक्ष्यं भवन्तं हृदयप्रभवदानन्दप्रारभारेण प्रणतवान्' इति प्रणिगदन्नेव 1 वणिज कर्णधारस्य कत्सिवमदःकथया कर्तुं ययौ।
१७४. सुभद्रोऽपि भद्रतरनिमित्तोपलम्भः पोनःपुन्येनानुस्मृतकन्यावृत्तान्तः क्वचिदेकान्ते कान्तया समम् “कि करोति स किकरेषु भद्रो गुणभद्रो य: कन्यावरपरीक्षणकृते संहसकूटजिनालये - कृतक्षणोऽभूत् । वामेतरभुजस्फुरणं विवृगोति शुभावाप्तिम् । अपि नाम कदाचिदवश्यं वरं
प्रवर्धमान! सुता पितरम् ।' देवजास्थिति-देवज्ञास्तु उपातिविदस्तु तस्या जन्मदिवस उत्पत्तिवासर१० स्तस्मिन्नेव 'यस्मिन् निकटगत सति एज्जिनभवनस्य द्वार प्रवेशमार्गस्तस्पाररपुरस्य कवाटपुटस्य स्वयं
स्वतो विघटनं जाघीति यहलुतप्रयोगः प्रकटिकोऽनुभावो यस्य तस्य प्रकटितमाहात्म्यस्य तस्येयं पाणिगृहीती भार्या भवेदिति शेषः पाणिगृहीती भार्याया' इति निपातनान्प्रयोगः । इति ममाणिपुः कथयामासुः। अहमपीति--अहमपि तब परो वर्तमानोऽपि विचको पहिशा : उत्य प्रसिदमाहाम्यस्थ
तस्य वैश्यपतेः चक्षुष्यः प्रीतिपात्रं कोऽपि भुजिप्यो दासः अस्मीति शंषः । ततः प्रभृतीति--तदारभ्य २५ तेन नियुकान्नियुक्तः भन्न निवसन मन्दिरमाझग निवसन् अहं निर्वासित तरीकृतं हृच्छत्यं येन तं
जगरतीक्ष्यं जगत्पूज्यं भवन्तं श्रीमन्तं प्रतीक्ष्य दृष्ट्रा हृदय चेतसि प्रभवन् य आनन्दमागमारः समूहस्तेन प्रणतवान् नमश्चकार' । इति प्रणिगदन्लेव कथयाव वणिजां वैश्यानां कर्णधारस्य प्रमुखस्य अमुष्यकथा अकथा तया जीवं घरबार्तया कत्सिवं श्रवणोल्लासं कर्तुं ययौ।
१७४. सुभद्रोऽसीति-भद्रसराणामतिश्रेष्ठानां निमित्तानां शकुनानामुपलम्मः प्राप्तिर्यस्य तथाभूतः २० सुभद्रोऽपि तन्नामा राजश्रेष्टयपि पीनःपुन्येन भूयो भूयोऽनुस्मृतोऽनुध्यातः कन्यावृत्तान्तः सुतोदन्तो येन
तथाभूतः सन् क्वचित् कुत्रापि एकान्त कान्तया भार्यया समम् 'यः कन्याया बरस्य धवस्य परीक्षणं तस्य कृते सहस्त्रजिनालये तन्नामजिनमन्दिरे कृतक्षणो दत्ताव परोऽभूत् किंकरेषु सेवकंपु भनः श्रेष्ठः स गुणभद्रः किं करोति विदधाति ! वामेतरस्य दक्षिणस्य मुजस्य स्फुरणं स्पन्दनं शुभावाप्ति विवृणोति प्रकटयति ।
कर देती है और मयूरोको आकर्षित करती है उसी प्रकार उद्धिन्नपयोधरा-प्रकट हुए स्तनोंको २५ धारण करनेवाली वह कन्या माता-पिताके मनोंको कलुपित कर रही है और तरुण पुरुषरूपी
मयूरोको आकर्षित करती है। परन्तु ज्योतिपियोंने उसके जन्मदिवस में ही कहा था कि
जिसके निकट आनेपर इस जिनालयके द्वारके किवाड़ स्वयं खुल जायंगे प्रकट प्रभाव के पनी धारक उसी पुरुषको यह (कन्या होगी । मैं भी प्रसिद्ध महिमाको धारण करनेवाले उस सेठका on प्रीतिपात्र एक सेवक हूँ। उसी समयसे लेकर उनके द्वारा निगन हो यहाँ रहता हूँ। आज ३० हृदयको शल्यको दूर करनेवाले एवं जगत्के द्वार! पूज्य आपको देखकर मैं हृदय में उत्पन्न
होनेवाले आनन्द के भारसे नम्रीभूत हुआ हूँ। यह कहता हुआ हो वह इस कथासे सेठके कानोंका उत्सव करने के लिए चला गया।
. १७४. उधर सुभद्र सेठ भी उत्तमोत्तम निमित्तके मिलनेसे बार-बार कन्या के अन्त:बाकपुरका स्मरण करता हुआ किसी एक स्थानपर अपनी स्त्रीके साथ विचार कर रहा था कि ३५ किंकरों में श्रेष्ठ वह गुणभद्र जो कि कन्याके बरकी परीक्षा करने के लिए सहस्रकूट जिनालयमें नियुक्त किया गया था क्या कर रहा है ? दाहिनी भुजाका फड़कना शुभ प्राप्तिको सूचना
१. का० ख० ग० नतवान् । २. म० भद्रतरनिमित्तोपलम्भं ।
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- जिनालस्य कपाटविघटनवृत्तान्तः षष्ठो लम्भः
२६३ पश्येत्' इति पारवश्यं कर्कशं वितर्कयन्नकितागतिना गुणभद्रेण पवित्रकुमारस्य त्रिजगत्स्वामिजिनभवनाभ्यागमनमाकार्णव इवेन्दोरमन्दसंभ्रमः श्रवणयोस्तद्वचःश्रवणं चरणयोः प्रयाणत्वरा नयनयोरानन्दाश्रुधारां च कुर्वाणः पाणिद्वयापितद्रबिणराशिना गुणभद्रं दारिकावरवार्तया दारान्सस्नेहनिरीक्षणेन सनाभीश्च संभावयन्नपूर्विकासमेतमितेतरान्तिकचरः कुमारान्तिकमभ्यगमत्, अपश्यच्च भक्तिपरतन्त्रं श्रीजिनेन्द्रसपर्यापर्युत्सुकं विजयावत्सं जैनजनवत्सलः स धर्मवात्सल्यावजितप्रीतिवैश्य- ५ पतिः । अचिन्तयच्चायम् 'अतिप्रगल्भमधुरदृष्टिविक्षेपलीलादशिताकाण्डपुण्डरीकवनविकासविभ्रमं अपि नाम संभावनायां कदाचिन जातुचिद् अवश्यं वरं कन्यावल्लभ पश्येत्' इतीत्थं कर्कशं कठिनं पारवश्यं पारतन्त्र्यं वितर्कयन् विवारयन् अतर्कता अविचारिता आगतिर्यस्य तेन गुणभद्रेण सेनकेन पवित्रकुमारस्य जीबंधरस्य विजयस्वामिज्ञिनस्य त्रिलोकोपतिजिनेन्द्रस्य भवनं मन्दिरं तस्यान्त्रणे निकटे आगमनम् आकण्य श्रवा इन्दोश्चन्द्रमसः अर्णव इव सागर इव अमन्दः संभ्रमो यस्य तथाभूत: सन् श्रवणयोः कर्णयोः । तस्य गुणभद्रस्य वांसि वचनामि तेषां श्रवर्ण समाकणनम्, चरणयों: पादयोः प्रयाणस्वरां गमनशीघ्रताम्, ' नयनयोने वयोः भारदाधारां च हर्याधुसन्तति च कुर्वाणः पाणिद्वयेन करयुगलेनार्पितो प्रदत्तो यो दविणराशिधनराशिस्तेन गुण भदं शुभसमाचारदातारं सेवकं दारिकायाः कन्याया रस्तस्य वार्तया समाचारेण दारान् स्त्रियम् , सस्नेई यन्निरीक्षणं तेन समोत्यवलोकनेन सनामीश्च सदोदरांश्च संभावयन् सत्कुर्वन अहंपूर्विकया समेताः समागतामितेतरा अप्रमिता अन्ति रुचर' यस्य सः, कुमाररान्तिकं जीवंधराभ्यर्णम् १५ अभ्यगमत् अमिजगाम । अपश्यच्च व्यलोकयच्च जैनजनेषु वत्सलः स्नेहयुक्त इति जैनजमवत्सलः, धर्मचारसल्येन धर्मस्नेहनावनिता पृता प्रीतियन तथाभूतो वैश्य पतिः सुभद्रो राजश्रेष्ठी भकिपरतन्त्रं मतिनिघ्नं श्रीजिनेन्द्रस्य सपर्यायां पूजायां पर्यु सुकः पर्युरकण्ठितस्तं विजयावत्सं जीवधरम् । अचिन्तयर वायमितिअयं सुभद्रः अचिन्तयच्च ध्यचारयच्च अमुन्य जीवधरस्य वपुः शरीरं न केवलम् आमुप्यायमाणत्वमेव नडादित्वात् फक्, 'आमुल्यायणामुष्यपुत्रिकामुष्यकुलिकति च' इति षष्टया अलुक् अमुष्यापत्यं पुमान् २० आमुध्यायणस्तस्य मावस्तत्त्वं कुलीनस्वमेव न केवलं मात्रम् आचरे कथयति केवलार्कोदयस्थानतामपि कंवलज्ञानादेनकरोदयस्थानतामपि अनक्षरं सूरणीं यथा स्यात्तथा आचष्टे । अथ वपुषो विशेषणान्याहअतिप्रगल्भेति-अतिप्रगल्भा गम्भीरा मधुरा मनोहारिणी च या दृष्टिस्तस्या विक्षेपस्य प्रसारस्य लीलया शोमया दर्शितः प्रकटितोऽकाण्डपुण्डरीकवनविज्ञापस्याकालिककमलवनविकासस्य विभ्रमः सन्देहो येन दे रहा है। संभव है कि वह कभी अवश्य ही वरको देखेगा। यह विचार करते समय वह २५ वरकी प्राप्तिविषयक परवशताको कठोरताका भी चिन्तन करता जाता था। उसी समय अकस्मात् आये हुए गुणभद्र सेवकसे श्रीजीवन्धरकुमारका तीन लोकके नाथ श्रीजिनालयके समीप आना सुनकर चन्द्रमासे समुद्र के समान अत्यधिक संभ्रमको धारण करनेवाला राजा, कानों में उसके वचन श्रवण करनेको, पैरोंमें गमनसम्बन्धी शीव्रताको, और नेत्रों में आनन्दके आँसुओंकी धाराको धारण करता हुआ कुमारके समीप चला। उस समय उसने दोनों ३० हाथोंसे प्रदत्त धन की राशिसे गुणभद्रका, 'पुत्रीका वर आ गया है-इस समाचारसे स्त्रीका और स्नेहपूर्ण दृप्रिसे बन्धुजनोंका अच्छा सत्कार किया। 'मैं पहले पहुँचू , मैं पहले पहुँचू' इस होड़के कारण अपरिमित सेवक उसके साथ आ मिले । जैनजनवसल एवं धर्मवात्सल्यसे प्रीति को धारण करनेवाले सेठने वहीं पहुँचकर भक्तिसे परतन्त्र और जिनेन्द्र भगवान्की पूजामें उत्सुक जीवन्धरकुमारको देखा। सेट विचार करने लगा कि जो अत्यन्त प्रगल्भ ३५ और मधुर दृष्टिके विक्षेपकी लीलासे असामयिक कमलवन के विकासकी शोभाको दिखला
१. म. पारवश्यकर्कशम् ।
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गग्रचिन्तामणिः
[ १७४ क्षेमपुर्या - वैदग्ध्यलास्यविद्याललितभ्रलतं दन्तकान्तिचन्द्रिकारितविद्रमपाटलरदनच्छदमुन्मष्टचामोकरमुकुरतुलितकपोलमजुतुङ्गकोमलदोर्धनासिकं विगाढलक्ष्मोभुजलतावेष्टनमार्गानुकारिकण्ठरेखमंससंसक्तकर्णपाशं शौर्यशिबिरोत्तम्भितस्तम्भसब्रह्मचारिमनोहरांसबाहुलतं कमलाकर्णावतंसकङ्केलिकिस
लयसुकुमाररुचिरकरशाख व्यक्त श्रीलक्ष्मविकटवक्षःकबाटममृतसरिदावर्तसनाभिनाभिमण्डलं नख दिन५ मणिनिष्यन्दिकिरणविकासिचरणतामरसद्वन्द्वं कन्दमिवानन्दस्य प्ररोहमिवोत्सवस्य पल्लवमिवोल्लासस्य कुसूममिव मङ्गलस्य फलमिव मनोरथस्य न्यञ्चत्काञ्चननगालोकमति लोकं वपुरमुष्य तावदामुष्यायणत्वमेव न केवलं केवलादयस्थानतामध्यनक्षरमाचष्टे' इति । तत्, वैदग्ध्येति–वैदग्ध्यस्य चातुर्यस्य या लास्थविद्या नृत्यविद्या सया कलिने मनोहरे भूलते भ्रफुटिवस्कयौं
यस्मिस्तत्, दन्तेति-दन्तकान्तिरेव दशनदोप्ति रेव चन्द्रिका को मुदी तया बिच्छुरितो व्याप्तो विद्रुमपाटल: १० प्रवालश्वेतरक्तवर्णो रदनच्छद ओष्ठो यस्मिस्तत्, उन्मृष्टेति--उस्मृष्टौ स्वच्छीकृतौ यो चामीकरमुकुरी
सुवर्णदर्पणौ ताभ्यां तुलितो कपोको यस्मिन् तत्, ऋग्विति-ऋत्री सरला, तुङ्गा सूमता, कोमला मृदुला, दीर्वायता च नासिका घ्राणं यस्मिन् तत् , निमो-निशा निविदा मीभजत तामाः श्रीबाहुबली वेष्टनं समालिङ्गनं तस्य मार्गस्थानुसारिण्यः सदृश्यः कण्ठरेखा प्रोबारेखा यस्मिन् तत्, अंसेति-~-ससंसक्ती स्कन्धालग्नौ कर्णपाशी यस्मिन् तन्, शौति-शौर्य शिबिरस्य पराक्रमस्कन्धावारस्योतम्भिता उत्थापिता ये १५ स्तम्मास्तेषां सरह्मवारियौ सदृश्यो मनोहरांसे सुन्दरसकन्धे बाहुलते यस्मिन् वत्, कमलेति--कमलाया लक्ष्म्याः कविसं सौ कर्णाभरणभूतौ यो कङ्केलिकिसलयावशोकरल्ल बौ तदरसुकुमारा मृदुला रुचिराश्च मनोहराश्च करशाखा हस्ताङ्गलयो यस्मिन् तत् । व्यति-व्ययं प्रकरितं श्रिया लक्ष्भ्या चिह्न यस्मिन् तथाभूतो विकटो विशालो वक्षःस्वाटो यस्मिन् तत्, अमृतेति-अमृतसरितः सुधास्त्र वस्या आवतों भ्रमस्तस्य सनाभि सदृशं
नाभिमण्डलं तुन्दीयो यस्मिन् तत्, नखेति--तला एक दिनमणः सूर्यास्तेभ्यो निप्यन्दिनो ये किरणा २० मयूखास्तैर्विकासि प्रोत्फुल्लं चरणतामर पद्धन्द्धं पादामघुगलं यस्मिन् तत्, आनन्दस्य प्रमोदस्य कन्दलमित्र,
उत्सवस्योद्धवस्य प्ररोहमिवार मित्र, उल्लासस्य पल मिर किसलयमित्र, मङ्गलम्य कुसुममित्र, मनोरथस्य फलमित्र न्यश्च नामपन् काम्वननगस्य स्वर्णादेरालोको येन तत्, लोकमतिक्रान्तमतिलोकं लोकश्रेष्ठम् ।
रहा है, जिसको भ्रकुटीरूपी लता चातुर्य की नृत्यविद्यासे सुन्दर है, जिसके मूंगाके समान २५ श्वेत रक्त ओष्ठ दाँतोंकी कान्तिरूपी चाँदनीसे व्याप्त हैं, जिसके कपोल साफ किये हुए स्वर्ण
निर्मित दर्पणके समान हैं, जो सीधी, ऊँची, कोमल एवं लम्बी नाकसे सहित है, जिसके कण्ठकी रेखाएँ आलिंगनको प्राप्त लक्ष्मीके भुजलताके लिपटने के मार्गका अनुकरण कर रही हैं, जिसके कर्णपाश कन्धोंसे सटे हुए हैं, जिसकी मनोहर कन्धोंसे युक्त भुजलताएँ पराक्रम
का शिविर लगाने के लिए खड़े किये हुए खम्भों के समान हैं, जिसकी सुन्दर अँगुलियाँ ३० लक्ष्मीके कर्गाभरणस्वरूप अशोकके पल्लवोंके समान सुकुमार हैं, जिसका विशाल वक्षः
स्थलरूपी किवाड़ प्रकट हुए लक्ष्मीके चिह्नके सहित है, जिसका नाभिमण्डल अमृतकी नदीके भँवरके समान जान पड़ता है, जिसके चरणरूपी कमलोंका युगल नखरूपी सूर्य से निकलनेवाली किरणोंसे विकसित है, जो मानो आतन्दका कन्द है, उत्सवका अंकुर है,
उल्लासका पल्लव है, मंगलका फूल है, मनोरथका फल है, जिसने सुमेरुके प्रकाशको तिरस्कृत३५ कर दिया है, तथा जो लोकको अतिक्रान्त करनेवाला है ऐसा इनका शरीर न केवल इस
लोकसम्बन्धी गौरवको प्रकट कर रहा है किन्तु केवलज्ञानरूपी सूर्यके उदयको स्थानताको भी चुपचाप कह रहा है।
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- जिनाल यस्य कपाटविघटन वृत्तान्तः ] षष्ठो लम्भः
२६५ ६ १७५. ततश्च नातिचिराद्विरचितपरमेश्वरापचितिमवलोक्य तं कुमारमुचितोपचारैराराध्य पुनराराद्वर्तिनः कस्यचिदकठोरकङ्केलितरोरतुच्छच्छायायां शौक्तिकजालवालुकमनोजे हृदयशान्ति क च रसत्वरसमीकृतेस्थले कुमारमन्त्रासीनः कुबेरदेश्यो वैश्यपतिर्वात्सल्पीत्तुक्य कौशलशंसिकुशलपरिप्रश्नादिना मुदितहृदये विदितवृत्तान्ते च भवति विजयानन्दने नपचपांमृत्करदुःसहाध्वन्यावश्रमाश्रितविश्व जनपदपथिकनिबिडितपादपमूले क्वथितसलिलसर:पराचीनतृष्यत्पतनिणि मृग- ५ मष्णिकालितभृगकुले ललाटतपे भवत्यम्बरमणी कुरुकुल शिखामणये गुरुतरनिजमुखप्रसादकाठोक्ता
१७५. ततश्चेति–ततश्च तदनन्तरं च, नासिचिरात नातिविम्वेन विरचिना कृता परमेश्वरस्यापचितिः पूजा येन तथाभूतं तं कुमारं जीवंधरम् अवलोक्य दृष्ट्वा उचितोपचारोग्योप बारः आराध्य संसेव्य पुनः भारावर्तिनी निकटस्थितस्य कस्यचित् कस्यापि अकोरकङ्कलितरोः कोमलाशोकपादपस्य अनुच्छच्छायायां विशालानात 'छाया सूर्यप्रिया कान्तिः प्रतिबिम्बमनानपः' इत्यमरः । बालुकानां समूहो बालुकं शॉनिक- १० जालस्य मुक्तासमूहस्प वालुकं तेन मनोज्ञे मनोहरे हृदयशश्वासाबन्तिकचरश्चेति हृदयज्ञान्तिकचरो हृदयाभिप्रायज्ञसेवकस्तेन सत्वरं सशैघ्यं समीकृते स्थले म्याने कुमारमनु कुमारानन्तरम् अ.सीन उपविष्टः कुबेरदेश्यो धनपतिकल्पो श्यपतिः सुमनः श्रेष्ठी वात्सल्यं सस्नेहस्वम् औत्सुक्यमोत्कण्ट्यं कौशलं चातुर्य च शंसति सूचयति तथा शीलः यः कुशलपरिप्रश्नः कुशलायोगः स भादौ यस तेन विजयानन्द ने जीबंधारे मुदितं हृदयं यस्य तथाभूते प्रसन्नचेतसि, विदितो वृत्तान्तो येन तथाभूते विज्ञातसमाचारे च भवति, नखम्पचेति-- १५ मसं पचतीति नखम्पन्च तथाभूतो यः पांसूझरो धूलिसमूहस्तेन दुःसहोऽध्वा मागों येन तस्मिन् , आधअमेति--आवश्रमण मा सम्बन्धिखेदेन भाश्रिताः समीपमागता ये विश्वजनपदधिका निखिल देशाबगा
निविदितं सान्नं पादपमूलं वृक्षमूलं येन तस्मिन् , क्वधितेति--स्वथितं पच्यमानं सलिलं यस्य तथामृतं यत्सरः कासारस्तमालपरसचीनाः पराडमुखा पतत्रिगः पक्षिणो येन तस्मिन् , मृगतृपिणकेति---मृगतृहिणकया मृगमरीचिकयाकुलितं व्यग्र मृगकुलं हरिणसमूहो येन तस्मिन् , तथाभूतेऽम्बरमणौ सूर्य ललाटसप २० भालत ने सति, कुरुकुलशिखामणये कुरुवंशप्रधानाय जीवंधराय गुरुतरो विपुलतरो यो निजमुहस्य स्वकीयवदनस्य प्रसादस्तेन कण्ठो का स्पष्टमुक्तां निजोरकण्ठां स्त्रोत्सुकता पुनरुतामिव पुनरुदीरितामिव
१७५. तदनन्तर कुछ समय बाद जिन्होंने परमेश्वरकी पूजा पूर्ण की थी ऐसे जीवन्धर कुमारको देखकर सुभद्र सेठने योग्य उपचारोंसे उनकी सेवा की। तत्पश्चात् वह समीपमें स्थित किसी सुकोमल अशोक वृक्षकी विशाल छाया मोतियोंकी बालू से मनोहर एवं हृदयको २५ जाननेवाले सेवकके द्वारा शीघ्र ही समतल किये हुए स्थलमें कुमार के साथ बैठा। तदनन्तर वात्सल्य, औत्सुक्य और कौशलको सूचित करनेवाले कुशल-प्रश्न आदिसे जब जीवन्धर कुमार प्रसन्नचित्त एवं सब समाचारोंके ज्ञाता हो गये तर, जिस समय नस्त्रीको पकानेवाली धूलिके समूहसे मार्ग दुःसह हो गया था, मार्ग सम्बन्धी थकावटसे आगन समस्त देशों के पथिकोंसे वृक्षों के मूल तल व्याप्त हो रहे थे, खौलते हुए जलसे युक्त सरोवरोंसे जब ३० प्यासे पक्षी वापिस जा रहे थे, और मृगमरीचिकाके कारग जब मृगोंके झुण्ड व्याकुल हो रहे थे ऐसे मध्याह्न के समय सूर्य के ललाटंतप होनेपर कुरुवंशके शिखामणि स्वरूप जीवन्धरकुमारके लिए उसने अपनी उत्कण्ठा प्रकट करना शुरू की। उस समय सेठको वह उत्कण्टा उसके मुखकी बहुत भारी प्रसन्नतासे स्वयमेव प्रकट हो रही थी इसलिए उस को यह चेष्टा
१. म. समीकृतस्थले।
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गयचिन्तामणिः [१७५ जीबंधरस्य क्षेमश्रिया सहनिजोत्कण्ठां पुनरुक्तामिव विवने--'कुमार, मयि ते प्रेमकारणमपरमास्ताम् । आस्तिकचूडामणे, तावदनिषेध्यमेवेदं स्वयूथ्यत्वम् । अतस्त्वया मे प्रार्थनावैमुख्येन न सख्यं विहन्तव्यम् । अनुमन्तव्यमेवास्मदावसथे दिवसोचितविधि विधातुम्' इति । सोऽप्यसुप्रणयिनामप्यथितामसमर्थो भवन्विहन्तुमत्याहितवृत्तः सात्यंधरिः 'अस्त्वेवम्' इत्यन्वमस्त ।
१७६. ततश्च सर्वगुणपद्रः पवित्रकुमारोऽयं गुणभद्रप्रसारितं पाणि पाणौ कुर्वन्सर्वंसहायाः सहेलमुत्थाय कायरोनिःप्रतिहतसहसरोचिः सहसकूटजिनालयं सहसशः परीत्य प्रणिपत्य च पुनरप्यतृप्त एव तन्निकटात्सुभद्रनिरोधाद्धटद्धाटककूटकोटिपिनद्धध्वजपटपाणिपल्लवेन क्षेमश्रीवल्लभविववे कथयामास--'कुमार ! मयि विषयाथें सप्तमी ते तव अपरमन्यत् प्रेमकारणम् प्रीतिनिमित्तम्
आताम् दूर पसंताम् । ति मातय त आस्तकाम्लेषां चूडामणिः शिरोमणितत्सम्बुद्धौ हे आस्तिक१० चूडामणे ! इदं वर्तमानं स्पयूथ्यत्वं स्त्रम्य यूथे समाजे भयः स्वयूयस्तस्य भाषस्तत्वम् ससामाजिकरवं
तावासाकल्येन अनिषेप्रमेव निपेक्षुमनहमव । अतो हेतोरूवया मे प्रार्थनाया वैमुग्यं तेन प्रार्थनानङ्गीकारेण सख्यं मैत्री न निहन्तव्यं न खण्डनीया। अस्मदावसथे मद्भवने दिवसोचितविधि दिनोनितमोजनादिव्यापार विधातुं कर्तुम् अनुमन्तब्यमेव म्बीकरणीयमेव' । इति । सोऽपाति--प्रत्याहितं वृत्तं यस्य तथामृत:
पूर्णवृत्तः स पूर्वोक्तः सायं परिररि जीवंबरोऽपि भसुप्रणयिनामपि प्राणाधिनामपि अर्थिता यामा विहन्तुं १५ खण्डयितुम् असमर्थो भवन् ‘एवं भन्दुतम् अस्तु' इति अम्बमस्त स्त्रीचकार ।
६.१ ६. ततश्चेति--ततश्च तदनन्तरं च सर्वगुणेमंद्र इति सर्वगुणभद्रो निखिलगुणश्रेष्टः अयं पवित्र कुमारी जीपंधरी गुणभद्रेग सुभद्रसेबकेन प्रसारितं पाणि करं पागौ करे कुर्वन् सर्वसहायाः पृथिव्याः सहेले सक्रारम उत्थाय कायस्य शरीरस्य रोचिभिः किरणैः प्रतिहतं सहस्ररोत्रिः सूर्यो येन तथाभूतः सन्
सहस्रकूटजिनालयं तन्नामजिनायतनं सहस्रशोऽनेकशः परीत्य परिक्रम्य प्रणिपस्य च नमस्कृत्य च पुनरपि २० भूयोऽपि अतृप्त एवासंतुष्ट एव तन्निकटात्सहस्रकूटजिनाकयाभ्यात सुमद्रनिरोधात् श्रेष्टीहठात् अति भद्रश्वासौ
सुमद्रवेत्यतिभदसुभद्रस्तस्य सदस्य गृहस्योद्देशः स्थान वेशपुरन्ध्रीणां बारबनितानां नेत्रप्रजेन नयन. निकुरम्बेण विरचिता निर्मिता या विविधतोरणव जो नानातोरणमालाः समतीत्य समुल्लङ्घय समासदत् भाप । अथ सुभद्रसदनोद्देशं विशेषयितुमाह- हटधाटकेति--हटन्ति देदीप्यमानानि यानि हाटककुटानि
पुनरुक्तके समान जान पड़ती थी। सेठने कहा कि हे कुमार ! मुझपर आपके प्रेमका दूसरा २५ कारण रहे यह ठीक है परन्तु हे आस्तिकशिरोमणे! आप हमारे सहधर्मा भाई है. इसका
निषेध तो नहीं किया जा सकता। अतः मेरी प्रार्थनाको ठुकराकर आपको मित्रताका विघात नहीं करना चाहिए। हमारे घर दिनके योग्य विधि-भोजनादि कार्य करनेको स्वीकृति देना चाहिए । सदाचारको धारण करनेवाले जीवन्धरकुमार प्राणोंकी याचना करनेवालों की
भी याचनाको खण्डित करने में समर्थ नहीं थे फिर सेठकी उक्त प्रार्थनाको खणित करना ३० तो दूर रहा अतः उन्होंने 'एवमस्तु' कह उसकी प्रार्थना स्वीकृत कर ली।
६१७६. गुणांसे श्रेष्ट जीवन्धर कुमार, गुणभद्र सेठके द्वारा फैलाये हुए हाथको अपने हाथमें ले पृथिवीसे अनायास ही उठ खड़े हुए। उस समय वे अपने शरीर की कान्तिसे सूर्यको तिरस्कृत कर रहे थे । उठकर उन्होंने सहस्रकूट जिनालयकी अनेक प्रदक्षिणाएँ दी,
श्री जिनेन्द्रदेवको बार-बार प्रणाम किया और तदनन्तर अतृप्त दशामें ही सुभद्रसेठ के आग्रह ३५ वश जिनालय के पाससे चल दिये । तत्पश्चात् वेश्याओंके नेत्र समूहसे विरचित नाना प्रकारको तोरणमालाओंका उल्लंघन कर वे मंगलमय सुभद्र सेठके घरके उस स्थानपर जा पहुँचे
१. क ख ग 'व' मास्ति ।
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- विवाहवृत्तान्तः] षष्ठो लम्भः
२६७ मिवामन्त्रयमाणं मान्द्रचन्द्रातपातितायिनन्द्रशालानिलिप्तनिरतिशयरत्नविसरविसपिकिरणप्रकरेगेव प्रतिगृह्यन्तं प्रसभोपसर्पदतिघोरपौरपदप्रचारप्रभवस्तनितानुकारिणितश्रवणारब्धताण्डवगृहशिखण्डिवृन्देन स्वयमप्यमन्दादरादानन्दनृत्तमिवारचयन्तमत्यादैरधात्रीमुखाणितसुभद्रसुताभर्तृसान्निध्या मेडितहर्षकोडाकी रविरावमिषेणाशिषमिव प्रयुञ्जानम्, पुजमित्र संपदः, पूर्तिमिव शोभायाः, मूर्तिमिव कोलाहलस्य, अतिभद्रसुभद्र सदनोद्देशं निरवकाशितजननिवेशं वेशपुरधोनेत्र- ५ अजविरचितविविधतोरणसूजः समतीत्य समासदत् ।
१७७. तत्र च सुभद्र सुतासौभाग्यगृहोत्तम्भितस्तम्भसदृशोरस्तम्भशोभोपलम्भलम्पटता
म्वर्णशिखराणि तषां कोटिप्वग्रभागेपु पिनद्धः संलग्नो यो धजपटो जयभीयस्त्रं स एव पाणिपल्लवः करकिसलयस्तंन क्षेमश्रीवल्लभं क्षेमश्रीपतिम् आमन्त्रयमाणमिव समानतमिव, सान्द्रेति--चन्द्रशालायामुपरितनप्रदेशे निलिमानि रचितानि यानि निरतिशयरत्नानि निरुपममणयस्तपां विसरस्य समूहस्य १० विसर्पिणः प्रसरणशीलाः ये किरणास्तेषां प्रकरः समूहः, सान्द्र चन्द्रातमाशायी सबनज्योत्स्नापराभवी यश्चन्द्रशाळानिलिप्तनिरतिशयरत्नरिसरबिसपिकिरणप्रकरस्तन प्रतिगृह्यन्तम् अग्रे गत्वा स्वीकुर्वन्तमिव, प्रतमं हठादुपसर्पन्तः समीपमागच्छन्तो ऽतिघोरपोरा अत्यधिकपुरवासिपुरुपास्तेषां पदानां चरणान प्रचारेण प्रभवं समुत्पन्नं यत् स्तनितानुसारि मेघगर्वितानुकारि रणितमन्यन शब्दविशेषस्तस्य श्रवणेनाख्वताण्डवं यद् गृहशिखपिडवृन्दं गृहम यूरनिकुरम्बं तेन स्वयमपि अमन्दादराप्रचुरगौरवात् भानन्दनृत्तम् १५ भारचयन्नमित्र, अत्यादरेति-अत्यादराः प्रचुरादरयुका या धाध्य उपमात रस्तासां मुखेन वक्त्रेण आकर्णितं श्रुतं यत् सुभद्रसुनामतुः क्षेमश्रीवाल मरय सानिध्यं सामीप्य तेनाद्वितो द्विगुणिती हों येषां तथाभूता ये कोडाकाराः केलि शुकास्पां बिरामिण शब्दव्याजेन आशियं प्रयु जागतिव शुभाशीर्वाद ददतमिव, संपदः पुजमिन समूह मिष, शोभायाः पूर्तिमित्र, कोलाहलस्य मूर्तिमिव, निरव काशितोऽवकाशशून्यीकृतो जननिवेशो जनस्थानभूमियस्मिंस्तम् ।।
१७. तन्त्र चेति-तत्र च सुभद्रसदनोद्देशे सुभवसुतायाः क्षेमश्रियाः सौभाग्यमेव गृहं तस्योतम्भिता: उत्थागिता ये स्तम्भास्तेषां सहशाः समाना ये ऊरुस्तम्माः सक्थिस्तम्भास्तेषां शोभायाः सौन्दर्य
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कि जो देदीप्यमान स्वर्णक शिखरोंपर लगी पताकाओंके चमारूपी हस्तपल्लबसे क्षेमश्रीके पतिको बुलाता हुआ-सा जान पड़ता था। सघन चाँदनीको अतिक्रान्त करनेवाली चन्द्रशाला-उपरितन भागमें चित्त श्रेष्ठतम रत्नसमूहको फैलनेवाली किरणों के समूहसे जो २५ अगवानी करता हुआ-सा प्रतीत होता था। जबर्दस्ती पास में आनेवाले अनेक नागरिकों की पदध्वनि रूप मेघ गर्जनाके सुननेसे ताण्डव नत्यको प्रारम्भ करनेवाले गृहमयूगेंके समूहसे जो स्वयं भी बहुत भारी आदर के साथ आनन्द नृत्यको रचता हुआ-सा जान पड़ता था। अत्यन्त आदरसे युक्त धायोंके मुखसे सुने हुए जीवन्धरकुमार के सानिध्यसे द्विगुणित हर्षको धारण करनेवाले क्रीड़ाकों के शहोंके बहाने जो मानो आशीवाद ही दे रहा था। जो ३० मानो सम्पत्तिका पुंज था, शोभाकी पूर्ति था, कोलाहलकी मूर्ति था, और जहाँ मनुष्योंके बैठने के स्थानमें अवकाश समाप्त हो गया था।
६ १७७. यहाँ सुभद्रसुताके सौभाग्य गृहके लिए खड़े किये हुए खम्भोंके सदृश जाँध
१. म० पौरपदप्रचुरस्तनित । २. क० ग० अत्यादराद् धात्रीमुख । ३. क० ग० अतिभद्रः ।
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२६८
गद्यचिन्तामणिः १७७ जीवंधरस्य क्षेमश्रिया सह - प्राप्तैरिव रम्भास्तम्भनिकरैर्नीरन्ध्रिता: पुरंध्रोवातविधीयमानविविधालंकृतीरहपूर्विकागच्छद्विश्रुतविश्ववैश्यदश्वमानप्रवेशासरा नैकद्वारभुवः क्रान्त्वा कुमारः क्वचिदन्तर्गहं करगृहीतजाम्बूनदताम्बूलकरण्डादर्शकलापिकेलिकोरसारिकाप्रमुखाणाम्,संमुखागतं क्षेमश्रीवल्लभमत्यादरादन्योन्यमगुलोनिर्देशेन दर्शयन्तोनां प्रियसखीनां मध्ये स्थितां क्षेमश्रियं थियमिव साक्षाल्लक्षयन्, तदक्षिशरलक्षीकरणादक्षमा च तया सविभ्रमाकुचित चारुभूलताचापनिर्गतेन हृदयभेदनपेशलनिशित नेत्रपत्रिणा विद्धो भवन्, हृदयलग्नभल्लशल्य इवायल्लकभरास्पदीभूतः पदमपि गन्तुमपारयन्नपारत
स्योरलम्भः प्राप्तिस्तस्य लम्पटतया प्राप्तास्तैरिव रम्मास्तम्भनि करींचास्तम्भसमूहै: नीरन्धिता निशिद्विताः, पुरन्ध्रीमातेन स्त्रीसमूहन विधीयमानाः क्रियमाणा विविधालंकृतयो यासु ताः अहंपूर्विकया आगच्छन्तो
विश्रुताः प्रसिद्धा ये विश्यवैः निखिलोर पापलेटमा सीमागः प्रशासरी यासु ताः नैकद्वारभुवी १० नानानवेशमार्गभूमीः कान्त्वा समुल्लङ्घय कुमारो जीवकः क्वचित् कुत्रापि गृहस्य मध्य इत्यन्तगृहम्
गृहमध्ये जाम्बूनदनाम्बूल करण्द्धश्च स्वर्णनिर्मितताम्बूलवीटिकाधानं च, आदर्शश्च दर्पणश्च, कलापी च मयूरश्च, केलिकीरश क्रीडाशुकश्च, सारिका मदनिका चेति द्वन्दः ते प्रमुखा येषां ते जाम्बून दताम्बूलकरण हादयः करगृहीता जाम्वृनदताम्बूलकरगडादयो याभिस्तासाम्, संमुखागतं क्षेमश्रीवल्लभम्, अस्यादरात् भूयिष्टगौर
वात् अङ्गकी निदेशेन करशाबासक्रेतेन अन्योऽन्यं परस्परं दर्शयन्तीनां प्रियसखीनां प्रियसहचरीणां मध्ये १५ स्थितां विद्यमानां क्षेमश्रियं साक्षात श्रियमिव लक्ष्मीमिव लक्षयन् पश्यन् तस्य जीवंधास्याक्षिशरेण
मैत्रशणेन लक्ष्याकरणात् शरब्यकरणात् अक्षमया असमर्थया 'ध तया क्षेमश्रिया सविमं यथा स्यात्तथा आकुञ्चितो व क्रीकृतश्चारुलतैव चापस्तस्मान्निर्गतेन हृदयस्य चित्तस्य भेदने विदारणे पेशलो दक्षो निशिततीक्ष्णो यो नेत्रपत्री नयनबाणतेन विद्धो विदीर्णो भवन हृदये लग्नं खचितं भल्ल शल्यं कुन्ताप्रशङ्कर्यस्य तथाभूत इब आयल्लकारस्य कष्टातिशयस्यास्पदीभूतः स्थानीभूतः पदमपि गन्तुमपारयन् अशकवन्
२० रूपी स्वम्भीकी शोभाको प्राप्त करनेके लोभसे आगत केलेके खम्भों के समूहसे जो व्याप्त
थी, सौभाग्यवती स्त्रियोंके द्वारा जहाँ नाना प्रकारकी सजावट की जा रही थी और "हम पहले प्रवेश पा लें' इस भावनासे आते हुए समस्त प्रसिद्ध वैश्यों द्वारा जिनमें प्रवेशके योग्य अवसरकी प्रतीक्षा की जा रही थी ऐसे अनेक द्वारोंकी भूमिको उल्लंघन
कर जीवन्धरकुमारने कहीं घरके भीतर प्रियसखियोंके मध्य में स्थित साक्षात् लक्ष्मी२५ के समान जान पड़ने वाली क्षेमश्रीको देखा। उस समय क्षेमश्रीकी सखियाँ अपने हाथों में
स्वर्णनिर्मित पानकी डिबिया, दर्पण, मयूर, क्रीड़ा शुक तथा मैना आदिको लिये हुई थी और सामने आये हुए क्षेमश्रीके पतिको बहुत भारी आदरसे परस्पर अंगुलियों के संकेतसे दिखला रही थी । जीवन्धरकुमारके नेत्ररूपी बाणका निशाना बनलेसे श्मश्री भी क्षमा खो बैठी
इसलिए उसने भी विलासपूर्वक टेढ़ी की हुई सुन्दर भ्रकुटीलतारूपी धनुषसे निकले एवं ३. हृदयके भेदन करने में समर्थ तीक्ष्ण नेत्ररूपी बाणसे जीवन्धरकुमारको घायल कर दिया जिससे वे हदय में लगी भालेकी शल्यसे युक्त हुए के समान अतिशय कष्टके स्थान बन गये और एक डग भी चलने के लिए समर्थ नहीं हो सके। अन्त में उस व्यथा को दूर करने के लिए
१. क० ख० ग. 'दृश्य' पदं नास्ति । २. ख. ताम्बूलकरङ्गादर्शकलाञ्चि, ग० वाराश्चि, फ० कालाञ्चि ( तीर्थमा सम् ) । ३. म०पेशलशितनेत्रपत्रिणा ।
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-विवाहवृत्तान्तः ]
षष्टो लम्भः
व्ययानिर्वृतयेनिर्वृतिपुत्रिकां तां धात्रीतल दुर्लभसंविधान विधात्रा सुभद्रेण भद्रतर लग्ने यथाविधि विधाणितां पर्यणयत् ।
१८. इति श्रीमद्वादी मसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामत्रों क्षेमधीलम्भो नाम षष्टो लम्भः
अवारा चासो तथा बेत्यपाव्यथा निःसीमपीडा तस्य निर्वृतये दूरीकरणाय निवृतेः एतन्नाममातुः ५ पुत्रिका तां तां क्षेमश्रियम् धात्रीतले पृथिवीतले दुर्लभं दुष्प्राप्यं यत् संविधानं समुल्लययोजना तस्य विधात्रा कर्त्रा सुभद्रेश श्रेष्ठता भद्रतरलग्नेऽतिश्रेष्ठकाले यथाविधि विधिमनतिक्रम्य विश्राणितां प्रशां पर्ययन् उदक |
१७. इति श्रीमद्वामसिंह सूरिविरचितं गद्यचिन्तामणी क्षमश्रलम्भी नाम पष्टो लम्भ: ।
उन्होंने पृथिवी तलपर दुर्लभ सामग्रोके जुटानेवाले सुभद्र सेठ के द्वारा उत्तम लग्न में दी हुई १० निर्वृति नामक सेठानीकी पुत्री क्षेमश्रीको विधिपूर्वक विवाहा ।
$ १७८. इस प्रकार श्रीमद्वादमसिंह सूरिके द्वारा विरचित चिन्तामणिमें मश्री लम्भ नामका (मश्रीकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला) छठवाँ लम्भ समाप्त हुआ ||६||
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[ १७९ जीवंधरस्य क्षेमश्रिया सह
सप्तमो लम्भः
६१७६. अथ तां पृथुनितम्बामयं प्रथमविवाह इव प्रथमानप्रोति. परिणीय परिणमदनिवारणमदनमदवारणववितवृतिरन बवृतरतिव्यतिकरविजृम्भितव्याशेपः क्षेमधोकान्तश्चिरमेकान्ते कान्ततरकायकान्तिकांदिशीकलाधराम, रमणे चरणतले च रक्ताम्, प्रियसखोमण्डले जनावाण्डे च स्निग्याम्, ऊरुस्तम्भे परिजने चानुकलस्पर्शनाम्, सौभाग्ये श्रोणीबिम्बे च साभोगाम्, हृदयवृत्ती रोमराजौ च त्यक्त कौटिल्याम्, मध्ये प्रणयकलहकोपतनुनपाति च तनुतराम , सनाभी नाभिमण्डले च मग्नाम्, चित्ते कुचयुगलेऽयुन्नताम्, मनसि बाहुलतायां च मृद्वीम, वचसि ग्रोवायां च मिताम्,
६१७१. अथेति-अथानन्तरं पृथुनितम्यां स्थूलनितम्बा क्षेमश्रियं परिणीय विवाह्य प्रथम विधाह इब आद्यविवाह इव प्रथमाना वर्धमाना प्रीतियस्य तथाभूतः, परिणमन् अनिवारणो यो मदनमदवारणः १० कामकरी तेन वधिता धृतियस्थ, अनवकृतोऽसीमितो यो रतिव्यतिकरस्तस्मिन् चिजम्भितो व्याक्षेपो यस्य तथा.
भूतश्च क्षेमश्रीकान्तो जीवंधरश्चिरं दीर्घकालपर्षन्तम् एकान्ते विजने स्थाने कान्ततरा अतिशयन रमणीया या कायकान्तिहदीप्तिस्तया कांदिशीदो मरतः माघरो निकास्यः साम्, बनणे पत्यो चरणतले च पादतले च रतां प्रीतियुक्त रकवर्णा च, प्रियसखीमपाइले प्रियाीवृन्दे जवाकाण्डे प्रस्तायुगे च स्निग्शं
स्नेहयुक्ता मसणवर्णां च अरुस्तम्भे सस्थिरतम्भ परिजनं च कुटुम्बिजने च अनुकूयास्पशनाम् अनुगुणस्पर्श१५ गुणाम् अनुगुगदानां च, सौभाग्य पतिप्रेमणि श्रीणीबिम्बे च नितम्त्रमण्डले व साभोगां सविस्तराम्, हृदय.
वृत्ती मनोवृत्ती रोमराजी च नाभरधीवर्तमानां शेमपती च रयक्तकौटिल्यां स्यक्तमायां त्यक्तवक्रतां च, सनामौ सहोदर नामिमण्डले च तुन्दिकूपे च मन्नां प्रात्यासकां गभीरा च, चित्ते चेतसि कुचयुगले स्तनद्वन्द्वेऽपि उन्नताम् उदाराम् उस्थितां च, मनसि हृदये बाहुलतायां च भुजबल्लयाँ च मृवीम् सदयां
१७६. अथानन्तर प्रथम विवाह के समान जिनको प्रीति प्रसिद्धिको प्राप्त हो रही थी, २० विवाह के समय परिणमते हुए–तियग्दन्त प्रहार करते हुए अनिवार्य कामरूपी मदमाते हाथी
से जिनका धैर्य बढ़ रहा था, और अनिश्चित रतिक्रियाके कारण जिनका व्याक्षेर उलझाव निरन्तर बढ़ता रहता था ऐसे क्षेमश्रीके पति जीवन्धरकुमार स्थूल नितम्बोंवाली उस क्षेमश्रीको एकान्तमें चिरकाल तक देखते रहते थे । वह क्षेमश्री पति और चरणतल दोनोंमें रक्त थी-अनुरागसे सहित थी ( पत्र में लाल वर्णसे सहित थी ) प्रिय सखियोंके समूह और २५ जङ्घाप्रदेश-दोनोंमें स्निग्ध-स्नेहसं सहित ( पश्न में चिकनी) थी। ऊरुरतम्भ और परिजन दोनों में अनुकूल स्पर्शना-अनुकूल स्पर्शसे सहित (पक्ष में अनुकूल दानसे युक्त) थी। सौभाग्य
और नितम्बबिम्ब-दोनोंमें साभोग-विस्तारसे सहित थी। हृदय वृत्ति और रोमराजि दोनों में कौटिल्यका त्याग करनेवाली थी। अर्थात् उसकी हदय-वृत्ति कपट से रहित और
रोमराजि सीधी थी। वह कमर तथा प्रथाय कलहसे उत्पन्न क्रोधाग्नि दोनों में अत्यन्त कृश थी १० अर्थात उसकी कमर अत्यन्त पतली थी और प्रणय कोपानि अत्यन्त सूक्ष्म थी। वह भाई
और नाभि-मण्डल-दोनोंमें भुग्न-झुकी हुई थी। चित्त और स्तन युगल-दोनोंमें उन्नत थी अर्थात् उसका चित्त उदार था और स्तन युगल ऊँचा उठा हुआ था। मन और भुजलतादोनों में कोमल थी अर्थात् उसका मन अत्यन्त दयालु था और भुजलता अत्यन्त कोमल
१. म० परिणय । २. म० भग्नाम् ।
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- सुग्योपमोगः ] सप्तमो लम्भः
२७१ वक्त्रे हृदि च सुवृत्तोद्भासिनीम्, सपत्नीनिवये कचभारे च कालिममयों क्षेमश्रियं पश्यन्, स्पृष्टदष्टतदीयाखिलाङ्गतया हटतमः "प्रिये, त्वामेवमनारतभोग्याममयंभोग्याभिरप्सरोभिरुपमेयशोभा कथमदीरयामि' इत्युपलालयन्नतिगृधनुरिवालंबुद्धिमनासेदिवानतिष्ट ।
६१८०. एधमनिर्वृतिसुखया निर्वृतिसुतया सममतिमात्रनिर्वृतिमधिजग्मुषस्तस्य गन्धर्वदत्तापतेर्गत्वरतां ज्ञात्वा प्रियसखोव प्रतिपिद्धप्रयाणा प्रावृडाविरासीत् । तस्मिश्च स्तबकितकदम्बे ५ कन्दलित कन्दले मुटित मुष्ट जपण्ड ताण्डवतरलशिखण्द्विान स्फुरदाखण्डलकोदण्डे खण्डितमहीकोमलां च, वचसि व चने ग्रीवायां च मिताम् अहाभाषिणीम् अदी| च, वक्त्रे मुखे हृदि च स्वान्ते च सुतदासिनी वतुल कारसोभिनी सदाचारशोमिनी च, समानः पतिर्यासा ताः सपत्न्यस्तासां निचयस्तस्मिन् अधिविनासमूहे कधभारे केशकलापे च कालिममयी मात्सर्थ युक्तां काणंसहितां च, क्षेमश्रियं नववल्लभा पश्यम् बिलोकमानः स्पृष्टानि कृतस्प नि दृष्टानि विलोकितानि चाविकाङ्गानि निखिलावयवा येन तस्य १० भावस्त या हटतमः अतिशयेन प्रसन्नः सन् 'निये ! हं वल्लभे ! एबमनेन प्रकारेण अनारत निरन्तरं भोग्यां मोगाहीं त्वाम् मत्यरुपभोग्या भोगास्तिभिः पले अमर्त्या देवास्ताँग्यास्ताभिः अप्सरोभिः देवामिः उपमेया उपमातुं योग्या शोभा यस्यास्तथाभूतां ताम कथं कन कारणेन उदीरयामि कथयामि' हतीत्यम् उपलालयन् प्रशंसन अतिगृनुरिवात्यासक इव अलंबुद्धिं तृप्तभावनाम् अनासेदिवान् भप्राप्तोऽवतिष्ट ।
६८०. एव मिति-वमनेन प्रकारंण अनिबृति अतृतिमत् सुखं यस्यास्तया निवृतिसुतया १५ क्षेमश्रीवल्लभ या सम सार्धम् अतिमात्रनिर्वृसिमतिशय संतोषम् अधिजग्मुषः प्राप्तवतस्तस्प गन्धर्वदसापते जीवंधरस्य गस्वरतां गमनशीलनाम् ज्ञात्या प्रियसखीव नियसहचरीत्र, प्रतिषिद्धं विरुद्ध प्रयाणं प्रस्थानं यया तथाभूता प्रावृद्ध वर्षतुः भाविरासीत् प्रकटीबभूव । तस्मिश्च पयोधरसमय जलदकाले परिगमति वृद्धि प्राप्नुवति सति । अथ पयोधरसमयस्य विशेषणान्याह-स्तबकिता: सगुच्छाः कदम्बा नीपवृक्षा यस्मिस्तस्मिन् , कन्दलिताः कन्दलयुक्ताः कन्दलाः शल्पविशेषा यस्मिस्तस्मिन् , स्फुटितो विकसित: २० थी। वचन और ग्रोबा-दोनों में परिमित थी अर्थात् वह परिमित वचन बोलती थी और उसकी ग्रीवा परिमित थी-छोटी थी। मुख और हृदय-दोनोंमें सुवृत्तोद्भासिनी थी अर्थात् उसका मुख गोलाकारसे सुशोभित और हृदय सदा चारसे शोभायमान था। और सौतोंके समूह तथा केशपाश-दोनोंमें कालिमासे युक्त थी अर्थात् सौतोंके समूहको कालिमासे युक्त करती रहती थी और उसके केशपाश अत्यन्त कालिमासे युक्त थे। क्षेमश्री के समस्त शरीरको २५ छूने तथा देखनेसे अत्यन्त हर्षित होते हुए जीवन्धरकुमार हे प्रिये ! तुम तो इस तरह निरन्तर भोगनेके योग्य हो और अप्सराए अमर्त्य भोग्या हैं-मनुष्य के भागने योग्य नहीं हैं ( पक्षमें देवोंके द्वारा भोगने योग्य हैं ) इसलिए तुम्हारी शोभा उनके तुल्य है यह कैसे कह दूं।' इस प्रकार उसकी प्रशंसा करते रहते थे। वे अत्यन्त आसक्तके समान ही अलंबुद्धिको-बस, अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है इस भावनाको प्राप्त ही नहीं होते थे। ।
१८०. इस प्रकार अनस्तमित सुखको देनेवाली निर्वृतिसुता-क्षेमश्रीके साथ जब जीवन्धरस्वामी अत्यधिक सुखको प्राप्त हो रहे थे तब वर्षाऋतु प्रकट हो गयी। वह वर्षाऋतु ऐसी जान पड़ती थी मानो जीवन्धरस्वामीकी गतिशीलता-धुमक्कड़ प्रकृतिको जानकर प्रिय सस्त्रीके समान उनके प्रयाणको रोकने के लिए ही प्रकट हुई थी। तदनन्तर जिसमें कदम्बके वृक्ष गुच्छोंसे लदबदा रहे थे, नये-नये अङ्कर उत्पन्न हो रहे थे, कुटजोंके समूह विकसित ३५ हो रहे थे, मयूर ताण्डव नृत्यसे चंचल हो रहे थे, इन्द्रधनुष प्रकट हो रहा था, राजाओंकी
१. क. ग० स्पष्ट ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ १८० वषर्तुः -
पाण्याचे वासितवातकिनि तडिदालोकनचकितवनौकसि प्रस्थितमानसौकसि तिरस्कृत दिनमणितेजसि स्फूर्जत्सर्जसौरभे भेकरटितवाचाले चलितबक पङ्क्तिदन्तुरवियति' वृत्रहगोपचित्रितधरित्रीपृष्ठे निष्ठुरधननिनदविनिद्रकेसंरिणि मदमन्थ र सिन्धुरे नखम्पचनितम्बिनीस्तनमण्डले प्रोषितप्राणखण्डिनि तरुगह्वरनिभृतपरभृते विरतविभावरीरमणजागरणे कुमलिततारकावलोकन को तुके ५ कुलंकपलिलपुरसरिति धारान्धकारपूरितहरिति दुर्विभावदिवानिशविभागे शिरकुसुमशरे शीतलुगोधन प्राणायस्तगामिनि निर्विशङ्कसमालिङ्गयमानाङ्कारवानीतनूनपाति परिणमति पयोकुंदजपण्डी गिरिमस्टिका समूह स्निस्तस्निन् 'कुटजो गिरिमल्लिका' इत्यमरः ताण्डवेन नाव्यविशेषेण तरलाश्चपलाः शिखण्डिनों मयूरा यस्मिंस्तस्मिन् स्फुरत् प्रकीमवत् खण्डको दण्डमिन्द्रधनुर्यस्मिंस्तस्मिन् वण्डिता निवारिता महीपालानां राज्ञां दण्दयात्रा सेनायात्रा यस्मिंस्तस्मिन् त्रासिता भीषिता १० वात किनो वायुरगडना यस्मिंस्तस्मिन् तडिती विद्युत श्रालोकनेन दर्शनेन चकित भीता वनौकस चनवासित यस्मिंस्तस्मिन् प्रस्थिता मानसरोवरं प्रति प्रयाता मानसोकसो हंसा यस्मिंस्तस्मिन्, तिरस्कृतं संघाच्छादितखेन दूरीकृतं दिनमणितेजो यस्मिंस्तस्मिन् स्फूर्जत् वर्धमानं सर्जानां सालवृक्षाणां सौरमं सौगन्ध्यं यस्तिस्मिन् 'साल: सर्जतरुः स्मृतः' इत्यमरः भेकानां मण्डूकानां रटितेन शब्देन वाचाले बाचाटे 'स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो बाघाटो बहुगवाकू' इत्यमरः चकिताभित्र पस्किभिमन१५ भुपक्षिपकिभिर्दन्तुरं व्याप्तं वियद् व्योम यम्मिस्वस्मिन् वृत्रहगोपैरिन्द्र गोप कीट कैश्चित्रित धरित्रीपृष्टं महीतलं यस्मिंस्तस्मिन् निष्टुरेण कठिनेन घननिनदेन मेघरवेण विनिद्रा विगतनिद्राः केसरिणो मृगेन्द्रा यस्मिंस्तस्मिन् मदेन दानेच मन्थरा मन्दगामिन: सिन्धुरा हस्तितो यस्मिंस्तस्मिन् खम्पचं समुष्णं fractaraण्डल कामिनी कुचामोगी स्पिस्मिन् प्रोषितां कृतवासानां प्राणान् खण्डयतीत्येवं शीलस्तस्मिन् वरुगह्वरेषु वृक्षविवरेषु निभृतानिलाः परभृताः कोकिला पस्मिस्तस्मिन् विरतं वारिदाचरणा२० वृतवाद विरतं दूरीभूतं विभावरीरमणस्य चन्द्रस्य जागरणं यस्मिंस्तस्मिन् कुट्मलित निरुधुं तारकावलोकस्य नक्षत्रदर्शन कौतुकं यस्मिंस्तस्मिन् कूलंकष सलिल पूरास्तो तोयप्रवाहाः सरितस्तरङ्गिण्यां यस्मिंस्तस्मिन् धारान्धकारण संपाततिमिरेण पूरिता हरितो दिशो यस्मिंस्तस्मिन् दुर्विभावो दुर्विलोक्यो दिवानिश विभागोऽहर्निशत्रिमागो यस्मिंस्तस्मिन् पुङ्खितशरस्तीक्ष्णषाणः कुसुमशरः कामो यस्मिंस्तस्मिन्, शीतालु शीतयुक्तं यद् गोधनं तस्य त्राणे रक्षणे आयस्ताः खेदयुक्का गोमिनो गोस्वामिनो यस्मिंस्तस्मिन् २५ निर्विशङ्कं निर्भयं यथा स्यात्तथा समालिङ्ग्यमानः सेव्यमानोऽङ्गारधानीनामन्याधाराणां तनूनपादग्निर्यस्मि
२७२
J
गए किया
युद्ध यात्राएँ – शत्रुओं पर चढ़ाइयाँ खण्डित हो गयी थीं, बात रोग से पीड़ित मनुष्य भयभीत हो रहे थे, बिजलियों के देखनेसे बनवासी लोग चकित हो रहे थे, हंस प्रस्थान कर चुके थे, सूर्यका तेज तिरस्कृत हो रहा था, सागौनको सुगन्धि फैल रही थी, जो मेंढकों की टर्र-टर्र से शब्दायमान हो रहा था, जिसमें उड़ते हुए बगलोंकी पंक्तिसे आकाश व्याप्त हो गया था, ३० वीर बहूटियोंसे पृथिवोतल चित्र-विचित्र हो रहा था, मेघोंकी कठोर गर्जना से सिंह जाग उठे थे, हाथी मदसे मन्थर हो रहे थे, स्त्रियोंके स्तनमण्डल अपनी उष्णतासे नखोंको गर्म कर रहे थे, जो प्रवासी मनुष्योंके प्राणको खण्डित करनेवाला था, जिसमें कोयले वृक्षों का कोटरों में चुपचाप बैठ गयी थीं, चन्द्रमाको चमक समाप्त हो गयी थी, ताराओंके देखनेका कौतूहल दूर हो गया था, नदियाँ किनारोंको नष्ट करनेवाले जलके पूरोंसे युक्त थीं, दिशाएँ धाराओं के ३५ अन्धकारसे परिपूर्ण थीं, दिन-रातका विभाग बड़ी कठिनाईसे समझ में आता था, कामदेव अपने बाणोंको तेज कर रहा था, शीतसे पीड़ित गोधनकी रक्षा करने के लिए गायोंके स्वामी
१. क० भेकरटितवाचालित पंक्तिदन्तुरितवियति ।
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-वर्णनम् ]
सप्तमी लम्भः धरममये, कुङ्कुमपङ्कपङ्किलपयोधरामन्तरमान्तं वमन्तीमिव रागम्, करालकालमेघकालिमकालागधगर्भगर्भागारगर्भस्थिताम्, चिरप्रभामिवाचिरप्रभाम्, प्रसन्मनोहार्याहार्यने कमणिमहःस्तबकामगस्त्यचकित रत्नावशेषित जलामिव रत्नाकरस्थलीम्, करिणोगिक वारिसंपर्क वकिताम्, प्रजानायचित्तवृत्तिमिव प्रतापार्थिनीर, सुराङ्गनामिय महो स्पर्शनपराचीनपदा क्षेमश्रियम्, क्षेमभूगिमिव पराकान्तमहोपतिः, कुमुमशरशराकान्तोऽयं कुमार: क्षणमपि नात्याक्षात् । ५
१८१, अथ कदाचित्तस्यां वन त्रियामायां तृतीयप्रहरे विरहायसनायतमराविषयीस्तस्मिन् । पराकान्तबासी महीपतियेत्ति पराकान्तमहीपतिः पराक्रमसुन पार्थिवः संवभूमिमित्र कल्याणयुक्त पृथिवीमिा कुसुमशरस्य कामस्य शरैणिराकान्तः असं कुमार क्षणमपि क्षमश्रिमम् नात्याक्षीन न मुमीचति रुकिया संबन्धः । अथ अमश्रियं विशेषपितुमाह ---कश्मपन काइमीरद वेण पकिली पयुक्ती पयोधरी स्तनौ यस्याताम् , अतएव अन्तमध्येऽमान्तं सगं प्रेमाणं बमरीमिवोगिन्तीमित्र, कराल- १० कालवस्यच कालिमा कापण्यं यस्य तथाभूतः कालागुरुधूप गर्भ मध्ये यस्य तथाभूतो या गर्भागारी मध्यगृहं तस्य गर्भ मध्ये स्थिता ताम् , चिरप्रभा चिरदीप्तिमचिरनमामिव सौदामिनी मिव, मनोहराणि सुन्दराणि यानि आहायांणि विभुषणानि तेषु खचिता ये नैकमणयो नानारत्नाभि नेग मष्टामत ब्रदाः कान्तिगुच्छाः, प्रसरन्तः प्रसरणीला मनोहायर्याहायनकमणिमहःतत्रका यस्यास्ताम् , अतएव अगस्त्यन कुरमसम्भवेन बुलुकितं स्नावशेषितजलं यस्यास्तां रत्नाकरस्थलीमिव समुदभूमिभिध, करिणीमित्र हस्तिनीमिब १५ वारिणो जलस्य संपकण चकितां वस्तां पक्षे वारि गन्धबन्वनी तस्याः स्पर्श चफित्ताम् , प्रजानाथस्य लोकपालस्य चित्तवृत्तिमिव मनोवृत्तिमित्र प्रतावं प्रभावार्थयान इत्येवं शोला ताम् स प्रभावः प्रतापश्च यत्तेजः कोशदण्डजम्' इत्यमरः, पक्षे शैत्यपीडितत्वेन प्रकृयस्तापः प्रतापरतस्याधिनी ताम्, मुराङ्गनामिव देवामिव महारशस्य भूमस्तस्य स्पर्शनात् पराचीन पदां पराङ्मुख चरणां शरवातलस्थितत्वादिति मावः, पक्ष स्वर्गस्थितत्वात् महीरणस्पर्शनपराङ्मुखपदाम् ।
६१८1. अथ कदाचिदिति-अथानन्तरं कदाचित् जाचिद् कस्यांचन गियामायां रजन्यां तृतीयप्रहरे तृतीयाम विरहव्यसनं विप्रष्टम्भदु.खमंदावतमसं गाढतिमिरं तस्य विषयोमविष्यन्त्या खेद-खिन्न हो रहे थे और अंगारधानियों-गुरसियोंकी अग्नि निःशंक होकर सेवन करने के योग्य थी ऐसी वऋतुके परिपक्क होनेपर--पूर्ण जोर के साथ प्रवृत्त होने पर काम के बागोंसे आक्रान्त जीवन्धर कुमार, जिस प्रकार पराक्रमसे युक्त राजा कल्याणकारिणी भूमिका नहीं २५ छोड़ता है उसी प्रकार क्षेमश्रीको क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते थे। उस समय क्षेमनीके स्तन केशरकी पंकसे पंकिल थे इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो भीतर नहीं समानेवाले रागको उगल ही रही थी। वह भय उत्पन्न करनेवाले काले-काले मेघाँकी कालिमासे युत्ता कृष्णागुम चन्दनकी धूपसे सुवासित गालय के मध्य में स्थित थी जिससे इसी ज्ञान पड़ती थी मानो चिरकाल तक चमकने वाली बिजली ही हो। उसके सुन्दर आभूषणों में लगे ३० हुए अनेक मणियांक तेजका पुंज इधर-उधर फैल रहा था जिससे ऐसा जान पड़ती थी मानो अगम्त्य ऋपिके द्वारा चुलुकित होनेसे जिसमें रत्नमात्र ही शंप रहे गय थे गेली ममुद्रकी तलहटी ही हो । वह हस्तिनी के समान वारि-जलके संपर्कसे भयभीत रहती थी ( पक्ष में हाथी बाँधनेकी रस्सीके सम्पर्क से भयभीत थी)। राजाको चित्तवृत्तिके समान प्रतापार्थिनी-~-प्रकट गरमीको चाहनेवाली थी ( पक्षमें तेजको चाहनेवाली श्री) और देवांगनाके ३५ समान पृथिवीतलके स्पर्शसे विमुख पैरोंसे युक्त धी-बह वर्षाऋतुमें पृथिवीपर पैर भी नहीं रखना चाहती थी ( पक्ष में स्वर्गेनिवासिनी होने पृथिव के स्पर्श रहित थी)।
१८१. अथानन्तर किसी समय एक रात्रिक नीसरे पहरमें अध विरः जन्य दुःखरूपी
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गचिन्तामणिः
[१८१ क्षेमपुर्याः - भविष्यन्त्याः क्षेमश्चियः प्रपञ्चत रहृदयकुब्जे पुजीभावादिव विरलभावमासेदुषि तमसि, सुभद्रस्य जामातृप्रयाणप्रबोधनायेव कू जत्सु कुक् टेषु, निकटगतां पत्नीमतिसंधाय गन्धर्वदत्तापतिर्भवभृतां प्रवृत्तेर्व्यवस्था विकलतां व्यवस्थापयन्निव तथाविधास्थास्पदमेकपद एव तां परित्यज्य प्रवज्याय प्रकृष्टवैराग्यः पुरुष इव यथेमियाय ।
१८२. तदनु सा च तनूदरी यातयामजातमाढस्वापा पुनः प्रबोधाभिमुखी तलिमतले तत इतोऽपि शनैः संवा माणशरोरा विशीर्यमाणचिकुरभार विगलदविरलकुमुपमाला सबिलासगात्रभन्नता पक्षामगुलीनिर्मकशी पदमा म यक्षिपक्षमणो, पतिमुखनिरीक्षणतत्परा पतिदेवता सलील मुत्याय यातलमधिनसन्त्येव संमुखागतयामिक मामलोचनामुखेऽपि मुखमनई
गोचरीभविष्यन्न्याः क्षेमश्रियो निश्रुतिसुतायाः प्रपञ्चतरश्वासी विस्तृततरश्चासौ हृन्दगकुञ्जश्च मनोनिकुञ्जश्न १० तस्मिन् '
निजकु-जी दा म लतादिपिहितोदर' इत्यमरः पुनीभावादिश राशीभावाविव तमसि शासन्धकार विरल माय मल्पताम् आसेतुषि प्रापयति, सुभद्र स्त्र क्षेमश्रीपिनुः जामातुः प्रयाणस्य प्रबोधनं तस्या दूब कुक्कुयु ताम्रटेषु जरसु शब्द कुर्वाणेषु निकटगलां समीपस्तिताम् पनी झमश्रियम् अतिसंध्याय प्रतार्थ गन्धर्वदत्तातिर्भावधरी भवभृतां संसारिणां प्रवृत्ती व्यवस्थाबिकलतां चिनश्वरता व्यवस्था
पयन्निव तथाविधायाः पूत्रों का काया आरवाया प्रीतेरास्पदं स्थानं तो क्षेमश्रियम् एकपद एव युगपदेव १५ परित्यज्य त्याया मात्रयायै श्रीक्षाय प्रकृष्टं वैराग्यं यस्य तथाभूत: पुरुष इव अथेटं स्वच्छन्दं यथा स्यातथा इयाय जगाम ।
१२, तलिभि- तदनु तदनन्तरं सा च तनूदरी कृशोदरी क्षेसनोः यात व्यतीते यामजाते प्रहरसमूहे गादः स्वाप। यस्यास्तथाभूता पुनः प्रबोधाभिमुश्री जागरणोद्यना सलिमतले शरयातले तत
इतोऽपि यतस्ततोऽपि शनैर्मन्दं यथा स्पातथा संचार्यमाणं शरीरं यस्याः सा विशीर्यमाणात् चिकुर२० भाराशकलापात अविरले निरन्तरं यथा स्यात्तथा विगलन्ती पतन्ती अविरला कुसुममाला पुष्पवग्यस्याः
सा, सविलासं सबिभ्रमं गात्रभजनं यस्याः सा, पञ्चशाखस्य हस्तस्याङ्गुल्यस्ताभिः मन्धराक्षिपश्मणी मन्थरनयनरोमराजी मन्दमन्द यथा स्यात्तथा मयन्ती, पत्युर्मुषस्य निरीक्षणे तत्परा पतिरेव देवता यस्यास्तथाभूता सलील सविभ्रमम् उत्थाय शय्यातलं तल्पपृष्ठमधिवसन्त्येव तन्न शयानैव संमुखागता ।
अन्धकारकी विषय होनेवाली क्षेमश्रीक विस्तृत हृदय-निकुंज में एकत्रित होने के कारण ही २५ मानो अन्धकार विरलयाबको प्राप्त हो गया था और सुभद्र सेठका जामाताके गमनकी सूचना
देने के लिए ही मानो जब मुर्गे बाँग देने लगे तव समीपमें स्थित पन्नी क्षेमनीको धोखा देकर जीवन्धरस्वामी संसारी जीवोंकी प्रवृत्तिको अस्थिरताको प्रकट करते हुएके समान उस प्रकार की प्रीति के स्थान स्वरूप मश्रीको एकदम छोड़कर इच्छानुसार उस तरह चले गये
जिस तरह कि तीन बैगाग्यको धारण करनेवाला पुरुप दीक्षाके लिए चला जाता है। ३० १ ८२. तदनन्तर जिसका उदर अत्यन्त कृश था, जिसकी रात्रिके गत पहरोंमें आनेवाली
गाढ़ निद्रा समाप्त हो गयी थी, जो जागने के लिए, सन्मुख हा शय्यापर इधर-उधर धीरे-धीरे शरीरको चला रही थी, जिसके बिखरे हुए केशपाशसे फूलीकी अविरल मालाएं गिर रही थीं, जो विलासपूर्वक अंगड़ाई ले रही थी, जो हाथकी अंगुलियोंसे धीरे-धीरे मन्थर नेत्रोंकी बिरूनियाँ मल रही थी, जो पतिका मुख देखने में तत्पर थी, पनिको ही देवता समझती थी, ३५ लीलासहित उठकर शय्यातलपर ही बैठी थी, सामने आयी हुई पहरेदारिनके मुखकी ओर
१. ५० प्रपञ्चहृदयकुञ्जे ।
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जोवंधरस्थ प्रस्थानम् ]
सप्तमी लम्भः यन्ती, प्रसर्पदङ्गुलीनखचन्द्र चन्द्रिकया मुकुलयन्तीव नयननलिनयुगम्, किंचित्कुञ्चितपञ्चशाखतलेन कच्चुकितवदना क्षणमोपदुम्मोलयन्ती पतिमन्वियेष ।
$ १८३. ततः संत्रासा तत्र दयितादर्शनादयशमुन्नयन्तो गुखमुदश्रुमुखीनां सखीनां हिमानोबिन्दुदन्तुरितारविन्दरा वर्ण वैवानि वदनानि साकृतं सानुतापं सरन्यं च न्यशामयत् । तनिशामिताः सरूपश्च सध्यं गता इद्र सोयदैः पूर्वमुल्लसद्दशनकिरणतलता पश्चात्पतिप्रयाण- ५ वार्तापदि तदनु नयन जलधारामप्यातयन् । सा तु क्षेमभोः श्रवसि तहातां मनसि हल्लेख वपुषि प्रकम्प चक्षुपि बाष्पधारामात्मन्यविषयशुचं वदने वैवायं नासिकायां दीर्घश्वासमास्ये
पुरःमाता या यामिकवामलोचना प्रहरिकी तस्या मुखेऽपि चदनेऽपि मुबम् अनर्पयन्ती तदपश्यन्तीति यावत्, प्रसर्पन्ती विसरन्ती याङ्गलीनखचन्द्रस्य नखान्दोश्चन्द्रिका ज्योत्स्ना तया नयननलिनयुगं लोचनारविन्दयुगलं मुकुल गाय मिमगनतीन मिचिन्न नाम कृजित पशाखतलं करतलं तंन १० कञ्चकितं व्याप्तं वदनं मुखं यस्याः, क्षणं ईषद उन्मालयन्ती विकासमन्ती पति जीवन्धरम् अन्बियेष अन्विष्टं चकार ।
१३. नत इति-उतस्तदनन्तरं तय शयनागारे दमितस्य पत्युरदर्शन तस्मान अवशं यथा स्यात्तथा मुखम् बक्तमुम्नयन्ती ऊर्ध्वं कुर्वन्ती, उदमुखीनां साश्रुवदनानां सीनां हिमानीविन्दुमिः प्रालेयपृषताभिर्दन्नुरितं व्याप्तं यदरमिन्दं कमलं तस्त्र सवर्ण सदृशं वैवयं येषु नयाभूनानि वदनानि १५ मुखानि साकृतं साभिप्रायं सानुनापं सपश्चात्तापं सदैन्यं सकातरं च यशामयत अवलोकयामास । तया निशमिता तनिशमिताः क्षेमधीविलोकिताः साथी बयस्याः सोयदेमधैः सह सख्यं मैत्रीं गता इव प्राप्ता इव पूर्व प्राक् उल्लसन्तः प्रकटीभवन्नो दशकिरणा एव दन्तदोधितय एत्र तटिल्लता विद्युतुल्ली पश्चादनन्तरं प्रतिग्रयाणस्य वल्लभप्रस्थानस्य वार्तव समाचार एवं पवियनं तं तदनु नयनजलधारामपि लोचनसलिलधारामपि अपातयन् पातयन्ति सत जीवधरममनालमा वारं श्रुत्वा रुरुरित्यर्थः। सा तु क्षेमश्रीविरहातुरा २० जीवकवल्लभा प्रत्रसि कर्णे तस्य बल्लमस्य वार्ता प्रवृत्ति:ताम्, मनसि चित्ते हृदयस्य लेखः कर्षणं तम् 'हृदयस्य हल्लेखपदण लासंधु' इत्यनेन हृदयस्य हृदादेशः, वपुषि शरीरे प्रकम्प चक्षुषि नयने वाप्पधारामश्रुसंततिम् आत्मनि स्वस्मिन् विपाशुचं विपुल तरशोकं बदने मुखे ववर्य म्लानतो नासिकायां वाणे
- ... ... ..--- -- भी जो अपना मुत्र नहीं उठा रही थी, जो अँगुलियोंके नखरूपी चन्द्रमाको फैलती हुई चाँदनीसे नेत्ररूपी कमलोंके युगलको निमीलित कर रही थी, बुछ-कुछ टेढ़े किये हुए हस्त- २५ तलसे जिसका मुख आच्छादित था और जो क्षण-भरके लिए कुछ थोडा-थोड़ा नेत्रोंको खोल रही थी ऐसी क्षेमश्री पति को खोजने लगी।
१८२. तदनन्तर वहाँ पनि के न दिखने से भयभीत क्षेमश्रीने जब विवश हो ऊपर मुख उठाया तत्र उसने रोती हुई न स्त्रियों के ओस की बूंदोंसे व्याप्त कमलोंशी समानता रखनेवाले मुख किसी खास चेष्टा, सन्नाप और दोनता के साथ देखे। क्षमाके द्वारा देखी हुई ३० सखियाँ मेवोंके साथ मित्रताको प्राप्त होकर ही मानो पहले तो प्रकट होनेवाली दाँतोंकी किरणरूपी विगुननाको, फिर पति को प्रयाण वार्ता रूप वनको और उसके बाद अश्रुरूपी धाराको छोड़ने लगीं। अंगनी कानों में उस वार्ताको, मनमें हृदयको कुरेदनेवाली शल्यको, शरीर में कम्पनको, नेत्रमें अश्रुधाराको, आत्मामें असहनीय शोकको, मुम्व में विवर्णताको, नासिकामे दीर्घ श्वासको और मुख में विलापको एक साथ प्राप्त होती हुई उस वनपातसे ३५
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गचिन्तामणिः
[ १८२ क्षेमपुर्याः - परिदेवनं च योगपद्येन भजन्ती तदशनिपतनादपासुरिब भूमी पपात । तथाविधामनस्यामिमां वयस्येवाविदितकृच्छामातनोन्मूी ॥
१८४ एवमतिमोहविधुगं वरोपलम्भवरार्थितया निभृतेन्द्रियवृत्ति पृथ्वीशयने प्रतिशयानागिय शयानां फणिनीमिव फगामणिना पद्मिनीमिव पबन्धुना रतिमित्र त्र्यम्बकललाटाम्बक५ दहनदग्धमदनेन दयितेन विप्रयुक्तामतिदयावहां जोवंधरदयितां निशाम्य, नितिरधिकनिर्वेदा
खेदप्राचुर्शदुद्धरणविहरतेन हस्तद्वयेनोक्षिप्याङ्गजामङ्कमारोप्य, तदङ्गमतिपांसुल क्षालयन्तीव क्षरवनु जलगि मलकापूरपूरबिलुलितमलयजस्थासकस्थगितस्फा रहारशीफरशिशिरोपचारैनिवारित - प्राणप्रयाणां विधाय, 'विधिविलसितमिदमतिनृशंसम् 1 हंसगमनेयमेवमप्य स्मदीक्षणाभ्यामहो
दीर्घश्वासमायताच्छवासम्, आस्य मुखं परिदेधनं विलापं च योगपद्येन एककालावच्छेदन भजन्ती प्राप्नु१० वन्ती स एव अशनिबंधं तस्य पतनं तस्मात् अपासुरिव मृतव भूमौ पृथिव्यां पपात । तथाविधमामनस्यं
नस्यारत साइन यांचयाम् इभा मिश्रियम् वयस्क सहरीव मूळ निःसंज्ञता अविदित कृच्छ्रामज्ञातदुःरखाम् आतनोत् चकार ।
13. एवमिति-एबमनेन प्रकारेण, अतिमोहन रागातिशयेन विधुरा दुःखिताम्, वरस्य पन्युरुपलम्मः प्राप्तिरेव परो देवामृतास्मानिया निभृता निश्चलेन्द्रियवृत्तिर्यस्यास्तथाभूतां पृथ्वीशयने१५ ऽवनिशव्यायां प्रतिशमान!भित्र शयनं कुर्वागामित्र, फणामणिना नागन विप्रयुक्त विरहितां शयानां
फणिनीमिव नागीमिय, पद्मबन्धुना सूयण विप्रयुक्तां पमिनी मिव कमलिनीमिव, भ्यम्बकस्य भवस्य ललाटा__म्बकदहनेन निटिल नेवानलेन दग्धो भस्मीभूतो यो मदनो मारस्तंन विप्रयुक्तां रतिमिव, दयितेन वल्लभन
जीवंधरेण विप्रयुक्ताम् अतिदयावहां दोनो जीवंधरदायितां क्षमश्रियं निशाम्य दृष्ट्वा अधिकनिर्वदा सातिशय.
खेड़ा नितिः सेमश्री सवित्री खंदप्राचुर्यात दुःखातिशयान उद्धरणे विहस्तस्तन-उत्थापनविदर्शन हतद्वयन २० करयुगलेन उत्क्षिप्य अङ्गता पुज्रीम् अङ्घ कोडम् आरोप्य स्थापयित्वा, अतिसुलं धूलिमलिनं तदनं तस्करी
क्षादश्रुजलैगंलदभुमरिलः क्षालयन्तीव धावमानेव, हिमजलकपूरपूराभ्यां नुहिनतीयवनसारपूराभ्यां विलुलितो ___ घृष्टो यो मलयजश्वन्दनं तस्य स्वासकास्तिककानि तैः स्थगिता यः स्फारहारो विशालमौक्तिकयष्टिः स च
शीफरशिशिरोपचाराश्चातिशीसलोपचाराश्च तैः निवारितं दुरीकृतं प्राणप्रयाणं ययास्तथाभूतां विधाय कृत्वा _ 'इदं विधिविलसितं देवचेष्टितम् असिनुशंसमतिकरम् । इंसस्येव गमनं यस्यास्तथा भूता इयम् एवमपि-२५ निष्प्राणकी तरह पृथिवीपर गिर पड़ी । उस प्रकारकी विकलताको धारण करनेवाली क्षेमश्री
को सखीके समान मूच्छाने अविदितकृच्छ्रा-दुःखानुभवसे रहिन कर दिया।
६४. इस प्रकार जो अत्यधिक मू से दुखी थी, वर-प्राप्तिकी उत्कट अभिलापासे जो इन्द्रियांको वृत्तिको निश्चल कर पृथिवीरूपी शय्याएर शयन करती हुई-सी जान पड़ती थी,
जो सर्प से गहित सर्पिणीके समान, सूर्यसे रहित कमलिनीके समान, और महादेवके ललाट३० स्थ नेत्रकी अग्नि से जले हुए कामदेवसे रहित र त के समान पति से वियुक्त हो अत्यन्त दयनीय • अवस्थाको धारण कर रही थी ऐसी जोबन्धरकी स्त्री-मश्री को देख उसकी माता निर्वृति
अधिक खेदको प्राप्त हुई । खदकी अधिकतासे ऊपर उठने में असमर्थ दोनों हाथोंसे उसने पुत्रीको उठाकर गोद में बैठा लिया और धूलिसे धूसरित उसके शरीरको झरते हुए अश्रुजलसे
धोती हुईक समान वर्फका जल और कपूर के समूहसे मिश्रित चन्दनके लेपसे आच्छादित ३५ विशाल हार एवं अत्यधिक शीतलोपचारोंसे उसे प्राणों के प्रयाणसे रहित कर दिया। 'अहो ! यह देवकी लीला अत्यन्त क्रूर है। यह इंसगमना ऐसी अवस्थामें हमारे नेत्रोंसे कैसे देखी
१. क.० ५० --इमिति नृशंसम् । २. क. 'अपि' नास्ति ।
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1- जीवंधरस्य प्रस्थानम् ] सप्तमो लम्मः
२७७ कथमीक्षिता!' इत्याधिश्नोणा तत्क्षणे पूर्वक्षणदायां स्वापावसाने स्वप्नमालोकितमनुस्मृत्य सविस्मयं साश्वासं सानुनयं च समभ्यधात्–'पुत्रि, रात्रावतीतायां दयितां हंसोमपहाय राजहंस: क्वचिद् गत्वा संगतश्च पुनदृष्टः । ततः संगंस्यसे त्वमपि जामात्रा। धात्रोतलदुर्लभस्तव वल्लभः सुते, स्वाभिप्रायं प्रायेण केनापि व्याजेन विवृण्वन्नेत्र प्रयास्थति 1 तवालस्यादिदमनवधतम् । अथ वा किमिदमाधुनिकमावश्यके कर्मणि सकलकमकर्मठानां पुरुषाणां क्वचिदटने पुनर्घटनं च' इति । एवमभि- ५ हितरतिहितातृवचोभिः पिहितासुमोक्षाशा सा च पतिदेवता पतिपदं परमेश्वर चोपादारविन्दद्वन्द्वं च द्वन्द्वप्रशमनकृते हृदि निधाय निषसाद ।
१८५. अथ क्षेमभोवल्लभेऽपि क्षेपीयः क्षेमपुरी चौरिकाध्यक्षकैरलक्षित एवातिक्रम्य कामपि कान्तां कान्तारभुवमासे दुषि, सागरसदनबा इवकृपोटयोनिशिखापटलालीढ इव पाटलबपुष्पि इस्थम् नूतापि अस्मदीक्षणाभ्यां मदीयनयनाभ्यां कथमहो ईक्षिता दृष्टा' इतात्यम् आधिना मानसिकव्यथया १० क्षीणा तरक्षणे तस्काले पूर्वक्षणदायां पूर्व निशायां सापावसानं शयनान्ते आलोकितं दृष्टं स्वप्नम् अनुस्मृत्य सविस्मयं साश्चर्य साश्चास ससाधनं सानुनयं च सस्नेहं च समभ्यधात् कथयामाल-पुत्रि ! अतीतायां सन्त्री दयितां प्रियां हंसीम् अपहाय त्यक्त्वा राजहंसो मराल विशेषः 'राजहंसास्तु ते चचचरणलोहितः सिताः' इत्यमरः क्वचित कुत्रापि गस्वा संगतच मिलितश्च पुनदृष्टी भूयो विलोकितः । तत्त: कारणात् स्वपि जामात्रा संगंस्यते संप्राप्स्यसे । हे सुते ! धात्रीतलदुर्लमः पृथिवीपृष्ठदुष्प्राप्यस्तच बल्लभो भर्ता प्रायेण १५ केनापि व्याजेन मिषेण स्वाभिप्राय निजमनोरथं विवृण्वन्नेव प्रकटयन्नेव प्रयास्यति तव स्वस्या आलस्याद् इदमनवतमनिश्रितम् । अथ वा आवश्यके कर्मणि कार्य सकलकर्मसु निखिलकायपु कर्माना दक्षाणां पुरुषाणां क्वचित् क्वापि अदनं गमनं पुनर्घटनं च पुनर्मेलनं च इदं किम् आधुनिक साम्प्रतिकम् । पुरातनमेवेति मायः' इति । एवमित्थम् अभिहितैः कथितैः भतिहितैः श्रेयस्करैः मातृवचोभिजननीनिदितैः पिहिता आच्छादिता असुमोक्षाशा प्राणत्यागाभिलाषो यया तथाभूता पतिदेवता पतिव्रता सा च क्षेमश्रीश्च २० द्वन्द्रशमनकृते दुःखोप शान्त्यै पतिपद वल्लभचरणं परमेश्वरस्थाहतः श्रीपादारविन्दवन्द च श्रीचरणकमल. युगलं च निधाय स्थापयित्वा निषसाद स्थिताऽभूत् ।
६५८५. अथेत्ति-अथानन्तरं क्षेमश्रीवल्लभेऽपि जीवंधरैऽपि चौरिकाध्यक्षैरपि राजपुरुषप्रमुखैरपि अलक्षित एवानवलोकित एव अपीयः शीघ्रम् अतिक्रम्य समुल्लध कामधि कान्ता मनोहर कान्तारभुवं गयी ?' इस प्रकार मानसिक व्यथासे श्रीण निर्वृतिने पूर्वरात्रिमें शयन के अन्त में देखे हुए २५ स्वप्नका स्मरण कर आश्चर्य, आश्वासन और प्रेमके साथ कहा कि-बेटी ! पिछली रात्रिमें मैंने स्वान देखा था कि 'एक राजहंस अपनी प्रिय हंसीको छोड़कर कहीं चला गया और फिर आकर उससे मिल गया है। इससे सिद्ध होता है कि तुम भी जामानाक साथ मिल जाओगी : ६ पुत्रि ! तुम्हारा पति पृथिवीतलपर दुर्लभ है, वह प्रायःकर किसी बहानेसे अपना अभिप्राय प्रकट कर हीं गया होगा। तुमने आलस्यके कारण उस ओर ध्यान नहीं दिया है । ३० अथवा समस्त कार्यामें निपुण पुरुषांका आवश्यक कार्यक्रे लिए कहीं जाना और फिर आ जाना यह क्या आजकी बात हैं ? इस प्रकार कहे हुए अत्यन्त हितकारी माताके वचनोंसे जिसके प्राणत्यागी आशा स्थगित हो गयी थी ऐसी पतिव्रता क्षमश्री दुःख शान्त करने के लिए पतिके चरण तथा परमेश्वरके चरण कमलयुगलको हृदयमें विराजमान कर बैठ गयो ।
६१८1. अथानन्तर क्षेमश्रीके पति जीवन्धरस्वामी भी पहरेदारोंके द्वारा बिना दिख ३५ हो शीघ्र ही क्षेमपुरीको उल्लंघन कर किसी सुन्दर बनकी भूमिमें जा पहुँचे। उसी समय
१. क० प्रतिपदम् ।
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Dipamuide....
गद्यचिन्तामणिः
[१८५ क्षेमपुर्या:पद्मिनीसौखसुप्तिके पथिक जननेने कोकमिथुनमित्रे मित्र सुदर्शनभित्राय दर्शयितुमिवाध्वान मदधे. रुन्मज्जति, जलनिधिमग्नान्मग्नस्य' रवेश्चिरनिरुद्ध निसृष्टोच्छास इव नि. सरति युमनःसंसर्गसुरभौ गोसर्गमातरिश्वनि, दिनपतिसंभोगव्यतिकरविमर्दनाश्यानदिन श्री कुजनुभामाङ्गराग इव प्रतिदिशं प्रसर्पत्यरुगरोचिपि, विकचकुसुम कलिकाकलितशिव रशोभिन: शामिनः सौख रात्रिक इव ५ संश्रयति शंकारमुरितकभि पटादकदम्बके, कुमुदिनोषगडे च प्राति वेश्यस्थानस्पशाम्भोजिनीनां बन्धोः प्रत्यूपाउम्बरस्थोद यादम्बरम यतोव धटितदलपुट कवाटे बाट पिति. तत्रोपसरन्तं जरन्तं कमपि पामरं कुमारः सादरं निवण्यं परमनिर्धाणपद सर्पता प्रथम सोपानभुतं गृहमेधिनां वनावनिम् आखेटुषि प्राप्तवति सति, सागरः सदानं यस्य तथानः समुद्रस्थितो यो बाडवाणीट योनि
बंडवानलस्य शिखापरलेन चालाकलाप नालाइ इन व्यास पाटल गरी नयां वपुः शरीरं यस्य १० तश्राभूत, सुखेन सुप्तमिति पृच्छति लाखसुप्तिकः पझिनीनां कमलिनीनो सांत्रसुतिक इति पभिनी पौरख
सुप्ति कस्तस्मिन् कमलिनीविकासकर्तरीति यावत्, पथिकजनानामध्यगानां नेत्रं मार्गदर्शक तस्मिन् , कोकमिथुनस्य चक्रवाकयुगलस्य मिनं सह चरस्तस्मिन् , मिले सूर्य सुदर्शनभित्राय जीवंधराय अध्वानं मार्ग दर्शवितुमिव उदधेः सागरान उन्माजति सति उदयमाने सति, जलनिधी सागर आदी मग्नः पश्चादुन्मग्नस्तस्य रवेः मूर्यस्य आदी चिरनिरुद्धः पश्चान्निसृष्टो निर्मुको य उच्छ्यासस्तस्मिन्निव सुमन सां पुष्पाणां ५ संसगेंग सुरभी सुगन्धी गोसगमातरिश्वनि प्रत्यूषपवने निःसरति निर्गच्छति सति, दिनयतेः सूर्यस्य यः संभोगव्यतिकरः सुरतम्यापारस्तस्त्र विमर्दन गात्रोपलपणाश्यानः शुको यी दिनधिया वासरलक्ष्याः कुचकुम्भयोः स्तनकलशयोः कुकमाङ्गग इव काश्मीरविलपर इव अरुणरोचिपि रक्तभमायां प्रतिदिर्श प्रतिकाईप्रसपति सति. विचन्त्या विकसन्त्यो याः कुसमलिकास्ताभिः कलिनेन शिखरण अग्रभागेन
शोभत इयंत्रं शीलान् शाखिनो घृशान् सुन्वन रात्रिधतीतति पृच्छति सौखरात्रिकस्तस्मिनिष झंकारंग २० मुखरिताः शब्दिताः ककुभः काटा येन तस्मिन् घट्पदकदम्बक भ्रमरसमूह संश्रयति सति समुपगच्छति
सति, कुमुदिनीषण्ड च कैरविर्ण:कल्लाप च प्रनिदेशस्य भावः प्रातिश्यं प्रतिवासत्वं तस्य स्थानं स्पृशन्तीति प्रतिवेश्यस्थानस्पृशस्तासाम् प्रतिवेशिनीनाम् अम्भोजिनीनां कमलिनीनाम् बन्योः सहचरस्य सूर्यस्यति यावत् प्रत्यूषाडम्बरस्त्र प्रमातादम्बरस्योदयाटम्बरमुदयमवममृष्यतीव-असहमान इव घटिता दलपुट
कवाटा यन तथाभूत इव बाढमत्यर्थ स्वपति सति, सत्र बनवसुधायाम् उपसरन्तं समापमागच्छन्तं जरन्तं २५ वृद्धं कमपि पामरं प्राकृतजनं सादरं सानं निवग्यं दृष्ट्वा परमनिर्वाणपदं निःश्रेयसपदम् उपसर्पतां गच्छतां
समुद्र में रहनेवाली बड़वानलकी ज्यालाआंके समूहसे व्याप्त हुएके समान जिसका शरीर लाललाल हो रहा था, जो कमलिलियोंसे सुखदायनका समाचार पूलनेवाला था, पथिकजनोंका मेत्र था और चकया-चकरियांका मित्र था ऐसा सूर्य जवन्धरकुमारको मार्ग दिखाने के
लिए हो मानो समुद्र से उन्मग्न हुआ-उदित हुआ। समुद्र में चिरकाल तक टूबे रहने के बाद ३० उखरे हुए सूर्य की बहुत देर तक रोकने के बाद छोड़ी हुई साँस के समान फूलोंके संसर्गसे
सुगन्धित प्रातःकालको वायु बहने लगी । सूर्यके संभोग-सम्बन्धी उद्योग में होनेवाले आलिंगनसे सूखे हुए दिनलक्ष्मीके स्तन कलशपर लगे कार के अंगणगक समान प्रत्येक दिशामें ऊपाकी लाल-लाल किरणें फैलने लगीं। झंकार से विदाओको मुखरित करनेवाला भ्रमरों का समूह
'रात्रि सुखसे बीती' यह समाचार पूछने वाले के समान विकसित फूलको कलिकाआंसे युक्त ३५ शिखरोंसे सुशोभित वृक्षों के समीप जाने लगा और कुमुदिनियोंका समूह पड़ोसमें स्थित
कमलिनियों के बन्धु-सूर्य के प्रातःकाल सम्बन्धी आडम्बरको न सह सकने के कारण ही मानो कलिकारूपी किवाड़ लगाकर सोने लगा। उसी समय पास में अ:ते हुए किसी वृद्ध साधारण
१. म० जलनिधिनिमग्नान्मन्नस्य । २. म० प्रत्यूपाःम्बरमनुष्यतीव ।
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जीवंधरस्य प्रस्थानम् ]
सक्षमो लम्भः धर्ममपदिश्य प्रदिश्य चार में निजाहार्यमाहार्यपर्यायावरणविगमादव्याजरमणीयस्ततोऽयमवजत् ।
१८६. ततश्च क्रमश: शशाङ्क इव सद्भिः संगच्छमानः कायैकदनतपोधन निकायतया निवारितनिखिल वापदोपद्रवानद्रोन्सार्वकालिकजलप्रवाहा वाहिनी: सर्वसौख्यास्पदानि जिनपदानि सर्वलोकनानि तोनि च तत्तदेशोगदर्शिताभिशापारि' यपशिशपपारतमयप्रशमनाय श्व विदटव्यां निजहदय इव निर्मले स्फटिकतले निपोदन्त्यकृतनिधिलवनकुसुमसौरभेण नीरन्ध्रि- ५ सत्राण न्फ्रेग गन्धना गिदगित किंचिद्विवतितविकः सविलासकरशाखावलम्बितसिताप्रथमसोपान भुम्मायसोपानरूपं गृह बिना धर्मम् उपदिश्य अस्मै पामराय निजाहाय स्यामरणसमूह प्रदिश्य च प्रदाय च हायपायमाभरणपं यदावणं तस्य विगमाद्रीभावात अव्याजरमणीयो निवर्गसुभगोऽयं जीवंधरः ततः कादरप्रदेशात अनजा।
१६. ततीनि-ततश्च तदनन्तरं च शशाङ्ग इव चन्द्र इव सदिनक्षत्रैः पधे सज्जनः संगच्छ- १० मानो मिलन काय एव शरीरमवक धनं येषां तथाका ये तपोधनाः साधो निप्परिग्रहयतयस्तेषां निकायस्या स्थानत्वेन निवारिता दृरीता निखिलाः समन्ता; सापडोपवा धनजन्तूत्पाता येपु सथाभूतान् अदीन् गिरीन् 'अद्विगोत्रनिरिणावाचलशैलशिलोयाः' इत्यमरः सावकालिकः शश्वस्थानी जलप्रवाहस्तीयपूरो पासां तथाभूना चाहिगीनदः, सर्वसोवान निविल सुखाराम् आस्पदानि स्थानानि जिनपदानि जिनस्थानानि जिन मन्दिराणीति यावत् 'पदं ब्यासिलवाणस्थान लक्ष्मानि प्रस्तु' इत्यमरः । सर्वलोकप्रार्थ्यानि १५ निखिल जनवाछितानि तत्तद्देशीयालतदेशसम्पन्धिनो दर्शिताः प्रकटिता अतिशया सेषु तथाभूतानि तीर्धानि च तीर्थस्थानानि च पश्यन्न , पविश्रमेण मार्गदेन यत्पारवश्यं परतन्त्रत्वं तस्य प्रशमनाय शान्तकरणाय कचित् कस्वांचित अध्यानरम्यान्याम् निजहृदय इव स्वीयतसीव निर्मले स्वच्छ स्मारिकतले निषीदन् समुपविशन न्यकृतं तिरस्कृतं निखिलवनकुसुमानां समग्रवन पुप्पाणां सौरभ सौगन्ध्यं न तेन नोरन्द्रितं निश्छिद्रितं Bणरन्नं नासाविवरं येन तेन गन्धेन आकृयः सन् ‘किमिदम् ?' इति हेतोः २० मनुष्यको बड़े आदरसे देख जीवन्धरस्वामीने उसे परमनिर्वाण पदकी ओर जानेवाले लोगों के लिए पहली सीढ़ीके समान गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया, अपने आभूषण दिये और उसके बाद आभूपणरूपी आवरणके दूर हो जाने से स्वाभाविक सुन्दरताको धारण करते हुए,वे वहाँ से आगे गये।
६१८६, तदनन्तर क्रम-क्रमसे चन्द्रमाके समान सत्पुरुपों ( पक्ष में नक्षत्रों ) के साथ २५ मिलते हुए जीवन्धरस्वामी शरीररूपी एकधनसे युक्त तपस्वियोंका स्थान होने से जिनमें समस्त जंगली जानवरोंके उपद्रव दूर हो चुके थे ऐसे पर्वतों को, जिनके जलका प्रवाह हमेशा बहता रहता था ऐसी नदियोंको, समस्त सुखोंके स्थानभून देशों को तथा समस्त मनुष्यों के द्वारा प्रार्थनीय एवं तत्तद्देझीन अतिशयोंसे सहित तीयोंको देखते हुए मार्गकी थकावटसे उत्पन्न परवानाको शान्त करने के लिए किसी अटवीमें अपने हैदयके समान निर्मल स्फटिकके ६० शिलातलपर बैठ गये। उसी समय समस्त वनदे फूलों की सुगन्धिको तिरस्कृत करने एवं नासिका के छिद्रोंको व्याप्त करने वाली सुगन्धि आया | उससे आकृष्ट हो 'यह क्या है ?' यह जानने के लिए ज्या ही उन्होंने पीठकी हड्डोको धुमाकर देखा त्यों ही मैथुनको इच्छा रखनेवाली कोई युवती उन्हें दिखाई दी। वह युवती हाव-भाव दिखानी हुई अंगुलिसे अपने सफेद वस्त्रका अंचल पकड़े हुई थी, फूली हुई वनकी लत्ताके समान उसका सौन्दर्य था और ऐसी ३५ जान पड़ती थी रानो बहुत देर से वह खड़ी हो । जीवन्धरकुमार बैलकी कान्दोलके समान
१. म० तत्तदेशोभाशयानि । २. का. कि किमिदमति ।
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२८० गद्यचिन्तामणि
[१८६ अरव्या - म्बरपल्लवां संफुल्लवनवल्लीतुल्यसौन्दर्यां चिरादिव विभाव्यमानां कामपि वृषस्यन्ती युवती वृषम्कन्धोऽयमपश्यत् । अपृच्छच्चायमभिप्रायविदामग्रेसर: 'कासि वासु, कस्मादिहासि । कस्यासि परिग्रहः । परिवाय परस्त्रोविमुखानामस्मत्प्रमुखाणां वशिनां मनःप्रवृत्ति मनोषितं तवाचक्ष्व'
इति । सा च समोहितविरोधिविजयानन्दनवचसा विधितमन्मथा तन्मनोभेदन निष्णातां दूतामिव ५ मितहमित द्विगुणिनदशनकिरणावलि विनिःमारयन्ती विरचिताजलिरेवमुपादत्त वक्तुम् –'अयि
भद्र, विद्राबितविधिपो विद्याधरराजस्य काचिदहं कन्या । गृहाद्विनिर्गत्य विजयागिरी साध सखीभिराबोडे क्रीडन्तीमालोक्य मम स्यालः कोऽपि वलादवलम्ब्य स्वबिमानमारोप्य गच्छन्मध्ये. मार्ग निजयुमध्यारोपभोतः पातितवानत्र वने । पातकिनी चाहमिह पर्यटन्ती भवन्तमधुना दिया
......................
किंचिन्मनाग विवर्तितत्रिकः परिवर्तितपृष्टास्थिको वृषस्य स्कन्ध इव स्कन्धो यस्य तथाभूतोऽयं जीवंधरः १० सबिलासं सविभ्रमं यथा स्यात्तया करशाखामिरगुलीभिरवलम्बितो पृतः सिताम्बरपल्लवः सितवस्त्राञ्चलो
थया ताम्, संफुल्ला समन्तापिता या वनवल्ली वनलता तस्यास्तुल्यं सौन्दर्य कामनीयकं यस्यास्ताम् , चिरादिव दीर्वकाहयतामा विमानमान: परिवारमाना अपस्यन्ती मैधुनेच्छावती कामपि युवी तहणम् अपश्यत् । अभिप्रायविदामाकृतज्ञानाम् अग्रेसरः प्रधान! अयं जीवकः अच्छच्च पप्रच्छ च
वासु ! सुन्दरि ! का असि वर्तसे । कस्माद् हेतोः इह कानने असि । कस्य जनस्य परिग्रहो मार्या असि । . १५ परस्त्रीभ्यो विमुखा विरलारतेषाम् अस्मत्प्रमुखानां मत्प्रधानानां वशिनां जितेन्द्रियाणां मनःप्रवृत्ति परिझाय
प्रबुध्य तव स्वस्या मनापितमभिप्रेतम् आचक्ष्व निवेदय' इति । सा च युवतिश्च समीहितस्य वान्छितस्य विरोधि यद् विजयानन्दनस्य जीव कस्य वचस्तेन विवर्धितो वृद्धिंगतो मन्मथो मारो यस्यास्तथाभूता सती तस्य जीवंधरस्य मनोभदने चेताभदने निष्णाता कुशला तथाभूतां दृतीमिव मितहसितंन मन्दहास्येन द्विगुणिता द्विगुणीभूता या दशनकिरणावली रदनरश्मिराजिस्ता विनिःसारयन्ती प्रकट यन्ती विरचिताञ्जलि २० बद्धहस्तसंपुटा सती एवमनेन प्रकारेण वक्तुं निगदितुम् उपादत्त स्वीचक्रे वक्तुमुद्यताभूदित्यर्थः-~-अयि
मद ! हे कल्याणिन् ! अहमेषा त्रिद्वाविता दुरीकृता विद्विषो चैरिणो येन तस्य विद्याधरराजस्य खगेन्द्र स्य काचित् कापि कन्या पतिंवरा अस्मीति शेषः । गृहात् सदनाद् विनिर्गस्य निःसृत्य विजयागिरी रमताचले सखीमिवयस्यामिः साधम आक्रीड उपवने कीडन्तीं खेलन्तीम आलोक्य हा मम स्यालो भ्रातजायाभ्राता
कोऽपि बलात् हठान् अवलम्ब्य परिगृह्य स्त्रविमानं स्वकीययोमयानम् आरोग्य गच्छन् मार्गस्य मध्य २५ इति मध्येमागं 'पारे मध्ये षष्टया वा' इत्यव्ययीमावसमासः निजस्थ स्त्रस्य सुमध्या भामिनी तस्या
रोपेण मीतस्त्रस्त: सन् अत्र बने काननेऽस्मिन् पातितवान् । पातकिनी च पापिनी चाहम् इव धने
स्थूल कन्धोंसे युक्त थे। अभिप्रायके जाननेवालोंमें अग्रेसर जीवन्धरस्वामीने उससे पूछा कि 'हे सुन्दरी ! तू कौन है ? यहाँ कहाँ से आयी है ? किसकी स्त्री है ? परस्त्रास विमुख रहने
वाले मुझ-जैसे जितेन्द्रिय पुरुपोंकी मनोवृत्तिको समझ कर अपना अभिप्राय कह'। इच्छित E३० कार्यका विरोध करने वाले जीवन्धरकुमारके उक्त कथनसे जिसका काम बढ़ गया था ऐसी
वह युवती उनका मन भेदने में निपुण दूतीक समान मन्द हास्यसे दूनी दिखनेवाली दाँतोंकी किरणावलीको निकालती हुई हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी। उसने कहा कि 'हे भद्र ! मैं शत्रुओं को खदेड़नेवाले विद्याधर राजाकी एक पुत्री हूँ। घरसे निकलकर विजयार्ध गिरिपर
सखियों के साथ बगीचामें कोड़ा करती देख मेरा कोई एक साला मुझे जबरदस्ती पकड़ अपने ३५ विमानमें चढ़ाकर जाने लगा। मार्ग के बीच में वह अपनी स्त्रीके क्रोधसे भयभीत हो गया
जिससे उसने मुझे इस धन में गिरा दिया। मैं पापिनी यहाँ घूम रही थी कि सौभाग्यसे इस
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गोवंधरस्य प्रस्थानम् ] सप्तमो सम्मः
२८१ मटवती । किमन्यत् । एवमतिकृपणाहं भवतश्चरणयोः शुश्रूषया चरितार्थमात्मानं कर्तुमिच्छामि । बालानामवलानामशरणानां शरणागतानां च त्राणं शौर्यशालिनां शैली चेच्चतुमितेषां समवाययास्य जनस्य संरक्षणं करणीयं न वेत्यत्र भवानेव प्रमाणम्' इति ।
१५७. प्रकृतिधोरः स 'कुमारोऽप्यविकृतेन्द्रियस्तधनानन्तरम् 'अम्ब, किं बतैवमादावेवास्माभिरननुमतमर्थमत्यर्थमर्थयसे । किमेतं रसरुधिराद्यशुचिवस्तुपर्याप्तमखिलाचिकुलसद- ५ नमविचारितरम्य मनुक्षणविशरारं शरीरसंझं मांसलं मांसपिण्डमालोक्येवं मोमुह्यसे । पश्य पश्यतामेवास्माकं विनश्यतोऽस्य केवलमस्थिपञ्जरस्य चर्मयन्त्रस्य सिरागहनस्य रुधिरह्लदस्य पिशितपर्यटन्ती परिभ्रमन्ती सती दिध्या देवेन 'दैवं दिष्टिर्मागधेयम्' इत्यमरः; अधुना साम्प्रतं भवन्तं दृष्टवतो विलोकयामास । अन्यत् किम् । अहं भवतस्तव चरणयोः पादयोः शुश्रपया सेवया आत्मानं स्त्रं चरितार्थ कृत कृत्यं कर्तुं वाञ्छामि । वालानां शिशनाम अबलानां नारीणाम् शरणानां शरणरहितानां शरणागताना १०
च शरणं प्रपन्नानां च त्राणं रक्षणं शौर्यशालिना पराक्रमशोभिना शैली रीतिश्चेत् तहि एतेषां बालादीनां । चतुर्णाम् समवायस्य नादस्प मिस्मा जय गोपिचर सस्ती करणीयं न वा इत्यत्र भवानेव प्रमाणम् ममावस्थां विचाय काव्यस्य विचारस्त्वयैव कार्य इत्यथः' इति ।
१८.७. प्रकृतिधीर इति-प्रकृत्या निसर्गेण धीरो गम्भीरः स कुमारोऽपि जीवधरोऽपि अविकृतानि निर्विकाराणि इन्द्रियाणि यस्य तथाभूतः सन् तद्वचनानन्तरं तस्याः स्त्रिया वचनानन्तरम् इति १५ व्याहार्षीत् जगाद । इतीति किम् । इत्याह--अम्ब ! हे मात: ! बत इति खेदमूच कोऽव्ययः एबमनेन प्रकारेण आदावेद प्रारम्म एव अस्माभिः अननुमतम् अनभिप्रेतम् अर्थम् कार्यम् अत्यर्थ निवान्नं किम् अर्थयसे याचसे । रसरुधिरादीनि--रसरतादीनि यानि अशुचिवस्तूनि अपूतपदार्थास्तैः पर्यात पूर्णम्, अखिलाशुचीनां निषिलापवित्रपदार्थानां कुल सदनं कुलभत्रनम्, अविचारितं च तत् रम्यं चेति अविधारितरम्यम् अविमृष्टमनोहरम्, अनुक्षणविशरारु क्षणे क्षणे नशनशीलम्, शरीरसंझं शरीरामिधानं मांसलं पुष्टं मांसपिण्डं २० पिशितराशिम् मालोक्य दृष्ट्वा एवमनेन प्रकारेण कि मोमुझसे भतिमोहं करोषि । पश्य विलोकय, अस्माकं पश्यतामेव सता, विनश्यतो मष्टीमवतः अस्यैतस्य अस्नो पारस्तस्य कीकशशलाकागृहस्थ, चर्मयन्त्रस्य सिराभिर्नाडीमिर्गहनस्य निबिडस्य, रुधिरहृदस्य रमजलाशयस्य पिशितराशेः पकप्रचयस्य, मेदसा 'वर्षी' समय आपको देख सकी। और क्या कहूँ ? इस तरह अत्यन्त दीनताको प्राप्त हुई मैं आपके चरणोंकी शुश्रूषासे अपने-आपको कृतार्थ करना चाहती हूँ। बालक, अबला, अशरण और २५ शरणागत जनोंकी रक्षा करना यदि पराक्रमशाली मनुष्योंको शैली है तो फिर उक्त चारों बातोंके समूह स्वरूप इस जनको रक्षा करना चाहिए या नहीं इस विषयमें आप ही प्रमाण हैं।
६१८७, स्वभावसे धीर एवं विकाररहित इन्द्रियोंके धारक जीवन्धरस्वामीने उसकी बात पूरी होते हो कहा कि हे अम्ब ! खपकी बात है कि जिसका हम पहले ही निषेध कर चुके थे उसीकी इस तरह क्यों अत्यधिक इच्छा करती हो ? जो रस रुधिर आदि अपवित्र 30 वस्तुओंसे भरा हुआ है, समस्त अपवित्रताओंका कुलगृह है, बिना विचार किये ही रम्य जान पड़ता है और क्षण-क्षणमें नष्ट हो रहा है. ऐसे शरीर नामक परिपुष्ट मांसके पिण्डको देखकर इस तरह क्यों अत्यन्त मोहित हो रही हो। देखो, हम लोगों के देखते-देखते ही जो नष्ट हो जाता है, केवल हड्डियोंका पिंजड़ा है, चमड़ेका यन्त्र है, नशोंसे संकीर्ण है, खूनका तालाब है, मांसकी राशि है, चर्बीका कलश है, मलरूपी शैवालका स्वल्प जलाशय है, और ३१
१. म० कुमारोऽप्य-1
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गधचिन्तामणिः
[१८७-१८८ अटन्यां -
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राशेर्मेदःकुम्भस्य मलजम्बालपल्वलस्य रोगनोडस्य कलेवरस्य हतुना केनचिदन्तःस्वरूपं चेदासोद्वहिरास्तामेतदनुभवास्था स्प्रष्टुमथवा द्रष्टुमथवैतत्काकेभ्यो रक्षितुं वा कः शक्नुयात् । अतस्त्वं' मक्षिकापक्षाच्छमलाच्छादनचर्मच्छायाप्रतारिताविवेकिन्यजस सृ'समानोटेलमलसहसूसंगतसुषिरे संस्पर्शक्षण दुषितसमस्तप्रशस्तवस्तुनि जुगुप्सनीयपूतिगन्धिदुरासदाणुनिर्माणे कर्मशिल्पिकल्पनाकौशलापितपेशलभ्रमे चर्मयन्त्रमित्रे गात्रेऽस्मिन्मा स्म कार्षीरत्यादरम्' इति व्याहार्षीत् ।
१८१. तावता 'मातुल सुते, मामतुलव्यथापाथोनिधी पातयन्ती क्व प्रयातासि । प्रयान्ति ममासवः' इति प्रलयतः कस्यचिदचलगह्वरप्रतिरवगभीरस्वरः काननं न्यानो । तमुपथत्येयमश्वस्यन्तो युवतिरनाश्वासात्कुमारे सद्य: क्वाप्यन्तरधाल, आविरासोच्च स परुषप्रलाप:
इति प्रसिद्धानां धातूनां कुम्भस्य कलशस्य, मलजम्बालस्य मलजल नील्याः स्वल्पजलाशयस्य रोगनीडस्य १० रोगाधारस्येति यावत् कलेवरम्य शरीरस्य अन्त:स्वरूपम् केनचित् केनापि हेतुना बहिश्चेत् तर्हि आस्तां दृरे
मवतु एतस्य शरीरस्यानुभवास्था समुपभोगश्रद्धा, स्प्रष्टुं स्पर्श कतुं द? विलोकयितुम् अथवा काकेभ्य बायसेभ्य एतद् रक्षितुं प्रातुं वा कः शश्नुयात् । समर्थो भवेत् । अतोऽस्मात् कारागात् त्वम् मक्षिकापनाच्छं मक्षिकारक्ष निर्मलं यन्मलाच्छादनमर्म तस्य छायया कानया प्रतारिता मवञ्चिता अविवेकिनो मूढा येन तस्मिन् , अजस्रं निरन्तरं संसमानं क्षरत् उद्वेलं निःसीम यन्मलसहस्रं तेन संगतानि सुषिराणि लिदाणि १५ यस्य तस्मिन् , संपशस्य क्षणे दृषितानि गहितानि समस्तप्रशस्त वस्तूनि निखिलोत्तमपदार्था येन तस्मिन् ,
जुगुप्सनी या घृणायोग्या पूतिगन्धयोऽशोमनगन्धयुन्ना ये दुरासदाणवस्तै निर्माण यस्य तस्मिन् , कर्मव शिल्पी कार्यकरसस्य कल्पनाकौशलेन रचनाचातुर्येणापितः प्रदत्तः पेशलभ्रमो रमणीय संदेहो येन तस्मिन्, चर्ममन्त्रस्य मिनं सदृशं तस्मिन् अस्मिन् गात्रे शरीरे अायादरमसिस्नेहं मा काषीः इति ।
८. तावतेति-तावता तावस्कालेन 'भातुलसुते ! हे मातुलाङ्गजे! माम् अतु न्यथापाथो२० निधौ अप्रतिमपीतापयोधौं पातयन्ती क्व प्रयातासि गतासि ? मम असवः प्राणाः प्रयान्ति' इति प्रलपतो.
नर्थकं ब्रुवतः कस्यचित् अचलगहरेषु गिरिगुहासु प्रतिरवेण प्रतिध्वनिना गमीरश्चासौ स्वरश्च शब्दश्व काननं ___ बनं व्यानशे व्याप । तं स्वरम् उपश्रुत्य अश्वस्यन्ती मैथुनेच्छावती युवतिः कुमारे जीवकेऽनाश्वासात् भावा
सनामाघात् सद्यो झटिति कापि कुत्रापि अन्तरधात् तिरोहिताभूत् । परुषः प्रलापो यस्य तथाभूतः स पुरुष
रोगोंका घोंसला-घर है ऐसे शरीरका भीतरी भाग यदि किसी हेतुसे बाहर हो जाये तो २५ इसके भोगनेकी बात तो दूर रही छूने, देखने अथवा कौओंसे इसको रक्षा करने के लिए भी कोन
समर्थ हो सकता है ? इसलिए मक्खीके पंखके समान निर्मल एवं मलको आच्छादित करनेवाले चमड़ेको कान्तिसे जिसने अविवेको मनुष्योंको ठग रखा है, जिसके छिद्र निरन्तर झरनेवाले हजारों प्रकारके अत्यधिक मलोंसे व्याप्त हैं, जो स्पर्श के समय ही समस्त उत्तम
वस्तुओंको दूपित कर देता है, घृणित दुर्गन्धित एवं उपेक्षणीय परमाणुओंसे जिसकी रचना ३० हुई है और कर्मरूपी कारीगरके रचना-सम्बन्धी कौशलसे जिसे सुन्दरताका भ्रम दिया गया है ऐसे चर्मयन्त्रके समान इस शरीर में तुम अधिक आदर मत करो।
१८८. उसी समय 'हे मातुल पुत्री ! मुझे अनुपम दुःखरूपी सागर में गिराती हुई तुम कहाँ चली गयी हो ? मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। इस प्रकार प्रलाप करनेवाले किसी मनुष्य
का पर्वतकी गुफाओंमें गूंजनेवाली प्रतिध्वनिसे गम्भीरताको प्राप्त हुआ शब्द वनमें व्याप्त हो ३५ गया। उस शब्दको सुन मैथुनकी इच्छा करनेवाली युवती कुमार का आश्वासन न मिलनेसे ___ कहीं अन्तर्हित हो गयी। कठोर प्रलाप करता हुआ पुरुप प्रकट हुआ और मानसिक व्यथासे
१. म० अतस्तं ।
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-विद्याधरवृत्तान्तः ]
सप्तमो लम्भः पुरुषः । अप्राक्षोच्चायमाधिक्षीणः कुमारम्—'अयि महाभाग, भागधेयविधुरोऽहं विद्यानां पारदवा कोऽपि विद्याधरः । सोऽहं मम मातुलस्वाङ्गजामनङ्गतिलका नाम कन्यका मुदन्योपद्रुतामिह ट्रममूले क्यचिदवस्थाप्य प्रस्थित: पुनरुपस्थितश्चानीय पानीयं महनीयाकृति तां तत्र बिम्बोष्ठी न दयात् । कुमार, कुमारीय मामिदानीमुपेक्ष्य कटाक्षेणापि नेक्षते । तथा स्निग्धामिमां मुग्धाम. पश्यतो मम पारवश्यान्मांसदृष्टिरिब ज्ञानदष्टिरपि नष्टेव प्रतिभाति । किमत्र करोमि । तत्र भवतः ५ सकाशं किमियमविशन् ।' इति ।
१८६. कुमारोऽयस्यात्यारूढ रागमूढस्य गगनचरस्य वचनमतिदीनं निशम्य 'न शाम्यति हि कर्मोपशमादृते दुर्मोचोऽयं रागरोगः । ततः खलु रागपरवशो लोक: स्वकुलं स्वशीलं स्वविभवं स्ववैभवं स्वशीर्य स्ववीर्य स्वपीरुपं स्ववेदनमप्येकपद एव व्युदस्य दास्यमयभ्युपगच्छति । आविरासीत् प्रकटीबभूव स्व । आधिक्षाणोऽयं पुरुषः कुमारम् अप्राशीच-अपि महाभाग ! हे महानुभाव ! १० भागधेयविधुरः सद्भाग्यरहितोऽहं विद्यानां पारं दृष्टवानिति पारवा पारदशी कोऽपि विद्याधरः खगोऽस्मीति शेषः । सोऽहं मम मानुलस्य मामस्य अङ्गजां पुत्रोम् अनङ्गतिलकाम् एतनामधेयां नाम कन्यकाम् उदन्योपद्धता पिपासापीडिताम् इह कचित् दुममूलेऽवस्थाप्य समुपवेश्य प्रस्थितः प्रयातः पुनरनन्तरं पानीयं, जलमानीय उपस्थिती मदुनीयाकृति सुन्दरशरीर तां बिम्बोष्ठी रक्तरदनाच्छदां तत्र न दृष्टवान् । कुमार ! इयं कुमारी माम उपेक्ष्य त्यक्त्वा अन्यमिति शेषः कटाक्षेणारी करणाऽपि इदानी साम्प्रतं नक्षतं न विलो. १५ कते । तथा तादृशं स्निग्धां स्नेहयुक्ताम् इमां मुग्धां सुन्दरीम् अपश्यतोऽनवलोक्यतो मम विद्याधरस्य पारवश्याद्विवशरवात् मांसदृष्टिरिव ज्ञानहरिपि नष्टेव प्रतिमाति प्रतीयते । अत्र विषय किं करोमि ? तत्र भवतो माननीयस्य भवतः सकाशं सनिधि किम इयम अविशन् ? प्रविष्टा, इति ।
६१८९, कुमारोऽप्यस्येति-कुमारोऽपि जीवंधरोऽपि अत्याख्ननातिवृद्धन रागेण मूढस्तस्य, अस्य गानचरस्य विद्याधरस्य अतिदीनं दैन्यावह वचनं निशम्य श्रुत्वा कर्मोपशमात् कर्मणामुपशमस्तस्माद् ऋतं २० विना अयं राग एय रोगो रागरंगो दुर्भाचो दुश्वेन भोक्तुं शक्यः । ततस्तस्मात् कारणात् खलु निश्चयेन रागपरवशो रागनिनो नरः स्वकुलं स्वत्रंशं स्वशीलं स्वस्त्रमा स्वविमवं स्वस्यैश्वयंम् स्ववैभवं स्वसामयम् , स्वशीयं स्वपराक्रमम स्वीर्य स्वशनिम स्वपौरुषं स्वप्रयत्रं स्व वेदनं स्वज्ञानमपि एकपद एव न्युदस्य स्यक्त्वा दास्यमपि अभ्युपगच्छति स्वीकरोति । रागान्धो हि अखिलेन्द्रिय गापि निखिलहृषीकेणाप्यदर्शनाद् क्षीण होता हुआ कुमारसे पूछने लगा--हे महानुभाव ! मैं भाग्यसे दुःखी विद्याओंका पारदर्शी २५ कोई विद्याधर हूँ। मैं प्याससे पीड़ित अपने मामाकी पुत्री अनंगतिल का नामकी कन्याको यहाँ किसी वृक्ष के नीचे बैठाकर गया था परन्तु पानी लेकर वापस आनेपर सुन्दर आकृतिको धारण करनेवाली उस विम्बोष्ठीको नहीं देख रहा हूँ। हे कुमार ! यह कुमारो इस समय मेरी उपेक्षा कर अन्य पुरुषको कटाक्षसे भी नहीं देखती है। उस प्रकारका स्नेह करनेवाली इस सुन्दरीको न देखनेसे परवशताके कारण मांसदृष्टिके समान मेरी ज्ञानदृष्टि भी नष्ट हुई-सी ३० जान पड़ती है । यहाँ मैं क्या करूँ ? आपके पास तो यह नहीं आयी ?
६१८९. अत्यधिक रागसे मूढ विद्याधरके दीनता-भरे उक्त वचन सुन कुमार भी विचार करने लगे कि दुःखसे छूटने योग्य यह रागरूपी रोग कर्मोपशमके बिना शान्त नहीं होता है। इसीलिए तो रागके वशीभूत हुआ यह मनुष्य अपने कुल, शील, विभव, वैभव, शौर्य, वीर्य, पौरुप और ज्ञानको भी एक साथ छोड़कर दासवृत्तिको स्वीकृत करता है । ३५ वास्तवमें रागसे अन्धा मनुष्य समस्त इन्द्रियोंसे न दिखनेके कारण अन्धेसे भी कहीं
१. क मानिनी । २. म० कुमारोऽप्यत्या रूढरागमूढस्य ।
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२८४ गद्यचिन्तामणिः
[ १८९ अटम्यां - रागान्धो ह्यखिलेन्द्रियेणाप्यदर्शनादन्धादपि महानन्धः । केचिदेव हि वशिनः किमिदं किंविषयं कीदृक्कियत्किफलमिति विचारचतुरकर्णधारा रागसागरं सदाजागरास्तरन्ति' इत्यन्तश्चिन्तयंश्चिन्तागौरवस्फुरितखेदं खेचरमुद्दिश्य 'भो नभोग. भोगलोलपतया किमेवं विद्याशाली खिसे । विकारहेतौ सति मनश्चेद्विक्रियते विद्यास्फूतिः किमथिका । क्वचिदस्थानपातिनो जनस्य याथात्म्यमवद्योतयितुं हि विद्याक्लेशः । दुराग्रहावकुण्ठित मतेस्त्वयं कण्ठशोषणमात्रफलः स्यात् । ततस्त्वया विहन्यतामियं कन्यानुपलम्वन्गिता वैपश्चित्यशालिना शालीनता । कि च कि न जानासि तरुणोनां प्रसारणं मनस्यन्यवचस्यन्यत्कर्मण्यन्यन्ननु तासाम् । ताः खल्यमान्तं स्वान्तादिवोद्वान्तं काठिन्यस्वभावं कौटिल्यसंभारं रागप्राग्भार तमःसंदोहं च स्तनद्वये नयन गमनवचनभ्रूलतास्वधर
अन्धादपि महानन्धः । तथा चोक्तम्--'अन्धादयं महानन्धी विषयान्धीकृतक्षण: ! चक्षुषान्धी न जानाति १. विषयान्धो न केनचित्' इत्यात्मानुशासने गुपभइदेवेन । 'केचिदेवेति-हि निश्चयन वशिनी जितेन्द्रिया
इदं किं को विषयो यस्य तत् , कीटक कथंभूतं कियत् फलं यस्य तत् इति विचार एव चतुरः कर्णधारी येषां तथाभूताः केचिदय जनाः सदा जागराः सावधानाः सनिक रागसागर रामपाथोधिं तरन्ति' इतीत्वम् अन्तमनसि चिन्तयन् विचारयन्, चिन्ताया गौरवेण स्फुरितः खेदो यस्य तथाभूतं खेचरं विद्याधरम् उद्दिश्य भो
नभोग ! अयं विद्याधर ! विद्याशाली विद्याविशॉमितरुचम् भोगलोलुपतया मोगतृष्णया एवं किं १६ विथ से । विकारहतो विकृतिभिदाने सति मनश्चेतश्चेद् विक्रियते विकृतं मवति तर्हि विचाया: स्फूतिविद्या
स्फूतिविद्याविकासः किमर्यिका किमुद्देश्यिका । क्वचित् क्वापि अस्थाने पततीत्येवंशीलस्तस्य जनस्य याथात्म्यं यथार्थस्वरूपम् अवद्योतयितुं प्रकाशयितुं हि विद्याले शो विद्याध्ययनपरिश्रमो भवतीति शेषः । दुराग्रहेण दुष्टहठेनाकुण्ठिता मतियस्य तस्य जनस्य तु भयं विद्याक्लेशः कण्टशोषणमात्रं फलं यस्य तथाभूतः स्यात् ।
ततस्तस्मात् कारणात् वैपश्चित्यशालिना वैदुग्यशोभिना स्वया कन्याया अनुपलम्भेनाप्राप्या विजृम्भिता २० वृद्धिंगता इयमशालीनता पृष्टता 'स्यादष्टे तु शालीनः' इत्यमरः विहन्यताम् त्यज्यताम् । किं च अन्यच्च
कि तरुणीनां प्रतारणं न जानासि । ननु निश्चयन तासां मनसि, अन्यत्, वचसि अन्यत् ; कमणि अन्यत् भवतीति शेषः । तास्तरुण्यः खलु निश्चयेन अमान्तं मातुमपारयन्तम् अत एव स्वान्ताञ्चित्तात् उद्वान्तं निःसृतं काठिन्यस्वभावं कर्कशस्वभावं, कौटिल्यसंमारं वक्रतासमूहं तमःसंदोहं च तिमिरसमूहं च ( क्रमेण ) स्तन द्ये कुचयुगले, नयनं च गमनं च वचनं च भूलताश्चेति नयनगमन वचनभूलतास्तासु, अधरश्च करौ ध अधिक अन्धा है। कितने ही जितेन्द्रिय मनुष्य यह क्या है ? किस विषयको प्रहण करनेवाला है ? कैसा है ? कितना है और किस फलवाला हैं ? इस प्रकारके विचार करनेमें निपुण हो सदा जागरूक रहते हुए इस संसार-सागरको पार करते हैं। इस प्रकार चिन्ना करते हुए जीवन्धरस्वामी जिसे अत्यधिक खेद प्रकट हो रहा
था ऐसे विद्याधरको लक्ष्य कर बोले कि 'हे विद्याधर ! विवाओंसे सुशोभित होने पर भी इस हे सरह आप भागों में लोलुप होनेसे क्यों खेद-खिन्न हो रहे हो ? विकारका कारण मिलनेपर
यदि मन विकृत हो जाता है तो फिर विद्याकी स्मृति किसलिए है ? किसी अस्थानमें गिरनेवाले मनुष्यको यथार्थ बात बतलाने के लिए ही विद्याका क्लेश उठाया जाता है। किन्तु जिसकी बुद्धि दुराग्रहसे कुण्ठित हो रही है उसके लिए विद्याका क्लेश कण्ठको सुखाने मात्र
फलसे सहित है। आप पाण्डित्यसे सुशोभित है अतः आपको कन्याके न मिलनेसे बढ़नेवाली ५५ यह अधृष्टता छोड़ देनी चाहिए। इसके सिवाय क्या आप स्त्रियों के प्रपंचको नहीं जानते हैं ?
उनके मन में कुछ, वचनमें कुछ और कार्य में कुछ अन्य हो रहता है। निश्चय से भीतर नहीं समान के कारण ही मानो हृदयसे बाहर प्रकट हुए काठिन्य स्वभावको स्तनयुगलमें, रागको
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- विद्याधरवृत्तान्तः ] सप्तमो लम्मः
२८५ करचरणेषु चिकुरभारे च वहन्त्यः कथं रागान्धजनादितरेभ्यो रोचन्ते ? तस्मादशुचिमयोनामघमयोनामपवादमयीनामनार्जवमयोनाममार्दवमयोनां मायामयोनां मात्सर्यमयीनां महामोहमयीनां कामिनीनां कपटस्नेहे न विश्वासस्त्वया कार्यः' इत्युदोरयामास ।
६१६०. ततश्चैवमत्यद्भुतं सात्यंरिवचनं निशम्याप्यनुपशाम्यन्मन्युभरिते तत्कन्यान्वेषणप्रवणे गते तस्मिन्गगनेचरे, वनिताजनवञ्चनाप्रपञ्चमजसा साक्षात्करणेन मुहुर्मुहुः संचि- ५ न्तयन्नेव कुमारस्तस्मादियाय ।
१९१. तदनु च स्यचित्प्रत्यन्तवीक्ष्यमाविषमविषाणभोषणवृषकुलवृषस्याकलहविज़भितनिर्दोषपूरित घोषघोषेण, क्वचित्प्रशस्तप्रदेशनिवेशितविशालशालोद्भवदतिप्रभूताध्ययनम्वनिना
चरणी चेत्यधरकरचरणास्तेपु. चिकुरभारे च केशकलाऐ च, बहन्यो दधत्यः कथं केन कारणेन रागेणान्धी रागान्धः स चासो जनश्चेति रागान्ध जनस्तस्माद् विषयान्धपुरुषात् इतरेभ्योऽन्येभ्यो रोचन्ते ? 'रुच्यांना १० प्रीयमाणः' इति चनुौं । तस्मात् कारणात् अशुचिमयीनामपवित्ररूपाणाम् , अधमयीनां पाररूपाणाम्, अपवादमयीनां निन्दामयीनाम्, अनार्जवमयीनां कौटिल्यरूपाणाम्, अमादबमयीनामविनयरूपाणाम्, मायामयीनां मायारूपाणां मात्सर्यमयीनामसूयारूपाणाम् महामोहमयीनां महामोहरूपाणां कामिनीनां नारीणां कपटस्नेहे मायापूर्णप्रीतो त्वया विश्वास ः प्रत्ययो न कार्यः' इति उदीरयामास कथयामास ।
६१६०. ततश्चैवमिति-ततश्च तदनन्तरं च एवं पूर्वोक्तप्रकारम् अस्यद्भुतमस्याश्चर्यकरम् सत्यंधर- १५ स्यापत्यं पुमान् सात्यंधरिस्तस्य जीवंधरस्थ व वनं निशम्यापि प्रत्यापि अनुपशाम्यन् उपशान्तो न भवन मन्युभरिते शोयुक्त तत्कन्यायाः पूर्वक्तिकन्याया अन्वेषणे मागंणे प्रवणो लीनस्तस्मिन् गगनेचरे विद्याधरे गते सति, वनिताजनस्य ललनालोकस्य वजनायाः प्रतारणायाः प्रपञ्चं विस्तारम् अञ्जसा यथार्थतया साक्षात्करणेन प्रत्यक्षकरणेन मुहमहुभूयोभूयः संचिन्तय व विचारयशेव कुमाः तस्मादनात् इयाय जगाम ।
११. तदनु चेति-तदनु च तदनन्तरं च, क्वचित् कुत्रचित् प्रत्यन्ते समीपे वीक्ष्यमाणा दृश्यमाना २० विषमविषाणैस्तीक्ष्ण भीषणं भयंकरं यद् घृषकलं वलीवर्दसमूहस्तस्य वृषस्याकलहो मैथुनेच्छाजनितकलहस्तेन विजृम्भितो वृद्धिंगतो यो निर्घोष उच्चैःशब्दस्तैन पूरितो भृतो यो घोष आमीरवसतिस्तस्य घोषेण कलकलशब्देन, कचित् कुत्रापि प्रशस्तप्रदेशेषु श्रेष्ठस्थानेषु निवेशिताः स्थापिता या विशालशाला विस्तृतविद्यालयास्ताभ्य उद्भवन् उत्पद्यमानोऽतिप्रभूतोऽत्यधिको योऽध्ययनध्वनिः पठनस्वस्तेन, क्वचित् कुत्रापि अधिकताको अधर, हाथ और पैरोंमें, कुटिलताको नेत्र, गमन, वचन, तथा भ्रकुटिलतामें २५ और तिमिर के समूह को केशपाशमें धारण करनेवाली स्त्रियाँ रागान्धजनोंके सिवाय और किसके लिए अच्छी लगती हैं ? इसलिए अपवित्रता, पाप, अपवाद, कुटिलता, कठोरता, माया, मात्सर्य और महामोहसे तन्मय स्त्रियोंके कपटपूर्ण स्नेहमें आपको विश्वास नहीं करना चाहिए।
६१६०. तदनन्तर इसप्रकार अत्यन्त आश्चर्यसे भरे हुए जीवन्धरस्वामीके वचन ३० सुनकर भी जिसका खेद शान्त नहीं हुआ था, तथा जो उसी कन्याके खोजनेमें निमग्न था ऐसे उस विद्याधरके चले जानेपर स्त्रीजनोंकी मायाके प्रपंचका अच्छी तरह साक्षात्कार कर लेनेसे बार-बार उसीका विचार करते हुए जीवन्धरस्वामी.उस वनसे चले गये। ..
६१६१. तत्पश्चात् जो कहीं तो समीपमें दिखाई देनेवाले विषम सींगोंसे भयंकर वृषभसमूहकी मैथुनेच्छासे उत्पन्न कलहसे वृद्धिंगत (भानेके शब्दसे परिपूर्ण अहीरोंकी बस्तीके ३५ शब्दसे युक्त था । कहीं उत्तम स्थानमें स्थित विशाल पाठशालाओंसे उत्पन्न होनेवाले अध्ययनकी बहुत भारी ध्वनिसे सहित था। कहीं लम्बे-चौड़े विशाल कठोर स्थलोंमें लगे हुए गन्ना
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गद्यचिन्तामणिः
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जीवंधरस्य -
क्वचिद्विशङ्कटकठिनस्थलघटितेक्षुयन्त्रकुटीरकोटिनिबिडकोलाहलेन क्वचित्पाककपिशकणिशशालि. शालेयक्षितिसुलभशालिसस्यलवनतुमुलेन सर्वतश्च संचरनितम्बिनीपदावलम्बनलम्पटताञ्चितमजुशिजानमजीररवेण च महितस्य मध्यदेशस्य मध्ये विनिवेशितां विशालजालरन्ध्रविनिर्यदगुरुधुपजालविलसदकालजलदागमाम_कषहम्यानयूहनिखातनैकमणिमहःकल्पितशतमखचारुचापवि५ भ्रमां विविधमहोत्सवताड्यमानलटहपटहाटुतररटित पर्जन्यजितां शम्पाविडम्बिबिम्बाधरानिक
रालोकप्रावृतां प्रावृडाभां हेमाभपुरी हेमकोशशङ्कया विशग्विवशपीररामानयनसुमनोभिरविराममचितः कुमारः कमप्यनारतकुसुमाभिरामाराममगाहिट, ऐक्षिष्ट च क्वचिदसकृत्प्रहितपृषत्कास्पृविशङ्कटेषु विशालेषु कठिनस्थलेषु कर्कशावनिपु घटितानि स्थापितानि यानीवुयन्त्राणि तेषां याः कुटीरकोटयो
हस्वकुटीरकोटयस्तासां निधिडकोलाहलेन तीव्रतरशब्देन, क्वचित् कुनापि पाकेन परिणामेन कपिशाः पिङ्गला १० ये कणिशा मार्यस्तैः शालिन्यः शोभिन्यो याः शालेयक्षितयो ग्रीहिक्षेत्रभूमयस्तासु सुलमानि सुकाप्यानि
यानि शालि सस्यानि शोमिधान्यानि तेषां लवनस्य छेदनस्य तुमुलं कल कलरवस्तेन, सर्वतश्च समन्ताच्च संचरन्त्यो भ्रमन्स्यो या नितम्मिन्यो नार्यस्तासां पदावलम्बनलम्पटतया चरणाश्रयलम्पाकतया अञ्चितानि शोभितानि मनशिक्षानानि मधुररणितयुक्तानि यानि मीराणि नूपुराणि तेषां रवेण च शब्देन च महितस्य प्रशस्तस्य मध्यदेशस्य मध्ये विनिवेशितां स्थापिताम् विशालजालानां दीर्घगवाक्षाणां रन्धेभ्यो विवरेभ्यो १५ नियद् निगच्छद् यद् अगुरुधूमजालं कृष्णागुरुयूम्रसमूहस्तेन विलसन् शोभमानोऽकाल जलदागमोऽसमय
मेघागमो यस्यां ताम्, अभ्रंपाणि गगनचुम्धीनि यानि हर्माणि धनिकनिकेतनानि तेषां नियू हेपु मत्तवार. णेपु निरमाताः खचिता ये नैझमणयो नानारत्नानि तेषां महसा तेजसा कलितो रचितः शतमखचारुचापानां शक्रसुन्दरशरासनानां विभ्रमः संदेहो यस्यां ताम्, विविधमहोत्सवेषु नैकप्रमोदायोजनपु ताइसमाना ये
लटहपटहा मनोहरानकास्तेषां पटुतररटितमंद तोवतरशब्द एव पर्जन्यगतिं मेघस्तनितं यस्यां साम् , २० शम्पाविस्चिन्यो विद्युसिरस्कारिण्यो या बिम्बाधरा रक्तोष्ठ्यस्तासां निकरस्य समूहस्यालोकेन प्रकाशेन
प्रावृता समाच्छादिता ताम्, भतएव प्राडामा चर्तुतुल्याम् उभयोः सादृश्यमुकप्रकारेण योध्यम्, हेमाभपुरी तन्नामनगरीम् हेमकोश राया काञ्चनभाण्डारसंशोत्या विशन् प्रवेशं कुर्वन् विवशा मदनविकारंण परायत्ता याः पौररामा नागरिक नार्यस्तासां नयनसुमनोभिलो चनळतान्तैः अविरामं निरन्तरं यथा स्यात्तथा अर्चितः .
पूजितः कुमारो जीवंधरः कमपि कञ्चिदप्यमाननामधेयम् अनारतं शश्वत् कुसुमैः पुष्परभिरामो मनो२५ हरो य आराम उद्यानं तम् अगाहिष्ट प्रविवेश । ऐभिष्ट च ददर्श ध असकृत वारं वारं प्रहितावितैः पृषरकै. पेलनेके कोल्हुओंसे युक्त करोड़ों कुटियोंके सान्द्र कोलाहलसे पूर्ण था। कहीं पक जानेसे पालीपोली दिखनेवाली बालोंसे सुशोभित धान के खेतोंकी भूमिमें सुलभ शालि-धानके काटने के शब्दसे युक्त था और कहीं सब ओर चलती हुई स्त्रियों के पैरोंका अवलम्बन लेनेकी लम्पटतासे
सुशोभित मनोहर शब्द करनेवाले नूपुरोंको झनकारसे प्रसिद्ध था ऐसे मध्यदेशके मध्य में ३. स्थित वर्षाऋतुकी शोभाको धारण करनेवाली उस हेमाभपुरीमें जीवन्धरकुमारने प्रवेश किया कि जिसके बड़े-बड़े झरोखोंसे निकलती हुई अगुरु चन्दनकी धूम्र पंक्तिसे असमय में ही मेघोंका आगमन सुशोभित हो रहा था । गगनचुम्बी महलों के छजोंमें लगे हुए नाना प्रकारके मणियों के तेजसे जहाँ इन्द्रधनुपोंकी सुन्दर शोभा निर्मित हो रही थी। नाना प्रकार के
महोत्सवोंमें बजाये जानेवाले सुन्दर-सुन्दर नगाड़ोंके जोरदार शब्द जहाँ मेघ गर्जनाके ३५ समान जान पड़ते थे, और बिजलियोंका तिरस्कार करनेवाली स्त्रियोंके समूहके प्रकाशसे जो विरी हुई थी। जो हेमकोशकी शंकासे उस हेमाभपुरोमें प्रवेश कर रहे थे और प्रवेश
१. क. निकरालोकप्रवृत्ताम् ।
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हेमाभपुर्या प्रवेशः]
सप्तमी लम्भः एमाक्रष्टुमाम्रफलमायस्यन्तमङ्गस्यन्दिलावण्यवनं कमा युवानम् । तदालोकनेन तयावासमपसारयितुमधिज्यधन्वनस्तस्मादयं धन्वी धनुराकृष्य पुनराततज्यमेतदातन्वन्विकृष्य मात्रया पत्रिणं प्राहिणोत् । प्रत्यगृह्णाच्च तत्रैवावस्याय नात्यादरव्यापारितवामेतरपाणिना फलेन समं संमुखमागतं संदेशहरमिव चतुरं शरम् । पुनरालीढशोभिनस्तस्यालोक्य सात्यंधरेरधरिताखिलचापधरं चापदण्डारोपणे तदाकर्षणे शरमोक्षणे शव्यलक्षणे च लाघवमलघु चित्रीयाविष्टः स युवा पवित्रकुमार- ५ मेनमत्यादरम्याचत-'इतो मित्र, नैजन्याय चातुर्याबसीददमित्रो दृढमित्रो नामात्र क्षत्रचूडामणिः ।
वणिरस्पृष्टम् आम्रफलं रसालफलम् आक्रष्टुं स्व सास्कतुम् आयस्यन्तं खेदमनुभवन्तम् अङ्गस्पन्दि अङ्गेभ्योऽवयवेभ्यः क्षरत लावण्यवनं सौन्दयसलिलं यस्य तथाभूतं कमपि युवानम् तरुणम् । तस्य यून आलोकनं तदालोकनं तेन तदायासं युबखेदम् अपसारयितुं दूर कर्तुम् धन्धी धनुर्धारणनिपुणोऽयं जीवकः अधिज्यं समीकि धनुयस्य तथाभूतात तरुणात् धनुः कोदण्डम् आकृष्य स्वहस्ते त्वा पुनः एतद्धनुः १० आततज्यं सत्यञ्चम् आतन्वन् विस्तारयन् मात्रया मानेन 'मात्रा परिच्छदं विरो मानेऽल्पे कर्णभूषणे' इवि विश्वलोचनः, पत्रिणं पाणं प्राहिणोत् प्रजिवाय मुमोचेत्यर्थः । प्रत्यगृहाच्च प्रसिजग्राह च तत्रैव स्थाने अवस्थाय स्थितो भूखा नात्यादरं यथा स्यात्तथा व्यापारितश्चासौ वामेतरपाणिश्चेति नारयादरव्यापारितवामेतरपाणिस्तेन उपेक्षाभावेन संचालित दक्षि गपाणिना फलेन रसालफलेन समं साध संमुखं पुरस्तात् आगतं चतुरं विदग्धं संदेशहरमिष दूतमि व शरं वाणम् । पुनरनन्तरम् आलोढेन आसनविशेषेण ।। शोभत इत्येवंशीलस्तस्य, तस्य सात्यंधोर्जीवंधरस्य अधरिताः पराजिता अखिल चापधरा निखिलकोदण्ड- - धरा यस्मिस्तत्, चापदण्डारोपणे धनुदंडधारणे, तदाकर्षणे तस्य सप्रत्यञ्चीकरणे, शरमोक्षणे वाणत्यजने, शरच्यलक्षणे च कक्ष्यवेधने च अलधु विपुलं लाघवं क्षिप्रकारित्वं चातुर्य वा आलोक्य दृष्ट्वा चिनीयाविष्ट आश्चर्य युक्तः स युवा एनं पवित्रकुमारं जोवकम् अस्यादरं यथा स्यात्तथा अयाचत यावते स्म-'मित्र ! नैजेन स्वकीयेन न्यायचातुर्येण न्यायवैदग्ध्येनावसीदन्ति नश्यन्ति अमित्राणि शत्रवो यस्य तथाभूतो न दृढमित्रो नाम क्षत्रचूडामणिनृपतिः भस्तीति शेषः । सस्य दृढमिनरूप सदा सर्वदा संफुल्लं विकसित करते समय विवशताको प्राप्त हुई नगरकी स्त्रियाँ अपने नेत्ररूपी फूलोंसे जिनकी अविराम अर्चा कर रही थीं ऐसे जीवन्धरकुमारने वहाँ अविरल फूलोंसे सुन्दर किसी बगीचामें प्रवेश किया ! और प्रवेश करते ही उन्होंने वहाँ किसी जगह एक ऐसे युवकको देखा जो बार-बार चलाये हुए बाणोंसे अस्पृष्ट आमके फल को तोड़नेका प्रयत्न कर रहा था तथा जिसके २५ शरीरसे लावण्यरूपी जल झर रहा था।
युवकको देखनेसे उसका खेद दूर करने के लिए उन्होंने प्रत्यंचासहित धनुषको धारण करनेवाले उस युवासे धनुष ले लिया । वे धनुष चलाने में अत्यन्त कुशल तो थे ही अतः उन्होंने उस धनुपको फिरसे खींचकर डोरीसे सहित किया और अल्प प्रयाससे एक बाण चलाया । उन्होंने वहाँ खड़े-खड़े ही साधारण आदरसे चलाये हुए दाहिने हाथसे फल के साथसाथ सामने आये सन्देशहरके समान चतुर बाणको वापस ले लिया। तदनन्तर आलीढ़ आसनसे सुशोभित जीवन्धरस्वामोकी धनुर्दण्ड के चढ़ाने में, उसके खौचनेमें, बाण छोड़ने और लक्ष्य के वेधने में समरस धनुर्धारियोंको तिरस्कृत करनेवाली चतुराई देख बहुत भारी आश्चर्य से युक्त हो उस युधाने अत्यधिक आदर के साथ जीवन्धरस्वामीसे इस प्रकार याचना की।
'हे मित्र ! यहाँ अपने न्याय सम्बन्धी चातुर्यसे शत्रुओंको दुःखो करनेवाला दृढ मित्र
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२८८
गद्यचिन्तामणिः
[१९२ हेमामपुरीतस्य महिषी सदा संफुल्लवदननलिना नलिनीमतिशयाना नारी नलिनी नाम । तयोः पुत्राः सुमित्रधनमित्रादयः । तेष्ववेहि मामप्यन्यतमम् । तातपादोऽस्माकं पण्डितानत्र कोदण्डविद्यायां चिरस्य विचिनोति । तस्मात्तत्र भद्रेण यातव्यम्' इति ।
१६२. अथ तन्निरोधेन तथेति सुदर्शनमित्रः सुमित्रेण समं व्रजन्गन्धगजघटामदपरि५ मलमेदुरगन्धव हानि प्रणिहितमौहर्तिकावधारितनाडिकाच्छेदनताडितपटहानि प्रबुद्धसायुधयोधवृन्द
प्रारब्धसंग्रामसाहसकथान्यतिधवलकञ्चुकोष्णोषधारिभिर्वारिदभयनि गढस्थितैरिव हंसर्गहोतकोक्षेयकवेत्रदण्डेर्दण्डनीतिलतासंश्रयगुमैरिव प्रतिहारमहत्तरैरधिष्ठितानि कानिचिकक्षान्तराण्यतिक्रम्य बदननलिनं मुखकमलं यस्यास्तथाभूता नलिनों कमलिनीम् अतिशयाना पराभवन्ती नलिनी नाम महिषी
कृताभिषेका राजी वर्तत इति शेषः । सा च स इति तो तयोः पुत्राः सुताः सुमित्राशन मिग्रादयः सन्ति । १० तेषु सुमित्रादिषु मामपि अन्यतमम् एकम् अवेहि जानीहि । चिरस्य चिरकालेर अस्माकं तातपादोऽपि पितापि अत्रास्त्रां कोदण्डविद्यायां धनुर्विद्यानां पण्डितान विचिनोति अन्वेषयति । तस्मादतोस्ता नगर्या भद्रेण मवता यातव्यं गन्तव्यम्' इति ।
१९२. अथेति-अथानन्तरं तनिरोधेन तदाग्रहेण तथेति --'तथास्तु' इति स्वीकृत्य सुदर्शनो मित्रं यस्य तथाभूतो जीवकः सुमित्रेण समं दृइमित्रसुतेन सह प्रजन् गच्छन्, कानिचिकक्षान्तराणि २५ अतिक्रम्य महति मण्डपे राजानम् अद्राक्षीत् इति कर्तृकम किया संबन्धः । अथ कक्षान्तराणि विशेष
यितुमाह-गन्धाजेति -गन्धगजानां मदनाविमतङ्ग-जानां घटायाः समूहस्य परिमलेन सौगन्ध्यातिशयेन मदुरः पुष्टो गन्धवहो वायुर्येषु तानि, प्रणिहितेति-प्रणिहिताः सावधाना ये मौहर्तिका दैवज्ञास्तैरवधारित निश्चितं यन् नाडिकाग्छेदनं घटिकाविमागस्तस्मिन् ताडिता अभिहताः पटहा ढक्का येषु तानि,
प्रबुद्धेति-प्रबुद्धा जागृताः सायुधाः सशस्त्रा ये योधाः सैनिकास्तेषां वृन्देन समूहेन प्रारब्धाः संग्राम२० साहसस्य रणावदानस्थ कथा येषु तानि, अतिधवले अतिशुक्ले कञ्जकोणीषे कूर्पासशिरस्त्राणे धरतीत्येवं
शीलास्तैः वारिदानां मेघानां भयेन निगृढस्थिता अन्तर्हितस्थितास्तैः इंसैरिव मरालैरिव, गृहीता ता: कौशेयकक्षेत्रदण्डाः कृपाणवेत्यष्टयो यैस्तथाभूतैः, दण्डनीतिरेव लता घल्ली तस्याः संश्रयदमा आश्रयः तरवस्तैरिव, प्रतिहारमहत्तरैः श्रेष्ठप्रतिहारैः अधिष्टितानि सहित्तानि कानिचित् कान्यपि कक्षान्तराणि कक्षावकाशान 'अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तद्धिभेदतादथ्य' इत्यमरः, अतिक्रम्य व्यतीत्य । अथ मण्डपस्य नामका नत्रचूडामणि-क्षत्रियशिरोमणि रहता है। उसकी सदा फूले हुए मुखकमलसे युक्त तथा कमलिनीको पराजित करनेवाली नलिनी नामकी स्त्री है। उन दोनों के सुमित्र तथा धनमित्र आदि अनेक पुत्र हैं। मुझे भी उन्हीं में से एक पुत्र समझिए। बहुत समयसे हमारे पिताजी यहाँ धनुर्विद्यामें निपुण विद्वानोंको खोज रहे हैं । इसलिए आपको उनके समीप चलना चाहिए।
६१६२. अथानन्तर सुदर्शन यक्षके मित्र जीवन्धरस्वामी राजपुत्र सुमित्रके आग्रहसे 'तथास्तु' कह उसके साथ राजभवनकी ओर चल पड़े और क्रम-क्रमसे मदमाते हस्तिसमूहके मदकी सुगन्धिसे जहाँ वायु वृद्धिको प्राप्त हो रही थी, अपने कार्यमें सावधान रहनेवाले ज्योतिषियों के द्वारा निश्चित घटीकी समाप्ति होनेपर जहाँ भेरी बजायी जाती थी, जागरूक एवं शस्त्रसम्पन्न योधाओंके समूहसे जिनमें संग्रामकी साहसपूर्ण कथाएँ प्रारम्भ की गयी थीं, , एवं अत्यन्त सफेद चोगा और साफाको धारण करनेवाले अतएव मेघोंके भयसे छिपकर स्थित हंसोंके समान अथवा तलवार और बेंतकी छड़ीको धारण करनेवाले अतएव दण्डनीति
१. म० सुमित्रेण वजन् । २. म० यौध । ३. म० अतीत्य ।
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- वृतान्तः ]
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सप्तमो लम्भः
२८९
भासुरानन्तरत्नस्तम्भजृम्भमाणप्रभापूरतरङ्गितहरिति राजलक्ष्मीनिःश्वासपरिमलेन कालागुरुघूमेन कवलितोदरे चलितवारविलासिनीनृपुररशनावलयरववाचाले क्षीरोदपुलिन मण्डलाकार विपुलविशदशयनशताकीर्णे घनत रघुसृणघनसार मृगमदपटवासकुसुम सौरभमनोहारिणि महति मण्डपे पाण्डुरैमौक्तिक चन्द्रोपकाधोभागनिवेशितस्य प्रांशुपुरुषलङ्घनीयस्य समरोत्खातरिपुदन्तिदन्तारचितपादपीठस्य पट्टांशुकच्छेच्छुरितोपवानस्याच्छाच्छदुकूलप्रच्छदस्य निर्लिप्त नेक रत्न किरणविसर- ५ परोतपर्यन्तस्य पर्यङ्कस्य मध्ये स्थितं सानुमत्सानुनि सुखसंनिविष्टमिव नखरायुषं पार्श्वदृश्यमानेन
--
विशेषणान्याह -- भासुरेति भासुरा देदीप्यमाना येऽनन्तरत्नस्तम्भा अपरिमितमणिस्तम्भास्तेषां प्रभायाः कान्त्याः पुरेण तरङ्गिताः कल्लोलिता व्याप्ता इति यावत् हरितो दिशा यस्मिंस्तस्मिन् राजलक्ष्म्या राजश्रिया निश्वासस्येव मुखमारुतस्येत्र परिमलो गन्धातिशयो यस्य तेन कालागुरुधूमेन कृष्णागुरुचन्दन धूम्रेण कंबलितोदरे व्याप्तगर्ने, चलितेति चलितानामितस्ततो गतानां वारविलासिनीनां वेश्यानां ये नृपुररशना १० वलया मञ्जीरकमेखलाकङ्कणास्तेषां रवेण शब्देन वाचाले शब्दायमाने, क्षीरोदेति-क्षीरोदस्य पयः पाथोधेः पुलिनमण्डलाकाराणि सैकततसदृशानि यानि विपुलविशदानि विशालस्वच्छानि शयनानि पर्यङ्कास्तेषां शतेनाकीर्णे व्यासे, घनतरेति-- घुसृणः कुङ्कुमः, घनसारः कर्पूरः, मृगमदः कस्तूरी, पटवासः सुगन्धिचूर्णम्, कुसुमानि पुष्पाणि एषां सर्वेषां इन्द्रः घनतरं निविष्टतरं यद् घुसणादीनां सौरमं सौगन्ध्यं तेन मनो हरतीत्येवं शोलस्तस्मिन् महति विशाले मण्डपे आस्थानास्पदे । अथ राशी विशेषणान्याह -- पाण्डुरेति-- १५ पाण्डुरस्य शुक्लस्य मौक्तिकचन्द्रोपकस्य मुक्ताफलमय वितानस्याधोमागे निवेशितस्य स्थापितस्य प्रांशुपुरुषेण सूत पुरुषेण लङ्घनीयस्य समतिक्रमणीयस्य समरे युद्धे उत्खाता उत्पाटिता ये रिपुदन्तिदन्ता वैरिवारणरदनास्तैरचितं पादपीठं चरणासनं यस्य तस्य, पांशुकस्य क्षौमवस्त्रस्य च्छेदेन खण्डेनच्छुरितं प्रावृतमुपधानं यस्य तस्य, अच्छाच्छस्य अतिस्वच्छस्य तुकूलस्य क्षौमस्य प्रच्छद उत्तरच्छदो यस्य तस्य, निर्लिप्तानि निःस्थूतानि यानि नैकरलानि विविधमाणिक्यानि तेषां किरणविसरेण रश्मिसमूहेन परितो २० व्यासः पर्यन्तः पार्श्वप्रदेशो यस्य तथाभूतस्य पर्यङ्कस्य पश्यङ्कस्य मध्ये स्थितं विद्यमानम्, अतएव सानुमतः पर्वतस्य सानु शिखरं तस्मिन् सुखसंनिविष्टं सुखेन विद्यमानं नखरायुधमिव सिंहमिव,
१. म० पाण्डर |
३७
रूपी लता के आश्रय वृक्षों के समान बड़े-बड़े द्वारपालोंसे जो युक्त थे ऐसे कितनी हो कक्षाओंके अन्तरालको लाँघकर उस महामण्डपमें जा पहुँचे जहाँ कि देदीप्यमान अनन्त रत्नोंके खम्भोंकी बढ़ती हुई कान्तिके पूरसे दिशाएँ लहरा रहीं थीं । जहाँ राजलक्ष्मीकेशवासी- २५ च्छवास के समान सुगन्धित कालागुरुके धूपसे मध्यभाग व्याप्त हो रहा था। चलती हुई वेश्याओंके नूपूर, करधनी और चूड़ियोंको झनकार से जो शब्दायमान था। क्षीरसागर के तटके समान विशाल एवं सफेद सैकड़ों शय्याओंसे जो व्याप्त था । तथा अत्यधिक केशर-कपूरकस्तूरी- पटवास और फूलोंकी सुगन्धिसे जो मनको हरण करनेवाला था उस महामण्डपमें जो सफेद मोतियोंके चंदोवाके नीचे रखा हुआ था, जो किसी ऊँचे पुरुषके द्वारा लाँघने के योग्य था, जिसके पैर रखनेकी चौकियाँ युद्ध में उखाड़े हुए शत्रुओं के हाथी दाँत से निर्मित थीं, जिसपर रखी तकियाँ रेशमी वस्त्रके खण्डोंसे व्याप्त थीं, जिसपर अत्यन्त स्वच्छ रेशमका चद्दर बिछा हुआ था, और लगे हुए, अनेक रत्नोंकी किरणों के समूहसे जिसका समीपवर्ती प्रदेश व्याप्त हो रहा था ऐसे पर्यकके मध्य में स्थित उस राजाको देखा कि जो पर्वत के शिखरपर सुखसे बैठे हुए सिंह के समान जान पड़ता था। पास में रखे हुए पद्मराग मणि
३०
३५
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गधचिन्तामणिः
[ १९२ हेमामपुरीपद्मरागमुकुरेण रविणेवोदयनियोगप्रार्थनागतेनोपास्यमानमन्तिकस्थितमणिस्तम्भसंक्रान्तप्रतिबिम्बमिषादनिमेषैरिवावनितलास्पशिपदैरासेव्यमानम्, पराक्रमेणेवोत्पादितम्, साहसेनेव संनिवेशितम्, अवष्टम्भेनेवोद्भावितम्, महासत्त्वतयेव निर्वतितम्, दर्पमिव गृहोतदेहम्, उत्साहमिव राशीकृतं
राजानमद्राक्षोत् । ५ १९३. तदनु च दृढमित्रमहाराजोऽपि सुमित्रनिवेदितकुमारचापाचार्यकश्रवणेन प्रगुणितसंभ्रमः साकृतमेनं समालोक्य 'केबलत्वेऽप्यकेवलपुरुषतामस्य वपुरवर्ण वर्णयति' इत्यन्तश्चिन्तयंस्तत्प्रकोष्ठप्रतिष्ठितज्याघातरेखाद्वयसौष्ठवातिशयेन काष्ठागतशंभरश्चापभृतामयं भूभृदिति संभावयन् 'असंभविभयदागमनस्य फलमनुभवन्तु मम पुत्राः । सुमित्राद्यन्तेवासिभिः सम तद्गमयन्न
पाइदृश्यमानेन निकटावलोक्यमानेन पनरागमुकुरेण लोहिताभमणिमुकरुन्देन उदयनियोगस्य प्रार्थनायै १० आगतस्तेन रविणा सूर्यण उपास्यमानमित्र सेव्यमानमिव, अन्तिकस्थितेषु निकटस्थितेषु मणिस्तम्भेषु
संक्रान्तानि प्रतिफलितानि यानि प्रतिविम्वानि तेषां मिषाद् व्याजात् अवनितलापसिं भूतलास्पर्शि पदं येषां तथा तैः अनिमिषैः देवैः आसेव्यमानमिव, पराक्रमेण शौर्येण उत्पादितमिव रचितमिच, साहसेन भवदानेन संनिवेशित मिव संस्थापितमिव, अवष्टम्भेन बलेन उद्भावितमिव प्रकटितभिव, महासरवतया
महाशकया निर्वतितमिव रचितमिव, गृहीत देहं तशरीरं दपंमिव गर्वमिव, राशीकृतं पुजीकृतम् उत्साह. १५ मिव राजानम् दृढमित्रम् अद्राक्षीत् ।
६१६३. तदनु चेति-तदनु च तदनन्तरं च सुमित्रेण स्वपुत्रेण निवेदितं कुमारस्य जीवंधरस्य यत् चापाचार्यकं धनुर्विद्यागुरुत्वं तस्य श्रवणेन समाकर्णनेन प्रगुणितः प्रचुरीभूतः संभ्रमः समादरो यस्य तथाभूतः सन् एनं साकूतं साभिप्रायं समालोक्य दृष्ट्वा 'अस्य वपुः शरीर केवलत्वेऽपिएकात्वेिऽपि न
कंवल पुरुष इत्य केवल पुरुषस्सस्य मावस्ताम् भनेकपुरुषयुक्तता पक्षेऽसाधारणपुरुषतां च अवर्ण निरक्षरं २० वर्णयति प्रकटयति' इतीस्थम् अन्तश्चेतसि चिन्तयन् विचारयन् तस्य कुमारस्य प्रकोष्ट मणिबन्धोपरितनप्रदेशे
प्रतिष्ठितं विद्यमानं यद् ज्याघातस्य प्रत्यञ्चावातस्य रेखाद्वयं लेखायुगलं तस्य सौष्ठवातिशयेन सौन्दर्यातिशयेन काष्टागतश्चरमसीमानं प्राप्तः शं मरः सुखसमूहो यस्य तथाभूतः सन् 'प्रयं चापभृतां धनुर्धारिणाम् भूभृत् स्वामी' इति संभावयन् सत्कुर्वन् , 'असंभव प्रतर्कितोपस्थितं यद् मवदागमनं तस्य फलं मम
पुत्रा अनुभवन्तु प्राप्नुवन्तु । सत्तस्मात् सुमित्राधनसेवासिभिः भुमित्रादिछान्नैः समं सार्धम् कानिचित् २५ निर्मित दणसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो उदय कालमें होनेवाली प्रार्थनाके लिए
आगत सूर्य ही उसकी उपासना कर रहा हो। समीपमें स्थित मणिमय खम्भों में पड़ते हुए प्रति विम्बके बहाने जो ऐसा जान पड़ता था मानो पृथ्वीतलका स्पर्श नहीं करनेवाले पैरोंसे युक्त देव ही उसकी सेवा कर रहे हों। जो पराक्रमसे ही मानो उत्पन्न हुआ था, साहससे
ही मानो युक्त था, अवलम्बनसे ही मानो उदाचित था, महाशक्तिसे ही मानो रचा गया ३० था । जो मानो शरीरधारी आहंकार ही था और पुंजीकृत मानो उत्साह ही था।
६१६३. तदनन्तर सुमित्रके द्वारा निवेदित कुमारके धनुर्विषयक पाण्डित्यके सुननेसे जिनका आदर कई गुणा बढ़ गया था ऐसे दृढ़मित्र महाराज भी खास अभिप्रायपूर्वक कुमारको देख मन-ही-मन विचार करने लगे कि इनका शरीर एक होनेपर भी चुपचाप
कह रहा है कि 'यह केवल पुरुष नहीं हैं-साधारण मनुष्य नहीं हैं। कुमारकी कोहनियोंसे और कुछ नीचेके भागपर स्थित प्रत्यंचाके आघातकी दो रेखाओंकी सुन्दरता देखनेसे महाराज के
सुखका भार अपनी चरम सीमापर पहुँच गया और वे समझने लगे कि 'यह धनुर्धारियोंका राजा है। दृढ़मित्र महाराजने जीवन्धरकुमारसे यह कहते हुए बहुत भारी प्रार्थना की
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कामजानकामk itinath
- वृत्तान्तः सप्तमो लम्भः
२९॥ हानि कानिचिदवन्ध्यामिमां तनोतु वसुंधरां भवान्' इति सात्यंधरिमतुच्छमुपच्छन्दयामास ।
१६४. अथैवमत्युल्बणधरणोपतिनिबन्धेन बन्धुप्रियतया च कृतावस्थितेर्गन्धर्वदत्तापतेः कतिषु च दिनेषु हेलया तत्र विलयं गतेषु, सुमित्रादिराजपुत्रेष्वप्यस्त्रकोविदात्कुमारादधिगतशस्त्रे. तरसमस्तशास्त्रेषु जातेषु, कदाचन धात्रोपतिः पुत्राणां करिरथतुरगायुधविषयविविधपाटवेष्वप्रतिभटतां तत्तत् कर्मण्यलंकाँणैरत्यादृतामत्याहितस्तिमितचक्षुःप्रेक्षमाणः प्रीतिप्राग्भारपारंगतः 'कुमार, ५ भवदनुग्रहादद्याहमस्मि पुत्रवान् । पुत्री नश्चापाचार्यस्य भार्येति नियमिता नैमित्तिकैत्रिबद्धन क्षात्रधर्मेणैव भवता पतिमती भूयात्' इति भूयो भूयोऽपि प्रार्थयामास । पार्थिवकुमारोऽपि तदीया
कतिपयानि अहानि दिनानि गमयन् भवान् इमां वसुन्धराम् अवन्ध्यां सफलो तनोतु करोतु इत्तीत्थं सात्यं धरि जीवंधरम् अतुच्छ प्रभूतं यथा स्यात्तथा उपच्छन्दयामास प्रार्थनयानुकूलयामास ।
१२४. अथैव मिति-अथानन्तरम् एवमनेन प्रकारेण भत्युल्बणश्वासी धरणोपत्तिनिर्बन्धश्चेति १० भत्युरुपणधरणीपनिनिर्बन्धस्तेन प्रभूतभूपत्याग्रहेण बन्धुप्रियतया च कृतावस्थितेः विहितावस्थानस्य तस्य गन्धर्वदत्तापतेः कतिषु च दिनेषु कतिपयवासरेषु हेलयानायासेन तत्र दृढमित्रराज वान्या विलयं गतपु प्राप्तेषु सामु सुमित्रादिराजपुओबपि अस्त्रकोविदात शस्त्रविशारदात् कुमारात् अधिगतानि विज्ञासानि शस्नेतराणि समस्त शास्त्राणि यैस्तथाभूतेषु जातेषु सत्सु कदाचन कस्मिन्नपि काले धात्रीपती राजा पुत्राणां करिरभनुस्गायुधविषयविविधपाटवेषु गजस्यन्दनहयारोहणशस्त्रविषयनकविधवैदग्ध्येषु तप्तकर्मणि १५ तत्तकार्येषु अलंकमणिः निपुणैः अस्याहताम् अप्रतिभातामसमानताम् अस्याहितेन अत्याश्चर्येण स्तिमिते निश्चले चक्षुषो यस्य तथाभूनः सन् प्रेक्षमाणो विलोकमानः प्रीतिमागमारस्य प्रीतिसमूहस्य पारंगतः चरमसम्मान प्राप्तः 'कुमार ! भवतोऽनुग्रहस्तस्माद् भवत्कृतोपकारात् अयाहम् पुत्रवान् अस्मि । नोऽस्माकं पुत्री चापाचार्यस्य धनुर्विद्यानिष्णातस्य भार्या भविष्यति, इति नैमित्तिकनिमितज्ञानिभिनियमिता निश्चिता गायढेन शरीरधारिणा क्षात्रधर्मेणेव भवता पतिमती भूयात् भवतु' इतीत्थं भूयो भूयोऽपि २० पुनःपुनरपि प्रार्थयामास । पार्थिवकुमारोऽपि सत्यं धरमहोपालपुत्रोऽपि तदीयार्थितया तत्प्रार्थनया तदर्थस्त्र तकार्यस्य तथाभवितव्यतया च दिव्ये श्रेष्ठे मुहूर्ते पूर्तिमन्तं पूर्णमानन्दं हर्ष विमति पूर्तिमदानन्दभृत् कि हमारे पुत्र आपके इस असंभाव्य आगमनका फल प्राप्त करें। आए सुमित्र आदि विद्या. थियोंके साथ कुछ दिन व्यतीत करते हुए इस पृथ्वीको सार्थक करें।
६१९४. अथानन्तर राजाके इस प्रकार के बहुत भारी आग्रइसे अन्धुप्रिय होने के कारण २५ जीवन्धरस्वामी वहाँ रहने लगे। उनके वहाँ रहते हुए जब अनायास ही अनेक दिन व्यतीत हो गये और सुमित्र आदि राजपुत्र जब अस्त्रविद्याके पण्डिन जोवन्धरकुमारसे अस्त्र तथा अन्य समस्त शास्त्रोको सीख चुके तब किसी समय राजाने अत्यन्त निश्चल नेत्रोंसे देखा कि हमारे पुत्र हाथी, घोड़ा तथा स्थकी सवारी और शस्त्रविषयक नाना प्रकारकी चतुराइयों में असाधारणतको प्राप्त हो गये हैं। ऐसी असाधारणताको जिसका कि तत्तद् ३० विषयोंके ज्ञाता मनुष्य अत्यन्त आदर करते हैं। देखते-देखते प्रोतिकी परम सीमाको प्राप्त हो जीवन्धरकुमारसे बार-यार यही प्रार्थना करने लगे कि “हे कुमार ! आपके अनुग्रहसे मैं आज पुत्रवान् हुआ हूँ। 'हमारी पुत्री चापाचार्य-धबुर्विद्याके आचार्यको स्त्री होगी' ऐसा निमित्तज्ञानियोंने कह रखा है। सो वह शरीरधारी क्षात्रधर्मके समान आपसे । पतिमती हो-आप उसे स्वीकृत करें"।
१. क० ख० ग. विलम्ब गते
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गयचिन्तामणिः
थितया तदर्थस्य तथाभवितव्यतया च दिव्ये मुहर्ते पूर्तिमदानन्दभूता महीभता स्वविभवस्य स्ववैभवस्य सुतानुरागस्याप्यनुगुणसंविधा पुरःसरं विधिवदतिसृष्टां तदङ्गयष्टिसंस्पर्शनपुनरुक्त चकासदविरलकनकाभरणोज्ज्वलां कनकमालामनघगुणभूषणो द्विजहूयमानपवनसखसाक्षिकं परिणिनाय ।
६१५५. इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी कनकमालालम्भो १०५ .
नाम सप्तमो लम्मः ।
सेन महीभृता राज्ञा दृहमित्रेण स्वविमनस्य निजसंपत्तेः स्वमवस्य निजसामयस्य सुतानुरागस्यापि अनुगुणसंविधापुरस्सरमनुकूलसामग्रीसहितं यथा स्यात्तथा विधिवत् यथाविधि अतिसृष्टा दत्ताम् तदायटयास्तच्छरीरयष्टयाः संस्पर्शनेन पुनरुतं यथा स्यात्तथा चकासन्ति शोभमानानि यानि अविरलकनकामरणानि निरन्तरसुवर्णालङ्करणानि तैरुजावलो झोभिनीम् कनकमालां तमाम पुत्रीम्, अनघगुणा एवं निशेषगुणा एवं १० भूषणानि यस्य तथाभूतोऽयं जीवकः द्विजैविप्रेहूंयमानः पचनसखः साक्षी यस्मिन् कर्मणि यथा स्यातथा परिणिनाय उदवोद।
६१९५. इति श्रीमहादानसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी
कनकमालालम्मो नाम सप्तमो सम्भः ।
निदाप गुणरूपी आभूषणों को धारण करनेवाले राजकुमार-जीवन्धरस्वामी भी उस १५ कन्याको चाहते थे अथवा उस कार्यकी भवितव्यता ही ऐसी थी इसलिए उन्होंने दिव्य मुहूर्त में पूर्ण आनन्दको धारण करनेवाले राजा दृढ़ मित्रके द्वारा अपनी सामर्थ्य, अपने ऐश्वर्य
और पुत्रीके अनुरागके अनुरूप सामग्रीके साथ-साथ विधिपूर्वक दी हुई उस कनकमालाको कि जो शरीरयष्टिके स्पर्शसे चमकते हुए स्वर्णमय आभूषणोंसे अत्यन्त उज्ज्वल जान पड़ती
थी, ब्राह्मणों के द्वारा होमो हुई अग्निकी साक्षीपूर्वक विवाहा।। २०६:९५, इसप्रकार श्रीमदादीमसिंहमूरिके द्वारा बिरचित गद्यचिन्तामणिमें कनकमालालम्भ
नामका सातवाँ लम्भ समाप्त हुभा ॥७॥
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१. म० भवितव्यतया दिन्थे । २. क० ग० संविधानपुरस्सरम् ।
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अष्टमो लम्भः
६ १९६. अथ तामव्याज रमणीयां गरुडवेगसुतारमणः पाणीकृत्य पाणिगृहोतीं गृहीतातिमात्रत्रीडार्गलां निरर्गलमवगाहितुमप्रगल्भः स्वैरावगाहन विधायिविविधोपक्रमविशृङ्खलीकृतमदनमदान्धगन्धसिन्धुरस्त्रोटितत्र पापरिषामप्रतीपः समत्रगाह्य तस्याः प्रणयकलहे दास्येन प्रकृतिस्थितापास्यभावेन च सुचिरमरीरमत |
$ १२७ एवमधिकाभिरामा रामामविरामं रमयतस्तस्य साहाय्यं संपादयितुमिव गाढायां शरदि, सात्यंधराविव सत्कविभिः सातिशयप्रकाशे सति चन्द्रमसि संमार्जति दृढसम्यक्त्व इव जडसंपर्कसमा गत सन्मार्ग कलङ्कपङ्कं पतङ्गे, कवचहरदारक इव निरस्तनीरदावस्थे सति तारकाव$ ११६. अथेति--- अथ परिणयनानन्तरम् गरुडवेगसुताया गन्धर्वदत्ताया रमगो बल्लभो जीवः अव्याजरमणीयां स्वभात्रसुन्दरी तां पाणिगृहीती पाणीकृत्य विवाह्य गृहीतोऽङ्गीकृतोऽतिमात्रं ब्रीडागंलो १० जापरियो यया तां कनकमाला निसर्गकं निष्प्रतिबन्धं यथा स्यात्तथा अवगाहितुं समुपभोक्तुम् अप्रगल्मोड़समर्थः सन् स्वैरावगाहनस्य स्वच्छन्द्रोपभोगस्य विधायिनो ये विविधा उपक्रमा नानोपायास्तैर्विशृङ्खलीकृतः स्वच्छन्द्रीकृतो यो मदन एवं सार एव मदान्धगन्धसिन्धुरो मत्तमतङ्गजस्तेन त्रोटितः खण्डितख पापरिघो लज्जागंली स्वास्तथाभूताम् अप्रतीपोऽनुकूलः समवगाह्य प्रविश्य समुपभुज्येति यावत् तस्याः कनकमालायाः प्रणयकलहं दास्येन प्रकृतिस्थितौ स्वभावस्थितौ उपास्यभावेन च स्वामिभावेन च सुचिरम् १५ शरीरमत् रमयामास ।
१९७. एमिवति[ एवमनेन प्रकारंण अधिकाभिरामामतिसुन्दरी रामां रमणीम् अविरामं निरन्तरम् रमयतः क्रीडयतः तस्य जीवधरस्य साहाय्यं संपादयितुमिव कर्तुमिव शरदि शरहतो गाढायां सत्याम्, सात्यंधराविव जीवंधर इव चन्द्रमसि शशिनि सरकत्रिभिः नक्षत्रशुक्रप्रहैः पक्षे साधुकविभिः सातिशयः प्रचुरः प्रकाश यस्य तथाभूते सति दृढसम्यक्त्वे परमावगाढसम्यग्दर्शन इव पतने सूर्य २० डळयोरभेदात् जलसंपर्केण समागतः संप्राप्तः सन्मार्गे समीचीनमार्गे यः कलङ्कपङ्कः कङ्ककर्तुमस्तं पक्ष जडसंपर्केण मुजनसंप्रयोगेण समागतो या सन्मार्गे जैनमार्गे कलङ्कः पङ्क इव तं संमार्जति सति दूरे कुर्बति ति, कचहरश्रासौ दारकश्चेति कवचहरदारकस्तस्मिन्निव वर्मधारणयोग्यावस्थापनबालक व तारका६१६६. अथानन्तर गरुडवेग विद्याधरकी पुत्री - गन्धर्वदत्ता के पति जीवन्धरकुमार उस स्वभाव सुन्दरी कनकमाला कन्याको विवाह कर चिर काल तक उसे रमण कराते २५ रहे । प्रारम्भ में उसने अत्यधिक लज्जारूपी अर्गेलको ग्रहण कर रखा था अतः स्वतन्त्रतापूर्वक अन्रगान करनेमें समर्थ नहीं हो सके । परन्तु स्वतन्त्रतापूर्वक अवगाहन करानेवाले नाना उपायों से श्रृंखला रहित किये हुए कामरूपी महमाते गन्धहस्तीने जब उसके लज्जारूपी अर्गलको तोड़ डाला तब अनुकूल हो उसका अच्छी तरह अवगाहन करने लगे । कलह के समय दास मावसे और प्रकृतिस्थ रहनेपर उपास्य भावसे - स्वामी रूपसे उसका ३० उपभोग करते थे ।
प्रणय
६ १६७. इस प्रकार अत्यधिक सुन्दरी स्त्रीको रमण कराते हुए जीवन्धरकुमार की सहायता करने के लिए ही मानो प्रौढ़ शरद ऋतु आ पहुँची । उत्तम कवियोंसे जीवन्धरकुमारके समान चन्द्रमा सातिशय प्रकाशसे युक्त हो गया। जिस प्रकार दृढ सम्यग्दर्शन जड़ - मूर्ख मनुष्यों के संपर्क से आगत सन्मार्ग - समीचीन मार्ग के कलेकरूप पंकको वो ३५ डालता है उसी प्रकार सूर्य जड़-जल के सम्पर्क से आगत सन्मार्ग- समीचीन मार्ग अथवा
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२९.
गद्यचिन्तामणिः
[ १९७ जीबंधरस्य स्र्मनि, सुजनहृदय इन निर्मलोभवति हदनिवहे, नवयौवनसबोडयोषिज्जधनानीव पुलिनानि शनै:शनैः प्रदर्शयन्तोषु नदोषु, अराजवति राष्ट्र इव मधुपपेटकाक्रान्ते कुसुमितविटपिनि, गलितयोग्यकाले शैलूष इव नर्तनं त्यजति नर्तनप्रिये, मानिनीजनम वाचमुपलब्धुं योग्यां कुर्वस्विव निकामं
कूजत्सु कोकिलेषु, भास्वत्सूर्यकिरणगुरुपादभक्त्या भव्यमनसोव स्फारविकासिनि पद्मसरसि, शरद५ वितकुसुमशरे मरुदुपेतमरुत्सख इव दुरुत्सहप्रतापिनि, नातिशीतलोष्णः सुराज चेष्टितरिवाभीष्टः
वरमनि नभसि निरस्ता दृरीकृता नीरदानां मेवानाम् अवस्था सत्त्वं यस्मिस्तस्मिन्निव पक्षे निरस्ता दूरीकृता नीरदा दन्तरहितावस्था येन तथाभूत, सुजनहृदय इव सजनचेतसीव हृदनिवहे तडागसमूह निर्मलीभवति स्वच्छीमवति पक्षेऽपगतकालुप्ये सति, नदी तस्मिां नई पौरन नूतनायेक सबोड:: पलज्जा या
योषितस्त हण्यस्तासां जवनानीव नितम्वस्थलानीव शनैः शनैः पुलिनानि तटानि प्रदर्शयन्तीषु प्रकटयन्तीपु १० सतीषु, अराजवति राजरहिते राष्ट्र इव देश इव कुसुमितविटपिनि पुष्पितपादपे मथुपान भ्रमराणां पक्षे
मद्यपायिना पेटकेन समूहेनाकान्त व्याप्ते सति, गलितो निर्गतो योग्यकालोऽहविसरो यस्य तथाभूते शैलूष इन नट इव नर्तनप्रिये मयूरे नतनं नृत्यं त्यजति सति, कोफिलेषु पिकेषु मानिनीजनस्य स्त्रीजनस्य मञ्जवाचं मनोहरवागीम् उपलब्धुं प्राप्तुं योग्यां गुणनिकाम् अभ्यासमित्यर्थः 'योग्या' गुणमिकाभ्यासः' इति धनंजयः,
कुत्स्विव निकाममत्यन्तं कूजत्सु शब्दं कुर्वाणषु, मास्वन्तो देदीप्यमाना ये सूर्यकिरणाः किरणमालि। १५ किरणास्त गुरुपादा गुरुचरणा इथेति भास्वसूर्यकिरणगुरुपादास्तेषां भक्त्या सेवनेन पसरसि कमलाकरे
मन्यमनसोव मन्यजनचेतसीच म्फारविकासिनि स्कारमत्यर्थ विकसतीत्येवंशोलस्तथाभूते प्रफुल्ले प्रदृष्टे च सति भव्यमनाक्षे मास्त्सूर्यकिरणा इव गुरुपादा निम्रन्यचरणास्तेषां मनया गाढानुरागणेप्ति समासी ज्ञेयः, शरदा शरहतुनान्वितः सहितः कुसुमशरः कामस्तस्मिन् मरुडुपेतः पवनोपेतश्चासौ मरुत्सखश्चेति
यनिश्चेति तस्मिनिव दुरुस्सहं यथा स्यात्तथा मतपतीत्येवंशीलस्तस्मिन् सति भथवा दुरुत्सहप्रतापो विद्यत २० यस्य तथाभूते सति, सुराजचेष्टितरिव सुनृपचेष्टितैरिव नातिशीतलोप्पो तिशान्ताशान्तः पक्षे नाति
शिशिरोष्णैः अभीष्टैरनुकूलैः कशिपुभिर्भोजनाच्छादनः निकाममस्यन्त काममभिलषितं ददातीति कामदायी स
आकाशके कलंकरूप पंकको धोने लगा। कवचको धारण करनेवाला बालक जिस प्रकार नीरदावस्था-दाँतरहित अवस्थाको दूर कर देता है, उसी प्रकार आकाशने भी नारदा
वस्था-मेवोंकी स्थितिको दूर कर दिया। तालाबोंके समूह सज्जनांके हृदयके समान निर्मल | २५ हो गये। जिस प्रकार, नव-यौवनसे लजीली स्त्रियाँ धीरे-धीरे अपने नितम्बस्थल प्रकट
करती हैं उसी प्रकार नदियाँ भी धीरे-धीरे अपने तट प्रकट करने लगी। जिस प्रकार समीचीन राजासे रहित राष्ट्र मधुपपेटक-मद्यपायी लोगोंके समूहसे आक्रान्त रहना है, उसी प्रकार फूलोंसे व्याप्त वृक्ष मधुपपेटक-भ्रमरसमूहसे व्याप्त हो उठे। जिस पर:: नृत्य के
योग्य समय निकल जानेपर नट नृत्य को छोड़ देता है उसी प्रकार नृत्यके योग्य वर्षाका. ३० समय निकल जानेपर मयूरने नृत्य छोड़ दिया। कोयले अत्यधिक शब्द करने लगी जिससे
वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो मानवती स्त्रियों के मनोहर वचन प्राप्त करनेके लिए अच्छे वचन बोलने का अभ्यास ही कर रही थीं। जिस प्रकार गुरुओंके चरणोंकी भक्तिसे भव्य जीवोंका मन अत्यधिक खिल उठता है उसी प्रकार देदीप्यमान सूर्यकी किरणोंकी भक्तिसे
कमल सरोवर अत्यधिक खिल उठे। जिस प्रकार वायुसे सहित अग्नि असहनीय प्रताप३५ तेजसे युक्त हो जाती है उसी प्रकार शरद् ऋतुसे सहित कामदेव असहनीय प्रतापसे युक्त
हो गया । उस शरद् ऋतुके आनेपर उत्तम राजाको चेष्टाओंके समान न अत्यन्त शान्त और
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कनकमालया सइ सुखोपभोगः] अष्टमो लम्मः कशिपुभिनिकामं कामदायिकामदेवसदातन समाराधनलम्पटयोस्तयोदम्पत्योरनुक्षणं साभोगतां भजति संभोगजाते, जातु स्वप्नावलोकितस्वामिवियोगशोकपाक्काचिश्छटाहढगाढमूर्छाकान्तां कान्ताम् 'भीरु किमस्थाने कातर्येण । को नाम कृशोदरि, त्वां प्रतार्य प्रयातुं प्रकमते। मुग्धे, किमेवं मां दग्धहृदयमनिदानमातनोषि । सुराङ्गनामपि सुरापेक्षिणी कुलीनोपेक्षिणी चेयमसतोति तवानबद्यकटाक्षविक्षेपपर्यायदुरुपलम्भसंपत्संभारोपलम्भदुर्ललितमस्मन्मनः सुतरामवहेलयति; ५ किमुतापरा तरुणीम् : ततः कथमन्यत्र गतस्य मे सप्राणता । प्राणसमे, प्राणविना को नाम
चासौ कामदेवश्च तस्य सदातनं शाश्वतिकं यत् समाराधनं सेवनं तस्मिन् लम्पटयोः संसक्तयोस्तयोः जाया च पनिश्चेवि दम्पती तयोः 'जायाया जम्भावो दम्भाव वा निपात्यत' इति वार्तिकेन जायास्थाने दम्भाको निपातितः कनकमालाजीवंधरयोः संभोगजाते संमोगसमूहे अनुक्षणं समय समये साभोगता विस्तारं मजति प्राप्नुवति सति, जातु कदाचित् स्वप्ने स्वापेऽवलोकिती दृष्टो यः स्वामिवियोगो बल्लमविप्रलम्भस्तेन १० यः शोकपावकः शोकाग्निस्तस्याधिषां बालानां छय्या समहेनारूढा प्राप्ता या गाढमुर्छा तयाक्रान्ता युक्तां कान्तां कनकमाळा 'भीर ! हे भयशोले ! अस्थाने कातर्येण दैन्येन किम् ? कृशोदरि सन् दरि ! स्वां प्रतायं वञ्चयित्वा को नाम प्रथातुं गन्तुमीहते चेष्टते । मुग्धे ! सुन्दरि ! मखें ! घा एवमनेन प्रकारेण माम् अनिदानमकारगम् दग्धहृदयं दुःखितम् अतनोषि करोषि । तव भवत्याः, अनवद्यो निर्दुष्टः कटाक्ष विक्षेप एव पर्यायो यस्य तथाभतो यो दुरुपलम्भसंपत्संभारो दुर्लमसंपत्तिसमूहस्तस्योपलम्भन दुर्ललितं गव- १५ विशिष्टम् अस्मन्मनो मच्चित्तं सुराङ्गनामपि देवाङ्गनामपि सुरापेक्षिणी सुरां मदिरामपेक्षत इति पक्षे सुरी देवमपेशत इतिशीला, कुलीनोपक्षिणी कुले भवः कुलीनो योग्यवंशोमवस्तमुपेशत इति पक्षे को पृथिव्या लीनः स्थितस्तमुपेशत इत्येवंशीला च, इयं सुराङ्गना असती कुला पक्षेऽविद्यमान। इतीत्थं सुतरामत्स्यन्तम् अवहेलयति उपेक्षितां करोति । अपरामन्यां तरुणी युवतीं किमुत । तत्तस्तस्मात्कारणात् अन्यत्र गतस्य खां स्यावान्यन्न गतस्य मे सपाणता प्राणैः सहित इति सप्राणस्तस्य भावः सप्राणता जीवित्वं २०
न अत्यन्त उग्र ( पक्ष में न अत्यन्त शीतल और न अत्यन्त गरम ) इच्छानुरूप भोजन तथा वस्त्रादिसे. मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले कामदेवको सदाकालिक आराधनाके लम्पट उन दोनों दम्पतियोंके भोगोंका समूह जब प्रतिक्षण विस्तारको प्राप्त हो रहा था तब किसी समय स्वप्नमें दिखे हुए स्वामीके वियोगजन्य झोकरूपी अग्निकी ज्वालाओंके समूहसे उत्पन्न अत्यधिक मूछीसे युक्त कान्ताको देख जीवन्धरकुमार उसे इस प्रकार सान्त्वना २५ देने लगे-हे भीम ! अस्थानमें भय करनेसे क्या लाभ है ? हे कृशोदरि ! तुम्हें छलकर जानेके लिए कौन समर्थ है ? भोली ! क्यों इस तरह मुझे अकारण ही दग्ध हृदय कर रही हो ? तुम्हारे निर्दोष कटाक्षविश्परूप दुर्लभ सम्पत्तिका समूह प्राप्त होनेसे अस्त-व्यस्त हुआ हमारा मन 'यह सुरापेक्षिणी-सुरा अर्थात् मदिराकी अपेक्षा रखती है और कुलीनोपेक्षिणी उन कुलीन मनुष्यकी उपेक्षा रखती है अ: असती है ( पक्ष में मुगापेक्षिणी-देवोंकी अपेक्षा ३० रखती है और क्रुलीनोपेक्षिणी-पृथ्वीपर स्थित मनुष्योंकी उपेक्षा रखती है)-ऐसा विचारकर सुगंगना-देवीकी भी अत्यन्त उपेक्षा करता है फिर दूसरी तरुणीको तो बात ही क्या है ? दूसरी जगह जानेपर मैं जीवित कैसे रह सकता हूँ ? हे प्राणसमे ! प्राणोंके बिना
१. क० ख० ग० सनातन । २. क० ख० ग. दुर्ललितम्-गर्वविशिष्टम् (टि. ) ।
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गधचिन्तामणिः
[ १९७ जीवंधरस्य - जगति सजीवः स्यात् ।' इति समाश्वासयन्तं जीवककुमारं सादरमुपसृत्य रचितलीलाञ्जलिरुन्निद्रशतपत्रातिशायिवक्त्रा काचन धात्री साहित्यमेवं प्रवर्तयामास गिरम्-'अयि कुमार, गोसर्ग एवाहमायुधश्रमशालामभिपतन्ती तत्र स्वपन्त कमपि भवन्तमेव विभाव्य प्रणयकलहव्याजप्रसज
दुद्दाममन्युभरपराचीनां भर्तृदारिकामनादृत्य 'किमत्राशायष्ट कुमारः इत्यनुशयाविष्टा तत्क्षण ५ एव तस्मात्प्रतिनिवृत्य वत्सामिमां भर्त्सयितुं सत्वरमुपसरामि । दृश्यते भवानत्र 1 सर्वथा सादृश्यभ्रससंविधाजेचतुरः स कुमारः कः स्यात् ।' इति ।
१६८. कनकमालायितोऽप्यनवसितबचस्येव तस्यामाविभंवदनुजविषयाध्यान: 'को नाम सुकृतिसुलभसुकृतोदयं समयं विनिश्चि नोति । नभश्च राघोशसुतोपदेशेन नन्दादयः क्रिमागतः । सा
कथम् । प्राणसमे ! हे प्राणनुल्ये ! जगति प्राणेर सुभिर्विना को नाम सजीव: स्यात् ।' इति समाश्वासयन्तं १० सान्त्रमा ददतं जीवककुमारं सादरं सविनयम् उपसृत्य तस्य समीपमागत्य रचिता कृता लोलाजलि यया
तथाभूता बद्धहस्तपुरा उन्निद्रशतपत्रातिशायि विकसितारविन्दप्रमभचि वस्त्रं मुखं यस्यास्तथाभूता काचन धात्री सात्याहितं साश्चयम् एवं गिरं वाणी प्रवर्तयामास--'अयि कुमार ! गोलग एवं प्रत्यूष एवाहम् आयुधश्रमशाला शस्त्राभ्यासमवनम् अभिपतन्ती गच्छन्ती तन्त्र स्वान्तं शयानं कमपि युधानं भवन्समेव विभाव्य निश्चित्य प्रणयकलहन्याजेन कृत्रिमकलहकपटेन प्रसजन् य उद्दाममन्युभर उत्कटकोधमरस्तेन १५ पराधीनरं विमुग्वां भर्तृदारिकां राजपुत्रीम् अनारत्य "f कुमारोऽत्रायुधश्नमशालापरिसरेऽशयिष्ट शयनं
चकार' इति हेतोः अनुशयात्रिष्टा पश्चात्तापयुक्ता तरक्षण एव तस्काल एव तस्मास्यानात् प्रतिनिवृत्य इमां बमां दुहितरं मासंयितुं तर्जयितुम् उपसरामि | भवान् अत्र दृश्यते विलोक्यते । सर्वथासादृश्यस्य सर्वप्रकारसमानताया भ्रमस्य संशयस्य संविधाने करणे चतुरो विदग्धः स कः कुमारः स्यात् । इति ।
१५८. कनकमालेति-कनकमालादयितीशी जीवंधरोऽपि तस्यां धाभ्याम् अनवसितमपूर्ण २० बचो यस्यास्तथाभूतायां सत्यामेव आविर्मवत् प्रकटीभवत् अनुजविषयाध्यानं नन्दायस्मरणं यस्य
तथाभूतो मवन् 'सुकृपया सुलभः सुकृतोदयः पुण्योदयो यस्मिस्तथाभूतं समयं कालं को नाम विनिश्चिनोति निर्धारयति । नमश्र राधीशस्थ गरुडवेगस्य सुताया गन्धर्वदत्ताया उपदेशेन किं नन्दाय आगतः । हि यतः
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.. .-
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संसारमें जीवित कौन रह सकता है ? इस प्रकार जिस समय जीवन्धरकुमार कनकमालाको सान्त्वना दे रहे थे उसी समय लीलापूर्वक हाथ जोड़े हुई तथा खिले हुए कमलको पराजित करनेवाले मखसे यक्त कोई धाय आदरके साथ उनके पास आकर आश्चर्य सहित इस प्रकार घोली-अये कुमार ! प्रातः काल के समय मैं आयुधशालाके सम्मुख आ रही थी कि वहाँ सोते हुए किसी पुरुषको आप हो समझ में आश्चर्यमें पड़ गयी। मैंने सोचा कि प्रणय-कलह के बहाने उपस्थित तोत्र क्रोधके भारसे पराङ्मुख राजपुत्रीको अनादृत कर कुमार क्या यहाँ सोये
हैं ? मैं उसी क्षण बहाँसे लौटकर इस बच्चीको डाँटने के लिए बड़ी शीघ्रतासे यहाँ आ रही ३० हूँ। परन्तु आप यहाँ दिखाई दे रहे हैं। सहशताका भ्रम उत्पन्न करने में चतुर वह कुमार कौन हो सकता है ?
६१६८, धायके वचन समाप्त नहीं हो पाये थे कि छोटे भाई का ध्यान करते हुए जीवन्धरस्वामी भी मनमें इस प्रकार विचार करने लगे-पुण्यात्मा जनों को सुलभ पुण्यके उदयसे सहित समयका कौन निश्चय कर सकता है ? क्या विद्याधरराजको पुत्री गन्धर्वदत्ता
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१.म. धात्री समासाद्य ।
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२१.
जयापन मिलापः ]
अष्टमी लम्भः न: समस्तमिममुदन्तं हस्तामलकवत्स्त्रविद्यामुखेन जानोते' इत्येवं मनसा वितकं वपुषा अपिततनमहं पद्भ्यां तत्र प्रयाणं च प्रत्यपद्यत । प्रत्यदृश्यत च तत्रैव शत्रगुगनिकाशालायामहपूर्विकोप सदनुवरमुखावगतपूर्वजाभ्यागमतया गीर्वाणतां प्राप्त इव हर्षायो नन्दाढ्यः ।
१९३. ततश्च हर्षप्रकर्षपरवशङ्खषीकसत्वरकृताभ्युत्थानमानन्दाश्रुजलधारावर्जनपुर:सर विकस्वरनेत्रशतपत्रविरचिताभ्यर्चनमधिकभक्त्या पादयोः प्रणमन्तं प्रश्रयश्रेष्ठं निजकनिष्ठ- है मखिलगुणज्येष्टोऽयं गन्धाकटगूनु रत्युत्कटानन्दभरदुर्वहतये व प्रसतरपूर्वशरीरः प्रेमचलितकरतलाभ्यामतिचपलमुत्याप्य गाढाश्लेषेण विवेक ढानामद्वैनबुद्धिमाबध्नन्ननेकानेहसं हश्यनि
सरगन्धर्वदत्ता स्त्रविद्यामुरखेन स्वकीय विद्याप्रभावेण नाऽस्माकम् इमम् उदन्तं वृत्तान्तं हस्तामलकवत करत स्थापितधातकीफलमिय जाइये वित मनसः बकरी इपिस्तनमहं प्रकटितरोमाञ्चं पझ्या चरणाभ्यां तन प्रयाणं व प्रत्यपद्यत स्त्रीचक्रे । प्रत्यदृश्यत च प्रतिदृष्टश्च तत्रैव पूर्वोकायामेव शस्त्राणा- १० मायुधानां गुणनिकाभ्यासस्तस्य शाला तस्याम् अहंपूर्विज्ञापसीदन्तो निकटमागच्छन्तो अंऽनचराः सेव
कारलेषां मुखादवगतो विज्ञातः पूर्वजाभ्यागमो ज्येष्टसहोदरागमनं येन तस्य मावस्त या गीर्वाणतां देवत्वं । प्राप्त इव हर्षाय आनन्दोपचिती नन्दादयः । कर्मणि प्रयोगः ।
१. ततोति-तदनन्तरं च हर्षप्रकर्षण प्रमोदातिरेकेण परवशानि परायत्तानि यानि हृषीकागीनियाणि तैः सरवरं कृतमभ्युत्थानं येन तम् भानन्दाजलस्य हर्षवारसलिलस्य धाराणामायजनं २१ धारणं पुरस्सारं यस सम्, विकस्वराभ्यां प्रफुल्लाभ्यां नेत्रशतपत्राभ्यां नयनारविन्दाभ्यां विरचितं कृतमम्बर्धन पूजन येन सम्, अधिकमनया भकतिरंकण पादयोः प्रणमन्तं नम्राभवन्तं प्रश्रयश्रेष्ट विनयश्रेष्ठ निजकनिष्ठं सलघुसहोदरम् अस्बिलगुणैज्येष्टः श्रेष्ठ इत्यखिल गुणज्येष्ठः अयं गोकरसून पंधरः भस्युत्करश्वासावानन्दमरश्चेत्युकानन्दसरः प्रगाडानन्दस्तस्य दुवहत्येव दुःखेन वोढुं शक्यतयेव प्रसतरमतिभुग्नं पूर्व सहारं यस्य तथाभूतः सन् प्रेम चकित करतलाभ्यां प्रीतिचलितपाणितलाभ्याम् अतिचपल- .. मतिशीघ्रम् उत्थाय गाढाइले पेग प्रगादालिङ्गनेन विवेक मूढाना भेशानरहितानाम् अद्वैतबुद्धिमेकरवबुद्धिम्
के उपदेशसे नन्दाय आया है ? क्योंकि गन्धर्वदत्ता अपनी विद्याके मुखसे इस समस्त वृत्तान्तको हाथपर रखे आँवले के समान जानती है। इस प्रकार जीवन्धरस्वामी मनसे यितर्कको, शरीरसे हर्षित रोमांचको और पैरोंसे वहाँ प्रस्थानको प्राप्त हुए। जाते ही उन्हें शस्त्राभ्यासको शाला में नन्दाय दिखाई दिया। उस समय नन्दाय पहले पहुँचने की होड़से । समीपमें आनेवाले सेवकों के मुखसे बड़े भाईके आनेका समाचार विदित कर देवपनेको प्राप्त हएके समान जान पड़ता था।
६६६६. तदनन्तर हपकी परम सीमासे विवश इन्द्रियों के द्वारा जिसने शीघ्र ही उठकर सत्कार किया था, जो हर्षके आँसुओंकी जलधाराको छोड़ रहा था। स्त्रिले हुए नेत्र-कमलोंसे जो जीवन्धर स्वामीकी मानो पृजा ही कर रहा था। जो अधिक भक्तिसे पैरों में प्रणाम कर ३० रहा था और विनयसे अत्यन्त श्रेष्ठ था ऐसे छोटे भाईको समस्त गुणांसे श्रेष्ठ जीवन्धर कुमारने प्रेमसे चलते हुए हाथोंसे लपककर ऊपर उठा लिया। उस समय बहुत भारी आनन्दके भारको उठाने में असमर्थ होने के कारण ही मानो उनके शरीरका पूर्व भाग अत्यन्त नम्र हो रहा था। वे उसके गाढ़ आलिंगनसे अविवेको मनुष्यों को अद्वैत बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे
...१. म० -कोपचरदनु । २. -म० मातन्त्रन् ।
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गधचिन्तामणिः
[ १९९-२०० नन्दाढ्यन - क्षिप्तमक्षिभ्यां प्रत्यक्षयितुमिव पृथक्कृतं कनीयांसं सांससंसर्ग निसर्गनिर्मले महीतले निवेशयनिष्कासिताखिलजनस्तदागमनप्रकारमाकारपिशुनितान्तर्गताहादः शनैरनुयुयुजे ।
5२००. नन्दाढयोऽपि पूर्वजानुयोगसमुपगतपूर्वप्रकृताध्याननवोकृत मन्यु भरः सदैन्यं साकूतं सादरं च वक्तुमुपाक्रमत-'पूज्यपाद, जगदुपप्लवकारिभवदु पल्तवार्तावात्यया निकाम२. स्फूर्तिमदादिषह्याभिषङ्गोऽपि कोपकृपोटयोनिकृताङ्गारसंकाशदशि विस्फुलिङ्गविस्फूर्जदसह शपरुषवचसि रचितारुकपरिधानभीकरवपुषि रोषदष्टोष्ठदर्शनमात्रत्रासितहस्तवति हेलोदस्तहेतिनिवप्रणयिपाणी - रणाभिमुखीभवत्वप्रमुखप्रमुखवयस्यवर्गे, केनचिदकितागतिना गगनं नीय
आनन् कुर्वन अनेकाहसं निरन्तरमने ककालम् हृदयनिक्षिप्त स्वान्तस्थापितम् अभिभ्यां नेत्राभ्याम् प्रत्यक्ष
यिनुमिय साक्षात्कमिव यस्कृतं कनीयान्स कनिष्टं अससंसांग सहितं सांससंसर्ग स्त्रस्कन्धस्य समीप एक १० निसर्गनिमले स्वभावस्वच्छे महीतले निवेशयन् स्थापयन्, निष्कासिता दूरीकृता अखिल जनाः समनपुरुषा
येन तथाभूतः सन् नदागमनप्रकारं तस्। कनिष्टस्यागमनं तस्य प्रकारी व्यवस्था तम् आकारेण स्वमुखाकृत्या पिशुनितः सूचितोऽन्तर्गतालादो हृदयानन्दो येन तथाभूतः सन् शनैर्मन्दर अनुयुयुजे पप्रच्छ ।
६२८०. नन्दाढयोऽवीसि गोपि कामहोप पूर्वजस्थानजस्यानुयोगः प्रश्नस्तेन समुपगतं संप्राप्तं यत पूर्वप्रकृताध्यानं पूर्ववटनास्मरणं तेन नवीकृतो नूतनीकृतो मन्युभरः शोकसमूहो यस्य १५ सयाभूतः सन् सदैन्यं सकातय साकृतं साभिप्रायं सादरं च सविनयं च वक्तुं कथयितुम् उपाक्रमत तत्परो
ऽभवत्-पूज्यपाद ! पूज्यचरण ! जगदुषप्लवकारिणी लोकायकारिणी या भवदुपप्लुतवार्ता भवदुपद्रववार्ता सैव वात्या वातसमूहस्तया निकामस्फूर्तिमता तीवस्फूर्तियुक्तानामविसस्यः सोहुमशक्योऽमिषङ्गो दुःसं यस्य तथाभूतोऽपि सन् अहमित्युत्तरेण संबन्धं कोपकृपीटयोनिना क्रोधाग्निना कृता अङ्गारसंकाशा भङ्गार
सदृशो दृशो नेत्राणि यस्य तथाभूने, विस्फुलिङ्गविस्फू जन्ति असहशानि परुषवासि यस्य तथाभूसे, रचितं २० कृतं यदर्थोस्कपरिधानं तेन भोकरं वपुर्यस्य तस्मिन् , रोषेण क्रोधेन दष्टा ये ओष्टा दन्तच्छदास्तेषां दर्शन
मात्रेण त्रासिता भीषिता हस्तवन्तः समर्था येन तस्मिन् , हेलयानायासेनोदस्ता उस्थापिता ये हेतिनिवहाः शस्त्रसमूहास्तेषां प्रणयिनी पाणी यस्य तस्मिन् , रणाभिमुखीमवंश्वासो पद्ममुखप्रमुख वयस्यवर्गश्चेति यह बतला रहे थे कि ये दोनों अभिन्न हैं। बहुत समयसे जिसे हृदयमें छिपाकर रखा था
ऐसे छोटे भाईको आँखोंसे प्रत्यक्ष देखने के लिए ही मानो उन्होंने पृथक् कर कन्धे से कन्धा २५ मिलाकर स्वभावसे ही निमल पृथ्वीतलपर बैठाते हुए धीरे-धीरे उससे उसके आनेका
प्रकार पूछा। उस समय उन्होंने वहां से समस्त लोगोंको दूर कर दिया था और उनके आकारसे उनके हदयका हर्प सूचित हो रहा था।
६२७०. बड़े भाईके प्रश्नसे पिछली घटनाका स्मरण होनेके कारण जिसके शोकका समूह नवीन हो गया था ऐसा नन्दाढ्य भी दीनता, हृदयकी चेष्टा और आदर के साथ कहने के ३० लिए उद्यत हुआ। उसने कहा कि 'हे पूज्यपाद ! जगत्को उपद्रव करनेवाले आपके ऊपर
भी उपद्रव आया है। इस समाचाररूपी आँधीसे अत्यन्त स्फूर्तिको प्राप्त हुए असह्य दुःखसे मैं दुःखी हो गया। और क्रोधरूपी अग्निके द्वारा किये हुए अंगारके समान जिनके नेत्र हो गये थे, तिलगोंकी चड़चड़ाहट के समान जिन के वचन असाधारण कठोर थे, आधी जाँच
तक पहिने हुए वस्त्रसे जिनके शरीर भयंकर थे, क्रोधपूर्वक इसे हुए आठके देखने मात्रसे ३५ जिन्होंने कुशल मनुष्यों को भयभीत कर दिया था, और जिनक हाथ अनायास ही ऊपर
उठाये हुए शस्त्रों के समूहसे युक्त थे ऐसे पद्ममुख आदि प्रमुख मित्रों का समूह ज्यों ही युद्धके लिए सम्मुख हुआ त्यों ही देखने में आया कि अकस्मात् आनेवाला कोई व्यक्ति आपको लिये
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- वृत्तान्तकथनम् ] अष्टमी लम्मः
የ8 8 मान स्वामिनं निर्वर्ण्य पुननिर्वयं संयुगसंनाहमनिवर्तनीयविषादविषमयनीरधों निमज्जति, जातु दुर्जयदुजातोऽहं किमिह देह भारं मुधा चिरमुढ्वेति मन्युमोढयेन मुमूर्षुर्भवन्भाविभवदीयदिव्यमुखाम्भोजदर्शनशंभरतया संभूतेन भूतभवद्भाविगोचरखेचराधिपसुताहृदयपरिज्ञानानन्तरमपहतासुर्भवेयमिति विचारेण प्रतिषिद्धः प्रजावतीसदनमतिद्रुतमदुद्रुवम् । अपश्यं च तां परिवादिनीसंक्रमितेन भगवदर्हत्परमेश्वराभिष्टवेन कष्टां दशामापन्नमात्मानमुल्लाघयन्तीमुल्लोकवियोग- ५ रोगात्तग-धां गन्धर्वदत्ताम् | सायाकूतज्ञा मामादरकातर्यादात्मत्यागरागिणमवगच्छन्ती क्रिमेवं कृच्छायसे 1 स खलु सकलजगल्लालनीयाकृतिः सुकृतिनां पूर्वस्तव पूर्वजः केनापि लब्धपूर्वोप. कारेण यावरण यक्षेन्द्रेण स्वमन्दिरं नीतः। तदनु नुतनजामातृतां प्रति जनपदं प्रतिपद्यमानः
वधाभूते अतर्कितागतिना अचिन्तितीपस्थितेन केनचित् गगनं नभी नीयमानं स्वामिनं निरापयं दृष्ट्वा पुनः संयुगसंनाहं युद्धोद्योगं नित्यं दूरीकृष्य अनिवर्तनीयविषाद एव अदूरे करणीय दुःखमेव विषमयनीरधिर्गरका- १०
त्रस्तस्मिन् निमज्जति सति जातु कदाचित् दुर्जयं दुर्जातं पापसमूहो यस्य तथाभूगोऽहम् 'इह लोके चिरं सुधा निष्प्रयोजनं दहभारम् ऊहवा हवा किं किंप्रयोजनम' इति मन्युमोढगेन शोकतन्य मौख्येण भुमूपुमनुमिच्छन् भवन , भावी मविष्यत् भवदायदिग्यमुत्राम्भोजदर्शनेन शंभरः सुखसमूह। यस्य तस्य मावस्तता तया संभूतेन समुत्पन्नेन भूतं च भवरच मावि चेति भूतभवद्भावोनि तानि गोचराणि यस्यास्तधाभूता या खेचराधिपसुता गन्ववंदत्ता तस्या हृदयस्य परिज्ञानानन्तरम् अपहृतासुम॒तो भवेयम् इति विचारण १५ प्रतिषिद्धो निवारितः सन अति द्रुतमतिशीघ्र प्रजावतीसदनं भ्रातृजायाभवनम् अदुद्रुवम् अगमम् । अपश्यञ्चा. वकोश्या तां पूर्वोको परिवादिनी वीणा तस्यां संक्रमितेन मिलिनेन भगवाँश्चासावईन्परमेश्वरश्चेति भगवदहत्परमेश्वरस्तस्याभिश्वस्त न कष्टां दुःखपूर्णा दशा अवस्थाम् आपन्नं प्राप्तम् आस्मानम् उल्लावयन्ती । स्वस्थां कुर्वन्तीम, अकोकषियोगेन समुत्करविनयोगेनात्तो गृहीतो गन्धो हाँ यस्यास्तां गन्धर्वदत्तां भ्रातृ जायाम् । आकून हृच्चेष्टितं जानातीत्याकूतज्ञा सापि भ्रातृजाशपि माम् आदरकातर्यात् आत्मत्याग- २० रागिणमात्मघातोद्यतम् अवगच्छन्ती 'किमेवमनेन प्रकारेण कृन्ट्रायसे कष्टमनुमवसि। सकलजगता लाल नीया समाजनीया आकृतिर्यस्य तथाभूतः सुकृतिनां पुण्यात्मना पूर्व प्रमुखः स तव पूर्वजोऽग्रजः खलु निश्चयेन लब्धः प्रातः पूर्वमुपकारो येन तथाभूतेन भूतपूर्वो यक्ष इति यक्षचरस्तेन कुक्कुरचरेण केनापि यलेन्द्रण स्वमन्दिरं स्वभवनं नीतः प्राषितः । तदनु तदनन्तरं प्रतिजनपदं देशे देशे नूतनजामातृताम् जा रहा है। यह देख युद्धका अभिप्राय छोड़ सब अनिवर्तनीय दुःखरूपी विषमय सागरमें २५ निमग्न हो गये । बहुत भारी दुर्भाग्यसे युक्त मैंने किसी समय विचार किया कि 'यहाँ इस शरीरके भारको चिरकाल तक व्यर्थ ही क्यों धारण करूँ ?' इस शोक जनित मूढ़तासे मैं मरना ही चाहता था कि आपके दिव्य मुखकमलके दर्शनसे होनेवाला सुखका समूह मुझे प्राप्त होने वाला था अतः मुझे यह विचार उत्पन्न हुआ कि भूत वर्तमान और भविष्यत्की बात जानने वाली गन्धर्ववृत्ताके हृदयकी बात जानने के बाद ही मुझे मरना चाहिए'। इस ३० विचारने मुझे मरनेसे रोक दिया और मैं बड़ी शीघ्रतासे भावज-गन्धर्वदत्ताके घर गया। वहाँ मैंने उस गन्धर्व दत्ताको देखा कि जो कष्टमय अवस्थाको प्राप्त हुए अपने-आपको वीणामें मिले हुए भगवान् अहेन्त परमेष्ठीके स्तवनसे नीरोग कर रही थी तथा अत्यधिक वियोगसपी रोगने जिसका समस्त हर्ष हर लिया था। गन्धर्वदत्ता हृदयको ताड़नेवाली थी अतः मुझे आदरकी कातरतासे आत्मवातका अनुरागी जानती हुई बोली कि 'इस तरह दुःखी ३५ क्यों होते हो ? समस्त जगत्के द्वारा लालनीय आकृतिको धारण करनेवाले एवं पुण्यात्माओं. में अग्रसर तुम्हारे भाईको, उनसे पहले उपकार प्राप्त करनेवाला कुत्तेका जीव कोई यक्षेन्द्र
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गचिन्तामणिः
[२०० हेमाभपुरीसुखेनावतिष्ठते । ततः किमेवं साहसमनुतिष्ठसि । पापिष्ठेयं स्त्रीसृष्टिरिव त्वमपि किमपरत्र गन्तुं न पारयसि ? यदि कोतुकाविष्टोऽसि तव ज्येष्ठपादस्य श्रीपादसंदर्शने शय्यतामिह शय्यायाम्' इति मामामन्त्र्य मन्त्रनियन्त्रितं किमपि पावनं शयनमधिशयानमेनं तत्समय एवं समोहितार्थगर्भपत्रेण सममत्र प्राहिणोत्' इति ।
२०१. तदनु च गगनेचरतनूजया प्रेषितं संदेशं हृपिततनूरुहारपल्लवेन सायल्लकमादाय गन्धर्वदत्तादयितः सदयं साकृतं सावधानं च वाचयनवचनविषयविरहविषादमूषिकाश्वेडपीडितजीविताया जीवन्मरणप्रकारविवरणनिपुणाकृतेर्गुणमालायाः कुशलेतरवृत्ति तयाजविवृतात्मीयविरहाति च तत्संदेशेन पुनरुक्तमवयंस्तत्समयस्फुरदमेयनिजशोकान लज्वालामध्यवर
अभिनववरत्वं प्रतिपद्यमानो लभमानः सुखेन कर्मणा अवतिष्ठते वियते । ततः कारणात् किमवमनेन प्रकारेग १० साहसं प्राणत्यागावदानम् अनुतिष्टसि । पापिष्ठा पायसी इयं स्त्रीरदृष्टिरिव नारीसृष्टिरिव खमपि किम्
अपरन्न राजपुर्या अन्यत्र गन्तुं न पारयसि समर्थो न भवसि । यदि चेत, तब स्त्रस्य ज्येष्टपादस्याप्रजचरणस्य श्रीपाददर्शने श्रीवाणावलोकने कौतुकाविष्टोऽसि कुतूहलाकान्तोऽसि तर्हि इह शय्यायां शय्यताम्' इतीत्थं मां नन्दाढ-यम् आमध्य पृष्ट्वा मन्त्रेण नियन्त्रित मिति मन्त्रनियन्त्रितं मन्त्रनिरुदं किमपि पावनं पवित्रं
शयनं शरयाम् अधिशयानं तत्र स्वप-तम् एवं जनं तत्समात्र एक तत्काल एवं समीहितार्थो गर्भ यस्य १५ तथाभूतं च तत्परं चेति समीहितार्थगर्मपत्रं तेन समं साकम् अत्र प्राहियोत् प्रजिवाय प्रेषयति स्मति __ यावत्' । इति ।
२०१. तद्नु चेति--तदनन्तरं च गगनेचरतनूजया गन्धर्व दसया प्रेषितं प्रहितं संदेशं वाचिकं इलाहपितास्तनू रहा यस्मिस्ता भूतो य: करपालकः पाणिकिसलयस्तेन सावालक मन्मयविकारसहितं यथा
स्यात्तथा मादाय गृहीत्वा गन्धवदत्तादयितो जीबंधरः सदयं सकरुणं तातं साभिप्रायं सावधानं च २० निष्प्रमादं च वाचयन् पाठयन् वचनस्य कथनस्य विषयो न भवतीत्यवचनविषयः स चासौ विरहविषादश्च :
विप्रयोगखेदश्च स एव मूषिकाया क्ष्वेडो गरलं तेन पीडित जीवितं यस्यास्तस्या जोवतो मरणं जीवन्मरणं तस्य प्रकारस्य रूपस्य विवरणे निरूपणे निपुणा निष्णाता कृतिय स्यास्सस्या गुणमालाया द्वितीयपन्याः कुशलेनरवृत्तिमकल्याणवृत्तिं तस्या व्याजेन मिषेण विवृता प्रकटिता यामःयविरहात्तिः स्वकीयविरहपीडा
तां च तत्संदेशेन पुनरुक्तं पुनरुदीरितं यथा स्यात्तथा अवयन जानन् तत्समये तस्मिन्काले स्फुरन्तो चासा२५ अपने भवन ले गया था। उसके बाद प्रत्येक देझमें नूतन जमाईपने को प्राप्त होते हुए वे
सुखसे अवस्थित हैं-विद्यमान हैं। तब फिर ऐसा साहस क्यों करते हो ? इस अत्यन्त पापिनी स्त्रीयोनिके समान क्या तुम भी दूसरी जगह नहीं जा सकते हो ? यदि तुम अपने बड़े भाईके चरणकमल देखनेका कौतुक रखते हो तो इस सय्यापर सो जाओ' इस तरह
मुझसे पूछकर मन्त्रमे नियन्त्रित किसी पवित्र शय्यापर शयन करते हुए इस जनको-मुझं, ३० उसने इच्छित वार्ताको सूचित करनेवाले पत्र के साथ यहाँ भेज दिया है।
६२०१. तदनन्तर विद्याधर पुत्रीके द्वारा प्रेपित पत्रको जीवन्धरस्वामीने रोमांचित कर-पल्लबसे बड़ी उत्कण्ठासे ले लिया और दया, हृदयकी खास चेष्टा तथा सावधानीके साथ उसे पढ़ा। पत्र पढ़ते ही उन्होंने, वचनके अगोचर वियोगजनित दुःखरूपी चुहियाके
विषसे जिसका जीवन पीड़ित हो रहा था तथा जीवित रहते हुए भी मरणको दशा दिखानेमें ३५ जिसकी आकृति निपुण थी ऐसी गुणमालाकी अकुशल अवस्थाको और उसके बहाने प्रकट की हुई गन्धर्वदत्ताकी विरह-पीडाको उसके द्वारा प्रेषित सन्देशसे पुनरुक्त रूपसे जान लिया
१. क, पारयसे । २. सायल्लकम् ---मन्मथविकारसहितम्, टि।
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विभवनप्रवेशः] अश्मी लम्भः
३०१ जमुखनिवर्णनेन तद्वचनसमाकर्णनेन च शमयंस्तूर्णप्रचावितपरिजनदत्तपाणिरुत्थाय तदुद्देशादनुजेन । समं निजगृहमभ्यवर्तत ।
२०२. अथ विदित जीवंधरनन्दाढयसौभ्रात्रैर्दढमित्रमहाराजप्रभृतिसंबन्धिभिः सानुबन्यमभिनन्द्यमानेन कनीयसान्वितस्य कनकमालावरस्य वराहतां गतेषु यहत्सु वासरेषु सर्वेष्वपि, कदाचित् 'उर्वोतलमतिचपलचरणतलाभिघातेन दलयन्तः सद्यःसमुत्खातहेति जातधौतधारादर्शन- ५ मात्रत्रस्यदाभोराः केचन वोराः कुतोऽपि समागत्य निहत्य च प्रतोपगामिनः कति चन गोभिमोऽपि गोधनमवस्कन्ध क्वापि गताः' इति गदापल्लवगुच्छप्रणधिपाणिपल्लवा दल्लवा भृशं गवळी घरावल्लभस्य द्वारि स्थिताश्चु क्रुशुः । वीर्यशालिनां विश्रुतः स राजेन्द्रोऽप्यश्रुतपूर्वमुपश्रुत्य
वमया निजशोकानलस्य स्वकीयशोकवर्गला ताम् अवरजमुखस्य कनिष्ठदनस्य निवणनं दर्शनं तेन सद्वचनस्य तदीयवाण्याः समाकर्णनेन च शमयन् शान्तं कुर्वन् तूर्णप्रधावितेन शीसगागर्तन परिजनेन १० दतः पाणिर्यस्य तथाभूतः सन् उत्थाय तदु देशात् तत्स्थानान् अनुजेन कनिष्टेन समं निजगृहम् अभ्यवतत संमुखोऽभवत्।
६२८२. अथेति-अथानन्तरं विदितं ज्ञान जाधरनन्दाययोः सौभानं यस्तैः दृढमित्रमहाराजप्रभुतयश्च ते संबन्धिनश्च तैः सानुबन्धं ससत्कारम् अभिनन्द्यमानेन प्रशस्यमानेन कनीयसा लधुसहोदरेण अम्वितस्य सहितस्य कनकमालावरस्य जीवंधरस्य वराहता जामातृयोग्यतां गतेषु प्राप्पु - सर्वेष्वपि वासरंषु १५ बहत्सु गच्छासु ससु कदाचित् 'अति चपलैरतिश यचन्चलेश्वरणतलैः पादतलैरमिधातन तापिनेन उर्वीतलं पृथिवीपृष्ठं दल यन्तः खण्डयन्न: सधो झगिति समुरखातस्योन्नमिनस्य इतिजातस्य शस्त्रसमूहस्य धौतधाराणां निर्मलधाराणां दर्शनमात्रेण यन्तो विभ्यत आमीरा वल्लवा यैस्तथाभूताः के वन केऽपि वीराः कुतोऽपि समागत्य समापत्य प्रतीरगामिनः प्रतिकूलगामिनः कतिचन गोमिनी गोपान् निहत्य मारयित्वा च गोधनं धेनुधनम् अवस्कन्द्याच्छिद्म वापि कुत्रापि गताः; इति गदापल्लवगुच्छानां प्रणयिनस्तानाः पाणिपल्लवाः २० । करक्रिसलया येषां तथाभूता वल्लया गोपा धरावलल मस्य राज्ञो द्वारि प्रतीहारे स्थिताः सन्तो भृशमत्यधिक चुकुशुः आक्रन्दन्ति स्म । वीर्यशालिना पराक्रमक्ता विश्रुतो विख्यातः स राजेन्द्रोऽपि दृढमित्रोऽपि गोवुहाथा। उस समय उनके हृदय में भी अपरिमित शोकाग्निकी ज्वाला उत्पन्न हुई थी परन्तु उसे जन्होंने छोटे भाईका मुख देखने और उसके वचन सुननेसे शान्त कर दिया। तदनन्तर शीघ्र दौड़कर आये हुए परिजनोंने जिन्हें हाथका आलम्बन दिया था ऐसे जीवन्धरकुमार २५ उस स्थानसे छोटे भाई के साथ अपने महलकी ओर चल दिये।
२०२. अथानन्तर जिन्होंने जीवन्धर और नन्दाय के भाई-चारेको अच्छी तरह जान लिया था ऐसे दृढ़मित्र महाराज आदि सम्बन्धी जनोंने नन्दाढ्यका अच्छी तरह अभिनन्दन किया। इस तरह छोटे भाईसे सहित जीवन्धरकुमारके सभी दिन जब वरके योग्य उत्कृष्टताको प्राप्त हो सुखसे व्यतीत हो रहे थे तब किसी दिन, 'अत्यन्त चंचल चरण- ३० तलके आघानसे जो पृथ्वीतलको विदीर्ण कर रहे थे और शीघ्र ही उभारे हुए शस्त्र-समूहकी उज्ज्वल धागाके देखने मात्रसे जिन्होंने अहोरोंको भयभीत कर दिया था एसे कितने ही वीर कहींसे आकर तथा विरुद्ध चलने वाले कितने ही अहीरों को मारकर गोधन चुग कहीं चले गये हैं। इस प्रकार हाथोंमें लताओंके पल्लव और गुच्छोंको धारण करनेवाले अहीर राजाके द्वारपर खड़े होकर जोर-जोरसे चिल्लाने लगे। पराक्रमियों में प्रसिद्ध राजाधिराज दृढ़मित्र ३५
१. क० ग० फलाहतां । ख० पदार्हताम् ।
Anil
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गद्य चिन्तामणिः
[ २०२ २०३ गोहरण
गोदुहामतिभृशमाक्रोशमनीदृशकोधाविष्टः 'तानेवमभिनिविष्ट दज्वरान सांप्रतकृतः सांप्रतमेव समानीयास्माकं पुरस्तादवस्थापयत | नो चेदपास्तासून वश्यं वः पश्येत' इति दर्शिताञ्जलीन्सेनान्यो व्याज |
$ २०३. ततश्च तथाविधराजाज्ञया समन्तादुपसरद्भिः सुरगजगर्वस्तम्भिभिः स्तम्बेरमै - ५ गुल्मपराजितमन हस्तिरस्कृत मनोरथे रथैर्य हृकृत्वः कृतवरिविपत्तिभिः पत्तिभिएच सीरमेयीसंघग्व एकाएं ग्रहीतुं वहत्सु वाहिनीपतिषु एवंभूतमेतदाकर्णयन्ते धनुर्धरः सात्यंवरिररिपरिभवासहिष्णुता स्वयमपि निषङ्गी कवची धनुष्मांश्च भवन्नवर जसारथिचोदितशताङ्गः शतशः स्वशुरेण निवार्यमाणोऽपि मङ्क्षु गवां मोक्षणमकाङ्क्षीत् । साभीराणाम् अश्रुतपूर्वमनाकरितपूर्वम् अविभ्रमत्यधिकम् आको रोदनवनम् उपश्रुत्य समा १० अनीशेनासाधारणेन क्रोधेन कोपनाविष्टो युक्तः सन् 'एवमनेन प्रकारेणाभिनिविष्टः संत्रासो दरो गर्वव येषां तान् असाम्प्रतभयुक्तं कुर्वन्तात्यसाम्प्रतकृतः तान् गोधन लुण्ठाकान् समानीय अस्माकं पुरस्तादग्रे अबस्थापयत्त स्थितान् कुहत | नो चेद्र एवं न स्यात्तर्हि वो युष्मान् अवश्यम् अपास्तासून् निष्प्राणान् पश्यत इति दर्शिताजलीन् बद्धहस्तसंपुष्टान् सेनान्यः सेनापतीन् व्याजहं कथयामास ।
२०३. ततश्चेति ततश्च तदनन्तरं च तथाविधा ताशी वासी राजाज्ञा व राजादेशश्रेति तथा१५ विधराजाज्ञा तथा समापरित उपसरद्भिः समीपमागच्छद्भिः सुराजस्य देवद्विरदस्य गर्न दर्पं स्तम्नन्तीति सुरगजगर्थस्तस्मिनस्तः स्तम्बेरमैर्गजैः वल्गुवल्गनेन तीगमनेन पराजिताः कुरङ्गा मृगा यैस्तथाभूतैस्तुरंगेरवैः गमनरंहसा गतिरयेण तिरस्कृती मनोरथो यस्तै रथैः स्यन्दनैः बहुकृत्वोऽनेक वारान् कृता विहिता वैरिणां विपत्तिविनाशो यैस्तैः पत्तिभिः पदातिभिः सौरभेयोसङ्घस्य गोसमूहस्यावस्कन्दिनोऽपहारिणो ये तस्कराचोरास्तान् हस्तौ गृहीत्वेति हस्तग्राहं ग्रहीतुं बाहिनीपतिषु सेनापतिषु वहत्सु गच्छत्सु सत्सु एवंभूत२० मित्थंभूतम् एतद्वृत्तम् आकर्णयन् शृण्वन् एकश्वासौ धनुर्धरत्येकधनुर्धरोऽद्वितीय कोदण्डधरः सात्यंधरिविंचरः अस्कृितः परिमवोऽरिपरिभवस्तस्यासहिष्णुतया सोढुमशी त्वेन स्वयमपि रथ रथयुक्तो निषङ्गी तूणीरयुक्तः कवची वारवाणसहितः, धनुष्मांश्च कोदण्डयुक्तश्च भवन् अवरजो लघुसहोदर एव सारथिः सुतस्तेन चोदितः प्रेरितः शताङ्गी यस्य तथाभूतः शतशः शतवारान् श्वसुरेण कनकमालापिया निवार्यमाणोऽपि प्रतिषिद्धोऽपि मङ्क्षु शीघ्रम् गव घेनूनां मोक्षणम् अकाङ्क्षीत् ववाञ्छ ।
३०२
२५ महाराजने भी अहीरोंकी उस अश्रुतपूर्व अत्यधिक चिल्लाहटको सुन असाधारण क्रोध से आविष्ट हो, हाथ जोड़कर खड़े हुए सेनापतियोंसे कहा कि तुम लोग अहंकाररूपी ज्वरके धारक एवं अनुचित कार्य करनेवाले उन लोगोंको इसी समय लाकर हमारे सामने खड़े करो नहीं तो तुम लोग अपने आपको निष्प्राण देखोगे ।
२०३. तदनन्तर राजाकी उस प्रकारकी आज्ञासे सब ओर चलनेवाले एवं देव३० हस्तियोंके गर्वको रोकनेवाले हाथियोंसे तीव्र चालसे हरिणको पराजित करनेवाले घोड़ों से, गमन के वेग से मनोरथको तिरस्कृत करनेवाले रथोंसे और अनेकों बार शत्रुओं पर विपत्ति हानेवाले पैदल सैनिकोंसे गोधनको हरण करनेवाले चोगेको हाथसे पकड़ने के लिए जब सेनापति चलने लगे तब इस प्रकार के इस समाचारको सुनते हुए अद्वितीय धनुर्धारी जीवन्धरकुमार शत्रु पराभव को न सह सकने के कारण स्वयं ही रथ, तरकश, कवच और धनुष के धारक हो शीघ्र ही गायोंको छुड़ाने की इच्छा करने लगे। उस समय उनका छोटा भाई सारथी बनकर रथ चला रहा था और जाते समय सुरते सैकड़ों बार रोका था फिर भी वे रुके नहीं ।
३५
१. क० सौरभेयीसङ्घातग० सौरभयी संघातावस्कन्दिततस्रात् ।
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domartphone
- वृत्तान्त: ]
अष्टमो लामः २०४. तदनु च गमनवेगानुधावदतिजवनपवनसनाथरथधुर्यखरखुरखातघरापरागपुरोगतया पुरोवतिनं मित्रसाथै पार्थिवैरिव प्रतिगृह्णन्गृहीतगोधनानामायोधनेन निधनं कर्तुमतित्वरितमपमृत्य परोत्य तस्थौ। तावता त्रिभुवन भयंकरेण चापटंकारेण जगदभयंकरस्यास्य कोदण्डकोविदस्थ सांनिध्यमत्रत्रुन्ध तस्य कोषादात्मानं गोपायितुकामास्ते गोकुलदस्यवो वयस्याः सरभसोत्खात- . निजहर पानीव स्वनामाशिनाल्यानि पुरस्कृतपुङ्खानि शिलोमुख जातानि कुमाराभिमुखं प्रायु- ५ क्षत। प्रणे मुश्च ते प्रसभमुपसृत्य स्वनामचिह्नितमु वाशिलोमुखान्विलोक्य विचारस्य विस्मय
स्य प्रमोदस्य कौतुकस्य मोहस्य च योगगद्येन पात्रो भवतः पवित्रकुमारस्य पादयोः पद्ममुख| प्रमुखाः सखायः । बभूव चायं बहु सहसाक्षो बहुधा विभक्तमिवात्मानं मित्रलोकमवलोकयन्प
L-
२०४. तदनु चेति-तदनु च तदनन्तरं च गमनवेगेन गतिरयेणानुधावन्तः पश्चाद्वेगेनागच्छन्तोतिजवनास्तीत्रगामिना ये पवना वायवस्तैः सनाथाः सहिता ये रणधुर्याः स्यन्दनहयास्तेषां खरखरैस्तीक्ष्या- १० शफैः स्वाता क्षुणा या धरा पृथिवी तस्याः परागा धूकिः स पुशेगः पुरोगामी यस्य तस्य मावस्तता तया पुरोवर्तिनमग्रेविद्यमानं मित्रसाथ ययस्यवृन्दं पार्थिवैरिव रामभिरिव पक्षे पृथिवीविकाररिव प्रतिगृह्णन् निरुध्य स्वीकुर्वाणो गृहीतं गोधनं यस्तेषां गोधनापहारिणाम् भायोधनेन युद्धेन निधनमन्तं कर्तुम् अतित्वरितमतिशीघ्रम् उपसृत्य परीत्य परिवार्य तस्थौ। तावतेति--ताबकालेन त्रिभुवन भयंकरेण लोकत्रयभयोत्पादकेन चापक्षकारेण धनरवेण जगदभयंकरस्य लोकत्रयस्य भयं निवारयतः कोदण्डकोविदस्य चागाचा. १५ यस्य अस्य जीवंधरस्य सांनिध्यं सामीप्यम अवबुध्य ज्ञात्वा तस्य कोपाद्रोषात् आत्मानं स्वं गोपायितुकामा रक्षितुकामाः ते गोकुलदस्यको धेनुसमूतस्करा वयस्याः सखायः सरमसं सवेगमुखातान्युन्मलितानि यानि निजहच्छल्यानि स्वकीयहृदयशल्यानि तानीच स्वनाम्नाङ्कितं चिहितं शस्यमयं येषां तानि पुरस्कृतयुद्धानि अग्रेकृसरसरूणि शिलीमुखजातानि बाणनिकुम्बाणि प्रायुक्षत प्राहिण्वन् । प्रणेमुश्च नमश्चक्रुश्च ते पद्ममुखप्रमुखाः पद्मास्यप्रधानाः सखायो वयस्याः प्रसभं हान् उपमृत्य समीपमागन्य स्त्रनामचिह्नितान् स्वकीयनामाङ्कितान् २० शिलीमुखान् घाणान् विलोक्य विचारस्य वितर्कस्य विस्मयस्याश्चर्यस्य प्रमोदस्य हर्षस्य कौतुकस्य कुतूहलस्य मोहस्य वैचित्त्यस्य च योगपोन एककालावच्छेदेन पानीमवतो माजनीमवत: पवित्रकुमारस्य जीवंधरस्य पादयोश्चरणयोः । बभूवेति-त्रभूव चायं पवित्र मारो जीवकः बहुधानेकप्रकारेण विभक्तम्
६२८४. तदनन्तर गमनके वेगसे पीछे-पीछे दौड़नेवाली अत्यन्त वेगशाली वायुसे युक्त रथके घोड़ोंकी टापोंसे खुदी पृथ्वीको धूलि उनके आगे-आगे जा रही थी उससे वे ऐसे २५ जान पड़ते थे मानो आगे विद्यमान मित्रसमूहको पार्थिव-धूलिसे (पक्षमें राजोचित उपकरणोंसे) पकड़ना चाहते हैं। तदनन्तर गोधनके धारक लोगोंका युद्ध के द्वारा मरण करनेके लिए जीवन्धरस्वामी, अत्यन्त शीघ्रतासे पास जाकर तथा उन्हें घेरकर खड़े हो गये । उसी समय त्रिभुवनको भय उत्पन्न करनेवाले धनुषको टंकारसे लोगोंने समझ लिया कि जगत्को अभय दान देनेवाले धनुर्वेद के पण्डित जीवन्धरकुमार समीप ही में स्थित हैं। तदनन्तर , उनकं क्रोध से अपने आपकी रक्षा चाहनेवाले गोकुलके चोर मित्रोंने जीवन्धरकुमारके सामने ऐसे बाण चलाये जो कि वेगसे उखाड़ी हुई अपने हृदयकी शल्योंके समान जान पड़ते थे, जिनके अप्रभाग अपने नामोंसे चिह्नित थे, तथा जिनकी मूठे आगेकी ओर थीं। उन पद्ममुख आदि मित्रों ने झोन हो पास आकर अपने नामसे चिह्नित बाणों को देखकर विचार, विस्मय, हर्ष, कौतुक और मोहके एक साथ पात्र होनेवाले जीवन्धरकुमारके चरणों में प्रणाम किया। ,
१. क० ख० ग आलोकयन् ।
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पचिन्तामणि
[२०४-२०५ गोहरण - पवित्रकुमारः । सखायश्चासन्सौख्यातिशयेन तदभ्याशप्रवेशलब्धेन सनिमेषा अनिमेषाः।
२०५. अथास्मिन्सौरभेयोगवेषिणि सुदर्शनसुहृदि, सुहृदामुपलम्भादेघान्वेषिणि मणिलाभादिव स्फीतमदि, वनमतीत्य मिश्रपेटकेन लालाटिकरप्यमा हेमाभरीमवगाह्य नागरिकम नयनसुमनोजलीन्ग्राहं ग्राहं निजगृहमोयुषि 'मुषितोसाश्चोरखदमी कारागृहे किं न निगल५ नीयाः ।' इति लालबन्तोमपन्दप्रेमान्धां सगन्धा कनकमालामिब कनकमालामतिलोकबान्धव
संबन्धिसमाजं च समालोक्य चरितार्थीभवति वयस्यसार्थे, कदाचिदयं सुदर्शनमित्र: स्व. मित्राणामतिमात्रबहुमत्याः कोऽत्र हेतुः । अस्मदीयक्ष त्रता किमवगता । किस्विदन्यदमोषां बहुभ
-
२०
आन्मानमिव मित्रलोकं वयस्यवृन्दम् अवलोकयन् पश्यन् सहम्राशस्य प्रकार इति बहुसहस्राक्षः सहस्रलोचन
इन्द्र इति यावत् । सहायश्च पास्मभृतयः वयस्थाः तदम्बाशे जधिरसमीपे प्रदेशस्तेन लब्धेन प्राप्तेन १. सौख्यातिशयेन सौख्याधिक्येन सनिर्मषाः पक्षमपातसहिता अपि अनिमेषाः परमपातरहिताः पक्षे देवा आसन् ।
६२०५. अथेति-~-अथ मित्रोपलव्ध्यनन्तरम् सौरभेयोगवेषीणि गोधनान्वेषणकारि अस्मिन् ' सुदर्शनसुहृदि यक्षेन्द्रमित्रे जीवधरे सुहृदां पद्मास्यादीनां मित्राणाम् उपळम्भात्प्राप्तः एधान्डषिणि काष्ठ
गघिणि मणिलाभादिव रत्नोपलस्भादिव स्फीत भुदि विस्तृतहर्षे सति, वनमतीत्य कानन मतिक्रम्य मित्रपेटकेन १५ सुहृत्समूहन ललाटं पश्यन्तीति लाकाटिका सेवकास्तैरपि अमा साधं हेमामपुरी हदमित्रराजधानीम् प्रवगाह्म
प्रविश्य नागरिकाणां पौराणां नयनान्येव सुमनोऽअल यः पुष्पाञ्जलयस्तान् ग्राहं ग्राहं गृहीत्वा गृहीस्वा निजगृहं स्वभवनम् ईयुषि प्राप्तवति सति, "मुषितोस्रा अपहतगोधना, अमी चोरवत्तकरवत् कारागृहे किं न निगलनीया निगहनीयाः' इति लाल यन्ती स्नेहं प्रदर्शयन्तीम् अमन्दप्रेम्णा प्रचुरप्रीस्यान्धा ताम्, सगन्धा ससौरमाम् कनकमालामिव सुवर्णस्रजमिव, कनकमाला जीवंधरजायाम् भतिलोकचासौ बान्धवश्रेत्यतिलोकबान्धवः श्रेष्ठबन्धु पंधरस्तस्य संबन्धिनां समाजः समूहस्तं च समालोक्य दृष्ट्वा घयस्यसाथै मिन्नसमूहे चरितार्थी भवति सकल प्रयासे सति कदाधिज्जातुचित् सुदर्शनो मित्रं यस्य स सुदर्शनमित्रो जीपंधरः 'स्वमित्राणामात्मसुहृदाम् अत्र मम विषये अतिमात्रबहुमत्या असिसन्मानस्य को हेतुः किं कारणं पूर्वापेक्षया मा प्रत्येषा मति सन्मानदर्शने किं निमित्तमिति भावः। अस्मदीयक्षत्रता मम राजपुत्रता किम्
अनेक प्रकारसे विभक्त अपने-आपके समान मित्रजनोंको देखते हुए जीवन्धरकुमार अनेक २५ हजार नेत्रों के धारक हो गये अर्थात् वे समस्त मित्रों को एक साथ देखने लगे। जीवन्धर
कुमारके समीप प्रवेश पानेसे प्राप्त अत्यधिक सुखसे मित्रगण दिमकारसहित होनेपर टिमकारसे रहित हो गये।
६२०५. अथानन्तर गायोंकी खोज करनेवाले जीवन्धरकुमारको मित्रों की प्राप्ति होनेसे इतना अधिक हर्प हुआ जितना कि लकड़ियों की खोज करनेवाले किसी मनुष्यको मणिके ३० मिल जानेसे होता है। वनको उल्लंघ कर मित्रसमूह तथा सेवक जनों के साथ जब जीवन्धर
कुमार नागरिक जनोंके नेत्ररूपी पुष्पांजलिको ग्रहण करते हुए अपने घर पहुँचे तब गायों को चुरानेवाले इन लोगों को चोरों के समान कारागृह में क्यों नहीं बेड़ियोंसे बद्ध किया जाय' इस प्रकार कहती हुई, बहुत भारी प्रेमसे अन्धी एवं सुगन्धिसहित सुवर्णमालाके समान
कनकमालाको और जीवन्धरकुमारके सम्बन्धी जनोंको देखकर मित्रोंका समूह कृतकृत्य ३y हो गया। किसी समय जीवन्धरकुमारको संशय हुआ कि हमारे मित्र पहलेकी अपेक्षा
अत्यधिक सन्मान करने लगे हैं सो इसमें क्या कारण हो सकता है ? क्या इन लोगोंको हमारा क्षत्रियपना ज्ञात हो गया है. ? अथवा इन लोगोंके अत्यधिक सन्मानमें पहलेको
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अष्टमो लम्मः
३०५
सरायथापुर्ये निदानम् ।' इति संशयानस्तत्परीक्षणाय दत्तक्षणः क्वचिद्रहस्योद्देशे वयस्यान्पप्रच्छध्यमिहागच्छन्त; केन पथा समायाताः । कानि वा वर्मनि कौतुकास्पदानि पदानि दृष्टानि ।' इति ।
F२०६ तथा पृष्टानां वयस्यप्रष्ठोऽयं प्रदर्शितप्रथयोत्कर्षों व्याहार्षीदेवं हर्षोत्फुल्लमखः पद्ममुखः -- 'देव, देवस्यान्वेषणाय वयमश्वीयपणायि नामवलम्ब्य धुरं राजपूर्या विनिम्त्य ५ । विवतुरवासरैः कुभुमामोदवासितहरिन्मण्डलं दण्डित कुसुमकोदण्डं दण्डकारण्यान्तर्गतं कमपि तापसाश्रममध्वश्नमादाश्रित्य तत्रत्यानशेषानपि विशेषान्पश्यन्तः क्वचिदपश्याम नश्यद्भुषामपि भूम्ना देहसौन्दर्यस्य दर्शितदेवमात गौरवां कामपि जगन्मातरम् । पुन रनया दयाजनन्या 'मान्याः, भवगता ज्ञाता। स्विद् अथवा अमीषा मित्राणां बहुमतेर्बहुसम्मानस्य आयथापुर्ये पूर्व भिन्नत्वे अन्यत किं निदान कारणम्' इति संशयानः संशयं कुर्वाण: तत्परीक्षणाय तत्परीक्षार्थ दत्तक्षणो दत्तावसरः सन् क्वचिद्र १० इस्पोहेश्ये विजनस्थाने वयस्याम्पप्रच्छ—'इहान नगर्यामागच्छन्तो यूयं केन पथा केन मार्गेण समायाताः समागताः । कान वा किन्नामधेयानि वा वर्मनि माग कौतुकास्पदानि कतहलस्थानानि पदानि स्थानानि दृष्टानि विलोकितानि ।' इति ।
२०६. तथेति -तथा पूर्वोकप्रकारेण पृष्टानामनुयुनानां वयस्यानां मध्ये वयस्य प्रष्टोऽयं सहयोऽयं प्रदर्शितः प्रकटितः प्रधयोत्कर्षो विनयोत्कर्षों येन तथाभूतो हर्षोत्कुलं मुखं यस्य तथाभूतश्च ११ पर पद्ममुख एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण न्याहार्षात जगाद-'देव । हे स्वामिन् । देवस्य भवतोऽन्वेषणाय गवेषणाय वयम् अश्वीपणायिनी हय समूहव्यापारिणाम् धुरमयं सहयायित्वमिति यावत् अवलम्त्य समाश्रित्य राजपुर्या विनिगत्य अयो वा चस्वारो वा त्रिचतुरास्ते च तं वासराच दिवसाश्च तैः कुसुमानां पुष्पाणामामोदेन सौगन्ध्येन वासितं सुरभितं हरिन्मण्डलं दिङ्मगडलं यस्मिस्तम्, दण्डितोऽपमानितः कुमुम मोदण्डः कामो यस्मिस्तम्, दण्डकारण्यान्तर्गतं दण्डकवनमध्यस्थितं कमरि तापसाश्रमं तपस्वितपोवनम् २० अश्वश्रमान्मार्गश्रमात् आश्रित्य तत्यान् तग्रमवान् अशेषानपि निखिलानपि विशेषान् दर्शनीय पदार्थान् पश्यन्तो विलोकमाना वयं कचित् नश्यद्भुषामपि भूषणरहितामपि देहसौन्दर्यस्थ कायकामनीयकस्य भूम्ना बाहुल्येन दर्शितं प्रकटितं देवमातुदेव ननन्या गौरवं यया तथाभूतां कामपि जगन्मातरं जगजननोम् अपश्याम
अपेक्षा जो विशेषता आयी है. उसमें कोई दूसरा ही कारण है ?' इस प्रकारका संशय करते हुए उन्होंने उसकी जाँच करने के लिए समय दिया और किसी एकान्त स्थानमें मित्रोंसे । पूछा कि 'यहाँ आते हुए तुम लोग किस मार्गसे आये हो ? और मार्ग में कौन-कौन कौतुक के स्थान तुमने देखे हैं ?'
२०६. इस प्रकार पूछे हुए मित्रों में जो श्रेष्ठ था, जो विनयके उत्तर्पको दिखला रहा था तथा हर्षसे जिसका मुख विकसित हो रहा था ऐसे पद्ममुखने इस प्रकार कहा-हे देव ! आपको खोजने के लिए हम लोग घोड़े वेचनेवाले लोगोंका भार धारण कर राज पुरीस निकले ३० और तीन चार दिनमें दण्डकवनके अन्तर्गत किसी उस तापसोंके आश्रम में जा पहुँचे जहाँका दिङमण्डल फूलोंकी सुगन्धिसे सुवासित हो रहा था और कामदेव जहाँ दण्डको प्राप्त था। वहाँकी समस्त विशेषताओंको देखते हुए हम लोगोंने कहीं किसी ऐसी जगन्माताको देखा जो भपणोंसे रहित होनेपर भी शारीरिक सौन्द यकी अधिकतासे आपकी माता
१. पणायिनाम्-व्यापारिणाम् ।
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गयविन्
[ २०६ २०७ जीवंधरस्य
यूयं क्वत्याः । ' इत्यत्यादरमनुयुक्ता वयमत्र प्रत्युत्तरमुदीरयितुमुपक्रम्य 'देवि, वयममी राजपुरीवास्तव्यवेश्यपति सूनोर्दीन जीवजीवातोर्जीवककुमारस्य सुहृदः किल । अस्मद्दुष्कृतबलेन कृतघ्नप्रष्ठः काष्ठाङ्गारो नाम राजापसदः कदाचिदमुत्य पराक्रमममृष्यन्केनापि दोषमिषेण कुमारमेनं मारयितुम् -' इत्येतावदवोचामहि । तायता तद्देव्याः संजातामापदमिरंमदाविद्वयोरिवेत्थ - ५ मितिनक्तुमिदानीमपि न जानीमहे |
२०७ पुनरतिप्रलाप तुमुलोपस्थित सत्रासतापसपत्नीपरीतोपकण्ठमाकन्दविशीर्यमाणकण्ठमालोकनोत्कण्ठमानवटुपे कमत्युत्कटकोलाहलपलायमानपर्णशालाङ्गणकुरङ्गगण मतिकरुण रोदननिदानप्रश्नैकतानमुनिवृन्दं च तदमन्दव्यसनमनुभवन्तोय मखिलजगदम्बिका तदानीमम्बुमुचां
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व्यलोकथाम | पुनरनन्तरं दयाया जननी तथा कारुण्योत्पादिकया अनया मान्या माननीयाः ! यूयं क्वत्याः १० क्वमवा!' 'अमेक्कनस्त्रेभ्य एव' इति व्यम् इतीत्धम् अत्यादरं प्रभू सन्मानपूर्वम् अनुयुक्ताः पृष्टा वयम् अत्र विषये प्रत्युत्तरम् उदीरयितुम् उपक्रम्य प्रारम्य 'देवि ! स्वामिनि ! वयममी सर्व राजपुरीवास्तव्यास वैश्यपतिश्चेति तथा राजपुरीनिवासिगन्धोत्कटस्तस्य सूनोः पुत्रस्य दीनजीवानां जीवातो रक्षकस्य जीवककुमारस्य सुहृदो मित्राणि किलेति वाक्यालंकारे । अस्माकं दुष्कृतस्य पापस्य वलं तेन कृतघ्नप्रष्टः कृतघ्नश्रेष्ठः काष्टाङ्गारो नाम राजा सदा नृपाधमः कदाचित् अमुल्य जीवककुमारस्य पराक्रमम् अमृष्यन् असहमान: १५ केनापि दोषमिषेणापराधव्याजेन एनं कुमारं मारयितुम् - इत्येतावद् इतिपर्यन्तमेव अवोचामहि अगादिर | तावता तावकथनेनैव संजातां समुत्पत्न्नाम् इरंमदेव मेघज्योतिषा वज्रेणेति यावत् आविद्धः प्रहृतः शरज परस्तस्यैव आपदमापत्तिम् इदानीमपि साम्प्रतमणि 'इत्यमितिप्रकारां, इति वक्तुं कथयितुं न जानीमहे ।
२००. पुनरिति पुनरनन्तरम् अतिप्रलापस्य ती विलापस्य तुमुलेन कलकलशब्दातिरेकेणी२० पस्थिता निकटं प्राप्ता यास्तापसपन्यस्तापस्यस्ताभिः परीतो व्याप्त उपकण्ठः पार्श्वप्रदेशो यस्मिंस्तत् आक्रन्देन रोदनध्वनिना विशीर्यमाणः को गो यस्मिंस्तत्, भालोकनाय दर्शनायोत्कण्ठमानः समुत्सुकीभवन् बटुपेटको बालसमूहो यस्मिंस्तत्, अत्युत्कटकोलाहले तीव्रतरकलकलशब्देन पलायमाना धावमाना
शालाको नाङ्गस्य कुरङ्गगणा हरिणसमूहा यस्मिंस्तत्, अतिकरुणं यत् रोदनं तस्य निदानस्य प्रमुख निमित्तस्य प्रश्ने प्रच्छने एकतानः संलग्नो मुनिवृन्दो यस्मिंस्तथाभूतं तद् श्रमन्दव्यसनं विपुलकष्टम् २४ होने का गौरव दिखला रही थी । दयाको उत्पन्न करनेवाली उस जगन्माताने बड़े आदर के साथ हम लोगों से पूछा कि हे माननीय जनो ! तुम सब कहाँ के हो ? प्रत्युत्तर देने के लिए तत्पर हो हम लोगोंने कहा कि हे देवि ! हम लोग राजपुरीमें रहनेवाले वैश्यपति के पुत्र एवं दीन मनुष्यों को जीवित करनेके लिए अमृतस्वरूप जीवन्धरकुमार के मित्र हैं। हमारे पापकी प्रबलतासे कृतनों में श्रेष्ठ काष्ठशंगार नामका तोच राजा किसी समय उसके पराक्रमको ३० सहन न करता हुआ किसी दोषके बहाने इसे मारने के लिए बस हम इतना ही कह सके बिजली थे कि उतने ही से उस देवी को वसे ताड़ित अजगर के समान जो दुःख हुआ था उसे हम आज भी कहना नहीं जानते ।
§ २०७. तदनन्तर अत्यधिक प्रलाप के जोरदार शब्द से पास आयी हुई भयभीत मुनिपत्नियों से जिसमें समीक्का स्थान घिर गया था, रोनेके शब्दसे जिसमें गला फट गया था, ६५. जहाँ बच्चों के समूह देखनेके लिए उत्कण्ठित हो रहे थे, अत्यधिक कोलाहलके कारण जहाँ पर्णशालाओंके आँगनों में विद्यमान हरिणोंक समूह भाग रहा था और जिसमें मुनियोंका समूह अत्यन्त कम रोनेका कारण पूछने में तन्मय था ऐसे बहुत भारी कष्टका अनुभव करती
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-मानुत्तान्तः ]
अटमो लम्मः तिः स्तनितेन समममृतमित्र परिदेवनेन सह देवस्य वृत्तान्तमपि यथावृत्तं जगदभिवृद्धये प्रकटयामास । वयं तु पुनरिदंतया विदितदेवोदन्ताः (कन्दलितानन्दकन्दा:) 'कथमन्यदुपक्रान्तमपदापतितम् ! अहो धन्या वयमद्य संजाताः !' इत्यन्योन्यस्य मुखमीक्षमाणाः 'क्षोणी चाभवदमधोना । कोनाशमपि काष्ठाङ्गार काष्ठमिवाशुशुक्षणिराशु भस्मसात्करिष्यामः' इति वदन्तः परस्परं तां धिकृ.तां धैर्येण , हुंकृतामहंकारेण, भत्सिता भाग्येन, धर्षितां प्रहर्षण, विस्मृतां ५ स्मितेन, वञ्चितां विवेकेन, सजुगुप्सा स्त्रीजन्मनि, सापलापां पुण्येषु, सक्रोधां वेधसि, सलज्जां
जीवितव्ये, सत्रासां पुत्रलाभे, दर्शितदुरवस्थां देवीम् 'देवि' मा भैषोरेबम् । न मारितः स १ कुमारः। किंतु मारयितुमभीष्टोऽयं केनापि विशिष्टेनास्मद्दिष्ट्या तत्क्षण एवं संरक्षित: क्यापि क्षिती सु-वेनास्ते । तद्दर्शनास्थया प्रस्थिता वयमप्युपस्थास्यामहे चाद्यश्वस्तमवश्यम् । देवि, भनुभवन्ती इयम् अखिलजगदम्बिका निखिलजगन्माता तदानीं तस्मिन् काले अम्बुमुचा मेघानां पतिः १० स्तनितेन गजितेन समम् अमृतमिव पीयूषमिव परिदेवनेन विलापेन सह देवस्य भवतो वृत्तान्तमपि यथावृतं जगदभिवृद्धये लोककल्याणाय प्रकटयामास । वयं तु पुनरिदतय। अनेन प्रकारेण विदितदंबोदन्ता ज्ञातमववृत्तान्ताः कथम् अन्यद् उपकान प्रारब्धम् अन्यद् भापतितं प्राप्तम् । अहो अच वयं धन्या भाग्यशालिनः संजाताः' । इतीत्यम् अन्योऽन्यस्य परस्परस्य मुखं वदनम् ईक्षमाणाः पश्यन्तः क्षोणी च पृथिवी चास्मदीना मदायत्त अमवत् । कीनाशं यमनुल्यमपि काष्टाङ्गार काष्टमिन्धनम् आशुशुक्षणिरिव भस्म- १५ सारकरिष्यामो वक्ष्याम' इति परस्परं वदाः कथयन्तो धैर्येण त्या धिकृतां तिरस्कृताम्, अहंकारण गवण हुंकृतामनादृताम्, भाग्येन देवेन भरिस्तो तर्जिताम्, प्रहर्षेण प्रमादेन धर्थिताम् अप्रगस्मिताम्, अपभागिर स्मितेन मन्दहास्यं न विस्मृतामुपेक्षिताम्, विवेकेन वञ्चितां प्रतारिता, स्त्रीजन्मनि जायाजनुषि सजुगुप्सा सणां, पुणेषु सुकृतेषु सापसापाममात्र सहिता, वेधसि ब्रह्मणि सकोर्धा सकोपाम, जीवितव्ये जीवन सलमा सग्रपा, पुत्रलाभे सन्त्रासां समयां, दर्शिता दुरवस्था दुर्दशा यया तां देवीं जगन्मातरं 'देवि ! २० एत्रमनेन प्रकारेण माभैषामयं मा कुरु । स मारो न मारितः किन्तु मारयितुं घातयितुम् भीष्टोऽभिप्रेत: अयं जीवकः केनाप्यविज्ञान विशिष्टेन सस्वेन भस्मदिष्टया मदाम्येन तत्क्षण एव तत्काल एव संरक्षितः संत्रातः कापि कुत्राप्यस्मदविज्ञासाय क्षितौ पृथिव्यां सुखेनास्ते विद्यते । तस्य जोवकस्य दर्शनं समवलोकनं हुई इस समस्त जगत्की माताने उस समय जिस प्रकार मेघोंकी पंक्ति गर्जना के साथ-साथ अमृत-जलको प्रकट करती है, उसी प्रकार विलापके साथ-साथ आपका वृत्तान्त भी जैसा २५ कुछ हुआ था जगत के कल्याणके लिए प्रकट किया था। इस तरह जिन्होंने आपका वृत्तान्त जान लिया था, जिनके मानन्दका कन्द-कन्दलित-अंकुरित हो रहा था, कुछ प्रारम्भ किया
और कुछ आ प्राप्त हुआ। अहो ! आज हम लोग धन्य हुए' इस प्रकार जो परस्पर एक-दूसरेका मुख देख रहे थे तथा पृथिवी हमारे आधीन हो गयी, काष्टांगार यम भी हो जाये तो भी हम लोग उसे काष्टको अग्नि के समान भस्म कर देगे, इस प्रकार जो परम्पर कह रहे थे ऐसे हम ३० लोगाने धैर्वसे धिकृत, अहंकारसे हुंकृत, भाग्यसे तिरस्कृत, प्रकृष्ट हर्षसे अपमानित, मुसकानसे मुलायो हुई, विवेकसे वंचित, स्वीपर्याय में ग्लानिसे सहित, पुण्यमें अपलापसे युक्त, विधातापर क्रोधसे सहित, जीवनमें लज्जासे युक्त, पुत्रके लाभमें भयसे युक्त, एवं अपनी दुर्दशाको दिखानेवाली उस जगन्मानाको हमलोगोंने आश्वासन दिया कि 'हे देवि ! इस तरह डरो मत । वह कुमार मारा नहीं गया है। मारे जाने के लिए इष्ट था किन्तु हम लोगोंके ३५ भाग्यसे किसी विशिष्ट पुरुषने उसकी उसी क्षण रक्षा कर लो। अब वह पृथिवीपर कहीं
१. म० 'कन्दलितानन्दकन्दाः' इत्यधिकः पाटो विद्यते । २ का बसि । बसि पाठान्तरमिति टि० ।
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गचिन्तामणिः
[२०८ जीवंधरस्यत्वं च द्रागेव द्रक्ष्यसि त्यक्ष्यसि च हृच्छल्यं यतो भोक्ष्यति भुवं पुत्रस्ते निजामित्रमपि हेलया हत्वा' इत्येवं चान्यथा च भृशमाश्वास्य तद्व्यथां कथमपि लघयन्तः पुनरल घुस्नेहमापृच्छय ततो गन्छतः सौरभेयीहरणच्छलेन निजश्रीपादच्छायां चितवन्तः' इति ।
5२०८. एवं व्याहरत्येव तस्मिन्विकस्वरमुखे पद्ममुखे, वीतमुखकान्तिविजयानन्दनोऽयं 'हन्त हन्त हतकस्यास्य जनम्य जननी किमिदानों यावज्जीवति । जीवतां जगति किं नाम न श्राव्यं श्रोतव्यम् ।' इति साकूतं सानुतापं सकौतुकं च वदन्कण्ठोक्तमातृदर्शनोत्कण्ठः कण्ठी
किशोर इव सत्वरमुत्तिष्ठन्महीपृष्ठादनुधावदवरजवयस्यै रमा सरभसम्पसृत्य संबन्धिगृहं कथंतस्यास्था श्रद्धा तया स्थिताः प्रयाता वयमपि च अद्यश्वः संनिकटकाल इत्यर्थः तमवश्यम् उपस्थास्यामहे
प्रास्यामः । देवि ! मानः । त्वं च त्वमपि द्वागव शोघ्रमेव द्रक्ष्यसि हरछल्यं मनःशल्यं त्यक्ष्यसि च यता १० यस्मात्कारणात, ते पुत्रो जीवको हल यानायासेन निजामिनमपि शत्रुमपि हत्या भुवं मोक्ष्यसि पालयिष्यसि
इत्येवं चास्यथा चेतस्था व भृशमत्यर्थम् आश्वास्य सान्त्वयित्वा तद्व्यथां तदीयपीडां कथमपि छधयन्तो लम्वी कुर्वन्तः पुनः अलघुः स्नेहो यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्त या आपृच्छय पृष्ट्वा ततस्तापसाश्रमाद् गच्छन्त; सौरभेयीनां गवां हरणच्छलेन हरणब्याजेन निजस्य भवतः श्रीपादयोः श्री वरणयोइछायां श्रितवन्तः प्राप्तवन्त इति ।
६२०८. एवमिति-विकस्वरं देदीप्यमानं मुखं यस्य तथाभूत तस्मिन् पद्ममुख तन्नामसुहृदि एवं ब्याहरत्येव कथयस्व चीता बिनष्टा मुखस्य वस्त्रस्य कान्तिदीप्तियस्य तथाभूतोऽयं विजयानन्दनी जीबंधो 'हन्त हन्त दुःखातिशयं द्विरुक्तिः, अस्य हतकस्याधमस्य जनस्य जननी माता किम् इदानीं यावत् अद्य पर्यन्तं जीवति ? जीवताममृतानां जनानां जगति किं नाम न श्राव्यं श्रोतुं योग्यं श्रोतव्यमाकणयितव्यम् ।' इनि साकृत साभिप्रायं सानुतापं सपश्चात्तापं सकौतुकं सकुतूहलं व वदन् कण्ठोमा ५५मुक्ता मातृदर्शनस्य जनन्यवलोकनस्योत्कण्ठा समुत्सुकता येन तथाभूतः कण्ठीरवकिशोर इव मृगेन्द्र माणवक इव सत्वरं शीघ्रं महोपृष्ठाद् भूतळात् उत्तिष्ठन् अवरजाश्च वयस्यास्यवरजवयस्या लघुसहोदरसहचरा अनुधावन्तः पश्चाद्वजन्ती येवरजवयस्यास्तैः अमा साधं सरभसं सवेगं संबन्धिगृह श्वसुरगृहम् उपसृत्य सुखसे विद्यमान है। उसी कुमार के दर्शनकी श्रद्धासे हम लोग भी चले हैं और आजकल में
अवश्य ही उसके पास उपस्थित हो जायेंगे । हे देवि ! तुम शीघ्र हो उन्हें देखोगी और २५ हृदयको शल्य छोड़ोगी क्योंकि तुम्हारा पुत्र अनायास ही अपने शत्रुको नष्ट कर पृथिवीका
पालन करेगा' इस प्रकार तथा अन्य प्रकारसे अत्यन्त आश्वासन देकर उसकी पीड़ाको हम लोगोंने किसी तरह शान्त किया और तदनन्तर बहुत भारी स्नेहसे पूछकर वहाँसे चलते हुए हम लोग गायोंके अपहरणके यहाने आत्मलक्ष्मीके चरणोंकी छायाको प्राप्त हुए हैंआपके समीप आये है।
६२०८. प्रफुल्ल मुखको धारण करनेवाला पद्मास्य इस प्रकार कह ही रहा था कि जीवन्धरकुमारके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी। ये खास चेष्टाओं, पश्चात्ताप और कौतुकके साथ कहने लगे कि 'हप-हर्ष, इस अधम नरकी माता क्या अबतक जीवित है ? संसारमें जीवित रहनेवाले प्राणियोंको क्या नहीं सुनने को प्राप्त होता है ?' उन्होंने अपने कण्ठसे
माताके दर्शनकी उत्कण्ठा प्रकट की और सिंहके बच्चे के समान शीघ्र ही पृथिवीतलसे उठ१५ कर पीछे-पीछे दौड़नेवाले छोटे भाई तथा मित्रोंके साथ सम्बन्धीके घर जाकर किसी तरह
१ क. 'कण्ठोक्त' पदं नास्ति ।
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- मातुर्वृत्तान्त:]
अष्टमी लम्भः चिद्गहीतश्त्रशुराद्यनुमतिरनु चरमुखविदिततदीजिगमिषायाः प्रागेव. जिगमिषुप्राणां प्रबलदावज्वलनज्वालालोढमरठेतरमाधवीलतातुलितां कनकमालाम् 'भोलुके', मैवं भेतव्यम् । वासु, सहस्त्र मासमात्रम् । मात्रीयव्यसनशमनकृते गमनमिदम् । अन्यथा कथं क्षणकालमपि स्वद्विकल: कलयामि गमयितुम् । गन्तु कामोऽहमपि कान्ते, त्वां मम स्वान्ते निधाय ननु गन्तास्मि । तस्मात्तव भीरके, विरहस्य कः प्रसङ्गः !' इति प्रसङ्गोचितामितप्रियसंभाषण- ५ पर्यायपोयूष वर्षेण प्रशमितनितान्तत वसंतापां तां संपाद्य पुन: संपदहमहाहपरिबर्हेण सार्धमधंपथाधिकपात्रेण दृढमित्रमहाराजेन सुमित्रादिना च दुःशकनिवारणतया सुदुःख मुज्झितः प्रसभं प्रधाव
प्रस रदग्निहोत्रधूम्रफलभारनम्रने कभूरुहं वासरावसानसंक्षिप्तनीवाराङ्गणनिषादिभृगगणनिर्वतितकथंचिन केनापि प्रकारेण गृहीता प्राप्ता श्वसुरादिभ्योऽनुमतिर्गमनानुमोदनं येन तथाभूतः, अनु वराणां रोपमा मुखात पिहिता निजामा नवशिजिया तद्गन्तुभिच्छा तस्याः प्रागेव पूर्वमेव जिगमिपुप्राणां १० गन्तुमुत्सुकासुम् प्रबलाभिः प्रकृष्टाभिविम्बल न ज्यालाभिर्वनानलाचिंमिलीदा व्याप्ता या जरठेतरा सुकुमारा माधवीलता तया तुलिता सदशी ताम् कनकमालो हदमित्रदुहितरम् 'भालुके ! हे भयशालिनि ! एवं मा भेतन्यं भयं नो कर्तव्यम् । वासु ! सुन्दरि ! मासमात्रं त्रिशदिवसमाग्रं सहस्व क्षमस्व । मातुरिदै मात्रीयं तरच तव्यसनं कष्टं तस्य शमनस्य निवारणस्य कृते गमनमिदम् । अन्यथा एतत्प्रयोजनामावे स्वया विकलस्त्वद्विकरस्त्वहितः क्षणकालमपि अल्वसम्मपि गमयितुं व्यत्ये तुं कथं कलयामि समर्थी भवामि । १५ कान्त ! हे वल्लभे ! गन्तुकामाऽपि गन्तुमना अप्यहं स्वां मम स्वस्य स्वान्ते चेतसि निधाय स्थापयित्वा ननु निश्चयेन गन्तास्मि गमिष्यामि । तस्मात् मोरुके ! हे भयवति ! तब भवत्या घिरहस्य विप्रयोगस्य कः प्रसङ्गोऽवसरः।' इतीत्थं प्रसङ्गोचितं प्रकरणाहम् अभिनं निःसीम यत् संभाषणं तदेव पर्यायो यस्य तथाभूत यत्पीयूषं सुधा तस्य वर्षेण वृष्टया प्रशमितो नितान्ततीव्र. प्रचुरतरः संतायो यस्यास्तथाभूतां तां कनकमाला संपाद्य कृत्वा पुनरनन्ताम् संपदहों वैमवानुरूपी यो महापरिवहीं महायोग्यसामग्रथा सार्धम् अर्धपथा- २० दप्यधिका यात्रा यस्य तेन दृढमित्रमहाराजेन कनकमालापिना सुमित्रादिना च सुमित्रा दिसहोदरंणापि व दुःशकं दुनिवार्य निवारणं यस्य तथाभूततया सुखदुःखत स्त्यक्तः प्रसभं हठात् प्रधावन् दण्डकारण्याश्रम इण्डकवनतापसाश्रमम् अधिवसन्ती तब कृत निवास मातरं सवित्रीम् अत्यादरं यथा स्यात्तथाभ्यस्य संमुखमागत्य प्रगनाम नमश्चकार । अथ दण्डकारण्याश्रमं विशेषयिसुमाह- प्रसरदिति-प्रसरता प्रसरणश्वसुर आदिको अनुमति प्राप्त की। सेवकों के मुख से जानी हुई अपने जानेकी इच्छाके पूर्व २५ हो जिसके प्राण निकल जाना चाहते थे और अत्यन्त तीत्र दावानलकी ज्वालाओंसे व्याप्त कोमल माधवीलताके तुल्य जिसकी दशा थी ऐसी कनकमालाको उन्होंने निम्न प्रकार सान्त्वना दी- 'हे कातरे ! इस तरह नहीं डरना चाहिए। हे सुन्दरि ! केवल एक माह तक विरह सहन करो। मानाका कष्ट झाान्त करने के लिए यह गमन है। अन्यथा तुम्हारे बिना क्या एक क्षण भी बिनाने के लिए मैं समर्थ हूँ! ह कान् ! यद्यपि मैं जाना चाहता हूँ तथापि ३० तुम्हें अपने हृदय में रखकर जाऊँगा इसलिए हे भीम ! विरहका अवसर ही क्या है ?' इस प्रकार अवसरके योग्य अपरिमित प्रियभापणरूपी अमृतकी वर्षासे कनकमालाका तीन सन्ताप शान्त कर वे वहाँसे चले | अपनी सम्पत्ति के अनुरूप बहुत भारी परिकर के साथ दृढ़मित्र महाराज तथा सुमित्र आदि साले उन्हें आधे मार्गसे भी अधिक दृर तक पहुँचानेके लिए आये। अन्तमें रोका जाना असम्भव होनेसे उन्होंने जीवन्धरस्वामीको बड़े दुःख से छोड़ा। ३५ उन सबसे छूटते ही वे बड़े वेगसे दौड़ते हुए, जहाँ फैलनेवाले हवनके धूमसे धूमिल फलों के ।
१. क. भीरके।
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गावचिन्तामणिः
[ २०९ जीवंधरस्य - रोमन्थमालवालाम्भःपानलम्पटविहगपेटकविश्वासविधानकृते सेकान्तविसृष्टवृक्षमूलमुनिकन्यकाविवृत कारुण्यं दण्इकारण्याश्रममधिवसन्तीम्, मुषितामिव मोहेन, क्रीतामिव शिम्ना, वशीकृतामिव शुचा दुःखैरिवोत्खाताम्, व्यसनैरिवास्वादिताम्, तारिवापीडिताम्, चिन्तयेवाचान्ताम', क्लेशरिवावेशिताम्, अभाग्यरिबासंवि भक्तां मातरमत्यादरमभ्येत्य प्रणनाम ।
२०९. सा च नन्दनमुखेन्दुसंदर्शनेन सलिलनिधिरिवोद्वेलसंभ्रमा, प्रौढप्रेमान्धतया प्राप्तयौवनमप्यौरसमवरजं च सुचिरं परिरभ्य तत्परिरम्भणपर्यायपरमभेषजप्रयोगतस्तज्जननसमयशीलेनाग्निहोयधूमन हव्यवाहबनधूमेन धूम्ना मलिना ये फलभाराः फससमूहास्तैनम्रा नकभूरुहा नैकवृक्षा यस्मिस्तम्, वारेति -वासरावसाने दिनान्ते संक्षिप्ताः समाहाता नीवारा धमधान्यविशेषा यस्मिस्तथा
भूतेऽङ्गणे चत्वरे निषादी समुपविष्टो यो मृगगण: कुरङ्गसमूहस्तेन नितिनी रचितो रोमन्यश्चर्यितचर्वणं १० यस्मिस्तम्, भालवालेति-भालवालानामावापानामम्भसो जलस्य पाने लम्पटाः संसका ये विहगाः
पक्षिणस्तेषां पेटकस्य समूहस्य विश्वासः प्रत्य यस्तस्य विधान कृते करमाय; सेकान्त इति--सेकान्ते सेचनावसाने विस्थानि त्यकानि वृक्षमूलानि तरुमूलानि याभिस्तथाभूताभिमुनिकन्यकाभिस्तापसबालिकाभिर्विवृत प्रकरितं कारुण्यं दयालुत्वं यस्मितम् । अथ मातुविशेषणान्याह --मोईन ममत्वभावेन मुषितामिव
चोरितामित्र, शिम्ना दौर्बलप्रेन क्रीतामिब गृहीता मित्र, शुचा शोकन वशीकृतामिय स्वनिम्नीकृतामिव, १५ दुःखैरुत्वातामिव समुत्पाटिनामिव, व्यसनैः कष्ट स्वादितामिव समनुभूतामिव, त पैः पश्चात्तापजनितौटण्यै
रापीडितानिव दु:खिताभित्र चिन्तयानुध्यानेनाचान्तामिव जिया लोढाभिव, क्लेशवरावेशितामिय युक्तामिद अभाग्यः संविभन्नामिव कृतविभागामिव ।
२०६. सा चेति-सा च जोबंधरजननी नन्दनस्य पुत्रस्य मुखमेवेन्दुश्चन्द्रस्तस्य नंदशनेन सलिल निधिरिव जलधिरिय उद्वेलः सीमातिशायी संभ्रमी यस्यास्थाभूता प्रौढप्रेम्णा गाढानुरागैणान्धा २० निमीलितनन्ना तया प्रापयौवनमपि हरूप्रतारुण्यमपि और सं पुत्रम् अवरजं नन्दादचं च सुचिरं सुदीर्घकालं भारसे अनेक वृक्ष नम्रीभूत थे, जहाँ सायंकालके समय इकट्ठी की हुई जंगली धान्योंसे युक्त
आँगनों में बैठे हुए मृगगण गेंथा रहे थे और जहाँ क्यारियोंका पानी पीने के लिए लम्पट पक्षीसमूहको विश्वास दिलाने के लिए सींचने के तत्काल बाद वृक्षोंका मूल छोड़ देनेवाली
मुनिकन्याओंके द्वारा करुण भाव प्रकट हो रहा था ऐसे दण्डक वनमें निवास करनेवाली २५ माताके सम्मुख बहुत भारो आदरके साथ पहुँचे। उनकी वह माता ऐसा जान पड़ती थी
मानो मोहसे लुटी हुई हो, दुर्बलतासे मानो खरीदी गयी हो, झोकके द्वारा मानो वश को गयी हो, दुःखोंके द्वारा मानो उखाड़ी गयी हो, व्यसनोंसे मानो आस्वादित हो, सन्तापसे मानो पीड़ित हो, चिन्तासे मानो आचान्त हो-चाँटी गयी हो, क्लंशोसे मानो युक्त हो और
अभाग्यसे मानो परिपूर्ण हो । सामने जाकर उन्होंने उस माताको बड़े आदरसे प्रणाम किया। ३. ६२२६. पुत्रका मुखचन्द्र देखने से समुद्र के समान जिसका हर्ष वेलाको पार कर गया
था ऐसी माताने गाढ़प्रेमसे अन्धी होनेके कारण तरुण होनेपर भी पुत्रका तथा उसके छोटे भाई नन्दायका चिरकाल तक आलिंगन किया और उनके आलिंगनरूपी औषधि के प्रयोगसे १.२० चिन्तयेवाकान्ताम् । २. म० अभाग्यरिया संविभक्ताम् । O सेकान्ते मुनिकन्याभिस्तत्क्षणोज्झितवृक्षकम् । । विश्वासाय विहङ्गानामालवालाम्बुपापिनाम् ॥५१॥ आतपात्ययसंक्षिप्तनीवाराम निषादिभिः । मूगर्वतितरोमन्थमुटजाङ्गनभूमिगु ॥५२॥ रघुवंश, सर्ग १
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मातुसान्तः ] अष्टमो लम्मः
३.1 त्यागेन तदभियर्धनसौख्यवियोगेन तदीयहृदयरहितनिर्हेतुकदरहसितामेडितानन्दकरपांसुक्रोडानवलोकनेन च मठमतिमात्रं पुत्रशोकहृच्छल्यं साकल्येन मुमोच । तदनु च निजसुतनिर्विशेषप्रतिपत्तिमदित्तमित्रः पुत्राभ्यां च केसरिणीव किशोरकैः परीता सा निषद्य सपरितोषममूनिरीक्ष्य 'अङ्ग
श्राः, चिरकाशितयुष्मदर्शनाखापल मदुलालतहृदयवृत्तिः पचेलिमसुकृतबलेन हेलया मे निष्पना । अपि नामै जोवत्यामेव मयि निष्प्रत्यूहूं निध्यद्येत निज राज्यप्रदेशवार्तयापि कदा- ५ चिकत्सिवः। स खलु महोत्साहेन महापुण्येन महापरिकरेण च साध्यः कथं देशेन कोशेन मौलेन पृष्ठवलेन च वा विधुरैर्युमामिः सुकर: स्यात् । अस्ति चेत्सुकृतमस्तु कदाचिदियममित्र. यावन परिरभ्य समालिष्ठाय तयोः परिरम्भणं समालिङ्गनमेव पर्यायो यस्य तथाभूतं यत परमभेषजभुत्कृष्टौषधं तस्य प्रयोगतः धनान तज्जननस मयत्यागेन पुत्रोत्पत्तिकाल एव त्यागन तदभिवधनस्य पुत्रपरिपालनस्य अस्सीयं तस्य वियोगेन विरहण, हृदयरहितं मनोव्यापाररहितं निहतुकं निष्कारणं च यदरहसितं मन्दहसितं १० तस्यानेडिनं पुनरुनीभावः, तरच आनन्दकरपांसुक्रीडा च हपविधायिधूलिकेलिश्शेत्यनयोर्द्वन्द्वः तदीये तत्संबन्धिन्यौ ये हृदयरहितनिहेतुकदरहसिताम्रडिवानन्दकरपासुकीडे तयोरन बलोकनेनादर्शनेन च रूई समुत्पन्नमतिमात्रं प्रभूतं पुत्रशोक एव हृच्छल्यं सुतविरहजन्यशोकमनःसल्यं साकल्येन सम्पूर्णभावन मुमोच तत्याज । तदनु चेति-पदनु च तदनन्तरं च निजसुतनिर्विशेषता स्वसूनुमदशी या प्रतिपतिरादरमावेनाङ्गीकरणं तया मुदितानि प्रपन्नानि यानि मित्रागि सखा यस्तैः पुत्राभ्यां च जीवंधरनन्दाढवाभ्यां च । परीता परिवृता सा विजया किशोरकै स्त्रमाणवकैः परीला केसरिणीय सिंहोब निषद्य समुपविश्य सपरितोष ससंतोषम् अमून सर्वान निरीक्ष्य दृष्ट्वा 'अङ्गः पुत्राः !' अये त्रासाः ! पचेलिम पक्तुं योग्य यस्सुकृतं पुण्यं तस्य बलेन में मम चिरकाशित चिरामिलपितं यद् युष्मदर्शनं युष्मदवलोकनं तेन यत्सुरवं शर्म तस्पोपलग्भेन माल्या दुर्ललिता गर्न विशिष्टा चासौ हृदयवृत्तिश्च मनोवृत्तिश्च हेलयानायामेन निष्पना पूर्णा । अपि नामति. संभावनायाम्, एवम नेन प्रकारेण मथि बृद्धायां जीवन्त्यामंव निष्प्रत्यूह निविमं यथा स्यात्तथा कदाचिज्जा- २० तुचित् निजराज्ये स्वराज्ये प्रवेशस्य वार्ता समाचारस्तयापि कर्णात्सवः अषणालादो निप्पधेत सम्पन्नो भवेत् । खलु निश्रयेन स स्वराज्यप्रवेशवार्मोत्सवी महाश्चासावुत्साहश्च महोत्साहस्तेनातिदाक्ष्येण महच्च तत्पुण्यं चेति महापुण्यं प्रबल सुकृतं तेन, महांश्चासौ परिकरश्चेति महाररिकरस्तेन महतोद्यमेन च साध्यः करणीयः देशेन जनपदेन कोशेन निधिना, मोलेनामास्यादिमूलवर्गण, पृष्ठवलेन च महायकसैन्येन च वा त्रिधुरै रहितैयुम्माभिः कथं केन प्रकारेण भुकरः सुखेन कर्तुमर्हः स्यात् । अस्ति चेत् विद्यते यदि सुकृतं । उस पुत्र शोकरूपी बहुत भारी हृदयको शल्यको सम्पूर्ण रूपसे छोड़ दिया जो कि उसके जन्मके समय ही त्याग देनेसे, उसके लालन-पालन सम्बन्धी सुख के वियोगसे और उसके हृदयरहित अकारण बार-बार खिलखिलाना तथा आनन्द उत्पन्न करनेवाली धूलि क्रीड़ाके न देखनेसे उत्पन्न हुई थी। तदनन्तर अपने पुत्रके समान सत्कार से प्रसन्न मित्रों और दोनों पुत्रोंसे घिरी माता बच्चोंसे घिरी सिंहिनीके समान सन्तोषसहित बैठी और उन सबकी ओर देखकर बोली 30 कि 'हे पुत्रो ! मेरे हृदयकी वृत्ति आज परिपाकमें आये हुए पुण्यके बलसे अनायास ही चिरकालसे अभिलषित तुम सबके दर्शनजन्य सुखकी प्राप्ति होनेसे अस्तव्यस्त हो रही है अर्थात मेरे हृदयमें तुम सबको देखने की जो इच्छा चिरकालसे विद्यमान थी वह आज उदयागत पुण्यके प्रभावसे अनायास ही पूर्ण हो गयी है। क्या इसी तरह मेरे जीवित रहते हुए कभी निर्विन्नापसे अपने राज्य प्रवेशके समाचारसे भी कानोंको हर्प उत्पन्न होगा ? अथवा वह हर्ष 37 महान् उत्साह, महान पुण्य और महान साधन सामग्रीसे साध्य है अतः देश, खजाना, मन्त्री आदि मूल वर्ग और पीछे रहनेवाली सेनासे रहित तुम लोगोंको सुलभ कैसे हो सकता है ?
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गद्यचिन्तामणिः
{ २०९ जीवंधरस्यनिबर्हणपुरःसरा पित्र्यपदावाप्तिः । तावदरातिप्रतारणप्रसजदात्मापाय: सदाप्युपायप्रष्ठोद्यतैर्युमाभिः परिहियताम् । परिपन्थि जनगृह्याः खलु निगृहयाः पुरंधय. पुमांसश्च । केचिदशने शयने पाने वसने च व्यसनकर गरं मिश्रयित्वा व्यापादयितुं यतेरन्' इत्येवमादरं व्याजहार । एवं निजविजयशसि विजयावचः श्रुत्वा विजयासूनुः ‘अम्ब, नार्थेऽस्मिन्नत्यर्थं व्यसनमनुभूयताम् । भूयां५ सस्तव पुत्राः प्रत्येकमप्यमी प्रभवन्ति हत्वा राजनमरि स्वराज्यमन्य राज्यं च स्वसाकर्तुम् । अतः कर्तव्यमत: .परं त्वया निराकुलमवस्थानम् । कृतं निराकृतानामस्माकं कृते भुक्तपूर्वया दुर्वहव्यथया' इत्येवं सगर्व सानुतापं च प्रत्युदीयं विचार्य च रहा स्वकार्यनिर्वहणप्रकारमबरजपामुखप्रमुखपरिकरेण समं मातरं मातुलस्य सम्राजः समनि प्रहित्य प्रसभं स्वयमपि राजपुरी प्रतस्थे ।
१० पुण्यं, तर्हि कदाचित् इयम् अमित्रमय शत्रोर्निवहणं निराकरणं पुरस्सरं यस्यास्तथाभूता पित्र्यपदावाप्तिः
पिसृस्थानावाप्तिः अस्तु भवतु । ताअदिति-तावत् पियपदावाप्तिपर्यन्तम् सदापि शश्वदपि उपायप्रष्टोद्यतैः श्रेष्टोपायतत्परैः युष्माभिः अरातिप्रतारणेन शत्रुबचनया प्रसजन् प्रपनमानो य आत्मापायः स्वविनाशः परिहियताम् दूरीक्रियताम् । खलु निश्च प्रेन परिपन्थिजनस्य शत्रसमूहस्य गृह्या आधीनाः पुरन्ध्रयः स्त्रियः
पुमांसश्च पुरुषाश्च निगृह्मा निगृहीतुं योग्या दण्ड्याः सन्तीति शेषः। 'केचित केऽपि जना भशने भोजने १५ शयने स्वापे पाने धयने, वसने च वस्त्रे च व्यसनका कष्टकर गरं विप्र मिश्रयिस्वा मेलयिस्त्रा व्यापादयितुं
मारयितुं यतेरन् यत्सं कर्तुमुद्यता भवेयुः' इत्येवमेवादृशम् अत्यादरं समुस्कटसन्मानसहितं यया स्यात्तथा व्याजहार जगाद । एदमिति-एवमनेन प्रकारेण निजविजयं शंति सूचयतीत्येवंशीलं विजयावचो मातृवचनं श्रुत्या विजयासूनुजीवंधरः 'अम्ब ! हे मातः ! अस्मिन्नर्थे विषपेऽत्यर्थमधिकं व्यसनं दुःखं
नानुभूयतां त्वयेति शेषः । तव भवत्या भूयांसो बहवः पुन्नाः सन्ति, अमो प्रत्येक राजवं नृ हन्तारम् अरिं २० काष्टाङ्गार हत्या स्वराज्यं काष्टकारेणात्मसास्कृतं निजराज्यम् अन्यराज्यं च स्वसारकतुं स्वाधीनं कतुं प्रभवन्ति
समर्थाः सन्ति । अतोऽस्मान कारणात् त्वयातः परमने निराकुलं व्यग्रतारहितम्, अवस्थानं कर्तव्यं विधेयम् । निराकृताना तिरस्कृतानाम् अस्माकं कृते पूर्व भुक्तेसि भुक्तपूर्वा तया दुर्वहव्यधया प्रभूतदुःखेन कृतं व्यर्थम्' इत्येवं सग साभिमानं सानुतापं सदुःखं च प्रत्युदीर्य कथयित्वा रह एकान्ते अवरजपनमुखप्रमुखपरिकरण
नन्दाझ्यपद्मास्य प्रभृतिसहचरनिकरण समं साधं स्वकार्यस्य काष्ठाङ्गारविधातनस्य निर्वहणप्रकारं निष्पत्युपायं २५ यदि पुण्य होगा तो कभी शत्रुके निराकरणके साथ-साथ पिताके पदको भी प्राप्ति होगी। जब
तक पिताके पदकी प्राप्ति नहीं हुई है तबतक श्रेष्ठ उपायोंके करने में उद्यत तुम सबको शत्रु को कपदवृत्तिसे प्राप्त होनेवाले अपने विनाशके उपायका सदा निराकरण करते रहना चाहिए । शत्रुजनके वशमें पड़ी स्त्रियाँ और पुरुष वास्तव में निगृह्य होते हैं-तिरस्कार के पात्र होते हैं। कितने ही लोग खाना, सोना, पीना और वस्त्र धारण करते समय कष्ट उत्पन्न करनेवाला विए ३० मिलाकर मारनेका यत्न कर सकते हैं'-इस प्रकार उसने बहुत भारी आदरके साथ कहा।
इस प्रकार अपनी विजयको सूचित करनेवाले माता विजयाके वचन सुन जीवन्धरकुमारने कहा कि हे माना! इस विषय में अत्यन्त ऋष्टका अनुभव न किया जाये। आपके बहुत-से पुत्र हैं । ये एक-एक भी राजाको मारने वाले शत्रुको मारकर अपना राज्य तथा अन्य राजाओंके
राज्यको अपने आधीन करने के लिए समर्थ हैं। राज्यसे निकाले हुए हम लोगों के लिए जो ३५ आपने पहले दुर्वभारी दुःख भोगा है वह व्यर्थ है ---इस प्रकार गर्व और पश्चात्तापके
१. क.० ग० मित्रीयपदावाप्तिः ।
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अष्टमी लग्भः
-मातुर्हृत्तान्तः ]
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*$ २१०. अथ मातृविलोकनस्फुरदुल्लोकहर्षः सन्सात्यंधरिः सरभसमपरी पितरौ दिदृक्षुरुपसृत्य राजपुरी पुरोपकण्ठभाजि क्वचिदुद्गमोत्कण्ठमानकलकण्ठीपादप्रहारकुसुमितस्त्रीप्रियपादपाभिरामे हत्यारामे परिकरमवस्थाप्य दिनप्रतिकूलतया कुलसदनमनुच्चलन्नुच्चलदुच्चैः — पीरकलकलरवमांसलमहोत्सव वाद्यशब्दापदेशेन जननिवेशेन चिरविरहविजृम्भितदर्शन को नुकादाहूयमान इवानभितः पुरं विचचार ।
$ २११. ततश्च तत्रत्यानत्यन्तस्फुरदत्याहितः समाहितचित्तवृत्तिविलोचनविलोभनीयान्त्रिलोकमानः क्वचिदपरम्यहम्यग्रे सविभ्रमभ्रमण क्वणन्मणिभूषणरवविश्रणितल्याविसंविचार्य च मातरं विजयां मातुलस्य मातृबन्धोः सम्राजो गोविन्दमहाराजस्य सद्मनि मत्रने प्रसात् प्रहित्य स्वयमपि राज पुरीं प्रतस्थे ।
२१०. अथेति – अथानन्तरं मातृविलोकनेन जननीदर्शनेन स्फुरम्प्रकटीभवन् जल्लोकहर्षः १० भूता यस्य तथाभूतः सन् सात्यंधरिर्जीवकः सरमयं सवेगम् अपरावन्यौ पितरौ मातरपितरौ सुनन्दागन्धोत्कटाविति यावत् दिक्षुद्रष्टुमिच्छुः राजपुरीं तन्नामनगरीम् उपसृत्य समुपगम्य पुरोपकण्ठभाजि नगरनिकस्थते क्वचित् क्वापि उद्गवेभ्यः पुष्पेभ्य उत्कण्ठमानाः प्राप्तुमुर सुका याः कलकण्ठ्यो नार्यस्तासां पादप्रहारेण चरणप्रहारेण कुसुमिताः पुष्पिता ये स्त्रीप्रियवादपा अशोकानोकहास्तैरभिरामे मनोहरे महति विशाले आराम उद्याने परिकरं मित्रादिसमूहम् अवस्थाप्य स्थापयित्वा दिनप्रतिकूलतया ज्योतिषशास्त्रदृष्टया १५ दिनमान्न गच्छन्, उच्चलन् उत्पद्यमान उत्कटो यः पौराणी नागरिकायां कल कलरचः कलकलध्वनिस्तेन मांसलाः परिपुष्टा ये महोत्सववाद्यानां महोत्सववादित्राणां शब्दास्तेनामपदेशेन याजेन जननिवेतेन लोकसमूहेन चिरविरहेण दीर्घकाळ वियोगेन विजृम्भितं वर्धित यद् (दर्शन कौतुकं दर्शनकुतूहलं तस्मात् आहूयमान इवाकार्यमाण इव ईयिवान् समागतः पुरमभित: नगरीं परितो विवचार बनाम । $ २११. ततश्चेति[-- ततश्च तदनन्तरं च अस्यन्तं नितान्तं स्फुरत् प्रकटीभवद् अत्याहितमत्याश्वयं यस्य तथाभूतः समाहिता साबधाना चित्तवृतिर्मनोवृत्तिर्यस्य तथाभूतो जीवंधरः तत्रत्यान्तत्रभवान् - विलोचनानि विलोभयितुम इति त्रिलोचनविलोभनीयास्तान् त्रिलोकमानः पश्यन् क्वचित्कुत्रापि rain गगनस्पतिम्यं मनोहरं च यदु ह भवनं तस्याग्र उपरितनभागे सविभ्रमेति सविभ्रमं सविलासं
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साथ कहकर तथा एकान्त में अपने कार्यके निर्वाहका विचार कर उन्होंने माताको पद्मास्य २५ आदि परिजन के साथ सम्राट् पढ़के धारक मामाके घर भेज दिया और स्वयं भी हठपूर्वक राजपुरीकी और चल पड़े ।
२१०. अथानन्तर माताके देखनेसे जिनका लोकोत्तर हर्ष प्रकट हो रहा था ऐसे जीवन्धरकुमार वेगसे दूसरे माता-पिता-सुनन्दा और गन्धोत्कटको रेलकी इच्छासे राजपुरी नगरीके समीप पहुँचे। वहाँ नगरीके समीप में स्थित तथा फूलोंके लिए उत्कण्ठित ३० होनेवाली स्त्रियों के पादप्रहारसे विकसित अशोकवृक्षसे सुन्दर किसी बड़े भारी बाग में साथके सब लोगोंको ठहराकर वे दिनके अनुकूल न होनेसे कुलभवन तो नहीं गये मात्र नगर के समीप पहुँचकर चारों ओर भ्रमण करने लगे। उस समय चलनेवाले नागरिक जनों के जोरदार कलकल शब्द से परिपुष्ट महोत्सव के बाजोंके शब्द के बहाने ऐसा जान पड़ता था मानो वह नगर चिरकाल के विरह से बढ़े हुए देखनेके कौतुकसे उन्हें बुला हो रहा हो ।
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२११. तदनन्तर जिन्हें अत्यन्त आचर्य हो रहा था और जिनको चित्तवृत्ति अच्छी तरह लग रही थी ऐसे जीवन्धर स्वामीने नेत्रोंको लुभानेवाले वहाँ के पदार्थोंको देखते-देखते
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गद्यचिन्तामणिः
[ २११ बिमलायाः -
वादिपदप्रचारम्, मुहःसू सिषिकुरभारव्यापारितकरम् अवसूस्त प्रतिसमाहितकर्णपूरीकृत कर्णपुरपल्लवानिलशोषित कपोलपत्रभङ्गदूषिधर्मसलिलाङ्कुरम्, दरगलितकुचतटांशुकनियमनप्रवणैकपाणिपल्लवम्, उल्लसदपदेशस्मित चन्द्रिकाभिषिक्तबिम्बाधरम् पृथुनितम्बबिम्बोत्पतद व पतदतिवलक्षक्षीमोज्ज्वलम्, सलीलकर व्यापारशैघ्रधानतिक्रमितप्रकृत के लोधवलदन्तपत्रप्रतिभासमाधानम्, * प्रतिसमयसुलभोत्यानावस्था ननिर्व्यवस्थमुक्ताहारमनोहरः स्थलम्, प्रसृता कुञ्चितवेल्लित बाहु
यत्र भ्रमणं संचरणं तेन कणन्ति शब्दायमानानि यानि मणिभूषणानि रत्नालंकरणानि तेषां रवेण शब्देन विश्राणितो पत्तो यो उसका उत्पत्रिसंवादी विरोधहीनः पत्रप्रचारश्चरणनिक्षेपो यस्मिन् कर्मणि तथा स्यात्तथा, मुहुरिति — मुहुर्भूयोभूयः संसिनो नीचैर्लस्थमाना ये चिकुरमाराः केशसमूहास्तेषु व्यापारितो करौ यरिमन् कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा अवस्रस्वेति — आदाववस्त्रानि नलम्बितानि पश्चात् प्रतिसमा १० हितानि सुस्थिरीकृतानि यानि कर्णपूराणि कर्णालंकरणानि तरकृता ये कर्णपूरपल्लवाः कर्णाभरणत्वेन कर्णेषु स्थापिताः किसलयास्तेषामनिलेन वायुना शोषिता नाहींकृता ये कपोलपत्रमा गण्डस्थलपत्र रचनाप्रकाशस्तेषां दूषिणो धर्मसकलाङ्कुराः स्वेदकणा यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा, दरेति-दुरमीषद् गलितमध:पतितं यत्कुचतांशुकं स्तनतटवस्त्रं तस्य नियमने स्थिरीकरणे प्रवणः संलग्न एकपाणिपल्लव एककर किसलयो यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्वारुथा, उल्लसदिति----उ --- उल्लसत् प्रकटीभवत् यदुपदेशस्मितं व्याजहसितं तदेव १५ चन्द्रिका ज्योत्स्ना तयाभिषिको बिम्बाधरो दशनच्छदो यस्मिन्कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा पृथ्विति - पृथु नितम्यविम्यात् स्थूलनितम्बमण्डलाद् उत्पतत् ऊर्ध्वं गच्छत् भवपतद् अधोगच्छच्च यद्वलक्षौमं शुक्लदुकूलं नोज्ज्वलं यथा स्यात्तथा, सलीलेति - सलीलः सविभ्रमो यः करव्यापार: पाणिचेष्टितं तस्य शैयण क्षिप्रकारिखेनानतिक्रमितानि नातिशिथिकानि प्रकृतकेलीधवलानि प्रस्तुतक्क्रीडासितानि यानि दन्तपत्राणि कर्णोपरितन प्रदेशाभरणानि तेषां प्रतिमासमाधानं सुस्थिरीकरणं यस्मिंस्तद्यथा स्यात्तथा प्रतिसमयेति२० प्रतिसमयं क्षणं क्षणं सुरुमाभ्यामुत्थानात्रस्थानाभ्यामुत्पतनाच पतनाभ्यां निर्व्यवस्थञ्चको यो मुक्ताहारस्तेन मनोहरं रमणीयमुरःस्थलं वक्षःस्थलं यस्मिन्कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा प्रसृतंति - प्रसृता वितता आकुञ्चिता कहीं गगनचुम्बी सुन्दर महलके अग्र भागपर गेंद खेलनेवाली किसी कन्याके हस्ततलसे छूटकर सामने गिरती हुई कोई गेंद देखी। गेंद खेलते समय विभ्रमपूर्वक घुमानेसे शब्दायमान मणिमय आभूषणों के शब्द से दी हुई लयके अनुरूप ही उस कन्या के पैरोंका संचार हो रहा २५ था। बारम्बार नीचे की ओर लटकते हुए केशोंके समूहको ठीक करने के लिए उसका हाथ चलता रहता था। नीचे की ओर लटकने के बाद पुनः ठोककर कानों में पहने हुए कर्णपूरके पल्लवोंकी वायुसे सुखाये गये कपोलोंको पत्ररचनाको दूषित करनेवाला पसीना उठ रहा था । कुछ-कुछ नीचे की ओर गिरे हुए स्तनतटके वस्त्रको ठीक करनेमें उसका एक हस्तरूपी पल्लव सदा संलग्न रहा करता था। किसी छलसे प्रकट होनेवाली मन्द मुसकानरूपी चाँदनीसे ३० उसका बिम्बोष्ठ अभिषिक्त हो रहा था । स्थूल नितम्ब वित्रसे फूलकर ऊपर की ओर उठने और तदनन्तर नीचे की ओर गिरते हुए सफेद रेशमी वस्त्रसे उज्ज्वलता प्रकट हो रही थी । लीलापूर्वक हाथ चलानेको शीघ्रता से अनतिक्रमित प्रकृत क्रीडा में जो कानका पत्ता ढीला हो रहा था उसे ठीक किया जा रहा था । प्रत्येक समय सुलभ ऊपर उठने और नीचे गिरनेकी
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.३१५
- वृत्तान्तः]
अष्टमी कम्मः लताभिहतिवशबाह्याभ्यन्तरभ्रान्तकन्दुकनिरन्तरोत्पतननिपतनदृष्टनष्टमध्ययष्टिक च, कदाचिद्गीत'मार्गानुधावदुम्नमनावनमनप्रकारेण कदाचिन्मण्डलभ्रमणेन कदाचिद्गोमूत्रिकाक्रमेण च निषपणोत्थिताया निमीलितोन्मोलितायाः स्थितप्रस्थितायाः कस्याश्चिदारब्धकन्दुकक्रीडायाः कन्यकायाः पाणितलतः परिभ्रश्य पुरः पतन्तं कमपि कन्दुकमैक्षिष्ट ।
२१२. पुनः किमिदमिति कौतुकाविष्टस्तत्क्षण एवोद्ग्रोवः स व्यग्नं तद्गृहस्योपरितल- ५ मुत्पश्यन्न पश्यदात्मावलोकनावतीर्णतत्प्रथम मदनवितोर्णविकारच्यापारितनयनेन्दोवररश्मिविसरव्याप्तराजमार्गा स्वौकसामपि दुरुपलम्भां तो कन्दुकस्वामिनी कन्यकाम् । आसोच्वायमप्यनन्य
संकोचिता वेल्लिता वेष्टनोग्रता या बाहुलता भुजबल्ली तथा याभिहतिस्ताडनं तस्या वर्शन बाह्याभ्यन्तरं भ्रान्तं यत्कन्दुक गेन्दुकं तस्य निरन्तरं सततम् उत्पतननिपतनाभ्याम्--उत्थानावस्थानाभ्यां दृष्टनष्टा-- मध्ययष्टिरवलग्नयष्टियस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा, कदाचित् जातुचिद् गीतमार्ग सङ्गीतपथम् अनुधाचन् १० अनुसरन् य उनमनावनमनप्रकार उत्सतनावपतनविधिस्तेन, कदाचित् मण्डल भ्रमणेन वर्तुलाकारभ्रमणेन, कदाचित् गोमूत्रिकाक्रमण चक्रपद्धत्या च भादी निषषणा पश्चादुत्थिता सस्या उपविष्टोस्थितायाः, भादौ निमीलिता पश्चादुन्मीलिता तस्याः प्रकाशाप्रकटितायाः, आदी स्थिता पश्चात प्रस्थिति स्थितप्रस्थिता तस्याः स्थितप्रयातायाः आरब्धकन्दुकक्रीडायाः प्रारखगेन्दुककेल्याः कस्याश्चित् कन्य कायाः पतिवरायाः पाणितलतः करतकात् परिभ्रश्यावमुच्य पुरोऽग्रे पतन्तं कमपि कन्दुकं गेन्दुकम् एशिष्ट विलोकयामास । १५
१२, पुनरिति-पुनरनन्तरं किमिदम् । इति कौतुकेन कुतूह लेनाविष्टः समाकान्तः तरक्षण एवं तत्काल एव ऊध्र्व ग्रोवा यस्य तथाभूत उन्नमिसकन्धरः स जीवको व्यग्रं साकुलवं यथा स्यात्तथा तद्गृहस्थोपरितलं तद्वचनस्योपरितनमागम् उत्पश्यन् उदवलोकयन् , आत्मनः स्वस्पावलोकनेन दर्शनेनावतीः प्रकटितो यो मइनो मारस्तेन वितीर्णः प्रदत्तो यो विकारस्तेन व्यापारिते सञ्चालिते ये नयनेन्दीवरे नेत्रनीलकमले तेषां रश्मीनां मयूलानां विसरेण समूहेन व्याप्तो राजमार्गो यया ताम्, स्वर्ग भोको येषां २० तेषामपि देवानामपि दुरुपलम्भा दुःखेन प्राप्याम् ai पूर्वोक्ता कन्दुकस्वामिनी गेन्दुकस्वामिनी कन्यकाम् अपश्यत् । भासीच्चेति-अयमपि च जीबंधरोऽपि अनन्यजेन कामनाकान्त इत्यनन्यजाक्रान्तः सकाम
क्रियासे अस्त-व्यस्त मोतियों के हारसे उसका वक्षःस्थल मनोहर जान पड़ता था। कभी फैलायो हुई, कभी टेढ़ी की हुई और घुमायो बाहुलताके प्रहारके वश बाहर और भीतर घुमाती हुई गेंद के निरन्तर उठने और गिरने के समय उसकी कमर दिखती तथा छिपती रहती थी। २५ गेंदकी गति के अनुसार पीछा करते समय वह कभी ऊपर उठती थी तो कभी नीचेकी ओर आती थी। वह कन्या कभी गोलाकार भ्रमणसे और कभी गोमूत्रिकाके क्रमसे बैठ जाती थी, कभी खड़ी हो जाती थी, कभी नीचेकी ओर दुधक जाती थी, कभी पुनः तनकर खड़ी हो जाती थी, कभी चलते-चलते रुक जाती थी और कभी पुनः चलने लगती थी।
२१२. तदनन्तर यह क्या है ? इस कौतुकसे आविष्ट हो जीवन्धरकुमारने ज्यों ही ३० ग्रीवाको ऊपर उठा व्यग्रतापूर्वक उस घरके उपरिम तलको देखा त्यों हो उन्होंने गेंदकी स्वामिनी स्वरूप उस कन्याको देखा जिसने कि अपने देखने से प्रकट हुए सर्वप्रथम कामके द्वारा प्रदत्त विकारसे चलते हुए नेत्ररूपी नील कमलोंकी किरणों के समूहसे राजपथको व्याप्त कर रखा था और जो देवोंके लिए भी दुर्लभ थी। कुमार भी कामसे आक्रान्त हो उसके
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१ क. ग. कदाचिदुद्गोतमार्गा।
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गद्यचिन्तामणिः
[२१२ विमलाया:
जाक्रान्तस्ततस्तदीयनयनवागुरान्तर्गत इव पदमपि गन्तुमप्रगल्भः स्वल्पेतररागानिस्तद्गृहवितदिकामध्यास्य 'का स्यादियं कुमारी । कानि वा स्युरदसीयान्यमतक्षारोणि नामाक्षराणि । कतमः स्यादस्याः पिता । कथमेनां करेण स्पृशन्कमलयोनिः कामुको नासीत् । अपि नामेयमस्माभिः कदाचि ल्लभ्येत । इत्येवमितरथा च विरच्यमान विचार: कुमार: कुद्मलितकुबेरैश्वर्येण 'तद्गृहवैश्यवरेण 'कुमार, अहमस्मि सागरदत्तो नाम । मम सागारधर्मपत्नी कमला। विमलेति विश्रुता तत्पुत्री। जातमात्रायां तस्यां संगिरते स्म गणितज्ञगणः 'यस्मिन्महात्मनि निजसद्म समीयुषि क्षणादक्रयसंचितमणिविक्रयः स्यात्तस्येयं गृहिणो' इति । गृहागते भवति विक्रोतश्च वीतऋतृकतया पुरा पुञ्जितो मम रत्नराशिः । ततः सर्वथा योग्यां मम सुतां भाग्याधिक, भवान्परिणयतु परिणामा
भासीत् बभूव च । ततस्तस्मात्कारणात् तदीयनयन एवं वागुरे बन्धने तयोरन्तर्गतो मध्यपतित इव पदमपि १० एकमपि पदं गन्तुं प्रपातुम् अप्राल्मोऽसमर्थः स्वल्पेतरा प्रभूता रागाी रागपीडा यस्य तथाभूतः सन् तस्याः
कन्याया गृहस्य भवनस्य वितदिका ताम् अध्यास्य तन्त्र स्थितो भूत्वा 'इयमेषा कुमारी का स्याद् भवेत् । कानि वा अदसीयानि एतत्संबन्धीनि अमृतक्षारीणि पीयूषप्रवाहीणि नामाक्षराणि नामधेयवर्णाः । अस्याः पिता जनक कतमः कः स्यात् । एनां कन्यां करेण पाणिना स्पृशन् कमलयानिशा कामुकः
स्मरात्रिष्टो नासीद् न बभूव । अपि नाम कदाचित् जातुचिद् इयम् अस्माभिः लभ्येत प्राप्येत । इत्येवं १५ पूर्वोकप्रकारम् अन्यथा चान्यमकारेण च विरच्यमानो विचारो दिमों येन तथाभूतः कुमारो जीवकः
कुद्रमलितं निमीलितं कुखेरेश्वयं धनपतिवैभवं येन तथाभूतेन तस्य गृहस्य वैश्यवरो रनिग्वरस्तेन 'कुमार ! अहम् सागरदत्तो नामास्मि । मम सागारधर्मपत्नी गृहस्थधर्मपत्नी कमला कमलानामवती । 'विमला' इति विश्रुता प्रसिद्धा तत्पुत्री। तस्यां पुध्यां जातायामवेति जातमात्रायां गणितज्ञगगो ज्योतिविस्समूहः
संगिरते स्म प्रकटयति स्म 'यस्मिन् महात्मनि महानुभावे निजलाम स्वसदनं समीयुषि सति समागतवति २० सति क्षणादस्पदैव कालेन अक्रयसंचिताश्च ते मणयश्चेत्यक्रियसंचितमणोऽक्रीतोपषितरत्नानि तेषां विक्रयः
स्यात् तस्य महात्मन इयं गृहिणी जाया स्यात्' इति । गृहागते भवति त्वयि वीता विगताः क्रतारो यस्य तस्य भावस्तया पुरा पूर्व पुजितो राशीभूतो मम रत्नराशिमणिराशिविक्रीतश्च केतृमिर्गृहीतश्च । ततस्तस्मास्कारणात् सर्वथा सर्वप्रकारेण योग्यामहीं मम सागरदत्तस्य सुतां पुत्री भाग्येन देवेनाधिकस्तत्सम्बुद्धी हे
नेत्ररूपी जाल में फँसे हारके समान वहाँ से एक डग भी चलनेके लिए असमर्थ हो गये अतः २५ अत्यधिक रागसे पीड़ित हो उस घरके चबूतरापर बैठकर इस प्रकार विचार करने लगे कि यह
कुमारी कौन हो सकती है ? अमृतको झरानेवाले इसके नाम के अक्षर कौन होंगे? इसका पिता कौन है ? अपने हाथसे इसका स्पर्श करते हुए ब्रह्मा स्वयं कामी क्यों नहीं हुए ? क्या यह कभी हमें प्राप्त हो सकती है ? कुमार ऐसा विचार कर ही रहे थे कि कुबेरके ऐश्वर्यको
तिरस्कृत करनेवाला उस घरका सेठ आकर बोला कि हे कुमार ! मैं सागरदत्त हूँ। मेरी ३. गृहस्थधर्मकी पत्नी कमला है और विमला नामसे प्रसिद्ध उसकी पुत्री है। उसके उत्पन्न होते
ही ज्योतिषियोंने कहा था कि जिस महात्माके अपने घर आनेपर क्षण भरमें बिना खरीदके सज्जित मणियोंकी बिक्रो हो जायेगी उसकी यह स्त्री होगी। आपके घर आते ही मेरी वह रत्नोंकी राशि बिक गयो है जो कि खरीददार नहीं होनेके कारण पहलेसे सजित पड़ी थी। इसलिए हे भाग्यशालिन् ! आप दूसरा भाव छोड़कर सब प्रकारसे योग्य मेरी इस कन्याको
१ म० गृहीणी । २ क. विक्रेत्यातया अपेतकयविक्रयतया, इति टि० ।
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- वृत्तान्तः]
अटमो करमा न्तरमुज्झित्य' इत्युपच्छन्दनपूर्वकमदृष्टपूर्वसंविधया विधिवद्विसृष्टामलनेपथ्योज्ज्वलां विमलाभिधानां तां कन्यकां परिणिन्ये ।
६२.३. श्रीमद्रादीमसिंहसूरिविरचितं गद्यचिन्तामणौ
विमलालम्भो नाम अष्टमो लम्भः ।
भाग्याधिक ! भवान् परिणामान्तरमन्यममित्रायम् उज्झित्वा त्यक्त्वा' इतीत्थम् उपच्छन्दनं प्रार्थनं पूर्व ५ यस्मिस्तद्यथा स्यात्तथा अपूर्वसंविधया मालोकितपूर्वसामप्रथा विधिवत् यथाविधि विसृष्टां दसाम् अमळनेपथ्येन निर्मलवेपेणोज्ज्वला देदीप्यमानां विमलाभिधानां विमलानामधतीं तो कन्यको पतिवरां परिणिन्ये उदवोट ।
६२१३. इति श्रीमदादीमसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तामणौ विमलालम्भो नामाष्टमो लामः ।
विवाहें।" इस प्रकार प्रार्थनापूर्वक जो कभी पहले देखने में नहीं आयी ऐसो दहेज-सामग्रीके १० साथ विधिके अनुसार दो हुई, निर्मल वेष-भूषासे उज्ज्वल विमला नामक उस कन्याको जीवन्धरकुमारने स्वीकृत किया।
६ २१३. इस प्रकार श्रीमद्वादीमसिंह सूरिके द्वारा विरचित गचिन्तामणिमें बिमलालम्भ
(चिमलाकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला) आठवाँ लम्भ समाप्त हुआ ॥८॥
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नवमो लम्भः ६२१४. अथाभिनवपरिणयनपरिणतव्यलोकयवनिकान्तहितमनोभव रसानुभवकुतूहलया प्रियतमबलात्कारनोयमानपरिष्वङ्गपरिचुम्बनाभिमुख्यया प्रतिपादितरागहस्तपल्लवेन पञ्चशरेण मानैः शनैः सुरतसुखानुभवनसरणिमवतार्यमाणया विलासकलहसनिवासजङ्गमकमलिन्या कान्ति
किसलयितकायलतापितभुवननयननिर्माणफलया विमलया सह वर्धमानरोमाञ्चमञ्जरीकल्प्य५ मानसुरतदेवताराधनसुमनोदामकानि मौग्यविधीयमानलज्जापरिहियमाणाङ्गतरङ्गितप्रियतमराग
विलसितानि विच्छिन्नविशोर्णशेखरमाल्यकेसरपरागधूसरपर्यत्राणि परस्परपरिरम्भचुम्बनपौन
२१४. अथेति-अथ परिणयनानन्तरम् अभिनवपरिणयनेन नूतनविवाहेन परिणता परिप्राप्ता या पलीक्यवनिका लज्जावरणं तस्यामन्तहितस्तिरोहितो यो मनोमवः कामस्तस्य रसानुमवस्य रसोपमोगस्य
कुतूहलं विद्यते यस्यास्तया, प्रियतमस्य वल्लमस्य बलास्कारेण हठेन नीयमान प्राप्यमाणं परिष्वङ्गपरिचुम्ब१० नयोरालिङ्गनचुम्बनयोराभिमुख्यमानुकूल्यं यस्यास्तया, प्रतिपादितो दत्तो राग एवं हस्तपल्लवो येन
तथाभूतेन पञ्चशरेण कामेन शनैः शनै मन्दं मन्दं सुरतसुखानुमदनस्य संभोगसुखोपभोगस्य सरणि मार्गम् अवतायत इत्यतायमाणा तया समवगाशमानया विकास एवं कलहंसो विलासकलहंसो विभ्रमकादम्बस्तस्य निवासाय जङ्गमकमलिनी सञ्चरणशीलनलिनी तया कान्त्या दीप्त्या किमलयिता पल्लविता या कायलता
शरीरवल्ली तयार्पितं प्रदत्तं भुवनस्य जगतो नयननिर्माणफलं नेत्ररचनाप्रयोजनं यया या विमलया १५ तनाम्न्या पत्न्या सह. वर्धमाना समेघमामा या रोमाञ्चमारी पुलकावली तया कल्प्यमानानि रच्यमानानि
सुरतदेवताया: संभोगदेवताया आराधनाय सेवनाय सुमनोदामानि पुष्पमाल्यानि येषु तानि, मौग्ध्यन मूढस्वेन विधीयमाना क्रियमाणा या लज्जा तया परिहियमाणानि समाकृष्यमाणानि याम्यङ्गानि तैस्तरङ्गिनं वर्धित प्रियतमस्य वल्लभस्य रागविलसितानि रागच्चेष्टितानि येषु तानि, भादौ विच्छिन्नानि पश्चाद्विशीर्णानि
यानि शेखरमाल्यानि मौलिखजस्तेषां केसरपरागैः किन्जल्करजोभिधूसरी मलिनः पर्यतः शय्या येषु तानि, २० परसरमन्योऽन्य परिरम्मचुम्बनयोरालिङ्गनचुम्बनयोः पौनरुक्त्येन भूयोभूयः प्रवर्तनेन निरक्षरं यथा म्यात्तथा
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६२१४. तदनन्तर जिसके कामरसके उपभोगका कुतुहल नूतन विवाह के कारण परिगत लज्जारूपी परदेके भीतर छिपा हुआ था, प्रियनमके बलात्कारसे जिसे आलिंगन और चुम्बनमें आभिमुख्य प्राप्त कराया जा रहा था, रागरूपी हस्तपल्लवका सहारा देनेवाला कामदेव जिसे धीरे-धीरे संभोग-सुख के अनुभवनके मार्गमें उतार रहा था, जो विलासरूपी कलहंसके रहने के लिए चलती-फिरती कमलिनी थी और कान्तिस पल्लवित शरीरलताके द्वारा जिसने संसारके लिए नेत्रों की रचनाका फल प्रदान किया था ऐसी बिमलाके साथ, बढ़ती हुई रोमांच मंजरीके द्वारा जिनमें संभोगरूपी देवताकी आराधनाके लिए पुष्पमालाएँ रची जा रही थी, मुग्धावस्थाके कारण की जानेवालो लज्जासे बचाये हुए अंगोंसे जिनमें प्रिय
तमकी रागचेष्टाएँ और भी अधिक बढ़ रही थीं, टूटकर बिखरे हुए सेहरेकी मालाओंकी केशर ३० और परागसे जिनमें पलंग धूसरित हो रहा था, तथा परस्परके आलिंगन और चुम्बनकी
बार-बार प्रवृत्तिसे जो चुपचाप प्रकट होनेवाली दोनोंकी अभिलाषाओंसे विशिष्ट थे ऐसे
१. लज्जा, इत्यर्थः, इति टि०।
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२१६. सुरमञ्जर्या वृत्तान्त: ]
नवमो लम्भः
३.१९
निरक्षर निवेद्यमानोभयाभिलाषविशिष्टानि सुरतचेष्टितान्यनुभूय रतिपरिश्रमपारवश्येन शयनतलप्रसारिताङ्गी विलुलितविरलविशेष कलेशपेशलललाटरेखामसक्कदा रेचितेभूषणारुणमन्थरपरिस्पन्दसुन्दर नयनेन्दीप रामनन्तरितताम्बूलरामारुणिभवणितानव रतग्रहणदशनच्छदामतुखेन प्रणयेन निजगमनमसहमानाम्, 'अलमलमतिसूत्रेण रस्तोर, पुनरनम्नविषयेण । अनुक्षण मागमिष्यामि' इत्याभाषमाण एव भवनान्निर्गत्यानुनगर मविरलवकुलै कदम्बचम्पकसहकारप्राये पुष्पोद्याने समासी- ५ नानामारभ्य शैशवादारचितपरिचयापयातपरस्पर रहस्यानां वयस्यानामाजगाम समीपम् ।
$ २१५. ततस्तमासक्तवल्लभाचरणलाक्षारसलोहितालकपल्लवोपरिभागमुपभोगायासनि
निवेद्यमाना सूच्यमाना य उभयोरभिलाषा ः संयोगवान्छास्तैर्विशिष्टानि सहितानि सुरतचेष्टितानि अनुभूय, रतौ संभोगे यः परिश्रमः खेदस्तस्य पारवश्येन पारतन्त्र्येण शयनतले शय्यापृष्ठे प्रसारितम यस्यास्ताम्, विलुलिताः परिवृक्ष अत एव विरलाः सान्तरा ये विशेषकलेशास्तिलकांशास्तैः पेशला मनोहरा ललाटरेखा १० निटिललेखा यस्यास्ताम्र, असद् वारं वारं यद् आरेचितं तिर्यगवङोकनं तदेव भूषणं ययोस्तथाभूतं अरुणे रमन्थरपरिन्दे मन्दमन्दसंचारयुक्त सुन्दरनयनेन्दीवरे रमणीय लोचनोत्पले यस्यास्ताम्, अनन्तरितsनाच्छादितस्ताम्बूलगो येन तथाभूतो योऽरुणिमा कौहित्यं तेन वर्णितं प्रकटितमनवरतग्रहणं सततर्दशनं यस्य तथाभूतो दशनच्छद ओली यस्यास्ताम्, अनुच्छेन विपुलेन प्रगयेन स्नेहेन निजगमनं स्वप्रयाणम् असहमानाम्, 'हे रम्भोरु ! मोचोरु पुनर्भूयोऽनागमनं विषयो यस्य तथाभूतेन अविस्वम्भेणाविश्वासेन १५ अलमलं व्यर्थं व्यर्थम् । अनुक्षणं क्षणानन्तरमेवागमिष्यामि' इतीत्थम् आभाषमाण एवं कथयन्नेव मवनाद् प्रासादान् निर्गत्य निःसम्य अनुनगरं नगरसमीपे अविरला निरन्तर वकुलकदम्बचम्पकसहकाराः केसरनोपचाम्पेयातिसौरभाम्राः प्रायः यस्मिंस्तस्मिन् पुष्पोद्याने कुसुमारामे समासीनानामुपविष्टानां शैशवाद बाल्याद् आरभ्य आरचितेन परिचयेनापयातं दूरीभूतं परस्पररहस्थं येषां तेषां वयस्यानां सहचराणां समीपं पार्थमाजगाम ।
२१५. तत इति -- ततस्तदनन्तरम् आसकेन संलग्नेन वल्लभाचरणका क्षारसेन प्रियावादयावरसेन लोहितो रक्तवर्णीकृतोऽलकपल्लवानां चूर्ण कुन्तल किसलयानामुपरिभागो यस्य तथाभूतम्,
२०
संभोग सुखोंका अनुभव कर, उपभोग सम्बन्धी परिश्रमको परवशतासे जो शय्यातल पर शरीर - को फैलाकर पड़ी थी, जिसके ललाटको रेखा पुंछ जानेसे विरल-विरल दिखनेवाले तिलकके अंशोंसे सुन्दर थी, बार-बार ठीक किये हुए कर्णाभरणसे लाल एवं मन्द मन्द संचारसे जिसके २५ नेत्ररूपी नील कमल अत्यन्त सुन्दर थे, पानको लालीको प्रकट करनेवाली लालिमासे जिसके ओठका निरन्तर दंशन सूचित हो रहा था और जो बहुत भारी स्नेहके कारण अपने गमनको सहन नहीं कर रही थी ऐसी विमलासे जीवन्धरकुमार बोले कि 'हे कदलीके समान जाँघोंसे सुशोभित प्रिये ! पुनः न आनेके विषयको लेकर जो तुम्हें अविश्वास हो रहा है वह व्यर्थ है । मैं अभी हाल आ जाऊँगा।' इस प्रकार कहते-कहते वे महलसे निकलकर नगर के समीप जिसमें ३० अधिकांश मौलश्री, कदम्ब, चम्पा और आम के वृक्ष निरन्तर लग रहे थे ऐसे फूलोंके उपवन में बैठे हुए उन मित्रों के पास जा पहुँचे जिनके कि बचपन से ही लेकर उत्पन्न परिचय के कारण परस्परका रहस्य दूर हो चुका था अर्थात् परिचयकी अधिकता के कारण जिनके परस्पर छिपाने योग्य कोई बात बाकी नहीं रह गयी थी ।
५
1
६२१५. तदनन्तर जिनके चूर्ण कुन्तलरूपी पल्लवोंका उपरितन भाग आसक्त वल्लभाके ३५
१. म० असकृदाचरित । २. क० ख० वकुलकदलकदम्ब । ३. म० ततश्च ।
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३२०
गद्यचिन्तामणिः
[ २१५. सुरमाः - मग्नतारकदृशं गाढग्रहणलग्नदशनशिखरप्रणिहिताधरमणिमतिसुरभिपरिमलाङ्गरागव्यतिकरविशेपकमनीयवपुषं विषमेषुराज्यधर्ममिव विधृतविग्रहं प्रेमविवशविस्मृतनिमेषनिश्चलपक्ष्मपुटाभ्यां स्फुटितकमलमुकुलपेशलाभ्यां लोचनाभ्यामापादचूडमालोक्य 'अहो महाभागस्य ते सौभाग्य सर्वभुवनातिशायि, यदेवमनुपुरं पुरंध्रीभिः स्वयं वियसे । संप्रति समूढायाः प्रौढ भाग्याया भजन्त्यभिख्यां कानि कान्यक्षराणि ।' इत्यक्षतसौहृदवनिः पद्ममुखादयः पर्यपृच्छन् । सात्यंधरिरपि संजातसंतोषः किचिदुन्मिषितहसितचन्द्रिकाच्छलेन सिञ्चन्निव स्नेहामृतम् 'अधरितकमला सा विमला नाम्ना' इति व्याहार्षीत् । हर्षविकसदास्यानां वयस्यानां गोष्ठीमधितिष्ठ. उपभोगस्य सुरनम्यायासेन परिश्रमेण निमग्नतारके निमग्नकनीनिके दशौ लोचने यस्य तम्, गाढग्रहगेन
लग्नं यदशनशिखरं दन्ताग्रभागस्तेन प्रणिहितो युक्तोऽधरमणिनींचैदन्तच्छदो यस्य तम्, अतिसुरभिरति१० सुगन्धियुक्तः परिमलो यस्य तथाभूतो योऽङ्गरागस्तस्य व्यतिकरण विलेपनच्यापारेण विशेषकमनीयं
सातिशय सुन्दरं वपुः शरीरं यस्य तम्, विस्तो विग्रहः शरीरं येन तं सारीरं विधर्मपुराज्यधर्ममिव काम. राज्यधर्मपित्र, प्रेमविवशे प्रीत्यायत्ते विस्मृतनिमेपे निष्पन्दे अतएव निश्चले स्थिरे पक्षमपुटे ययोस्ताभ्याम् स्फुटिते विकसिते ये कमलमुकुले नलिनकुडमले तद्वत् पेशले मनोहरे ताभ्यां लोचनाभ्यां नयनाभ्याम् .
उपलक्षितमिति शेषः, तं जीवंधरम पादादारभ्य चूडामभिच्याप्येत्यापादचूडम् आलोक्य दृष्ट्वा 'अहो ! १५ महाभागस्य महानुभावस्य ते सौमाग्यं सर्वभुवनातिशायि निखिललोकातिशायि वर्तत इति शेषः, यद्
यस्मान् कारणात् एवम नेन प्रकारेण पुरं पुरमित्य नुपुरम् अनुनगरम् पुरन्ध्रीमिः स्त्रोमि: स्वयं विग्रसे स्वीक्रियसे। सम्प्रतीदानोम् समूहापाः कृतविवाहायाः प्रौढभाग्यायाः प्रकृष्टमाश्ययुक्ताया अमिख्यां नाम 'अभिख्या नामशोमयोः' इत्यमरः कानि कानि अक्षराणि भजन्ति प्राप्नुवन्ति ।' इनत्यम् अक्षतमरखण्डितं
सौहृदवम मैत्रीमागों येषां तथाभूताः पद्ममुखादयः पर्यपृच्छन् परिपृच्छन्ति स्म । सात्यंधरिरपि जीवंधरोऽपि २० संजातः संतोषो यस्य तथाभूतः समुपसंतोषः सन् किञ्चिन्मनाग उम्मिषितं प्रकटितं यद् हसितं हास्य
तदेव चन्द्रिका कौमुदी तस्याश्छलेन व्याजेन स्नेहामृतं प्रीतिपीयूषं लिञ्चचिव 'अधरिता तिरस्कृता कमला कश्मीर्यया तथाभूता लक्ष्मीः पनालया पमा कमला श्रीहरिप्रिया' इत्यमरः, सा नाम्ना विमला अस्तीति शेषः' इति व्याहार्षीत् जगाद । हर्षेण विकसन्ति भास्यानि मुखानि येषां तेषां वयस्यानां मित्राणां गोष्ठीम् अधि
चरणोंके महावर के रससे लाल-लाल हो रहा था, उपभोग सम्बन्धी खेदसे जिनके नेत्रों की पुत२५ लियाँ भीतरकी ओर निमग्न हो रही थीं, जिनके अधरोष्ठ में जोरसे ग्रहण करने के कारण दाँतों
के अग्रभाग गड़े हुए थे, अत्यन्त मनोज्ञ सुगन्धिसे युक्त अंगरागके संमिश्रणसे जिनका शरीर विशेष सुन्दर जान पड़ता था, और जो शरीरको धारण करनेवाले कामदेवके राज्यधर्मके समान प्रतीत होते थे ऐसे जीवन्धरकुमारको जिनके पलक प्रेमसे विवश, टिमकारको भुला
देनेवाले एवं निश्चल थे तथा जो खिली हुई कमल की बोड़ियों के समान सुन्दर थे ऐसे नेत्रोंसे २० पैरसे लेकर चोटी तक देखकर अखण्ड मित्रताके मार्गको धारण करनेवाले पद्मास्य आदि
मित्र पूछने लगे कि 'अहो ! आप महाभाग्यवान हैं, आपका सौभाग्य समस्त संसारको उल्लंघन करनेवाला है, क्योंकि इस तरह आप नगर-जगर में स्वयं ही स्त्रियों के द्वार। वरे जाते
हैं । उत्कृष्ट भाग्यको धारण करनेवाली जिस स्त्रीको अभी हाल विवाहा है उसके नामको कौन-से ___अक्षर प्राप्त हैं ? तदनन्तर जिन्हें सन्तोष उत्पन्न हो रहा था, तथा कुछ-कुछ प्रकट हुई मन्द ३५ मुसकानरूपी चाँदनीके बहाने जो स्नेहरूपी अमृतको मानो सींच ही रहे थे ऐसे जीवन्धर
कुमारने कहा कि 'वह नामसे लक्ष्मीको तिरस्कृत करनेवाली विमला है। हर्षसे जिनके मुख
१. म. महाभाग्यस्य ।
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नवमो लम्मः
परिहासालापविदग्धबुद्धिर्बुद्विषेणो नाम सुहृत् 'अस्य कुतः सौभाग्यम् । दीर्भाग्यादपरेरनूढाः प्रौढवयसः काश्चिदनन्यगतयः कन्यका निकाममेनं कामयन्ताम् । यदि नामायमेकान्तपरिहृतपुरुषदर्शनां दर्शनीयाङ्गयष्टिमधिवसन्तीं कन्यान्तःपुरमनङ्गमातङ्गनहुन दक्ष कटाक्ष हीरञ्जीरां सुरमञ्जरीमावर्जयेदञ्जसा योग्य: सौभाग्यवतामुपरि गणयितुम् इति सोत्प्रासं प्रावोचत । तद्वचनानन्तरं सात्यंवरिरपि समुद्भूतमन्दहास: 'साधु कथितं दास्याः पत्या वयस्येन । न चेदल्पोयसाहसा ५ समावर्जयेम तां वर्जिता एवं वयमपि त्वमिव सौभाग्येन' इति ससंगर व्याह्नन्नेव पुनरपि पुरमाशु प्राविशत् । अविशच्चास्य हृदयं वितर्कः 'केनोपायेन तां तथा करिष्यामि यथा मनसि मन्मथशरपातेन पारवश्यमासादयन्ती समासादयेदस्मात्' इति !
वृत्तान्तः ]
३२१
तिष्ठन् अध्यासीनः परिहासालापे परिहास भाषणे विदग्धा चतुरा बुद्धिर्यस्य तथाभूतो बुद्धिषेणो नाम सुहृत् 'अस्य जीवकस्य सौभाग्यं कृतः ! दौर्भाग्यात् अपरैरन्यैः अनूढा अविवाहिताः प्रौढवय सोऽधिकावस्था १० अनन्यगतयोऽन्यगति रहिताः काचित् कन्यका निकाममत्यन्तम् एवं कामयन्ताम् अभिलषन्तु । यदि नामायं जीवंबर एकान्तेन नियमेन परिहृतं पुरुषदर्शनं नरावलोकनं यया ताम्र, दर्शनीया मनोहराङ्गयष्टिः शरीरपष्टिर्यस्यास्ताम् कन्यान्तःपुरं पतिवरानिशान्तम् अधिवसन्तीं तत्रकृतनिवासाम्, भनङ्ग एव मातङ्गइत्यनङ्गमातङ्गः कामकरी तस्य नहुने बन्ने दक्षाः समर्थाः कटाक्ष हीरक्षीरा अपाङ्गज्जव यस्यास्तां सुरमञ्जरीम एतन्नास्तों कम्पाम् आवर्जयेत् वशीकुर्यात् तर्हि असा परमार्थेन सौभाग्यवतां सौभाग्यशालिनाम् उपरि १५ गणयितुं योग्य 'अस्तीति शेष:' इति सोप्या सव्ययं प्रावोचत प्रजगाद । तदचनानन्तरं बुद्विषेणकथनानन्तरं सात्यंधरिरवि जीवकोऽपि समुद्भूतः प्रकटितो मन्दहासो यभ्य तथाभूतः सन् 'दास्याः पत्या वयस्येन संख्या साधु सुष्ठु कथितम् । यदि अहमीय साल्पतरेणैव अनेहसा कालेन तां सुरमञ्जरीं न समावर्जये वशीकुर्यां तर्हि वयमपि स्वमित्र सौभाग्येन पुरन्ध्रीप्रेम्णा वर्जिता एव रहिता एव' इतीत्थं सलंगरं ससन्धं व्याहरन्नेव कथयन्नेव पुनरपि पुरं राजपुरीम् आशु शीघ्रम् प्राविशत् प्रविवेश । अस्य जीवकस्य २० हृदयम् इति तिक विचारच अविशत् । इतीति किम् । इत्याह केनेति — 'केन कतमेन उपायेन साधनेन तां सुरमञ्जरी तथा तादृशीं करिष्यामि यथा येन प्रकारेण मनसि स्वान्ते मन्मथशरपावेन कामवाणपातेन पारवश्यं शितम् आसादयन्ती प्राप्नुवन्ती अस्मान् समासादयेत् प्राप्नुयात्' इति ।
२५.
खिल रहे थे ऐसे उन मित्रोंकी गोष्ठी में एक बुद्धिषेण नामका भी मित्र था जो हास्यपूर्ण वार्तालाप करने में बहुत ही निपुण था । वह ताना देता हुआ बोला कि 'इसमें इनका सौभाग्य कैसे माना जा सकता है ? दौर्भाग्य के कारण दूसरोंने जिन्हें विवाहा नहीं, जिनकी अवस्था अधिक हो गयी तथा जिनका अन्य कुछ सहारा नहीं था ऐसी कुछ कन्याएँ भले ही इन्हें चाहने लगे । यदि ये एकान्त रूपसे जिसने पुरुषोंका दर्शन भी छोड़ रखा है, जिसकी शरीरयष्टि अत्यन्त सुन्दर हैं, जो कन्याओंके अन्तःपुर में हो रहती है, और जिसके कटाक्षोंकी श्रृंखला कामरूपी हाथीको बाँधने में निपुण हैं ऐसी सुरमंजरीको प्राप्त कर सकें तो अवश्य ३० ही सौभाग्यशाली मनुष्यों के ऊपर गणना करनेके योग्य हैं।' बुद्धिषेणके इस कथन के बाद मन्द मन्द मुसकराते हुए जीवन्धरकुमारने भी कहा कि दासीके पति मित्रने ठीक कहा । यदि हम थोड़े ही समय में उसे प्राप्त न कर लें तो हम भी तुम्हारे ही समान सौभाग्य से वंचित कहलावें । इस प्रकार प्रतिज्ञा के साथ कहते हुए जोबन्धरकुमार पुनः शीघ्र ही नगर में प्रविष्ट हो गये | इनके हृदय में इस तर्कने प्रवेश किया कि किस उपायसे हम उसे वैसा कर दें कि जिससे वह मनमें कामके बाण पड़ने से परवशताको प्राप्त होती हुई हमें प्राप्त हो जाये ?
३५
1
१. हरजोरामिति पदस्य रज्ज्वर्थः इति टि० ।
४१
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३२२
गद्यचिन्तामणिः
[ २१६ सुरमञ्जर्याः -
मंग
$ २१६. तत्तश्च विभाव्य क्षणादिव' यक्षोपदिष्टमनुमहिम्ना निजसौकुमार्यं निवार्यं विकच काश कुसुमस्तबकपरिभावुकेन पलितपाण्डुरेण केशकलापेन पटेनेव सितेना व गुण्ठितोत्तमाङ्गम, जराजलधितरङ्गानुकारिणोभिरायामिनीभिक्लीभिः स्थपुटितललाटफलकम् अलिकतट-ल स्फुरदलघु वलिभारनुन्नाभ्यामिव नम्राभ्यां भ्रूलताभ्यां तिरोधीयमाननयनम्, उन्मिषितदूषिकाभ्ण५ मृद्भूत नीलपीतपाटलसिराजालजटिलाभ्यामनुपलक्ष्य माणपक्ष्मरोमराजिभ्यां हिमानीहत पुण्डरीकविच्छायाभ्यामोक्षणाभ्यामुपलक्ष्यमाणम्, आनाभिलम्बितेन जरावल्ली फुल्लमञ्जरीनिभेन कूकलापेन प्रच्छादितवक्षसम्, अक्षीणकासकाष्ठा कर्णेजपेन घर्घराघोषेण मुखरितकण्ठमूलम् अतिन प्रपूर्वकाय
$ २१६. तवचेति-- ततश्च तदनन्तरं च क्षणादिव अल्पावकालादिव विमाच्य विचार्य यक्षोपदिष्टश्वासौ मनुश्चेति यक्षापदिष्टमनुः सुदर्शनयक्षेोपदिश्रमन्त्रस्तस्य महिम्ना माहात्म्येन निजसौकुमार्य स्वस्य १० सुकुमारतां निवार्य दूरीकृत्य विकचानां प्रफुल्लानां काशकुसुमानां काशपुष्पाणां यः स्तबको गुच्छक्रस्तस्य परिभायुकेन तिरस्कारकेण, पलितं जरसा शौक्ल्यं तेन पाण्डुरेण धवलेन केशकलापेन कचसमूहेन सितेन शुक्लेन पटेन वस्त्रेणेव भवगुण्ठितं समावृतमुत्तमाङ्गं शिरो यस्मिंस्तम्, जरेव जलधिर्जराजलधिर्वार्धक्यवारिधिस्तस्य तरङ्गाणां लहरीणामनुकारिण्यस्वाभिः आयामिनीभिदीर्घाभिः बलीभिस्त्वक्संकोचज नितरेखाभिः स्पुटितं नतोन्नतं ललाटफर्क भालवर्ट यस्मिंस्तम्, अलिकतटे निटिलतटे स्फुरता प्रकटीमवता अलघुव लि१५ भारेण दीर्घत्वक संकोचरेखामारेण नुन्नाभ्यामिव प्रेरिताभ्यामिव नम्राभ्यां नताभ्यां भ्रूलताभ्यां भ्रकुटिवल्लरी
भ्याम् तिरोधीयमाने अन्तर्धीयमाने नयने यस्मितम्, उन्मिषितदृषिकाभ्यां प्रकटितमलाभ्याम् उद्भूतेन प्रकरितेन नीलपीतपाइले सिराजालेन नाडीनिचयेन जटिलाभ्यां व्याप्ताभ्याम्, अनुपलक्ष्यमाणा अदृश्यमाना पक्ष्मरीमराजः पक्ष्मलोमपतिर्ययोस्त्राभ्याम् महद्धिमं हिमानी तथा हतं साडितं यत्पुण्डरीकं कमले तद्वद् विच्छायाभ्यां कान्तिरहिताभ्याम् ईक्षणाभ्यां नयनाभ्याम् उपलक्ष्यमाणं दृश्यमानम्, नाभि २० तुन्दिमभिध्याय लम्बितं तेन आनाभिलम्बितेन, जरैव वल्ली जरावल्ली वार्धक्यवल्करी तस्याः फुल्लमञ्जर्या निमः सदृशस्तेन कूचकलापेन हनुरोमसमूहेन प्रच्छादितमावृतं यक्षो यस्मिंस्तम्, अक्षीणो वृद्धिंगतो यः कालः 'खांसी' इति प्रसिद्धो रोगस्तस्य काष्ठा चरमसीमा तस्याः कर्णेजयः सूचकस्तेन घर्घराघोपेण घर्धरशब्देन
२१६. तदनन्तर विचार कर क्षण-भर हो में उन्होंने सुदर्शन यक्ष के द्वारा उपदिष्ट मन्त्रकी महिमा से अपनी सुकुमारताको दूर कर मृत मनुष्य के समान वह वैष धारण कर लिया कि २५ जिसमें खिले हुए काशके फूलोंके गुच्छोंको तिरस्कृत करनेवाले सफेद बालोंके समूह से सिर ऐसा जान पड़ता था मानो सफेद वस्त्रसे ही आच्छादित हो । वृद्धावस्थारूपी समुद्रकी तरंगोंका अनुकरण करनेवाली लम्बी-लम्बी सिकुड़नोंसे जिसमें ललाट तट व्याप्त हो रहा था । ललाट में प्रकट होनेवाली बहुत भारी सिकुड़नोंके भारसे प्रेरित हुई के समान नीचे की ओर झुकी हुई भ्रुकुटिरूपी लताओंसे जिसमें नेत्र आच्छादित हो रहे थे। जिनमें कीचड़ निकल रहा ३० था, जो प्रकट हुई नीली पोलो और कुछ-कुछ लाल नसके समूह से व्याप्त थीं, जिनके पलकों की बिनियाँ दिखाई नहीं पड़ती थीं, और जिनकी कान्ति बर्फ से पीड़ित सफेद कमलोंके समान थी ऐसे नेत्रोंसे जो सहित था । नाभितक लटकनेवाले एवं वृद्धावस्थारूपी लता के फूलोंकी मंजरीके समान लम्बी दाढ़ीसे जिसमें वक्षःस्थल ढक गया था। कभी नष्ट नहीं होनेवाली खाँसीको चरम सीमाके कान में मन्त्र फुकनेवालेके समान घर्धर शब्दसे जिसमें कण्ठका मूल
१. म० क्षणादेव १ २ मन्त्रमहिम्ना, इति टि० । ३. म० पाण्डरेण ।
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नवमी लम्भः
वृतान्तः ]
कथ्यमान दौर्बल्यम्, उल्लसदविरलास्थिपटलस्थपुटितसंस्थानम्, अस्थानपतन जनितजनहासविजृम एककरकलितकमण्डलुम् विधूत वलक्षपलेहितगित शिखरनिहितहरितकुशापोsस्य वंशदण्डस्योपरि निवेश्यमानशरीरयष्टिम्, स्पष्टदृष्टकी कसान्तरालनिर्गत सिरासंताब्रह्मचारिणा ब्रह्मसूत्रेण सीमन्तितगात्रम् अपगतमां सकृशाङ्गुलीपरिच्यवमानपवित्रिकाप्रत्यवस्थापनव्याप्रियमाणपाणिम् प्रयाणोन्मुखप्राणमिव प्रेक्ष्यमाणम्, प्रेत निर्विशेषवेषं दध ।
$ २१७ एवमात्मनोऽप्यत्याहितमापादयितुं समर्थया वार्द्धकावस्थया वर्धित कुतूहलवले. विमान पदे पदे परिस्खलनवष्टभ्य मुष्ट्या वंशयष्टिमतिक्रम्य किचिदन्तरं वामकरगृहीतवेवाभिरितरकरगृहीतखगलताभिरापदमुक्त वल कञ्चुकाभिः प्रतीहारस्थाननियुक्ताभिर्युवतीभिः
-
३२३
५
मुशायमानं मूलं यस्मितम् अतिनग पूर्वकायेन कथ्यमानं निवेद्यमानं दौर्बल्यं क्षीणत्वं यस्मिंस्तभू उल्लता प्रकटीमकता अविरलेन निरन्तरेणास्थिपटलेन कीकसनिचयेन स्थपुटितं नतोञ्जतं १० संस्थानमाकृतिर्यस्मिंस्तम्, अस्थानेऽयोग्यस्थाने पतनेन जनितं जनहासस्य लोकहसितस्य विजृम्मणं वृद्धिर्यस्मिंस्तम्, एकस्मिन्करे कळितो छः कमण्ड कुस्मिस्तम् इतरस्मिन् कमण्डलुरहिते करे हस्ते वितस्तस्य वलक्षपटेन शुक्लवस्त्रेण वेष्टितं परिवृतं शिखरमयं यस्य तस्य शिखरे निहितः स्थापितो हरितकुशानापल्लवादर्माणामापीडः समूहो यस्य तस्य वंशदण्डस्य उपरि निवेश्यमानावलम्ब्यमाना शरीरयस्मिस्तम्, स्पष्टुं यथा स्यात्तथा दृष्टानां कीकसानामस्यनामन्तराले निर्गता निःसृता याः हिरा नाड्य- १५ स्वासां संतानस्य समूहस्य सब्रह्मचारि सदशं तेन ब्रह्मसूत्रेण यज्ञोपवीतेन सीमन्तितं विमतं गात्रं शरीरं यस्मिंस्तम्, अपगतं दूरीभूतं मांसं पलं याम्यस्तथाभूता याः कृशाङ्गुल्यस्ताभ्यः परिच्यवमाना पतन्ती या पवित्रका स्मरणी तस्याः प्रत्यवस्थापन पुनः स्थिरीकरणे व्यात्रियमाणः पाणिर्हस्तो यस्मिस्तम्, प्रयागोन्मुखः: प्रस्थानोद्यताः प्राणा असवो यस्मिंस्तमित्र प्रेक्ष्यमाणं दृश्यमानं प्रेतेन मृतेन निर्विशेषः सदृशो यो वेषस्तं द घृतवान् ।
२१. एवमिति एवमनेन प्रकारंण आत्मनोऽपि स्वस्य अत्याहितमत्याश्चर्यम् आपादयितुं प्रापयितुं समर्थया दक्षया बार्द्धकावस्थया जरया वर्धितं कुतूहलं येषां तैर्वृद्धिंगत्कुनुकैः बालैः विहस्यमानः पदे परे स्थाने स्थाने परिस्खलन् पतन् मुश्या बद्धहस्तपुटेन वंशय वेणुदण्डिकाम् अवष्टभ्य गृहीत्वा fifeदन्तरं किमप्यन्तरालम् अतिक्रम्य वामकरेण सव्वहस्तेन गृहीतं तं देवं याभिस्तभिः इतरकरण सन्तरहस्तेन गृहीताना खड्गलता कृपाणवल्ली यामिस्वाभिः भाषादं पादमभिव्याप्य मुक्ता लम्बिता २५
२०
भाग शब्दायमान हो रहा था । अत्यन्त झुके हुए शरीर के पूर्व भागसे जिसमें दुर्बलता कही जा रही थी । प्रकट होतो हुई हड्डियोंके सघन समूहसे जिसमें समस्त शरीराकृति व्याप्त हो रही थी। अस्थान में गिरने से उत्पन्न मनुष्यों की हँसी से जो वृद्धिंगत हो रहा था। जिसमें एक हाथ में कमण्डलु धारण किया गया था। दूसरे हाथ में स्थित, सफेद व लिपटे हुए शिखर से युक्त तथा शिखरपर रखे हुए हरे-हरे कुशाओं के समूह से सहित बाँसके डण्डेपर जिसमें शरीर २० यष्टि रखी हुई थी। स्वरूप से दिखाई देनेवाली हड्डियों के बीच में निकली हुई नसोंके समूह के समान जनेऊ से जिसमें शरीर दो भागों में विभक्त-जैसा जान पड़ता था। मांसके नष्ट हो जाने से कृश अँगुलियोंसे छूटती हुई सुमरनीके ठीक करने में जहाँ हाथ चल रहा था और जिसमें प्राण प्रयाणके उन्मुख जैसे दिखाई देते थे ।
§ २१७. इस प्रकार अपने-आप के लिए भी आश्चर्य उत्पन्न करने में समर्थ वृद्धावस्था से ३५ बढ़ते हुए कुतूहलसे युक्त बालक जिनकी हँसी कर रहे थे और जो पद-पदपर गिर रहे थे ऐसे जीवन्धर स्वामी मुट्ठीसे लाठी पकड़ तथा कुछ अन्तर पार कर सुरमंजरीके उस भवन के
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३२४ गद्यचिन्तामणिः
[ २१८ सुरमार्याः समन्ताद्गुप्तं प्रत्युप्तनकमणिमहःस्तबकपिञ्जरितगगनं सुरमञ्जरीभवनं यदृच्छयेवोपसृत्या. तुच्छरुषा दौवारिकयोषित्सार्थेन किमर्थमिहोपस्थितम् । अवस्थीयतामत्रैव विप्र, त्वया। नैवान्तः प्रविश्यताम्' इत्यादिश्वमानोऽपि कुमार: 'कुमारीतीर्थस्नानेन वार्द्धकमेतदपसारयितुमुपसरामि' इत्युदीरयन्नबधीर्य तन्निवारणोपक्रममुपसर्तुपास्त तद्गृहाभ्यन्तरम् ।
२१८. पुरंध्रयश्च प्रतीहारस्थानस्थितास्तदवस्थाविलोकनेन तद्वचनश्रवणेन च जातस्फीतहासानुकम्पाः किं पातकमस्माभिरनुष्ठातुमारभ्यते ! बुभुक्षितोऽयं क्षितिसुरः स्वैरं किमप्याचष्टे । स्पृष्टोऽप्यस्माभिरयं नष्टासुर्भवेत् । आस्तामयमत्रैव । प्रस्तुतमेतमुदन्तमिदंतया तस्यै
धवलकजुकाः शुक्र्यासका यासां ताभिः प्रतीहारस्थाने द्वारधामनि नियुक्ताः कृतस्थाना यासां ताभिः युनतीभिस्तगीभिः समन्ताद्गुसं परितो रशितम् , प्रत्युतानां खचितानां नै कमणीनां नानारटनानां महःस्तवन कान्तिगुच्छेन पिञ्जरितं पीतं गगनं यत्र तत् सुरमञ्जरीभवनं यदृच्छयेव उपेनाभावेनेव उपमृत्य समुपगम्य अनुच्छा रुट कोधो यय तेन द्वारे नियुक्तो दौवारिकः स चासौ योपित्सार्थश्च स्त्रीसमूहश्च तेन 'किमर्थ किंत्रयोजनम् इह उपस्थित समागतम् । विष ! भू ! स्त्रया अत्रैव अवस्थीयताम् । अन्तर्मध्ये नैव प्रविश्यताम् प्रवेशः क्रियताम्' इतीत्यम् आदिश्यमानोऽपि निरूप्यमागोऽपि कुमारो वृद्धवेषवरो जीबंधरः
कुमारीतार्थ तम्लामतीर्थ पने कुमायव सुरमायव तीर्थं तत्र स्नानेन बाईक स्थविरस्वम् अरसारयितुं १५ दूरीकर्तुम् उ सराभि समीपमागच्छामि' इतीत्यन् उदीरयन् तस्य दौवारिकयाषिसार्थस्य निवारणोपकमो
निवारणोपायस्तम् अदबीय उपेक्ष्य तस्माः सुरमार्या गृहस्थाभ्यन्तरं मध्यम् उपस गन्तुम् उपास्त तत्परोऽभूत् ।
६२.. पुरन्त्र यशति-तोहारस्थाने द्वारे स्थित विद्यमानासायाभूताश्च पुरन्ध्र यो वनिताः तस्प वृहस्यावस्थाया जराजरदशाया बिलोकनेन दर्श रेन तस्य वृद्धस्य ववनधरणेन च व बनाकर्णनेन च. २० जाते स त्यो स्की विस्तृत हासानुकम्पे हासद य स तयाभूताः सत्यः 'भस्माभिः पातकं पापमनुष्ठातुं
विधातुं किमारभ्यते । किमुपक्रम्पते । बुभुझा संजाता यस्य तथाभूतोऽयं क्षितिसुरो विप्रः स्वैरं स्वेच्छं किमपि आचष्टे कथयति । अस्माभिः द्वारस्थिताभि: स्पृष्टोऽपि कृतस्पर्शोऽपि अयं नष्टासुमो मवेत् । अयमन्त्रय द्वारस्थान एव भास्तां तिष्ठतु । प्रस्तुत प्रकृतम् एतम् उदन्तं वृत्तान्तम् इदंतया एतद्र पंग तस्यै
समीप स्वेच्छासे जा पहुँचे कि जो द्वारपर नियुक्त युवनियोंसे सब ओरसे सुरक्षित था तथा २५ जड़े हुए अनेक मशियोंके तेज के समूहसे जिसका आकाश पिंजर हो रहा था। द्वारपर जो
स्त्रियाँ नियुक्त थीं वे बॉयें हाथ में बेतकी छड़ी लिये हुई थी और दाहिने हाथमें तलवार धारण कर रही थीं तथा उनके सफेह कुरते पैर तक नीचे छूटे हुए थे। द्वारपर खड़ी स्त्रियों के समूहने अत्यन्त क्रुद्ध हो कहा कि 'यहाँ किसलिए आया है ? हे विप्र ! तू यही खड़ा रह, भीतर प्रवेश
नहीं कर', इस प्रकार आदेश मिलने पर भी कुमार 'कुमारी तीर्थ में स्नान के द्वारा इस बुढ़ापेको ३. दूर करने के लिए आया हूँ, यह कहते हुए उनके रोकनेको परवाह न कर घर के भीतर जानेका उद्यम करते रहे-भोतरकी ओर बढ़ते ही गये ।
६२१८. द्वारपर खड़ी खियाँ उसको अवस्था देख तथा उसके वचन सुन जोर-जोरसे हँसने लगीं । साथ ही उन्हें उस वृद्धपर दयाभाव भी उत्पन्न हो गया। वे परस्पर विचार करने
लगी कि क्या हम लोग पाप करना प्रारम्भ कर रही हैं ? यह भूखा ब्राह्मण स्वेच्छासे कुछ ३५ कह रहा है । हम लोगों के छूते हो यह मर जायेगा अतः यह यहीं रहे । हम लोग यह वृत्तान्त
१.क. ग. निखिल । २. म निवारणोप-। ३. क० ख० म० अपततुम् ।
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३२५
- वृत्तान्तः ]
नवमो सम्मः भर्तदारिकायै विज्ञापयाम' इति विरचितविचाराः सरभसमेव सुरमजरीसकाशमविशन् । अभ्भधुश्च ताः सुन्दर्यः सुरमञ्जरीमजलिबन्धकरणे कातर्यकण्ठोक्तभयाः ‘भर्तृदारिके, भर्तेव जरायाः कोऽपि वृद्धब्राह्मणो ब्रह्महत्याभोत्यास्माभिरभत्सितः सुतरामुत्सुक इव भिक्षायां प्राविक्षदभ्यन्तरकक्ष्याम्' इति ।
२१९. सा च वरवणिनी तद्वचनाकर्णनेन तवलोकनपूर्णमति: पूर्णास्ते मनोरथाः ५ प्राणनाथो यतः प्रत्यासन्नः' इति अणितयाजेन मणिनूपुरेणेव प्रोच्यमाना पुर:सरमानिनीपरिपदभियोयमानालो कशब्दा चरणान्यामेव जोवित कशरणमेनमेनोरहितं तपस्यासमाश्रितं श्रीरिव स्वयं शिश्रिये । पिप्रिये च तं प्रवयसमालोक्य सा प्रमदा । निजगाद च निजपरिचारिकाः
भनदारिकायै सुरमायें विज्ञापयामो निवेदयामः' इति विरचितः कृतो विचारो विमशों याभिस्तथाभूताश्च सत्यः सरमसमेव सवेगमेव सुरमञ्जरीसकाशं सुरमारोपाचम् अविशन् प्रविष्टा बभूवुः । अञ्जलिबन्धकरणे १० हस्तसम्पुटविधाने कातर्येण दैन्धेन कण्ठो स्पष्टमुदीरितं भयं यासा तथाभूनास्ताः पूर्वोकाः सुन्दर्य स्त्रियः सुरमञ्जरी गृहस्वामिनीम् अभ्यधुश्च कथयामासुश्च,-'भर्तृदारिक ! राजपुनि ! जशया वृद्धावस्थाया भर्तेव पतिरिव कोऽपि कश्चिद वृद्धवाह्मगः स्थविरविप्रो ब्रह्महत्याभीत्या ब्राह्मण वातभयेन अस्माभिः अभरिसतोऽनिराकृतो भिक्षायां सुतराम् अत्यन्तमुत्सुक इव अभ्यन्तरकश्यां मध्यप्रकोष्ठं प्राविक्षत् प्रविवेश' इति ।
६२११. सा चेति-सा च वरणिनी सुन्दरी सुरमञ्जरांति यावत् तास दौवारिकयोषितां वचनानामाकर्णनेन श्रवगेन तस्य वृद्धस्यावलोकने गुर्गा समुयता मतिर्मनीषा यस्त्रास्तथा भूना सती 'यतो यस्मात्कारणात् प्रागनाथी वल्लमः प्रत्यासो निकटस्थितोऽतस्ते मनोरथाः पूर्णाः' इति क्त्रणितच्याजेन रणनमिषेण मणिनू पुरेण रस्नमञ्जरीकेण प्रोत्रमानेव निगद्यमानेव, पुरसराणामप्रेसराणां मानिनीनां नारीणां या परिषत् समूहस्तयाभिधीयमानः समुश्वार्यमाण आलोकशब्दो जयध्वनिर्यस्त्रास्तथाभूता सती चरणा• २० भ्यामेत्र पादाभ्यामेव जीवितैकशरणम् एनोरहितं पापरहितम् एनम् तपस्यासमाश्रितं तपस्विजनं श्रीरिव लक्ष्मीरिव स्वयं शिश्रिये प्राप। तं प्रवनसं वृद्धम् भालोक्य सा प्रमदा सुरमारी प्रिप्रिये प्रीता चाभूत् ।
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इसी रूपमें राजपुत्रीके लिए कहे देती हैं। इस प्रकार विचार कर वे वेगसे सुरमंजरीके पास पहुँचीं। हाथ जोड़नमें दीनतासे जिनका भय प्रकट हो रहा था ऐसी उन ख्यिाने सुरमंजरीसे कहा कि 'हे राजकुमारी ! जो वृद्धावस्थाके भर्ताके समान जान पड़ता है ऐसा कोई एक वृद्ध २५ ब्राह्मण भिक्षाके लिए अत्यन्त उत्सुक होकर ही मानो भीतरी कक्षामें आ घुसा है । ब्रह्महत्याकं भयसे हम लोग उसे डाँट नहीं सकी हैं।
६२१९. उनके वचन सुननेसे उस वृद्धको देखनेकी इच्छा करती हुई सुरमंजरी स्वयं पैरोंसे उसके पास चली। चलते समय उसके मणिमय नूपुर रुणझुण शब्द कर रहे थे उससे ऐसा मालूम होता था मानो मणिमय नूपुर यही कह रहे हों कि 'तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो गये ३० क्योंकि तुम्हारा प्राणनाथ समीपमें आ चुका है। आगे-आगे चलनेवाली स्त्रियोंका समूह उसका जय जयकार कर रहा था और वह अपने प्राणनाथके संमुख इस प्रकार जा रही थी जिस प्रकार कि पापरहित तपस्वीके पास लक्ष्मी जाती है। उस वृद्धको देखकर सुरमंजरी
१. क. कक्षाम् ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ ९२० सुरमञ्जर्याः
'परिश्रमस्तावदस्य परिह्रियताम् आह्रियतामाहारादिकम् । कृतिनमेनं कृतादराः कृतकशिपुं कारयध्वं यूयम्' इति । ताश्च तद्वचनं निशम्य निशान्ताभ्यन्तरे जीवंधरमानीय तपनोयगलन्तिकोगलितपनीयतपादप्रक्षालनं प्रक्षरदाज्यं प्राज्यं भोजनं भोजयितुमारेभिरे ।
$ २२०. कुमारोऽपि तां नखचन्द्रकिरण परामर्शेऽपि विकसता चरणकमलयुगलेनोपेताम, ५ कार्कश्यरहित करियरकराकारेण कदयितेकान्तशीतलकदलीस्तम्भेन भृशमूरुद्वयेनोपशोभिताम्, दानरेखयेव मदनगन्त्रद्विनस्य कृपाणधारयेव सौभाग्यवरस्य तनुतरमध्यलताविलीन मधुकर मालायमानया रोमराजिरेखया विराजमानाम् चकासत्यपि मुखचन्द्रमण्डले संगताभ्यामिव रथाङ्गनामभ्यां
३२६
निजपरिचारिकाः स्वसेविका निजगाद कथयामास 'अस्य परिश्रमः खेद्रः तावत्साकल्येन परिद्दियतां दूरीक्रियताम् | आहारादिकं भोजनपानादिकम् आहियताम् आनीयताम् । कृतिनं कुशलम् एनम् कृतादा १० विहितसन्मानाः कृतकशिपुं कृतभोजनं कारयध्वं यूयम्' इति । सा सुरमञ्जरीपरिचारिकाः तद्वचनं
सुरमञ्जरीकथनं निशम्य वा निशान्ताभ्यन्तरे गृहाभ्यन्तरे जीवधरम् आनीय तपनीय गलन्तिकायाः स्वर्णभृङ्गाराट् गलितं पतितं यत्पानीयं जलं तेन कृतं पादप्रक्षालनं यस्मिन् कर्मणि तद्यथा स्वात्तथा प्रक्षरत् निःसरद् आज्यं घृतं यस्मात् तत् प्राज्यं प्रकृष्टं श्रेष्ठमिति यावत् भोजनं भक्तादिकम् मोजयितुं खादयितुम् आरंभिरे तत्परा बभूवुः ।
१५
$ २२०. कुमारोऽति-कुमारोऽपि जीवकोपेत कुमारों सुरमञ्जरी विलोक्य विस्मयेन स्मेरे विकसिते चक्षुषी यस्य तथाभूतः सन् 'अहो ! मदनमहाराजस्य काम महीपालस्य विजयसाधनानां विजयोपायानां समवाय इव समूह व पुषा पुरीवर्तमाना योषित् श्रोषा लक्ष्यते दृश्यते । अथ कुमार्या विशेषकान्याह - रग्वेति मखा नखत एव चन्द्रास्तेषां किरणानां रश्मीनां परामर्शेऽपि सम्बन्धेऽवि विकलता प्रफुल्लेन चरणकमलयुगलेन पादारविन्दद्वन्द्वेन उपेतां सहिताम्, कार्कश्येति कार्कश्येन काटिन्येन रहितो यः २० करिवरस्य गजराजस्य करः गुण्डा तदाकाशे यस्य तेन कर्थितः पराभूत एकान्तशीतलनियमेन शिशिरः
कम्मो मोचाम्मो येन तथाभूतेन ऊरुद्वयेन सक्थियुगलेन भृशमत्यर्थम् उपशोभितां विराजिताम्, दानेति--मदनञ्चासौ गन्धद्विपश्वेति मदनगन्धद्विपो भारमातस्तस्य दानरखयेव मदजखलेखयेव, सौभाग्यमंत्र वशे जामाता तय कृपाणधारयेव खङ्गधारयेव, सनुतरमध्य मेवाधिकृशावलग्नमेव कता वल्ली तस्यां विलीनाः स्थिता ये मधुकरा भ्रमरास्तेषां माला पतिस्तद्वदाचरन्ती तया, रोमराजिरेव रेखा तया २५ विराजमानां शोमा नाम, मुखमेव चन्द्रमण्डलं तस्मिन् वदनविधुविम्बे चकासत्यपि शोभमानेऽपि संगताभ्यां
बहुत ही प्रसन्न हुई । उसने सेविकाओंसे कहा कि इसका खेद दूर किया जाय । आहार आदि लाया जाये तथा तुम सब इस कुशल वृद्धको आदरपूर्वक भोजन कराओ'। उसके वचन सुन सेविकाएँ जीवन्धर स्वामीको महलके भीतर ले गर्यो और स्वर्णकी झारीसे झरते हुए जलसे पैर धुलाकर उन्हें जिससे घी झर रहा था ऐसा श्रेष्ठ भोजन खिलाने लगीं ।
३०
६ २२०. तदनन्तर जो नखरूपी चन्द्रमा की किरणोंका स्पर्श होनेपर सिले हुए चरणकमलों के युगलसे सहित थी । कठोरतासे रहित गजराज की सूँड के समान आकारको धारण करनेवाली एवं एकान्त शीतल केलेके स्तम्भका निराकरण करनेवाली दोनों जाँघोंसे जो अत्यन्त सुशोभित थी। जो कामरूपी मदमाते हाथी की मदरेखा के समान अथवा सौभाग्यरूप बरकी खङ्गबाराके समान अथवा अत्यन्त कृश कमररूपी लतापर बैठे हुए भ्रमरोकी पंक्ति३५ के समान दिखनेवाली रोमराजिकी रेखासे विराजमान थी । मुखरूपी चन्द्रमण्डलके सुशोभित
१. गिण्डी, इति कन्नडभाषायां स्वर्णभृङ्गार इति च संस्कृते ।
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नवसो लम्भः
૩૨૭
वृत्तान्तः ]
स्तनाभ्यामुद्भासमानाम्, पल्लविताभ्यामिवाङ्गुलीभिः कोरकिताभ्यामिवाङ्गदमौक्तिकैः कुसुमिताभ्यामिव करसं भर्वहुलताभ्यां विराजमानाम्, मदनारोहलीला डोलायमानया कपाशश्रियालंकृताम् तिलकुसुमसमान रूपन्दसागरवुदायमानया नासया समेताम्, विकचविच किल्कुसुमाकीर्णकेशकलापाम् तारकिताम्बरामिव विभावरीम् कल्पलतामिव कामफलप्रदाम् जान कोमिय रामोपशोभिताम्, समुद्रवेलामिव विचित्ररत्नभूषिताम् नारीजन - ५ तिलकभूतां कुमारी त्रिलोक्य विस्मयस्मेरचक्षुः 'अहो मदनमहाराज विजयसाधनानां समवाय इव या लक्ष्यते ।
६ २२१ तथा हि- तस्य धनुर्यष्टिरिव भ्रूलते, मधुकरमालामयी ज्येव नीलालकद्युतिः, मिलिनाभ्यां रथाङ्गनामभ्यामिव चक्रवाकाभ्यामित्र स्तनाभ्यां कुचाभ्याम् उद्भासमानां शोभमानाम्, अनुलोभिः कराखाभिः पल्लविताभ्यामित्र किसकययुक्ताभ्यामित्र अङ्गदम कि है: केयूरमुक्ताफलैः कोर- ६० किताभ्यामिव कुङ्मलिताभ्यामिव करसंभवैर्नखैः कुधुमितास्यामित्र पुष्पिताभ्यामिव बाहुलताभ्यां भुजवल्लीभ्यां विराजमानां शोभमानाम्, मदनारोहस्य कामाधिष्ठानस्य लीलाडोला क्रीडान्दोलिका तदाचरन्त्या कर्णपाशश्रिया कर्णालङ्कारलक्ष्म्या अलंकृतां शोभिताम्, विकसितेन प्रफुल्लेन तिलकुसुमेन क्षुरक
समानया सदस्या रूपसौन्दर्य मैत्र सागरो लावण्यजलधिस्तस्य बुदबुदायमानया बुदसंनिभया नासया प्राणेन समेत सहिताम्, विकचानि विकसितानि चानि विचक्लिकुसुमानि मल्लिकापुष्पाणि १५ तैरवकीर्णो व्याप्तः केशकलापो यस्यास्ताम्, अतएव तारकितं नक्षत्रतमम्बरं गगनं यस्यां तथाभूतां विभामिरजनीमिव कल्पलतामित्र कल्पवल्लीमिव कामफलप्रदाम् इच्छानुरूपफलदायिनी पक्षे काम एव फलं ददातीति तथा मदनरूपफलदायिनी ताम्, जानकीमित्र सीतामिव रामेण दाशरथिनोपशोभिता ताम् पक्षे रामाभिः स्त्रीभिरुपशोभिता सामू, समुद्र वेलामित्र तोयधितटीभित्र विचित्ररत्नैर्नानामणिभिर्भूषिता ताम् एकग्राभरणरत्नैरलङ्कृता पक्षे रत्नाकरोत्पन्नैर्नानारत्नैरलंकृता च नारीजन तिव किभूतां ललनाकुल- २० तिळकरूपाम् ।
$ २२१ अथ तस्या -- मदनमहाराज विजयसाधनानां समवायत्वं साधयितुमाह तथा हाँसि 'तस्य मदनमहाराजस्य धनुर्यष्टिरिव चापयष्टिरिव झूलते अकुटिल, मधुकर मालामयो भ्रमरतिनिर्मिता रहनेपर भी मिले हुए चक्रवोंके समान दिखनेवाले स्तनोंसे जो सुशोभित थी । अंगुलियों से पल्लवित के समान, बाजूबन्दोंके मोतियोंसे बोड़ियोंसे युक्तके समान और नखाँसे पुष्पितके २५ समान दिखनेवाली भुज लताओंसे जो सुशोभित थी। जो कामदेव के चढ़नेकी डोली के समान आचरण करनेवाली कर्णपाशकी लक्ष्मीसे अलंकृत थी । खिले हुए तिलके फूल के समान अथवा रूप और सौन्दर्य के सागर के बबूलेके समान दिखनेवाली नाकसे सहित थी । जिसके बालोंका समूह खिले हुए विचलिके फूलोंसे व्याप्त था और उनसे जो ताराआंसे युक्त आकाशसे सहित रात्रिके समान जान पड़ती थी। जो कल्पलता के समान कामरूपी फल ३० ( पक्ष में वाछित फल ) को देनेवाली थी। सीता के समान रामोपशोभिता - रामसे सुशोभित ( पक्ष में रामाओं - स्त्रियों में सुशोभित ) थी । समुद्रकी वेला के समान नाना प्रकार के रत्नोंसे त्रिभूषित थी और जो स्त्रियोंके तिलकके समान थी ऐसी कुमारी - सुरमंजरीको देखकर आश्चर्य से जिनके नेत्र विकसित हो रहे थे ऐसे जीबन्धरकुमार विचार करने लगे कि 'अहो ! यह स्त्री तो कामरूपी महाराज के विजय साधनोंके समूह के समान जान पड़ती है। § २२१. देखो न, उसके धनुर्दण्डके समान इसकी भ्रुकुटिलताएँ हैं, भ्रमरपंक्तिरूप डोरीके १. ० दोला । २. मल्लिका, इति टि० ।
३५
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गद्यचिन्तामणिः
[ २२१ सुरमर्याःअस्त्राणीवापाङ्गविक्षेपाः, वैजयन्तीदुकुलमिव दशनमयूख जालकम्, प्रियमुहदिव मलयानिलो निःश्वासमारुतः, परभृतबलमिवातिमञ्जुलमालपितम्' इत्याकलयन्नन्तःस्फुरदाहादः, परिजनानीतं पवित्रमासनमध्यास्य कथमपि वार्द्धकेनेव कतिचन कबलानि शनर शित्वा पुनरशनक्लेशमपनेतुमिव महनीयं किमपि शयनीयमारुरुक्षत् । अशयिष्ट च किल तत्रैव यथेष्टम् । कुमारी च ५ सा कुतुहलप्रतिताविनोहर्तमानं तत्रैवातिवाह्य 'भशमशनक्लेशितोऽयमन जन्मा स्यात् ।
उग्रतरव्यसनवाधिवर्धनेन्दुः खलु वार्द्धकं च। अतः स्वैरमनेन सुप्यताम् । न लुप्यतामस्य निद्रा' इति निगदन्ती निवारितपुरुषदर्शनयापि मया दृष्टोऽयं विशिष्ट वृत्तः। कदाचिदेवमपि नाम
ज्येव मोवीय नीलालकद्यतिः श्यामल कुन्तल कान्ति: अस्त्रागीय शस्त्राणीव अपाङ्गविक्षेपाः कटाक्षप्रसराः,
वैजयन्तीदुकूल मिय पताकापट इव दशनमयूखजालकं रदनरश्मिसमूहः, प्रिय सुहृत् प्रियमित्रं मलयानिक व १० मलयमारत इव निवासमारुतः श्वासोच्छवासपवनः, परभृतरलमिव कोकिलसैन्यमिव अतिमञ्जलं
मनोहरमालपितं शब्दः' इतीस्थम् आकलयन् विचारयन् , अन्तमध्ये स्फुरन् प्रकटी भयन् आह्लादो हर्षो यस्य तथाभूतः सन् परिजनेन परिकरलोकेनानीतं परिजनानीतं पवित्रं पूतम् आसन विष्टरम् अध्यास्य तत्रोपविश्य कथमपि केनापि प्रकारेण काठिन्येनेति भावः वाईकेनेव जस्येव कति दन कियन्स्यपि कबलानि प्रासान
शनैमन्दम् अशिया भुक्त्वा पुनरनन्तरम् असनक्लेशं भोजनपरिश्रमम् अपनेतुमित्र महनीयं शोमनीयं किमपि १५ शयनीयं कामपि शय्याम् आरुरुक्षत् तत्रारूढो बभूव । अशयिष्ट च शिश्ये च किल सत्रैव शयनीये यथेष्टं
यथेच्छम् । कुमारी च सा सुरमञ्जरी च कुतूहलेन प्रवर्तिताः कृतास्तर्वार्ता विनोईः अभिभाषणविनोदैः मुहर्तमानं कालं तत्रैव तत्समीप एव!विधाय व्यपगमय्य 'अयम् अग्रजन्मा विषो भृशमत्यर्थम् अशनेन भोजनेन क्लेशितो दुःख प्रापितः स्यात् । खलु निश्चयन वाकं च स्थविरत्वं च उग्रतव्यसनमंत्र तीबदुःखमेव
वाधिः सागरस्तस्य वर्धनाय विज़म्मणायेन्दुश्चन्द्रः । मतोऽस्माइतोः अनेन विप्रेण स्वैरं स्वेच्छं यथा स्यात्तथा २० सुप्यताम् शीयताम् । अस्य निद्रास्वापो न लुप्यताम् हियताम्' इति निगदन्ती कथयन्ती निवारितं निरुवं
पुरुषस्य पुंसो दर्शनं येन तथाभूतयारि मया विशिष्ट वृत्तं चारित्रं यस्य तथाभूतोऽयं जनः दृष्टो विलोकितः ।
समान इसके काले केशोंकी कान्ति है, अस्त्रोंके समान इसके कटाके विक्षेप हैं, पताकाके वस्त्रके समान दाँतीकी किरणावली है, प्रिय मित्र मलय समीर के समान इसके श्वासोच्छवासकी वायु है,
और कोयलोंकी सेनाके समान इसका अत्यन्त सुन्दर वार्तालाप है । इस प्रकार विचार करते२५ करते जिनके हृदय में अत्यन्त आह्लाद उत्पन्न हो रहा था ऐसे जीवन्धरकुमारने परिजनों के
द्वारा लाये हुए पवित्र आसनपर बैठकर बुढ़ापेके कारण ही मानो किसी तरह धीरे-धीरे कुछ ग्रास खाये और उसके बाद भोजनसम्बन्धी क्लेशको दूर करने के लिए ही मानो वे किसी सुन्दर शय्यापर आरूढ हो गये और वहीं इच्छानुसार सो गये। कुमारी सुरमंजरीने भी
कुतूहलवश किये हुए वातोसम्बन्धी विनोदासे एक मुहूते वहीं बिताया। तदनन्तर 'यह ३० ब्राह्मण भोजनके कारण अत्यधिक क्लेशको प्राप्त हुआ है। यथार्थमें चुढापा अत्यन्त तीत्र
दुःस्वरूपी सागरको बढ़ाने के लिए चन्द्रमा है अतः इसे इच्छानुसार सोने दिया जाय । इसकी निद्रा भंग न की जाय' इस प्रकार कहती हुई वह सखियों के साथ वहाँ से प्रयाण कर दूसरे स्थानपर चली गयी। जाते समय उसे इस प्रकारका पश्चात्ताप हो रहा था कि यद्यपि मैंने पुरुपका देखना छोड़ रखा था तथापि मैंने विशिष्ट वृत्तको धारण करनेवाला यह पुरुप देखा
१. क० ख० ग० 'च'नास्ति ।
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वृत्तान्तः ]
नवमी कम्मः
तज्जनदर्शनमपि संभवेत्, यो नाम चूर्णपरीक्षायामुपैक्षिष्ट माम्' इत्यनुशयाविष्टा सह सखीभिस्ततः प्रयान्ती प्रदेशान्तरं प्रापद्यत ।
$ २२२. अब कुमारस्वेरगानावसरदान लम्पटतयेव लम्बमाने सौरबिम्बे, सुरमञ्जरीकरपीडोत्सुकसौनन्देयरागप्राग्भार इव बहुलतया बहिर्गते स्फुरति संध्यारागे, गगनकेदारविकीर्यमानतिमिरबीजनिकर इव नोडसनीडाभिमुखमुडायिनि काकपेटके प्रेक्ष्यमाणे प्रासादवातायन- ५ विवरनिर्यदगुरुधूमोत्करेणेतिमिरान्धकारेणेव नीरन्ध्रीभवति वियदन्तराले, वलभिनिविप्रवारयुवतिधम्मिल्लमल्लिकासूजा सृज्यमानायां प्रतिदिशं चन्द्रातपच्छेदशङ्कायाम्, प्रज्वलन्तर्गत प्रदीपसना
३२९
कदाचिज्जातुचिद् एवमपि नामेति संभावनायां स वासी जनश्चेति तज्जनो जीवरस्तस्य दर्शनमपि संभवेत्, दो नाम चूर्ण परीक्षागुणणे उपेति चकार' इति अनुशयेन पश्चात्तापेनाविटा समाक्रान्ता सखीभिराठीभिः सह ततः स्थानात् प्रयान्ती प्रतिष्ठमाना सती प्रदेशान्तरं स्थानान्तरं १०
प्रापद्यत प्राप ।
२२२, अथेति - अधानन्तरं कुमाराय स्वैरगानस्य स्वच्छन्दगानस्यावसरदानाय समयवितरणाय कम्पटतयेव लम्पाकतयेत्र सौरबिम्बे दिनकरमण्डले माने सति, सुरमञ्जर्याः करपीडायां पाणिग्रहण उत्सुक उत्कण्तिो यः सौनन्देयः सुनन्दासुतो जीवंधरस्तस्य रागप्राग्भार इव प्रीतिसमूह इव बहुलता भूयिष्ठत्वेन हि बहिः प्रकटिते संध्यारागे सायंकाळिकारुणिमनि स्फुरति प्रक्टीभवति, गोड कुलायैरुप- १५ लक्षिता ये सनीडा वृक्षास्तेषामभिमुखं संमुखमुद्दीयत इत्येवंशीलस्तस्मिन् काकपेटके व्यास गृहे गगनमेव नम एव केदारः क्षेत्रं तस्मिन् विकीर्यमाणानां प्रक्षिप्यमाणानां तिमिरबीजानां ध्वान्तबीजानां निकर छव समूह छत्र प्रेक्ष्यमाणे दृश्यमाने, प्रासादानां राजसदनानां वासायनविवरेभ्यो गवाक्षरन्ध्रेभ्यो निर्यन् निर्गच्छन् योऽगुरुधूमोट्करोऽगुरुवन्दनधूम्रसमूहस्तेन तिमिरान्धकारेणेव गाढध्वान्तेनेव विषूदन्तराळे नभोऽन्तरे नीरन्ध्रीभवति निश्छिदीभवति, वलभिषु गोपानसीषु निविष्टाः स्थिता या वारयुवतयो रूपाजीवः स्तासां धमिलानां २० केशबन्धानां महिलकास्त्र मल्लिकामाला तथा जातिवादेकवचनत्वम् दिशां दिशां प्रतीति प्रतिदिशं प्रतिकाष्टं चन्द्रापस्य चन्द्रिकायाश्छेदाः खण्डानि तेषां शङ्कायां संशीतौ, सृज्यमानायां क्रियमाणायाम्, प्रज्वलद्धि
है । किसी समय क्या इसी तरह उस पुरुषका दर्शन भी सम्भव हो सकेगा जिसने कि चूर्णपरीक्षा में मेरी उपेक्षा की थी' ।
२२२. तदनन्तर सूर्यका मण्डल नोचेकी ओर ढल गया जिससे ऐसा जान पड़ता २५ था मानो कुमार के लिए स्वच्छन्दता पूर्वक गानेका अवसर देने के लिए उत्सुक होनेके कारण ही वह ढल गया था । सन्ध्याकी लालिमा फैल गयी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो सुरमंजरीके विवाह के लिए उत्सुक जीवन्धरकुमार के रागका समूह हो अधिक होनेके कारण बाहर निकलकर फैल गया हो। कौओंके समूह घोंसलोंके समीप सम्मुख उड़ते हुए दिखाई देने लगे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी खेत में बिखेरे जानेवाले अन्धकार के ३० arrier समूह ही हो । आकाशका मध्यभाग सघन अन्धकारके समान महलोंके झरोखों के छिद्रों से निकलते हुए अगुरुचन्दन के घूम के समूह से व्याप्त हो गया । छपरियों में बैठीं वेश्याओं-. के केशपाश में गुर्थी मालतीकी मालाओंसे स्थान-स्थानपर चाँदनी के खण्डोंकी शंका उत्पन्न होने लगी । भीतर जलते हुए देदीप्यमान दीपकों से सहित महल सायंकालिक नियम और
-
१. म० अगरुधूपत्करेण । २. म० प्रतिदेशम् ।
४२
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गचचिन्तामणि
[ २२२ सुरमम्ज:थेषु सायन्तननियमध्यानाग्निसंयुक्तसंयतेष्विव जातेषु सोधेषु. दुर्दशां स्वान्तेष्विव तमसाक्रान्तेषु दिगन्तेषु, क्रमेण च मदनमहाराजश्वेतातपत्रे रजनीरजतताटङ्के स्फटिकोपलघटितमदनशरमार्जनशिलाशकलकल्पे पुष्पबाणाभिषेकपूर्णकलशायमाने सर्वजनानन्दकारिणि रागराजप्रियसुहृदि राजति
रोहिणीरमणे, दुग्धोदधिशोकरैरिव घनसारपरागैरिव मलयजरसविसरैरिब पीयूषफेनपिण्डैरिव ५ पारदरससरिद्धिरिव स्फटिकरेणुभिरिव मदनानलभस्मभिरिव रजनीकरकरनिकरैरापूरिते भवनविवरे, विकचकैरवपरिमलमिलितालिकुलझंकारविरचितविरहि जनतापे मधुमदमत्तमत्तकाशिनीकेशकलापकुसुमामोदामोदितदशदिशि समाध्मापितप्रद्युम्नपावके मन्दमन्दमावाति मातरिश्वनि,
दीप्यमानैरन्तर्गतप्रदीपैमध्यस्थितप्रदीपैः सनाथाः सहितास्तेषु सोधेषु प्रासादेषु सायन्तननियमेषु
सायंकालिनियमेषु ध्यानाग्निदा ध्यानानलेन संयुक्ताः सहिता ये संयता मुनयस्तेवित्र जातेषु, दिगन्तेषु १० काष्टान्तेषु दुर्दशां मिथ्यादृष्टोनां स्वान्नेविव वित्तेष्विव तमसा मोहेन पक्षे तिमिरेणाकान्तेषु सरसु, क्रमेण
च क्रमशश्च मदनमहाराजस्य कामभूपालस्य श्वेतातपने सितातपवारणे, रजन्या निशाया रजततारके रूप्यकरण्टक, स्फटिकोपलन घोटत निति यद् मदनस्य मारस्य शरमार्जनशिलाशकलं वाणोत्तेजनशिलाखण्डम् ईषदूनं तदिति स्फटिकोपकघटितशरमार्जनशिलाशकल्पस्तस्मिन् , पुपयाणस्य कामस्य योऽभिषेक
स्नपनं तस्त्र पूर्णकलश इवाचरतीति पुष्पाणाभिषेकपूर्णकल शायमानस्तस्मिन् , सर्वजनानन्दकारिणि १५ निखिलनरहर्षविधायिनि, राग एव राजा रागराजतस्य प्रियसुहृस्प्रियमित्रं तस्मिन् , रोहिणीरमणे चन्द्रमसि
राजति शोममाने, दुग्धोदधिशीकरैरिव पयःपयोधिपृषताभिरिख, घनसारपरागैरिय कर्पूरचूर्णरिच, मलयजरस. विसरैरिव पाटोरनिःश्याम्पसमूहरिब, पीयूषफेनपिण्डैरिव सुधादिण्डीरसमूहैरिव पारदरसस्य सूदरसस्य सरिद्भिरिव नदीमिरिख, स्फटिकः सितमणिस्तस्य रेणुभी रजोभिरिव, मदनानलमस्मभिरिव स्मराग्निभूतिमि
रिव, रजनीकरकरनिकरः शीतरश्निरश्मिराशिमिः भुवनविवरे जगदन्तराले आरिते संभरिते, विकचानां २० विकसितानां कैरवाणां कुमुहानां परिमलेन विमदोत्यसौरभ्येण मिलितानि संगतानि यान्यलि कुलानि
भ्रमरसमूहस्तस्प झंकारेण गुञ्जनशब्देन विरचितो विहिसो विरहिजनानां विप्रयुगपुरुषाणो तापः खेदो ग्रेन तस्मिन् , मधुमदेन मद्यमदेन सत्ता या मत्तकाशिन्यः सुन्दयस्तासां केशकलापेषु शिरसिजसमूहेषु विद्यमानानि बानि कुसुमानि पुराणि षामामोदेनातिनिहारिगन्धेनामोदिताः सुरमिता दश दिशो दश काटा येन तस्मिन्,
समा:मापितः प्रचण्डी कृतः प्रद्युम्नपावकः स्मर हुताशनो येन तस्मिन् , मातरिश्वनि पपने मन्दमन्दं शनैः शनैः २५ ध्यानरूपी अग्निसे सहित मुनियों के समान जान पड़ने लगे। दिशाओंके अन्तिमतट मिथ्या
दृष्टि जीवोंके हृदयोंके समान अन्धकार ( पक्ष में मोह ) से आक्रान्त हो गये। क्रम क्रमसे जो मदनरूपी महाराजका सफेद छत्र था, रात्रिरूपी लीका चाँदीका कर्णाभरण था, जो कामके बाणों के साफ करनेके लिए स्फटिक पाषाणसे निर्मित शिलाके एक खण्डके समान था, काम
देवके अभिषेकके लिए निर्मित पूर्ण कलशके समान जान पड़ता था, सब मनुष्योंको आनन्द ३० उत्पन्न करनेवाला था, और रागरूपी राजाका प्रिय मित्र था ऐसा चन्द्रमा सुशोभित होने
लगा । संसारका मध्यभाग चन्द्रमाकी उन किरणों के समूहसे व्याप्त हो गया जो क्षीरसमुद्र के जलकणोंके समान, कपूरको परागके समान, चन्दनरसके समूह के समान, अमृत के फेनपिण्डके समान, पारेके रसकी धाराके समान, स्फटिककी धूलिके समान, अथवा कामाग्नि
की भस्मके समान जान पड़ते थे। खिले हुए कुमुद्रोंकी सुगन्धिसे एकत्रित भ्रमर समूहकी १, झंकारसे बिरही जनोंको सन्ताप उत्पन्न करनेवाली, मधुके नशासे मत्त स्त्रियोंके केश-कलापमें
लगे हुए फूलों की सुगन्धिसे दशों दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली; एवं कामरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेवाली वायु धीरे-धीरे बहने लगी। हृदयको भेदनेवाला कामदेव धनुष चढ़ाकर
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-गृतान्तः ]
नवमोहम्मः
३३१ समन्ततः संचरति समारोपितकार्मुके हृदयभिदि कन्दर्प, संभोगलम्पटदम्पतिसमाजसंभवत्मणिभूषणरणितशब्दमात्रावशेषिते धात्रीतले, पवित्रकुमारः कुवलयैकमोहन गानमतानीत् ।
२२३. गानविद्याविश्रुतस्य तामुपश्रुत्य गोतिम् 'किं नु किनराः किमुत नराः कि स्विदमरा वा जगत्यनुपमेयं गायन्ति ।' इत्याहितात्याहितभरा परितः प्रहितनेत्रा तत्र सर्वत्राप्य. परमपश्यन्ती सेयं वैश्यपतिसुतावश्यं मन्त्रसिद्धमेनं वृद्धमेव विभाव्य गायकं सह्यायिनीभिरमा ५ तत्यान्तं प्राविक्षत् । अप्राक्षीच्च 'प्रक्षीणाङ्गस्य ते गोतिरियं प्रत्यक्षस्मरं स्मरयति जीवंधरम् । कस्मादियमनवद्या गानविद्या विद्वम्नुपलब्धा, यच्छक्तित: शमिनि वयस्यपि सर्वलोकश्राव्येयं
आवात वहति समारोपितं सप्रत्यञ्चकृतं कार्मुकं धनुर्यन तस्मिन् हृदयभिदि मनोभिदि कन्द कामे समन्तत: परितः संचरति सति, धात्रीतले भूपृष्ठे सम्भांगे सुरते लम्पदः संलग्नी यो दम्पतिसमाजो मिथुनसमूहस्तस्य संभवन् समुत्पद्यमानो मणिभूषणानां रत्नालंकरणानां यो रणितशब्दः स एवेति संमोगलम्पट- १० दम्पतिसमाजसंमवन्मणिभूषणरणितशब्दमानं तेनावशेषिते सति, पवित्रकुमारो जीवंधरः कुवलयैकमोहनं भूमण्डलप्रमुखमोहनं गानम् अतानीत् विस्तारयामास ।
६२२३. गान विद्यति-गान विद्यायां विश्रुतो विख्यातस्तस्य तां पूर्वोक्का गीतिम् उपश्रुत्य पावें समाकण्य 'किमिति प्रश्ने 'नु' इति वितके किन्नरा देवविशेशः किमुत नरा मनुष्याः किंस्वित् श्रमरा वा गीर्वाणा वा जगति लोकेऽनुपमेयमुपमातीतं गायन्ति । इतीत्यम् भाहितो धृतोऽस्याहितभर आश्चर्यसमूहो १५ यया सा परितो विष्वग प्रहितनेत्रा प्रेरितनयना तत्र सर्वत्रापि अपरमन्यम् अपश्यन्ती अनवलोकयन्ती सा प्रसिद्धा इयं वैश्यपतिसुसा सुरमन्जरी अवश्यम् सिद्धी मन्त्री यस्य तं मन्त्रसिद्ध. 'वाहिताग्न्यादिषु' इनि परनिपातः अथवा मन्त्रे मन्त्रविश्य सिद्धं कृतार्थम् मन्प्रसिद्धम् एवं धृद्धमेव स्थविरमेव गायकं गानकार विमान्य निश्चित्य सहयायिनीभिः सहयरीभिः अमा सार्धम तरप्रान्तं तत्प्रदेशं प्राविश्नत् । अप्राक्षीच्छ पप्रच्छ छ 'प्रक्षीणमङ्गं यस्य तस्य वृद्धस्थ ते इयं श्रयमाणा गीति: प्रत्यक्षस्मरं साक्षास्कामदेवं जीवंधरं २० स्मारयति । हे विद्वन् ! हे विज्ञ ! इयम् अनवद्या निर्दुष्टा गानविद्या कस्मात् उपलब्धा प्राप्ता यच्छक्तितो यदीयसामर्थ्यात् शमिनि क्यस्यपि वृद्धावस्थायामपि सर्वलोकैः श्राध्या श्रीतुमर्हा इयं दिव्यगीतिः
सब ओर घूमने लगा और पृथिवीतलपर जब संभोगमें उत्सुक स्त्री-पुरुषोंके मणिमय आभूषणोंसे उत्पन्न शब्द ही शेष रह गया तब पवित्रकुमार-वृद्धवेषधारी जीवन्धरस्वामीने पृथिवीतरको अत्यन्त मोहित करनेवाला गान विस्तृत किया।
६२२३. गान विद्या प्रसिद्ध जीवन्धरस्वामीके उस गानको सुनकर 'संसारमें अनुप- . मेय इस गानको क्या किन्नर गा रहे हैं ? या मनुष्य गा रहे हैं ? या देव गा रहे हैं। इस प्रकार जो अत्यन्त आश्चर्य धारण कर रही थी, जो नेत्रोंको चारों ओर प्रेरित कर रही थी और वहाँ सभी जगह जो जीवन्धरस्वामीको छोड़ अन्य किसीको नहीं देख रही थी ऐसी वैश्यपतिकी पुत्री सुरमंजरी मन्त्रको सिद्ध करनेवाले उस वृद्धको ही गायक समझ सखियोंके साथ ३० उसके समीप गयी | जाकर उसने पूछा भी कि 'यद्यपि आपका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है तथापि आपका यह गान प्रत्यक्ष कामदेव जीवन्धरकुमारका स्मरण करा रहा है । हे विद्वन् ! यह निर्दोष गान विद्या आपने किससे प्राप्त की है ? जिसकी कि सामयसे इस वृद्धावस्था में भी समस्त लोगोंके श्रवण करने के योग्य यह दिव्य गान आपको प्राप्त है ? आपके पास अन्य अभिलपित वस्तुको भी प्राप्त करने का उपाय होगा? यदि यह बात गोपनीय नहीं है तो मुझे ३५ यहाँ उत्तर प्राप्त होना चाहिए ।' सुरमंजरीके प्रश्नसे जिनका हर्ष बढ़ रहा था ऐसे वृद्ध वेष
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३३२
गद्यचिन्तामणिः
[२२४ सुरमजः
दिव्यगीतिः । भवत्यपि नामान्यदप्यभोप्सितमुपलब्धमुपायोऽस्ति । न चेदिदं गोप्यमत्र प्राप्यमुत्तरम्' इति । तदनुयोगसंवर्धितहर्षः स वर्षीयानपि वार्द्धक मुन्नाटयनुपधानात्कथंचित्किचिदुद्धृतोतमाङ्गः प्रक्षीणपक्षमकमझियुगमप्यतिप्रयासादिवोन्मोल्य कफावगुण्ठितकण्ठलाघव इव मुहुः खाकृत्य घर्घरेण स्वरेण स्वमनीषितोत्पादनापयिकमुपचक्रमे वक्तुम्–'बाले, हेलया गानमिदं ५ साध्यम् । असाध्यमन्यदपि हस्तस्थं पश्य विश्वस्य मद्वचनमनुष्ठातुं यदि नाम पटिष्ठासि' इति ।
२२४. तद्वचत्वञ्चितया सुरमजर्याप्यजलिबन्धेन 'बन्धुप्रिय, को नाम बराको जनः । परहितपरैराख्याते वचसि वैमुख्यमुद्वहति ।' इति सदैन्यं सप्रश्रयं च प्रणीतः पुनरयं प्रणिनाय 'तहि श्रूयताम् । इहास्ति समस्त वरदानदक्षस्य साक्षात्कृताङ्गस्य किमप्यनङ्गस्यायतनम् । अद्य
सुन्दरगीतिः। भवत्यपि स्वय्यपि नामेति संभावनायाम् अन्यत् इतरद् अपयमीपिसतमिष्टमुपलधुं प्राप्तुम् १० उपायोऽस्ति ! न चेद्यदि इदं वृत्तं गोप्यमन्तर्धानीयं तर्हि अन्न विषये उत्तरं पाप्यं लभ्यम् इति । तस्याः
सुरमजर्या अनुयोगेन प्रश्नेन संवर्धितो हों यस्य तथाभूतः स वर्षीयानपि वृद्धोऽपि वाईकं वृद्धत्वम् उन्नाटयन् प्रकटयन् उपधानाच्छिरोधानात् कश्चित्केनापि प्रकारेण किञ्चिदीषद् उद्धृतमुत्तमा शिरी येन तथाभूतः सन् प्रक्षीणे पक्ष्मणो ययोस्तथाभूतम् अक्षियुगलमपि नेत्युगलमपि अतिप्रयासादिव खेदातिशया
दिव उन्मील्य कफनावगुण्ठितं तिरोहितं कण्ठलाघवं गल चातुर्य यस्य तथाभूत इव मुहुर्भूयः खाट्कृत्य १५ खाडिति कृत्वा धर्धरेण अव्यक्तन स्वरेण स्वमनीषितस्य स्वाभिलषितस्योत्पादनम् उपाय एवौपयिक वक्तुं
निगदितुम् उपचक्रमे तत्परोऽभूत्-'बाले ! मुग्धे! इदं गानं हेलयानायासेन साध्यं साधयितुमहम् । अन्यदपीतरदपि असाध्यं कठिनं कृत्यं विश्वस्य सर्वस्य हस्तस्थं पाणिस्थं पश्य यदि मचनम् अनुष्टातुं कर्तुम् अतिशयन पट्वीति पटिष्टातिचतुरा असि' इति ।
६२२४. तद्वचनेति-तस्य वचनेन वञ्चितया प्रतारितया सुरमर्यापि अजलिबन्धेन पाणिपुट२० अन्धेन 'बन्धुःप्रिय ! हे इष्टप्रिय ! को नाम वराको दयनीयो जनः परहितपरः परकल्याणोयतैः श्राख्याते
कथिते वचसि मुख्यं प्रातिकूल्यम् उदहति । इतीत्थं सदैन्यं सप्रश्रयं सविनयं च प्रणीतः प्राप्तोऽयं वृद्धः पुनः प्रणिनाय प्रणीतवान्-'तहिं भूयतां समाकर्ण्यताम् । इह नगर्या समस्तवराणां निखिलाभिलषितानां दाने दनः समर्थस्तस्य, साक्षात्कृतं प्रत्यक्षदृष्टमङ्गं शरीरं यस्य तथाभूतस्य अनङ्गस्य मीनकेतनस्य किमपि
धारी जीवन्धरने भी बुढ़ापेका अभिनय करते हुए किसी तरह तकियासे अपना सिर ऊपर २५ उठाया, बिरूनियोंसे रहित नेत्रयुगलको भी बड़े कष्टसे मानो खोला और कफके द्वारा कण्ठका हलकापन तिरोहित होने के कारण हो मानो उन्होंने बार-बार खकारा। तदनन्तर घर्घर स्वरसे अपने अभिलपित कार्यको उत्पन्न करनेवाले उपायको कहने के लिए वे उद्यत हुए। वे कहने लगे कि 'हे बाले ! यह गान तो अनायास ही सिद्ध किया जा सकता है। यदि तू विश्वास कर
मेरे बचनका पालन करने के लिए समर्थ है तो अन्य असाध्य कार्य भो अपने हाथमें हो ३० स्थित देख।
२२४. उनके वचनोंसे ठगी सुरमंजरीने भी हाथ जोड़कर दीनता और विनयके साथ कहा कि 'हे बन्धुप्रिय ! ऐसा कौन दीनजन होगा जो. परहितमें तत्पर रहनेवाले मनुष्यों के द्वारा कहे हुए वचनमें विमुखताको धारण करेगा?' इस प्रकार सुरमंजरीके कहनेपर जीवन्धरकुमार फिर कहने लगे 'यदि ऐसा है तो सुनो, यहाँ समस्त वरोंके देनेमें समर्थ एवं शरीर.
१. म० धृयताम् तहि ।
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- वृत्तान्तः]
नवमो लम्मः
वा श्वो वा समुपस्थाय' तद्गोष्ठं यशुपतिष्ठेयास्तमनन्यजं किमन्यदुदीर्यते कार्यत एव द्रक्ष्यसि । * एव कातिमखिलंग कागदेगः साध्येत्' इति । सा च स्त्रीजनसुलभचापल्याद्भवितव्यताप्राबल्याच्च 'तथा' इति प्रतिश्रुत्य प्रातरेव गन्तुमुदमनायत ।
२२५. अथ सुरमञ्जरीपरिरम्भणपर्युत्सुकतया परिगतान्ध्यस्य जीवंधरस्य तर्दकस्यामपि त्रियामायां सहसूयामता प्रतिपद्य कथमपि प्रयातायाम्, उदिते वृद्धेन समं सवितरि, पितरं ५ मातरं बन्धुसमाजं च संवादयन्ती समारूढशकटेन तेन कपटवृद्धेन समं समारुह्य चतुरन्तयानं सखीभिः साकं सा कन्यका तदनन्य जावासमाससाद । तत्र च सादरविधीयमानसप-विधेविषमेषोः संनिधी सास्तिक्यमस्यामास्थितायाभयमन्त्यवयस्क स्तामामन्त्र्य 'वासु, प्रसादितोऽयमुपासना
आयतनं मन्दिरमस्ति । अद्य श्वो वा समुपस्थाय तत्समीपं गत्वा तद्गोष्ठं कामायतनं यदि उपतिष्ठेथास्तर्हि तममनन्यजं तं कामम् अन्यत् किम् उदीर्यते । कार्यत एव दक्ष्यसि । तत्क्षण एव तत्काल एवं स १० कामदेवः भखिलं कामितं मनोरथं साधयेत् ।' इति । सा च सुरमञ्जरी च स्त्रीजनसुलभचापल्याल्ललनाजन. सुलमयञ्चलस्वाद् भवितव्यताया नियतेः प्राबल्यू तस्माच्च 'तथा' इति प्रतिश्रुत्य प्रतिज्ञाप प्रातरेव प्रत्यूष एव गन्तुम् उदमनायत समुत्कपिटतोऽमृत् ।
६२२५. अथेति-अथानन्तरं सुरमञः परिरम्भणे समालिङ्गने पयुत्सुकतया समुस्कष्ठित तया परिगत परिमाप्तमान्ध्यं यस्य तथाभूतस्य जीवंधरस्य तदा तस्मिन् काले एकस्यामपि त्रियामायां रजन्यां १५ सहस्रयामतो सहस्रप्रहरवस्वं प्रतिपद्य लब्ध्वा कथमपि केनापि प्रकारेण प्रयातायां व्यतीतायां सत्याम्, वृद्धेन स्थविरेण समं साधं सवितरि सूर्य उदिते सति, पितरं जनक मातरं जननी बन्धुसमाजं च सनामिसमूह च संवादयन्ती यथार्थ कथयन्ती समारूढं समधिष्ठितं शकटमनो येन तेन समारूढशकटेन तेन कपटेन वृद्धस्तेन मायास्थविरण समं सार्धम्, चतुरन्त यानं शिविकां समारुह्य सीमिः साकं सा कन्यका सुरमजरी स चासावनन्यजावापश्चेति तदनन्यजावारूस्तम् कामदेवायतनम्, आससाद प्राप । तन च कामदेवायतने २० सादरं विधीयमानः क्रियमाण: सपर्याविधिः पूजाविधियस्य तस्य विषमषोः कामस्य संनिधौ समीपे अन्य सुरमजया सास्तिक्यं सश्रद्धं यथा स्यात्तथा आस्थितायां विद्यमानायाम् अन्त्यं वयो यस्य तथाबद्धो वृद्धत्वोपेतोऽयं जीवंधरस्तां सुरमन्जरीम् आमभ्य भाकार्य 'वासु ! सुन्दरि ! अयं पञ्चरो मीनध्वज को साक्षात् धारण करनेवाले कामदेवका कोई मन्दिर है ! आज या कल यहाँ से उठकर यदि तू उस मन्दिर में उपस्थित होगी तो और क्या कहा जाय कार्यरूपसे ही उस कामदेवका २५ दर्शन करेगी । वह कामदेव उसो क्षण समस्त मनोरथको सिद्ध कर देगा। स्वीजन सम्बन्धी चपलतासे अथवा होनहारकी प्रबलतासे वह सुर मंजरी 'तथास्तु' कह बड़े सवेरे ही वहाँ जानेके लिए उत्कण्ठि गयी।
६२२५. तदनन्तर सुरमंजरीके आलिंगन सम्बन्धी उत्सुकतासे जिन्हें अन्धता प्राप्त हो रही थी ऐसे जीवन्धरस्वामीकी तीन पहरोंवाली वह एक रात जब हजार पहरोंवाली होकर ३० किसी तरह व्यतीत हुई और वृद्धके साथ-साथ सूर्य उदित हो गया तय पिता, माता और बन्धुजनोंको अनुकूल करती हुई वह सुरमंजरी पालकीपर बैठकर सखियों के साथ कामदेवके उस मन्दिर में जा पहुँची। उस समय बनावटी वृद्ध जीवन्धरस्वामी गाड़ीपर आरूढ़ होकर उसके साथ-साथ जा रहे थे। वहाँ विधिपूर्वक जिसकी पूजा की गयी थी ऐसे कामदेवके समीप जब सुरमंजरी बड़ी श्रद्धाके साथ बैठ गयो तब वृद्ध अवस्थाको धारण करनेवाले ३५
१. म० समुम्थाय । २. यथार्थ कथयन्ती, इति टि० ३, क० ख० अयं वयस्कः ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ २२६ सुरमञ्जर्याः -
प्रपञ्चेन पञ्वशरः । त्वदभिवाञ्छितं वरमसहाया स्वयमस्माद्वृणीष्त्र' इत्यब्रवीत् । सा च मुग्धा बद्धाञ्जलिर्बहुधा प्रणुत्य प्रद्युम्नम् 'अयि पुष्पबाण, ते बाणानेव न केवलं प्राणानपि मे प्रत्यर्पयिष्यामि यदि प्राणनाथतां प्रतिपद्येत जीवककुमार:' इति सादरं सप्रणामं च प्रार्थयामास । प्रादुरासीच्च प्रागेर पुष्पायुधसविधे स्थापितेन बुद्धिषेणेन लब्धवत्यसि वरम्' इत्युक्तं वचः । ५ अदर्शयच्च तावता कुमारोऽप्यववीरितमार निजाकारम् ।
$ २२६. सा च तमवलोक्य सविस्मयस्नेहमन्दाक्षा मत्तेत्रोन्मत्तेव भोते विषण्णेव मुदिते परवशेत्रानुरक्तेत्र स्तम्भितेव समुत्कोर्णेन विलिखितेव विद्वतेव शून्येन्द्रियेव स्वेदजलप्लावितसर्वाङ्गयष्टिरतिनिबिड लकनिचिता मदनशरपञ्जरमध्यवर्तिनी स्वान्तं प्रविशतः कुमारस्य आसनानपञ्चेन सेवाविस्तारंग प्रजातिः कृतः विवान्छितं त्वदभिवान्छितं सामिलषितं १० वरम् असहाया एकाकिनी सती अस्मान्चशरात् स्वयं स्वमुखेन घृणीव' इत्यब्रवीत् । मुग्धा मूढा सर सुरमन्जरी च बद्धाञ्जलिर्बद्वकरसंपुटा सती बहुधा नैकधा प्रयुक्तं मन्मयं प्रणस्य स्तुत्वा 'अयि पुष्पवाण ! विषमेष ! ते तव बाणानेव शरानेव पुष्पाणीति यावत् न केवलं किन्तु मे मम प्राणानपि प्रत्यर्पयिष्यामि दास्यामि यदि जोव रुकुमारः प्राणनाथतां वल्लभतां प्रतिपद्येत स्वीकुर्यात्' इति सादरं सविनयं सप्रणामं सनमस्कारं च प्रार्थयामास ययाचे | प्रादुरासीच्च प्रकटीवर च प्रागेव तत्र गमनात्पूर्वमेव पुष्पायुधसमीपे १५ कामादर्णे स्थापितेन निवेशितेन बुद्धिषेगेन तन्नामसंख्या 'लब्धवत्यसि प्राप्तासि वरम्' इत्युकं वचः १ अदर्शयच्च प्रकरयामास च तावता कालेन कुमारोऽपि जीवंधरोऽपि अवधीरितो निन्दितो मारो मदनो पेन तथाभूतं निजाकारं स्वसंस्थानम् । २२६. सा चेति
- पाच सुरमञ्जरी च तं जीवंधरम् भवलोक्य विस्मयस्नेहमन्दाक्षैराश्चर्यप्रणयत्रग्राभिः सह वर्तमानेति सविस्मय स्नेहमन्दाक्षा सत्तेव आलमदेव, उन्मत्तेव क्षीबेव, मीतेव त्रस्तेव, २० विषण्णेत्र खिन्नेव सुदितेव प्रहृष्टेव परवशेत्र परनिधनेव, अनुरक्तेव धृतानुरागेव स्तम्मितेव चक्रितेव समुत्कीर्णेत्र पाषाणादौ टक्केनोन्मुद्रितेव, विलिखितेव पत्रादौ वर्णेनावि, विद्रुतेष निःस्पन्दितेत्र, शून्येन्द्रि येव विचित्ते, स्वेदजन काविता सर्वाङ्गपष्टिर्न खिशरीरयष्टिर्यस्यास्तथाभूता अतिनिविडैरतिसान्द्रः पुलकै रोमाञ्चनिचिता व्याप्ता मदनस्य स्मरस्य शरसज्जरो बाणशलाकायतनं तस्य मध्ये वर्तत इत्येवं जीवन्रत्वामीने उससे पूछकर कहा कि 'हे सुन्दरि ! पूजाविधिके विस्तारसे यह कामदेव २५ प्रसन्न है इसलिए तू अकेली जाकर इससे अपना अभिलषित वर स्वयं माँग ले' । भोलीभाली सुरमंजरीने भी हाथ जोड़ कामदेवकी बार-बार स्तुति कर 'अये कामदेव ! यदि जीवन्धरस्वामी मेरी प्राणनाथताको प्राप्त हो जायें तो मैं तुम्हारे लिए न केवल तुम्हारे बाण किन्तु अपने प्राण भी अर्पित कर दूंगी' इस प्रकार बहुत ही आदर और प्रणाम पूर्वक प्रार्थना की। उसी समय, कामदेव के समीप पहले से बैठाये हुए बुद्धिषेणके द्वारा उच्चरित ' तू वरको प्राप्त ३० है' यह वचन प्रकट हुए और उसी समय जीवन्धरकुमारने भी कामदेवको तिरस्कृत करनेबाला अपना आकार दिखाया |
$ २२६. उन्हें देख, आश्चर्य, स्नेह और लजासे युक्त सुरमंजरी मत्तके समान, उन्मत्त के समान, भयभीत के समान, खिन्न के समान, प्रसन्न के समान, परवशके समान, अनुरक्त समान, स्वस्तिके समान, उकेरी हुईके समान, कुरेदी हुईके समान, पिघली के समान, शून्ये३५ न्द्रियाके समान पसीनाके जलसे तर समस्त शरीरकी धारक, अत्यन्त सवन रोमोंसे व्याप्त, कामदेव वाणरूपी पिंजरे में विद्यमान तथा प्रवेश करते हुए कुमार के पैर रखने से हो
१. क० ख०म० प्रान्तः प्रविशतः । प्रान्तः समीपे इति दि०
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वृत्तान्तः ]
नवमो लम्मः पादन्यासादिव स्फुरदधरपल्लवा किंकर्तव्यतामूढासीत् ।
२२७. ततस्तावता तयोः संगमाहमङ्गलप्रदीप इव प्रज्वलति प्रत्यूषाडम्बरे, स्त्रीपुरुषसंयोगप्रकारप्रकटनायेब घटमाने कोकमिथुने, हुतहुताशनकुण्डायमाने स्फुटितसरोजषण्डमण्डिते सरसि मङ्गलवचनपठनाकुलेष्विव कूजत्सु कोकिलेषु, वंशस्वनानुकारिझंकारमनोहरभृङ्गवन्दपदपातवृन्तच्युतप्रसवराजिमाचारलाजानिव विलासिनीषु विकिरन्तीषु लतासु, तन्मिथुन- ५ मिथ.रांगमपिशुनेष्विव शकुनेषु सविरावेषु, स जीवकस्वामी तादृशीं दशामनुभवन्तीमन्तर्धातुं क्षेपीयः क्षितितलादुत्क्षिप्तकचरणामन्तःकरणेन स्थातुं प्रस्थातुं च प्रतीकेन प्रयतमानां तदाननाम्भोजमतिस्पष्टं द्रष्टुमभिवाञ्छदृष्टियुगं प्रकृष्टतरलज्जया बलादाकर्षन्तोमीषद्विवतितमुखीममर्त्यशीला म्यान्तं चित्तं प्रविशत: कुमारस्य पादन्यासादिव चरणनिक्षेपादिव स्फुरदधरपल्क वा प्रकम्पमानाधरकिसलया सती किंकर्तव्यतायां मूढा निर्विचारेति कितन्यतामा आसीत् ।
६२२७. तत इति-ततस्तदनन्तरं तावता तावत्कासन तयोर्जीवकसुरमजयोः संगमाहमङ्गलप्रदीप इव समागमयोग्यमङ्गलदीप इच प्रत्यूषारम्बरे प्रभाताडम्बरे प्रज्वळति सति, स्त्रीपुरुषयोदम्पत्योः संयोगस्य प्रकारो विधिस्तस्य प्रकटनायेव प्रकटीकरणायेव कोकमिथुने चक्रवाकयुगळे घटमाने मिलति सप्ति, स्फुटितान विकसितानां सरोजानां सरसीरहाणां षण्डेन समूहन मण्डितं शोभितं तस्मिन् सरसि कासारे हुतः साकल्यन सतपितो यी हुताशनामिस्तस्य कुण्डायभाने कुण्डवदाचरति सति, कोकिळेषु पिकेषु १५ मङ्गलवचन पठनीय मङ्गलपाठोच्चारणायाकुला ब्यप्रास्तेचिव सरसु, विलासिनीषु वनितासु भाचारकाजानिव लतासु वल्लीपु वंशस्वनानुकारिणा वेणुध्वनिविडम्बना प्रकारेण मनोहरा रमणीया ये भृजा भ्रमरास्तेषां वृन्दस्य समहस्य पदपातेन चरणपातेन वृन्तेभ्यश्च्युताः पतिता ये प्रसवाः पुष्पाणि ते राजि पहिंक विकिरन्तीषु प्रक्षिपन्तीषु सतीपु, शकुनेषु विहङ्गमेषु तन्मिथुनस्य तहम्पत्योः संगमस्य पिशुनाः सूचकास्तथा तेचिव सविराचेषु सशब्देषु सत्सु, स जीव कस्वामी तादृशीं पूर्वोक्तप्रकारां दशामवस्थाम् अनुभवन्तीम् २० भन्तातुं तिरोभवितुं क्षेपीयः शीघ्र क्षितितकाद्भूतलात् उरिक्षक चरणामुस्थापितकपादाम् अन्तःकरणेन स्थातुं प्रतीकेन भङ्गेन च प्रस्थातुं प्रयातुं प्रयतमानां प्रयत्नं कुर्वाणां सदाननाम्भोजं जीवकाननमहजम् अतिस्पष्टं यथा स्यात्तथा द्रष्टुम् अभिवाग्छत् अभिलषद् इष्टियुगं नयनयुगलं प्रकृष्टतरलज्जया प्रभूततरनपथा मानो फड़कते हुए अधरपल्लबसे सहित हो 'क्या करना चाहिए' इसका विचार करने में मूढ़ हो गयी। .
२२७. तदनन्तर उतने हीमें उन दोनों के समागम के योग्य मंगलमय दीपकके समान जब सूर्य देदीप्यमान होने लगा, स्त्री और पुरुषों के संयोगकी विधि प्रकट करने के लिए ही मानो चकवा-चकवियोंके युगल परस्पर मिलने लगे। खिले हुए कमलोंके समूहसे सुशोभित सरोवर जब होमी हुई अग्निके कुण्डके समान जान पड़ने लगे, मंगलमय वचनोंके पढ़ने में आकुल के समान जब कोयले शब्द करने लगी, जिस प्रकार स्त्रियाँ पद्धति के अनुसार लाईकी ३० वर्षा करती हैं उसीप्रकार जब लताएँ बाँसुरीके शब्दका अनुकरण करनेवाली झंकारसे मनोहर .." भ्रमर समूह के चरणों के पड़ने के कारण बोंडियोंसे गिरे फूलोंके समूह की वर्षा करने लगी, और उन दोनों के पारस्परिक संयोगको सूचित करते हुएके समान जब पक्षी शब्द करने लगे तत्र जीवन्धरस्वामीने, जो उस प्रकारकी दशाका अनुभव कर रही थी, शीघ्र ही छिपने के लिए जिसने पृथिवीतलसे एक पैर ऊपर उठा रखा था, जो अन्तःकरणसे वहाँ ठहरना चाहती थी ३५ परन्तु शरीर से अन्यत्र जानेका प्रयत्न कर रही थी, जो जीवन्धरस्वामीके मुख कमलको
१. म० स्त्रीपुंससंयोगः ।
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文
१५
रथचिन्तामणिः
लोकाद्भुवमवलोकयितुमायातां सुरश्रियमिव सुरमञ्जरीम् ' मञ्जुभाषिणि, मा कृथाः प्रयाणे मतिम् । प्रमादस्खलितमस्य क्षम्यतां भुजिष्यस्य' इत्याभाष्य गाढमाश्लिष्य रमयन्नमरदुरासदसौख्यः पुनः प्रख्यात कुबेर साम्येन कुबेरदत्तश्रेष्ठिता श्रेष्ठतमे लग्ने स्ववित्तस्य स्वचित्तोन्नतेः स्वनाम्नो बरमहिमनश्चानुरूपमर्पितां पवनसखसाक्षिकं पर्यणेष्ट' ।
२५.
३३६
बलात् प्रसभम् आकर्षन्तीम् ईषद्विवर्तितं मुखं वक्त्रं यस्यास्ताम् अमर्त्यलोकात् स्वर्गाद् भुवं महीम् अलोकयितुम् आयात सुरश्रियमित्र सुरलक्ष्मीमित्र सुरमन्जरीम् 'मन मषिणि! हे मनोहरभाषिणि ! प्रयाणे मतिं मनीषां मा कृथाः । अस्य भुजिष्यस्य दासस्य प्रसादस्खलितमनवधानापराधः क्षम्यताम्' इति १० आभाष्य कथयित्वा ग्राहम् निविदम् भश्किप्य समाकिङ्गय रमयन् कीडयन् अमरदुरासदं देवदुर्लभं
सौख्यं यस्य तथाभूतः सन् पुनरनन्तरं प्रख्यात प्रसिद्धं कुवेरसाभ्यं धनाधिपम्यं यस्य तेन कुबेरदत्तश्रेष्टिना तन्नामश्रेष्टिना श्रेष्टसमें प्रकृष्टतमे लग्नेऽवसरे स्ववित्तस्य स्वधनस्य स्त्रचित्तोन्नते निजस्वान्तौदार्यस्य स्वनाम्न आत्माभिधानस्य वरमहिम्नो जामातृमाहात्म्यस्य चानुरूपमनुकूलम् अर्पितां प्रदत्तां तां पवनसखः साक्षी यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्वात्तथा पर्योष्ट पाणौ जमाह ।
२२८. इति श्रीमद्वादी सिंह सूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी सुरमन्जरीसम्मो नाम नवमो लस्मः ।
२२८. इति श्रीमद्वादी मसिंह सूरिविरचिते गद्य चिन्तामणौ सुरमञ्जरीलक्ष्मो नाम नवभो लम्मः ॥
अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखनेकी इच्छा करनेवाले नेत्रयुगलको बहुत भारी लज्जाके कारण जबर्दस्ती खींच रही थी, जिसका मुख थोड़ा मुड़ा हुआ था, और जो पृथिवी लोकको देखने के लिए स्वर्ग से आयी हुई देवलक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी सुरमंजरीसे कहा कि 'हे मधुरभाषिणि! जानेका विचार मत करो, इस दासका यह अपराध क्षमा किया जाय ?' इस २० प्रकार कह कर तथा गाढ़ आलिंगन कर उसे रमण कराते हुए देवदुर्लभ सुखको प्राप्त हुए । तदनन्तर जिसकी कुबेर के साथ समानता प्रसिद्ध थी ऐसे कुवेरदत्त सेठके द्वारा अत्यन्त श्रेष्ठ लग्न में अपने धन, अपने चित्तकी उन्नति, अपने नाम और उत्कृष्ट महिमा के अनुरूप अर्पित की हुई सुरमंजरीको अग्निकी साझीपूर्वक विवाहा ।
§ २२८.
४. इस प्रकार श्रीमद्वादीमसिंह सूरिके द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिमै सुरमंजरीकम्भ ( सुरमंजरीकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला ) नौवाँ लम्भ पूर्ण हुआ ।
१. ऋ० ख०, ग० पर्यन |
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दशमो लम्भः
२२९. अथायं सुमतिः सुपतिसुतायां सुरमजयाँ सुमनोम जाँ चञ्चरोक इव सक्तो भवनभिनवकरपीड़ना मेडितत्रपाभरदरमुकुलितमस्थाः सुरतदौलालित्य ललितचेष्टि तैविमुकुलीकृत्य क्रमेण तरुणतामरसतर्जनकलाकुशललोचनमुग्धमधुरसंचारसूचितपञ्चशरसमरसंरम्भया तया सह मनसिजमहोमपचेलिमफलानि भवपयोधिमथनजनितसुधारसायमानानि सौभाग्यशशभदाभिरूप्यशारददिनानि श्रवणचातकपारणपयोदजलधारायमाणानि मणितमधुरपरभृतरसित- ५ सुरभिसमयसाम्राज्यानि सरभसकचग्रहव्यतिकरविशेषितरतिविमर्दनानि निर्दयकृताधर ग्रहनित
६२२६. अथायमिति-अथ सुम्मारीपाणिग्रहणानन्तरम् सुमतिः सुत्रुद्धिरयं जीवंधरः सुमतेः कुबेरदत्तभार्यायाः सुता तस्यां सुरमन्जयां पूर्वोकायां सुमनोमजयां षुप्पम जयर्या चचरीक इव भ्रमर इव सक्तो निलीनो भवन् अभिनयकस्पीयनेन नूतनविवाहेनानेडितो द्विगुणितो यस्त्रपामरो लजासमूहस्तेन दरमीषद् यथा स्यात्तथा मुकुलितं कुड्मलितं मन्दीभूतमिति यावत् अस्याः सुरमार्याः सुरतदौलालिस्यं १० संमोगस्यानुफूलाभावस्व ललितचेष्टितैः सुन्दर चेष्टितैविमुकलीकृस्य दूरीकृस्य क्रमेण तरुणातामरसयोः प्रफुल्लकम झयोस्तर्जनकळायां तिरस्करणकलायां कुशले विदग्धे ये लोचने तयोमुग्धमधुरसंचारः सूचितः परस्य प्रद्युम्नस्य समरसंरम्भरणोद्योगो यया तथाभूतया तया सुरमञ्जर्या सह मनसिजमहीरहस्य कामानोकहस्य पचेलिमानि पक्तुमहाणि च तानि फलानि चेति मनसिजमहीरुहपचेलिमफलानि, भव एव पयोधिः भवपयोधिः संसारसागरस्तस्य मथनेन विलोडनेन जनितः समुत्पनो यः सुधारसः पीयूषरसस्तडदाचरन्तीति १५ तथा, सौभाग्यमंत्र शशभृच्चन्द्रस्तस्याभिरूप्याय शारददिनानि शरहतुदिनानि, श्रवणचातकयोः कर्णसारङ्गयोः पारणाय तृतिकरभोजनाय पयोदजलस्य वारिदवारिणो धारा इवाचरन्तीति तथा, मणितं सुरतशब्द ५५ मधुरपरभृतरसित कोकिलकल कूजनं तस्मै सुरभिसमयस्त्र वसन्तसमयस्य साम्राज्यानि, सरमसेन सवेगेन कच. अहव्यतिकरण केशमहन्यापारेण विशेषितं वृद्धिंगतं रतिविमर्दनं सुरतविमर्दन येषु तानि, निर्दयं यथा स्यात्तथा
६२२६. अथानन्तर सुबुद्धिके धारक जीवन्धर कुमार सुमतिकी पुत्री सुरमंजर में उस २० प्रकार आसक्त हो गये जिस प्रकार कि पुष्पमंजरीमें भ्रमर आसक्त होता है। सुरमंजरीका .. संभोग-सुख नूतन विवाह के कारण पुनरुक्त लजाके समूहसे कुड्मलित हो रहा था उसे . जीवन्धर कुमार सुन्दर आलिंगनों से विकसित करते हुए क्रम-क्रमसे तरुण कमलको डाँट दिखानेकी कलामें कुशल नेत्रोंके सुन्दर एवं मधुर संचारसे जिसके कामसम्बन्धी युद्धका प्रारम्भ सूचित हो रहा था ऐसो उस सुरमंजरीके साथ उन संभोग-सुखोंका अनुभव करने २५ लगे कि जो कामरूपी वृक्ष के पकनेके योग्य फल थे, संसाररूपी समुद्रको मथनेसे उत्पन्न अमृत रसके समान आचरण करते थे, सौभाग्यरूपी चन्द्रमाकी सुन्दरताको बढ़ानेके लिए शरद ऋतुके दिन थे, कानरूपी चातक पक्षियोंकी पारगाके लिए मेघकी जलधाराके समान आचरण करते थे, संभोगकालीन शब्दरूपी कोयलके मधुर शब्द के लिए वसन्त ऋतु सम्बन्धी साम्राज्यके समान थे, वेगपूर्वक एक-दूसरेके केश ग्रहणकी क्रियासे जिनमें रतिसम्बन्धी विमर्दन ३० विशेषताको प्राप्त हो रहे थे, निर्दयतापूर्वक अधरोष्ठके ग्रहणसे जिनमें पीड़ा उत्पन्न हो रही थी,
१. क.० ख० ग.
पाचारदर. । २, अनुबूलाभावत्वम्, इति टि । ३. म वेष्टितः ।
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गधचिन्तामणिः
[ २२७ सुरमजाःवेदनानि विधूतकरकमलरणितकनकवलयवल्गुरवनिवेदितमदनमहिमव्याख्यानि सुरतसौख्यान्यनुभूय पुनः स्पृहणीयभ्यम् ‘एवं प्राप्तामपि त्वां करणीयभूयस्तया विहाय विलासिनि, त्वद्विरहविभावसुशिखाकलापकलनेन कष्टतमानि कतिचन दिनानि कर्तुमभिवाञ्छति जनोऽयम्' इत्याचष्ट ।
६ २३०. तदनु तां तनूदरों विरहपिशुनवचनतनूनपादाश्लेषप्लष्टाङ्गप्टितया विसृष्टप्रायप्राणां तत्प्रयाणं कार्यगरिम्णा पतिप्रेम्णा च विहन्तुमनुमन्तुमप्यपारयन्तीमसकृदाश्वास्य कचिद्विसृज्य गतोऽयं विजयापुत्र: स्वमित्ररतिमात्र सौभाग्यशालितया श्लाघ्यमान: स्वभवनमियाय । तत्र च चिरविरहितमालोक्यात्मजमभिन्नक्षणोद्भवदानन्दाभिषङ्गसंभूततया समशी
कृतेनाधरग्रहेण दशनच्छददशनेन अनिता समुत्पादिता वेदना येषु तानि, विधूतेन कम्पितेन करकमलेन रणिताः शब्दिता ये कनकवलयाः स्वर्णकटकास्तेषां वरुणुरवेण सुन्दरशब्देन निवेदिता सूचिता मदनमहिम्नो मारमाहात्म्यस्य व्याख्या येषु तानि, सुरतसौख्यानि संभोगशातानि अनुभूय पुनस्तदनन्तरं स्पृहणीयभूयं
यं यथा स्यात्तथा 'एवं प्रवचना चातुर्येण प्राप्तामपि लब्धामपि खां करणीयभूयस्तया कार्याधिक्येन विहाय त्यक्त्वा विलासिनि ! हे विभ्रमवति ! अयं जनः, महमिति भावः त्वद्विरह एच विमावसुरग्निस्तस्य शिखाकलापकलनेन ज्वालाजाल प्राप्त्या कष्टतमानि सातिशयकष्टकराणि कतिचन दिनानि कतुं विधातुम् अभिवान्छति कामयते' इतीस्थम् भावष्ट कथयामास ।
६२३०. तदन्विति-तदनु तदनन्तरं तन्दरी कृशोदरों विरहस्य विप्रलम्मस्य पिशुनं सूचक यद्वचनं तदेव तनूनपादग्निस्तस्याश्लेषेण समालिङ्गनेन प्लुष्टा दग्धाङ्गयधिः शरीरयष्टिर्यस्यास्तस्या मावस्तया विसृष्टप्रायास्स्यक्तायाः प्राणा यस्यास्तां कार्यस्य गरिमा तेन कार्यगौरवेण पतिप्रेरणा च चल्लमानुरागण च तत्प्रयाण पतिप्रयाणं विहन्तुं निरोद्धम् शनुमन्तुं समर्थयितुमपि अपारयन्तीमशक्नुवानां सां सुस्मन्जरीम्
असकृत् भनेकवारम् पाश्वास्य सान्त्वयित्वा कथंचित् केनापि प्रकारेण विसृज्य त्यक्त्वा गतोऽयं विजयापुत्री २० जीवकः स्वमित्रैः स्वकीयसुहृद्भिः अतिमात्रं प्रभूततरं सौभाग्यशालितया सौमाग्यशोभित्वेन श्लाघ्यमानः
प्रशस्यमानः सन् स्वमवनम् इयाय प्रापत् । तत्र च स्वभवने च चिरविरहितं दीर्घकालवियुक्तम् भात्मजं पुत्रम् भालोक्य दृष्ट्वा भमिनक्षणे युगपदेवोभवन्तौ यात्रानन्दाभिषङ्गो हर्षपराभवौ ताभ्यां संभूततया समुत्पनत्वेन
और हिलाये हुए कर-कमलोंकी खनकती हुई स्वर्णमय चूड़ियोंके सुन्दर शब्दसे जिनमें कामकी महिमाकी व्याख्या सूचित हो रही थी। इस प्रकार संभोग-सुखोंका अनुभव कर पुनः अभिलाषाको अधिकताको प्रकट करते हुए जीवन्धर कुमार सुरमंजरीसे बोले कि 'हे विलासिनि ! इस तरह तुम यद्यपि कष्टसे प्राप्त हुई हो तथापि कार्यकी अधिकतासे तुम्हें छोड़कर यह जन अपने कुछ दिनोंको तुम्हारी बिरहाग्निकी बालाओंके समूहमें पड़नेसे अत्यन्त कष्टरूप करना चाहता है।
६२३०. तदनन्तर विरह-सूचक अग्निके आलिंगनसे शरीररूप यष्टिके जल जानेसे ३० जिसके प्राण प्रायः छूट चुके थे और जो कार्यको गुरुताके कारण उनके प्रयाणको न तो रोकने में
ही समर्थ थी और न उसकी अनुमोदना करने में ही दक्ष थी ऐसी सुरमंजरीको बार-बार
आश्वासन देकर तथा किसी तरह छोड़कर विजया रानीके पुत्र जीवन्धरकुमार अत्यधिक ..." सौभाग्यशाली होने के कारण मित्रजनोंसे प्रशंसित होते हुए अपने घर गये। वहाँ चिरकालसे
बिछुड़े पुत्रको देखकर एक ही साथ उत्पन्न होनेवाले आनन्द और पराभवसे उत्पन्न होने के
१. आधिक्यमिति टि.। २. म० कामगरिम्णा च ।
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वृक्षान्तः]
* दशमो लम्भः तोष्णेन बाष्पवर्षेण स्नपयन्ती सुनन्दाममन्दमिवानन्दीभूतं गन्धोत्कटं च सकलजगद्वन्द्योऽयमभिवन्ध सनाभिसमाजमपि चतुराश्लेषेण मधुरनिरीक्षणेन शिर:कम्पेन गिरः प्रदानेन दरस्मितेन करप्रचारेण च प्रोणयन् प्रियबल्लभामायल्लकायत्तां गन्धर्वदत्ता म्लानमालामिव गुणमाला च संलापसहससल्लाघयन्स्वयमप्युल्लोकहर्षः पुनरुद्धर्षमयेषु केषुचिद्वासरेष निर्वासितेषु निजस्वान्तगतं गन्धोत्कटेन समं मन्त्रयित्वा मातुलस्य महाराजस्य विदेहाख्यया विख्यातं विषयं प्रति प्रस्थाले मतिमकरोत् । ५ ।
$ २३१. अथ यात्राहपवित्रलग्ने पवित्रकुमार: पद्म मुखप्रमुखैः प्रियसखैरनुजेनाप्यनुप्लुतः अना प्रबलभटघटाटोपभायितप्रतिपक्षः प्रक्षरदसबिन्दुसेकेन मन्दयन्तीमिव मार्गोष्णं सुनन्दा गन्धोत्कटबन्धुसमशीतोष्णेन समशिशिरोष्णेन बाष्पवर्षणावर्षेण मतपयन्तीमभिषिञ्चन्ती सुनन्दा मातरम्, अमन्दमिवानरूपमिव 'मूढापापटुनिर्भाग्या मन्दाः स्युः' इत्यमरः, आनन्दीभूतं प्रमोदात्मकं जातं गन्धोत्कटं च धैश्यपतिंच सकलेन जगता भुवनेन वन्धो नमस्करणीयोऽयं जीवंधरः अभिव-द्य नमस्कृत्य सनामिसमाजमपि १० सहोदरसमूहमपि चतुराश्लेपेग चतुरालि हानेन, मधुरनिरीक्षणेन प्रियावलोकनेन शिरप्रकम्पेन मूर्धम्याधूननेन, गिरो पाण्याः प्रदानेन वितरणेन वार्तालापेनेति यावत् , दरस्मितेन किंचिन्मन्दहसितेन करप्रचारेण च हस्तसंचालनेन च प्रीणयन् संतोषयन्, आयलकायत्ता मदनकदनखेदनिघ्ना प्रियवल्लभां प्रियपस्नी गन्धर्वदत्तां मयूज म्लानमालामिव म्लानरूजमित्र गुणमालां च संलापसहस्रः बहुमिर्वार्तालापैः उल्लाघयन् नीरोगां कुर्वन् , स्वयमपि स्वतोऽपि उल्लोकहर्षः सीमातीतप्रमोदः सन् , पुनरम नरम् उर्षमयेषु समुन्कटहषयुक्त केषुचित् १५ वासरेषु दिवसेषु निर्वासितेषु निर्गमितेषु सत्सु निजस्वान्तगत स्वान्तःकरणस्थितं तस्वमिति शेषः गन्धोत्कटेन वैश्यपतिना समं साध मन्त्रयिया विमृश्य मातुलस्य मामस्य महाराजस्य बिहाख्यया तन्नाम्न। विख्यातं प्रसिद्धं विषयं जनपदं प्रति प्रस्थाने मतिर्मनीषाम् अकरोत् ।।
६२३.. अथ यात्रेति-अथ गोविन्दमहाराजेन सम विचार-विभशीममा यात्राहश्चासौ पवित्रलग्नश्चेति यात्राहपवित्रलानस्तस्मिन् यात्रायोग्यपवित्रानेहसि पवित्रकुमारो जीबंधरः पद्ममुखः प्रमुखो २० येषां तैः पनमुखामुखैः पद्मास्यादिभिः प्रियाश्च ते सखायश्चेति प्रियसखास्तैः, अनुजेनापि नन्दाढयेनापि अनुप्लुवः समनुगतः प्रपलभटानां सबलयोधानां घटायाः समूहस्याटोपेन विस्तारण मायितो भीतियुक्तीकरणः प्रतिपक्षाः शत्रवो येन तथाभूतः, प्रसरतामविन्दूनामश्रशीकराणां सेकेन सेचनेन मार्गोष्ण
---..-.- .-.. -..कारण समशीतोष्ण अश्रुवर्षासे नहलानेवाली सुनन्दाको तथा अमन्द आनन्दरूप परिणत हुए गन्धोत्कटको सकल जगत्के द्वारा वन्दनीय जीवन्धर कुमारने अच्छी तरह नमस्कार किया २५ एवं भाइयों के समूह में भी किसीको चतुर आलिंगनसे, किसीको मधुर अवलोकनसे, किसीको शिर हिलानेसे, किसीको वाणीके देनेसे, किसीको मन्द मुसक्यानसे और किसीको हाथ के संचारसे सन्तुष्ट किया। विरहोत्कण्ठाको वशीभूत गन्धर्वदत्ता और मुरझायी मालाके समान गुणमालाको हजारों प्रकार के वार्तालापोंसे स्वस्थ करते हुए जीवन्धर स्वामी स्वयं भी सातिशय हर्षसे युक्त हुए । तदनन्तर जव हर्षसे भरे हुए कितने ही दिन निकल गये तब उन्होंने अपने ३० हृदयकी बात की गन्धोत्कटके साथ सलाह कर अपने मामा गोविन्द महाराजके विदेह नामसे प्रसिद्ध देशकी और प्रस्थान करने की बुद्धि की।
६२३'. तदनन्तर यात्राके योग्य पवित्र लग्न के आनेपर जो पद्म मुख आदि प्रिय मित्रों और छोटे भाईसे सहित थे तथा अत्यधिक बलवान योद्धाओंके घटाटोपसे जिन्होंने शत्रुको भयभीत कर दिया था ऐसे जीवन्धर कुमार, झरती हुई अश्रुबिन्दुओंके सेकसे जो मार्गकी ३५ गरमीको मानो मन्द कर रही थी ऐसी माता सुनन्दाको, पिता गन्धोत्कटको और भाइयों के
१. भीतियुक्त इति टि।
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गचिन्तामणिः
[२३ विदेहजनपदस्य
निवहं च प्रयत्नतः प्रतिनिवत्यं निरगात् । आपच्च पुनरापदामापदमविरहितसंपदा संपादयन्तं कुक्कुटसंपात्यग्रामपुरभासिनम्, फलभारावनम्रतया समृद्धिमतामपि विनयावनम्रत्वमतोव शोभाकरमितीव दर्शद्भिः शालिभिः शालिनम्, विजृम्भमाणपूगकेसरामोदामोदितदशदिशाभोगम्, परिपाकपिशङ्गा
काण्डस्फुटितविकीर्ण मुक्तानिकरैस्तार कितमिव तारापथमधः संदर्शयन्तम् , प्रशस्तमणिमयसमस्त५ प्रदेशतया सर्वतः समुत्थितेन निजतेजःप्रसरेण कबलवन्तमिव त्रिलोकीम्, राज्यलक्ष्मीभिरिव
डिण्डोरपिण्डपाण्डेरपुण्डरीकमण्डिताभिः कृशोदरीभिरिव लोलकल्लोललिबिल सदुदराभिः पञ्चमवर्मातपं मन्दयन्तीमिव अल्पं कुर्वन्तीमित्र सुनन्दा गन्धोत्करस्य बन्धुनिवहः परिजनसमूहस्तंच प्रयत्नतः प्रतिनिवत्य निवृत्तं कृत्वा निरगात् निर्जगाम । आपच्च समासदच्च विदेहास्य इति विश्रुतं प्रसिद्धं जनपदं
देशम् । अथ तस्यैव विशेषणान्याह-पुनरापदामिति -पुनरनन्तरम् अविरहिता शश्वत्संनिहिता या सम्पन १० तया आपदामापतीनाम् आफ्दं विपत्ति संपादयन्तं कुर्वन्तम् , कुरकुरैश्चरणायुप्रैः संपात्यानि प्राप्याणि यानि
ग्रामपुराणि निगमनगराणि तैर्भासते शोमत इत्येवंशीलम् , फल भारेण कणिश समूहनावनम्रतयातिविनतत्वेन समृद्धिमतामपि संपन्नानामपि बिनयावनम्रत्वं प्रश्रयविनतत्वम् अतीव शोमाकर शोभाधायकम् इतीत्थं दर्शयद्भिरिव प्रकटयद्भिरिव शाकिभिन्यैः शालिनं शोभिनम् , विजम्ममाणेन वर्धमानेन पूगकेसास्य घोण्टाककिंजल्कस्यामोदेन सुरमिणा आमोदित: सुरमीकृतो दशदिशानां दशकाष्ठानामामागो विस्तारो यस्मिस्तम् , १५ परिपाकंन परिणामेन पिशङ्गाः पीतवर्णा ये इक्षुकापडा पौण्डदण्डारतेभ्य भादौ स्फुटिता विदीर्णाः पश्चाद्
विकीर्णाः प्रतिक्षा ये मुनानिकरा मौक्तिकसमूहास्तैः तारकाः संजाता यस्मिस्तद्वद् तारकितमिव सनक्षत्रं तारापर्थ गगनम् अधो नीचः संदर्शयन् प्रकटयन्तम् , प्रशस्तमणीनां विकास इति प्रशम्तमणिमयास्तथाभूताः समस्ताः प्रदेशा यस्मिस्तस्य मावस्त या सर्वतः परितः समुत्थितेन समुत्पतितेन निजतेजःप्रसरेण
स्वकीयदीसिसमूहन त्रयाणां लोकानां समाहारस्त्रिलोकी ताम् भुवनत्रयं करलयन्तमिव प्रसयन्तमिव, २० राज्यलक्ष्मीभिरिव राज्यश्रीभिरिव डिण्डोरपिण्ड दूध फेनसमूह इव पाण्डुरं धवलं यत् पुण्डरीक छन्नं तेन
मण्डिताः शोभितास्तामिः पक्षे डिण्डारपिण्डेन फेनसमूहेन पाण्डुरैः शुक्लैः पुण्डरीकैः सितसरोरुहमण्डिता. स्ताभिः, कृशोदरीमिरिव कामिनीभिरिव लोलकल्लोला इव चपलतरक्षा इव वलयो नाभेरधस्ताद्विद्यमाना उदररेख स्तामिविलसन शोममान उदरी जठरं यासा ताभिः पक्षे लोलकल्लोला चञ्चलतरङ्गा वलय इति
समूहको प्रयत्नपूर्वक लौटाकर नगरसे बाहर निकले। और क्रम-क्रमसे चलते हुए विदेह २५ नामसे प्रसिद्ध उस देश में जा पहुँचे कि जो सदा स्थित रहनेवाली सम्पदासे आपत्तियों को भी
आपत्ति प्राप्त कराता था । कुक्कुट सम्पात्य-पास-पास में बसे हुए ग्राम और नगरोंसे सुशोभित था । फलोंके भारसे नम्रीभूत होने के कारण 'समृद्धिशाली लोगोंका भी विनयसे नम्रीभूत रहना अत्यन्त शोभाको बढ़ाने वाला है' यह दिखाते हुएके समान स्थित धानके पौधोंसे सुशो
भित था। सुपारी और मौलश्रीके वृक्षों को बढ़ती हुई सुगन्धिसे जहाँ दशो दिशाओंके मैदान ३० सुगन्धित हो रहे थे । पक जाने के कारण पोले-पीले दिखनेवाले ईख के दण्डोंके चटक जानेसे
विखरे हुए मोतियोंसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे च्याप्त आकाशको हो नीचे दिखला रहा हो । उत्तमोत्तम मणिमय समस्त प्रदेशों के होनेसे जो सब ओर उठे हुए अपने तेजके समूहसे तीनों लोकोंको मानो प्रस्त ही कर रहा था। उन नदियोसे जहाँ धान्य रूप
सम्पदा निरन्तर उत्पन्न होती रहती थी कि जो राज्यलक्ष्मीके समान फेनके समूहसे शुक्ल३५ सफेद कमलोंसे सुशोभित थीं ( पक्षमें फेनसमूहके समान सफेद छत्रोंसे सुशोभित थीं)। . कृशोदरी स्त्रियों के समान जिनके मध्य भाग ( पक्ष में उदर ) चंचल तरंगरूपी त्रिवलियोंसे
१.म० पाण्डर-।
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वर्णनम् ] पगो कम्म
३४१ कालप्रपञ्वमिथ्यात्वपद्धतिभिरिवान्तर्धान्तबहुजलाभिर्बहुविदेहभूमिभिर्बहव्यःसमेताभिः सिन्धुभिः संततसंभूष्णुसस्यसंपदम्, महाराजमिव महावाहिनीसंवधितैश्वयं परिहतपरप्रार्थितया ततोऽपि परायम्, जिनदीक्षाविधिमिवापेक्षिताखिलसौख्यसंपादनमनिर्वाणानन्दहेतुतया ततोऽप्यभिनन्दनीयम्, पण्यरमणीलावण्यमिव सर्वजनसाधारणरमणीयभोगप्रदम्, जरोपरोधविधुरतया ततोऽपि श्लाघनीयम्, पद्मालयापतिभिरप्यकृष्णव॒षचारिभिरण्यरुद्रैः कलाधरैरप्यकलङ्करधिकवीर्यैरपि स्ववशेन्द्रिय- ५ सोलकलोलबलयस्ताभिः विलसन् उदरो मध्यमागो यासां ताभिः, पञ्चमकाले दुःपमामिधाने प्रपञ्चो विस्तारो यासा तथाभूता या मिथ्यात्वपद्धतयो मिथ्यात्वमार्गास्ताभिरिव भन्तर्धान्ता मध्ये संशययुक्ता बहयो जाडा मुखी यासु तामिरिच पक्षे अन्तर्धान्तं मध्ये भ्रमणशीलं बहुजलं प्रभूततोयं यासु ताभिरिव जषात् डलयारभेदः, विदेहभूमीनां प्रकाराः सदृश्य इति बहुविदेहभूमयस्ताभिः बहु-कोटीवर्षपूर्वप्रमितं वयोऽवस्था तन समेताभिः सहितामिः पक्षे बहूनि प्रचुराणि यानि वांति पक्षिणस्तैः समेताभिः सिन्धुभि- १० नदीभिः संततं शश्वत् संभूप्णुः संमबनशीला सस्यसम्पद् बीहिसम्पत्तियस्मिस्तम् श्लेषोपमा महाराजमिव महावाहिनीभिमहानदीमिः पक्षे महासेनानिः संवर्धितमैश्वर्य यस्य तम्, परिहृतं परित्यन परप्रार्थितं परमार्थनं पराभिगमनं वा यस्मितस्य मावस्तया ततोऽपि महाराजादपि पराध्य श्रेष्ठं महाराजः परप्राधिसन पराभिगमनेन सहितो विदहस्तु तेन रहित इति न्यतिरेक, जिनस्य तीर्थकरस्य दीक्षाविधिर्जिनदीक्षा• विधिस्तद्वद् अपेक्षितस्याभिवान्छित्तस्याखिल सौख्यस्य निखिल शर्मणः संपादनं प्रापयितारम् अनिर्वाणो- १५ ऽविनष्टो य आनन्दस्त हेतुतया पक्षं निर्वाणं मोक्षस्तस्यानन्दस्य हेतुतया ततोऽपि जिनदाक्षाविधेरपि अभिनन्दनीयं प्रशंसनीयं जिनदीक्षाविधिः निर्वाणानन्दहेतुरयं स्वनिर्वाणानन्दहेतुरिति व्यतिरेकः, पण्यरमणी वेश्या तस्या लावण्यमिव सौन्दयमिक सर्वजनसाधारणा निखिललोकसाधारणा रमणीया मनोहराइच ये भोगाः पञ्चेन्द्रियविषयाः पक्ष संभागाशान् प्रदवातीति सर्वजनसाधारणरमणीयमोगमदम् जराया वृद्धताया उपरोधेन विधुरतया रहि सतया ततोऽपि पग्यरमणी लावण्यादपि इलाघनीयं प्रशंसनीयं पायरमणीलावण्यं २० जराया उपरोधेन सहितं विदेहस्तु तेन रहित इति व्यतिरेका, पन्नालयापतिभिरपि लक्ष्मीपतिभिरपि अकृषणमुकुन्दभिन्नैरिति विरोधः पक्षे सम्पत्तिस्वामिभिरपि भकृष्णगौररिति परिहारः, वृषेण घृषवाहनेन घरन्तीत्यवंशीला वृषचारिणस्तथाभूतैरपि अरु रशिवैरिति विरोधः पक्षे वृषचारिभिर्धर्मचारिमिरपि अरु रकठिनः सुशोभित थे और पंचम कालके प्रपंच पूर्ण मिथ्यात्व के मार्गके समान जो अन्तर्धान्त जलाभीतर घूमते हुए बहुत भारी जलसे सहित थी ( पक्ष में भीतर भ्रममें पड़े हुए मूर्ख मनुष्योंसे २५ सहित थीं) विदेह देशकी बहुत भूमिको घेरनेवाली थी ( पक्षमें ?) और अनेक पक्षियोंसे सहित थीं (पक्षमें) जो यद्यपि महाराज के समान बड़ी-बड़ी नदियोंसे बढ़ते हुए ऐश्वर्यसे सहिंत था ( पक्ष में बड़ी-बड़ी सेनाओं से बढ़ते हुए ऐश्वर्यसे सहित था तथापि परिहत परप्रार्थी होने के कारण उससे भी कहीं श्रेष्ठ था । अर्थात् महाराज तो परप्रार्थी-शत्रुके सम्मुख अभियान करने वाला होता है परन्तु वह देश परप्रार्थी--दूसरेसे प्रार्थः।। करनेवाला नहीं था ३० इसलिए महाराज से भी अधिक विशेषता रखता था। जो यद्यपि जिनदीक्षाकी विधि के समान अभिलषित समस्त सुखोंको प्राप्त करानेवाला था तथापि अनिर्वाण-नष्ट नहीं होनेवाले ( पक्ष में निर्वाण-मोक्ष थे) आनन्दका कारण होने के कारण उससे भी अधिक प्रशंसनीय था । जो यद्यपि वेश्याके सौन्दर्य के समान समस्त मनुष्यों के लिए समान सुन्दर भोगोंको देनेवाला था । तथापि जराफे उपरोधसे रहित होनेके कारण उससे भी अधिक प्रशंसनीय ३५ था। जो उन निवास करनेवाले मनुष्यांसे सहित होने के कारण विदेह इस नामसे प्रसिद्ध था कि जो लक्ष्मीके पति होकर भी कृष्ण नहीं थे ( पक्षमें श्याम वर्ण नहीं थे), वृपचारी-बेलपर बैठकर गमन करनेवाले ( पझमें धर्म क अनुसार प्रवृत्ति करनेवाले ) होकर भी रुद्र नहीं थे
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गद्यचिन्तामणिः
[ २३॥ विदेहजनपदस्यश्चरमदेहप्रायनिवासिजनराश्रिततया विदेहाख्य इति विश्रुतं जनपदम् ।
२३२. तदनु चायं महाभागो विदितभागिनेयागमनमुदितेन राज्ञा मुहुराज्ञप्तर्जानपदैः पदे पदे स्वपदानुगुणं प्रमदभरेण प्रतिगृह्य प्रदयमानानि' मणिमौक्तिकमलयजप्रभृतीनि प्राभूतानि प्रेक्षमाण: प्रतिप्रसादवितरणप्रीणितलोकः पुनरुल्लोकलोककोलाहलमुखरितहरित हरिताश्वरथनिरोधनकर्मकर्मण्यहाबलोमिपेणानिमेषवृन्दारकदारणकुशलकुलिशपतनाकुल कुलशिलोच्चयरभयस्थानतयेवाश्निताम्, श्रियमिवाश्रितजनाभोष्टार्थपुष्टिकरीमबहुवल्लभात्वेन ततोऽपि बहुमताम्, सागरवेलामिव
कलाधरैरपि मृगारपि भकल कैः कलङ्करहितैरिति विरोधः पक्ष वैदग्धीधररपि कालुप्यरहितः, अधिबीयरपि प्रभूत शुक्ररपि स्वबशेन्द्रियैः साधीनमेहनैरिति विरोधः पक्षे प्रभूतपराक्रमैरपि स्वाधीननेनादिहृषीकः,
विरोधाभासः, चरम देहप्रायेाहुल्यन तद्भवमोक्षगामिभिः, निमानित भाभिवतया अधिष्ठिततया विगतो १० दहो यस्मिन्निति विदेहः स भारपा नाम सस्य तथाभूतं जनपदम् ।
२३२, तदनु चायमिति-तदनु तदनन्तञ्च अयं महाभागो महानुभावो जीवंधरी विदितं विज्ञातं यद् भागिनेयस्प भगिनीसुतस्यागमनं तेन मुदिती हृष्टस्तेन राज्ञा गोविन्दमहाराजेन मुहुर्भूयः भाज्ञप्तैः प्राप्तसूचनैः जानपदेशनपदाध्यक्षः पदे पदे प्रतिस्थानं स्वपदानुगुणं निजपदानुकूलं प्रमदभरेण
हर्षसमूहन प्रतिगृह्य अग्रेगत्वा स्वीकृत्य प्रदर्शमानानि प्रकटीक्रियमाणानि मणिमौक्तिकमलयजप्रमृतीनि १५ स्त्रमुक्ताफल चन्दनादोनि प्राभृतान्युपायनानि प्रेक्षमाणो विकोकमानः प्रतिप्रसादस्य प्रत्युपहारस्य बितरणेन
दानेन प्रोणिसाः संतर्षिता लोका येन तधाभूतः सन्, पुनरनन्तरम् उल्लोकेन सीमातीतेन लोककोलाहलेन जनकलकलरवेण मुखरिता वाचालिसा हरितो दिशो यस्यां ताम्। हरिताश्वस्य सूर्यस्य स्थस्य निरोधनकर्मणि निरोधकार्य कर्मण्या निपुणा हावली प्रासादपछिस्तस्यामिण समुप्तङ्गसदनब्याजनेति यावत् भनिमेषवृन्दारकस्य देवश्रेष्ठस्य शक्रस्य दारणकुशलं भेदनपटु यत् कुलिशं वनं तस्य पतनेन आकुला भीता ये कुलशिलोच्चयाः कुलाचलास्तैः अभयस्थानत व निर्मयधामस्वेनेव आश्रितां सेविताम्, श्रियमिव लक्ष्मीमित्र आश्रितजनानां शरणापमानाममोष्टार्थस्याभिप्रेतार्थस्य पुष्टिकरीम् उभयत्र समानां किन्तु अबहुवल्कमारवेन बहुस्वामिरहितत्वेन ततोऽपि मीतोऽपि बहुमतां श्रेष्ठ श्रीर्वहुवल्लमा राजधानीत्वबहुवल्लभेति व्यतिरेका,
( पक्ष में ऋर परिणामी नहीं थे ) जो कलाधर-चन्द्रमा ( पक्षमें कलाओं के धारक ) होकर भी
अकलंक थे-कलंकसे रहित थे ( पक्षमें पापसे रहित थे) जो अधिक पराक्रमी होकर भी २५ इन्द्रियोंको अपने वशमें रखनेवाले थे तथा जो प्रायः कर चरमशरीरी थे।
(२३२. तदनन्तर विदित हुए भानेजके आगमनसे प्रसन्न राजाने जिन्हें बार-बार आज्ञा दी थी ऐसे तद्-तद् जनपदों के निवासियोंने अपने-अपने पदके अनुरूप बड़े हुपैसे उनको अगवानी को थी तथा. मणि मोती और चन्दन आदिके उपहार समर्पित किये थे उन
सब उपहारों को देखने और बदले के उपहार देनेसे लोगोंको प्रसन्न करते हुए महाभाग्यशाली ३० जीबन्धर स्वामी 'धरणातिलक' इस सार्थक नामको धारण करनेवाली उस राजधानीमें जा
पहुँचे कि जहाँ लोगों के बहुत भारी कोलाहलसे दिशाएँ शब्दायमान हो रही थीं। सूर्यरथ के रोकने के कार्य में निपुण बड़े-पड़े महलोंकी पंक्तियों के बहाने जो ऐसी जान पड़ती थी मानो इन्द्र के विदारणपटु वज्रपातसे घबड़ाये हुए कुलाचलोंने हो भयरहित स्थान समझ उसका
आश्रय ले रखा हो । जो यद्यपि लक्ष्मीके समान आश्रित जनोफे अभिलषित अर्थकी पुष्टि ५५ करनेवाली थी तथापि एकरवामिका होने के कारण उससे भी अधिक आदरको प्राप्त थी
१. क० स० ग० प्रदृश्यमानानि ।
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- वर्णनम्
दशमो लम्मः सर्वरत्नसमद्धां समुत्सारितजालिकालेन तदतिशायिनीम्, कान्तारभवमिव महासत्त्वसमाक्रान्ता निष्कण्टकात्वेन तां न्यक्कुर्वतीम्, सर्वलोकतिलकभूतां धरणीतिलक इत्यन्वर्थाभिधानां राजधानी भेजे।
६२३३. यत्र पुरुषाः परेषां पदस्खलितेषु वंशोत्थिता अप्यपर्वभगुरा अवयम्भयष्टयः, शोकज्वरजृम्भणारम्भेषु मधुरस्निग्धा अध्यजडात्मानोऽमृतपूराः, मोहमहार्णवमज्जनेषु पारप्रापण- ५ प्रवीणा अप्यपेतपाशयन्त्रणा महाप्लवाः, मतिविभ्रमदिङमोहेन नेकप्रस्थानविशङ्कटा' अध्यकण्टका सागरखेलामिव तटिनीविरतटीमिव सर्वरत्ननिखिल मणिभिः समृदा सम्पन्ना ताम् पक्षे 'जातो जातो यदुस्कृष्टं तद्वमिहोच्यते' इति रनलक्षणात् तत्तजातिघु श्रेष्टतमैः पदार्थराश्रिता, जालेन जीवन्ति मालिकाः समुत्सारिता दूरीकृसा जालिका मत्स्यजीविनी यया तस्या भाषस्तत्त्वेन तदतिशायिनी सागरखेलातिशायिनी सागरचेला तु तजालिका राजधानी तु समुरसारितजालिकेप्ति व्यतिरेकः, कान्तारभुवमिव काननावनिमिव १० महासत्वैवधिादिजन्तुमिः समाक्रान्तां पक्षे महत् सत्वं धैर्य येषां ते महासत्त्वास्तैः समाकान्तां समधिष्ठितां निष्कण्टकत्वेन क्षुद्रशत्रुरहितत्वेन पक्षे शल्यरहितत्वेन तां कान्तारभुवं न्यक्कुवती तिरस्कुर्वती राजधानी निष्कण्टका कान्तारभूस्तु सकट केति व्यतिरेकः, सर्वलोकस्य निखिल जगतस्तिळकभूतां स्थासकोपमा सर्वश्रेष्टामित्यर्थः धरणीतिलक इत्यन्वर्थाभिधानां सार्थकनामधेयो राजधानी भेजे प्राप्तवान् ।
६२३३. यन्नेति-यत्र राजधान्यां पुरुषा जनाः परेषामितरेषां पदस्खलितेषु पदात् स्थानात् १५ स्खलितेषु भ्रष्टेषु पक्षे पदस्य धरणस्य स्खलितेषु प्रमादात्पतितेषु वंशोस्थिता अपि बेणुसमुरपसा अपि पक्षे कुलोत्पमा अपि पर्वसु मङ्गा न भवन्तीत्यपर्वमङ्गुरा अपर्वकुटिकाः पक्षे उत्सवादिप्त्रविनश्वराः अवष्टम्भ. यश्य आधारदण्डाः, शोक एव ज्वरस्तस्य जम्भणारम्भेषु वृद्धिप्रारम्भेषु मधुराश्च ते स्निग्धाश्चेति मधुर
'मिष्टसचिक्कणा अपि अजदारमानो इलयोरभेदाद् अजलात्मानोऽजलरूप! अमृतपूराः पीयूषपूराः पक्षे मधुरस्निग्धा मधुरभाषिणः स्नेहयुक्ताइच अजडात्मानः अजोऽमुर्ख आत्मा येषां तथाभूताः, मोह २० एव महार्णवो मोहमहार्णवो मोहमहासागरस्तस्मिन् निमज्जनेषु ब्रुडनेषु पारस्य द्वितीयतटस्य प्रापणे प्राप्ती प्रवीणाः पटवोऽपि अपेतपाशयन्त्रणा दूरीकृसपाशनियमना महापळवा महानोकाः पक्षे पारप्रापणे कार्य( लक्ष्मी बहुवल्लभा थी परन्तु वह राजधानी एकवल्लभा थी इसलिए वह उससे भी अधिक श्रेष्ठ थी)। जो यद्यपि समुद्र की वेलाके समान सर्वरत्नोंसे समृद्ध थी तथापि जालसे आजीविका करनेवालोंको दूर हटानेके कारण उसे तिरस्कृत करनेवाली थी ( समुद्रकी वेलापर २५ जालाजीवी मनुष्य रहते हैं परन्तु उस नगरीमें जालाजीवी मनुष्योंको दूरसे ही खदेड़ दिया था)। जो यद्यपि वनको भूमिके समान महासत्व- महापराक्रमी मनुष्योंसे व्याप्त थी ( पक्ष में सिंह, व्याघ्र आदि बड़े-बड़े जन्तुओंसे युक्त थी) तथापि निष्कण्टका-काँटोंसे रहित (पक्ष में क्षुद्र शत्रुओंसे रहित) होनेके कारण उसे भी नीचा दिखा रही थी (वनकी भूमि कण्टकोंसे व्याप्त था और वह राजधानी कण्ट कोंसे रहित थी)। तथा जो समस्त लोकको तिलकस्वरूप थी। ३०
६२३३. जहाँके मनुष्य अन्य पुरुषोंको पैरोंसे स्खलित होनेपर सहारा देनेके लिए उन आलम्बन यष्टियों के समान थे जो वंशोत्थित---बाँससे उत्पन्न होनेपर भी ( पक्षमें उच्च कुलमें उत्पन्न होकर भी ) अपर्वभंगुरा-पोरोंसे भंगुर नहीं थे ( पक्षमें अनुत्सव के समय साथ छोड़नेवाले नहीं थे)। शोकरूपी ज्यरकी वृद्धिका प्रारम्भ होनेपर उन अमृतके प्रवाहोंके समान थे जो मधुर एवं स्निग्ध होनेपर भी (पक्ष में मनोहर और स्नेहयुक्त होनेपर भी ) अजडात्मा---अजलरूप ३५ नहीं थे ( पक्षमें अप्रबुद्धात्मा नहीं थे)। मोहरूपी महासागर में डूबनेके समय उन बड़ी
१. विस्तृता इति टि।
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गद्यचन्तामणिः
[ २३३ विदेहजनपदस्य
घण्टापथाः परिधावनक्लेशेषु फलच्छायाभृतोऽप्यकुजन्मानो विश्रमद्रुमाः तथाभूतवादिनोऽपि प्रधानाः श्रुत्यनुकूलचारित्रा' मीमांसा तन्त्राः सुकृतेतर विवेककुशलाः समवर्तिनः पवित्रपादसंपर्का स्तमछिदः, गुणलबबधनीयाः सुमनसः, बहुलोज्ज्वलास्तारकाः, तथा शिवभक्ता अपि जैनाः,
,
५
३४४
1
फलप्रापणे प्रवीणा भवि अपेतपाशयन्त्रणा दूरीकृत कुत्सितयन्त्रणा महाप्लया महानौका इव तरणतारणपट इत्यर्थः, मतिविभ्रमा बुद्धिविभ्रमा एवं दिङ्मोहास्तेषु अनेकेषां युगपद नेकनराणां प्रस्थानाय चिशङ्कटा अपि विस्तृता अपि अकण्टकाः शल्यरहिता घण्टापथा राजमार्गाः पक्षे अनेकेषु कार्येषु यत्प्रस्थानं प्रयाणं तेन विशङ्कटा विशाला उदारा इति यावत् अकण्टकाः क्षुद्रशन्नुरहिता अपि घण्टापथा राजमार्गोपमाः परिधावनक्लेशेषु परितो धावनं परिधावनं तस्य क्लेशाः खेदास्तेषु परिभ्रमणजन्य क्लेशेषु फलानि च छाया चेति फलच्छाया ता विभ्रतीति फलच्छायाभृतोऽपि अकुन्मानां न विद्यते कोः पृथिव्या जन्म येषां १० तथाभूता विश्रममा विश्रमतरवः पक्षे फच्छायाधारका श्रपि न कुप्सितं जन्म येषां तथाभूता विश्रमतर
इव खेापहारकाः, तथा भूतवादिनोऽपि पृथिव्यादिभूत वतुष्टय वादिनश्वार्थाका अपि प्रधानाः प्रधानवादिनः सांख्या इति विरोधः पक्षे तथाभूतं सत्यं वदन्तीति तथाभूतवादिनोऽपि प्रधानाः प्रकृष्टं धानं येषां ते प्रधाना प्रकृष्टयोगाः प्रमुखा वा श्रुत्यनुकूलं वेदानुगुणं चारित्रं येषां तथाभूता मीमांसातन्त्रा मीमांसादर्शनाधीनाः पक्षे श्रुत्यनुकूलं कर्णानुकूलं चारित्रं येषां तथाभूता अपि मीमांसातन्त्र विचार१५ पटवः सुकृतेतस्योः पुण्यपापयोर्विवेके भेदकरणे कुशलाः निपुणाः समवतिनो मध्यस्था: पक्ष परेजराजः 'समवर्ती परेतराट्' इत्यमरः, पक्षे पुण्यपापपरिज्ञाने पटवो मध्यस्थाः पवित्रः पूतः पादानां किरणान संपर्क: संबन्धो येषां तथाभूता अपि तमश्छिदस्त मोरयः सूर्याः पक्षे पवित्र चरणसंसर्गाः मोहान्धतमस विघातकाः, गुणलवेन सूत्रखण्डेन बधनीया बद्धमर्हाः सुमनसः पुष्पाणि पक्षे गुणा दयादाक्षिण्यादयस्तेषां लवेनांशेन वधनीया संग्रहणीयाः सुमनसो विद्वांसः, बहुले कृष्णपक्षे उज्ज्वला इति बहुलोज्ज्वलास्तारका २० नक्षत्राणि पक्षे बहुलोज्ज्वला अतिनिर्मला तारकाः तरन्तीति तारकास्तारणकर्तारः, तथा शिवभक्ता अपि शिवानुयायिनोऽपि जैना जिनानुयायिन इति विरोधः, पक्षे शिवभक्ता अपि कल्याणभक्ता अपि जैना जिनो
नौकाओंके समान थे जो पारकी प्राप्ति कराने में समर्थ होकर भी ( पक्ष में कार्यकी समाप्ति में दक्ष होकर भी ) पाशकी यन्त्रणासे रहित थीं ( पक्ष में बन्धन के नियन्त्रण से रहित थे ) बुद्धिविभ्रम रूप दिशाभूलके समय उन राजमार्गों के समान थे जो अनेक लोगोंके प्रस्थानके उप२५ युक्त विशाल होनेपर भी (पक्षमें अनेक जनोंके निर्वाहुके योग्य उदार होनेपर भी ) अकण्टककाँटोंसे रहित (पक्ष में क्षुद्र शत्रुओंसे रहित ) थे। दौड़सम्बन्धी क्लेशके समय उन विश्राम के योग्य वृक्षों के समान थे जो फल और छायाके धारक ( पक्ष में कार्यकी सिद्धि और कान्तिके धारक ) होकर भी अकुजन्मा-- पृथिवीसे उत्पन्न नहीं थे ( पक्ष में कुत्सित जन्मसे रहित थे ) | पृथिव्यादि भूतचतुष्टयके वादी होकर भी— चार्वाक होकर भी क्षेत्रज्ञ - आत्मज्ञ थे ( पक्ष में ३० तथाभूत- सत्यवादी होकर भी प्रधान मुख्य थे ) | श्रुतिके अनुकूल चरित्र के धारक होकर भी मीमांसाको प्रमाण माननेवाले थे ( पक्ष में कानोंके अनुकूल चरित्रके धारक होकर भी सत्-असत् के विचार में निपुण थे ) । पुण्य और पापके विवेकमें कुशल समवर्ती - यमराज थे ( पक्ष में समान व्यवहार करनेवाले थे ) । पवित्र किरणों के सम्पर्क से युक्त सूर्य थे ( पक्ष में पवित्र चरणोंके सम्पर्क से सहित तथा अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले थे ) । सूतके खण्डों से ३५ बँधने के योग्य सुमनस् - फूल थे ( पक्ष में गुणोंके अंशोंसे संग्रहणीय सुमनस् - विद्वान् थे ) । बहुलोज्ज्वला - कृष्ण पक्ष में चमकनेवाले तारे थे ( पक्ष में अत्यधिक उज्ज्वल और विपत्तिसे
१. म० चरित्राः ।
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३१५
- वृत्तान्तः ]
विमो लम्मः समाश्रितश्रीरामा अपि बुधायिणः, क्षमाभृतोऽप्यकठिनाः, दानोद्यता अप्यनिस्त्रिशाः, भृनन्दना अप्यबक्रचराः सन्तः सतां लक्षणमक्षूणमात्मसात्कुर्वन्ति ।
६२३४. तावता तन्निशामनदुर्ललितस्वान्ता: बन्धनादिव बन्धुतायाः श्मशानादिव दिन रादनादायाशादिवोपदेशादाभिनारादिव कुलाचारादपमृत्योरिव पत्युः प्रहरणादिव कालहरणा- हिंसा
दुद्दामादिव निजमानादुद्दाममुटेजमानाः, कल्याणात्मना गुणिना सुवृत्तेन पलायनवेगात्पादयोः ५ पतता 'परिपालनीया ननु निभृतगतिः' इति निवार्यमाणा इक मेखला कलापेन गुरुतरकुचकुम्भ
देवता थेषां तथाभूताः, श्रीरामेव इति श्रीरामा समाश्रिता सविता श्रीरमा लक्ष्मीललना यस्तथ भूता अपि बुधाश्रयिणो विद्वज्जनाधयिणः, पक्षे थियोपलक्षितो रामः श्रीरामः समाश्रितः सेवितः श्रीरामो यस्तथाभूगा अपि नुधाश्रयणो विद्वज्जनायिणः, क्षमाभृतोऽपि पर्वता अपि अकठिना अकर्कशाः पक्षे शान्तियुक्ता अपि अकठिना मृदवः, दाने खण्डने उद्यता अपि अनिस्मिंशा अक्सः पक्षे त्यागतस्परा अपि अनिस्त्रिंशा १० अघातकाः। भूनन्दना अपि महीसुता अपि मङ्गल ग्रहा इति यावत् अवकचरा अकुटिलगतय इति विरोधपक्षे पृथिवीपुत्रा अपि सरलगामिनः सन्तः, सतां साधूनाम् अक्षणं पूर्ण लक्षणम् आत्मसात कुर्वन्ति आत्माधीनं विदधति । यत्र सत्पुरुषा वसन्तीति भावः ।
६२३५. तावतेति–तावता तावमाटेन तस्य जीबंधाम्य मिशामनेन दर्शनेन दुर्ललितं गर्वविशिष्टं स्वान्तं चिर्त यासां तथाभूताः, बन्धूनां समूहो बन्धुता तस्या बन्धनादिय, सदनावनात् श्मशाना- १५ दिब, उपदेशात् आश्रयाशादिय बहेरिव, कुलाचारात् अमिचारादिव हिंसनादिव, परयुरपभृत्यारिवाकालमरणादिव, कालहरणाद्विलम्बनान् महरणादिव शस्त्रातादिव, निजमानात् स्वगर्वात् उद्दामादिन बन्धरहितादिव 'उद्दामो बन्धरहिते स्वतन्त्रे च प्रचेतसि' इति मंदिनी उदाममुष्कटं यथा स्यात्तथा उद्वेजन्त इत्युद्वेज माना बिभ्यतः, कल्याणात्मना सौवर्णेन पक्षे महात्मना, गुणिना सूत्रवता पक्षे गुणयुकेन सुवृत्तेन चतुलाकारेण पक्षे सदाचारेण पलायमस्य परिधावनस्य वेगो रयस्तस्मात् पादयोः चरणयोः पतता 'ननु २० निश्चयेन निभृतगतिनिश्चलगतिः परिपालनीया रक्षणीया' इतीत्थं मंखलाकलापेन रशनादाना निवार्यतारनेवाले थे)। शिवके भक्त होकर भी जैन थे-जिनके भक्त थे (पक्ष में कल्याणके सेवक होकर भी जैन थे )। श्रीराम के सेवक होकर भी वुधकी सेवा करनेवाले थे ( पक्षमें लक्ष्मीरूपी स्त्रीके सेवक होकर भी विद्वज्जनों की सेवा करनेवाले थे)। पर्वत होकर भी कठिन नहीं थे ( पक्ष में क्षमाके धारक होकर भी कोमल थे)। दान-खण्डन में उद्यत होकर भी निस्त्रिंश- २५ तलवारसे रहित थे ( पक्ष में दान देने में उद्यत होकर भी कर नहीं थे) और मंगलरूप होकर भी अवक्र चर---वक्रगति से रहित ( पक्षमें पृथिवीको हर्षदायक होकर भी सरल प्रवृत्तिसे सहित) होते हुए सज्जनोंके पूर्ण लक्षणको अपने अधीन करते थे ।
६२३४. उतने में ही जीवन्धर कुमारके आगमनके सननेसे जिनके चित्त हातिरेकसे अस्त-व्यस्त हो रहे थे ऐसी स्त्रियाँ बड़े वेगसे आकर सब ओरसे नगरकी गलीको उस तरह ३० अलंकृत करने लगीं जिस तरह कि फूलोंसे सुशोभित लताएँ वनको भूमिको अलंकृत करती हैं। उस समय वे स्त्रियाँ बन्धुओंके समूहसे बन्धनके समान, घरसे श्मशानके समान, उपदेशसे अग्निके समान, कुलाचारसे हिंसामय प्रवृत्तिके समान, पनिसे अपमृत्युके समान, विलम्बसे शस्त्रक समान, और अपने मानसे जद्दण्डके समान अत्यन्त उद्विग्न हो रही थीं। उस समय दौड़नेके वेगसे उन स्त्रियोंकी मेखलाओंका समूह पाँवों में पड़ता हुआ ऐसा ३५
१. गविशिष्टचित्ताः, इति टि० । २. म० उद्विजमानाः ।
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३१६
गधचिन्तामणिः
[ २३४ विदेहजनपदस्यनितम्बभारेण निवारितत्वरितगमनमनोरथोन्मेषाः, भुजलताविक्षेपवेगगलितानि 'विजृम्भितामर्षविषमेषुप्रेषितचक्रजालानीव वलयानि पार्श्वयोरुभयोः पथि विधुन्वानाः, प्रधावनरभसोत्थितमुक्तासरा आकृष्यमाणा इव मनसाग्नगामिना निबध्य कण्ठेषु मदनमौर्वी गुणदर विगलदलकबन्धविस स
मानकुसुमापोडोत्सङ्गसङ्गिभि: क्वद्भिर्मदनप्रहितैरादेशदूतैरिव मधुकरराकुलोक्रियमाणास्तरसोप५ सृत्य सर्वतः पुरो वीथि पुरंध्रयः फुल्लभासिन्यो वल्लर्य इव वनस्थलोमलंचक्रुः ।
२३५, तासां च तन्निध्यानेन ध्यानप्रवेकेण तपोधनमनोवृत्तीनामिव निवतितान्यव्यापृ. तीनां मदिरामाद्यत्स्वान्तानामिवाचान्तलज्जानां मज्जन्तीनामिव रागसागरे मदिराक्षीणां कटाक्षमागा, इब, गुरुतरयोः कुचकुम्मयोः स्तनकलशयोनितम्बयोश्च कटिपश्चाद्भागयोश्च भारेण निवारितो निरुद्ध
स्त्वरितगमनमनोरथस्य शीघ्र गरयभिलाषस्योन्मेषो यासां ताः, भुजलतयोर्खाहुवल्लयोर्विक्षेपवेगेन गलितानि १० बलयानि कटकानि 'कटको वलयोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः, विजम्मितामर्षश्वासौ विषमेघुश्चेति विजम्भिसामाई
विषयोहिंगतकोपकाते मिलानि बाबालादीय चक्रास्त्रनिकुरम्बानीव उभयोः पाश्चयोईयोस्तटयो: पधि विधुन्वानाः कम्पयन्तः प्रधावनस्य रभसेन पलायनस्य वेगेनोस्थितः समुस्क्षिप्तो मुकासरो मौक्तिकयष्टिर्यासां ता: भत एवाग्रगामिना मनसा कण्ठेषु ग्रीवासु नियध्य आकृप्यमाणा इव नीयमाना इव
मदनस्य मारस्य मौव्या ज्याया इव गुणो येषां तैः दरं मनाग विगळन् शिथिलीभवन् योऽलकबन्धश्चूण१५ कुन्तलबन्धस्तस्माद् विनंसमानानां नीचलम्बमानानां कुलुमानां पुष्पाणां य भापीरः समूहस्तस्योरसंगसंगो
मध्यसंगो विद्यते येषां तैः क्वद्भिः शन्दं कुर्वाणैः मदनप्रहितैः प्रधुम्नप्रेरितैः भादेशदूसैरिवाज्ञातैरिव मधुकरभ्रमरैः आकुली क्रियमाणा व्यग्रीक्रियमाणाः पुरन्ध्यो योषितः तरसा बेगेन सर्वतः समन्तात् उपमृत्य समीपमागत्य फुल्सैः पुप्पैमासन्त इत्येवंशीला: फुल्लमासिन्यो वल्लयों लता वनस्थळीमिव काननभूमिमिव पुरा नगरस्य वीथि रध्याम् भलंचकुः शोभयामासुः।
२३५. तासां चेति-तस्य जीवकस्य निध्यानेन विलोकनेन ध्यानप्रवेकेण ध्यानश्रेष्ठेन तपोधनमनोवृत्तीनामिव मुनिमनोवृत्तीनामिव निवर्तित! दूरीकृता भन्यन्यातय इतर कार्यविक्षेपो यामिस्तासाम्, मदिरया कादम्वर्या माद्यत् मतोमवत् स्वान्तं चित्तं यासां तासामित्र, आचान्तलज्जानां स्यमनपाणाम् राग जान पड़ता था मानो 'गम्भीर चालकी रक्षा करना चाहिए' यह कहकर उन्हें रोक ही रहा
था सो ठीक ही है क्योंकि जो कल्याणात्मा-कल्याणस्वरूप, गुणी-गुणवान् और सुवृत्त२५ सदाचारी होता है उसका वैसा स्वभाव ही होता है (पक्षमें स्वर्गमय, डोरासे युक्त और
उत्तम गोलाकार होता है उसका वैसा स्वभाव ही होता है)। अत्यन्त स्थूल स्तन कलश और नितम्बोंके भारसे उन स्त्रियों का शीघ्र गमनसम्बन्धी मनोरथोंका प्रादुर्भाव रोक दिया गया था। वे स्त्रियाँ मागमें दोनों ओर भुज-लताओं के विक्षेप-सम्बन्धी वेगसे गिरी हुई जिन चूड़ियोंको छोड़तो जाती थीं वे तीत्र क्रोधके धारक कामदेवके द्वारा प्रेषित चक्रोंके समूह के समान जान पड़ती थीं। दौड़नेके वेगसे उनकी मोतियोंकी मालाएँ ऊपर की ओर उठ रही थीं। उनसे वे ऐसी जान पड़ती मानो आगे-आगे जानेवाला मन उन्हें गले में बाँधकर खीच ही रहा हो । जो कामदेवकी डोरीके समान गुणों के धारक थे, कुछ-कुछ ढीले हुए केशबन्धनसे गिरनेवाले फूल-समृहके मध्य में स्थित थे, शब्द कर रहे थे और कामदेवके द्वारा प्रेपित आज्ञाकारी दूतोंके समान जान पड़ते थे ऐसे भ्रमर उन स्त्रियोंको व्याकुल कर रहे थे।
६२३५. श्रेष्ठ ध्यानसे तपस्वियोंकी मनोवृत्तिके समान जीवन्धर स्वामीके अवलोकनसे जो अन्य कार्योंसे निवृत्त हो चुकी थीं, मदिरासे मत्त ह्रदयके धारकों के समान जिनकी लज्जा नष्ट
१. क. 'वि' नास्ति । २. म. गामिणा । ३. म सन्धिभिः ।
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वृत्तान्तः ]
नवमो लम्भः
३४. शृङलया शृङ्खलित इव मन्दीभूतगतिर्गच्छन्महीपतिमन्दिरं जीवंधरः संभ्रममयं निरवर्तयत् । निदध्यौ च निखिलजनप्रेक्षणीयेषु कक्ष्यान्तरेषु क्रान्तेषु बाह्येष्ववरुह्य करिणः कलधौतनिर्माणमण्डपमण्डनीभूतस्योर्ध्वहस्तपुरुषलङ्घनीयस्य रिपुनृपद्विरदरदनरचितपादपीठस्य, भ्राजिष्णुरलकनककान्तिकल्माषवपुषः पोनविपुलतूलतल्पस्यानल्पशोभाजुष्टस्य हरिविष्टरस्य मध्यमलंकुर्वाणम्, बन्धुराधरबन्धू कया स्मेरमुखारविन्दमासिन्या मजुमोरशिजितहंसस्वरानुबन्धया चलित- ५ चामर कलापपर्यावविमलनोरदया शरदेव वारयुवतिपरिषदा परिवेष्टितम्, अविरलताम्बूलपुनरुक्तरक्ताधररागेण भागिनेयानुरागमिवान्तरमान्तमुद्रमन्तम्, अमन्दादरवन्दिवृन्दस्य दिगन्तकृतप्रतिएव सागरस्तस्मिन् प्रीतिपयोधौ मजन्तीनामिब छुडन्तीनामिक तासा मदिराक्षीणां ललनानां कटाक्षशृङ्खलया कंकरहिजारेण शृङ्खलित इत्र बद्ध इव मन्दीभूता गतिर्थस्य तपाभूतो मन्धरगतिरयं जापंधरो महीपति. मन्दिरं राजमवनं गच्छन् संभ्रमं संक्षोभं निरवतं यत् रथयामास । निदध्यौ चेति-निखिल जनप्रेक्षणीयेषु १० सकललोकावलोकनीयेषु बायेषु कक्ष्यान्तरेषु कोष्टकविवरेषु क्रान्तेषु व्यतीतेपु करिणी गजाद् अवल्या. वतीर्य स गोविन्दमहाराजं तमाममातुलं निदध्यौ च विलोकयामास च । अथ गोविन्दमहाराजस्य विशेषणान्याह-कलधौतेति-कलधौतेन स्वर्णेन निर्माण यस्य तथाभूतस्य मण्डपस्यास्थानस्य मण्डनीभूतस्याभरणीभूतस्य, ऊर्ध्वहस्तेन पुरुषेण चकनीयस्यातिक्रमणीयस्य रिपुनृपाणां प्रत्यार्थपार्थिवानां द्विरदा मतगाजास्तेषां रदनदन्तै रचितं पादपीठं यस्य सस्थ, भ्राजिपणूनि देदीप्यमानानि यानि रतकनकानि १५ मणिकाञ्चनानि तेषां कान्त्या कल्माषं विचित्रप्रभ वपुराका यस्थ तस्य, पीनः पावरी विपुलो विस्तृतस्तूलतस्पो यस्य तस्य, अनल्पशोभया सुषमया जुष्टस्य सहितस्य, मध्यम् अलंकुर्वाणं शोभयन्तम् , यन्धुरेतिबन्धुरा मनोहरा अधरा दन्तच्छदा एव बन्धूका बन्धुजीवका यस्यास्तस्या 'रनकस्नु बन्धुको बन्धुजीत्रका' इत्यमरः, स्मेरमुखान्येव मन्दहास्ययुक्तबदनान्येचारविन्दानि कमलानि तैर्मासत इत्येवंशीलया, मनुमजरीणां रमणीयनू पुराणां शिजिताम्पनुरणितान्येव हंसस्वरा मसळशब्दास्तेषामनुबन्धः संसर्गा यस्यास्तया, न चलितचामर कलाषा एव पर्याया येषां तथाभूता विमलनीरदाः सितपयोदा यस्यां तया शरदेव शरहतुनेव वारयुवतीनां रूपाजीवानां परिषत् समूहस्तया परिवेष्टितं परिवृतम्, अविरलेन निरन्तरेण ताम्बूलेन नागवल्लीदलेन पुनरुक्तो द्विरुदीरितो रत्ताधरसगो लोहितदशनच्छदारुणिमा तेन अन्तमध्येऽमान्तं मातुमश. क्नुवन्तं भागिनेयानुरागं भगिनीसुतप्रेमाणम् उद्धमन्त मुद्गिरन्तम्, अमन्देति---अमन्दादरश्वासी बन्दिवृन्दहो गयी थी और जो रागरूपी सागर में डूबी जा रही थीं ऐसी उन स्त्रियोंके कटाक्षों की शृंखलासे २५ बँधे हुएके समान धीमी चालसे चलते हुए जीवन्धर स्वामीने राजभवनको संभ्रमसे तन्मय कर दिया। तदनन्तर समस्त मनुष्योंके देखने के योग्य बाह्य कक्षाओंके अन्तराल के व्यतीत होनेपर हाथीसे उतरकर उन्होंने स्वर्ण निर्मित मण्डपके मण्डमभूत, ऊपरकी ओर हाथ उठाये हुए पुरुपके द्वारा लंघनीय, शत्रु राजाओंके हाथियों के दाँतोंसे निर्मित पादपीठसे सहित, जग. मगाते रत्न और स्वर्णकी कान्तिसे चित्र-विचित्र शरीरके धारक, मोटे और विशाल रुईके 3. गद्दोंसे सहित एवं बहुत भारी शोभासे सम्पन्न सिंहासन के मध्य भागको जो अलंकृत कर रहे थे । सुन्दर अधररूपी दुपहरियाके फूल से युक्त, मन्द-मन्द हँसते हुए मुख-कमलसे सुशोभित, नूपुरोंके मनोहर शब्दरूपी हंसोंके शब्दसे युक्त एवं चलते हुए चमरसमूहरूपी सफेद मेघोंसे सहित शरदऋतुके समान वेश्याओंके समूहसे जो घिरे हुए थे । लगातार पान खानेसे पुनरुक्त लाल अधरोष्ठकी लालीसे जो भीतर नहीं समाते हुए भानेज के अनुरागको मानो उगल ही रहे ३५ थे । बहुत भारी आदरसे युक्त वन्दि-समूह के दिगन्त में प्रतिध्वनि करनेवाले गीतसे जो मानो
१. व्याप्त इति टि।
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३४८
गद्यचिन्तामणिः
[ २३५ विदेह जनपदस्यश्रुतिगोतेन श्रावयन्तमित्र निजशासनमाशाधिपान, राजलक्ष्मीशिखण्डिताण्डवमृदङ्गवाद्येन रिपुराजहंसनिर्वासनघतस्तनितेन धोरेण स्वरेण परिजनमात्मप्रतिग्रहणाय त्वरयन्तं गोविन्दमहाराजम् ।
$ २३६: स च समायान्तमालोक्य सात्यंधरिमात्यन्तिकभागिनेयस्नेहेन तदतिमात्रानुभावेन च गाने स्वयमेवासनादुस्थिते प्रागेव प्रत्युद्गमनं पुनः प्रत्युत्थानेच्छायां पूर्वमेव पुलको. द्गमनमनन्तरमङ्गहर्षप्रारभारं पुरस्तादेवानन्दाश्रधारां तदनु तदङ्गसमालिङ्गनसंगतसौख्यभारं च भनन्, स्फारस्मेरमुखारविन्दो गोविन्दो महाराजस्तदीय चातुर्यसोकुमार्यवीर्यवैदुष्यवैभववैशारद्याद्याननवद्यानालोक्य गुणान् स्वयमपि स्वयंवृतः सुचरितैः स्वोकृतः कृतकृत्यतया परिगृहीतो
श्रेस्यमन्दादरवन्दिवृन्दस्तस्य महादरचारणसमूहस्य, दिगन्तेषु कृता प्रतिश्रुतिः प्रतिध्वनियस्य तथाभूतं
यद् गीतं तेन, आशाधियान् दिक्स्वामिनो निजशासनं स्वकीयाज्ञां भावयन्तमिव समाकर्णयन्तमिव, १० राजलक्ष्मीरेव शिखण्डी मयूरस्तस्य ताण्डवाय नटनाय मृदङ्गवार्य मुरजवादिनं तेन, रिपन एव राजहंसा
मरालास्तेषां निर्वासने निःसारण घनस्तनितं मंधगजितं तेन धीरेण गमीरेण स्वरेण आत्मप्रतिग्रहणाय घशरणप्रतिपत्त्य परिजनं परिकर स्वरयन्तं शैघ्यं कारयन्तम् ।
६२३६. स चेति--स च गोविन्दमहाराजश्च समायान् समागच्छन्तं सात्यंधरि जीबंधरम् आलोक्य दृष्ट्वा अन्तमतिक्रान्त इत्यात्यन्तिकः स चासो भागिनेयस्नेहश्च भगिनीसुतरागश्च तेन तस्य मागि१५ नेयस्यातिमात्रानुमावेन च विपुलनर प्रभावेण च गात्रे शरीरे स्वयमेव स्वत एव आसनान्मृगेन्द्र विष्टरात्
उस्थिते सति प्रागेव पूर्वमेव प्रत्युद्गमनमरोगत्वा सत्करण पुनरनन्तरं प्रत्युत्थानेच्छाम् उस्थितं दृष्ट्वोस्थानं प्रत्युत्थानं तस्येच्छामभिलाषम्, पूर्वमेव प्रागव पुलकोद्गमनं रोमाजोत्पत्तिः, अनन्तरम् अङ्गहर्षस्य शरीरसंमदस्य प्रारभारं समूह, पुरस्लादव पूर्वमेव आनन्दाश्रधारां हर्षवाप्पधारां तदनु तत्पश्चात् सस्थान
स्य समालिङ्गनेन जीवंधरशरीराश्लेघेण संगतः प्राप्तो यः सौख्यमारस्तं भजन सेवमानः प्राप्नुवन्निति २० यावत् स्फारस्मरं सातिशयविकसित मुखारविन्दं बदनवारिज यस्य तथा भूतो गोविन्दो महाराजी
विदेहाधिप तदीयं तत्संबन्धि यत् चातुर्य वैदग्ध्यं सौकुमायं मृदुत्वं वीर्य पराकमो वैदुप्यं पाण्डित्यं वैभवं सम्पन्नत्वं वैशारा सविद्यत्वं तानि आधानि येषां तथा भूतान् अनवधान् निर्दष्टान् गुणान् भालोक्य दृष्ट्वा स्वयमपि स्वतोऽपि सुचरितैः सदाचारः स्त्रयंवृतः स्वयमङ्गीकृतः, कृतकृत्यतया कृतार्थत्वेन स्वीकृतः
दिक्पालीको अपना आदेश ही सुना रहे थे 1 और राज्य लक्ष्मीरूप मयूरके ताण्डव नृत्य के २५ लिए मृदंग बाजेके समान अथवा शत्ररूपी राजहंसोंको दूर भगाने के लिए मेध-गर्जनाके
समान गम्भीर स्वरसे जो अपना आश्रय लेने के लिए परिजनको मानो शीघ्रता ही करा रहे थे ऐसे गोबिन्द गहाराज को देखा।
(२३६. आते हुए जीवन्धर स्वामीको देखकर भानजके बहुत भारी स्नेहसे और उनके अत्यधिक प्रभावसे गोविन्द महाराजका शरीर आसनसे स्वयं उठकर खड़ा हो गया। वे ३० अगवानीको पहले ही प्राप्त हो गये और खड़े होने की इच्छाको पीछे प्राप्त हुए। रोमांचोंका
उत्पत्तिको पहले ही धारण करने लगे और शरीर के हर्षकी अधिकताको पीछे प्राप्त हुए । हपके आँमुआकी धाराको पहले ही प्राप्त हो गये और उनके शरीर के आलिंगनसे उत्पन्न होनेवाले सुखके समूहको पीछे प्राप्त हुए। इस प्रकार अत्यधिक विकसित मुखारविन्दसे
मुक्त गोविन्द महाराज, उनके चातुर्य, सौकुमार्य, वीर्य, वैदुग्य, वैभव और वंशारद्य आदि ३५ निदुष्ट गुणों को देखकर स्वयं ही सदाचारसे स्वयंवृत-कृतकृत्यतासे स्वीकृत, माहात्म्यस
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नमो लम्भः
३४९
- वृत्तान्तः महत्त्वेन परिप्वक्तः पावनतया करे गृहीतः कीर्त्या कण्ठे स्पृष्टो गद्गदिकया बभूव ।
२३७. तदनु च सत्यंधरमहाराजमरणानुस्मरणेनाधरितवारिधिमथनध्वानाक्रन्दनाक्रान्तं शुद्धान्तमप्यावान्तव्यथं 'विहितवत्या विजयामहादेव्याम्, दिव्योपधादर्शनोत्सुकदेशाधिपप्रतीक्ष्यावसरेषु वामरेषु केषुचिन्निर्वासितेषु, अयं सर्वविजयी विजयानन्दनरिपुविजयाभ्युपायवितर्कणपरतन्त्री मन्त्रशालायां मन्त्रिभिः समं मन्त्रयामास ! आचष्टे स्म च 'काष्ठाङ्गारेण प्रहितमिह । संदेश दर्शय' इति सातिशयविवेक गणकप्रवेकम् । स च 'तथा' इति विहिताञ्जलिवैदेहीसुताहि- . तेन प्रहितं पत्रमन्मद्रं विधाय विधिवद्वाचयामास ।
६२३८. पत्रमिदं काष्ठाङ्गारस्य विलोकयेद्विदेहाधिपत्ति: । पतितं मूनि मे पापेन
महत्त्वन माहात्म्येन परिगृहीत उपासः, पावनतया पवित्रतया परिवमः समालिङ्गितः, कीया यशला कटे पाणी गृहीतः गद्गदिकया कण्ठे गलं स्पृष्टः कृतस्पों बभूव ।
२३७ तान चेति तदनन्तरं च सत्यंधरमहाराजस्य यम्मरणं तस्यानस्सरणेनाध्यानेनाधरितस्तित जारिकाकाना नसलोइन यो जोड तथाभूतेनाक्रन्दनेन रोदनरवेणाक्रान्तं ज्याप्तं शुद्धान्तमपि अन्तःपुरमपि आचन्ता निःशेपिता न्यथा पीडा यस्य तथाभूतं विजयामहादच्या विहितवस्यां कृतवत्या सध्याम्, दिव्यानां सुन्दराणामुपधानामुपहाराणां दर्शने प्रकटन उत्सुका उत्कण्ठिता ये देशाधिपास्तत्तजन पदाधिपास्नैः प्रतीक्ष्योऽवसरः समयो येषु तेषु केचिद् वासरेपु दिने निर्वासितेपु व्यपगमितपु ५५ सत्सु सर्वान् विजयन इत्येवं शीलः सर्वविजयी अयं महाराजो विजयानन्दनस्य जीबंधरस्य रिपुः कारागारस्तस्य विन्यान्युपायानां वितकणे विचारणे परतन्धो भवन् मन्त्रशालायां मन्त्रिमिः सचिवैः समं मन्त्रयामास गुप्तविमर्श चकार । भाचो स्म च-'कथयामास च काष्टाङ्गारेण इह मदाजधान्यो प्रहितं प्रेषितं सन्देश वाचिकं दर्शय' इति सातिशयो विवेको यस्य तं प्रचुरविवेकवन्तं गणकावे लिपिक श्रेष्टम् । स च गणकप्रवेकः 'तथा' इति विहिताम्जलिः कृताञ्जलिः सन् वैदेहीसुतम्य विजयानन्दनस्याहि तेन शत्रुणा २० काष्ठाकारणति यायत, महितं प्रेषितं पत्रम् उन्मुद्र मुद्घाटित मुद्रं विधाय कृत्वा विधिवद् वाचयामास ।
६२३८. पत्रमिदमिति–'काष्टाहारस्येदं पत्रं विदेहाधिपतिगोविन्दमहाराजो विलोकये त्पश्येत् । केना अनिर्वचनीयेन पापन दुरितेन मे मम मूनि शिरसि शोच्या शोकयोग्यं किमपि वापयं गह्यं पतितम् । परिगृहीत, पवित्रतासे आलिंगित, कीर्तिसे हाथमें स्वीकृत ( विवाहित ) और गद्गद वाणीसे काठमें स्पृष्ट हो गये।
२३:७. तदनन्तर सत्यन्धर महाराज के मरणके स्मरणसे समुद्र मथनके शब्दको तिरस्कृत करने वाली रोने की ध्वनिसे व्याप्त अन्तःपुरको भी जब विजया महादेवीने व्यथासे रहित कर दिया और दिव्य सामग्रीके देखने में उत्सुक तत्तद् देशके राजाओं के द्वारा जिनमें अवसरकी प्रतीक्षा की जा रही थी ऐसे किसने ही दिन जब निकल चुके तब सबको जीतनेवाले गोविन्द महाराज जीवन्धर स्वामीक शत्रुओंको जीतने का उपाय विचार करने में परतन्त्र ३० होते हुए मन्त्रशालाम मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा की और सातिशय विवेकको धारण करनेवाले प्रधान लेखापाल से कहा कि यहाँ काष्ठांगारने जो सन्देश भेजा है वह दिखलाओ। प्रधान लेखपाल हाथ जोड़ 'तथास्तु' कह काष्टांगारके द्वारा भेजे हुए पत्रको खोल विधिपूर्वक बाँचने लगा। पत्र में लिखा था-.
१३८. 'विदह के महाराज काष्टांगारके इस पत्रको देखें। किसी पापसे मेरे मस्तकपर ३५ १. क.० उपशान्तयथम् ।
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३५० । . गद्यचिन्तामणिः
[२३८ विदेहजनपदस्यकेनापि शोच्याह किमपि वाच्यम् । न तत्तथेति याथात्म्यविदामन यायी भवानवैति चेदपि, चेतसि विद्यमानमिदमवद्यानुषङ्गभयादावेद्यते । नाप्युन्मस्तकमदावलमादपहस्तिपवन हस्तिना क्वचिदाक्रीडे क्रीडन् । पीडां जगतः प्रवर्तयामास मर्येश्वरः । ततः परिणतकरिणा कृतमेव मयि परिणतं किचिन्नाम । अकिंचन मेवं कम्जासनावल्लभं' कल्पितवतः काश्यपीपतेः कारणाकरणे
कारणं किं नु स्यात् । को नाम पादपस्कन्धमध्यासीन: परशुना मूर्खस्तन्मूलमुन्मूलयेत् । को वा ५ तरिष्यन्वारिधि वहित्रेण तत्रैव जाल्मश्छिद्राणि जनयेत् । को वा पिपासूः पानीयचषकं पापः
पांमुपूरैः पूरयेत् । कश्च नु धेनोरापोनभारेण क्षीरस्यन्क्षतं क्षुरेण पातक: सम्पादयेत् । गता. नुगतिकः खलु लोकः । कस्तमनुसतुं समयों भवेत् । मान्यो भवानेतन्मनस्यैकुर्वन्गुर्वीमिमामसत्पापं तथा ताशं नेति साधात्म्यविदां यथार्थज्ञानाम् अनयायी प्रवानो मवान् अवैति जानाति चेदपि
यद्यपि तथापि चेतसि स्वान्ते विद्यमानमिदं वाच्यम् अवद्यानुषङ्गभयात्पापसंपीतेः आवेद्यते कथ्यते। १० उन्मस्तकमदस्य समुष्कटदानस्यारळेपाद् गर्वात् अपहस्तितो दूरीकृतो हस्तिपको नियन्ता येन तथाभूतेन
केनापि हस्तिना गजेन क्वचित् कस्मिन्नपि आकोद्ध उद्याने कीडन् क्रीडां कुर्वन् मस्यज्ञरः सत्यधरो महाराजो जगतो लोकस्य पीडां कष्टं प्रवर्तयामास । ततः परिणतश्चासौ करी चेति परिणतकरी तेन, तिर्यग्दन्तप्रहारं कतु सुद्यतेन गजेन मधि किंचिद् वचनागोचरं नाम मयि परिणतं कृतमेव राजानं हत्वा तदपराधो मयि
संचारित एवेति भावः । आचनं माम् पुनमनेन प्रकारेण कशासनावल्लभं लक्ष्मीवल्लभं कल्पितवतः १५ कृतवतः काश्यपीपरी: सत्यधरमहीपतेः कारणाकरणे यातना विधाने 'कारणा तु यातना तीनवेदना' इत्यमरः
किं नु कारणं स्यात् ? येनाहमकिञ्चनो नृपतिपदमध्यारोपितस्तस्यैवाहमकारणं कारणाकारणं कथं स्याम् ! इति मावः । को नाम मूर्खः पादपरकन्यस्य वृक्षस्कन्धस्य मध्यमध्यासीनः सन् परशुना कुठारेण तन्मूलं तरुमूलम् उन्मूलयेत् उत्पाटयेन ? को वा जाल्मोऽसमीश्यकारी वहिण नौकया वारिधि सागरं तरिष्यन्
तत्रैव वहिने छिद्राणि विवराणि जनये त् ? कश्च नु पातकः पापो धेनोर्गोः आपीन मारेण स्तनभारेण २० क्षीरस्यन् श्रीरं गृहीतुमिच्छन्, चुरेण क्षतं व्रणं सम्पादयेत् कुर्यात् ! खलु निश्चयेन लोको गतानुगतिको
गतमनुगतियस्य तथाभूती वर्तते विवेकहीनो वर्तत इति भावः । तं लोकमनुसतुं तस्यानुसरणं कतुं का शोचनीय निन्दा आ पड़ी है । वह वास्तविक नहीं है' ऐसा यथार्थ के जाननेवालों में श्रेष्ठ आप यद्यपि जानते हैं तथापि पावके प्रसंगके भयसे चित्तमें विद्यमान यह निन्दा कही जा रही
है। बहुन भारी मढ़के गर्बसे जिसने महावतको नष्ट कर दिया था ऐसे हाथीके साथ किसी २५ उद्यानमें क्रीड़ा करते हुए सत्यन्धर महाराजने जगत्को पीड़ा उत्पन्न की। तदनन्तर तिरछा
दन्त प्रहार करने वाले हाथीने जो किया वह मुझपर परिणत हुआ । अर्थात् उस उन्मत्त हाथीने राजाको हत्या की और हमारे ऊपर उसका पाप मढ़ा गया। अरे मुझ जैसे अकिंचनको जिसने राजा बना दिया उन महाराज सत्यन्धरको पीड़ा पहुँचाने में क्या कारणो सकता
है ? ऐसा कौन मूर्ख होगा जो वृक्षके स्कन्धपर बैठकर कुठारसे उसके मूलको काटेगा ? ३० एंसा कौन अविवेकी होगा जो नावसे समुद्रको तैरनेकी इच्छा करता हुआ उसी नाबमें छिद्र
उत्पन्न करंगा ? ऐसा कौन पापी होगा जो पीने की इच्छा करता हुआ पानी के कटोरेको धूलिसे भर देगा ? एसा कौन पातकी होगा जो गायके स्तनसे दूधकी इच्छा करता हुआ उसे सुरासे घायल करेगा ? लोक तो गतानुगतिक है अतः उसका अनुसरण करने के लिए कोन समर्थ हो सकता है ? आप माननीय हैं अतः इसे मनमें न करते हुए बहुन शीघ्र आकर मेरी
१. लक्ष्मीवल्लभम् इति टि० । २. क० अकारणं करणे, ग० अकारणकरणे । ३. का भवानेतन्म. नस्यकुर्वन् ।
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AL
नमो लम्भः
३५१
वृतान्तः ]
स्माकमा कस्मिकीमकीत्तिमधिकतुर्त्या समागत्य संमार्जयेत् । उपार्जितमपि दुष्कृतं सुकृतिसमागमो हि गमयेत् । किमन्यत् । आयुष्मतः किंकरं मां गणयेत् ।
$ २३० इति कापटिकण्ठेन काष्ठाङ्गारेण प्रहित संदेशार्थसमाकर्णनेन निर्णीततदतिसंधान धः स वसुंधरापतिः 'अहो सचिवाः, साचिव्यमस्मदभीष्टार्थे दिष्ट्यानुतिष्ठति काष्ठाङ्गारः, यतः प्रागेव केनापि व्याजेन राजघमेनं समूलघातं हन्तुमुन्मतायमानान्नः स्ववधाय कृत्योत्थापनमिव ५ कुर्वन्स्वयमेवाह्वयति । तस्मादस्मत्प्रतारणपराकृतेन तेनाहृता वयमकृत कालक्षेपाः क्षेपीयः प्रस्थाय प्रस्तावितास्मदुहितृविवाहमिषाः समूलकाषं करिष्यामस्तं भुजिष्यम्' इति बभाषे । घोषयांचकार 'प्रापितकाष्टाचकाष्ठाङ्गारेण सार्धं वर्धते धात्रीपते मंत्री । गोत्रस्खलनेनाप्यस्य शात्रववार्तां
I
समर्थः स्यात् ? मान्यः समादरणीयो भवान् एतद् दोषारोपणं मनसि अकुर्वन् भस्माकम् इमां निवेदितां गुवम् आकस्मिकीम् अकस्माद्भवाम् अकीर्तिमयशः अधिकतूर्त्या शीघ्रातिशयेन समागत्य संमार्जयेत् १० दूरीकुर्यात् । उपार्जितमपि संचितमपि दुष्कृतं पापं सुकृतिसमागमः पुण्यात्मजन समागमो हि निश्चयेन गमयेत् दूरीकुर्यात् । अन्यत् किम् ? मां काष्टाङ्गारम् आयुष्मतः स्वस्य किंकरं सेवकं गणयेत् ।
१५
$ २३६. इतीति इतीत्थं कापटिकान मायाविमहत्तरेण प्रहितः प्रेषितो यः संदेशार्थस्तस्य समाकर्णनेन निर्णीता निश्रिता तस्य काष्टाङ्गारस्यातिसंधानसंभा वञ्चनाभिप्राय येन तथाभूतः स वसुंधरापतिर्गोविन्दमहाराज: 'अहो सचिवाः । दिष्टया देवेन काष्ठाङ्गारः अस्मदमीष्टार्थे स्वाभिप्रेतार्थे साचिव्यं साहाय्यम् अनुतिष्टति विदधाति यतः प्रागेव पूर्वमेघ केनापि व्याजेनच्छलेन राजधं नृपस्य इन्तारम् एनं काष्टङ्कारं समूलं हृत्वेति समूलघातं हन्तुं मारयितुम् उन्नान् स्ववधाय स्वविघाताय कृत्योत्थानं कार्यरथापनं शत्रूत्थापनं वा कुर्वनित्र स्वयमेव श्रह्वयति आकारयति । 'कृत्या क्रियादेवतयोaिy विद्विष्टकार्ययोः' इति मेदिनी । तस्मात्कारणात् श्रस्माकं प्रतारणपरं प्रववनोचतमाकूतमभिप्रायो यस्य तथाभूतेन तेन काष्टाङ्गारेण आहृता आकारिता वयम् अकृतकालक्षेपा भकृतविलम्बना: २० क्षेपीयः शीघ्रं प्रस्थाय प्रयाय प्रस्तावितः समुपस्थापितो योऽस्मदुहितृविवाहः स्त्रपुत्रीपरिणयः स एव मिषं येषां तथाभूताः सन्तः तं काष्ठाङ्गारं समूकं कषिश्वेति समूलकाएं भुजिष्यं दासं करिष्यामः' इति बभाषे कथितवान् । घोषयाञ्चकारेति व्यापितं काष्टाचक्रं दिमण्डलं यस्मिन् कर्मणि यथा स्वात्तथा घोषयाञ्चकार 'यत् काष्टाङ्गारेण सार्धं वाश्रीपतेर्गोविन्दमहाराजस्य मैत्री वर्तते । निजासूनां स्वप्राणानां प्रणयिनः स्नेहइस आकस्मिक भारी अपकीर्तिको दूर कर सकते हैं। क्योंकि पुण्यात्माओंका समागम उपार्जित पापको भी दूर कर देता है। और क्या ? आप मुझे अपना किंकर समझें' |
३०
६ २३९. इस प्रकार कपटियों में श्रेष्ठ काष्ठांगार के द्वारा प्रेषित सन्देशका अर्थ श्रवण करने से जिन्होंने उसके तीव्र मायापूर्ण अभिप्रायका निर्णय कर लिया था ऐसे गोविन्द महाराज बोले कि 'अहो मन्त्रियो ! भाग्यवश काष्टांगार हमारे अभिलपित कार्य में सहायता कर रहा है । क्योंकि इस राजहत्यारे को पहले ही किसी बहानेसे समूल नष्ट करनेकी इच्छा करनेवाले हम लोगों को यह अपने बधके लिए कार्यको उठाते हुए के समान स्वयं बुला रहा है। इसलिए हम लोगोंको ठगनेका अभिप्राय रखनेवाले उस काष्ठांगार के द्वारा बुलाये हुए हम लोग समयको व्यतीत न कर शीघ्र ही प्रस्थान करें और अपनी पुत्रीके विवाहका सिप प्रस्तावित कर उस दासको समूल नष्ट कर दें । गोविन्द महाराजने यह घोषणा भी करा दी कि हमारी
१. म० कषिष्यामः |
२५
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गचिन्तामणिः
[ २३९ विदेहजनपदस्यनिवर्तयन्तु निजासुप्रणयिनः प्राणिनः' इति । निदध्यो च निजध्यानानुपदं मदलोलुपमधुपवातविहितनियतोपास्तिकहास्तिकैः स्थलजलसमानगमनजवनतातुलितमातरिश्वभिरश्वीयेरसकृत्कृतापदानसंभवदस्तोकहस्तबदनुरूपयशस्तातिभिः पदातिभिर्लङ्घिता चलशृङ्गः शताङ्गश्च बहुशतसहल -
बहुमताम्, अमितपताकिनीपतिभिरहप्रथमिकया पृथगेव सभयं सदैन्यं सनामकथनं साङगुलिनिर्देश ५ साञ्जलिबन्धं च जवजननचिह्नलक्ष्मीप्रतिपादनपूर्वकंप्रदीमानाम्, अक्षुणामक्षौहिणीम् ।
.. २४०. अथ प्रथितप्रयाणानुगुणे पुण्यतमे लग्ने निर्गत्य निर्विघ्नतायै विहितजिनपतिदरि. वस्वः सत्रयस्यानुजेन सत्यंधरतनुजेन साधमथिजनमनोरथानर्थविसरवितरणेन चरितार्थोकुर्वन्स
युनाः प्राणिनोऽनुमन्तो गोत्रस्खलनेनापि भ्रान्त्या नामस्खल नेनापि अस्य काठङ्गारस्य शानववाता शत्रुत्वसमाचारं निवर्तयन्तु दूरीकुर्वन्नु' इति । निद्ध्यो चेति-निध्यौ च विलोकयामास च निजध्यानानुपदं सध्यानानन्तरमेव मदलोलुपानां दानलुब्धानां मधुराना नातेन समहेन विहिता कृता नियतोपास्ति. नियत सेवा येषां तथाभूतैर्वास्तिकै स्तिसमूहः, स्थल जलयोः समानगमने या जवनता शीघ्रगामिता तया तुलितो मातरिश्वा पवनो यैस्तथाभूतैः अश्वीयैः अश्वसमृदः, असकृतकृतेन नैकवारं विहितेनापदानेन साहसेन संभवन्ती अस्तोकहस्तबदनुरूपा विपुल कुशल जनानुकूला प्रशस्ततिः कीर्ति समूहो येषां तथाभृनः
पंदातिनिः पतिमिः लहियतमतिकान्तमञ्चल पर्वतशिखरं यैस्तथा भुतैः च हुशतलहरनेकः शताजै रथैश्च १५ बहुमताम् इष्टाम्, अमिता अपरिमिता ये पताकिनीपतयः सेनापतयस्तैः अहं प्रथमिकया अहं पूर्विकया . पृथगेव सभयं सत्रास सदैन्यं सकातर्य सनामकथनं स्वाभिधानसहितं साइगुलिनिर्देशं करशाखा निदेश
सहितं साञ्जलि बन्धं च करपुटबन्धयुतं च जवजननानि चेगजगनानि यानि चिहानि लेषां लक्ष्म्याः शोमायाः 'प्रतिपादनपूर्वक निर्देशपुरस्सरं यथा स्यात्तथा प्रदश्यमानाम् अक्षणां विशालामपराभूतां धा अक्षौहिणी सेनाम् ।
६२६८. अथेति-प्रधानन्तरं प्रथितस्य प्रसिद्धस्य प्रयाणस्य प्रस्थानस्यानुगुणेऽनुकूले पुण्यतमे प्रशस्ततमे लग्ने समये विघ्नानामभावो निर्विघ्नं तस्य भावो निर्विघ्नता तस्यै विहिता कृता जिनपतेजिनेन्द्रस्य वरिवस्था पूजा येन तथाभूतः सन् वयस्यानुजैः सह वर्तमान इति सवयस्यानुजस्तेन सुहल्लघुमहोदरसहितेन सत्यंधरतनुजेन जीवंधरेण सार्ध साकम् अर्थिजनानां याचकानां मनोरथा अभिलषितानि तान्
काष्टांगार के साथ समस्त दिक्चक्रको व्याप्त करनेवाली मित्रता बढ़ रही है। अत: अपने २५ प्राणोंसे स्नेह रखनेवाले प्राणी भूलकर भी शत्रुसम्बन्धी वार्तालाप न करें। उन्होंने अपना
ध्यान जाते ही उस वहुत भारी सेनाको देखा कि जो मदके लोभी भ्रमर समूहके द्वारा जिनको निश्चित उपासना हो रही थी ऐसे हाथियों, स्थल और जलमें समान वेगसे चलने के कारण जो वायुकी तुलना कर रहे थे ऐसे घोड़ों, बार-बार किये हुए पराक्रमसे जिनका अत्यधिक
कुशल मनुष्योंके अनुरूप यशका समूह उत्पन्न हो रहा था ऐसे पैदल सैनिकों, और पर्वतके ३० शिखरको भी जिन्होंने लाँघ दिया था ऐसे लाखों रथोंसे श्रेष्ठ थी तथा अपरिमित सेनापति
लोग 'मैं पहले दिखाऊँ, मैं पहले दिखाऊँ' इस प्रतिस्पर्धासे पृथक-पृथक् भय, दीनता, स्वनाम कथन, अंगुलि-द्वारा निर्देश, और अंजलि-बन्धनके साथ बेग उत्पन्न करनेवाले चिह्नोंकी शोभा बतलाते हुए जिसे दिखला रहे थे।
६२४ , अथानन्तर जिन्होंने निर्विघ्नताके लिए जिनेन्द्र भगवान की पूजा की थी और जो ३५ धन-समूहके द्वारा याचक जनोंके मनोरथको सफल कर रहे थे ऐसे गोविन्द महाराज, प्रसिद्ध
१. क० पदातिभिविडि-। २. क. वरिवस्थेन ।
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वृतान्तः ]
दशमो लम्मः
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वंतः प्रसरन्त्या त्रिसुमरवित्रिधयोधा' युवाभरणकिरणोल्लसत डिल्लता संचय कञ्चुकितककुभा करटतटनिर्यदमितमदजलधाराप्लावितधरातलद्विरदनीरदनो रन्तिवियदन्तरालया स्थैर्यविजिताखण्डलधनुःकाण्डकोदण्डमण्डलया ताण्डवितशिखण्डिमण्डलमहाध्वानस्त्यानस्तनित सातङ्कभुजङ्गया तुङ्गतुरङ्गबु र शिखर खनन जनितघत्तरपराग पटलपयः शीकर निकरनिविडितनिलिम्पना प्रावृषेत्र प्रेक्ष्यमाणया वाहिन्या वाहिनीपतिरिव प्रलयकालोलः प्रच्छादितपृथ्वीतलः प्रत्यर्थिनिर्मूलनाय ५ हेलया हेमाङ्गदविषयं प्रति वयो !
$ २४१ ततश्च वलक्षतरवारबाणोल्लसत्सौविदल्लबल्लभकरपल्लव कलितवित्रासकवेत्र
@
अर्धविरस्य धनसमृहस्य वितरणेन दानेन चरितार्थीकुर्वन् सफलयन् सर्वतः समन्तात् प्रसरन्त्या, विसुमरा विसरणशीला विविधयोधानां नानासैनिकानां य आयुवाभरणकिरणाः शस्त्ररूपालंकारमरीत्र यस्तै हल्लसता तल्लितः संवत विद्युल्लोसमूहेन कबुकिता व्याप्ताः ककुभी दिशो यया तया कस्टलटेभ्यो गण्डस्थल- १० तीरेभ्यो निर्यन्त्यो निर्गच्छन्त्यो या अमितमदजलधारा अपरिमितमदाम्बुप्रवाहास्तामिः प्लावितं घरातलं भूतलं यैस्तथाभूता ये द्विरद्रा हस्तिनस्त एवं नीरदा मेवास्तै नरिन्धित निश्छिद्रीकृतं वियदन्तरालं गगन मध्यं यथा तथा, स्थेर्येण स्थिरत्वेन विजितं पराभूतमाखण्डलस्य शक्रस्य धनुःकाण्डं येन तथाभूतं कोदण्डमण्डलं चापचक्रं यस्यास्तना ताण्डवितं नटितं शिवमण्डलं मयूरमण्डलं येन तथाभूतो यो महाध्वानो महाशब्दस्तस्य स्यानं प्रतिध्वनिः स एव स्तनितं घनगर्जितं तेन सातङ्काः समयकृता भुजङ्गा नागा १५ यथा तथा, तुङ्गा उन्नतर ये तुरङ्गा अश्त्रास्तेषां खुराणां शकानां शिखरेण अग्रभागेत खननं क्षोदनं सेन जनितः समुत्पन्नो यो धनवरपरागपटलः सान्द्रतररजोराशिः स एव पयःशीकरनिकरो जलकणकलापकतेन निविद्धितं व्याप्तं निलिम्सवर गगनं यथा तथा, प्रावृपेव वर्षर्तुनेव प्रेक्ष्यमाणया दृश्यमानया वाहिन्या सेनया प्रलयकाले वेलां तटीमुकान्त इति प्रलय का ओ को वाहिनीपतिरित्र नदीपतिरिव प्रच्छादितं व्याप्तं पृथ्वीतलं येन तथाभूतः सन् प्रत्यर्थिनिर्मूकनाय शत्रुत्पादनाय हेलयानायासेन हेमाङ्गदविषयं काष्टाकारजनपदं प्रति ययौ ।
ई २४१ वतश्रेति ततश्च तदनन्तरञ्च सैन्ये सेनायां हेमानन्दविषयं तत्रामजनपदं विविशुपि प्रवेष्टुमिच्छुनि सर्वाति सम्बन्धः । अथ सैन्यस्य विशेषणान्याह कम क्षेति वलक्षतैरैरतिशुक्लैरिवाणैः
—
१. म० श्रौधा ।
४५
२०
२५
प्रस्थान के अनुरूप अत्यन्त शुभ लग्न में निकलकर मित्रों और छोटे भाईसे सहित जीवन्धर स्वामी के साथ वर्षा ऋतुके समान दिखनेवाली सेनासे प्रलयकाल के उद्वेल समुद्र के समान पृथिवीतलको आच्छादित करते हुए शत्रुका निर्मूल नाश करने के लिए अनायास ही हेमाङ्गद देश की ओर चल पड़े। उस समय उनकी वह सेना फैलनेवाले नानायोधाओंके शस्त्ररूपी आभूषणोंकी किरणोंरूनी चमकती हुई बिजलियों के समूह से दिशाओंको व्याप्त कर रही थी । गण्डस्थलोंसे झरते हुए अपरिमित मदजलकी धारासे पृथिवीतलको डुबोनेवाले हाथीरूपी मेघोंसे उसने आकाशके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था । उसके धनुषोंके समूह ने अपनी स्थिरतासे इन्द्रधनुषों दण्डको जीत लिया था । मयूरोके समूहको ताण्डव नृत्य से युक्त करनेवाली महानिरूप बड़ी भारी गर्जनासे उसने साँपोंको भयभीत कर दिया था। और ऊँचे-ऊँचे घोड़ों के खुरोंके शिखर से खुदने के कारण उत्पन्न अत्यन्त सवन परागसमूहरूप जलके छींटों के समूह से उसने आकाशको व्याप्त कर रखा था ।
३०
३५
६ २४१. तदनन्तर अत्यन्त सफेद वारवाणोंसे सुशोभित श्रेष्ठ कंचुकियों के हस्त-पल्लवों में
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गद्यचिन्तामणिः
[ २४१ सैन्यप्रयाण
लतात्वर्यमाणराज परिबर्हचारिणि राजकीयदवीय प्रदेश प्रापणश्रवणक्षण सत्वरसं भाण्डायमानभाण्डागारिकपरिषदि प्रश्रयप्रणतोत्थित गुणधना पृच्छ्यमान गुरुजन गौरव विहिताशिषि प्रतिनिवर्तनप्रत्याशाविधुरभीरुचारु' भनिर्दिश्यमाननिधिन्यास कोणक्षोणिनि विलम्बितलम्बोदरदासे रक समाह्वान
३५४
पौनःपुन्यखिन्न स्विन्नपुरोयायिनि विस्मृत विस्मयनीयाहार्याहरण धिषणाप्रेष्यमाण भुजिष्याभाष्यमाण५ व्यश्तेतर विसंवादवचसि प्रसभप्रयाणप्रवणतानुष्ठितपृष्ठावलोकनानुवर्तमानप्रतिनिवर्त्य मानसनाभिसंसदि प्रगुणवलन भ्रष्टगोणीक दुष्टशाक्वरदूरवित्रासितया त्रिकसंबाधे चण्डचण्डाल पेटक नित्रिमुष्टिकवचैरुल्लसन्तः शोभमाना ये सौबिलवल्लभाः कञ्चुकी पतयस्तेषां करपल्लवैः पाणिकिसलयैः कलिता ता या विनासका भयोत्पादकवेत्रवल्ल्यस्वामित्वर्यमाणाः शैथ्यूकार्यमाणा ये राजानस्तेषां परिष नृपापरियदास्तेषां धारिणि, राजकोयेति दवीयः प्रवेशस्य दूरतरप्रदेशस्य प्रापणं प्रापकं वचनं १० राजकीयं राजसम्बन्धि यद् दवयः प्रदेशप्रापणं तस्य श्रवणक्षणे समाकर्णनात्रसरे सत्वरं शीघ्रं यथा स्यातथा संभावना बाद भागद्वागारिकपरिषद् माण्डागारनियुकजनसमूह यस्मिंस्तस्मिन् प्रश्नयेति--प्रश्रयेण विनयेन आदौ प्रणताः पश्चादुत्थिता ये गुणना गुणिजन स्तैरापृच्छयमाना ये गुरुजनास्तेषां गौरवेण विहिता आतीर्यस्मिस्वस्मिन् प्रतिनिवर्तनेति - प्रतिनिवर्तनस्य प्रत्यागमनस्य या प्रकाशा तया विवरा दुःखिताः भीरवो भशीकाश्च ये चारुनयः सुन्दर सैनिकास्तैर्निदिवमाना १५ गृहवासिनेपः प्रदश्यमाना निधिभ्यासस्य धननिक्षेपस्य कोणसोणी कोणभूमिर्यस्मिंस्तस्मिन् विठ म्विनेति — विकम्पितः कृतकालक्षेपो यो लम्बोदरस्तुन्दिको दासेरको दास्या अपत्यं तस्य समाह्वानस्य आकारणस्य यत्वौनःपुण्यं तेन खिन्नः खेायुक्तः स्विनः स्वेदयुक्तश्च पुरोयायी अप्रेसरो यस्मिंस्तस्मिन् विस्मृति - विस्मृतानि स्मृत्यगोचराणि विस्मयनीयानि विस्मयोत्पादकानि यान्याहार्याणि भूषणानि तेषामाहरणधिषणया आनयनमनीषया प्रेष्यमाणा ये भुजिष्या दासास्तैरामाध्यमाणानि कथ्यमानानि २० व्यफेसर विसंवादानि विरोधयुक्तानि वचांसि यस्मिंस्तस्मिन् प्रसभेति - प्रसभप्रयाणे हरु प्रयाणे या प्रवणता निपुणता तथानुष्टितं कृतं यत् पृष्ठावलोकनं पश्चाद्दृष्टिप्रसारणं तेनानुवर्तमाना अनुगच्छन्ती प्रतिनिवर्त्य मानसनाभीनां प्रतिनिवर्तनोचतसहोदराणां संसत्समूहो यस्मिंस्तस्मिन्, प्रगुणेति - प्रगुण
धारण की हुई, भयोत्पादक वेत्रलताओंसे जिसमें राजाके उपकरण धारण करनेवाले मनुष्योंको शीघ्र चलने के लिए प्रेरित किया जा रहा था । राजाके अत्यन्त दूरवर्ती स्थान तक यह सब २५ सामान भेजना है, यह समाचार सुनने के समय ही जिसमें इकट्ठे हुए भाण्डारियों का समूह शीघ्रता से युक्त हो गया था । विनयपूर्वक नमस्कार किये जानेके बाद खड़े हुए गुणरूपी धनके धारक मनुष्योंके द्वारा पूछे जानेवाले गुरुजन जिसमें गौरव के साथ आशीर्वाद प्रदान कर रहे थे। लौटने की आशासे रहित भीरु योद्धाओंके द्वारा जिसमें धन रखने के कोने से युक्त पृथिवी दिखायी जा रही थी। पीछे देर करनेवाले स्थूलपेट के धारक दासी पुत्रोंको बार३० बार बुलाने से जिसमें आगे जानेवाले लोग खिन्न तथा पसीनासे तर हो गये थे । भूले हुए आश्चर्यकारक आभूषणों को लाने की बुद्धिसे भेजे हुए सेवकों के द्वारा जिसमें अस्पष्ट तथा विरोधपूर्ण वचन कहे जा रहे थे। वेगसे चलने की दक्षतासे किये हुए पृष्ठावलोकनसे जिसमें लौटने वाले सगे-सम्बन्धियों का समूह पुनः पीछे-पीछे चलने लगता था । सीधी चालसे गोण
१. क० प्रेक्ष्यमाण - । २. म० चारभट । ३. भयभीत योद्धा लौटनेको आशासे रहित होने के कारण ३५ अपने घर के लोगोंको घरकी पृथिवीका वह कोना बतला रहे थे जिसमें कि धन गड़ा हुआ था । ४. कुछ लोग बड़े वेग से आगे जा रहे थे, उनके साथी निराश हो लौटने वाले ने क्यों हो पीछेको ओर मुड़कर देखा त्योंही लौटने वाले पुनः उनके पीछे चलने लगे । परन्तु आगे जानेवाले
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५५
-वर्णनम् ]
दशमो लम्मा घटितकठोरकुठारपाटितविटापिबिशङ्कटीकृतसंकटारण्यसरणिनि खननकरणनिपुणखानित्रकगणक्षणसंपादितोदम्भःकूपशुम्भितमरुभुवि तादात्विककृत्यदक्षतक्ष कसार्थसामर्थ्यवैचित्र्यरचितवहित्रसुतरकाकपेयसरिति पुरःप्रसारितभूरिभीकर कलकलारवकादिशोककेसरिणि चरणकषणोत्थितधरणीविसृमररेणुविसरमसृणितमयूखमालिनि वारणपरिबृढोत्पाटितपाश्वपादपपरिघसप्रतिघाध्वनि 'कण्ठरज्जु कषणोन्मथितत्वगालान रनस्पत्युद्वोक्षणवनचरानुमोयमानवारणवर्मणि प्रतिगजगन्धाघ्राणप्रती. ५ पगामिकान नद्विप प्रतिग्रहकृताग्रहभटप्राग्रहर कोलाहलभरितहरिति द्विरदतु रगखरकरभमहिषमेषवलनेन सातिशयम्रोडनेन भ्रष्टा पातिता गोणी पृष्ट मारो यैस्तथाभूता ये दुष्टशाक्वरा दुश्वृषभास्तेदृरेण वित्रासिता मपिता ये यात्रिकाः सहायिनस्तयां संबाधो विमर्दो यस्मिस्तस्मिन् , चण्डप्ति-चण्डा अत्यन्तकोपना ये चण्डाला जनङ्ग मास्तेषां पटकस्य समूहस्य निबिड मुष्टिषु सघनमुष्टिषु घटिता धृता ये कठोर कुठारास्तीक्ष्णपरशवस्तैः पाटिता विदारिता ये विपिनो वृक्षास्तैत्रिशक्करीकृता विशाळीकृता संकटारण्यसरणि: संकीर्ण- १० कान्तारमा यस्मितस्मिन् , खननेति-रखनन करणे क्षोदनकायें निपुणाश्चतुरा य खानित्रकाः खननकर्तारस्तेषां गणेन समूहेन क्षणेनाल्पनैव कालेन सम्पादिता निर्मिता ये उदम्माकूपा उस्कृष्ट जलप्रहयस्तैः सुम्मिता शोभिता मरुभूरजःस्थानभूमिस्मिस्तस्मिन् , तादात्विकेति-वादाधिककृत्ये तात्कालिककार्य दक्षाः समर्था ये तक्षकाः स्थपतयस्तेषां सार्थस्य समूहस्य यत् सामर्थ्य नैचित्र्यं शक्तिमत्ववैविध्यं तेन रचितैवहिनौंकाभिः सुतरा कारपेया गभीराः सरितो नद्यो यस्मिस्तस्मिन् , पुर इति-पुरः प्रसारितोऽग्रे विस्तारितो यो १५ भूरेिमीकरः प्रचुरमयोत्पादकः कलकारयः FINोग मानिमा मयताः केसरिणो मृगेन्द्रा यम्निस्तस्मिन् , चरणेति--चरणानां पादानां कषणेनोस्थित उत्पतितो यो धरण्याः पृथिव्या विस्मरो विसरण. शीको रेगुबिसरो धूलिसमूहस्तेन मसृणितो मलिनो मयूखमाली दिनकरो यस्मिस्तस्मिन् , धारणेति --- वारणपरिवृद्वर्गजराजैरुत्पाटिता उन्मलिसा ये पाश्चपादपा निकटानोकहास्त एव परिघा अर्गलास्तैः सप्रतिघः सवाघोऽत्रा माग यस्मिस्तस्मिन्, कण्ठेति-परमजूनां मोवारश्मीनां कषणेन घर्षणेनोन्मथिता २० स्वग बलकलं येषां तथाभूत! य आलानवनस्पतयो बन्धनवृक्षास्तेषामुद्रीक्षणेन--विलोकनेन चनचरैः किरातैरनुमीयमानं धारणवर्म गशरीरं यस्मिस्तस्मिन् 'शरीरं वर्म विग्रहः' इत्यमरः, प्रतिगजेति-- प्रतिगजानां प्रतिकारकरिणां गन्धस्याघ्राणेन नासाविषयीकरणेन प्रतीपगामिनः प्रतिकूलगामिनो ये काननद्विपाः कान्तारकरिणास्तेषां प्रतिग्रहे बन्धने कृताग्रहा विहिताग्रहा ये मटनाग्रहराः सैनिकश्रेष्टास्तेषां कोलाह लेन कलकल शब्देन भारेता हरितो दिशो यस्मिस्तस्मिन् , द्विरदेति-द्विरदा गजाः, तुगा भवाः, २५
गिरा देनेवाले दुष्ट बैल के द्वारा दूरसे ही डराये हुए यात्रीजनोंके द्वारा जिसमें भीड़-भाड़ उत्पन्न हो रही थी। तीक्ष्ण प्रकृति के धारक चाण्डालोंके समूहसे मजबूत मुट्टियों द्वारा पकड़े हुए कठोर कुल्हाड़ों के द्वारा विदारित वृक्षांसे जिसमें जंगल के संकीण मागे विशाल बनाये जा रहे थे। स्त्रोदने के कार्य में निपुण खुद्दारों के समूह से क्षणभरमें तैयार किये हुए ऊपर तक जलसे भरे कुओंसे जिसमें मरुस्थलकी भूमि सुशोभित हो रही थी। तात्कालिक कार्योके करने में ३० निपुण बढ़इयों के समूहकी सामर्यको विचित्रतासे बनायी गयी नौकाओंके द्वारा जिसमें गहरी नदियाँ सुख से तैरने योग्य हो गयी थी। आगे फैले हुए तथा बहुत भारी भय उत्पन्न करनेवाले जिसके कल-कल शब्दसे सिंह भयभीत होकर भाग गये थे। पैरोंकी रगड़से उठी हुई पृथिवीकी फैलनेवाली धूलिके समूहसे जिसने सूर्य को मटमैला कर दिया था। गजराजों के द्वारा
कण्टरजक्षतत्वचः। गजवष्म किरातेभ्य:
वः
4.
॥७६॥
AV
रघुवंश ४ सर्ग ।
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५
गद्यचिन्तामणिः
[ २४१ सैन्यप्रयाण
शाक्चरशताङ्गशकटप्रमुखपृष्ठारोपिता भी प्रकशिपुसमेतसकलहे तिनि हेमाङ्गदविषयं विविशुषि सैन्ये, राजन्योऽप्युत्तरेण राजपुरीमुपकार्यं कल्पयेयुरिति शिल्पिसमाजाध्यक्षानादिक्षत् । प्राविक्षच्च तां क्षणकल्पितां स्वसंकल्पसिद्विशङ्काप्रहृष्टेन काष्ठाङ्गारेण प्रसभं प्रत्युद्यातः पृथिवीपतिः ।
३५६
$ २४२. अनन्तरमापाटलपटकुटी घटनाया सक्लान्तस्वान्तेषु गृहचिन्तकेषु विलुठितोत्थितविधूतापीयमानतोयेषु तोयाशयेषु बहुप्रयामप्रापितालान स्तम्भेषु मदम्तम्बेरमेषु सद्यः पाकसंपादनोद्युक्तमनसे महान समुपस्थितेषु पुरस्तादेव पौरोगवेषु सत्वरसंकल्पितमापणमासेदुषि प्रथमतरपणायनत्रणभाजि वणिजि वामहस्तावलम्बितमस्तक कुटोष्ठासु कूपसरिद वेषिणीपु
खरा वैशाखनन्दनाः, करमा उष्ट्रा, महिषाः सैरियाः, शात्रवरा वृत्रनाः शताङ्गानि रथाः शकटानिन्ः ते प्रमुखा येषां तेषां पृष्ठेषु आरोपिता अधिष्ठापिता अभीष्टकशिपुसमेता अभिलषित भोजनाच्छादनादि१० सहिताः सकळ तयो निखिलशखाणि यस्मिंस्तस्मिन् । राजन्योऽपीति-- राजन्योऽपि गोविन्दमहाराजोऽपि राजपुरीमुत्तरेण 'एना द्वितीया' इति द्वितीया 'उपकार्या राजाहपटकुटीं कल्पयेयुः' इति शिविसमाजस्य कामकरसमूहस्याध्यक्षान् प्रमुखान् आदिशत् आदिदेश । प्राविश्रचेति - प्राविशच्च प्रविवेश च क्षणकल्पितां सस्वरनिर्मितां तामुपकार्या स्वकल्यस्य निजमनोरथस्य सिद्धेः शङ्कया प्रहृष्ट: प्रसन्नस्तेन काष्टाङ्गारेण प्रथमं हा प्रत्युद्यात्वा सस्कृतः पृथिवीपतिर्गोविन्दमहीपतिः ।
१५
६ २४२. अनन्तरमिति - अनन्तरं प्रत्युद्गमनानन्तरम् आपाटलानामीद्रवर्णानां पटकुटीनां घर निर्माणे य आमासः खेदस्तेन क्लान्तं खिनं स्वान्तं चितं येषां तथाभूतेषु गृहचिन्तकेषु सत्सु आदी त्रिः पश्चादुत्थिता' इति विलुठितोत्थिताः तथाभूता विधूतकायाश्च कम्पितशरीराश्व ये हया वाजिनस्तैः पीयमानं तोयं येषां तथाभूतेषु तोयाशयेषु जलाशयेषु सरसु, मदस्तम्बेरमेषु सत्तमतङ्गजेषु बहुप्रयासेन महाप्रयत्नेन प्रापिता आलानस्तम्भा बन्धनस्तस्मा यैस्तथाभूतेषु सत्सु सो समिति पाकसंपादने भांजन२० परिपाचन उद्युक्तं मानसं येषां तेषु पौरोगवेषु पाचकेषु पुरस्तादेव पूर्वमंत्र महानसं पाकशाकाम् उपस्थितेषु प्रालेषु सत्सु प्रथमतरं सर्वतः पूर्व पणायने विक्रयणे स्वरणं शैध्यं भजति तथाभूतं वणिजि व्यापारिणि सत्र संकल्पितं शीघ्रनिर्मितम् आपणं हद्दम् आसेदुषि प्राप्तवति सति वामहस्तेनावलम्बिता गृहीता मस्तकउखाड़े हुए समीपवर्ती वृक्षोंके लट्ठोंसे जिसमें मार्ग वाघापूर्ण थे। गलेकी रस्सीको रगड़ते उचड़ी हुई छालसे युक्त बाँधनेके वृक्षोंको ऊपर देख-देखकर जिसमें वनचर हाथियों के २५ शरीरका अनुमान कर रहे थे । प्रतिद्वन्द्वी हाथी की गन्धको सूँघने से बिगड़े हुए जंगली हाथीको पकड़ने की हठ करनेवाले श्रेष्ठ योद्धाओंके कोलाहल से जिसमें दिशाएँ भर गयी थीं। तथा जिसके अभीष्ट अन्न और वस्त्रोंसे सहित समस्त हथियार हाथी, घोड़े, गधे, ऊँट, भैंसे, मेढ़े, बैल, रथ और गाड़ी आदि प्रमुख वाहनोंके पृष्ठपर रखे हुए थे। ऐसी सेना जब हेमांगर देश में प्रवेश करने को उद्यत हुई तब गोविन्द महाराजने शिल्पिसमाज के प्रमुखोंको आदेश ३० दिया कि राजपुरीके उत्तरकी ओर राजवसतिका बनायी जायें। राजवसतिका क्षण-भर में हो तैयार हो गयी और अपने संकल्पकी सिद्धिकी शंकासे हर्षित काष्टांगारने जिनकी जोरदार अगवानी की थी ऐसे गोविन्द महाराजने उसमें प्रवेश किया ।
९२४२. तदनन्तर जब घरोंकी चिन्ता रखनेवाले लोग कुछ कुछ लाल डेरों के बनाने से खिन्न चित्त हो गये, लोटकर खड़े हुए और शरीरको कम्पित कर चुकनेवाले घोड़ोंके द्वारा ३५ जब जलाशयोंका जल पीया जाने लगा, मदमाते हाथी जब बहुत भारी प्रयासके बाद बाँधने के खम्भोंके पास ले जाये गये, शीघ्र ही रसोई तैयार करने में तत्पर चित्तवाले रसोइया जब पहले से ही रसोई-घरों में उपस्थित हो गये, सबसे पहले बिक्री करने के लिए शीघ्रता
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-वर्णनम् ] दशमो लम्भः
३५७ कुट्टिनीपु, प्रसभं बहिः प्रधावत्येधानाहारके दासेरके, स्नातानुलिप्ताङ्गासु घ्रियमाणभृषासु, वारयोपासु, व्यसनगौरवस्मारितपथकथाकथनलम्पटे दम्पतिनिवहे, अहंपूर्विकोपसरदनेकविधयोधावस्कन्दनकृताक्रोशे क्रोशशतान्तर्गतकुटुम्बिवर्ग, मार्गश्रमापनोदनमनीषानिहितदयिताशिरसि यवीयसि, विशङ्कटपीठप्रसारितप्रसव जालहेलानहनमनोहारियां मालिकयुवतिनेण्याम, श्रेणीभृतपादाताधिष्ठितागु काष्ठासु, काष्ठाङ्गारेण सबहुमानमुपायनीकृतमनतिवयस्कममन्दबल- ५ माश्वीयं हास्तिकमप्यास्थानकृतावस्थितिरयमद्राक्षीत्, प्राहैषीच्चास्य प्रतिप्राभृतम् । अताडय च्च कुटानां शिरोष्टतकुम्भानामोष्टा यामिस्तासुकुहिनीयु दासीपु कूपसरिदविणीषु प्रहिनदीमार्गिणीपु सत्सु,एधान् काष्टान् आहारकं भाहरणशीले दासेरके दासीपुग्ने सेवक इत्यर्थः, प्रसभं हटात् बहिः प्रधाबति बनेन गच्छति सति, आदी सातं पश्चादनुलिप्तमङ्गं शरीरं यासा तासु धाश्योपासु वेश्यासु ध्रियमाणापा याभिस्तथाभूतासु सतीपु, दम्पतिनिव हे स्त्रीपुंपसमूह प्रसनगौरवण कातिशयेन स्मारिता याः पथिकथा मार्गवार्ता. १० स्तासा कथने प्ररूपये टम्पो लम्पाकसायाभूते सति' क्रोशशतस्थान्तर्गती मध्ये स्थितो यः कुटुम्बिवर्गस्तस्मिन् अहं पूर्विकया अहंप्रथमिकया उपसरन्तः समीपमागच्छन्ती येऽनेकविधयोधास्तयामत्रस्कन्दनेनाक्रमणेन कृत आक्रोशो येन तथाभूत सति, अतिशयन युवा यवीयान् तस्मिन् प्रौढतरुणे मार्गश्रमापनोदनस्य वर्म वेददूरीकरणस्य मनीषया बुद्धश निहितं स्थापितं दयिताया वल्लभाया अङ्के कोडे शिरो यन तथाभूते सति, मालिकानां सम्विकेतृणां युक्तयस्तरुण्यस्तासां श्रेणी तस्यां विशष्ट विशाले पीठे काष्टफलके प्रसारित- १५ प्रसवान प्रसारितपुष्पाणां जाळस्य समूहस्य हेलयानायासेन नहनेन बन्धन मनो हरतीत्यवंशीला तथाभूतायां सस्याम् , काठासु दिशु पहाती समुहः पादार प्रेणीभूतं पहिक्तरूपेण स्थितं यस्मादात पदातिसमूहस्तेनाधिष्टिनासु युझातु सतोपु, आस्थाने समामण्डपे कृता विहितावस्थितिरुपवेशन येन सथाभूतोऽयं गोविन्दामिधानो महीपालः काष्ठाङ्गारेण तसामनृपण सामानं भूयिष्टादरसहितम् उपायनीकृतमुपट्टतम्, न विद्यतेऽतिवयो दीर्धावस्था यस्य तथाभूतम् अमन्दबलं प्रचुरपराक्रमम् अश्वीय हयसमूह २० हस्तिनां समूहा हास्तिकं गः समूहम् अद्रासीत् । प्राईपीच्च जिघाय च अस्य काष्टाङ्गारस्य प्रतिमाभुतं करनेवाले वणिक जब शीघ्र निर्मित बाजार में पहुँच गये, शिरपर रखे घड़ोंक ओठोंको बाँयें हायसे पकड़नेवाला स्त्रियाँ जब कुएँ और नदियों की खोज करने लगीं, लकड़ियाँ लानेवाल दास जब बाहर वेगसे दौड़ने लगे, स्नान करने के बाद शरीरमें चन्दनादिका लेप लगानेवाली वेश्याएँ जब आभूयण धारण करने लगी, दम्पतियों के समूह जब कष्टकी अधिकतासे २५ स्मरणमें आगत मार्गकी कथाओं के कहने में लम्पट हो गये, सौ कोशके भीतर के गृहस्थ लोग जब पहले पहुँचनेकी प्रतिस्पर्धासे समीपमें आनेवाले अनेक प्रकार के योधाओं के आक्रमणसे चिल्लाने लगे, जब तरुण पुरुप मार्गका श्रम दूर करने की बुद्धिसे स्त्रियों की गोद में शिर रखने लगे, जब मालाकारोंकी तमण स्त्रियों की श्रेणी बड़ी भारी चौकीपर फैलाये हुए फूलोंके समूहको अनायास ही Dथ नेसे मनोहर दिखने लगी, और दिशा ज ब पंक्तिबद्ध पैदल सैनिकोसे युक्त हो ३० गयीं तव सभामें बैठे हुए गोविन्द महाराज काष्ठांगार के द्वारा बहुत भारीसम्मानके साथ उपहारमें दिये हुए तरुण एवं अत्यन्त शक्तिशाली घोड़ोंका सगृह तथा हाथियों का दल देखा और बदलेग काष्टांगार के लिए भी भेंट भेजी। साथ ही यह डंका भी बजबा दिया कि जो कोई
१. तुच्छच्छायः स देशः स तु विरलजल: सोऽपि पाथः प्रहीणः
सा भूमिः क्षारतोया परुष दृषदसौ शर्कराकरा सा । तत् क्षेत्र कण्टकाढय तृणविकलमदस्तत्तु धूलोकरालं छायास्वैवं तरूणामभिदधति मिथः शेविरा मार्गदुःखम् ।।३। विक्रान्तकौरवे अंक १,
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गद्यचिन्तामणिः
[ २४२ गोविन्दसुतायाः
डिण्डिमम् 'अतिरुद्र चन्द्रकयन्त्रनियन्त्रितं यो नाम युगपदेव पातयितुं शक्नोति शरेण शरव्यतां गतं वराहृत्रयं वराहेऽस्मिन्नेव वरोऽयमस्मत्कुमार्याः स्यात्' इति । आयासिषुश्च चोलकेरलमालवमाग पाण्ड्यपारसी ककलिङ्ग काश्मीर काम्भोज प्रभृतिदेशाधिपा महीभृतः ।
$ २४३. पुनरवसरेऽस्मिन्नविप्रकृष्टमृतेः काष्ठाङ्गारस्य नापरो रोदितीति स्वयं रुदिव ५ मन्यमानं व्यावहारसितमनिशमम्बरतले बम्भ्रमद्वायसमण्डलं खण्डितशिरोभागं तदीयशीर्षच्छेद्यतानियतिसूचननित्यं कवन्धमनन्तरज्वलिष्यददसी यशोकधूमध्वज पुरोगमधूमेनेव दिग्धूमेन धूम्रोपान्तं दिगन्तं नितान्तनिस्त्रिफलन्यादृशमपि मन्युभरावादनं महोलातं निशाम्य निकृष्टाचारे काष्ठाङ्गारे किचिन्न्यञ्चन्मनसि विषेण वा केनापि मिषेग वा वञ्चयितुं वाञ्छति गोविन्द
३५८
प्रत्युपायनम् । अताइयच्चेति-अताडयच्च डिण्डिम उक्काम् 'अतिरुद्रेण विशालेन चन्द्रकयन्त्रेण नियन्त्रित१० मित्यतिरुन्द्र चन्द्रकयन्त्र नियन्त्रितं शरूयतां लक्ष्यतां गतं प्राप्तं वराहृत्रयं वराहाकारपुतलिकात्र्यं युगपदेव एककालावच्छेदेन शरेण पातयितुं यो नाम शक्नोति समर्थो भवति अयम् अस्मिन्नेव वराहें श्रेष्टेऽहनि अस्मत्कुमार्या मत्पतिवराया वशे भर्ता स्यात्' इति । आयासिपुच समाजग्मुश्च चोल - केरलादिदेशाधिपा महीभृती राजानः |
६ २४३. पुनरिति - पुनरनन्तरम् अस्मिन् अवसरे काले विप्रकृष्टा निकटस्थ सृतिर्भरणं यस्य . १५ तस्य काष्ठाङ्कारस्य विषयेऽपरोऽन्यो न रोदितीति हेतोः स्वयं रुदिव मन्यमानं प्रतीयमानं दैन्यावहं च तदारसितञ्चेति दैन्य/वहारसितं दानत्वादकशब्दम् अनिशं निरन्तरम् अम्बरतले गगनतले बम्भ्रमत् कुटिलं श्रमत् वास नडलं काकसमूहम्, खण्डितः शिरोभागो यस्य तथाभूतं तदीयशीर्षस्य काष्ठाङ्गारशिरश्छेद्यताया नियतिर्देवं तस्य सूचननिबन्धं निवेदन निदानं कबन्धं शिरोहीनमृतकलेवरम्, अनन्तरं
यिन् योऽसीयः काष्टाङ्गारीयः शोकधूमध्वजः शोकाग्निस्तस्य पुरोगमधूमोऽप्रयाविधूमस्तेनेच दिग्धूमैन २० दिक्षु व्याप्त धूम्राकारपदार्थविशेषेण धूम्री मलिन उपान्तः पार्श्वप्रदेशो यस्य तथाभूतं दिगनाम्, नितान्तमध्यर्थं निस्त्रिंशं क्रूरं फई यस्य तथाभूतम् अन्यायमपि मन्युमसादनं शोकसमूहकारणं महोत्पातं महानिष्टकरमुदकं निशाम्य दृष्ट्रा निकृष्ट चारेऽघमाचारे काष्टाङ्गारं किञ्चित् मनाइ न्यञ्चद्धानं मनो यस्य
अत्यन्त सघन चन्द्रक यन्त्र से नियन्त्रित एवं लक्ष्यपने को प्राप्त हुए तीन वराह के पुतलोंको वाणसे एक साथ गिरानेके लिए समर्थ होगा वह इस उत्तम दिनमें हमारी पुत्रीका बर होगा। डंका २५ सुनते ही चोल, केरल, मालव, मागध, पाण्ड्य, पारसीक, कलिंग, काश्मीर और काम्भोज
आदि देशों के अधिपति राजा वहाँ आ गये ।
६ २४३. तदनन्तर इसी अवसरपर जिसका मरण निकटवर्ती हैं ऐसे काठगारके लिए कोई रोता नहीं हैं यह सोचकर जो स्वयं रोते हुए के समान जान पड़ता था और जो दीनताको धारण करनेवाले शब्द का रहा था ऐसा आकाश में निरन्तर मँडराता हुआ कौओंका ३० समूह दिखाई देने लगा। जिसका सिर कटा हुआ था और जो कालांगार के शिरके कटने के भाग्यको सूचनाका कारण था ऐसा शिररहित घड़ दिखाई देने लगा | दिशाओंका अन्त भाग कुछ ही समय बाद प्रज्वलित होनेवाले काष्ठशंगार के झोकानलके आगे-आगे चलनेवाले धूमके समान दिशाओं में छाये हुए धूमसे धूमिल हो गया । और जिसका फल अत्यन्त क्रूर था ऐसा झोक के समूहको उत्पन्न करनेवाला अन्य अन्य प्रकार का भी महात्वात होने लगा । उस ३५ महोत्पातको देख नीच आचरणको धारण करनेवाला काष्ठांगार कुछ छीन चित्रसे युक्त हो
१. विशाल - इति टि० । २. क० कबन्धमनन्तरं ज्वलिष्यद• ।
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-स्त्र यंवरवृत्तान्तः ]
दशमो कम्मः महाराजम्, राजपुरों निकषा निषेदुषां नरपतीनामुपकार्यासु च प्रतिप्रदेशं स्वदेशाद्देशान्तरं कन्याभिनिवेशेन विशतां विशांपतोनाम्' "धनुर्धरतमः कतमस्तां लभेत ? लब्धवति च चापविद्यालब्ध. वर्णे कस्मिंश्चिदिमां कन्य कामन्ये कथमहोकाः स्वगृहं प्रविशेयुः ? अपि च केचिदतः पूर्वमनुद्धृतशरासनाः संप्रत्युपासनामुपरचयन्ति । परे तु शरगुणनिकां कर्नु गुणवन्मुहूर्त पृच्छन्ति मोहूर्तिकान् । इतरे तु 'वयमारचित समस्तशस्त्र योग्याः सर्वथा योग्याश्च भाग्याधिकाश्च' इति पण्डितं- ५ मन्याः कन्य का हस्तस्यामाकलयन्ति । तावदतिशयितालात चक्रशेव्रये यन्त्रचक्रे शकस्याप्यशश्यमारोहणम्, आस्तां विद्धिः" इति योद्धृषु कथयत्सु, साधीयसि लग्ने स्थापितं यन्त्र मामन्त्रितास्ते विश्वेऽपि विश्वभरापतय. परिवार्य पश्यन्तस्तदीयचक्रभ्रमगरयमासांचक्रिरे। तेषु केचिदुद्वीक्ष्य यन्त्र
तथाभूते विषेण वा गरलेन या केनापि मिषेण न्याजेन वा गोविन्दमहाराजं विदेहाधीश्वरं वचयितुं प्रनारयितुं वायति सति, राजपुरी निकषा तस्याः समीपे 'अभितःपरित समयानिकषाहापातयोगेऽपि' १० इति द्वितीया, निवेदुषां स्थितषतां नरपतीनां राज्ञाम् उपकार्यासु च पटकुटी व प्रसिप्रदेशं स्थाने स्थाने कन्यामिनिवेशेन कन्यापाध्यमिप्रायेण स्वदेशास्त्रस्थानात् देशान्तरं स्थानान्तरं त्रिशतां प्रवेशं कुर्वतां विशांपतीनां राज्ञाम् अतिशयेन धनुधर इति धनुधरतमः श्रेष्टतमधानुकः कतमः तां कन्यां कमेत ? प्राप्नुयात् ? पापविद्यायां धनुर्विद्या उब्धवर्णा विचक्षणस्तस्मिन् कस्मिंश्चित् जने इमां कन्यका लम्भवति प्राप्तवनि च सति अहीका निर्लज्जा अन्ये स्वगृह स्वकीयसदनं कथं त्रिशेषुः प्रदेशं कुर्यु ? अपि च, भतः पूर्वम् अस्मात्याग ११ अनुद्धतं शरासनं धनुयस्तऽनुद्धसशरासना अनुसमितकोदण्याः केचित् जनाः सम्प्रति साम्प्रतम् उपासना. मभ्यासम् उपरचयन्ति । परे मु अन्ये मुशरगणनिका बायोग्यां बाणाभ्यासमित्यर्थः कर्तुं विधाk मौहर्तिकान् देवज्ञान जगन्मुल गोष्टसुह। ति : लेनु 'आरचिता कृता समस्तशस्त्रेषु निखिलायुधेषु योग्याभ्यासो यैस्तथाभूना वयं सर्वथा सर्वप्रकारेण योग्याश्न अश्वि भाग्याधिकाश्च स्मः' इति आत्मानं पण्डितं मन्यन्त इति पण्डितक्रन्याः कन्यको हस्तस्थां स्वपाणिस्थिताम् आकलयन्ति । तावरसाकल्येनातिः २० शायितमतिक्रमितमलात चक्रस्य शैऽयं येन तस्मिन् शक्रस्यापि पुरन्दरस्थापि भारोहणं चटनम् अशक्यम्, विद्विधनम् भारत दूरे मरतु इति योद्धषु मटेषु कथयत्सु सत्सु, साधीयसि श्रेष्ठतमे कग्ने स्थापितं यन्त्रं परिवार्य परिवेष्टय आमन्त्रिता प्राहृतास्ते विश्वेऽपि निखिला अपि विश्वभरापतयः तदीयचक्रस्य भ्रमणरय
जब विष अथवा किसी अन्य मिषसे गोविन्द महाराजको ठगनेकी इच्छा करने लगा तब राजपुरीके निकट स्थित एवं राजवसतिकाओंमें स्थान-स्थानपर कन्याके अभिप्रायसे अपने २५ स्थानसे दूसरे स्थानमें प्रवेश करते हुए राजाओंमें इस प्रकार चर्चा होने लगी। कोई कहने लगा कि देखें कौन धनुर्धारी उस कन्याको प्राप्त होता है ? और धनुर्विद्यामें यशस्वो कोई पुरुष इस कन्याको प्राप्त कर भी लेगा तो दूसरे मनुष्य निर्लज हो अपने घर में कैसे प्रवेश करेंगे ? कितने ही लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इसके पूर्व धनुष उठाया भी नहीं था। वे इस समय उसकी उपासना कर रहे हैं। कुछ लोग बाण चलानेका अभ्यास करने के लिए ३० ज्योतिषियोंसे गुणवान्-उत्तम मुहूर्त पूछ रहे हैं। हमने शस्त्रोंका अभ्यास किया है अतः सर्वथा योग्य हैं तथा भाग्यशाली भी है। इस प्रकार अपने-आपको पण्डित माननेवाले अन्य लोग कन्याको मानो हाथ में ही स्थित समझते है ।।
तदनन्तर जब योद्धा इस प्रकार कह रहे थे कि 'सम्पूर्ण रूपसे अलातचक्रको शीघ्रताको उल्लंधित करनेवाले यन्त्रचक्रपर इन्द्रका भी चढ़ना कठिन है फिर वेधना तो दूर ३५
१. क. विशपतीनां मध्ये- । २ क० आचरितः । ३० स्थापितयन्धम् । ४ क. 'विश्वपि' नास्ति ।
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ܘ܀
रायचिन्तामणिः
[ २४३ गोविन्दसुताया:
मुगाधिष्ठिताश्चित्रीयाविष्टाश्च त्वष्ट्रा तु निरमीयत निर्विचारम् । मनसाप्यतमेतन्मूर्खेण केन दुर्वर्णेन कन्यकायाः शुल्कत्वेन कल्पितम् । आकल्पमेतदभेद्यमेव लक्ष्यं द्रक्ष्यामः । तदपि सा च कुमारी स्वकुलगृह एव जयमियात्' इति चिन्तयन्तस्तरुणीलाभबुद्धिं विद्धि च जहुः । केचिदुद्धताः सलोलमुत्थाय भूतलादाततज्यमापाद्य कार्मुकं करपल्लवाकलितभल्ला: सोल्लासमारुह्य यन्त्र वक्रम दसांयभ्रम भ्रान्तस्वान्ताः स्वकान्तामवनिमन्याभिलाषविलोकनविहितेय परिष्वङ्गेण प्रसादवितुमित्र प्रसभ पृथ्वीतले निपेतुः । कैश्चिदभिसंधि पुरःसरमारूढचक्रः संधाय निःसारिताः शराः शरव्यं तरसोपसृत्य पार्थित्रमित्रार्थिनो निष्फला न्यवर्तिषत । कैश्चिदा
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परिभ्रमणपश्यन्तो विठोकमाना भासानकिरे स्थिता बभूवुः 'यासु उपवेशने' 'दयायासश्च' इत्याम् | तेषु विश्वम्भरापति केचित् यन्त्रम् उद्वीक्ष्योर्ध्वा विलोक्य उद्वेगेन व्याकुलत्वेनाधिष्टिता युक्ताः १० चित्रीयाविशश्व विस्मयाभिभुतान सन्तः स्वष्टा तु वक्ष्णातु निर्विचारं यथा स्यात्तथा निरमीयस व्यरच्यत 'तशा तु विरूपारक. एक कष्टतट्' इत्यमरः । मनसापि चेतसापि अतर्क्यमविसृश्यम् एतद् यन्त्रवेधनं केन दुर्वर्णेन दुष्कीर्तिना मूर्खेण कन्यकायाः शुल्कत्वेन कलितं निश्चिनम् । एतल्लक्ष्यम् आकल्पं कल्पकालमभिव्याप्य अभेद्यमेव द्रक्ष्यामः । तदपि सा च कुमारी स्वकुलगृह एव स्त्रवंशसदन एव जरां वार्धक्यम् इयात्' इति चिन्तयन्तो विचारयन्तस्तरुणीलाभस्य युवतिप्राप्तेर्बुद्धि मनोरथं विद्धि व ताडनं १५ च यन्त्रवेधनमिति यावत् जहुः तस्यजुः 'ओहाक् त्यागे' इत्यस्य लिटिरूपम् । उद्धता गर्दिशः केचित् सलीलं सक्रीडं भूतलात् पृथिवीपृष्ठाद् उत्थाय कार्मुकं धनुः आनतभ्यं विस्तृतप्रत्यञ्चम् आपाद्य कृत्वा करपल्लवेषु पाणिकिस वाकतो तो मकः प्रासो यैस्तथाभूताः सन्तः सोल्लासं सहर्षं यन्त्रचक्रम् आरा चरित्वा अदसीय भ्रमणस्य यन्त्रचक्रभ्रमणस्य शैणि भ्रान्तं स्वान्तं चित्तं येषां तथाभूताः सन्तः अन्यस्था अभिलाषो वादा तस्य विलोकनेन विहिता कृता ईर्ष्या यया तथाभूतां स्वकान्तां निजमानिनीम् अवनिं भूमिं २० परिष्वङ्गे समालिङ्गनेन प्रमं हठात् प्रसादयितुमिवानुनेतुमिव पृथिवीतले भूतले निपेतुः पतन्ति स्म । अभिसन्धिपुरस्सरमभिप्राय पूर्वकम भरूडं चक्रं यैस्तथाभूतैः कैश्चित् संघायमध्य चत्वा निःसारिता निर्ग मिठाः शरा बाणा: तरसा बलेन शरव्यं लक्ष्यम् उपसृत्य प्राप्य लुब्धपार्थिवं लुब्धनृपम् उपसृत्य अर्थिन * याचका इव निष्फळाः सन्तो न्यवर्तिषत प्रत्यावृत्ता बभूवुः । आकर्ण श्रवणपर्यन्तमाकृष्टा चारयष्टिस्तथारहा' तंत्र उत्तमोत्तम लग्न में स्थापित यन्त्रको घेरकर वे सभी राजा उसके चक्र के भ्रमणसम्बन्धी वेगको देखते हुए खड़े हो गये। उन राजाओं में कितने ही लोगोंने यन्त्रको देख उद्वेग और आश्चर्य से युक्त हो यह विचार करते हुए युवती की प्राप्तिकी बुद्धि और यन्त्रका बेधना छोड़ दिया कि 'ब्रह्माके द्वारा कार्य निर्विचार - विवेकके बिना ही किया जाता है। जिसका मनसे भी विचार नहीं किया जा सकता ऐसे इस यन्त्रवेध को किस अधम मूर्खने कन्याके शुल्क रूपसे निश्चित किया है ? इस लक्ष्यको तो हम कल्पकाल पर्यन्त अभेद्य ही देखते रहेंगे और वह कुमारी भी अपने कुलगृह में ही वृद्धावस्थाको प्राप्त हो जायेगी । कितने ही उद्धत राजा पूर्व पृथ्वीसे उठे और धनुषको प्रत्यंचासे युक्त कर हाथोंमें भाले लेते हुए हर्ष के साथ उस यन्त्रचक्रपर चढ़ तो गये परन्तु उसके भ्रमण की शीघ्रता से उनके चित्त घूमने लगे और वे पृथ्वीतलपर आ पड़े। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अन्य स्त्रीकी अभिलाषा देखने से उनकी स्त्री पृथिवी ईर्ष्या करने लगी थी इसलिये उसे आलिंगनके द्वारा प्रसन्न करने के लिए ही हठात् पृथिवीतलपर आ पड़े थे। कितने ही राजा दृढ़ अभिप्रायपूर्वक चक्रपर चढ़ गये और उन्होंने धनुषपर चढ़ाकर बाण छोड़े भी परन्तु जिस प्रकार लोभी राजा के पास
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१. क० ख० ग०. अभिसिद्धि ।
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- स्वपंचरवृत्तान्तः ]
दशमी उम्मः
कर्णाकृष्टचापयष्टिभिनिसृष्टाः खगाः खचरेभ्यः कथयितुमिव तदत्यद्भुतमतिक्रम्य लक्ष्यमन्तरिक्षमुत्पेतुः ।
$ २४४. एवमतिक्रान्तेष्वधं सप्तमवासरेषु क्रमादिष्वास विद्यालब्धवर्णेषु त्रैवर्णिकेष्वरेषु सर्वेष्वपराद्धपृषत्केषु दिव्यशक्तिकः स जीवककुमारः, स्मेराक्षिविक्षेपः सहस्राक्ष इव चक्षुद्रयोपेतः, पमुख इव दर्शितैकमुखः, चक्ररहित इव चक्रपाणिः, साङ्ग इवानङ्गः स्वाङ्गविलोकन- ५ विभावनीयवैभवप्रतापः प्रत्यूषा डम्बर इवोदयाचलप्रस्थगतः समस्तबन्धुभिः रूपं सिन्दूरबन्धुरसिन्धुरस्य कस्यचित्पृष्ठमधितिष्ठन्निमां गोष्ठोमुपातिष्ठत् । तदतिमात्रानुभावावलोकनमात्रेणैव धात्रीपतय: - 'पतिरयमेव लक्ष्मणाया: लक्ष्यभेाचज नियमेग' इति निरणेषुः । काष्ठाङ्गा
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भूतैः कैश्चित् कैरपि राजमिः निसृष्टारत्याः खगा बाणाः सवरेभ्यः खगेभ्यः कथयितुमिष निवेदयितुमिव अत्यद्भुतमत्याश्चर्यकरं तद् लक्ष्यं शरव्यम् अतिक्रम्य समुल्य अन्तरिक्षं गगनम् उत्पेतुः उत्पतन्ति स्म । ६ २४४. एवमिति एवमनेन प्रकारेण अर्धः सप्तमो येषु तथाभूताश्च ते वासराच तेषु सार्धषद्दिवसेषु अतिक्रान्तेषु व्यतीतेषु सत्सु क्रमात् इदवासविद्यायां धनुर्विद्यायां लब्धवर्णा विचक्षणास्तेषु चैवर्णि केषु ब्राह्मणक्षत्रियवैयेतित्रिवर्णसमुत्पतेषु अपरेण्वन्येषु सर्वेषु भ्रपराद्धा वाद् भ्रष्टाः पृषत्का याणा येषां तथाभूतेषु सत्सु दिव्या शक्तिर्यस्य तथाभूतो दिव्यशक्तिकः अर्कोौकिकपराक्रमः स्मेरो विकसितोऽक्षिविक्षेपो यस्य तथाभूतः स जीवककुमारः चक्षुयोपेतो नेत्रयुगयुक्तः सहस्राक्ष इव इन्द्र इव, दर्शितं प्रकटितमेकमुखं १५ येन तथाभूतः षण्मुख हुत्र कार्तिकेय इव चक्ररहितश्चक्रपाणिरिव चतुर्भुज इव, साङ्गः सशरीरः अनङ्ग इव काम इव स्वाङ्गस्य स्वशरीरस्य बिलोकनेन दर्शनेन विभावनीयो बैमवतापां यस्य तथाभूतः उदयावलप्रस्थगतः पूर्वाचलशृङ्गस्थितः प्रत्यूषादम्बर इव प्रभातविस्तार इव समस्तबन्धुमिर्निखिलेष्टजनैः समं सार्व कस्यचित् कस्यापि सिन्दूरेण नागसंभवेन 'सिन्दूरं नागसम्भवम्' इत्यमरः । बन्धुरो मनोहरो यः सिन्धुरो हस्ती तस्य पृष्ठम् अधितिष्टन् तत्रोपविष्टः सन् इर्मा पूर्वोकां गोष्टीं स्वयंवरसभाम् उपातिष्ठत् तस्याः २० पाश्याय बभूव । तस्य जीवकस्यातिमात्रः प्रभूततमो थोऽनुमात्रप्रभावस्तस्यावलोकनमात्रेणैत्र दर्शनमात्रेणैव धात्रीपतयो राजानः 'अयमेव लक्ष्मणाया गोविन्दभूभुषसुतायाः पतिः । जगति भुवने नियमेन
जाकर याचक निष्फल लौट आते हैं उसी प्रकार उनके वे बाण वेगसे लक्ष्य तक पहुँचकर वापिस लौट आये | और कान तक धनुष खींचनेवाले कितने हो राजाओंके द्वारा छोड़े हुए बाण विद्याधरोंके लिए उस आश्चर्यकी सूचना देने के लिए ही मानो लक्ष्यका उल्लंघन कर २५ बहुत ऊँचे आकाश में उड़ गये ।
१. क० भवत्ययमेव ।
४६
६ २४४. इस प्रकार जब साढ़े छह दिन व्यतीत हो गये और क्रमक्रमसे धनुविद्या में यशको पा करनेवाले अन्य सभी त्रिवर्णके लोगोंके आण जब लक्ष्य हो गये - निशाना चूक गये तब दिव्य शक्तिको धारण करनेवाले एवं प्रसन्नता से युक्त नेत्रोंके संचार से सहित जीवन्धर स्वामी सिन्दूरसे सुशोभित किसी हाथी की पीठ पर सवार हो समस्त बन्धुजनोंके ३० साथ इस गोष्ठी में पहुँचे। उस समय जीबन्धर स्वामी दो चक्षुओंसे सहित इन्द्र के समान, एक मुखको दिखलानेवाले कार्तिकेय के समान, चक्ररहित चक्राणिके समान, शरीरसहित कामदेव के समान, तथा अपने शरीर के देखनेसे जिनके वैभव और प्रतापका बोध हो रहा था ऐसे उदयाचलके शिखरपर स्थित सूर्य के समान जान पड़ते थे। उनके सातिशय प्रभावको देखने मात्र से राजाओंने निर्णय कर लिया कि यही लक्ष्मणाका पति है और यही संसारमें ३५
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गद्यचिन्तामणिः
[ २४५ गोविन्दसुताया:
रस्तु कुञ्जर इव पञ्चाननम् प्रतिवादीब स्याद्वा दिवावदूकम्, अधमणं इवोत्तमर्णम्, तस्कर इवारक्षकम् सहसा ससाध्वसमवलोकयन्नेन मतितरामभैषीत् । आरब्ध चायमचिरभाविनिरयनिरीक्षणोन्मुख इवाधोमुखः सुतरां हतचित्तश्चिन्तयितुम् 'मथनः कथमेनमपधीरवधीत् । साधु साधितं स्यात्स्याला मेन बाढमेतत् । किमिति विश्वस्तो मयै विश्वासघाती । किमिति न ५ मया वा पुरस्तादेव निरस्तासुः कृतः क्षात्रोचितचरितोऽयं वणिक्पुत्र:' इति ।
३६२
$ २४५. तावता समुपेत्य चतुरपुरःसरसमुत्सारितसमालोकनलम्पटजनसंबाधः स्तम्बेरमेन्द्रान्मृगेन्द्र इव सानुमतः सानोः सानुजः सानन्दमत्रप्लुत्य सलोलपारूढवन्त्रचकस्त्रिविक्रम इवाकपत्रिहितज्यारोपणशरसंधानरारक्षेत्रः क्षोभवन्त्ररिहृदयमाशु केनचिदाशुगेन शरव्यं विव्याध ।
लक्ष्यस्य शरव्यस्य भेदे दक्षः समर्थोऽयमेव' इति निरणैषुः निर्णीतवन्तः । काष्टाङ्गारस्तु पञ्चामनं सिंहम् १० अवलोकन कुअर व करीब, स्याद्वादिवाददूकं पश्यन् प्रतिवादी उत्तमर्ण स्वामिनं पश्यन् अधमर्ण इव ऋणग्राहीत्र, आरक्षकं राजपुरुषं पश्यन् तस्कर इव चोर इव सहसाऽकस्मात् एवं जीवंबरम् ससाध्वसं समयम् अवलोकयन् अतितरां नितान्त्रम् अभैषीत् भीतोऽभूत् आरब्ध चायं तत्परश्चाभूत् अयं काष्टाङ्गारः अविरमावि शीघ्रमावि यन्निरयं नरकं तस्य निरीक्षणोन्मुख इव दर्शनोक इवाभमुखो नीचैर्चे इनः सुतरामत्यन्तं चित्तं यस्य तथाभूतः सन् चिन्तयितुं विवारयितुम् -'अपबीद्धिः मथनः एनं कथम् १५ अवधीत् जवान, स्याकाधमेन नीचैः स्याळेन बाढमेतत् कार्यं साधुपाधितं स्यात् विपरीतकक्षणैषा । एवं विश्वासघाती स मया किमिति विश्वस्तः प्रतीतः १ किमिति न मया वा पक्षान्तरे क्षात्रोचितं चरित्रं यस्य तथाभूतोऽयं वणिक्पुत्रः पुरस्तादेव स्त्रसंमुखमेव निरस्ता निर्गता असवः प्राणा यस्य तथाभूतो निष्प्राणो न कृती न विहितः' इति ।
ई २४५. तावतेति तावता सावरका केन समुपेत्य समागत्य चतुरा विदग्धा ये पुरःसरा अग्रेग़ामिनो २० जनास्तैः समुरसारित दूरीकृतः समालोकनलम्पटजनानां दर्शनोत्सुकलोकानां संबाधो विमर्दो अस्त्र तथाभूतः स्तम्बेरमाद् गजेन्द्रात् सानुमतः पर्वतस्य सानो प्रस्थात् मृगेन्द्र इव सिंह इव सानुजः सनन्दाढ्यः सानन्दं यथा स्यात्तथा अवप्लुत्य समुत्पत्य सलीकम् आरूढं यन्त्रचक्रं येन तथाभूतः त्रिविक्रम इव नारायण दूष क्रमेण युगपद् विहिताः कृता ज्यारोपणशरसंधानशरक्षेपण मौन्यरोपणवाणधारण
नियमसे लक्ष्य के भेदने में समर्थ हैं । राजाओंकी यह दशा रही परन्तु काष्टांगार, सिंहको २५ देखकर हाथी के समान, स्याद्वादी शास्त्रार्थीको देखकर प्रतिवादी समान, साहुकार को देखकर कर्जदार के समान और पहरेदारको देखकर चोरके समान सहसा भयपूर्वक जोवन्धरस्वामीको देखता हुआ अत्यन्त भयभीत हो उठा। जिसका चित्त बिलकुल मर चुका था ऐसा काष्ठागार शीघ्र ही प्राप्त होनेवाले नरकको देखने के लिए उन्मुख हुएके समान नीचे की ओर मुख कर इस प्रकार विचार करने लगा कि 'क्या दुर्बुद्धि मथनने इसे मारा था ? जान पड़ता ३० है उस नीच सालेने इस कार्यको अच्छी तरह साथ लिया होगा । मैंने ऐसे विश्वासघातीका इस तरह क्यों विश्वास किया ? क्षत्रियों के योग्य चरित्रको धारण करनेवाले इस वणिक्के पुत्रको मैंने पहले ही क्यों नहीं निष्प्राण कर दिया ?
$ २४५. उतने में ही आगे-आगे चलनेवाले चतुर मनुष्योंके द्वारा जिनके देखने के अभिलाषी मनुष्यों की भीड़ दूर की जा रही थी ऐसे जीवन्धरस्वामी पर्वत के शिखर से ३५ सिंह के समान गजराज से भाइयों समेत बड़े दर्पसे नीचे उतरे और लीलापूर्वक यन्त्रपर चढ़कर विष्णु के समान एक साथ डोरी चढ़ाना, बाण धारण करना तथा बाग छोड़ना इन तीनों
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- स्वयंवरवृत्तान्तः] -
दशमो लम्मा.. सच सायकप्रष्ठो निसृष्टार्थ इव साधितसमोहितः सहसा न्यबतिष्ट ।
$२४६. ततः कृतपुङ्खमेनं पुरुषपुंगवं समोक्ष्य समीक्ष्यकारी स विदेहाधिपतिदेहेन सम सिद्धक्षेत्रकृताध्यास इव प्रसोदभ्रफुल्लवदनाम्भोजः समालोक्य भूभुजां मुखानि मुखविकासविवृतान्तर्गतनुष्टिप्रकर्षः काष्ठाङ्गारपर्यायानिर्वाणदर्वी करस्य शिरसि दम्भोलिमिव पातयन्नतिगम्भीरया गिरा 'जोधरोऽयं सत्यं धरसम्राजस्तनयः' इति तदुदन्तमिदंतया विववे । तदुपश्रुत्य श्रवणबुलुकपेयं ५ पीयूषायमाणं व वनं सर्वेऽपि सर्व महायतयः सर्वथा क्षात्रमेवेदमौचित्यम् । न परत्र पदं लभेत परस्य हि कृत्यमिदं प्रत्यालोढपाटवं प्रेक्षणसौक्ष्म्यं लक्ष्यभेदमात्रपर्याप्तशररहःसंपादनचातुर्य चेति प्रागेत्र याणमोला येन तथा भूनः सन् बारहदयं शत्रुमनः क्षोभयन् चपलयन् आशु शीघ्नं केनचिद् आशुगेन बाणेन शरय लक्ष्यं विव्याध विद्धवान् । स च सायकाष्ठो बाणश्रेष्ठी निस्वार्थ हव राजदून इव 'उमयोर्भावमुझीय स्वयं वदति चीत्तरम् । सुश्लिष्टं कुरुते कार्य निसृार्थस्तु स स्मृतः ॥ इति निसृष्टार्थलक्षणम् । साधितं १० समाहितं स्वेटं येन तधाभूतः सन् सहसा झगिति व्यवतिष्ट प्रत्याववृते ।।
६२५६. तत इति-जनस्तदनन्तरं कृतपुतं कृतकृत्यम् एनं पुरुषपुङ्गवं नरश्रेष्ठ जीवंधरं समीक्ष्य दृष्ट्वा समीक्ष्यकारी विचार्य करीतीत्येवंशीतः स विदेहाधिपतिगोविन्दभूपाको देहेन समं शरीरेण सार्ध सिद्धक्षेने मोक्ष कृता विहितोऽध्यासी निचासो येन तथाभूत इव प्रसीदन् प्रसन्नी मवन् प्रफुल्लं प्रविकसितं बदनाम्मोज मुखारविन्दं यस्य तथाभूतः सन् भूभुजां राज्ञां मुखानि वदनानि समालोक्य दृष्ट्वा १५ मुख विकासेन वदनप्रसादेन विवृतः प्रकारितोऽन्तर्गततुष्टिप्रकर्षा हृदयस्थत सन्तोषाधिक्यं यस्य तथाभूतः काष्टाङ्गारपर्याय श्वासावनिर्वाणींकरो जीक्तिभुजङ्गमश्चेति तस्य शिरसि दम्भोलि वज्रमित्र पातयन् अतिगम्भीरया प्रगल्भया गिरा प्राण्या 'अयनेष जीबंधरः सत्यं धरसम्राजो रामपुरीधरावलल मस्य तनयः पुत्रः' इति तदुदन तद्वत्तान्तम् इदंत मानेन प्रकार विय अटयामास । प्रवणचुलुकपेयं कर्णचुलुकेन पातुं योग्यं पीयूषायमाणं सुधासंनिभम् तद् वचनम् उपश्रुत्य सर्वेऽपि निखिला अपि सर्वसहापतयः २० पृथिवीपालाः 'सर्वथा सर्वप्रकारेण इदमौचित्यं क्षात्रमंव अत्रसम्बन्ध्यव । हि यतः परस्य श्रेष्ठस्य इदं कृत्य परवान्यस्मिन् जने पदं स्थानं न लभेत । इदं किम् ? तदेवाह-प्रयाली रगासनविशेपे पाटवं चातुर्य, कार्योको करते हुए शत्रु के हृदयको क्षुभित करने लगे। इसी समय उन्होंने किसी बाणसे शीन ही लक्ष्यको बंध दिया। और जिस प्रकार कायको सिद्ध करनेवाला निःसृष्टार्थ उत्तम दूत इच्छित कार्य को सिद्ध कर सहसा लौट आता है उसी प्रकार उनका यह वाण भी इच्छित २५ कार्यको सिद्ध कर सहसा लौट आया।
६२४६. तदनन्तर मनुष्यों में श्रेष्ठ जीवन्धरकुमारको अपने कार्य में सफल देख विवार कर कार्य करनेवाले गोविन्द महाराज शरीरसहित सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हुएके समान प्रसन्न हो उठे । जिनका मुखकमल ग्चिल रहा था ऐसे गोविन्द महाराज ने राजाओं के मुखोंकी ओर देख अपने मुखके विकाससे अन्तःकरणके सन्तोषको प्रकताको प्रकट करते ३० हुए, अत्यन्त गम्भीर वाणोसे 'यह जीवन्धर महाराज सत्यन्धरका पुत्र है' इस प्रकार उनका वृत्तान्त प्रकट कर दिया। उस समय उनके यथार्थ वृत्तान्तको प्रकट करते हुए गोविन्द महाराज ऐसे जान पड़ते थे मानो काष्ठोगाररूपो सजीव सर्पके शिरपर वन ही गिरा रहे हों। कानरूपी चुल्लू के द्वारा पान करनेके योग्य अमृत तुल्य उक्त वचनको सुन सब राजा लोग 'सर्वथा यह योग्यता क्षत्रियके ही हो सकती है। दुमरेका कार्य दूसरेमें स्थानको ३५ प्राप्त नहीं हो सकता। यह आलीट आसनकी चतुराई, यह दृष्टिको सूक्ष्मता और यह लक्ष्य के भेदने मात्र के लिए पर्याप्त वाणमें वेग उत्पन्न करने की दक्षता दूसरेका कार्य नहीं हो सकती
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गचिन्तामणिः
[२४६ स्वयंवरानन्वर'निश्चितम्' इति निश्चलपक्षमाणः सपक्षपातं कुमारमैक्षिषत । पातिततद्वचनानिज्वलनज्वालास्पृष्टः स काष्ठाङ्गारोऽप्यङ्गारीभूतकाष्ठवनिःसारतां गतः। कथमन्यत्प्रस्तुतमन्यदुपस्थितं यदतिसन्धित्सितो गोविन्दमहाराजः स्वयमस्मानतिसंधातुमवाप्ताभिसंधिरासीत् । 'इदं हि जगति लामिच्छतो
मूलच्छेदं प्रकृत्या स्वयमस्माकममित्रोऽयं वणिक्पुत्रो राजपुत्रत्वमप्यतेनारोपितः । पुनरेनं च ५ प्राप्य प्रतिष्क शाकाहार नाहि न कुर्यात्' इति विमशन्नेब विसृज्य तदास्थानमादृतप्र
स्थानो भवन् 'अस्थाने पतित्तमिदं राज्यं त्यज्यतां त्वया नियोज्यटकेन' इति प्रकटाटोपपाटवे: पद्ममुखादिभिनिर्भत्सितोऽयं कुत्सितवृत्तिः पुनर्युयुत्सुरासीत् । बभूवुश्च काष्ठाङ्गारतो निकृष्टा विशिष्टास्तु जोवंधरराजतो राजानः ।
प्रेक्षगसौम्यमवलोकन सूक्ष्मत्वं सूक्ष्मदर्शित्वमित्यर्थः, लक्ष्यभेदमारे पर्याप्तं यच्छररंही बाणवेगस्तस्य संपादने १० चातुर्य दक्षत्वं च । इतीत्थं प्रागेव पूर्वमेव निश्चितं नितम्' इति निश्चलपक्षमाणो निःस्पन्दनयनलोमराजयः
सन्तः सपक्षातं सस्नहं कुमारं जीवंधरम् ऐक्षिषत विलोकयामासुः । पातितस्तदूचनमव गोविन्दवचनमेगानिर्वत्रं स एव जलनो वस्तिस्य ज्वालाभिरचिभिः स्पृष्टः स काठाजारोऽपि कृतमोऽपि अङ्गारीभूतकाष्ठवद् दग्धकाष्टवत् निःसारतां सारराहित्यं गतः प्राप्तः । कथम् भन्यत् प्रस्तुतं प्रारूधम् अन्य उपस्थित
प्रातं यद् अतिसन्धातुमिष्टोऽतिबन्धिस्सितो गोविन्दमहाराजः स्वयम् अस्मान् अतिसन्धातुं प्रतारयितुम् २५ अवाप्तामिसन्धिः प्राप्तामिप्राय आसीत् । इदं हि जगति लोके लाममिच्छतो जनस्य मूलच्छेदो मूलधन नाशः ।
अयं वणिपुत्रः प्रकृस्या निसर्गेण स्वयम् अस्माकमभिः शत्रुभूतः, एतेन गोविन्दमहाराजेन राजपुत्रत्वमपि आरोपितः प्रापितः । पुनरनन्तरम् एनं च जीवंधरं च प्राप्य नाऽस्माकम् भपरमन्यत् किं किनामधेयं प्रतिष्कशता कार्कश्यं बाधकशङ्काकाठिन्यं न कुर्यात् ?' इतीत्यं विमृशन्नेव विचारयन्नेव तदास्थानं तत्सभा विसज्य त्यक्त्वा मास्तमझोकृतं प्रस्थानं येन तथाभूतो मवन् 'अस्थानेऽयोग्यपात्रे पतितं प्राप्तम् इदं राज्यं २०. नियोज्यस्वेटकेन दासाधर्मन त्वया स्यज्यताम्' इति प्रकटाटोपपाटवैयक्ताम्बरचातुर्यैः पद्ममुग्वादिभिमित्रैः
निमंसितः संततिः कुत्सितवृत्तिन चवृत्तः अयं पुनः युयुत्सुर्योदमिच्छुः भासीत् । निकृष्टा राजानः काष्टाहारतः काष्ठाङ्गारस्थ पक्षे विशिष्टास्तु श्रेष्ठास्तु राजानो जीवंधरराजतो जीवधरनृपतिपक्षे बभूवुश्च । यह पहले ही निश्चित था।' इस प्रकार कहते हुए निश्चल पलकोंसे युक्त हो स्नेहपूर्वक जीवन्धर
कुमारको देखने लगे। गोविन्द महाराजने जो उक्त वचनरूपी वाग्नि गिरायी थी उसकी २५ ज्यालाआंसे स्पर्श को प्राप्त हुआ वह काष्ठांगार भी अंगार रूप हुए काष्ठके समान निःसारता
को प्राप्त हो गया। वह सोचने लगा कि 'प्रारम्भ तो कुछ अन्य किया था और उपस्थित कुछ अन्य हो गया ऐसा क्यों हुआ? गोविन्द महाराजको हमने धोखा देना चाहा था पर वे स्वयं हम लोगोंको धोखा देनेका अभिप्राय रस्त्र रहे हैं। यह कार्य तो संसार में लाभकी
इच्छा रखनेवालेके मूल पूँजीके नष्ट होने के तुल्य है । यह वणिकका पुत्र स्वभानते ही हमारा ३० शत्रु था फिर इनके द्वारा राजपुत्रताको भी प्राप्त करा दिया गया है। अब इसे पाकर ऐसा
कौन होगा जो हमारे विषयमें बाधक शंकारूप कर्कशताको नहीं करेगा' ? ऐसा विचार करता हुआ ही वह सभामण्डपको छोड़कर जानेका उद्यम करने लगा। परन्तु 'अस्थानमें पड़ा हुआ यह राज्य तुझे छोड़ देना चाहिए तू अधम किंकर है' इस प्रकार अपनी सामर्थ्यको
प्रकट करनेवाले पद्ममुख आदि मित्रोंने उसे खूब फटकारा। फलस्वरूप नीच वृत्तिको धारण ३५ करता हुआ वह युद्धके लिए तैयार हो गया। फिर क्या था जो नीच प्रकृति के राजा थे वे काष्टांगारकी ओर और जो उत्तम प्रकृति के राजा थे वे जीवन्धरकी और हो गये।
१. बाधक-इति टि.
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३६५
- वृत्तान्तः ]
दशमो लम्भः
$ २४७. ततस्तपस्यामिव बलवदुपास्यां दुरन्ततया तु ततो नितान्तगर्हणीयाम्, मोमांसामिव परिहिंसाप्रवण भजनीया मोश्वरापेक्षतया तु ततो विलक्षणाम्, चार्वाकचर्यामिवानपेक्षितात्मनिर्वहृगोयां गुरुद्वेषमूलतया तु ततोऽपि कुत्सनीयामाजिमारचयितुमतीव क्षोदिष्ठे काष्ठाङ्गारे माले, पपचलिए पद्ममुखादिष्वपि युद्धाभिमुखेषु, पिनद्धार्धोरुके सशोषंके च सति सादिनिळे समारोपितधनुषि धन्विनि, धनुर्धरचक्रवर्तिना चक्रव्यूहे परेण च
मिल
६ २४७. तत इति - ततस्तदनन्तरम् अतीव नितान्तम् क्षीदिष्ठे क्षुदत काष्ठाङ्गारे तपस्यमित्र तपश्चर्षामित्र वद्भिर्बलिष्ठैः एकत्र क्षुत्तृषाशीतोष्णादिपरिप सहनशक्तैरन्यत्र प्रत्यर्थिपार्थिव निराकरणप्रचण्द्वपराक्रमैर्जनैरुपास्यां सेवनीयां करणीयां, दुरन्ततया तु दुरबमानतया तु ततस्तपस्थातो नितान्त गर्हणीयामतिनिन्दनीयां तपस्या स्त्रन्ता आजिस्तु दुरन्ता ततो व्यतिरेकः, मीमांसामित्र मीमांसादर्शन मित्र परिहिंसायां प्रत्रणैरेकत्र याज्ञिकहिंसायां पक्षे रणाजिरागतशत्रुविधात ते दक्षैमंजनीयां सेवनीयाम् ईश्वरापेक्षया १० ततो मीमांसाया विलक्षणां विभिन्नाम् मीमांसा ईश्वरनिरपेक्षा आजिस्तु ईश्वरसापेक्षा ततो व्यतिरेकः, चार्वाकचर्यामिव भूतवादिप्रवृत्तिमित्र अनपेक्षितात्मभिरनङ्गीकृत जीवास्तित्वैर्निर्वहणीयां समर्थनीयाम् अन्यत्र स्वास्तित्वमुपेक्षमाणैर्जनैनिर्वहणीयां करणीयां गुरुद्वेषमूलतया तु गुरुद्वेषकारणत्वेन ततोऽपि वाकचर्यातोऽपि कुत्सनयां निन्दनीयां चार्वाकचर्या गुरुद्वेषस्य मूलमस्ति आजिस्तु ततो विपरीता वर्ततेऽतएव व्यतिरेकः आजिं युद्धम् आरचयितुं कर्तुं प्रक्रममाणे समुहाने सति पराक्रमशादिपु वीर्यविशोभिषु १५ पद्ममुखादिष्वपि मित्रेषु युद्धाभिमुखेषु रणसंमुखेषु सत्सु सादिनि हयारोजिने पिनद्धमधे रुकमधोवस्त्रं येन तथाभूते शीर्षके सशिरस्त्राणे च सति धन्विनि धनुर्धारिण समारोपितं सप्रायद्धीकृतं धनुर्येन तथाभूते सति धनुर्वर चक्रवर्तिना धानुष्कशिरोमणिना चक्रव्यूहे, तन्नामव्यूहे परंग चेतरेण च पद्मव्यूहे
$ २४७. तदनन्तर जो तपस्या के समान बलवान् मनुष्योंके द्वारा उपासनीय था परन्तु खोटा परिणाम होने के कारण उससे अत्यन्त निन्दनीय था । मीमांसा के समान हिंसा में २० निपुण मनुष्यों के द्वारा सेवनीय था परन्तु ईश्वरकी अपेक्षा रखनेके कारण उससे विलक्षण था और चार्वाकको चर्या के समान आत्माकी अपेक्षा न रखनेवाले लोगों के द्वारा निर्वाह करने के योग्य था परन्तु गुरुद्वेषका कारण होनेसे उससे भी निन्दनीय था ऐसे युद्धको करनेके लिए जब क्षुद्र काष्ठांगार तैयार हो गया। पराक्रमसे सुशोभित पद्ममुख आदि मित्र भी युद्धके सम्मुख हो गये, जब घुड़सवार और महावत लोग अधोवस्त्र पहनकर तथा शिर- २५ पर टोप लगाकर तैयार हो गये, जब धनुर्धारी लोग धनुष तानकर खड़े हो गये, जब धनुर्धारियोंके चक्रवर्ती एवं चक्रयूहकी रचना करने में तत्पर जीवन्धरकुमार के द्वारा
१म० निपादिनि च' इत्यधिकः पाठः । २. म० चक्रव्यूह परेण च ।
२. जिस प्रकार तपस्या बलवान् मनुष्यों द्वारा सेवनीय होती है उसी प्रकार युद्ध भी बलवान् मनुष्यों द्वारा सेवनीय होता है परन्तु तपस्याका परिणाम अच्छा होता है और युद्धका परिणाम अच्छा ३० नहीं होता अतः उससे अत्यन्त निन्दनीय है । जिस प्रकार मीमांसा याज्ञिक हिंसा में निपुण मनुष्योंके द्वारा सेवनीय है उसी प्रकार युद्ध भी हिंसानिरत मनुष्योंके द्वारा सेवनीय है परन्तु मीमांसा में ईश्वर ( जगत्कर्त्ता ) की अपेक्षा नहीं रहती हैं जब कि युद्धमें ईश्वर ( राजा ) को अपेक्षा रहती है अतः उससे विलक्षण है। जिस प्रकार चार्वाक मतकी चर्या अनपेक्षितात्म जनों ( अनात्मवादियों के द्वारा ) निर्वहणीय होती है उसी प्रकार युद्ध भी अनपेक्षितात्म ( अपने जीवनकी परवाह न रखनेवाले) लोगों के द्वारा निर्वहणीय होता है परन्तु ३५ चार्वाक मतकी च गुरुद्वेप ( गुरुके साथ द्वेप ) रखनेका कारण नहीं है जब कि युद्ध गुरुद्वेप ( बहुत भारी द्वेष ) मूलक होता है अतः उससे निन्दनीय है ।
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३५.
गचिन्तामणिः
[ २५७-२४८ युद्धपद्मव्यूहे कृते, चक्रशोभितशताङ्गनक्रभृति तुरंगतरङ्गिणि मातङ्गपोताङ्किते पादातपयसि परस्परस्पर्धोद्यतपारावारद्वय इव पक्षद्वये लक्ष्यमाणे पटहध्वनेरपि ज्याघातरवे पांसुपटलादपि पत्रिणि गभस्तिमालिगभस्तेरप्यु दस्तास्त्ररश्मिनिकरे रणरागादपि रखतीचे प्रतिसमयं प्रकृष्यमाणे, धानु. कैर्धानुष्का निषादिभिनिषादिनः सादिभिः सादिनः स्यन्दनारोहै: स्यन्दनारोहा युयुधिरें।
२४८. तावता धरणी धरणोपतिमरणभीत्या रणनिवारणायेव रेणुपटलापदेशन परस्परदर्शनं परिजहार । मिथोदर्शनापेक्षिणोवाक्षौहिणो तत्क्षण एव शिलो मुखमुखंविघटितविशङ्कटवक्षःकवादविगलदविरलरुधिरधारया धरातलोद्यत्तरागपरम्परामाचचाम। ततः साक्षाल्लक्ष्य -
तन्नामव्यूह कृते सति, चक्रशामिनः शताजा एवं स्यन्दमा एवं नका जलजन्तुधिशेरास्तान् विभतीति
चक्रशोमिशताङ्गनकभूत तस्मिन : तुरडा व तरङ्गास्तुगताङ्गास्ते विद्यन्ते यस्मिस्तस्मिन् हयतरङ्गयुक्के, १० माता गजा एवं पे तास्तरणयस्तैरजिते चिह्निते, पनातीनां समूहः पादातं तदेव एयो जलं. यस्मिंस्तस्मिन्
परस्परस्पर्धायामन्योन्यासूयाय मुग्रतं तत्परं यत्पारावारद्धयं सागरद्वयं तस्मिन्निव पक्षद्वय लक्ष्यमाणे दृश्यमाणे, पटहध्वनेरपि तुझानादादपि ज्याघातरवे प्रयाघात शब्दे, पांसुपरलादपि धूलिसमूहादपि पत्रिणि वागे, गभस्तिमालिगमस्तैरपि दिनकरकरादपि टदस्तानामस्त्राणां रश्मिनिकरः किरणसमूहस्तस्मिन् ,
रणरागादपि समरानुरागादपि रफौधे रुधिरप्रवाहे प्रतिसमयं प्रतिक्षणं प्रकृप्यमाणे सति, धनुःप्रहरणं १५ येषां ते धानुष्का धानुकैः सह, निषादिनो हत्यारोहा निशदिभिहत्यारोहः सह 'आधोरणा हस्तिपका
हस्त्यारोहा निषादिनः' इत्यमरः, सादिनोऽश्वारोहा: सादिभिरश्वारोहैः सह 'अश्यारंहास्नु सादिनः' इत्यमरः, स्यन्दनारोहा रथिनः स्यन्दनारोहै रथिभिः सह 'रथिनः स्यन्दनारोहा.' इत्यमरः युयुधिरे युद्धं चक्रुः ।
F.. तावतेति- तावत्ता ताबकालेन धरणी भूमिः धरणीपतीनां राज्ञां मरणस्य भौतिस्तया २. रणनिवारणायेव समरनिरोधायव रेणुपटलापदेशेन धूलिपटलम्याजेन परस्सरदर्शनमन्योऽन्यावलोकन
परिजहार निरुरोध । मिथोदर्शनं परस्परावलोकनमपेक्षत इत्येवंशीला तथाभूतव अक्षौहिणी सेना तरक्षण एव तरकाक एव शिलीमुखानां बाणानां मुखेनाप्रभागेन विघटिता,खण्डिता ये विशवक्षःकवाटा विशालार:स्थलबाटास्तेभ्यो विगळती निःसरन्ती या अविरका निरन्तरा रुधिरधारा रक्तप्रवाहस्तया धरातलास्पृथिवीतादुघन्ती या परागपरम्पस रजःसन्ततिस्ताम् भाचचाम आनन्सां चकार । ततो धूलिपटला
२५ पद्मव्यूह की रचना की गयी, और चक्र से सुशोभित रथरूर नाकाको धारण करनेवाले,
तुरंगरूपी तरंगोंसे युक्त, हाश्रीरूपी जहाजोंसे सहित और पैदल सैनिकरूपी जलसे भरे परस्परकी स्पर्धा में उद्यत दो समुद्रोंके समान जय दोनों पक्ष दिखाई देने लगे, अब डोरीके आघात का शब्द भेरी के शब्दसे, वाण धूलि के समूहसं. ऊपर उठाये हुए अस्त्रांको किरणोंका
समूह सूर्यकी किरणोंसे और रक्तका समूह रणके रागसे भी अधिक प्रति समय प्रकर्षताको ३० प्राप्त होने लगा, तब धनुर्धारी धनुर्धारियोंके साथ, महावत महाधनों के साथ, घुड़सवार घुड़सवारोंके साथ और रथोंके सवार रथोंके सवारोंके साथ युद्ध करने लगे।
६२४८. उस समय पृथिवीने राजाके गरण के भयसे रण रोकने के लिए ही मानो धूलिपटल के बहाने परस्परके दर्शनको छोड़ दिया। परस्परके अवलोकनको अपेक्षा रखती सेना हुईके समान (प्रथिवीने उसी क्षण बाणों के अग्रभागसे विघटित विशाल वक्षःस्थलरूपी कपाटसे ३५ झरती हुई खूनको अविरल धागसे पृथिवीतलसे उठती हुई धूलिकी परम्पराको आचान्त कर
१. क. ग. 'मुग्न' नास्ति ।
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वृतान्तः ]
दशमो लम्भः
२६७
माणलक्ष्यतया निष्प्रतिषे सति बलौघे, पृषत्केषु केषुचिदगाधयोधहृदयावबोधलम्पटतयेव प्रतिभटोर:स्थलं प्रविशत्सु परेषु परप्राणपोषणोपजातभीतिमराक्रान्तेष्विवान्तर्घातुमवनी मवगाहमानेषु, अपरेषु स्वनायकनिकटानबिबटनेच्छ्येव पाटितप्रतीपगामिपत्रिषु अन्येषु स्त्रयमपि जातमन्यु - भरेवियार्धपदविलुप्त पत्रभागेष्वपि परमात्रमधिविशत्सु पुनरमित्र पर्यायनेत्रश्रवःस्फुरदहंकारहारिटंकारभीकरस्तनितहितकरालका ककरम्बित जीवक कुमार जो मूल निष्ठ्यूतसनिनदनी रन्ध्रशरनिकर- ५ नीवाराभिहन्यमान सैन्य सानुमत्संभृता संस्थितधरणीपति किरीटकेयू रहा रजालबालुकापण्डा सदण्डसितातपत्र पुण्डरीका वेग विलोठितगजगण्डशैला प्लवमानचामर विसर डिण्डीरा परेततुरगलहरी -
-
पहरणानन्तरं साक्षात् प्रत्यक्षं लक्ष्यमाणानि दृश्यमानानि यानि कक्ष्याणि शरव्याणि तेषां भावस्तथा बलों सेनासमृहे निष्प्रतिघे निर्बाधे सति केचित् पृषत्केषु वाणेपु अगाधानां गभीराणां योधहृदयानां सैनिकस्वान्तानामवबोधे परिजाने कम्पटनक्षेत्र संसकृतयेत्र प्रतिभानां शत्रूगामुरःस्थलं वक्षःस्थळं प्रत्रिशरसु सत्सु १० परेषु परेषामन्येषां प्राणानामनां सोषणेनोपजाता समुत्पता या भीतिर्भयं तस्या मरेणाक्रान्तेष्विव युकेवि अन्तर्घातुं तिरोधातुम् अवनीं पृथिवीम् अवगाहमानेषु प्रविशत्सु, अपरेष्वन्येषु पृषत्केषु स्वनायarai मिजनाथानां निकटेऽभ्यर्णेनं भ्रमणं तस्य विघटनेच्छयेव दूरीकरणामिकापेणेत्र पाटिता विदारिता प्रतीपगामिनां शत्रूणां पत्रिणो वाया यैस्तथाभूतेषु सत्सु भन्येष्वितरेषु पृषत्केषु स्वयमपि स्वतोऽपि ज्ञातः समुत्पन्नो मन्युमरः क्रोधमरो येषां तथाभूतेष्विव अपदे मार्गाचे विलुप्तः पत्रमागो बाणाग्रमागो येषां १५ तथाभूतेध्वपि परगात्रं शत्रुशरीरम् अभिविशत्सु प्रविशत्सु पुनरिति पुनरनन्तरम् अमित्रपर्यायाणां शत्रुरूपाणां नेत्रश्रवस चक्षुःश्रवस सर्पाणामिति यावत् स्फुरन् प्रकटीभवन्योऽहंकारो दर्पस्तस्य हारी यष्टङ्कारः प्रत्यवारयः स एव स्तनितं नगर्जितं तेन सहितः कराळकार्मुक्रेण भयंकरधनुषा करम्बितश्च यो जीवकुमारजीत जीवंधरघनाघनस्तस्मान्निष्टतो निःसृतः सनिनदः सशब्दां नीरम्भो निश्चिद्र सघनश्वेति यावत् यः शरनिकरो बाणसमूहः स एव नीरधारा जलधारा तथाभिहन्यमानं तायमानं २० यत्सैन्यं पृतना तदेव सानुमान्पर्वतस्तस्मात् संभूता समुत्पन्ना संस्थिता मृता ये धरणीपतयो राजानस्तेषां किरीटकेयूरहारजालानि मुकुटाङ्गदकामरसमूहा एवं बालुकापण्डाः सिकतासमुद्दा यस्त्रां तथाभूता, दण्डसितातपत्राण्यं दण्डयुक्शुकृच्छत्राण्येव पुण्डरीकाणि सितसरोरुहाणि यस्यां सा, वेगेन रयेण त्रिलोठिताः प्रवाहिता गजा एव गण्डशैलाः क्षुद्रपर्वता यथा तथाभूता, प्लवमान उत्तरन् पश्चामरविसरो लिया था -- नष्ट कर दिया था । तदनन्तर लक्ष्य के साक्षात् दिखाई देनेके कारण जब सेनाका २५ समूह निर्वाध हो गया । जब कितने ही बाण, योधाओंके अगाध हृदयका ज्ञान प्राप्त करने में लम्पट होनेसे ही मानो उनके वक्षःस्थल में प्रवेश करने लगे, जब कितने ही वाण दूसरोंके प्राण अपहरण से उत्पन्न भयके भारसे आक्रान्त होकर ही मानो छिपने के लिए पृथिवी में प्रविष्ट होने लगे, जब कितने ही बाग अपने स्वामीके निकट आगमनको दूर करने की इच्छा से ही मानो शत्रओंके बाणोंको विदीर्ण करने लगे, और कितने ही बाण जब स्वयं भी मानो क्रुद्ध होकर ३० अध बोच में ही पंखों के अवयव टूट जानेपर भी शत्रुओंके शरीर में प्रवेश करने लगे तब क्षणभरमें ही रुधिरकी नदी बहने लगी। वह रुधिरकी नहीं शत्रओके नेत्र और कानोंसे प्रकट होते हुए अहंकारको हरनेवाली टंकार रूप भयंकर गर्जना से सहित और भयावह धनुष रूप (इन्द्रधनुष सेjयुक्त जीवन्धरकुमाररूपी मेघसे प्रकट होनेवाले सशब्द एवं सघन बाणसमूहरूप जलको धारासे ताड़ित सेनारूप पर्वत से उत्पन्न हुई थी । मरे हुए राजाओंके मुकुट २५ केयूर और हारोंका समूह ही उसमें बालूका पुंज था। दण्डसहित सफेद छत्र हो उसमें
१. ० पत्रिकेषु ।
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३६८ गवचिन्तामणिः
[ २४२ युद्ध-: परम्पराकुलकूलंकषा कर्षणरयाकृष्टावशिष्टाक्षौहिणीका क्षतजधुनी क्षणादिव प्रावहत् ।
२४९. तदेवं मारितपादाते दारितहास्तिके नश्यदाश्वीये विपरिवतितरथकड्ये सारथिरहितरथिनि रथारोहक्षुण्णक्षत्तरि स्तम्बेरममरणसविषादनिषादिनि हस्त्यारोहविरहितहस्तिनि
तुरङ्गमविगमसीदत्सादिनि अश्वारोहविरजिताश्वे च सति सैन्ये, रियामामिव दीर्घनिद्रोपद्रुत५ बहुलां तमोगुणप्रभवां च, बौद्धपद्धतिमिव पिशिताशिसेव्यां निरात्मकशरीरां च गार्हस्थ्यप्रवृत्तिमित्र मृतवारणविधुरां रक्तभुलभां च विलोक्य रणभुवम् 'किमिति ओदोयांसो हिंस्यन्ते जन्तवः । पालव्यजन समूहः स एव द्विण्डीरोऽधिकफो यस्यां सा 'हिपहीरोऽधिकफः फेनः' इत्यमरः, परेता मृता ये तुरगा हयास्त एवं लयस्तरङ्गास्तासां परम्पराः सन्ततयस्तासां कुलेन समूहेन फूलं कषा तटमुद्रुजा,
कर्षणरयेण प्रवाह वेगेना बला-नता भवशिष्टा मृत शंषा अझोहिणी सेना यस्याः सा, क्षतजधुनी रुधिर१० नदी क्षणादिव प्रवहत् प्रवहति स्म ।
६२४२. नदेवमिति-तत्तस्मात् एवमनेन प्रकारेण मारिसं पादातं पदातिसमूहो यस्मिस्तस्मिन् , दारित खपिडतं हास्तिक हस्तिसमूहो यस्मिस्तस्मिन् , नश्यन्नष्टीमवद् भाश्चीयमश्वसमूहो यस्मिस्तस्मिन् , विपरिवर्तिता विपर्याखिला स्थकल्या रघसमूहो यस्मिंस्तस्मिन् , ' सारविरहिताः सूतशून्या रथिनः स्यन्दना
रोहा यस्मितस्मिन् , रथारोहै रथिमिः क्षुण्णाः क्षत्तारः सता यस्मितस्मिन् : 'सतः क्षत्ता च सारथिः' १५ इत्यमरः, स्तम्बेरमाणां हस्तिनां मरणेन मृत्युना सविषादाः सखेदा निषादिनो हस्पारोहा यस्मितस्मिन् ,
इस्त्यारोईनिषादिमिविरहिसा हस्तिनो गा यस्मिस्तस्मिन् , तुरङ्गमानां सप्तीनां विगमेन विनाशेन सीदन्तो दुःखीभवन्तः सादिनो हयारोहा यस्मिस्तस्मिन् , अश्वारोहै। सादिभिर्विवनिता रहिता अश्वा यस्मिस्तधाभूते च सैन्ये सति, त्रिशमामिव रजनीमिय दीघनिया मृत्युना पने बहुकालव्यापिन्या
निद्रयोपद्रुता बहुला बड्यो जना यस्यां तथाभूतां, तमोगुणो ध्वान्तगुणः प्रभवः कारणं यस्याः सा पक्ष २० तमोगुणः सत्त्वादिगुणेष्वन्यतमो गुणस्त स्मारमवतीति तथा ताम् , बौद्ध पद्धतिमित्र बौद्धं मार्गमिय पिशित शिभिर्मासमोजिभिजनैः पक्षे मांसभक्षकैः शालादिजन्तुभिः सेन्या सेवनीयाम् निरात्मकम् आस्मास्तित्वरहितं शरीरं यस्यां तां पक्षे निरात्मकानि शरीररहितानि भूतानि शरीराणि हस्यां ताम्, गाइस्थ्य प्रवृत्तिमित्र गृहस्थधर्मप्रवृत्तिमित्र मृतवारणविधुरां मृतानां वारणेन प्रतिषेधेन विधुरां रहितां पक्षे
मृतवारणेनमतजैविधुन दुःखयुको 'वारणं प्रतिषेधे स्याद्वारणस्तु मतङ्गजे' इति मेदिनी, रकसुलमा च २५ रफानामनुरागसहितानां सुलमा पक्षे रकन रुधिरेग सुलमा रणभुवं समरमदिनों विठोकर दृष्टा 'इती
श्वेत कमल थे। उसने अपने वेगसे हाथीरूपी गोल चट्टानोंको बहा दिया था। तैरते हुए चामरोंका समूह ही उसमें फेन था । वह मरे हुए घोड़ेयो तरंगों की श्रेणीसे युक्त किनारेको नष्ट कर रही थी और खींचने के वेगसे उसने अवशिष्ट सेनाको खींच लिया था।
६२४९. इस तरह जिसमें पैदल सैनिक मारे गये थे, हाथियोंके समूह विदारित किये ३० गये थे, घोड़ों के समूह नष्ट हो गये थे, रथों के समूह उलट गये थे, रथों के सवार सारथियोंसे
रहित हो गये थे, रथोंपर चढ़कर जिसमें सारथि मार दिये गये थे, हाथियोंके मरणसे जिसमें महाबत खेदसहित हो गये थे, जिसमें हाथी हाथियों के सवारोंसे रहित थे, घोड़ों के नष्ट हो जानेसे जिसमें धुड़सवार दुःखी हो रहे थे और जिसमें घोड़े घुड़सवारोंसे रहित थे. ऐसी सेनाके होनेपर रणभूमिको देखकर जीवन्धरस्वामी सोचने लगे कि इस तरह क्षुद्र जीव क्यों मारे जा रहे हैं ? वही शत्रु जड़सहित नष्ट करने के योग्य है । उस समय रणभूमि त्रियामा-रात्रिके समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार त्रियामामें बहुत आदमी दीर्धनिद्रा--गहरी नींदसे उपद्भुत रहते हैं उसी प्रकार उस रणभूमि में भी बहुत आदमी
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[वृत्तान्त: ]
दशमो लम्भः
स एव द्वित्समूला कब गोय:' इति चित्रणा पाञ्चितस्याञ्जन गिरिनाम्नः कुञ्जरस्य स्कन्धं बन्धुरयञ्जीवबन्धुर्जीवंधर कुमारः सुरशत्रुसादनोद्यतः शक्तिधर इत्र करकलितशक्तिः, त्रिपुराभिमुखस्त्रिपुरान्तक इत्र नितान्तभोषण को पाट्टहासः, दाशरथिरिव तपस्यानधिकारिणं शम्बुकं राज्यानधिकारिणमेनमपि शीर्षच्छेद्यं परिच्छिद्यारतिमाह्वयते स्म । आह्वानक्षण एव श्रदृष्टः सः काष्ठाङ्गारः क्रोधवेगस्फुरदोटया निकटवर्तितो निजाह्वानकृते कृता
कृतान्तदूतानिव स्वान्तसंतोषिभिः सान्वयन्वचोभिः नातिचिरभाविनरकावसथ भवदवतमसप्रचयमात्मानं प्रतिग्रहीतुकाममागतं करालं कालमेघाभिधानं करिणमा रह्या रोषाशुशुक्षणिविजृम्भमागयोगेन गती गावरछटाछन्नाङ्गतया सप्ताचिषि निमज्ज्य निजस्वामिद्रोहाभावं विभावयितुं
३६९
भाखा
५
क्षोत्रीयान्सः क्षुद्रतारा जन्तवः किं द्विस्यन्ते ? स एव द्विषन् शत्रुः काष्टाङ्गाः समूलं कपिषा समूलका avita हिंसनीयः' इति भिषणया बुद्धचा पर्याणाखितस्य पृष्टास्तरणसहितस्य अञ्जनगिरिनाम्नः कुञ्जरस्य १० हस्तिनः स्कन्धं ग्रीवापृष्टभागं बन्धुश्यन् शोभयन् जीवानां वन्धुर्हितकारको जीवंधरकुमारः सुरश
वासाने नाशने उद्यतस्तत्परः शक्तिधर इव कार्तिकेय इव करे हस्ते कहिता धृता शक्तिस्तन्नामास्त्र येन तथाभूतः पक्षे करकलिता प्राप्ता शक्तिः पराक्रमी यस्य सः, त्रिपुरदहनाय त्रिपुरदाहायामिमुखस्तत्परः त्रिपुरान्तक व हर इव नितान्तभीषणोऽतिमयंकरः कोपाट्टहासो रोषजनितागृहालो यस्थ तथाभूतः, वरस्यानधिकारिणं शबुकं दाशरथिरित्र राम इव राज्यानधिकारिणम् एनमपि काष्टाङ्गारमपि शीर्षच्छेद्यं मस्तकच्छेयं १५ परिच्छिनिश्रित्य भरावं शत्रुम् आह्वयते स्म । आह्वानक्षण एवं अकारणसमय एवं क्षीणतरमतिशयेन क्षीणम माग्यं यस्य तथाभूतो रुष्टः क्रुद्धः स काष्ठाङ्कारः क्रोधवेगेन शेषरयेण स्फुरद्वेपमानमोडपुटं यस्य तस्य भावस्तया निकटवर्तिनः पाइस्थान निज्ञाह्वानकृते स्वाह्वानकृते वृत्त आगमी यैस्तान् कृतान्तदूतानिव यमदूतानिव स्वान्तसंतोषभिः मनःसन्तोषकारकैः वचोभिर्वचनैः सान्त्वयन् समाश्वासयन् नातिचिरमाचिनि शीघ्रमानिनि नरकावसथे निरयागारे भवन् समुत्पद्यमानो योऽश्वमसप्रचयस्तिमिरसमूह- २० स्तमिव आत्मानं स्वं प्रतिगृहीतुकामं प्रतिग्रहणाय सामिलाई करालं भयंकरं कालमेवामिघानं काळमेघ • नामधेयं करिणं गजमारुह्य रोशशुशुक्षणिना कोपपावकेन विजम्ममाणानि वर्धमानानि शोमेक्षणयो रकनेत्रयोर्यानि तीक्ष्णाचपि तेषां छटया समूहेन छन्नाङ्गदया तिरोहितशरीरतया सप्ताविषि हुताशने निमज्ज्यावगाह्य निजस्त्रामित्रोद्दामावं स्वस्वामिद्रोहामाचं विभाववितुं प्रकटयितुं सत्यापयन्निव सत्यं कारयवि दोर्घ निद्रा - मृत्युसे उपद्रत थे और त्रियामा जिस प्रकार तमोगुणप्रभवा -- अन्धकाररूप गुणसे उत्पन्न है उसी प्रकार वह रणभूमि भी तमोगुण रूप कारण से उत्पन्न थी । अथवा बौद्ध-पद्धति के समान थी क्योंकि जिस प्रकार बौद्ध पद्धति मांस खानेवालोंसे सेवनीय एवं आत्म-शून्य शरीरसे सहित है उसी प्रकार वह रणभूमि भी मांसभोजियोंसे उपास्य एवं निर्जीव शरीरोंसे सहित थी । अथवा गृहस्थ धर्मकी प्रवृत्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार गृहस्थ धर्म की प्रवृत्ति मृतवारणविधुरा - मरे हुए लोगों के निपेधसे रहित होती है उसी प्रकार ३० वह रणभूमि भी मृतकारण विधुरा - मरे हुए हाथियोंसे दुःखपूर्ण थी, और जिस प्रकार गृहस्थ धर्मका प्रवृत्ति रक्तमुलमा - रागो जनों को सुलभ रहती है उसी प्रकार वह रणभूमि भी रक्त सुलभा - रुधिरसे सुलभ थी अर्थात् रुधिरकी वहाँ सुलभता थी । पलानसे सुशोभित अञ्जनगिरि नामक हाथी के स्कन्धको सुशोभित करते हुए जीवहितैषी जीवन्धरस्वामीने उस समय असुरों को नष्ट करने के लिए उद्यत हुए कार्तिकेयके समान हाथमें शक्तिको धारण कर, ३५ real fagrat Her करनेके लिए उद्यत शिव के समान अत्यन्त भयंकर क्रोधजन्य अट्टहास
युक्त हो अथवा रामके समान तपस्या के अनधिकारी शम्बूककी तरह राज्य के अनधिकारी
૪૧
२५
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गधचिन्तामणिः
[ २४९ युद्धसत्यापयन्निव सत्यंधरमहाराजतनयाभिमुखमभीयाय । अवदच्चायमकिंचित्करः किञ्चिन्यञ्चन्मनाः 'कुमार कुरुवंशशिखामणे, प्रणतराजचूडामणिकिरणशोणनखमणिचरणो रावणोऽपि रणे मरणमीयिवानायु विरामे रामेण । किं पुनरपरः। तदयं मया वध्यो वध्योऽहम नेनेति बुद्धि
भन्तो न विबुध्यन्ते । किमर्थं मामविवेकमधिकमधिक्षिपसि ।' इति । 'प्रतारणपरमेतदणकनरेन्द्र५ स्याकर्ण्य कस्यचिद्भाषणं किमभेषी: ।' इति प्रत्यभाषत प्रतिभाप्रकाशिततन्मनीषितः स मनीपी।
पुन रनपीचच गत्यन्तरमत्यन्तरोषहुतबहावयचःश्नवणेन 'किवणिवपुत्र, कि दाङ्मात्रेण । विजयस्तु विधिवशतः। तत्र शत्रितसमागमे चक्षुषी चेन्मम त्रासजुषी स्यातां तदा परुषा स्यान्ममेयमाहोसन्यं धरमहाराजस्य तनयः पुत्रो जीबंधरस्तस्याभिमुखं सन्मुखम् अभीयाय अगिजगाम । किशिदीपद
न्य चन्नी वैभयन्मनी यस्य तथाभूगः अकिञ्चित्करोऽकर्मण्योऽयं काष्ठाकारः अवदश्च कथयामास च-'कुरु. १० वंशस्य शिखामणिस्तसम्युद्धी हे कुरुवंशशिखामगे! प्रणता नम्रीभूना ये राजचूडामणयो महीपति शिक्षा
मणयस्तपां किरण रश्मिमिः शोण नत्रमणी चरणौ यस्य तथाभूतो रावणोऽपि रणे समरे भायुको जीवितस्य विरामोऽवसानं तस्मिन् सति रामेण दाशरथिना मरणं मृत्युम् ईयिवान् प्राप्तः किं पुनरोऽन्यः ? तत्तस्मा. दयं मया यध्यो हन्तुं योग्यः, अहम् अनेन वध्य इति बुद्धिमन्तो विवेकज्ञा न विबुध्यन्ते न जानन्ति,
किस माग, अधिक दिसम् भाव यथा स्यात्तथा अधिक्षिपसि निन्दसि इति । 'प्रसारणपरं १५ प्रञ्चनापरम् एतत्पूर्वक्तिम् भागकनरेन्द्रस्य निकृष्टनरनाथस्य 'कुपूयकुत्सितावद्यखेटगाणकाः समाः' इत्यमरः
भाषणं कथनम् आकण्यं किम् अमैपीः मीतोऽसि' इसि प्रतिभायां प्रकाशितं प्रकटितं तन्मनीषितं काष्टाङ्गाराभिलषितं यस्य तथाभूतः स मनीपी विद्वान् जीवंधरः प्रत्यभाषन । पुनरिति--पुनरनन्तरम् अत्यन्तरोप पत्र हुतदहो बलिस्तस्यावहं धारक यद् वचो वचनं तस्य श्रवणेन समाकर्णनेन 'कुरिसतो वणिगिति
किंवणिक् तस्य पुनस्तरसम्वृद्धी बाङमात्रेण वचनमात्रेण क्रिम् । विजयस्तु विधिवशतो देवत्रशाद् भवतीति २० शेषः । तव शझिसमागमे मम चक्षुषी ब्रासमुषी भययुक्त स्यातां मवेतो चेत् सदा मर्मयम् आहोपुरुषिका भी
काष्ठांगारको भी शीपच्छेद्य - शिरसे काटने योग्य समझ शत्रुका आह्वान किया। आह्वानके समय ही जिसका अनष्ट-भाग्य अत्यन्त क्षीण हो गया था तथा जो अत्यन्त रोषसे था ऐसा काठांगार क्रोध के वेगसे फड़कते हुए ओष्टपुट से अपने बुलाने के लिए आये हुए
यमराज के दूतोंके समान निकटवर्ती मनुष्यों को स्वान्त सन्तोपी-हृदयको सन्तुष्ट करनेवाले २५ (पक्ष में अपने अन्त से सन्तोप उत्पन्न करनेवाले वचनोंसे सान्त्वना देता हुआ, जो बहुत शीघ्र
प्राप्त होनेवाले नरकावासमें प्रकट होते हुए अन्धकारके समूह के समान जान पड़ता था ऐसे अपने आपको लेनेके लिए संमुखागत कालमेघ नामक भयंकर हाथीपर आरूढ़ हो सत्यन्धर महाराजके पुत्र जीवन्धर स्वामीके संमुख चला ।) उस समय उसका शरीर क्रोधाग्निसे बढ़ते
हुए लाल नेत्रोंकी नी: ज्वालाओंकी छटासे आच्छादित हो रहा था इसलिये वह ऐसा ३० जान पड़ता था मानो अग्निमें अवगाहन कर अपने स्वामिद्रोहके अभावका विश्वास दिलाने
के लिए उसकी सत्यता ही दिखला रहा हो। तदनन्तर जो अकिञ्चित्कर था-कुछ कर सकने में असमर्थ था और जिसका मन कुछ-कुछ टूट रहा था ऐसा काष्ठांगार बोला कि हे कुरुवंशके शिस्त्रामगि ! कुमार! नम्रीभूत राजाओंके चूड़ामणिकी किरणोंसे लाल-लाल नख
रूपी मणियांसे सुशोभित चरणोंको धारण करनेवाला रावण भी आयु समाप्त होनेपर युद्ध में ३५ रामके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गया था फिर दूसरेकी तो बात ही क्या है ? इसलिए यह मेरे
१. क० स० ग० न विबुध्यन्ते, इति । २. अणक:-निकृष्टः, इति टि० । ३. क० स० ग० 'चेन्' नास्ति।
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- वृत्तान्तः
दशमो लम्मः पुरुषिका । युक्तं च त्वयापि वक्तुमेवम्' इत्युक्त्वा सत्वरोपसपितकरिणः करिणमवप्लुत्योदस्तकौक्षयकं क्षेपोय: स्वयं हन्तुमापतन्तं तमन्तराले नितान्तनिशितशक्तिशकलितशरोयष्टिं काष्ठाङ्गारम् ! उदस्तम्भयच्च संग्रामसंरम्भस्तम्भनं विजयानन्दनो विजयध्वजम् । अप्रनन्दयच्च सानन्दमभ्येत्य सफललोचनत्वमात्मन्यात्मजायां वीरपत्नीव्यपदेशं वोरसूव्यपदेशमध्यवरजायामाकलयन्तम्, चन्दनशिशिरेण हृदयनिर्वाणविवरण चतुरेण विमलस्थलेन निष्पतता वापपूरेणा-५ भिषिञ्चन्तमिवालिङ्गन्तं गोविन्दमहाराजम्, आजिदर्शितनैकापदानसंभवदानृण्यानवरजसमेतान् सदपंता पल्या व्यर्था स्यात् त्वयापि एवं वक्तुं निगदितुं युकं च स्यादिति शेषः' इत्युक्त्वा सत्वरं शवमुपसम्तिश्चासौ करी च सत्वरोपसपितकरी तस्मात् शीघ्रीपगमितगजात करिणं तदीयगजम् भालुल्य उत्पत्य उदस्त कोक्षेयकं समुत्यापित खडगं क्षेत्रीयः शीघ्र स्वयं हन्तुं मारथितुम भापतन्तमायान्तं अन्तराले मध्ये नितान्तनिशिराशक्त्या अन्यन्ततीक्ष्णशक्त्यायुधेन शकलिता खपिता शरीरयष्टिदेहयष्टियस्य तथाभूतं १० तं कारगारं गयन्तरम् अनैषीत् प्रापयामास । उदस्तम्मय उन्नमयामास च विजयानन्दनो जीबंधरः संग्रामसेरम्भस्तम्मनं समरोद्योगनिवारकं विजयशंसिनं विजयसूचक विजयनजं विजयवैजयन्तीम् । अभ्यनन्दयच्चेति-सानन्दं सहर्षम् अभ्येत्य समागत्य, आत्मनि स्वस्मिन् सफललोचनत्वं सार्थकनयनखम् , आत्मजायां पुश्यां वीरपत्नीनि व्यपदेशस्तं वीरभाव्यिवहारम् , अवर जायां लधुभगिन्यां विजयामहादेव्यां वीरं सूत इति वीरसूतथा व्यपदेशस्तं वीरजननीयवहारम् आकल यन्तं धनवन्तम् चन्दन इब १५ शिशिरः शीत्तलस्तन मलय जशीतलेन हृदयनिर्वाणस्य चेत.संतोषस्य विवरणे प्रकटने चतुरस्तेन, विमलश्च सौ स्थूलश्चेति विमलस्थूलस्तेन समुज्ज्वलपीवरेण निप्पतता निगलता बाष्पपरेण नयन जलप्रवाहण अमिपिअन्तमित्र स्नपयन्तमिव आलिङ्गन्तं समाश्लिप्यन्तं गोविन्दमहारानम् आजी युद्धे. दर्शितं प्रकटितं यत् नैकापदानं नैक साहसं तेन संभवद् आनृण्यम् ऋणमुक्तत्वं यैस्तथाभूतान , अवर जस मेतान् लघुसनाभि
द्वारा वध्य है अथवा मैं इसके द्वारा वध्य हूँ ऐसा बुद्धिमान मनुष्य नहीं जानते । फिर २० किसलिए विवेकरहित हो मेरा अधिक तिरस्कार कर रहे हो ? नीच राज्ञा काष्ठांगारके मायापूर्ण उक्त वचनोंको श्रवण कर प्रतिभासे उसके अभिप्रायको प्रकाशित करनेवाले बुद्धिमान् जीवन्धरस्वामीने उत्तर दिया कि भयभीत क्यों हो रहे हो ? तदनन्तर अत्यन्त क्रोधाग्निको धारण करनेवाले वचन सुननेसे 'अरे नीचवणिक पुत्र ! वचन मात्रसे क्या ? विजय तो भाग्यके वासे होती है। तेरी शक्तिका समागम होनेपर यदि मेरे नेत्र भयभीत हो जावें तो २५ मेरा यह पुरुषत्व का अहंकार व्यर्थ हो सकता है और तेरा ऐसा कहना मा टीक हो सकता है, यह कह शीघ्रनासे पास में ले जाये हुए हार्थीसे हाथीपर उछलकर ज्यों ही काष्ठांगार तलवार तानकर शीघ्र ही मारने के लिए झपटा कि जीवन्धरस्वामीने बीच में ही अत्यन्त तीक्ष्ण शक्ति नामक शस्त्रसे उसके शरीरके खण्ड-खण्ड कर उसे परलोक भेज दिया और युद्धकी तैयारीको रोकनेवालो एवं विजयको सूचित करनेवाली विजयरताका फहरा दी। तदनन्तर जो अपने आपमें सफल लोचनतःको, पुत्रीमें वीरपत्नी के व्यपदेशको और छोटी । बहिन-विजया रानोमें वीरसू व्यपदेशको धारण कर रहे थे। जो चन्दनके समान शीतल, हृदयके सन्तोषको प्रकट करने में चतुर, निर्मल और स्थूल गिरते हुए अश्रुप्रवाहसे मानो अभिषेक ही कर रहे थे ऐसे आलिंगन करते हुए गोविन्द महाराज का, युद्धमें दिखलाये हुए अनेक प्रकारके पराक्रमसे जिनकी अनृणता सूचित हो रही थी ऐसे छोटे भाई सहित मित्रांका, ३५
१. क० ख० हन्तुमात्मनि पतम्तम् ।
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३७२
गद्यचिन्तामणिः
[ २४३ जीवंधरस्य
सखीन् सह प्राभृतेन प्रसभमागत्य प्रणमन्तमपि पृथ्वीपतिसमाजम् ।
$२५० ततश्च वेरिनिननोपलब्धवैरशुद्धिमेनं विलोकयतुमरिशुद्धान्तावशेषमाष भर्त्सनमपि कृत्स्नसंमानं ताडनमपि सनीडप्रवेशनं निवारणमपि दर्शनद्वारकरणं दूरीकरणमप्यूरीकरणं गणयनां गोगणावस्कन्दिविपिनेच रविजयोपोद्घातमात्मापदानं शंसता पुरो कसा मुल्लोक५ कोलाहलेन सकुतूहलमनाः कतत्कलधौतमयकालञ्चीकु रचामरभृङ्गारतालवृन्तप्रभृति परिवह्निरन्तरितपर्यन्तः समन्तात्सेवमान सामन्त लोकसमभिधोयमानालोकशब्दः प्रशस्ततमे मुहूर्ते निर्वर्तिततदुपकार्यादेश प्रतिप्रदेशनिविष्टुनिष्टस्ता कदमङ्गलविराजितं राजपुर्याः सहजमिवालंकारसहितान् सखीन् वयस्यान् प्रातेनोपहारंग सह सार्धं प्रसमं हठात् आगत्य प्रणमन्तं नमस्कुर्वन्तं पृथ्वीपतिसमानमपि महोपालमण्डलमपि अभ्यनन्दयच समनिनन्दितवान् ।
१०
$ २५० ततश्चति[- ततश्च तदनन्तरं च वैरिणः शत्रोः काष्टाङ्गारस्य निहननेन मारणेनोपधा प्राप्ता वैरशुद्धिर्येन तथागृह एवं जीवंधरं विलोकयितुम् अरिशुद्धान्तावशेषं शन्तःपुरं शेषयित्वा आपनुषामागछताम् अलनमपि तिरस्करणमपि कृत्स्नसंमानं पूर्णसत्कारम्, ताडनमपि पीडनमपि सनीडप्रवेशनं समीपपवेशनम् निवारणमपि निरोधनमपि दर्शनस्य द्वारकरणं साधननिर्माणमिति दर्शनद्वार करणम्, दूरीकरणमपि ऊरीकरणमङ्गीकरणम्, गणयतां मन्यमानानाम् गोगणस्य धेनुसमूहस्यावस्कन्दिनो१५ पहारिणो ये विपिनेचराः किरातास्तेषां विजयेनोपोद्यातः प्रारम्भो यस्य तथाभूतम् आत्मापदानं स्वसाहसं 'अपदानं तु साहसम्' इति धनंजयः शंसतां सूचयतां पुराकसः नगरनिवासिनाम् उल्लोककोलाहलेन प्रचुर कलककरवेण सकुतूहलं कोतुकाक्रान्तं मनो यस्य तथाभूतः कनकलधौतमया देदीप्यमानस्वर्णनिर्मिता कालाची पाते दर्पणः चामरो वालव्यजनं भृङ्गारो जलपात्रम् तालवृत्तं व्यजनम् एताभृतयः परिच उपकरणानि तैर्निरन्तरितो व्याप्तः पर्यन्तः समीपदेशो यस्य तथाभूतः समन्ताद् विश्वग् सेवमानाः २० सेवां कुर्वाणा ये सामन्वलोका मण्डकेश्वरारतैः समभिधीयमानः समुच्चार्यमाण आलोकशग्दो जयध्वनिर्यस्य तथाभूतः सन् प्रशस्त में श्रेष्ठतमे मुहूर्ते लग्ने निर्वर्तिता रचिताः तदुपकार्या प्रदेशाः तदुपकारिकाप्रदेशाः योग्यपटकुटीदेशा येन तथाभूतः सन् 'उपकायोंपकारिका' इत्यमरः प्रतिप्रदेशं स्थाने स्थाने निविष्टानि स्थापितानि निष्टसहाटकस्व संतप्तस्वर्णस्य हरन्ति देदीप्यमानानि यानि अष्टमङ्गलानि तैर्विराजितं शोभितं तथा भेंट के साथ हठात् आकर प्रणाम करते हुए राजसमूहका जीवन्धरस्वामीने हर्षपूर्वक २५ सामने जाकर अभिनन्दन किया-- आभार माना ।
६२५०. तत्पश्चात् शत्रुको मारनेसे जिन्हें वैरका प्रतिशोध हो गया था ऐसे इन जीवन्धरस्वामीको देखनेके लिए शत्रुके अन्तःपुरको छोड़ शेष समस्त नगरवासों चारों ओरसे आने लगे | उस समय नगरवासी लोग डाँटको भी पूर्ण सम्मान, ताडनको भी समीपमें प्रवेश, मना करने को भी दर्शनका द्वार करना, और दूरीकरणको भी स्वीकरण समझ रहे थे । ३० तथा गायों के समूहको चुरानेवाले भीलोंकी विजयको लेकर जीवन्धर स्वामी के पराक्रमकी प्रशंसा कर रहे थे । उन लोगों के बहुत भारी कोलाहलसे जिनका मन कुतूहलसे सहित हो रहा था, देदीप्यमान स्वर्ण से निर्मित तीर्थपात्र, दर्पण, चामर, झारी और पंखा आदि उपकरणोंसे जिनका समीपवर्ती प्रदेश व्याप्त था, सब ओरसे सेवा करनेवाले सामन्त लोकोंके द्वारा जिनका जय-जयकार हो रहा था, अत्यन्त शुभ मुहूर्त में जिनकी राजवसतिकाका स्थान रचा गया ३५ था, जो विधि-विधानको जाननेवाले थे तथा श्रद्धालुजनों में चूडामणि स्वरूप थे ऐसे जीबन्धर स्वामी अभिषेक करने के लिए प्रत्येक प्रदेशपर स्थित सन्तन सुवर्णसे निर्मित देदीप्यमान
१. ग० विजयोद्भूतमात्मापदानम् । क० ख० विजयोद्भूतमात्मावदानम् । २. तीर्थयात्रम् इति टि० ।
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- विजयवृत्तान्तः]
दशमो लम्मा मलंकृतमिव त्रिदिवं त्रिजगत्सार इति विश्रुतं श्रोजिनालयमभिषेकविधये विधानज्ञोऽयमास्तिकचूडामणिरधिकास्थयोपतस्थी।
$२५१. तत्र च सत्वरपरिजनसंनिधाप्यमान कमणिमहाकलितधवलातपत्रकिरीटहरिविपररष्टमङ्गला भरेकोपकरणेश्च बारम्बितहरिति, हूयमानदहनदक्षिणावर्ताचिश्छटादर्शनतृप्तपुरोधसि, विधीयमानविविध कार्यतात्पर्यसंचरमाणपञ्च बनपरस्परसंघट्टनप्रेङ्खत्केयूरजनितक्रेङ्कार. ५ वाचालित ककुभि, दोयमा दीनारादिवितृष्णदीनलोकपाणितलान्तरपर्याप्तच्युतमाणिक्यमोवितकस्थपुटित मणिकुट्टिमे प्रसवपरिमलादपि भ्रमर झंकारस्य, जनताया अपि प्रमदस्य, सुन्दरीजनादपि
राजपुर्यास्तन्नामराजधान्याः सहज स्वाभाविकम् अलंकारमिव भूषणमिव अलंकृतं संक्षिप्तं त्रिदिवमिव अथवा त्रिदिवमिय स्वर्ग मनालंकृत निजपरमार इति विश्रुतं तन्नाम्ना प्रसिद्धम् श्रीजिनालयं जिनमन्दिरम् अभिषेकविधये जिनस्नपनाय विधानशा विधिज्ञानोपेतः आस्तिकचूडामणिः श्रद्धालुजनश्रेष्ठोऽयं जीवंधरः १० अधिकास्थया भूयिष्ठश्चन्द्व या उपतस्थी उपास्मात् ।
६२५३. तत्र चेति-तत्र च श्रीजिनालये छ । अय तस्यैव विशेषणान्याह-सत्वरेति-सत्वरः शीव्रतासहितैः परिजनैः परिकरपुरुषः संनिधाप्यमानानि समुपस्थाप्यमानानि तैः नैकमणीनां नानारत्नानां महसा तेजसा कवलितानि व्याप्तानि यानि धवलातपकिरीटहरिविष्टराणि सितच्छपमुकुट सिंहासनानि तैः अपमङ्गलादीनि च तान्यमिपेकोपकरणानि चेत्यष्टमङ्गलायभिपेकोपकरणानि तेश्च करविता व्याप्ता १५ हरितो दिशो यस्मिस्तस्मिन् , हुयमानः साकल्येन संतप्यमाणो यो दहनो वह्रिस्तरय दक्षिणावर्तानि यान्यचापि ज्वालास्तासां छटाया दर्शनेन तृप्ताः संतुष्टाः पुरोधसः पुरोहिता यस्मिस्तस्मिन् , विधीयमानानि क्रियमाणानि यानि विविधकार्याणि नानाकृत्यानि तेषु तात्पर्येण तत्परत्वेन संघरमाणा इतस्ततो गच्छन्तो ये पञ्चजनाः पुरुषास्तेषां परस्परसंघटन मिथोविमर्दैन प्रेकशिश्वलतिः केयूरैरङ्गदैर्जनितः समुत्पादितो यः क्रेङ्कारोऽक्तशब्दविशेषस्तेन चाचालिताः सन्दिताः ककुभो दिशो यस्मिस्तस्मिन् , दीयमानर्वितीयमाण- २० दीनारादिभिः स्वर्णमुद्रादिमिवितृष्णास्तृष्णारहिता ये दीनलोका याचकजनास्तेषां पाणितलान्तः करतलमध्येपर्याप्ताम्यसंमितानि अतएव युतानि पतितानि यानि माणिक्यमौक्तिकानि रत्नमुक्ताफलानि तैः स्थपुस्तिो नतोन्नतो मणिकुहिमो रत्नखचितवसुधाभोगो यरिमस्तस्मिन् । प्रसवपरिमलादपि पुष्पसौगन्ध्यादपि भ्रमरझंकारस्य षट्पदगुजारवस्य, जनताया अपि जनसमूहादपि प्रमदस्य हर्षस्य, सुन्दरीजनादपि
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अप्ट मंगल द्रव्योंसे सुशोभित, राजपुरीके सहज-स्वाभाविक अलंकारके समान अथवा २५ अलंकृत स्वर्गके समान त्रिजगत्सार नामसे प्रसिद्ध जिनालयमें पहुँचे।
६२५१. यहाँ शीघ्रतासे युक्त परिजनोंक द्वारा समीपमें रखे जानेवाले नाना मणियोंके तेजसे युक्त सफेद छत्र, मुकुट और सिंहासन तथा अष्ट मंगल द्रव्यको आदि लेकर अभिषेकके उपकरणोंस जिसकी दिशाएँ व्याप्त हो रही थी, होमी हुई अग्निकी दक्षिणावर्त ज्वालाओंकी छटाके देखनेसे जिसमें पुरोहित लोग सन्तुष्ट हो रहे थे, किये जानेवाले नाना कार्योंकी ३० तत्परतासे इधर-उधर घूमनेवाले मनुध्योंकी परस्परकी धक्का-धूमीसे हिलते हुए बाजूबन्दोंको केंकार ध्वनिसे जिसमें दिशाएँ शब्दायमान हो रही थी, दी जानेवाली दीवारों आदिसे सन्तुष्ट दोन जनांके हस्ततलके अन्तरसे अधिक मात्रामें गिरे हुए मणियों और मोतियोंसे जिसमें मणिखचित फर्श ऊँचा-नीचा हो रहा था, जहाँ फूलोकी सुगन्धिसे भी अधिक भ्रमरों
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૨૭૪
[ २५१ जीधरस्य
सौन्दर्यस्य कर्तव्यादपि तत्कर्मान्तिकरण, वनोपज देवकाञ्चनस्य वादित्रववणि तादपि नृत्यदङ्गनारशनारणितस्य शास्त्रचोदितादपि सपर्याक्रमस्य समधिकस्य समुद्भवे भगवतः श्रीमन्दिरे सुरेन्द्र इव दूरादेरावणाद्वारणवरादवरुह्य वर्यया भक्त्या सपर्यानन्तर पर्याप्तमधिगमसम्यक्त्वं * बहिः प्रसारयन्निव वाणीं गद्गदयन् पाणि मुकुलयन् नेत्रयुगं सावयन्, गात्रं ५ पुलकयन् शिरः प्रह्वयन् मनः प्रसादयन् प्राज्येज्यापरिकरैः परिपूज्य भगवन्तं भक्तिजलप्रवाहेण प्रागेवाभिषेकात्प्रक्षालितबहुलाघजम्बालोऽभूत् ।
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·
२०
गद्यचिन्तामणिः
* २५२. तावदुदञ्चच्चन्द्रचन्द्रिकासंचयेनेव कञ्चुक्तिम्, विमाणसोत्रामणवारणदेहप्रभातानेनेव सवितानम्, क्रीडाचटुलसुरधुनीमरालमण्डलपक्षैरिव वलक्षितम्, आकालिकतुषारललनालोकादपि सौन्दर्यस्य लावण्यस्थ, कर्तव्यादपि कार्यादपि तत्कर्मान्तिकस्य तत्कर्मकरकलापस्य, १० वनकायावकमनोरथादपि देयकाञ्चनस्य दातव्य सुवर्णस्य वादिक्वणितादपि वाद्यस्वादपि नृत्यङ्गनानां नटन्नारीणां रशनारजितस्य मेखलाशब्दस्य, शास्त्रचोदितापि शास्त्रनिरूपितादपि समधिकस्य प्रभूतस्य समयक्रमस्व पूजाक्रमस्य समुद्भवे सति समुत्पत्ती सत्याम् भगवतोऽर्हतः श्रीमन्दिरे ऐरावणात् ऐरावतात सुरेन्द्र इत्र देवेन्द्र इव वारणवरात् गजराजात् दूरात् अवरुह्य समवतार्थ वर्यया श्रेष्ठया भक्त्या सपनिन्तरं पर्यातिं प्राप्तं यदधिगम सम्यक्त्वं परोपदेशादिजनितसम्यग्दर्शनं तद् बहिःप्रसारयनिय विस्तार१५ यन्तिव वाणीं गद्गदयन् गगां कुर्वन् पाणिं मुकुलयन् श्रद्धाञ्जलिल्वेन कुकुमकाकारं कुर्वन् नेत्रयुगं
नयनयुगलं स्रावयन् ततो हर्षाश्रु विगकयन्, गात्रं शरीरं पुलकयन् रोमाञ्चयन् शिरःशीर्ष प्रयन्नमयन्, मनश्चित्तं प्रसादयन् प्रसन्नं कुर्वन् प्राज्येापरिकरैः प्रकृष्टपूजासामग्रीभिः भगवन्तं परिपूज्य समर्च्य मन्तिरेव जलप्रवाहस्तेन अभिषेकात् प्रागेव पूर्वमेव प्रनालितः प्रश्रौतो बहुलावजम्बाली भूयिष्ठापनिषद्व यस्य तथाभूतः अभृत् 'निषद्वरस्तु जम्बाल:' इत्यमरः ।
६२५२. तावदिति-- तावत् तावता कालेन उदञ्चान् उदीयमानो यश्चन्द्रो विधुस्तस्य चन्द्रिकाया ज्योत्स्नायाः संचयेन समूहेन कञ्चकितमिव व्याप्तमिय, सुत्राम्णोऽयं सौश्रामणः स चासौ वारणश्रेति सौत्रामा विहरमाणः पर्यटन् यः सौत्रामणवारण इन्द्रराजस्तस्य देहप्रमाप्रतानेन कायकान्तिकलापेन सर्वतानमिव सोलो मित्र क्रीडास्टुला केलिचपला ये सुरवृनीमराला गङ्गाहंसास्तेषां मण्डलस्य समूहस्य
का झंकार, जनतासे भी अधिक हर्प, सुन्दरीजनोंसे भी अधिक सौन्दर्य, कार्य से भी अधिक २५ उस कार्य के करनेवाले, याचकों की वाच्छासे भी अधिक देने योग्य सुवर्ण, वाजोंक शब्द से भी अधिक नृत्य करनेवाली स्त्रियांची मेखलाको रुनझुन और शास्त्र में कहे हुएकी अपेक्षा अधिक पूजा के क्रमको उद्धति थी ऐसे भगवान् के मन्दिर में ऐरावत हाथी से इन्द्र के समान उत्तम हाथीसे दूर ही से उतरकर उत्कृष्ट भक्ति के कारण जो पूजा के बाद अधिकताको प्राप्त होनेवाले सम्यक्त्वको बाहर फैलाते हुए के समान वाणीको गद्गद कर रहे थे, हस्ततलको ३० मुकुलित कर रहे थे, नेत्रयुगल से हर्पाश्रु झरा रहे थे, शरीरको पुलकित कर रहे थे, शिरको हिला रहे थे और को प्रसन्न कर रहे थे ऐसे जीवन्धरस्वामी पुजाकी श्रेष्ठ सामग्रीसे भगवान् की पूजा कर भक्तिरूप जल प्रवाहसे अभिषेक के पूर्व ही धुल गयी है प्रचुर पापरूपी कीचड़ जिनकी ऐसे हो गये ।
६ २५२. उसी समय जो आकाशको उदित होते हुए चन्द्रमाको चाँदनी समूहसे ३५ व्याप्त के समान, घूमते हुए ऐरावत हाथी के शरीरकी प्रभाके समूह से सहित के समान, क्रीड़ासे चञ्चल आकाशगंगाके हंस समूह के पंखोंसे सफेद किये हुए के समान, असमय में होनेवाले
१. क० 'तत्' नास्ति । २ म० पर्याप्तसम्यक्त्वम् । ३. क० सुत्रामवारण -
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-राज्याभिषेकवृत्तान्तः]
दशमो लम्मः वारिशोकरविसरैरिव विच्छुरितम्, विसृमरपर्याप्तधूपस्तूपधूमनिष्पन्नधूमयोनिपरस्परसंघट्टविघटितअठरान्तर्मुक्तमुक्ताफलकान्तिमातेनेव वीनं वियद्विदधान: पारिषद्य चक्षुराह्लादभाभारेण परोतः शुक्त रा कृतज्ञप्रानहरः कृतज्ञचरः सुदर्शननामा देवः सादरमन्तरिक्षादवारुक्षत् ।
२५३. अभ्यषिञ्चच्च तदभिषेकाधिकृतरमा सपरितोषं निजपरिवारामरपरम्परानीतया पगाखिलतार्थाम्बुपुरपूरितया परिसरप्रत्युप्तपद्मरागप्रभा जालमटिलकिरालयापाडया महनीय- ५ रत्नमहापधिवीज समवासमग्रमङ्गलशालिकट्या शातकुम्भकुम्भपरिपाट्या भगवन्तमिव मन्दरगिरिमस्तकनिविष्टं विष्टरश्नवा हरिविष्टर विराजिनं जोवंधरमहाराजम् । इन्त्र पोरन दलक्षितमिव शुक्लीकृत मित्र, कालिका असमयोद्भूता | तुरावारिशीकरा: प्रालेयरसलिस.. कणास्तेषां विसरः समूह विच्छुरितमिव व्याप्तभिव, विनमरा विसरणशोलाः पर्यापारा ये पस्तूपा धूपघटास्तेषां धूमन निष्पन्ना उत्पादिता ये धूमयो नयो घनाम्नेषो परस्पासंबन विघटितं विदारितं यजठरं १० मध्यं तस्यान्तमध्यान् मुमान पतितानि यामि भुक्तान मीक्षितकानि सेवा कान्तीनां वातेन समूहेनेव वीधं शुक्लं वियद्गगनं विदधानः कुर्याग: 'धन जीमूत मुदिरजमुमोनमः' इत्यारः, पारिषद्यानां सदस्य देवानांनुपां नयनानामालादो यस्मात्तथाभूनी यी भाभार: कान्तिसमूहरन परीनो व्यारतः कृतज्ञानां कृतमुपकार जानता प्राप्रहरः श्रेष्ठः भूनपूर्वः कृतज्ञः कुकुर इति कृतज्ञ चरः सुदशननामा देवोऽमरः सादर यथा स्यात्तथा अन्तरिक्षा व्योम्नः अवारुक्षत् अवततार ।।
६२.५३, अभ्यपिञ्चच्चेति-तस्याभिषेकेऽधिकृतास्तैस्तत्स्नपनाधिकारिभिः ॐ मा साकं सपरित्तोपं परितोषयुतं यथा स्यात्तथा निजपरिवासमराणां स्वकुटुम्बनिलिमानां परम्परया पडक्या आनीना तया, परायः श्रेष्ठा येऽखिस्तीर्था निसिलपवित्रक्षेत्राणि तेषामम्बुपुरेण जलप्रवाह न पूस्तिा संभृता तयां, परिसर तटे प्रत्युप्तानां खचितानां पद्मरागाणां लोहिताभमणीनां प्रमाजालेन कान्तिकलापेन अटिलो व्याप्तः किसलयापीडः पल्लवसमहो यस्थास्तया महनीयरत्ने देदीप्यमानमणिभिः महौषधिभिः बीजसमवायेन २० बीजसमहन, समग्रमङ्गलैश्च निखिलमजल द्रव्यैश्च शालिनी शामिनी कटिमध्यभागो यस्यास्तया शात कुम्भस्य भर्मण: कुम्मानां घटानां परिपाट्या पडत्या मन्दरगिरेः सुमेरोमस्तके शिखरे निविष्ठं स्थितं भगवन्तं तीर्थङ्करं विष्टरश्रवा इव शक्र इव,हरिविष्टरे सिंहासने विरामते शोभत इत्येवंशील जीवंधरमहाराजम् अभ्यपिचरच स्नपयामास घ। बर्फ युक्त जलके छीटोंके समूहसे व्याप्तके समान, अथवा फैलनेवाले अत्यधिक धूप स्तूपोंके २५ धूमसे निष्पन्ग अग्नियोंके परस्पर के संघट्टसे विघटित होकर बीच में छूटे हुए. मातियोंकी कान्तिके समूहसे ही मानो सफेद कर रहा था, सभासदोंके नेत्रोंको आनन्द देनेवाली प्रभाके समूहसे व्याप्त था, और कृतज्ञों--कृत उपकारके माननेवालों में प्रधान था, ऐसा कुत्ताका जीव सुदर्शन नामका देव बड़े आदरसे आकाश से नीचे उतरा।
६२५३. और उसने उनके अभिषेक कार्य में अधिकारी लोगों के साथ बहुत भारी ३० सन्तोपसे, अपने परिवार के देवों की परम्परासे लाये हुए, उत्तमोत्तम समन्त तीर्थों के जलसे भरे हुए समीपसें लगे पद्मराग मणियोंके प्रभाजालसे उगाप्त किसलयों के समूहसे युक्त, श्लाघनीय रत्न रूपी महौषधिके बीजकी प्राप्ति करानेवाले समय मंगलोंसे सुशोभित कटिभागसे गुक्त स्वर्णमय कलशोंके समूहसे सिंहासन पर विराजमान जीवन्धरमहाराजका उस तरह अभिषेक किया जिस तरह कि इन्द्र सुमेरु पर्वतके मस्तकपर स्थित जिनेन्द्र भगवानका ३५ करता है। - १. बीभ तु विमलार्थकम् इति टि० । २. क.. समाबाप ।
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गधचिन्तामणिः
[२५५ जीवंधरस्य६२५४. अभिषेकसलिलोघे च संसिद्धिसिद्धनमल्ये निर्मलतमतदङ्गस्पर्शनेन पावनतां प्रतिपद्य पापभूपसंपर्कपांसुलामपांसुला कर्तुमिव काश्यपों व्यस्तुवाने, भृशमुन्मूलितरागाणामप्युस्कण्ठावहं गायत्किन्नरकण्ठीनां गणेन सुरकिंकरवाद्यमानैरमानुषातोद्यैरभिनवरसानुबन्धमभिनन्दन्तीनामप्सरसां सार्थेन चिरममर्त्यलोकायमाने भुवने भुवन कशरण्यं लावण्यमूर्ति मूर्धाभिषिक्तभेनं स्त्रयमेव परार्यरत्नाभरणैः सपरिष्करणं कृत्वा प्रकृतिसिद्धरामणीयस्यास्य भूषणानां च भूष्यभूषणभावसाधारणतां समालोक्य सस्नेहविस्मयस्तिमितचक्षुषि चक्षुष्यमेनं पुनःपुनराश्लिष्य यक्षेन्द्रे स्वमन्दिरभीयुषि, राजेन्द्रोऽपि सदातननरेन्द्रसरभसोत्थानसंरम्भच्युतकर्णशिखरगतकर्णपूरोत्कलिका
६२५४. अभिपेकेति-संसिद्धया स्वभावेन सिद्धं नर्मग यस्य तथाभूने अभिषेकसलिलौधे स्नग्नसशिलगरे निर्मऊतमस्यातिशयेन निर्मलय तदङ्गम्य जीवंधर शरीरस्य स्पर्शनेन पावनतां पवित्रता १० प्रतिपद्य पाप भूपस्य कायाकारामिधान गरापपार्थिवस्य संपर्केण संसर्गप्प पांमुलामपबित्रां काश्यपी भूमिम्
भपासुला पवियां कर्नुमिव ग्यश्नुवाने न्याजवति सति, भृशमत्यर्थम् उन्मूलितरागाणामपि दूरीकृतरागाणामपि उकाठामुसुकतामावहतीत्युत्कण्ठावहं यथा स्यात्तथा गाय किन्नरकण्ठीनां गायत्किारकामिनीनां गणेन समूहेन, सुरकिङ्करदेवकिरैर्वाधमानानि ताइय नानानि तैः अमानुषातोयैर्दिव्यवादित्रैः, अमिनवो नूतनो रसानुबन्धो यस्मिन् कर्मणि तयथा स्यात्तथा, भभिनन्दन्तीनाम् अभिनन्दनं कुर्वन्तीनाम् अप्परसां सार्थेन समूहेन भुवने लोके चिरम् अमर्त्यलोकायमाने स्वर्गकोकादाचरति सति, भुवनस्य लोकस्यैकशरणयः प्रमुबरक्षकतं, कापयति सौन्दर्यमति मनि शिरस्थभिषिक्त-तम् एन जीवधरं स्वयमेव स्वत एक परायरत्नाभरणः वेष्टरत्नालंकरणैः सपरिकरणं सालंकारं कृत्वा प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध रामणीयक सौन्दर्य यस्य सधाभूतस्य अस्य जीवधरस्य भूषणानामलं करणानां च भूप भूषण मायस्पालंकार्यालंकरणभावस्य साधारणतां सडतां समालोक्य दृष्ट्वा सस्नेहविस्मयेन सप्रणयाश्चर्यण स्तिमिते निश्चके चक्षुषी यस्य तथाभूने यक्षेन्दे खुदर्शने चक्षुष्यं सुभगम् 'चक्षुप्यः केतके पुंसि सुमगेऽक्षिहिते त्रिषु' इति विश्वलोचनः । एनं जीवंधरं पुनः पुनः भूयो भूयः आशिलप्य समालिङ्गव स्वमन्दिरं स्वभवनम् ईयुषि गतवनि सति, राजेन्द्रोऽपि जीवंधरोऽपि सदातननरेन्द्राणां नृपाणां यत्सरमसं सवेगमुत्थानं तस्य संरम्भेण शीघ्रप्रवर्तनेन च्युताः पतिताः कर्णशिखागतकर्ण पूरागां श्रवणाग्रस्थितमा मरणानामुकलिका दलानि
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६२५४. तदनन्तर उत्तम औषधियोंकि संसर्गसे जिसकी निर्मलता सिद्ध थी ऐसा अभिपेक२५ के जलका समूह उनके अत्यन्त पवित्र शरीरके स्पर्शसे पवित्रताको प्राप्त कर जब पापी राजा
काष्टांगारके सम्पर्कसे मलिन पृथिवीको निर्मल करने के लिए ही मानो सर्वत्र व्याप्त हो रहा था और जब अत्यन्त वीतराग मनुष्यों को भी जिस तरह उत्कण्ठा उत्पन्न हो जाय उस तरह गाती हुई किन्नरकण्ठियोंके समूह, देव किंकरों के द्वारा बनाये जाने वाले दिव्य वादित्रों, और
नूतन रसके अनुरूप अभिनय करनेवाली अप्सराओं के समूहसे यह संसार स्वर्गलोक के समान ३० आचरण कर रहा था तब संसारके मुख्य रक्षक, सौन्दर्य की मूर्ति एवं मूर्धाभिपिक्त जीवन्धर
स्वामीको श्रेष्ठ रत्नोंके आभरणोंसे स्वयं ही अलंकृत कर नथा स्वभाव सिद्ध सुन्दरताके धारक उन जीवन्धरस्वामी और आभूपणोंकी परस्पर भूण्यभूपणभावको समानताको देखकर जिसके नेत्र स्नेहपूर्ण आश्चयसे निश्चल थे ऐसा यक्षेन्द्र नेत्रों के लिए अत्यन्त प्रिय
जीवन्धरस्वामीका बार-बार आलिंगन कर जब अपने मन्दिरकी ओर चला गया तब ३५ राजाओंके इन्द्र जीवन्धरस्वामी भी सदातन राजाओंके वेगसहित उठने के संरम्भसे गिरे
१. स्वभावेन सिद्धम् इति टि०।
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- राज्याभिषेकवृत्तान्तः ] दशमी लग्मः
३७७ पुनरुक्तपुप्पोपहारमण्डनादास्थानमण्डपादुत्थाय ततो निर्गत्य प्रसरत्यपि प्रणामलीलालालसानां भूभुजामुन्मेषिणि चूडामणिमरीचिनिचयवालातपे ससंभ्रमावजितमकुटप्रच्युतापीडकुसुमडोलायमानमधुकरकुलान्धकारकुटमलायमानकोमलाञ्जलिकमलसहस्रकरम्बितमम्बरतलमालोकयन् 'जय जय' इति तारतर मुद्गायतो वन्दिवृन्दस्यामन्ददुन्दुभिगम्भीरॅनिर्घोषानुपातगायतशङ्खध्वानमिश्नं प्रहतमदलस्निग्धनिहदिमांसलं कांस्यतालरवसंकुलमालोकशब्दमाकर्णयन् आलोलकर्णपल्लवाल- ५ म्बित्रालचामरकलापाममलकार्तस्वरकल्पितालंकारकान्तां चारुकोमलपुष्करकरां रांभ्रममाधोरणसमुपनीतां साक्षान्मूतिमतीमिव जयलक्ष्मी जयलक्ष्मी नाम करेणुकामारुह्य हंसतुल मृदुचीनपट्टोपधाने ताभिः पुनरुतं द्विरुपीरितं पुष्पोपहारमादनं यस्मिस्तधाभुतान् भास्थानमाडसान उत्थाय ततो मगडपान् निर्गत्य प्रगामकोलायो ननस्कारलीलायां लालसा मनोरथा येषां तेयां भूभुना राज्ञाम् उन्लेषिणि वर्धनशीले चुडामणिमरी बीनां शिवामणिरश्मीनां निचयः समूह पुत्र बाकातपः प्रत्यूष वर्मस्तस्मिन् प्रसरत्यपि १० ससंभ्रमं सत्वरमार्जितेभ्यो नतेभ्यो मरेपो मौलिभ्यः प्रयुतानि पतितानि यान्यापीडकुसुमानि शेखरपुष्पाणि तेपु दोलायमानं चलचलं यन्मधुकर कुलं भ्रमरसमहः स एवान्धकारस्तिमिर यत्र कुटमकायमानानि मुलायमानानि यानि कोमकालिकमलसहस्राणि मुटुला लिसरसिजसहस्राणि तैः करम्वितं व्याप्तम् अम्मरतलं नमस्तलम् आकोकयन् पश्यन् , 'जय जय' इति तारतरं गभीरं यथा स्यात्तथा उद्गायतः उच्चैः स्वरेण गायती वन्दियन्दस्य चारगसमूहस्य अमन्ददुन्दुमीनां विशालानकानां गम्भीर- १५ निषेण समुच्चतरशदनानुयात मनुगतम् भायतशत यानेन वाघशाशब्देन मिश्र मिलित प्रहसानों नाडितानां मर्दलानां वादिनविशेषाणां स्निग्धनिदिन स्निग्धशमेन मांसलं पुष्टम्, काम्यतालानां कांस्यनिर्मिनझलरीणां रवेण श-देन संकलं व्याप्तम् आलोकशब्दं जपजयध्वनिम् अकर्ण यन् शण्वन् , आलोल. कर्णपळवेषु धवलकर्णकिसलयेष्वालम्बिनचामरझलारा बालन्यजनसमूहा यस्यास्ताम्, अमलेन निर्मलेन कार्तस्वरेण स्वर्णेन कल्पिता रचिता येऽलंकारास्तैः कान्तां मनोहराम् चारकोमल मनोहरमृदुलं पुष्कर- २० मनं यस्य सयाभूतः करः शुण्डा यस्यास्ताम् 'पुष्करं करिहस्ताने दाद्यभाण्डमुग्वे जले' इत्यमरः, ससंभ्रम सत्वरम् माधोरणेन हस्तिरकेन सगुपीतां समुपस्थापितां साक्षात् मूर्तिमी शरीरधारिणी जयलक्ष्मीमिव विजयश्यिमिव, जयलक्ष्मी नाम तन्नामधती करेणुका हस्तिनीम् आरुह्य अधिष्टाय हस्तूल मिव मृदुहुए कण शिखर सम्बन्धी कर्णाभरणों की उत्कृष्ट कलिकाओंसे पुनरुक्त फूलोंके उपहारसे सुशोभित सभामण्डपसे उठकर तथा वहाँसे निकलकर जब प्रणामकी लीलामें सोत्कण्ठ २१ राजाओंके चूड़ामपिपयों की किरणोंका समूह रूपी वाल आतप उन्मिपित होकर फैल रहा था तब सम्भ्रम पूर्वक झुकाये हुए मुकुटोंसे च्युत्त सेहरे के फूलोंपर झूमनेवाले भ्रमर समूह रूपी अन्धकारसे युक्त एवं बोडियोंके समान आचरण करनेवाली कोमल अंजली रूपो हजारों कमलोंसे व्यान आकाझको देखते हुए, 'जय-जय इस प्रकार जोरसे गाते हुए बन्दीजनों के बहुत भारी भेरोके गम्भीर शब्दसे अनुगत, बहुत दूर तक फैलनेवाली शंखध्वनिसे मिश्रित ३० ताडित मर्दल नामक यादित्रके स्निग्ध शब्दसे परिपुष्ट, और कांसेको झाँझोंके शब्दसे आकुल आलोकनाद-जय जयकार नादको सुनते हुए, जिसके चपखल कर्ण पल्लबों में छोटे-छोटे चामरोंका समूह लगा हुआ था, जो निर्मल स्वर्णसे निर्मित अलंकारोंसे अलंकृत थी, जिसकी शुण्ड सुन्दर एवं कोमल अग्रभागसे सहित, थी, जो सम्भ्रमपूर्वक महावसके द्वारा लायी गयी थी और साक्षात् मूर्निमती लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ऐसी जयलक्ष्मी नामक हस्तिनोपर ३५ आरूढ़ होकर राजमागमें प्रविष्ट हुए। उस समय वे हंसतृलस कोमल चौनएट की तकियांसे
१. म संभ्रममावजित। २. का तारतारम् । गानोरं यथा तथा, इति टि । ३. क. ग० गभीरम् ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ २५५ जीवंधरस्यपरिस्तोमवति विचित्ररत्नचित्रेपर्यन्ते सुविहितप्रस्तररमणीये महति कनकपर्याणके सुखनिषण्णः पश्चिमासनगतेन हेमाङ्गदवलयरत्नदीधितिस्तबकचित्रवारबाणेन कुलक्रमागतेन स्निग्धेन शीलवता शौचाचारयुक्तेन प्रथमानमित्रेणोह्यमानस्य मध्यापितमहामणिमयूखपटलपाटलितस्य बालातपरक्तशारदबलाहकानुकारिणश्चामीकरदण्डस्य प्रलम्बतरस्थूलमुक्ताकलापस्मेरपर्यन्तस्य महाश्वेता५ तपत्रस्य निसर्गशिशिरच्छायया निवार्यमाणमार्तण्डकरावलेपः पार्श्वकरेणुसंश्चिताभिरतिमनोहराभि
वरिवनिताभिरतिमधुरं गायन्तोभिविनोद्यमानः सकुतूहलपौरसुन्दरीजालमार्गप्रसृतलोचनसहसरोछादितामुदञ्चदुत्पलप्रचयमेचकामिव भवनदीपिका राजवीथीं जगाहे । कोमलं चानवस्य चीनांशु कस्योपधानं तकिया' इति प्रसिद्धं यस्मितस्मिन् परिस्तोमवति कुथयुक्त
'प्रवेषयास्तरणं वर्ण: परिस्तोमः कुथो द्वयोः' इत्यमरः, मुन' इति प्रसिद्धवस्तुयुक्ते विचित्ररत्नै नामणि१० मिश्चित्रः पर्यन्तो यस्य तस्मिन् , सुविहितप्रस्तर इव सुरचितोपल इव रमणीयं मनोहरं तस्मिन् महति
दिशाले कनकपर्याणक स्वर्णनिर्मितगजपृष्टासने सुखेन निषण्णः सुखनिषण्णः सुग्बोपविष्टः पश्चिमासनगतेन पश्चादिएरोपविष्टेन हेमाङ्गदवलयरत्नानां कनककेयूरकट करनानां दीधितयो रश्मयस्तेषां स्तवकेन गुच्छ केन चित्रः शत्रलो वारवाणः कवचो यस्य तेन कुलक्रमागतेन वंशपरम्परागतेन स्निग्धेन स्नेहवता
शीलवता सत्वमावसहितेन शौचाचारंग पवित्रव्यवहारेण युक्तस्तेन, प्रथमानमित्रेण प्रसिद्धसुहृदा पद्मास्ये१५ नेति यावत् उहामानस्य ध्रियमाणस्य मध्यार्पितष मध्ये खचितस्य महामणेमहारत्नस्य मयूखपटलेन
किरणकलापेन पालितमोपद्रतं तस्त्र, बालातपेन प्रत्यूवमेंगोपरको य: शारदवलाहकः शरमेघस्तमनुकरोनीस्येवंशी रस्तस्य चामीकरदण्डस्य स्वर्ण दण्डयु कम्य प्रलम्बतरेण लम्बमानेन स्थूलमुक्ताकलापेन बृहन्मुक्ताफ ललहन स्मेरो बिहस्तितः पर्यन्तो यस्य तस्य महाश्वेतातपत्रस्य महाशुक्लच्छन्नस्य निसर्गशिशिरच्छायया स्वभावशीतल र छायया निवार्यमाणो दूरीक्रिश्नमाणो मार्तण्डकराणां दिनकरकिरणानामत्रलेपो गर्यो यस्य तथाभूतः, पाश्च करेगुसंश्रिताभिर्निकटस्थगजारूदामिः अतिमनोहराभिरतिरमणीयामिः अतिमधुरं यथा स्यात्तथा गायन्त भि: वास्वनितामिवेश्यामिः विनोद्यमानः, सकुतूहका दर्शनकौतुकसहिता याः पारसुन्दयों नागरिकनायलासा जालमार्गण वातायनवर्मना प्रसृतानि यानि लोचनसहस्राणि नयनसहस्राणि तैः संछादितां व्याप्ताम् अतएवोदञ्चता विकसता उत्पलानां नीलारविन्दानां प्रचयेन समूहेन
मेचका कृष्णा तमाभूतां भवन दीधिकामिव गृहवापिकामित्र राजवीथीं राजमार्ग जगाहे प्रविवेश । २५ युक्त, आवरासे सुशोभित तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे जिसका पर्यन्तभाग चित्र-विचित्र हो
रहा है ऐसे अच्छी तरह बनाये हुए पत्थरके समान रमणीय बड़े भारी स्वर्णके पलानपर सुखसे विराजमान थे । पीछेके आसनपर स्थित, स्वर्णमय केयूर तथा कण्ट कके रत्नोंकी किरणों के समूहसे चित्र-विचित्र वार बाणको धारण करनेवाले, वंश परम्परासे आगत, स्निग्ध,
शीलवान, और पवित्र आचारसे युक्त प्रसिद्ध मित्रके द्वारा धारण मि.ए, बीच में लगे ३० महामणियोंको किरणावलिसे कुछ-कुछ लाल दिखनेवाले अतएव प्रात:कालके वामसे उपरक्त
शरदऋतु के मेघका अनुकरण करनेवाले, स्वर्णदण्डसे युक्त, तथा लटकते हुए बड़े-ड़े मोतियों की झालरसे सुशोभित पर्यन्त भागसे सहित बहुत बड़े सफेद छत्रकी स्वभावसे ही शीतल छायासे सूर्य की किरणोंके दपको दूर कर रहे थे और समोपस्थ हस्ति नियोंपर बैठी एवं
अत्यन्त मधुर गान गाती हुई वेश्याएँ उन्हें विनोदित कर रही थीं। राजमार्ग कुतूहलसे युक्त ३५ नगरकी स्त्रियोंके झरोखोंसे फैलनेवाले हजारों नेत्रोसे आच्छादित था इसलिये खिले हुए नील कमलोंके समूहसे श्यामवर्ण दिखनेवाली भवनकी वापिकाके समान जान पड़ता था।
१, क. रत्तचित्र नास्ति ।
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- शोभायात्रा ]
दशमो लम्भः २५५. तावता तदवलोकनकुतूहलोद्भवदुद्दामसंरम्भाश्चरणयोः प्रथमं परिस्पन्दमानं चरणमन्यस्मान्मान्यतरं मन्यमानाः, अग्नभावि पूर्वाङ्गमनुलग्नादपराङ्गादधिकगौरवकलितमाकलयन्त्यः, करणेष्वपि पुरःप्रयाणनिपुणमन्तःकरणमतिकृतार्थ वितर्कयन्त्यः, सरभसगमनविरोधिनः स्तनभारात्तनुतरमनुकूलमबलग्नं श्रद्दधानाः स्वाङ्गभ्रष्टान्यवशिष्टेभ्यो लाघवपोषोणि भूषणान्युपकारकारोणि गणयन्त्यः, समागत्य स्फुरदतिरागमनोहराधरपल्लवा वल्लयं इब कुसुमामोदमहिता माधवसंगमकृतासङ्गाः, चलद्वलोभङ्गतरङ्गभासुरा रसमय्यः सरित इव सरित्पतिम्,
६२५५. तावतेति--तावता तावस्कालेन सत्य जीवंधरस्थायलोकनकुतूहलेन प्रमदाः पुरन्ध्रयः समासदन प्राप्नुवन् । अथ तासां विशेष गान्याह-दर्शनकुनुकेनोनयन् उद्दामसंरम्भ उत्कट वरा यासां ताः, प्रथमं प्राक् परिष्पन्दमान चलन्त चरण पादम-चस्मारभार मान्यसरमतिशयेन मान्यं मन्यमाना जानन्त्यः; अने भवतीत्येवंशीलमनमावि पूर्वाङ्गं पूर्वावयवम् अनुलग्नापश्चाललग्नात् अपराङ्गादित रावयवात् १० अधिकगौरवेण कलितमित्यधिकगौरवकलितम् भाकक यन्त्यो मन्यमानाः, करणेबपीन्द्रियेषु पुरःप्रयाणेऽ. ग्रयाने निपुणं चतुरम् अन्तःकरणं मनोऽतिकृतार्थम् अतिशयेन सार्थक वितर्कयन्त्यो जानन्त्यः, सरमस्य गमनस्य शीघ्रप्रयाणस्य विरोधी तस्मात् स्तन भारादुरोजमारात् तनुतरमतिकृशम् अवलग्न मध्यम् अनुकूलं शीघ्रगमनयोग्यं श्रद्धधाना मन्यमान, स्वाङ्गभ्रष्टशनि स्वशरीरपतितानि अतएव लाघवपोषाणि निर्मरत्वोपपादकानि भूषणानि अंबशिष्टेभ्यो भूषणेभ्य उपकारका णि उपकत गि गगयन्त्यो विश्वसन्त्यः १५ स्फुरता प्रकटीभवतातिरागण मनोहरोऽधरः पल्लव इव यास ताः कुसुमानामिवामोदन गन्धेन महिताः शोभिताः मा-लक्ष्मीस्तस्या धर: पतिजीवंधरस्तस्य संगम कृती विहित आसन आसक्तिर्याभिस्ता; अतएत्र वल्लर्य इव लसा इव बल्ल रीपक्षे स्फुरदतिरागमनोहराधर एवं पल्लवी यास ताः, कुसुमानां पुप्पाणामामोदेन हर्षेण सौगन्ध्येन वा महिता: माधवो वसन्तस्तस्य सलमे कृतासङ्गाः, चल द्वलीभङ्गा तर इव कल्लोला इव तैर्भासुराः रखमय्यः स्नेहयुका सरितो नधः सरिस्पतिमिव नदीपतिमिक, सरिपक्षे चलद्ध- २० लीमना एव चञ्चलत्रिवलिविच्छित्तय एवं तरङ्गाः कल्लोलेस्तै समानाः रसमय्यो जलमय्यः, कण्टकानां रोमाञ्चानां निकरण दन्तुरिन्त व्या वपुः शरीरं यासां ताः, सतिलकाः स्थासकसहिताः वनभुवः कानना
५५. उसी समय उनके देखनेके कुतूहलसे जिनकी बहुत भारी तैयारियाँ हो रही थीं, जो दोनों चरणों में पहले चलनेवाले चरणको दूसरे चरणको अपेक्षा अत्यन्त मान्य मान रही थीं, जो आगे होनेवाले पूर्वांगको पीछे लगे हुए दूसरे अंगसे अधिक गौरवशाली २५ समझती थी, जो इन्द्रियों में भी आगे चलने में निपुण अन्तःकरणको अत्यन्त कृतार्थ-कृतकृत्य समझती थी, जो सवेग गमनमें विरोध उत्पन्न करनेवाले स्तनभारकी अपेक्षा अत्यन्त कृया मध्यभागको अनुकूल मानती थीं अपने अवयवोंसे गिरे और लघुताको पुष्ट करनेवाले आभूपणोंको अन्य अवशिष्ट आभूपोंसे उपकारी गिनती थीं, जिनका अत्यधिक लालिमासे मनोहर अधर पल्लप हिल रहा था और इसीलिए जो फूलों की सुगन्धिसे सहित वसन्त के ३० साथ समागम करनेमें उत्सुक लताओंके समान जान पड़ती थीं। जो त्वचा की चल्वल सिकुडनोरूपी तरंगांसे शोभायमान एवं रसमयी-शृंगारसे युक्त ( पक्षमें जलमयो) थी इसलिये ऐसी जान पड़ती थीं मानो समुद्र के पास जाती हुई नदियाँ ही हों। जा रोमांचोंसे व्याप्त शरीरको धारण करती हुई तिलकसे सहित थीं ( पक्षमें तिलक वृअसे युक्त थीं) इसलिए
१. क. उपकारीणि ।
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गद्य चिन्तामणिः
[ २५६ जीवं धरस्य
कण्टकनिकरदन्तुरितवपुषः सतिलका वनभुव इव महोधरम्, चारुवन्दनपत्रलताङ्किता मलयमेखला इव दक्षिणजगत्प्राणं वीरश्रीप्राणनाथं प्रमदाः समासदत् ।
३५०
५
$ २५६. तासां च सदावलोकन कौतुकविद्वेषे निमेषेऽपि वैरायमाणानाम्, असंजात सर्वाङ्गनेत्रं मनुष्य सर्गं हृदा गर्हमाणानाम्, तादृशभागधेयभाजनमात्मानमपि श्रद्धतीनाम्, तस्यैव वदने निलीनामित्र केशहस्ते निविडितामिव ललाटे कीर्णामिव कर्णद्वये कोलितामिव लोचनयोभ्रन्तिमिव अगे लिखिताभित्र कपोलयोः सक्तामिव नासिकायां प्रतिष्ठितामिवोष्ठयोश्चुम्बितामिव चिबुके कन्दलितामित्र गये मांसलामिवांसयोनिभृतामिव बाह्वोनिक्षिप्तामिव वक्षस्याश्रितामिव
बनयो महीधरमिव पर्वतमिव वनभूरक्षे कण्टकनिकरण शल्यसमूहेन दन्तुरितं व्याप्तं वयुर्येषां तःः सतिलकाः क्षुरकक्षसहिताः महीधरमिव राजानमित्र पक्षे पर्वतमिव चारुचन्दनस्य प्रशस्तपाटीरस्य पत्रलताभिः १० पत्रोपशितलता कृतिभिरङ्कितात्रिह्निताः पक्षे चारुवन्दमानां मनोहरमलयज्ञानां पत्रलताभिर्दवल्लीभिरङ्गिताः मलय मेखा व दक्षिणं च राज्जगच्चेति दक्षिणजगत् सरलसंसारस्य प्राणं प्राणरूपं पक्ष दक्षिणश्चासौ जगत्प्राणश्व वायुश्चेति दक्षिणजगरनाणं वीरत्रियाः प्राणनाथस्तं वीरलक्ष्मीवल्लभं जीवंधर समासदत् लेभिरे ।
६ २५१ तासां चेति--तालांच पूर्वोनच सदावलोकनस्य शश्वदर्शनस्य कौतुकं कुतूह १५ विद्वेषो विरोधो यस्य तथाभूते निमिषेऽपि पक्षपातेऽपि वैरायन्त इति वैरायमाणास्तासां कृतवैराणाम्, असंजातानि नोत्वानि सर्वाङ्गि नेत्राणि यस्य तथाभूतं मनुष्यसगं नरसृष्टिं हृदा चेतसा गहमागा तां निन्दन्तीनाम् । तादृशं लब्धजीवंबरदर्शनं यद् मागधेयं भाग्यं तस्य भाजनं पात्रम् आत्मानमपि स्वमपि श्रवतीनां प्रत्ययं कुर्वाणानाम्, तस्यैत्र जीवंवरस्यैव वदने मुखे निलीनामित्रान्तर्हितामित्र, केशहस्ते केशपाशे निविडतामित्र सान्द्रीभूतामित्र ललाटे निटिले कीर्णामि विक्षितामिव कर्णद्वये श्रवणयुगे २० कीलितामिव निखाताभित्र लोचनयोर्भ्रान्तामिव प्राप्तभ्रमणामित्र, भ्रूयुगे किखितामित्र, कपोहयो मंण्डयोः सक्ताभिव लग्नामित्र, नासिकायां घ्राणे प्रतिष्ठितानिव प्राप्तप्रतिष्ठामित्र, ओष्ठयो रदनच्छद योचुम्बितामिव चिकेनुप्रदेशे कन्दलितामिव गले कण्ठे मांसलामिय युष्टामित्र, शंसयोः रुपयोनिभृतामिव निश्चलामिव, बाह्वोर्भुजयानिक्षिप्तां न्यस्तामित्र वक्षसि आश्रितामिवालस्त्रितामिव पार्श्वयोः पार्श्वप्रदेश यांनिंबद्धाभिव
२५
किसी पर्वत के समीप जाती हुई वनकी भूमियोंके समान जान पड़ती थीं और जो सुन्दर चन्दनसे निर्मित पत्रलताओंसे अंकित थीं इसलिये ऐसी जान पड़ती थीं मानो दक्षिण समीरमलय समीरके सम्मुख जाती हुई मलय पर्वतकी मेखलाएँ ही हों- ऐसी स्त्रियाँ वीर लक्ष्मीके प्राणनाथ जीवन्धर स्वामीको प्राप्त हुई।
३०
६ २५६. जो सदा देखनेके कौतुकमे द्वेष रखनेवाले टिमकार में भी वैर प्रकट कर रही थीं, जो समस्त अंगों में नेत्रों की उत्पत्तिसे रहित मनुष्य सृष्टिकी हृदयसे निन्दा कर रही थीं, जो उन जैसे भाग्यके पात्र स्वरूप अपने आपके प्रति भी श्रद्धा प्रकट कर रही थीं और जो उसी चित्तवृत्तिको धारण कर रही थीं कि जो उन्हीं के मुखमें मानो विलीन थीं, केशपाशमें मानो सान्द्र थीं, ललाट में मानो बिखरी थीं, दोनों कानों में मानो कीलित थीं, नेत्रों में मानो भ्रान्त थीं, दोनों भौंहों में मानो लिखित थीं, गालों में मानो लगी हुई थीं, नाकमें मानो प्रतिष्ठित थीं, ओठों में मानो चुम्बित थीं, गुड्डी में मानो कन्दलित थीं, गलेमें सानो परिपुष्ट थीं, कन्धों में मानो स्थिर थी, भुजाओं में मानों निक्षिप्त थी, वक्षस्थल में मानो आश्रित थी, पसलियों में मानो दिबद्ध
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- राज्यमवनप्रवेशः
दशमो लम्मा
पार्श्वयोनिबद्धामिव मध्ये निमग्नामिव नाभी घटितामिव कटितटे निवेशितामिवोरुदेशे लङ्घितामिव जङ्गयोः संदानितामिव चरणयोर्न म्रामिव चित्तवृत्ति वहन्तीनां वारस्त्रीणां मारकृतानि साकूतानि सविभ्रमाणि समाधुर्याणि समन्दस्मितानि सकलप्रलापानि सापाङ्गवीक्षितानि साङ्गलिनिर्देशानि विलसितानि विलोकयन्विलोभनीयविश्वगुणभूमिः स्वामी स्वामिलाभदुर्ललितहृदयं प्रकृतिजनं प्रकृति रञ्जनसमर्थः पाथि कुछजरः कार्तस्वरकटककम्बलपरिधानादिस्पर्शनेन परितो- ५ पयन् विशेषज्ञवोक्षगोवानि प्रेक्षमाणः कक्षपान्तराणि तत्र तत्र भवन्तमालेख्यशेषमालोक्य पितरं स्मारं स्मारं दर्श दर्श धोरतया नातिविकृतहृदयवृत्तिरतिधृतमतिदक्षैः सपक्षपात: सीवाधिकृतैः संशोधितसकलोपान्तं राजनिशान्ताभ्यन्तरं प्राविक्षत् 1 ग्रह
जटितामिव, मध्येऽवलग्ने निमग्नामिच, नुद्धितामित्र, नामो तुन्दौ घरितामिव लग्नामिब, कटिनटे नितम्बपश्चाद्भागे निवेशितामिव, समधिष्टापितामित्र, अहोरी सक्थिप्रदेशे लयितामिवातिक मतामित्र, जयोः १० प्रसृतयोः संदानिता मव प्राप्त वन्धनव, चरणयोः पादयानम्रामिव प्रही भूतामिव चित्तवृत्ति मनोवृत्ति वहन्तीनां दधतीनां वास्त्रीणां विलासिनीना मारकृतानि कामकृतानि साकूतानि सामिप्रायाणि सविभ्रमाणि सविलासानि समाथुर्माणि मनोहराणि समन्दस्मितानि मन्दहसितसहितानि सकलपकापानि मनोहरानर्थकवचनसाहितानि सापाङ्गधीक्षितानि सकटाक्षावलोकनानि साङ्गलि निर्देशानि करशाखासंकेतसहितानि विलसितानि विस सचेष्टितानि दिलोकयन पश्यन् विलोननीयानां विश्वगुणानां भूमिरिति विलोमन यविश्व- १५ गुणभूमिः-उत्तमाखिलगुरूपानम् प्रकृत्या अमात्यादिवर्गस्य रजने प्रसादने समर्थः पासिंवकुञ्जरो नृरतिश्रेष्ठः स्वामी जीवंधरः स्वामिनः शासितुलभिन दुललितं गवंयुक्त हृदयं यस्य तथा पूतं प्रकृतिजनं प्रजाजनममा. त्यादिवर्ग वा कार्त स्वरकटका स्वर्ण वलयाः,कम्बलाः प्रा बाराः, परिधानादयो वस्त्रादय एषां छन्दस्तेषां स्पर्शनेन दानेन 'प्रावारेऽपि का बलः' इत्यमरः, परितोषयन संतोषयन् विशेषज्ञविंद्वद्भिवक्षिणीयानि परीक्षणीयानि कश्यान्तराणि पक्ष्यान्तरालानि प्रेक्षमाणः पश्यन् , रोत्र कल्यान्तरेपु तत्र भवन्तं माननीयम् भालेख्येन चित्रेण २० शेषस्तं चित्रमानाबशिष्टं पितरं जानकं स्मारं रमार स्मृत्वा स्मृत्वा दर्श दर्श दृष्ट्वा दृष्ट्वा धीरतया गमारस्वेन नातिविकृता नातिशोकपूर्णा ह्रदय वृत्तियस्य तथाभूतः सन् अविझरतिकुशलैज नैरतिकृतं युक्त सपक्षपातैः सस्नेहै: सौधाधिकृतः राजप्रासादाधिकारिभिः संशोधित निरुपदवीकृतः सकलोपान्ती निखिल समीपप्रदेशो यस्य तथाभूतं राजनिशान्तस्य राजगृहस्वाभ्यन्तर मध्य प्राविक्षत् ।
थी, मध्यभागमें मानो निमग्न थी, नाभिमें मानो संलग्न थीं, कटितट में मानो स्थापित थीं, ऊर- २५ देशमें मानो लंथिन थीं, जंघाओम मानो बंधी हुई थीं और चरणों में मानो नम्र थीं उन वेश्याओं के कामके द्वारा किये हुए खास अभिप्राय सहित, विभ्रम सहित, माधुर्य सहित, मन्दमुस्कान सहिन, कलापूर्ण प्रलाप सहित, कटानावलोकन सहित और अंगुलिनिर्दश सहित, विलासों को देखते हुए विलोभनीय समस्त गुणोंके पान स्वरूप जोवन्धरस्वामीने अत्यन्त समर्थ मनुष्योंसे सुरक्षित एवं पक्षपातसे युक्त भवन के अधिकारी लोगों के द्वारा जिसका कोना-कोना ३० परीक्षित था ऐसे राजभवन के भीतर प्रवेश किया। राजाओंमें श्रेष्ठ जीवन्धरस्वामी पुरवासियोंको प्रसन्न करने में समर्थ थे इसलिए अपने लाभसे प्रसन्नचित्त पुरवासी जनोंको वे सुवर्णका कड़ा, कम्बल तथा वस्त्र आदि के दानसे सन्तुष्ट करते जाते थे। विशेषज्ञ मनुप्योंके द्वारा देखने योग्य कक्षाओंके अन्तरालको देखते हुए उन्होंने जब चित्र मात्रसे शेष पिता-राजा सत्यन्धरको देखा तो उन्होंने उनका बार-बार स्मरण किया तथा बार-बार उनकी ओर देखा ३५ परन्तु धीरतासे हृदयको वृत्तिको विकृत नहीं होने दिया।
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३८२
पधचिन्तामणिः
[ २५. जीर्वधरस्य - $२५७. आरुक्षच्चायं राजवीर्येण वीराणां सौन्दर्येण सुन्दरीणां प्राभवेण पृथ्वीशानां वदान्यतया वनोपकानां धर्मशीलतया धार्मिकाणां वेदुष्येण विदुषां मन्त्रणनैपुणेन मन्त्रिणां च हृदयं भोगावलीप्रबन्धेन कवीनां प्रबन्धमिव दिगन्तं देहप्रभया सभां देहेन च सिंहासनम् । आदि
शच्च दिशि दिशि विसपिभिरान्दोलितचामरधवलिममूच्छितरुच्छ्रितधवलातपत्ररुचिसब्रह्मचारिभिः . ५ सहर्षब्राह्मोहसितसंकाशेर्दशनेन्दुचन्द्रिकासान्द्रकन्दलः काष्ठाङ्गारचरित्रानुधावनेन सत्रायितं धात्रीतलमित्र पवित्रयन् सुत्रामत्रासावजिन्या पर्जन्यजिततर्जनपरया भारत्या परिसरनिविष्टाकाष्टागाराबरोधस्य कारागृहनिरुद्धानां च निरोधो निवारणीय इति काराधिकृतान् ।
२५८. अतनिष्ट च राजश्रेष्टिादे गन्धोत्कटं यौवराज्यपदे नन्दाढ्यं महामात्रादिपदे
६२५७. 'आरमच्चायमिति-प्रारुझच्चाध्यारुढश्च भूवायं जीवंधरमहाराजः राजवीण १० नृपतिपराक्रमपा वीर.गां गणाम, सौन्दर्य ण लावण्येन सुन्दरीणां ललनानाम्, प्राभवेण प्रभुत्वेन पृथ्वी
शानां राज्ञां, वदान्यतया दानशूरस्बेन बनीपकानां याचकानां, धर्मशीलतया धर्मस्वभावत्वेन धार्मिकाणां धर्मात्मनाम् वैदुधण पाण्डित्येन विदुषां बुधानां मन्त्रणे विमर्शने नैपुणं तेन विचारचातुर्यण मन्त्रिणांच सचिवानां च हृदयं चेतः, भोगावलीप्रवन्धेन विरुदावलीग्रन्थनेन कवीनां प्रवन्धं सन्दर्भमिव दिगन्तं
काष्टान्तं देहरामया शरीरकान्त्या लभा परिषदं देहेन च शरीरेण च सिंहासनं मृगेन्द्र विष्टरम् । आदि१५ सच्चति-आदिशच्च-आज्ञायामास च दिशि दिशि प्रतिकाई विसर्पिमिः प्रसरणशीलः, आन्दोलिताना
प्रचलितानां चामराणां वासयजनानां धवलिम्रा शौकल्येन मूछितैर्वधितैः, उच्छितानि उपरि विततानि यानि धवलातपत्राणि शुक्लच्छवाणि तेषां रुचेः कान्त्याः सब्रह्मचारिमिः सदशैः सहर्षायाः सामोदायाः ब्राह्मयाः सरस्वत्या हसितन संकाशः संनिभैः दशनेन्दुचन्द्रिकायाः दन्तचन्द्रचन्द्रिकायाः सान्त्रकन्दले.
निविडमरोहः काष्टाङ्गारस्य चरित्रम्यानुधावनेनानुसरणेन सत्रायित वनायितं वनमिव निधनमित्यर्थः, २० 'सनं यशे सदा वान केतवे वसन वने' इति विश्वमोचनः, धानीतलं भूतलं पवित्रयन् पूतं कुर्वन्, सुत्रामा
वत्री इन्द इति यावत् 'सुत्रामा गोत्रमिनी' इत्यमरः, तस्य धासस्य मयस्याव जिन्या समुस्पादिकया पर्जन्यस्य धनाधनस्य गजितं स्तनितं तस्य तर्जनपरया संभर्सनोद्यतया भारत्या वाण्या परिसरनिविष्ठान निकटोपविष्ट न काराधिकृतान् बन्दीगृहाधिकारिणो जनान् 'काष्ठाङ्गारावरोधस्य काष्टाङ्गारान्तःपुरस्य कारागृहे
निरुद्धास्तेषां च वन्दीगृहावरुद्धानां च निरोधी वन्दीगृहावरोधो निवारणीयः परिहार्य इति । २५ ६ २५८. अतनिष्ट्रेति-प्रतनिष्ट च-स्थापयामास च गन्धोत्कटं राजश्रेष्टिपरे नन्दाढ व्यं तना.
२५७. राजभवनके भीतर वे राजोचित वीयसे वीरोंके, सौन्दर्यसे सुन्दरी स्त्रियोंके, प्रभावसे राजाओंके, उदारतासे याचका के, धर्माचरणसे धर्मात्माओंके, पाण्डित्यसे विद्वानों के
और मन्त्रणा सम्बन्धी चतुराईसे मन्त्रियोंके हृदयपर तथा विरुदावलीके प्रबन्धसे कवियोंके
प्रवन्ध के समान दिशाओं के अन्तपर, शरीर की प्रभासे सभा और शरीरसे सिंहासनपर आरूढ़ ३० हुए। उन्होंने प्रत्येक दिशा में फैलनेवालं, हिलने हार चामरोंकी सफेदीसे वृद्धिंगत, ऊपर उठे
सफेद छत्रोंको पंक्तिके सदृश, और हपसे युक्त सरस्वतीके हास्यके समान दाँतरूपी चन्द्रमाकी चाँदनीकी सघन कन्दलों से काष्टांगारके चरित्रके अनुसरण करनेसे अपवित्र पृथिवीतलको पवित्र करते हुए की नरह, इन्द्रको भय उत्पन्न करनेवालो एवं मेघ गर्जनाके तिरस्कार में तत्पर
चाणीसे निकट में बैठे हुए कारागृह के अधिकारियों को आदेश दिया कि काष्ठांगारके अन्तःपुर ३५ तथा कारागृह में रुके कैदियाँका प्रतिरोध दूर कर दिया जावे ।।
६२५८. उन्होंने गन्धोत्कटको राजश्रेष्ठोके पदपर, नन्दाढ्यको युवराजके पदपर, १. म० धर्मशीलमतया। २. भ० धवलानपत्रराजिसब्रह्मचारिभिः । ३. सर्वाधिकारपदे, इति टि० ।
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१८३
• राज्यसंचालनम् ]
दशमो लम्भः
पद्ममुखादोन्द्रिषड्वर्षपर्यवस्यदकरपदे च जानपदान् । अतोषयच्च विषयान्तरेषु पुरा व्यूढानाहूतप्रविष्टानभिनिविष्टप्रेमाभिभूततया पादयोः पततः परिस्फुरदमन्दानन्दप्राग्भारोद्वान्त नितान्तशिशिरावणेव पांसुपरुपाङ्घ्रिधान सावधानान्तःकरणानन्तः स्फुरितविरहशोक कृशानुकृशीकृताङ्गतया कृशाङ्गीति नाम सार्थमिव समर्थयतः स्वसंगमवासरकृताङ्ग रागमाल्याद्यलंकृतान् पातिव्रत्यपताकान् ' पावनगुणोदारान्दारान् ।
$ २५६. अघोषयच्च धर्मवक्रभूषितललाटेन हर्षोद्धरेण बीघ्रवसनाङ्गरागसुमनोमण्डितेन सफेद शुण्डालीरारोपित डिण्डिमेन चण्डालाधिकृतेन कृतभगवन्तमस्कारपूर्वकम् 'संवर्धतां सद्धर्मः । सार्व
मानमनुजं यौवराज्यपदे, पद्ममुखादीन् महामात्रादिपडे सर्वाधिकारपदे प्रधानपद इति यावत् 'महामात्रा: प्रधानानि' इत्यमरः, जानपदान् देशोद्भवान् द्विषड्वर्थेषु द्वादशवर्षेषु पर्यत्रस्यत् समाप्तीमवद् यद् भकरपदं राजस्वमुतिपदं तस्मिन् । अतोपयच्चेति - प्रतोदशच्च संतोषयामास व विषयान्तरेषु देशान्तरेषु पुरा १० पूर्व प्रवासवे कायामित्यर्थः व्यूढान् परिणीतान् श्रादावाहूताः पश्चात् प्रविष्टा इत्याहूतः विष्टास्तान् आकारितप्रविष्टान् अभिनिविष्टेन हृदयस्थितेन प्रेम्णा प्रस्थाभिभूततया आकान्तत्वेन पादयोरचरणयोः पततो विनमत: परिस्फुरन् प्रकटमत्रन् योऽमन्दानन्दप्राग्मारस्तेनोद्धान्तानि प्रकटितानि नितान्त शिशिराणि अतिशीतानि यान्यभूणि तेषां वर्षेण पांसुपरुषयोकि धूम र योर योश्चरणयोर्भावने प्रक्षालने सावधानं प्रिमादन्तःकरणं येषां तथाभूतानिय अन्तःस्फुरितेन हृदयप्रकटितेन विरहकृशानुना विरहाग्निना १५ कृशीकृतं वनूकृतमहं शरीरं येषां तेषां भावस्तया कृशाङ्गीति सङ्गीति नाम सार्थमन्वितार्थं समर्थयत इव स्वयंगमवासरे स्वल समागमदिवसे कृतो रवितोऽङ्गरागो विलेपनं माल्यादयश्च तैरलंकृतान् शोभितान् पातित्यं पताका येषां तान् सतथ्य वैजयन्तीयुक्तान् पावनगुणैः पवित्र गुणैरुदारान् महतो दारान् स्त्रियः ।
$ २५१. अघोषयच्चेति---अघोषयच्च घोषणां चकार च जीवंधरमहाराजः कर्ता धर्मचक्रेण भूषितो ललाटो मालो यस्य तेन हर्षेणोद्धुरस्तेन प्रमोदोत्कटेन वसनानि वस्त्राणि अङ्गरायो विलेपनं सुमनांसि २० पुष्पाणि एषां द्वन्द्वो भ्राणि धवलानि च तानि वसनाङ्गरागसुमनांसि वैर्मण्डितेन शोमितेन शुण्डालस्य हस्तिन और बालके आरोपितो डिण्डिमो घोषणटक्का येन तेन चण्डालाधिकृतेन प्रभानचण्डालेन
1
पद्ममुख आदि मित्रोंको महामन्त्री आदिके पदोंपर तथा देशवासी लोगों को बारह वर्ष तक लगानी छूट के पद पर नियुक्त किया। और तत् तत् देशों में जिन्हें पहले विवाहा था, अब बुलाये जानेपर जिन्होंने अन्तःपुरमें प्रवेश किया था, हृदयस्थित प्रेमसे अभिभूत होने के २५ कारण जो चरणों में पड़ रही थीं, सब ओरसे प्रकट होनेवाले बहुत भारी आनन्द के समूह से प्रकट अत्यन्त शीतल अध्रुवसे जिनके अन्तःकरण धूलिधूसरित चरणोंके प्रक्षालन में सावधान थे, हृदयके भीतर प्रज्वलित विरहजन्य शोकरूपी अग्निसे कृश शरीर होने के कारण जो अपने 'कृशांगी' नामको मानो सार्थक ही कर रही थीं, जो अपने समागमके दिन किये हुए अंगराग और माला आदिसे अलंकृत थीं, जो पातित्रत्य धर्मकी मानो पताकाएं ही थीं और ३० पवित्र गुणों से श्रेष्ठ थीं ऐसी स्त्रियोंको सन्तुष्ट किया ।
२५६. धर्मचक्र से जिसका ललाट सुशोभित हो रहा था, जो हर्षसे उत्कट था, सफेद वस्त्र, सफेद अंगराग और सफेद पुष्पोंसे जो सुशोभित था और हाथीकी पीठपर जिसने नगाड़ा चढ़ा रखा था ऐसे प्रधान चाण्डालसे उन्होंने सर्वप्रथम भगवान्को नमस्कार
१. म० क० पताकान्न ।
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गधचिन्तामणिः
[ २५१ जीवंधरस्य - भीम: क्षेमी मितिमण्डलमायाच्चिराय पायात् । अपेतसकलेतिरुपेतविश्वसस्या च भवतु विश्वंभरा । भवन्तु भव्या दिव्यजिनागमश्रद्धालवः सविचाराः साचारा: सानुभावाः सविभवा: सदयाः सदानाः सदातनाः सगुरुभक्तपः सजिन भवतयः सायुष्याः सवैदुष्याः महर्षाश्च पुरुषाः । धर्मपत्न्यः
सधर्मकृत्याः सपातिव्रत्याः सतनयाः सविन पाश्च भूमासुः । भवः श्रूयतामेतत् । देवविधित्सितविवा* होत्सवबराहीभूतमातवासाधिकमधिकं नगरीयमलकियताम् । आहायविशेषः सविशेषमङ्गेष्वा.
मुच्यताम् । अतिबलानुरुधूपंधूंसायमानं केश जालमम्लानमालाभिरशून्यमातन्यताम् । नखपचपायसाशनमनिसमश्यताम् । अरुध्यं तु भैषज्वमपि नोपभुज्यताम् । भज्यतां परमेश्वरस्य पादपम् । करणेन कृती विहितो भगवन्नमस्कारः पूर्व यस्मिन् कर्मगि तद् यथा स्यात्तथा-'संश्नामो धनश्यति सद्ध
जनेन्को धर्मः संबद्धता प्रचंताम् । सर्वस्या भूमेरधिपः सार्वभौमो निखिल जगदर्ता क्षे मी कल्याणयुको १० जिनेन्द्रः चिराय चिरकालपर्यन्तम् अपायाद् दुःखात् क्षितिमण्डलं भूवलयम् पायाद् रक्ष्यात् । अपेठा निरस्ता
सकला निषिला ईसयो यस्मात्तथाभूना 'अतिवृष्टिरनावृष्टिर्मूषकाः शलमाः शुभाः । अन्यासन्नाश्च राजानः पडेता ईतयः स्मृताः।' इति पढीतयः उपेतानि प्राप्तानि विश्वसस्यानि निखिलधान्यानि यस्यां तथाभूता च विश्वम्भरा पृथिवा भवतु । पुरुषा लोकाः भन्याः सम्पदर्शनादिप्रातियोग्याः, दिव्यभिवागमस्य
अर्हत्परमेश्वरदेशनाया श्रद्धालवः श्रद्धाभाजनानि सविचारा हिताहितथिमशंसहिताः साचाराः पापपरि१२ त्यागपण्डिताः सानुमायाः सप्रभावाः सविभवाः सैश्वर्याः सदयाः सानुकम्माः सदाना आहारादि
चतुर्विधरयागसहिताः सदा तनाः शाश्वताः सगुरुभक्कयो निर्मन्य पुरुभक्तियुन: सजिनमक्कयोऽहं दकिविभूषितः सायुज्या दीर्वायुष्कः: सबैदुरयाः सपाण्डिस्याः सहश्चि सामोहाच मवन्तु । धर्माय पहन्यो धर्मपत्न्यः सधर्मकृत्या धर्मकरय सहिताः सपातिव्रत्य : सतीत्ववनविभूषिताः सतनाः सपुत्राः सविनयाश्च
विनयोपेताश्च भूयासुः वर्तिषोरन् । भूयः पुनश्च भूयतां निशम्यताइ । एतन्–'देवेन जीवधरमहाराजेन २० विधिसितः कमिष्टो यो विवाहोत्सवस्तेन वराहीभूताः सुदिवसीभूना ये सप्तवापरास्तेऽवधयो यस्मिन्
कर्मणि यथा स्यात्तथा इयम् नगरी अधिक भूयिष्ठम् भलं क्रियताम् भूप्यताम् । अङ्गेषु शरीरेषु सविशेष यथा स्यात्तथा आहार्यविशेषोऽलंकारविशेष आमुच्यतां ध्रियताम् । अनि बसलैरतिनिबढेरगुरुधूपै मायमानं धूमवदाचरत् केशजालं कचकलापम् अम्बानमालाभिः प्रफुल्लसरितः अशून्यं सहितम् भातन्यताम् क्रियताम् । नखम्पचं च सपायसाक्षं चेति नखम्पचपाथसानम् उष्णपरमानयोजनम् 'पायसं परमानं २५ स्यान्' इत्यमरः 'गरमखीर' इति हिन्दी । भनिशं निरन्तरम् अश्शना खाद्यताम् । अरुच्यं तु अचिकर तु
भैषज्यमपि औषधसपि नोपभुज्यतां खाद्यताम् । परमेश्वरस्य जिनेन्द्रस्य पादपद्म चरणारविन्दं मन्यता कराकर यह घोषणा करायी कि 'समीचीन धर्म वृद्धिको प्राप्त हो। समस्त भूमिका अधिपनि राजा कल्याणसे युक्त हो चिरकाल विघ्न बाधाओंसे पृथिवीमण्डलकी रक्षा करे। पृथिवी
समस्त ईनिमोसे रहिन और समस्त धान्यों से सहित हो। भव्य जीव दिव्य जिनागमके ३० श्रद्धालु, विचारसहित, आचारसहित, प्रभावसहित, ऐश्वर्यसहित, दयासहित, दानसहित,
सदा विद्यमान, गुरुभक्तिसहित, जिनभक्तिसहित, दीर्घायुसहित, विद्वत्तासहित और हर्षसहित हों। धर्मपस्नियाँ धार्मिक कार्योंसे सहित, पातिव्रत्यसे सहित, पुत्रीसहित और विनयसहित हो। तदनन्तर यह सुनिये-महाराजके द्वारा किये जाने वाले विवाहोत्सबके उत्तम
दिनस्वरूप सात दिन तक यह नगरी अधिक सजायी जावे। सब लोग अपने-अपने अंगोपर ३५ विशेष आभूषण धारण करें, अत्यधिक अगुरुचन्दनको धूपसे धूमायमान केशों के समूहको ताजी मालाओंसे सहित किया जाय । सदा गरम-नारम खीरका भोजन किया जाय । अरुचि
१. क ख ग श्रूयतामेतदेव ।
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३८५ .
- विवाहवृत्तान्तः ]
दशमो सम्म इदानींतनाः सन्तु सनातनाः' इति । $ २६०. तदेवं घोषिते, केषुचिद्राजचरितोद्घोषणपरेषु पोरवृद्धेषु
'क्व पूज्यं राजपुत्रत्वं प्रेताबासे क्व वा जनिः ।
क्व वा राज्ये 'पुनः प्राप्तिरहो कर्मविचित्रता ।' इति ससंवेगं प्रतिद्वारमुदीरयत्सु, परेषु तु पौरेषु 'सत्वरमलिन्दभूरालि, मलयजरसेनालि. ५ प्यताम् । मगलोचने मगमदमाहर । प्रसाधिके, साधु प्रसाधय । सज्जीभव बाले, ताम्बूलवीटी विधी। कुरङ्गलोचने, स्नपयितुमङ्गजं कुङ्कुमस्थासककुम्भानानय । चित्रकर, प्रातिदेश्यचित्रादतिविचित्रं चित्रय | कपूरिके, कर्पूरोपल जालानि शकलय । मन्दी भूतं गन्धपाटवमिदं पटवासीय भुजिष्ये, कि नु घृध्यते । मालिके, लब्धपरभागं माला सृज्यताम् । रजक, राजाज्ञा खलु त्वयैसेध्यताम् । इदानीन्तना आधुनिका जनाः सनातनाः सदातना दीर्घकालस्थायिनः सन्तु' इति ।
२०. नदेवमिति तदा तस्मिन् काले एवं पूर्वोकप्रकारेण धोषिते सति राजश्वरितस्योद्घोषणे निरूपणे पस लौनास्तेषु केपुचित् पौरवृद्धषु नागरिकवृद्धेषु । क्व पूज्य मिति--'पूज्यं प्रशंसनीयं राजपुत्रत्वं नृपतितनयत्वं क्व कुत्र। प्रेतावासे श्मशाने जनिर्जन्म क्य वा । कुत्र वा। राज पितृपरम्पराप्राप्तराज्ये पुनः प्राप्तिः क्व वा । कर्मणां विचित्रता वैविध्यम् अहो आश्चर्यकरम्' इत्तीयं सपंवेगं संवेगः संसारादीतिस्तेन सहितं यथा स्यात्तथा प्रतिद्वार द्वार द्वारे उदीरयत्सु कथयस्सु, परेषु तु भन्येपु तु पोरेषु नागरिपु 'आलि ! १५ सग्नि ! अनिन्दस्य यहिरिप्रकोष्टकस्य भूः सत्वरं शीघ्र मलय नरसेन पाटीरद्रोण मालिप्यताम् समन्तालिप्ता नियताम् 'प्रवाणघणालिन्दा बाहिरिप्रकोष्टके' इत्यमरः । मृगलोचन : हे मृगाक्षि मृगमद कस्तूरीम् आहर समानय । प्रसाधिके ! साधु यथा स्यात्तथा प्रसाधय अलंकुरु । बाले ! साम्बुलबीटीनां नागवल्लीदलबीटीनां विधौ निर्माण सजीभव तत्परा भव । कुरङ्गलोचने ! हरिणनेत्रि! भाज पुत्रं स्नपयितुं कुकुमस्थासककुम्नान् केशरतिलककलितघटान् आनय । चित्रकर : प्रातिश्यचित्रात २० प्रतिवासिनित्रास् अतिविचिनमस्याश्रर्यकरं चित्रय चित्रनिर्माणं कुरु । कपूरिक ! करोपलस्य धनसारपिण्डस्य जाळानि समूहान् शकलय खण्डय | भुजिये ! दासि ! पटवासचूर्णाय इदं वर्तमानं गन्धपाटवं गन्धनिर्माणकौशलं मन्दीभूतमल्पम् छिल्लम्बनकर बा, किं नु वृप्यते । अधिकघर्षणेन शीघ्र गन्धपाटवं प्रदर्शनीयमिति भावः । मालिके ! हे मालाकारिणि ! लब्धः प्राप्तः परभागी वर्णाकर्षों यस्मिन् कर्मणि कर ओपधि भी नहीं खायी जाय । परमेश्वर के चरण कमलोंकी भक्ति की जाय और जो इस २५ समय है वह सदा बना रहे।
६२६०. उस समय इस प्रकार की घोषणा होने पर राजाके चरितका वर्णन करने में तत्पर नगरके वृद्धजन संवेगपूर्वक द्वार-द्वारपर कहने लगे कि कहाँ तो राजपुत्रपना ? कहां श्मशानमें जन्म? और कहां फिरसे राज्यकी प्राप्ति ? अहो ! कर्मोकी यही विचित्रता है। कितने ही नगरवासी 'सखि । दरवाजेके बाह्य कोष्टको शीन ही चन्दनके रससे लीप ले। ३० हे मृगनेत्रि! कस्तूरी ला। हे सजानेवाली ! ठीक सजा। हे बाले ! पान के बीड़ा लगाने में तैयार हो जा 1 हे मृगलोचने ! कामदेवको नहलानेके लिए कोशरकं तिलकसे युक्त कलश ले
आ। हे चित्रकर! पड़ौसके चित्रसे अत्यन्त विचित्र चित्र बना । हे करिके ! कपूरकी शिलाओंके टुकड़े कर ले | दासि ! चूर्णके लिए यह हीन गन्धसे युक्त पटवास क्यों घिसा जा रहा है ? अरी मालिन ! वर्णोत्कर्षको प्राप्त करनेवाली माला बना । अरे धाबी ! राजाकी ३५
१. क. ग तथैवम् । २. म० क्व वा राज्य । ३. क. वीटिकाविधी 1 ४. म. पटवासं चूर्णाय । ५. क० लब्धपरागम् ।
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३८६
गचिन्तामणिः
[ २६० जीवंधरस्य - वाज्ञायि; सद्यो वासांसि धवलीकुरु । कर्णाभरणानि तूर्ण विधेहि स्वर्णकार, किं नु कालं हरसि । मालाकार, प्रातरेवानय प्रसूनमभिनवम्; सौगन्धिकसगियमपेतगन्धा; बन्धुर सौरभामपरामर्पय ।' इत्येवंप्रकारमलकाराय त्वरमाणेषु, राजकुले च कुलक्रमागतैः प्रागेवागमनं पश्चादा ह्वानयन्त्रणां
पूर्वमेव सर्वसमीहितकृत्योद्योगं तदनु नियोग पुरस्तादेव स्वहस्तव्यापारमनन्तरमन्तःकरणवृत्ति च ५ भक्तिभरपरतन्त्रया भजद्भिस्तत्तत्कर्मान्तिकः सुधासादिव सूत्रसादिव चित्रसादिव विचित्रपटसादिब पटवाससादिव कृते, कृतादराभिररुणसंग्राहिणीभिरचूर्ण संयोजिनीभिः कुसुम्भरागकारिणीभिः कुसुमग्रन्थिनोभिमंण्डनविधायिनोभिः पिण्डाल क्सकसंपादिनोभिस्ताम्बूलदायिनीभिर्जाम्बूनदमुकुर.
यथा स्यात्तथा माला सम् 'माल्यं माला गुणस्रजो' इति धनंजयः, सूज्यताम् रच्यताम् । रजक ! हे वस्त्र
प्रक्षाकक ! राजाज्ञा राजादेशः खलु निश्चयेन स्वयैव अज्ञायि ज्ञातः सद्यो झगिति वासि वस्त्राणि १० धवलोकुरु शुक्लीकुरु | स्वर्णकार ! कलाद ! कर्णाभरणानि कर्णालंकरणानि तूर्ण शीघ्र विधेहि रचय, कालं
समयं किं नु हरसि । विलम्ब किं करोषीति भावः । मालाकार ! अभिनवं नूतनं प्रसून पुष्पं प्रातरेव प्रात:कालमेव भानय, इयं सौगन्धिकस्रक कहारमाला अपेतगन्धा निर्गन्धा, बन्धुरं मनोज्ञ सौरभं सौगन्ध्यं यस्यास्ताम् अपसमन्या स्रजम् अपय देहि'। इस्पेवं प्रकारम् अलंकरणमलंकारस्तस्मा अलंकारधारणाय
स्वरन्त इति स्वरमाणास्तेषु शीघ्रता कुर्वाणेषु, राजकुले चेति--राजकुले च राजद्वारे च कुलक्रमेण वंश१५ परम्परयागतास्तैः प्रागेव पूर्वमेवागमनं पश्चात् आह्वानस्याकारणस्य यन्त्रणां यातना पूर्वमेव सर्वाण
निखिलानि यानि समीहितानि इष्टानि कृत्यानि कार्याणि तेषामुद्योगम्तं तदनु तदनन्तरं नियोगमवसरविभाजनम्, पुस्तादेव पूवमेव स्वहन्यापार स्वकरच्यावृतिम् अनन्तरम् अन्तःकरणवृत्ति च मनोन्यापृति च, भक्तिमरस्य तीवानुरागसमूहस्य परतन्त्रतया विवशतया भजन्धिः प्राप्नुवद्भिः सत्तकान्तिकः सत्तत्कार्यनियुक्तकर्म करैः सुधासादिव चूर्णकमयभिव, सूत्रसादिव मङ्गलसूत्रमयमिव, दिवसादिव आलेख्यमयमित्र, विचित्रपटसादिव विविधवस्त्रमयमिव पटवाससादिव पिष्टाप्तकमयमिव, कृते विहिते सति, सर्वत्र 'त्रिभाषा साति कारस्न्ये' इति सातिप्रत्ययः । कृतादराभिरिति-कृती विहित आदरः सन्मानं यासां ताभि: अरुणसंग्राहिणीभिः अरुणम् अव्यक्तराग संगृहन्तीत्येवंशोलास्ताभि: 'अव्यक्तरागस्त्वरुणः' इत्यमरः, चूर्णानां विविधवर्णचूर्णानां संयोजिन्य: संघटिन्यस्तामिः, कुपुम्भाना रक्तवर्ण पुष्पविशेषाणां रागं रङ्ग कुर्वन्तीत्येवंशीकास्ताभिः, कुसुमप्रन्धिनीभिः पुष्पप्रन्थनशीलाभिः, मण्डनविधायिनीमिराभूषणरचयि
२५ आज्ञा तो तू जानता ही है कपड़े शीघ्र ही सफेद कर । अरे सुनार ! कानोंके आभूषण शीघ्र
तैयार कर ! समय क्यों बिता रहा है ? माली ! प्रातः काल होते ही नया फूल ला। यह कल्हारकी माला गन्धरहित है। अत्यधिक सुगन्धिसे युक्त दूसरी माला दे-इस प्रकार अलंकारोंके लिए शीघ्रता करने लगे। भक्तिकी परतन्त्रतासे जो पहले आगमनको, पीछे बुलानेकी यन्त्रणाको, . पहले सर्वजनवाञ्छित कार्यके उद्योगको, पीछे आज्ञाको, और पहले अपने हाथके व्यापारको पीछे ३० अन्तःकरणको वृत्तिको प्राप्त हो रहे थे ऐसे कुलक्रमागत तत् तत् कार्यो में नियुक्त भृत्याने राजकुल
को ऐसा कर दिया मानो अमृतमय ही हो, सूत्रमय ही हो, चित्रमय ही हो, विचित्र वस्त्रमय ही हो, अथवा पेटवासमय ही हो। जो आदर प्रकट कर रही थीं, लाल वस्तुओंका संग्रह कर रही थी, चूों को ठोक कर रही थीं, कुसुम्भका रंग बना रही थीं, फूल गूंथ रही थीं, आभूषण तैयार कर रही थीं, महाबरकी गुलेलियाँ बना रही थीं, पान दे रही थी, सुवर्णमय दर्पण धारण कर
१. म. भक्तिपरतन्त्रतया ।
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- विधातृत्तान्तः ]
दामो लम्मा.
धारिणोभिरष्टमङ्गलसंस्कारिगोभिः पिष्टपञ्चाङ्गुलकलितशिलाविकल्पितोभिश्च साधुशीलाभिः समन्तादागत सामन्त सीमन्तिनोभिर्नन्दिते, नरेन्द्रैश्च नाथमानैर्नरपतिकटाक्षस्य साकमुपधाभिरुपसरद्भिश्चताशोकपल्लवशुम्भित वेदो विर्तादिकास्तम्भोत्तम्भिभिश्च ससंभ्रमं कल्प्यमानायां कल्याणासंविधायाम्, विजयामहादेव्यां च भर्तरि स्मरणेन कर्तव्ये चरणेन तनये स्नेहेन स्नुषायां हर्षेण अन्जने प्रियवचसा नियोज्ये नियोगेन न तदानीमेकस्यामपि नैकस्यामित्र सत्यां सुतोद्वाहसुखान- ५ भिज्ञमात्मानं सुखयन्त्याम्, तदीयकौतुकेनाहूत इव वरराग रज्जुग्रन्थिबन्धनाकृष्ट इव वधूसखीप्रप पञ्चशाखाङ्गुलोगणनाक्षोण इव स्वकुतूहलन स्वयमेव वा सरभसमायासीद्द्द्वाहवासरः । ग्रीभिः पिण्डाल तक संपादिनोभिः पिण्ड्या व कवित्रीभिः सम्बूल दायिनी भिनगिवल्लीदकदायिनीभिः जाम्बूनदमुकुरधारिणीभिः स्वर्णादर्शधारिणभिः अष्टमङ्गलसंस्कारिणीभिः अष्टमङ्गलद्रव्यपरिमार्जिनीभिः, 'पिष्टानां हरिद्राचूर्णानां पञ्चाङ्गुले हस्तमुद्राभिः कलिताः सहिता ये शिलादयस्तेषां कल्पिस्यो रचयित्रयस्ता १० मिश्च साधुशीलाभिः सहस्वनावाभिः समन्तात् सर्वतः आगता याः सामन्तसीमन्तिन्यो मण्डलेश्वरस्त्रिय• स्ताभिः नन्दिते प्रशंसिते । नरेन्द्रश्चेति- नरपतिकदाक्षस्य नाथमानैः याचमानैः 'नरपतिमां प्रति पश्यतु' इति वाञ्छद्भिरित्यर्थः उपधाभिरुपायनैः साकं सार्धम् उपसरद्भिरुपगच्छद्भिः बूताशोकपलवैराम्रङ्कलिकिसलयैः शुस्मिता: शोभिता वेदीवितर्दिकाया यज्ञकुद्भवितर्दिकायास्तम्भास्तान् उरम्नन्तीत्येवंशीलैः नरेन्द्रैश्व राजभिश्च ससंभ्रमं सत्वरं कल्याणासं विधायां विवाहयोग्य सामग्रीयोजनायां कल्प्यमानायां १५ क्रियमाणायाम् । विजयामहादेव्या चेति - विजयामहाराज्यां च भर्तरि दिवंगतसत्यं धरमहाराजे स्मरणेन ध्यानेन, कर्तव्ये करणीये चरणेन पादेन, तनये पुत्रे जीवधरे स्नेहेन प्रीत्या स्तुषायां पुत्रवध्वां हर्षेण, बम्धुजने इष्टजने वियवचसा मधुरभारत्या नियोज्ये कर्मकरे नियोगेन च कार्यप्रदानेन च तदानीम् एकस्यामपि कस्यामिवानेकरूपायां सत्यां भवत्याम् सुतोद्वाहस्य पुत्रपाणिग्रहणस्य सुखेन सासेनानमिज्ञमपरिचितम् आत्मनं सुखयन्भ्यां सुरखीकुर्वन्त्याम्, तदीयकौतुकेन विजयाकौतुक्रेन भाडूत इवाकारित इव वरसरागो वर- २० प्रीतिरेव रज्जू रश्मिस्तस्य ग्रन्थिबन्धनेनाकृष्ट इव, बध्वाः सखीनां प्रपञ्चस्य समूहस्य पञ्चशाखानां हस्तानामङ्गुल्यस्तासां गणनया संख्यानेन क्षीण हव इसिस इव स्वकुतूहलेन स्वस्य कौतुकेन वा स्वयमेव वा स्वत एव वा सरभसं सवेगम् उद्वाहवास विवाहदिवसः आयासीत् आजगाम ।
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रही थीं, अष्ट मंगल द्रव्योंको सुसंस्कृत कर रही थीं। और हल्दी आदिके चूर्ण से निर्मित हाथों ( हाथ के चिह्नों) से युक्त शिला आदिको ठीक कर रही थीं ऐसी उत्तम स्वभावकी धारक २५ सब ओर से आयी हुई सामन्तों की स्त्रियोंसे जब राजकुल समृद्धिको प्राप्त हो रहा था। जब राजाके कटाक्षकी याचना करनेवाले, उपहारों के साथ समीप आनेवाले और आम तथा अशोक लहलहाते नवीन पत्तोंसे सुशोभित बेदी के नीचे के चबूतरेपर खम्भे खड़े करनेवाले राजा लोग बड़े आदर के साथ विवाह के योग्य तैयारियाँ कर रहे थे और जब विजया महादेवी स्मरण से भर्ता में, चरण से कार्य में, स्नेह से पुत्र में, हर्षसे वधू में प्रियवचनसे बन्धुजन- ३० में, और आज्ञा से सेवकों में इस तरह एक होकर भी अनेककी तरह होती हुई पुत्रके विवाह के सुखसे अनभिज्ञ अपने आपको सुखी कर रही थी तब उसके कौतुकसे बुलाये हुए के समान, अथवा वरके राग रूपी रस्सीको गाँठ के बन्धन से खींचे हुएके समान अथवा बधूकी सखियों के समूहको हस्तांगुलियों की गणनासे आणि हुएके समान अथवा अपने कुतूहल से स्वयं ही वेगसे विवाहका दिन आ गया ।
* संघाटकभृङ्गारच्छ्यान्द्रव्यजन शुक्तिचामरकलशः । मङ्गलमष्टविधं स्यादेकैकस्याष्टशतसंख्याः ॥५१॥ - समवसरणस्तोत्रे विष्णुसेनस्य ।
३५
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गद्यचिन्तामणिः
[२६१ जीवंधरस्य
२६१. अथ कल्पितकरग्रहणाहपुरश्चरणकर्माणं कनकधरणोधरकटकपरिभाविनि परिसरघटितविमल मुक्ताफलपटलपाण्डुरमहःप्रसरपुनरभिहितोत्तरच्छदशोभिनि पराक्रमविद्याशिष्यरिव पञ्चाननः पादच्छलेन विधारिते निप्रप्ताष्टापदनिमिते महति सिंहासने समुपविष्टम्, पृष्ठभागोपस्थापित क्षीरोदतरङ्गकोमलदुकुलनिचोलचारुणि चामोकरपत्रचित्रितस्तवरकदर्शनीयपर्यन्ते द्विगुण५ निवेशिते सार्शसुखप्रतिपादनपटीयसि हंसतूलोपधाने निधाय पश्चिमदेहमासीनम्, आसनस्थिताभि
रनुवल्गनरणितमणिपारिहार्यमुखरबाहुलताभिरनिलचलितकुवलयदलदामपेशलविलोचननिक्षेपाभि - विभ्रमकृतनिभृतहसितनियंदमलदशनमरीचिकुसुमिताधरकिसलयाभिः कुसुमशरकीतिपयोराशि
६२६१. अथेति-अथानन्तरं कल्पिजानि विहितानि करग्रहणाहानि विवाहयोग्यानि पुरश्चरण. कर्माणि प्रारम्भिककार्याणि यस्य तम्, कनकधरणीधरस्य सुमेरोः कटक प्रस्थं परिमवति तिरस्करोतोत्यवंशीले, १० परिसरे पावें वटितानि खचितानि यानि विमलमुताफलानि निर्मळमौकिकानि तेलो पटकस्य समूहस्य
यस्पाण्डुरं शुक्लं महस्तेजस्तस्य प्रसरेण विस्तारेण पुनरभिहितः पुनरुतो य उत्तरच्छदस्तेन शोमत इत्येवंशीले, पराक्रमवियायाः शिष्यैरन्ते वासिभिरिव पञ्चाननैः सिंह: पादच्छलेन चरणब्याजेन विधारित, निष्टतं संतप्तं यदृष्टापदं हेम तेन निर्मिते रचिते महति विशाले सिंहासने समुपविष्टं विराजमानम्, पृष्टभागे
पशादाय उपस्थापितं संधारितं तस्मिन् , क्षीरोदस्य पयःपयोधेः ताना इत्र कल्लोला इव कोमल मृदुलं यद् १५ दुकूलं क्षौमं तस्य निचोलेनाबरणेन प्रच्छदपटेन चारु सुन्दरं तस्मिन् 'निचोळः प्रच्छदप::' इत्यमरः'
चामीकरपत्रैः स्वर्णान्नैश्चित्रितेन स्तवरणोपधान विशेषेण दर्शनीयः पर्यन्त: पाश्र्वप्रदेशो यस्य तस्मिन्, द्विगुणं यश स्यात्तथा निवेशितं स्थापितं तस्मिन् , स्पर्शसुखस्य स्पर्शजनित सातस्य प्रतिपादने पटीयो दक्षं तस्मिन्, इंसतूलस्योपधानं तस्मिन् पश्चिमदेहं पुष्ट भागं निधाय स्यापयित्वा आसीनमुपविष्टम् ।
आसन्नेति-आसन्नेऽभ्यण स्थिता विद्यमानास्ताभिः अनुवल्गनेनानुचलनेन रणितानि शब्दायमानानि २०. यानि मणिपारिहार्याणि रस्नालंकरणानि सेर्मुखरा वाचाला बाहुलता भुजवल्ल्यो यास ताभिः, अनिलेन
वायुना चलितानि कम्पिानि यानि कुबलयदलदामानि नीलोत्पलमाक्ष्यानि तदपेशला मनोहरा विलोचनविक्षेपा नयनसंचारा यास तामिः, विभ्रमेण विलासेन कृतं विहितं यद् निभृतहसिसं निचलहास्यं तेन नियंतो निर्गच्छन्तो येऽमलदशनमरोश्यो निर्मकरदनरश्मयस्तैः कुसुमितः पुष्पितोऽधरकिसलय आष्टपल्लवो यास तामिः, कुसुमशरस्य भन्मथस्य कीतिरेच यश एव पयोराशिः क्षीरसागरस्तस्य वीचिश्वि
२५६२६१. अथानन्तर जिनके विवाह के योग्य पूर्ववर्ती कार्य पूर्ण किये जा चुके थे, जो
सुमेरु पर्वतके कटकको तिरस्कृत करनेवाले, समीपमें लगे निर्मल मुक्ता समूहकी सफेद कान्ति पुजसे पुनरुक्त चद्दरसे सुशोभित और पराक्रम विद्याके शिष्यों के समान सिंहों के द्वारा पायोंके बहाने धारण किये हुए स्वजनिर्मित विशाल सिंहासनपर बैठे हुए थे। जो पीछेकी
ओर रखे, क्षीर सागरकी तरंगों के समान कोमल रेशमी वस्त्रके आवरासे सुन्दर, स्वर्णरत्रोंसे ३० चित्रित आवरासे दर्शनीय पर्यन्त भागसे युक्त, दुहरे रखे हुए, स्पर्श सुखके दिनमें अत्यन्त
चतुर, हंसतूलके उपधानपर शरीरका पिछला भाग रखकर विराजमान थे, जो स्वर्णलताओंसे कल्पवृक्षक समान उन स्त्रियोंसे घिरे हुए थे कि जो पास में खड़ी थीं, बार-बार हिलानेसे खनकते हुए मणिमय आभूषणोंसे जिनकी भुजलताएँ शब्दायमान थीं, जिनके नेत्रोंका विक्षेप
वायुसे हिलते हुए नील कमल दलकी मालाके समान सुन्दर था। विलासपूर्वक किये हुए 3. निश्चल हास्यके कारण निकलती हुई निर्मल दाँतोंकी किरणोंसे जिनके अधर किसलय फूलोंसे
युक्त हो रहे थे। कामदेवकी कीर्ति रूपी क्षीरसागरकी तरंगोंके समान निर्मल अधोवस्त्रकी
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- विवाहवृतान्तः ]
दशमी म्भः
वीची विमलनोवो विनिहितैककरपल्लवाभिः परेणकरपङ्कजेन कलहंसमिव परिमललोभपतितमुच्चालयन्तीभिश्चामरं वामनयनाभिः कल्पशाखिनमिव कनकलताभिः परिवृत्तम्, उत्तप्ततपनीयदण्डविधारितेन सुमेरुशिखर विलसदुडुपतिमण्डल विडम्बकेन बिमलातपत्रेण तिलकितोपरिभागम्, अनुपरिपाटि स्थिर्तराहित करकमलकलितकनक किरीटेरसकृदभिधीयमानजय जीवशब्दरं सतटलुटित मणिकुण्डलम - चिपर्याकुललोचने रभिनव गगन समुदिततारका निकरानुकारिणा हारेण पुलकित पृथुलवक्ष:- ५ स्थलरवनिपतिभिरारादासेव्यमानम् आहितरत्न केयूरकिरणपाटलितेनाध्यक्षो भवदभङ्गरप्रतापेन भुजयुगलेन चमत्कुर्वाणम्, शारदजलवरघवलाम्बरपरिबेषदर्शनीयं दुग्धजलधिजलपूरमधिशयान मित्र याङ्गिनम्, नभोऽङ्गणे तारागणैरिव तारापति वरापतिभिः संसदि विराजमानं राजानमुपसृत्य
तरङ्ग इव विमला धवला या नीवी अधोवस्त्रग्रन्थिस्तस्यां विनिहितः स्थापित एककरपल्लव एकपणिकिमल्यो यामिस्तामिः परेण द्वितीयेन करपङ्कजेन पाणिपद्मेन परिभललोभपतितं सौगन्ध्यलीमपलितं १० कलहंसभित्र कादम्बमिव चामरं वालव्यजनम् उच्चाकयन्तीभिरुत्क्षिपन्तीभिः वामनयनाभिः कनकलताभिः भर्मत्रलरीभिः परिवृतं कल्पशासिनमिव देवद्रुमभिव परितं परिवेष्टितम् उत्तप्तेति --- उत्तप्तपनीयस्य संतप्तस्वर्णस्य दण्डेन विधारितं तेन, सुमेरुशिखरे देवाविशृङ्गे विलसत् शोभमानं यद् उडुपतिमण्डलं agri तस्य विकमनुकारकं तेन विमळातपत्रेण शुक्लच्छत्रेण सिल किंदः शोभित उपरिभागी यस्य तम्, अनुपरिपार्टीति - अनुपरिपाटि अनुपरम्परं स्थितैविद्यमानैः श्राहितेन घृतेन करकमलेन पाणिपद्मेन कलितं सहितं कनककिटस्वर्णमकुटं येषां तैः अलङ्कृत् पुनः पुनरभिधीयमानाः कथ्यमाना 'जय' 'जीव' शब्द येस्तैः सदयोः कम तीरयोर्लुतियो मणिकुण्डलयो रत्नकर्णाभरणयोर्मरीचिभिः किरणैः परकुले व्यग्ने लोचने नयने श्रेयां तैः अभिनवगगनस्य नूतननभसः शङ्कया सन्देहेन समुदितो यस्तारकानिकरो नक्षत्रनिचयस्तस्यानुकारिणा हारेण मुकादाम्ना पुलकितं रोमाचितं पृथुलं विस्तीर्ण वक्षस्थलं भुज:न्तरं येषां तैः भवनिपतिभी राजभिः आराद्दूरेण आसेव्यमानम् आहितेति-महितं घृतं यद् रत्नकेयूरं २० मणिमयाङ्गदं तस्य किरणैः पाटलितेन श्वेतरक्तेन अध्यक्षोभवन् प्रत्यक्षीभवन अमरप्रताप स्यन भुजयुगलेन बाहुयुगेन चमरकुर्वाणम् शारदजलधर इव धवलं शुक्लं यदम्बरं वस्त्रं तस्य परिवेषेण दर्शनीय सुन्दरम् दुग्धजलवेः क्षीरसागरस्य जलपूरं पयःपूरम् अशियानं तत्र शयनं कुर्वाणं शार्ङ्गिणमित्र विष्णुभिव नभोऽङ्गणे गगनाङ्गणे तारागणैर्नक्षत्र समूहस्तारापतिमिव चन्द्रभित्र संसदि समायां धरापतिमी राजभिः
१५
२५
३०
गाँठपर जिनका एक करपल्लव रखा हुआ था और दूसरे करकमलसे जो सुगन्धि के लोभ से पड़े हुए कलहंस के समान चामरको ऊपर की ओर चला रही थीं। तपाये हुए स्वर्णदण्डपर धारित एवं सुमेरु पर्वत के शिखरपर सुशोभित चन्द्रमण्डलको तिरस्कृत करनेवाले निर्मल छबसे जिनका उपरितन प्रदेश सुशोभित हो रहा था। जो परिपाटीके अनुसार स्थित थे, जिनके स्वर्णनिर्मित मुकुट जोड़कर लगाये हुए करकमलोंसे सहित थे, जो बारवार जय जीव आदि शब्द कह रहे थे, कन्धोंके तटपर लटकते मणिमय कुण्डलोंकी किरणोंसे जिनके नेत्र व्याकुल हो रहे थे, नूतन आकाशकी शंकासे उदित ताराओंके समूहका अनुकरण करनेवाले हार से जिनका विशाल वक्षःस्थल व्याप्त हो रहा था ऐसे राजा लोग समीपमें जिनकी सेवा कर रहे थे । धारण किये हुए रत्नोंके बाजूबन्दोंकी किरणोंसे कुछ-कुछ लाल तथा प्रकट होते हुए अविनाशी प्रतापसे युक्त भुजाओंके युगलसे जो चमत्कार उत्पन्न कर रहे थे। जो शरद ऋतु के मेघों के समान सफेद वस्त्र के परिधानसे सुन्दर थे और श्रीरसागर के जलके ३५ पूर में शयन करनेवाले कृष्ण के समान जान पड़ते थे और जिस प्रकार आकाश रूपी अंगण में ताराओं से सुशोभित चन्द्रमा होता है उसी प्रकार जो राजाओंसे सभामें सुशोभित थे। ऐसे
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गद्यचिन्तामणिः
[२६३ जीबंधरस्य -
प्रश्रितः प्राञ्जलि: 'प्रत्यासन्नो मुहूर्तः' इति मौहूतिकाधिकृतः ससंभ्रममब्रवीत् ।
३ २६२. तद्वचनमुपश्रुत्य द्रुततरमुच्चलतामिलापतीनां रहसा चलितवक्षोगतकक्ष्यमालाभ्रान्तभृङ्गावलीझंकाररवे मङ्गलशङ्खध्वनाविवोच्चलति, तरसा श्रुट्यत्सूत्रहारमुक्तानिकरे
रोहदतिस्फारकरपारागकुट्टिमपातेन वधूवर विधेयहुतबहज्यालोचितलाजविसर्ग इव विभाव्यमाने, ५ जनविमर्दकृतयादच्छिकणिस्तम्भदक्षिणभ्रमणारम्भे दम्पतिविधास्यमानहुताशनप्रादक्षिण्यक्रियां पिशुनयति, हविकीर्यमाणराजाभिमुखप्रसूनाञ्जली सानन्दगोविन्दमहाराजादिविधातव्यवधूवरशरीरचकासदीक्षितारोपणमनुकुर्वति, परिष्करणमय इव परिवहमय इव नृत्तमय इव वादित्रमय ।
विराजमान शोभमान राजानं भूपाल र उपमृत्य तस्य समीपं गत्वा प्रषेण श्रित: सेवित: सस्कृत इत्यर्थः
मौहर्तिकाधिक तः प्रधानदैवज्ञः प्राञ्जलिदहस्तसंपुटः सन् 'मुहूर्तः प्रत्यायनो निकटस्थ' इति संभ्रम १० सत्वरं यथा स्यात्तथा अअर्वात् ।
६२९२. तद्वचन मितिः-तस्य मोहतिकाधिकृतस्य वचनं तद्वचनम् उपश्रुत्य समाकण्यं द्रुततर. मतिशीघ्रम् उच्चलताम् इलापतीनां राज्ञा रंहसा वेगेन चकिताः कम्पिता या वक्षोगतवैश्यमाला वक्षःस्थिततिर्यमजस्तास्त्री भ्रान्तानामुत्पतितानां भृङ्गाणां भ्रमराणा प्रावली तस्य झङ्काररवस्तस्मिन् ,
मङ्गलशङ्खध्वनाविव मङ्गलोद्देश्यकाम्बुशब्द इब उच्चलति, तरसा बलेन ग्रुध्य सूत्राणां भिग्रमानदोरकानां १५ हाराणां मोतियष्टीनां मुक्तानिकरो मौकिकासमूहस्तस्मिन् , रोहन्तः समुपद्यमाना अतिस्फारकरा विशाल
किरणा यस्माताभनी परागकतिमा लोहितामयिखाचतवसधाभोगतस्मिन पातेन वधवराम्यां करगीयो यो हुतवहन्यालासु अनलाचि पु उचितो योग्यो लाजविस! मनिधान्यपुष्पाबमोचनं तथाभूत इव विभाव्यमाने प्रत.यमाने, जनविमर्दन नरनि कुरवण कृता घिहिलो पाकिसः स्वेच्छाविहिती यो मणिस्तम्भस्य रत्नस्तम्भस्य दक्षिण-तणारम्भस्तस्मिन् दक्षिगपरिक्रमणारम्भस्तस्मिन् दम्पतिभ्यां जायापतिभ्यां विधास्यमाना करिष्यमाणा या हुताशनस्याग्नेः प्रादक्षिण्यक्रिया तां पिशुनयति सूचयति सति, हर्षेण विकीर्यमाण: प्रक्षिप्यमाणो राजाभिमुखं राज्ञः पुरस्तात् यः प्रसूनाञ्जलिस्तस्मिन् सानन्दः सहगाबिन्दमहाराजादिभिविधातव्यं करणीयं वधूवरयोः शरीस्योश्चकासत् शोममानं यदाक्षितारोपणं संस्कारविशेषस्तमनुकुर्वत्ति परिष्करणमय इव, शोमामय इव, परिवहमय इत्र, उपकरणमय इत्र, नृत्तमय इव, वादिनमय इव, महिषीमय
जीवन्धर महाराज के समीप पहुँचकर विनयी तथा हाथ जोड़कर खड़े हुए प्रधान ज्योतिपीने २५ संभ्रमपूर्वक कहा कि 'मुहूर्त निकट है।
६२६२. उसके वचन सुनकर अत्यन्त शीत्र उठनेवाले राजाओंके वन स्थलोंपर स्थिन तिरछी मालाओंसे उड़े भ्रमरसमूहकी झंकारका शब्द जय मंगलमय शंखोंकी ध्वनिके समान उठ रहा था। देगसे जिनका सूत्र टूट गया था ऐसे हारके मोतियों का समूह जब निकलती हुई अत्यधिक किरणांस युक्त पद्मराग मणिके फसपर पड रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो वधू वर के द्वारा अग्निकी चालाओं में योग्य लाई ही छोड़ी जा रही हो। मनुष्योंकी भीड़के द्वारा स्वेच्छाचश किया हुआ मणिमय स्तम्भोंकी प्रदक्षिणा रूप भ्रमणका प्रारम्भ जब दम्पति के द्वारा की जानेवाली अग्निकी प्रदक्षिणा क्रियाको सूचित कर रहा था और जब राजा जीवन्धर के सम्मुख बिखेरी जानेवाली फूलों की अंजलि आनन्दसहित गोविन्द महाराज आदिके द्वारा किये जाने योग्य वधू-वरके सुशोभित एवं आई अक्षत्तोंके आरोपणका
१.म. जनसमर्द-1 २. म. वधूवरचक्रासत-1
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- विवाहवृत्तान्तः]
दशमो लम्भः
इच महिषीमय इव महीपतिमय इवानन्दमय इवाशीमय इव विलसति विवाहमण्डपे, मण्डलाधीश्वरदत्तहस्तः गिलोच्चयशिखरान्नखरायुध इव हरिविष्टरादवरुह्य विरचितपरमेश्वरसपर्याञ्चितः स्वहस्तवितीर्णकाञ्चनः संचितसकलहोमद्रव्यसमिद्धपुरोभागेण पुरोधसा हुयमानसमित्कुशतिलयोजलाजजाल चटचटायमानेन हुताशनेनाहत इवासाद्य वेदी मुदितपुरोहिताभिहितजयजीवेत्याशिषा समं जीवंधरमहाराजः,स्वमातुलमहाराजेन महनीयलग्ने ससंतापं समापताम्, आत्मीयकोतिमिवाकल्प- ५ भासुगम्, प्रबलतपस्यामिवाबला प्रार्थनीयवेषाम्, वाक्षरश्रिमिव दोषोपसंहारसुलभाम्, सुरसुन्द
इव राज्ञोमय इव, महीपतिमय इब नरेन्द्र मय इव, आनन्दमय इव हर्षमय इत्र, आशीमय इव विवाहमगडपे विलसति शोभमाने सति, मण्डलाधीश्वरंण देसी हस्तो यस्य तथाभूतः शिलोच्चयशिखरात पर्वतशलात् नखरायुध इव सिंह इव, हरिविष्टरात सिंहासनात् अवरुह्य विरचिता कृता या परमेश्वरसपर्या जिनेन्द्रार्चा तयाशितः शोभितः स्वहस्ताभ्यां स्वकराभ्यां नितीन प्रदर्स काजनं स्वर्ण येन तथाभूतः, १० संचितेन राशीकृतेन सककहोम द्रव्येण निखिलहवनगन्येण समिद्धो देदीप्यमानः पुरोमागो यस्य तेन, पुरोधसा पुरोहितेन हूयमानेन समयमाणेन समित्कुशतिलबीजकाजजालेन इन्धनदर्भतिज बीरभर्जितधान्य पुष्पसमूहेन चटचटायमानोऽव्यक्तशब्दविशेष कुर्वागस्तेन हताशनेन पावकेन माहूत इव ।कारित इव जीवधरमहाराजो वेदीम् भासाद्य प्राप्य मुदितन प्रसन्नेन पुरोहितेन पुरोधसा अभिहिना सूच्चरिता या जय जीवेत्याशीस्तया समं सार्ध स्वमाळमहाराजेन गोविन्दमहीपाले न मदनीयलग्ने प्रशस्त मुहूत ससंतोषं १५ यथा स्यात्तथा समर्पिता दत्ता लक्ष्मणां मातुल्ल सुताम् पयगायत उदबोढ इति कर्तृक्रियाकर्मसम्बन्धः । अथ लक्ष्मणाया विशेषणान्याह-सामयिकीर्तिमिव स्त्रसमज्ञामिन 'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः आकल्पमासुर्श कलपकालपर्यन्तं शोभिनी पक्षे आकलोरलंकारर्मासुरां देदीप्यमानाम्, प्रबलतपशामिद प्रकृष्टतपश्चर्यामिव भबलेनिलैरमार्थनीयोऽनमिलषणीयो वैषो मुद्रा यस्यास्तां पक्षेऽलाभिः स्वीमि: प्रार्थनीयो वेषो नेपथ्यं यस्यास्ताम्, बासरनियमिव दिवसलक्ष्मीमिब दोषाया रावेरुपसंहारंग संकोचेन २०
अनुकरण कर रही थी। जब विवाह मण्डप ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सजावटमय ही हो, उपकरणमय हो हो, नृतमय हो, वादिन्नमय ही हो, राज्ञोमय ही हो, राजमय ही हो, आनन्दमय हो हो, और आशीर्वादमय ही हो तब मण्डलाधीश्वरके द्वारा जिन्हें हाथका सहारा दिया गया था ऐसे जीवन्धरस्वामी पर्वतके शिखर से सिंह के समान सिंहासनसे नीचे उतरे। उन्होंने परमेश्वर की पूजा की, अपने हाथसे सुवर्ण का दान दिया २५
और एकत्रित की हुई समस्त होमकी सामग्रीसे देदीप्यमान अग्रभागसे युक्त पुरोहितके द्वारा होनेवाले समिधा, कुशा, तिलबीज तथा लाईके समूहसे चट-चट शब्द करनेवाली अग्निके द्वारा बुलाये हुए के समान वे वेदीपर पहुँचे । वहाँ हर्षसे युक्त पुरोहितके द्वारा उच्चरित जय जीव आदि आशीर्वाद के साथ जीवन्धर महाराजने अपने मामा गोविन्द महाराज के द्वारा उत्तम लग्नमें सन्तोषपूर्वक दी हुई लक्ष्मणा नामक कन्याको विवाहा । ३० वह लक्ष्मणा उस समय जीवन्धर महाराजको कीति के समान जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति आकल्पभासुरा-कल्पकाल नुक देदीप्यमान रहनेवाली थी उसी प्रकार लक्ष्मणा भी आकल्पभासुरा- आभूषणोंसे देदीप्यमान था। अथवा प्रवल तपस्याके समास जान पड़ती थी क्योंकि जिस प्रकार प्रवलतपस्या अबलाप्रार्थनीयवेपा-निर्वल मनुष्यों के द्वारा अप्रार्थनीय वेपसे युक्त होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी अबलाप्रार्थ- ३५ नीयवेपा-स्त्रियों के द्वारा प्रार्थनीय वेपकी धारक थी। अथवा दिनकी लक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार दिनकी लक्ष्मी दोपोपसंहारसुलभा--दोपा-रात्रिके उपसंहारसे सुलभ
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पद्यचिन्तामणिः
[ २६२ जीबंधरस्यरीमिब साभरणजाताम्, मृगयामिय वरावधसंपन्नाम्, मुनिजन मनोवृत्तिमिव चरणरक्ताम्, ब्रह्मस्तम्भाकृतिमिव कृशतरविलग्नाम्, शरदमिव विमलाम्बरविराजिनीम्, अध्वरसंपदमिव सुदक्षिणाम, सुराज्यनियमिव चारुवर्णसंस्थानाम्, वनराजिमिव तिलक भूषितां बहुपत्रलतां च, नक्षत्र राजिमिव
रुचिरहस्तामुज्ज्वलश्रवणमूलां च, हव्यवाहज्वालामिव काष्ठा ङ्गारवधिनी भूतिमादिनी च, 'यदि ५ सुलभा सुमाया ताम् पक्षे दोषाणां दुगुणानामुपसंहारंग' नाशेन सुलमा सुप्राप्या ताम्, सुरसुन्दरीमिव
देवान्नामिव सामरणा सालंकारा जाता समुत्पनेति सामरजाना ताम् पक्षे आमरण जातेनालंकारसमहेन सहिता साभरणजाता ताम्, मृगयामिव आखेटकीहामिव वराइवधेन शुरघातेन संपक्षा ताम् पक्ष चन्द्रकान्त्रनियन्त्रितवराहाकारपुत्तलिकानां वधेन संपन्ना प्राप्ता ताम्. मुनिजनस्य तपोधनस्य मनोवृत्ति. मिव चरणरका चरणे चारिने रमा लीना तां पक्षे चरणयोः पादयो रका रकवर्गालाम, ब्रह्मस्तम्भकृतिमित्र १. लोकाकृसिमिव कृशतरी रज्जुप्रमितो विसग्नी मध्यभागो यस्यास्तां पक्षे कृशतरोऽतिसूक्ष्मो बिलग्नः कटि
प्रदेशो यस्यास्ताम्. शरदमिव शरहतुमिव विमलाम्बरविराजिनीन् विमलेन रजोरहितेन अम्बरेण नमसा विराजिनी शोभिनीम् पक्षे विमकाम्चरैरूजाचकवस्त्रविराजिनी शोभिनीम्, अध्वरसम्पदमिव यज्ञसम्पत्तिमिव सुदक्षिगां सुप्ड दक्षिणा दानं यस्यां तां पक्षेऽतिशयेन दक्षिणा सरला ताम्, सुराज्यश्रियमिर इसमराज्य
लक्ष्मीनिव चारुवर्णसंस्थानाम् धारु सुन्दरं वर्णानां ब्राह्मणादीनां संस्थानं सम्यक् स्वितिर्यस्यां ताम् पक्ष १५ वारुणी मनोहरे वर्ण संस्थाने रूपाकृती यस्यास्ताम्, वनराजिमिव वनपछितामिव तिलकभूपितां बहुपत्रलतां
च तिलकै; क्षुरकवृभूपितामलंकृताम् बह्वयः पत्रलताः पर्णवलयो यस्यां तां च, पक्षे तिल केन विशेषपत्रेण . भूषितामलकृतां मम जनदताः सुमन वरचितमोर केसः यस्यास्तथाभूतां च, नक्षत्रराजिमिव तारानतिमिव रुचिरो मनोहरो हस्तो हस्तनामनक्षत्रं यस्यां ताम् उबले देदीप्यमा श्रवणसरे
तलाम नक्षत्रे यस्यां साम् पक्षे रुचिरः सुन्दरी हस्तः पाणियस्यास्ताम् उचलमतिमार श्रवणलं कर्णमूल २. यस्यास्त हव्यवाहज्वालामिव पायकज्वालामिव काष्ठानां दारुणामकारेण वर्धत इत्येवंशीला ताम्,
होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी दोषोपसंहारसुलभा-दोषोंके उपसंहार-संकोचसे सुलभ थी। अथवा सुर-सुन्दरीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार सुरसुन्दरी साभरणजाता--आभरण सहित उत्पन्न होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी साभरणजाता-आभूषणों के समूह सहिन
थी। अथवा मृगया-शिकारके समान थी क्योंकि जिस प्रकार मृगया बराइवधासम्पन्ना२१ शकरके वधसे सम्पन्न होती है, उसी प्रकार लक्ष्मणा भी बराहधसम्पन्ना-वराह यन्त्रके
वधसे सम्पन्न हुई थी। अथवा मुनि जनोंकी मनोवृत्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार मुनियोंकी मनोवृत्ति चरणरक्ता-चारित्रमें अनुराग रखनेवाली होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी चरणरक्ता-पैरोंसे लालवर्ण वाली थी। अथवा लोककी आकृतिके समान थी क्योंकि जिस
प्रकार लोककी आकृति कृशतरविलग्ना अत्यन्त कृशमध्यभागसे सहित है उसी प्रकार ३. लक्ष्मणा भी कृशतरविलग्ना-अत्यन्त पतली कमरसे सहित थी । सायचा शरद् ऋतुके समान
थी क्योंकि जिस प्रकार शरद् ऋतु विमलाम्बरविराजिनी-निर्मल अकाझसे सुशोभित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी विमलाम्बरविराजिनी-निमेल वस्त्रांसे सुशोभित थी। अथवा यज्ञ संपदाके समान थी क्योंकि जिस प्रकार यज संपदा सुदक्षिणा-उत्तम दक्षिणा सहिन होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी सुदक्षिणा---अत्यन्त सरल प्रकृति की थी। अथवा सुराज्यलक्ष्मी---उत्तम-राज्यलक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार सुराज्यलक्ष्मी चारुवर्णसंस्थाना-ब्राह्मणादि वर्गों की उत्तम स्थितिसे सहित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी चारवर्णसंस्थाना-सुन्दर रूप तथा आकृतिसे सहित थी । अथवा वनपंक्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार वनपंक्ति तिलकभूषिता-तिलक वृक्षोंसे विभूषित और बहुपत्रलता-अनेक पत्ती
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--विवाहवृत्तान्तः ] दशमी कम्मः
३९३ कुन्तलानामीदृशी कान्तिरल मलं संतमसकान्तिचिन्तामणिभिः । ईदृशं चेदाननमस्य प्रतिरूपकमेव कुमुदिनोपतिः । यदि भुजयोरोदृशं संस्थानमनयोरनुकरोत्येव कल्पशाखिशाखा । यद्ययमाभोगः स्तनयोः पोनयोः क्रीडागिरिरपरः कीदृशो भतुंः' इति निभृतं वल्लभपरिचारिकाभिरनुरागिणीभिरभिष्टूयमानाम् अमन्दमृगमदामप्यकिरातगोतिम्, अलकोद्भासिनीमपि नवुतिसंभवाम्, मधु
भूति मम मादयति उत्पादयतीत्येवंशीका तां च, पक्षे काष्टाङ्गारच्छेदिनी भस्मोत्यादिकां च, 'वृधु वृद्धी' 'वृधु छेदने' इयुभयोः इलेषः 'भूतिमस्मनि संपदि' इत्यमरः, इलेषोपमा । यदि चेत कुन्तलानामलकानाम् ईदृशीयंभूत कानिनाहिस्तहि संतमसकान्तिचिन्तामणिभिः प्रगाढकृष्णवर्णचिन्तामणिभिः अलमलं व्यर्थ व्यर्थम् । चेयादे अाननं मुस्त्रमोशम् इत्यभूमे त कुदिपतिश्चन्द्रः अस्य माननस्य प्रतिरूपकमेव ।। प्रतिनिधिरेव ! यदि भुजयो होः ईरशं संस्थानमाकारस्तहि कल्पयाविशाखा कल्पतरुविटपः अनमोमुंजयोरनुकरोत्येव । यदि पीनयोः पीवरयोः स्तनयोः कु वयोः अयम् आभोगो विस्तारस्ताहि मर्तुवल्ल मस्य अपरोऽन्यः क्रीडागिरिः कीदृशः' इति निभृतं निश्चलम् अनुरागिणीमिः प्रीतियुमामिः वल्लभपरिचारिकाभिः प्रिय सेविकाभिः अभिष्टयमानाम्, स्तुतिगोचरी क्रियमाणाम्, अमन्दोऽत्यधिको मृगाणां हरिणानां मदो गर्यो यस्यां तथाभूनामपि न किरातानां गीतिरित्यकिरातगीतिस्ताम्, किरातगीतिस्तु मृगाणाममन्दं महमुत्पादयति सा तु न तयेति विरोधः पक्षे अमन्दः प्रचुरो मृगमदः स्त्री यस्यां तथाभूतामपि न विधन " किरातस्येव म्लेच्छस्येव गीतिर्यस्यास्तां सभ्यजनीसियुमामिति यावत् अथवा किरातो भूनिम्बः 'चिरायता' इत्यर्थः, तद्भिना अकटुका मधुरा गीतियस्याः सा 'किरात; पुंलि भूनिम्बे म्लेच्छस्वल्पशरीरयोः' इति विश्वलोचनः । मलकोमालिनीमपि अक्षका तनामनगरीमुद्रासतीत्येवंशका तयाभूतामपि नबुतिसंभवा नबुतो तन्नाम नगर्या संभव उत्पसियंस्पास्ताम्. याऽलकायानुत्पन्ना सा कथं नबुतो संभवेदिति विरोध:
वाली लताओंसे सहित होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी तिलकभूषिता-चन्दनके तिलकसे भूषित और कस्तूरी आदिसे बनी हुई अनेक पत्र और लताओंसे युक्त थी। अथ का नक्षत्र पंक्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार नक्षत्रपंक्ति रुचिरहता-देदीप्यमान हस्त नक्षत्रसे युक्त तथा उज्ज्वल श्रवणमूला-देदीप्यमान श्रवण और मूल नक्षत्रोंसे सहित होती है उमी प्रकार लक्ष्मणा भी रुचिरहस्ता--सुन्दर हाथोंसे सहित तथा उज्ज्वल श्रवणमूला--सुन्दर कर्णमूलसे युक्त श्री। अथवा अग्नि ज्वालाके समान थी क्योंकि जिस प्रकार अग्निज्वाला काष्टांगारवर्धिनी-लकड़ाके अंगार को बढ़ानेवालो और भूनिभाविनी-भस्म उत्पन्न करनेवाली होती है उसी प्रकार लक्ष्मणा भी काष्टांगारवर्धिनी-काष्टांगारको छेदनेवाली और भूतिभागिनी-सम्पत्तिको उत्पन्न करनेवाली थी । 'यदि इसके केशोंकी ऐसी कान्ति है तो नोलमणियों की क्या आवश्यकता है ? यदि इसका ऐसा मुख है तो चन्द्रमा इसका प्रतिरूपक २० ही है । यदि भुजाओंका ऐसा आकार है तो कल्पवृन्न की शाखा इनका अनुकरण करती ही है । यदि स्थूल स्तनों का यह विस्तार है तो फिर भर्ताके लिए दूसरा क्रीडागिरि कैसा है ?' इस प्रकार अनुरागसे भरी भर्ताकी परिचारिकाएँ उसकी-स्तुति कर रही थीं। वह अमन्द मृगमदा-बहुत भारी भृगके मदसे सहित होकर भी अकिरातगीति थी-भीलोंकी गीतिसे रहित थी। पक्ष में बहुत भारी कस्तूरीसे सहित होकर भी मधुरगीतिसे सहित थी। अलको- ६५ झासिनी-अलका-कुबेरपुरीको सुशोभित करनेवाली होकर भी नवुतिसंभवा-नबुतिसे उत्पन्न थी । पक्ष में चूर्ण कुन्तलोंसे सुशोभित होकर भी नवुति मातासे उत्पन्न थी। मधुपाश्लिष्ट
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गचिन्तामणिः
पाश्लिष्टगात्रामपि पवित्राम, अक्रमक्षीणामिव कौमुदीम्, अभुजङ्गसङ्गमामिव चन्दनलताम, . अजडाकरप्रभवामिव पालक्ष्मी लक्ष्मणां पर्यणयत । ६२६३. इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचितं गधचिन्तामणी लक्ष्मणाकम्मो
नाम दशमो तम्मः ।
५ परिहारपक्षेऽलकैश्चूर्णकुन्तलैरुदासते शोभते इत्येवंशीला तथाभूतामपि नयुतिस्तन्नाममाता संभवो निदान
यस्यास्ताम्, मधुपैमद्यपाथिभिराश्लिष्टमालिङ्गितं गानं शरीरं यस्यास्तथाभूतामपि पवित्रां प्रतामिति विरोध स्पष्टः । परिहारपक्षे मधुपैः भ्रमरैराश्लिष्टगानामपि पविना पूताम्, विरोधाभास: क्रमेण क्षीणा न भवतीस्य. क्रमक्षीणा तथाभूतां कौमुदीमिव ज्योत्स्नामिव न विद्यते भुजङ्गस्य सर्पश्य सङ्गमो यस्यास्तथाभूतां चन्दन
लतामिव मलयजवलीमित्र, न विद्यते जडाको जलाकरः प्रभवः कारणं यस्यास्तथाभूतां पालक्ष्मी १० कमल कमलाम् । पक्षे अजहः प्रबुद्धः, आकरः श्रेष्ठपुरुषः प्रभवो यस्यास्ताम् 'उत्पत्तिस्थाननिवहभ्रष्टेपु ख्यात
भाकरः' इति विश्वलोचनः ।
६२६३. इति श्रीमद्वादीमसिंहसूरिबिरनित गद्यचिन्तामणी लक्ष्मणालम्भी
नाम दशमो लम्भः ।
गात्रा-मद्यपायी लोगोंसे आलिंगित शरीरा होकर भी पवित्र थी। पक्षमें भ्रमरोंसे आलिंगित १५ शरीरा होकर भी पवित्र थी। वह उस चाँदनीके समान थी कि जो अक्रमीणा-क्रम-कमसे
मीण नहीं होती। पक्षमें कुलमर्यादासे रहित नहीं होती । अथवा उस चन्दन लताके समान थी कि जो अभुजंगसंगमा--साँपोंके संगमसे रहित थी। पक्ष में विटोंके संसर्गसे रहित थी। अथवा उस पालक्ष्मीके समान थी कि जो अजडाकर प्रभवा-जल के समूहसे उत्पन्न नहीं हुई थी । पक्ष में अजड-प्रबुद्ध और आकर-श्रेष्ट पुरुषसे उत्पन्न थी । ६२६३. इस प्रकार श्रीमयादीमसिंहसूरि द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिमें लक्ष्मणा लम्म नामका (लक्ष्मणाकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला)
दसवाँ लम्म पूर्ण हुआ ॥१०॥
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एकादशो लम्भः २६४. अथ निष्कण्टकाधिराज्योऽयं राजा कुसुमशरशरकाण्डपतनेन करपोडाक्षण एव कण्टकितप्रकोष्ठः प्रकामस्विन्नाइगुलिमन्यूनभाग्यां भोग्यामिमां राज्यनियं च प्राप्य प्रकृत्यनुगुणेन चतुरवचसा मधुरनिरीक्षणेन मनोहर चेष्टितेन यथेष्टभोगार्पणेन तयोः कन्दर्प दर्प च प्रसर्पयन्निरगलोपभोगस्यार्गलास्तम्भमभिनवतासंभावुकमवशीभावमुभयोरप्युत्सारयन् स्वैरममूभ्यां यथासौख्यं यथाभाग्यं यथायोग्यं कामसुखमन्वभवत् ।
$ २६५. एवं कान्तेः कार्यि कलानामे कायतनमाधिराज्यं माधुर्यस्य गुरुकुलं प्रसन्नतायो
६२६४. अथेति-अथ लक्ष्मणापाणिग्रहणानन्तरम् निष्कपटकं शत्रुरहितमधिराज्यं यस्य तथाभूतोऽयं सजा जीवंधरः कुसुमसरस्य विषमायुधस्य शरकाण्डानां बाणानां पतनेन करपीडाक्षण एवं पाणिग्रहणवेळायरमेव कारकित: कूपरादधः प्रदेशो यस्य सः 'भुजबाहू प्रदेष्टो दोः स्याककोणिस्तु परः । भस्योपरि प्रगण्डः स्यात्प्रकोष्टस्तस्य चाप्यधः ॥' इत्यमरः । प्रकाममत्यन्त स्विन्नाः स्वेदयुक्ता अङ्गुलयः कर. १० शाखा यस्यास्ताम्, अन्यून भाग्यं यस्यास्ताम् भोक्तुं योग्या भोग्या ताम् इमां लक्ष्मणां राज्य श्रियं राज्य. लक्ष्मी च प्राप्य प्रकृत्य नुगुणेन स्वभावानुकलेन पक्षे मच्यादिप्रधान वर्गानुरूपेग चतुरव वसा लज्जापहारिवैद. ग्वीपूर्णवचनेन पक्षे प्रीत्युपादश्चातुर्य पूर्गवचनेन मधुरं स्नेहसुधा वर्धत् यतिरीक्षणं तेन पक्षे सहानुभूतिपूर्णावलोकनेन मनोहरचंटितन विभ्रमचेष्टया पक्षे औदार्ययुत व्यवहारेण यथेष्टमिच्छानुकूलं भोगस्य सुरतस्य पक्षे भोगाना पवेन्द्रियविषयाणामणेन दामन तयोः लक्ष्मणाया राजश्रियश्च कन्दर्प कामं दपं गवं च १५ प्रपर्पयन् विस्तारयन् निरगलोपभोगस्य स्वच्छन्दोपमोगस्य अर्गलास्तम्भ वाधकस्तम्भभूतम् अभिनदतया नूतनत्वेन संभावुकं संभवशीलम् अवीभावमस्वायतत्वम् उभयोरपि लक्ष्मणाया राज्यलक्ष्म्याच उत्सारयन् दूरीकुर्वन् स्वैर स्वच्छन्दं यथा स्यात्तथा अमूभ्यामुक्काम्यां द्वाभ्यां सह यथासौख्यं सौख्यानुरूपं यथाभाग्यं माग्यानुरूपं यथायोग्यं यथाई कामसुखम् अन्वभवत् ।
६२६५. एव मिति–एवमनेन प्रकारेण कान्ते दीप्तः कार्ताध्य कृतकृत्यत्वम्, कलानां चातुरीणाम् २० एकायतनम् एकस्थान
य आधिराज्यं साम्राज्पम्, प्रसन्नतायाः प्रसादस्य गुरुकुलमभ्यासस्थानम्, २६४. अथानन्तर जिनका साम्राज्य शत्रुओंसे रहित था तथा कामके बाण पड़नेसे जिनकी कोहनीका अधोभाग करपीड़नके समय ही रोमांचित हो उठा था ऐसे राजा जीवधर, अत्यधिक पसीनासे युक्त अंगुलियों को धारण करनेवाली और बहुत भारी भाग्य से युक्त भोगने योग्य इस लक्ष्मणाको तथा राज्यलक्ष्मीको पाकर प्रकृति के अनुकूल (स्वभावके और पाझमें प्रजाके अनुकूल) चतुर वचन, मधुर अवलोकन और इच्छानुसार भोग प्रदान करनेसे उन दोनोंके काम और गर्वको विस्तृन करते हुए तथा निर्बाध उपभोगके प्रतिबन्धके लिए अर्गला स्तम्भके समान एवं नवीनताके कारण होने वाले दोनों के अवशीभावको दूर करते हुए इच्छानुसार इन दोनोंके साथ सौख्य और भाग्यके अनुरूप यथायोग्य काम सुखका अनुभव करने लगे।
६२६५. इस प्रकार जो कान्ति की कृतार्थता, कलाओंका एक स्थान, माधुर्यका आधिराज्य, प्रसन्नताका गुरुकुल, उदारताकी निपुणता, दयाको पराकाष्ठा, और प्रियवादिताकी
१. 'यौवनं विभ्रमाणाम्' इति पाट', 'म' पुस्तके दिष्टिवृद्धि प्रियवादितायाः इत्यनन्तरमस्ति ।
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गधचिन्तामणिः
{ २६५ जीवंधरस्ययौवनं विभ्रमाणां वैदग्ध्यं वदान्यताया अवसानमनुक्रोशस्य दिष्टिवृद्धि प्रियवादिताया गाढरक्तां पाणिपादाधरे भर्तरि च, अधिकय क्रां पश्मरति कुन्तलकलापे पापसत्त्वे च, निकामतृङ्गां स्तनजघने मानसे च, अतिगम्भीरां नाभिमण्डले भाषिते च, विपुलां विलोचनयोनाम्नि च, दीर्घा भुजलतयोः प्रणतरक्षणे च, सूक्ष्मां महिम्नि करचरणरेखासु च, चारुवृत्तां जङ्घयोश्चरित्रे च, अत्यन्तमृद्वी तनुलतायां गमने च, अतिदरिद्रां मध्ये नैगुण्ये च, आभिजात्येनाभिरूप्येण पावन कृत्येन पातिव्रत्येन च विशिष्टाम्, अष्टधा भिन्नामध्ये कोभावं गतां देवोपरिषदं यथोचितं साकूतस्मितैरपाङ्ग
विभ्रमाणां विलासानां यौवनं तारुण्यम्, वदान्यताया उदारताया बैदग्ध्यं नैपुण्यम्, अनुक्रोशस्य कृपायाः 'कृपानुकम्पानुक्रोशो हन्तोनिः करुगा दया' इत्यमरः अवसानं विरामम् प्रियवादिताया मधुरमाषिताया
दिष्टिवृद्धि माग्यवृद्धिम्, पाणी च पादौ चाधरश्चेति पाणिपादाभरम् प्राण्यङ्गत्वादेकवचनम् तस्मिन् मतरि १० वल्लभे च गादरताम् भतिलोहितवर्गाम् पक्षे गादमत्यन्तं रनामनुरागयुक्ताम्, पक्षमवति नपने कुन्तल
कलापे अककसमूहे पापसत्वे च पापप्राणिनि च अधिक वक्रामति कुटिलाम् अधिकमराम्, अतिनिर्दयाम, स्तनजघने वक्षोजनितम्बे मानसे चेतसि च निकामतुङ्गामस्युन्नतामत्युद्वारा च, नाभिमण्डले तुन्दिको भाषिते च कथने च अतिशम्भीराम भायगाथाम् अतिप्रगलमा च, विलोचन योनयनयोः नाम्निच विपुल
दोघां विशालां च, भुजलतयोर्बाहुवर ठयोंः प्रणतरक्षणे च दीर्घामायताम् औदार्यपूर्णा च, महिग्नि माहात्म्य १५ करचरणस्य रेखारतासु च पाणिपादलेखासु सूक्ष्मामबुद्धिगोचराम् अल्पांच, जङ्गयोः प्रस्तयोः घरिने च सदा
चारे च चारुवृत्तां सुन्दरयतुंलो प्रशस्ताचारां च, तनुलतायां देहवाल्यां गमने घ भत्यन्तमृद्धीम् भतिकोमलस्पर्शाम, कोमलाङ्गत्वेन गमनासमां च, मध्ये कटिनशे नैपुण्ये च अतिदरिद्रामतिकृशाम् भतिशून्यां च,
आमिजात्येन की लीन्येन आभिरूप्येण सौन्दयेण पावन कृत्येन पविनकार्येण पातियायेन च सतीस्वेन च विशिष्ट सहिताम् ष्टधा अष्टप्रकारेश मिनामपि विभानामपि एकीभावम् एकत्वं गतामिति विरोधः पक्ष ऐकमस्यं गतां प्राप्तां देवीपरिषदं राजीसमूहम् यथोचितं यथायोग्यम् भाकून हस्चेष्टितं स्मितं मन्दहसितं
भाग्यवृद्धि रूप यौवनको धारण कर रही थी, जो हाथ पैर और अधरोष्ठ तथा भर्ता में अत्यधिक रक्ता-लालवर्ण (पक्षमें गाढ़ प्रीतिसे युक्त ) थी। विरूनियोंसे युक्त नेत्रमें; केशकलापमें एवं पापी जीव में अधिक वक्र थी ( नेत्रा में कटाक्षसे युक्त, केशकलापपक्षमें धुंघरालेपनसे
सहित और पापी जीव पक्षमें कठोरतासे युक्त थी)। स्तन, जघन तथा मन में अत्यन्त उन्नत २५ थी (स्तन और जघन नितम्ब पक्षमें अत्यन्त स्थूलतासे युक्त और मन पक्ष में अत्यन्त उदार थी)
नाभिमण्डल और भाषणमें गम्भीर थी (नाभिमण्डल पक्ष में गहराई तथा भाषण पक्ष में सारगर्भतासे सहित थी)। नेत्री और नाममें विशाल थी। (नेत्र पक्ष में बड़े-बड़े नेत्रोंसे युक्त थी और नामपक्ष में ख्यातिसे युक्त थी)। बाहुलताओं तथा नम्रीभूत प्राणीकी रक्षा करने में दोषं थी (वाहुलता पक्षमें दीर्घभुजाओंसे सहित और नम्रीभूत प्राणीकी रक्षामें उदार एवं दीर्घकालतक संरक्षण देनेवाली थी)। महिमा तथा हाथ और पैरोंकी रेखाओंमें सूक्ष्म थी ( महिमा पक्षमें अचित्य महिमासे युक्त तथा हाथ पैरकी रेखाओंके पक्ष में सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार सूक्ष्म रेखाओंसे सहित थी)। जंघाओं और चरित्रमें चारवृत्ता थी। (जंघापक्षमें सुन्दर और गोल पिंडरियोंसे सहित थी तथा चरित्र पक्षमें सुन्दर चारित्र-निर्दोष आचारको धारण करने
वाली थी)। शरीर लता और गमन में अत्यन्त मृदु थी ( शरीर लता पक्षमें अत्यन्त सुकुमार ३५ , और गमनपक्षमें अत्यन्त असमर्थ थी)। कमर और निर्गुणत में अत्यन्त दरिद्र थी ( कमर
आर पक्ष में अत्यन्त पतली कमरसे युक्त और निर्गुणताके पक्ष में निर्गुणतासे रहित-गुणोंसे युक्त थी। नो कुलीनता सुन्दरता पवित्रता और पातिव्रत्य धर्मसे विशिष्ट थी और जो आठ भेदों
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प
- भन्सानोगतृत्तान्तः !
एकादशी लम्मः
३९०
पातः सनमसौख्यविलासोक्तिविस्तरैः सविसम्भैरनुरागवर्णनैः सापदेशेरपसर्पणैः ससंभावनर्माल्यविनिमयैः सभृकुटोपुटैरलीककोपैः सप्रणामः प्रकृतिप्रापणैः सापराधसंवरणरुपधावनः संजीवितसंशयः शपथ लाहसः सापलापैः स्थैर्यस्थापनैः सानुमोदैः प्रतिवचोदानः सावहित्थः शुष्कनिर्बन्धैः साभिलापरनुनावनः सवञ्चनैः काञ्चीशैथिल्यैः सधाष्ट्यरूपप्रलोभनेः सर्वलक्ष्यः प्रत्यवेक्षितैः सप्रमादोपन्यासः स्खलितानुतापनैः सत्रासोकप्रत्ययः सदास्योपगमैः संरम्भमार्जनैः समार्गनिरोधः प्रतिनिवर्तनैः ५ सकौतुहले राश्चर्यविलोकनाक्षेपैः सगद्गदिकास्तम्भैमिथ्याकथितैः सलज्जाजाड्यरधोमुखस्थितः
ताभ्यां सहितः साकूतस्मितैः अपाङ्गपातः कटाक्षयातः, नमसौख्यन क्रीडासुखेन सहितैः सनमसौख्यः विकासोक्तीनां विभ्रम भापिताना विस्तरैः समूहः, सविसम्भैः सविश्वास भनुरगवर्णनः प्रीत्याख्यानः सारदेश: सव्याजः अपसर्पणैः पश्चाद्गमः, ससंभावनैः ससम्मान: मास्यानांसमा विनिमयरादानप्रदानैः, भृकुटीपुटी. सहितैः सभ्रकुट-पुटैः अलीककोपः कृनिगोधः समभिः सनमस्कारैः प्रकृतिप्रापणैः स्वस्थीकरणः, सापराध- १० संवरणैरपराधावरणसहितः उपधावनैः समीपगमनैः, सजीवितसंशयः प्राणसंशयसहितः, शपथानां समयानां साहसः, अपलापेन सिद्धास्वीकारेण सहितः सापलापैः स्थैर्यस्थापनैः दार्थप्रदर्शनैः सानुमोदैस्नुमतिसहितैः प्रतिवचौदानः प्रत्युत्तरप्रदानैः, साहित्यः अत्रहित्थासहितैः शुष्कनिर्वन्धैः नीरसह हैः, भवहिस्थालक्षणमिदम्-'भवगौरवल जादेहांद्याकारगुझिरवाहित्या। व्यापारान्तरसक्त्यन्यथावभाषणविली- पावर कनादिकरी ॥' लामिलाः वान्छायुतैः अनुनाथनर्याचनैः, सवञ्चनः प्रतारणायुतैः काञ्चीशैथिल्यः मेखला. विमा शिथिलीकरणः, सधायः पृथत्योपेतः उपालोमनः लोभप्रदर्शनैः, सबैलक्ष्यः सहजैः प्रत्यवेक्षितैः प्रत्यबलोकन:, प्रसादस्यानवधानताया उपन्यासेन सहितैः सप्रमादोपन्यासः स्खलितस्य अटेरनुज्ञापनानि सूचनानि तः, सन्त्रासैः समयः गोत्रम्यत्ययः नामव्यत्ययः, दास्यस्यसमावस्योपगमन स्त्रीकारण सहितैः संरम्भमार्जनः अपराधशुद्धिभिः, मार्गनिरोधेन सहितः समार्गनिरोधैः प्रतिनिवर्तनैः गत्वा पुनरायातः, सकौतूहल: कुतूहलसहितैः आश्चर्यविलोकना पैः विस्मयपूर्णदृष्टित्रिक्षेपैः, गद्गदिशयाः स्तम्भन रोधेन सहितैः २० मिध्याकथितैः मषाप्रलापैः, सजाजाड्याभ्यां पाजदत्वाभ्यां सहितः, अधोमुखस्थितेन चैवइनस्थितैः सानुशयः सपश्चात्तापैः, अनुपदप्रस्थापनैः पश्चात्प्रस्थापनैः, ससमाहानैः समाहानसहितः, क्रीडनसंकल्पनैः मावस्यामिनयेन सहितैः समावाभिनयैः प्रतारणप्रावीण्यः बनाकौशलै रहस्यस्यैकान्तवार्तावाः संज्ञया संकेतन
-- -...-... -..-- ---- .... - ---... . में विभक्त होनेपर भी एकीभाव-रकता ( पक्ष में प्रेमकी अधिकतासे अभिन्नता) को प्राप्त श्री ऐसी देवियोंकी परिषद्को-आठौं रानियों के समूहको यथायोग्य विशिष्ट अभिप्राय पूर्वक- २५ की हुई मन्द मुसकानसे सहित कटाक्षपातसे, क्रीडाजन्य सुखसे सहित विलासपूर्ण शब्दों के समूहसे, विश्वास सहित अनुरागके वर्णनसे, किन्हीं बहानोंके साथ पीछे हटनेसे, आदरसहित मालाओंकी बदलीसे, भौंहों के साथ मिथ्यानाधसे, प्रणाम सहित स्वस्थताको प्राप्त करानेसे, अपराध छिपाने के साथ समीपमें पहुँचनेसे, जीबनके संशयसे सहित शपथों के साहससे, अपलापके साथ दृढ़ता के स्थापनस, हर्प सहित प्रत्युत्तर देनेसे, भय गौरव तथा लज्जा आदिसे ३० वर्ष आदिके आकारको छिपाने रूर अवहित्थाके साथ नीरस हठसे, अभिलाषा सहित बार-बार की हुई याचनासे, छलके साथ की हुई करधनीकी शिथिलतासे, धृष्टताके साथ किये हुए प्रलोभनोंसे, लज्जापूर्वक किये हुए प्रत्यरलोकनसे, प्रमादको प्रकट करते हुए गलत की सूचनासे, भयसहित नाम स्खलनसे, दासताको स्वीकृत करते हुए क्रोधको दूर करनेसे, मार्ग रोकने के साथ किये हुए प्रतिनिवर्तनसे, कौतूहल के साथ किये हुए आश्चर्यपूर्ण अवलोकन के आक्षेपसे, ३५ गद्गद वाणीको रोकते हुए मिथ्या कथनसे, लज्जा और जड़ताके साथ नीचा मुख कर स्थित
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६९४ गधिन्तामणिः
[ २६५ जीवंधरस्यसानुशयैरनुपदप्रस्थापन: सममाह्वानैः क्रीडनसंकल्पन:' सभावाभिनयैः प्रतारणप्रावीण्यैः सरहस्यरांजैराशोत्पादने: सरोमाञ्चैरवतंसकमलकेलिताडनानुभावेश्च रमयन्यथाकामं कामसौख्यमसक्त एवान्वभवत्
२६६. तथा हि ---असी राजा वाह्यममिवजातमध्रुवमतिविप्रकृष्टं चेत्यात्मनिष्ठमरिषड्५ वर्ग व्यजेष्ट । असहाया नोतिः कातविहा शौर्य च श्वापदचेष्टितमित्वभीष्टसिद्धिमन्विताभ्याम
मूभ्यामाकाटोत् । सप्रणिधान प्रहितप्रणिधिनेत्रः शत्रुमित्रोदासीनानां मण्डलेषु तेरज्ञातमप्याज्ञासीत् । राज्ञा रात्रिदिवविभागेषु यदनुष्टेयमिदमित्थमनिर्बन्धमन्वतिष्ठत् । जातमपि सद्यः शमयितुं शक्तोऽपि सदा प्रबुद्धतया प्रतीकारयोग्यं प्रकृति वैराग्यं नाजीजनत् । किं बहना । राजन्वतोमद
साहितास्तथाभूतास्तैः भाशोत्पादनः आशापास्तृष्णाया उत्पादनानि तैः, सरोमाञ्चैः सपुलकैः अवतंस. १० कमलानां कर्णा मरणकमलानां कलिताइनस्यानुभावास्तैश्च रमयन् क्रीडयन् यथाकामं यधेच्छं कामसौग्ल्य मदनसुखम् असक्त एवानासक्त एबान्वभूत अनुभवति स्म ।
२६६. तथाहि असा राजा जीवकः वानं वाहीकम् अमित्रजातं शत्रुसमूहम् अध्रुवमनित्यम् अतिविप्रकृष्टं च दूरतस्यति च, इति हेतोः मारमनिष्ठं स्वस्थितम् पाणां वर्गः षड्वर्गः अरोणां षड्वर्ग इत्यरिपड्वर्गस्तं
व्यजेष्ट जितवान् । कामः क्रोधो लोमो मोहो मदो मात्पर्य चेयरिषड्वर्गः असहाया केवला नीति: कातर्यावहा १५ भोरवावहा शौर्य च केवलं श्वापदचरितं घ्यावादि वेष्टितम्' इति हेतोः अन्विताभ्यां सहिताभ्याम् अमूभ्यां
नीति-शौर्याभ्याम् अभीष्टसिद्धिम् आकाशीत ववान्छ । सप्रणिधानं सस्मरणं यथा स्यात्तथा प्रहितं प्रणिधिरेव नेत्रं दूतं येन तथाभूतः सन् शत्रुश्च मित्रं च उदासीनश्चेति शत्रुभित्रोदासानास्तेषां मण्डलेषु राष्ट्रेषु तैस्तत्रत्य नृपतिभिः अज्ञातमपि अत्रुद्धमी अज्ञासीन बुध्यते स्म । राज्ञा नृपतीनां रात्रिंदिव
विभागेपु-अहर्निशविभागेषु यत् कार्यम् अनुष्ठ्यं कर्तुं योग्यं इदं कार्यम् इत्थमनेन प्रकारण २० अनिर्बन्ध हरहितं यथा स्यासथा अन्वतिष्ठत् अकार्षात् । जातमपि समुत्पन्नमपि प्रकृतिवैराग्यं मन्यादि
प्रकोपं सयो सगिति भमयितुं शान्तं कर्तुं शकोऽपि समर्थोऽपि सदा शश्वत् प्रबुद्धतया जागरूकतया प्रतीकारयोग्यं प्रतीकाराई नाजीजनत् । किं बहुना। अपनी भूमि राजवती प्रशस्तपार्थिवयुकाम होनेसे, पश्चात्तापके साथ पीछे भेजनेसे, आह्वानके साथ क्रीड़ाके संकल्पसे, सद्भावका अभि
नय करते हुए धोखा देनेकी कुशलतासे, रहस्यपूर्ण संकेतों के साथ किये हुए आशाआके उत्पादन २५ से और रोमांचोंसे सहित कर्णाभरण के कमलसे क्रीडापूर्वक किये हुए ताड़नके अनुभवसे रमण कराते हुए जीवन्धरस्वामी अनासक्त रहकर ही इच्छानुसार काम सुखका अनुभव करते थे।
६२६६. वे सोचते थे कि बाह्य शत्रुओंका समूह तो अस्थायी तथा अत्यन्त दूरवर्ती हैअपनेसे दूर रहने वाला है । अतः उन्होंने अपने भीतर रहनेवाले काम क्रोध आदि छह अन्त
रंग शत्र ओंके समूह को जीता था। केवल नीति कातरताको धारण करनेवाली है और केवल ३० शूरता जंगली जानवरों की चेष्टा है इसलिए इन दोनोंको साथ मिलाकर ही वे अभीष्ट सिद्धि
को करना चाहते थे । बड़ो सावधानी के साथ गुप्तचर रूपी नेत्रों को प्रेरित करनेवाले जीवन्धरस्वामी शत्रु मित्र और उदासीन राजाओं के देशों में उनके द्वारा अज्ञात समाचार को भी जान लेते थे। रात-दिनके विभागोंमें राजाओं के करने योग्य जो कार्य होता है उसे वे 'यह इसी
तरह करना चाहिए' इस हठसे रहित होकर पूर्ण करते थे। उत्पन्न होते ही शीघ्र ही नष्ट ३५ करने में समर्थ होकर भी सदा जागरूक रहने के कारण वे प्रजाके भीतर ऐसी विरागता
उत्पन्न नहीं करते थे जिसका कि उन्हें प्रतिकार करना पड़े। अधिक क्या कहा जाय ? उन्होंने
१. म. स सद्भावा।
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-राज्यसंचालनवृत्तान्त:
एकादशो लम्भः
नीमतानीत् ।
२६७. एवमनन्यसुलभानन्योन्यावाधितान् धर्मार्थकामान् संचिन्वति तस्मिन्प्रजापतो, प्रजाश्च तदधीनवृत्तयः सादरैः करप्रदानः सानुशयैः प्रमादस्खलितैः सभयेराज्ञानुष्ठानः सविनयेगरुजनानुवर्तनः सनिबन्धैश्चारुवृत्तैः सविचारैः प्रारम्भैः सफलैरखिलकृत्यः सपरप्रयोजनः साधुचेष्टितैः सदानपूजैरुत्सवोपक्रम समेतास्तं राजानमनर्जनक्लेशमर्थजातमजन्मोपयुक्तं पितर मनि- ५ मेपोन्मेषं नेत्रमनभिवर्धनायासं सुतमाबद्धमूतिमिव विश्वासमवनीतलसंचारमिव सुरतमात्म. प्राणानामिव पूजोभावममन्यन्त ।
६२६८. तथा गात्रबद्ध इव क्षात्रधर्मस्मिन्धमातरं सौन्योत्तरं च धरातलमवति भतानीत् । 'राजन्वान् सौराज्य' इति मत्वर्थीये नलोपाभावो निपातनात् ।
६२६७. एवमिति-एव मनेन प्रकारेण तस्मिन् प्रजापतौ जीवंधरमहाराजे अन्येषां सुलमा न १० भवन्तीत्यनन्यसुलभास्तान् , अन्योऽन्यं परस्परमबाधितास्तान् धर्मश्च अर्थश्च कामश्चेति धर्मार्थकामास्तान त्रिवर्ग संचिन्त्र ति सति तदबीना नृपराधीना वृत्तिरा नीविका यासां तथाभूताः प्रजाच लोकाश्च सादर ससन्मानैः करमदानै राजस्वदानैः, सानुशः सपश्चात्तापैः प्रमादसवलित, प्रमादेन स्खलितानि तः अनवधानताजन्यत्रुटिभिः, समयैः सन्नासैः माज्ञानुष्टानैः आदेशानुपालनैः, सविनयः सादरः गुरुजनानुकलाचरणैः सनिबन्धैः साभिरुचिभि: चारुकृतः शुभादारैः सविचारः सबिमर्श: प्रारम्भैः कार्यारम्भैः, सफलैः सार्थकैः १५ अखिलकृत्यनिखिलकायैः सपरप्रयोजनैः परार्थसहितैः साधुचेष्टितरुत्तमचेष्टितैः सदानपूजैः दाना सहितैः उत्सवोपक्रमैः उत्सवप्रारम्भैः समेताः सहिताः सत्य: तं राजानं जीवधरं न विद्यतेऽजनवलेशों यस्य तत् अर्थजातं धनसमूहम्, जन्मन्युपयुको न भवतीत्य जन्मोपयुक्तस्तं पितरं जनकम् न वियेते निमेषोन्मेषी यस्य तत् नेत्रं नयनम्, न विद्यतेऽभिवर्धनस्य पोषणस्यायासः खेदो यस्य तं सुतं पुत्रम, माछा मूर्तिर्यस्य तयाभूतं मूर्तियुक्तं विश्वासं प्रत्ययमिव, अवनीतलसंचारं पृथ्वीतलसंचारं सुरतरुमिद २० कल्पवृक्षमिव, आत्मप्राणानां स्वप्राणानां पुजीमावमिव राशीमावमित्र अमन्यन्त जानन्ति स्म ।
६२६६. तथेति-तथा तेन प्रकारेण गाबद्ध सशरीरे क्षात्रधर्म इव अस्मिन् सम्राजि जीवंधरे धर्मोत्तरं धर्मप्रधान, धनोत्तरं धनपरिणाम, सौख्योत्तरं च सुखपरिपाकं च यथा स्यात्तथा धरातलं भूतलम् पृथिव को योग्य राजासे युक्त कर दिया था।
. ६२६७. इस प्रकार जब राजा जीवन्धर अनन्य सुलभ, और परस्पर में बाधा न करने- २५ वाले धर्म, अर्थ एवं कामका संचय कर रहे थे तब उनके अधीन रहनेवाली प्रजा बड़े आदरके साथ उन्हें लगान देती थी, यदि प्रमाद वश कुछ भूल हो जाती थी तो उसका बहुत पश्चा- . साप करती थी, डरती-डरती आज्ञाका पालन करती थी, विनयपूर्वक गुरुजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करती थी, प्रतिज्ञापूर्वक सदाचारका पालन करनी थी, विचारपूर्वक कार्यका प्रारम्भ करती थी, उसके समस्त आचार सफल रहते थे, उसकी उत्तम चेष्टाएँ दूसरोंके प्रयोजनसे ३० सहित होती थी, और उसके उत्सवोंकी सब तैयारियाँ दान तथा प्रजासे सहित होती थीं। इन सब कार्योंसे सहित प्रजा उन्हें उपार्जनके क्लेदासे रहित धनसमूह, जन्ममें उपयोग न देनेवाले पिता, दिमकारसे रहित नेत्र, पालन-पोषणके खेदसे रहित पुन, मूर्तिधारी विश्वासके समान, पृथिवी-तलपर चलने-फिरनेवाले कल्पवृक्ष के समान अथवा अपने प्राणोंकी राशिके समान मानती थी।
६२६८. तदनन्तर शरीरधारी क्षात्रधर्म के समान जब सम्राट जीवन्धरस्वामी धर्म, १. म० वृत्तः । २. ग० अजननोपयुक्तम् । ३. के० ख० ग मातरं पितरम् ।
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गद्यचिन्तामणिः
[ ९६८ जीवंधरस्यसम्राजि, वत्स साम्राज्य समवलोकन सफलीकृतजीविता विविधविहितपूर्वोपकारि सर्वजन तृप्ति: पुनरतृप्तिकारिण्यविचारितरम्ये किंपाकफलप्रख्ये विषयसौख्ये विरक्ता सती विजयामहादेवी सस्नेहं सदयं साश्वासं सनिर्वन्धं सवैराग्यं सावश्यकं च समादिश्य काश्यपीपतिनापि कथंचिद. नुमतैव सुनन्दया समं सुतयोः स्नुषाणां पुरोकसां च सीदतां प्रात्राजीत् । प्रव्रज्यामनयोरुपश्रुत्य ५ तदाश्रमस्थानं राज्याश्रमगुरुरपि गुरुतर विषादविलमतिः सपदि समभ्येत्य समुद्वीक्ष्य दीक्षिते जनयित्रयो कर्तव्याभावादतिमात्रं विषीदन्मातृभ्यां विशिष्टं तत्संयमं विश्राणितवत्या श्रमणी श्रेष्ठ्या प्रपञ्चितेर्धर्मवचोभिः किचिदिवाश्वास्यमानः पुनः पुनः प्रगृह्य पादं प्रसवित्र्यो: 'अत्र नगर्या -
४००
अवति सति
साम्राज्यस्य पुत्राधिराज्यस्य को दर्शर्शनेन सफलीकृतं जीवितं यस्यास्तथाभूता, विविधं नैकप्रकारं यथा स्यात्सश्रा विहिता कृता पूर्वोपकारिणां सर्वजनानां निखिकनराणां तृतिया मा १० विजया महादेवी पुनरनन्तरम् तृप्तिं न करोतीत्येवंशीलेऽसृप्तिकारिणि अविचारितं सत् रम्यमिति अविचारितरम्यं तस्मिन् भपात मनोहरे किपाकककप्रख्ये महाकालफतुल्ये किंवा कस्तु महापाकफले मूर्खे च' इति त्रिश्वलोचनः, विषयसौख्यं पचेन्द्रिय विषय शर्माणि त्रिरता गतानुरागा सती सस्नेहं सानुरागं सदयं सानुकम्पं साइत्रासं समान्तवनम् सनिर्वन्धं सामिरुचि, सवैराग्यं वैराग्यसहितं सावश्यकं व आवश्यकसहितं च समादिश्य समुपदिश्य काश्यपीपतिनापि राझा जीवंधरेणापि कथंचित् केनापि प्रकारेण अनुमतेन भाषां १५ प्राप्तैव सुनन्दा गन्धस्कटपल्या समं सार्धं सुतयोः जीवंधरनन्दाययोः स्नुषाणां पुत्रवधूनां पुरोकसां च नागरिकाणां च सीदतां दुःखीभवतां सतां ' षष्टी चानादरे' इति षष्ठी प्रावाजीत् संन्यस्तवती । अनयो: विजयासुनन्दयोः प्रत्रभ्यां दीक्षाम् उपश्रुश्य समाकर्ण्य गुरुतरविषादेन विशालखेदेन चिह्नला दुःखिता मतिर्यस्य तथाभूतो राज्यमेवाश्रम राज्याश्रम गुरुरपि जीवधी क्योकिं जयानन्ययोराश्रमस्थानं तपोवनं सपदि शीघ्रं समभ्येत्य गवा दीक्षा संजाता ययोस्तथाभूतं दीक्षिते जनयिष्यों मातरां समुद्रीय दृष्ट्वा २० कर्तव्यामात्रात् उपायाभावात् अतिभानं प्रभूततरं विषीदन् विषण्णो भवन् मातृभ्यां जननीभ्यां सम्प्रदाने ! चतुर्थी विशिष्ट साधारणं तत्संयमं तद्योग्य संयमम् आर्यिकामतमित्यर्थः विश्राणितवत्या दत्तवत्या श्रमणीषु साध्वी श्रेष्ठा तया श्रमणीश्रेष्ट्या प्रपक्षितैविस्तारितः धर्मवचोभिः धर्मपूर्णवचनैः किंचिदिव मनागिन आश्वास्यमानः संबोध्यमानः पुनः पुनर्भूयोभूयः प्रसविध्योः श्रेष्ठभानोः पादं चरणं प्रगृप वन्दित्वेत्यर्थः
धन और सुखपूर्वक पृथिवीतलकी रक्षा कर रहे थे तब पुत्रका साम्राज्य देखनेसे जिसका २५ जीवन सफल हो गया था, पहले उपकार करनेवाले समस्त लोगोंको जिसने नाना प्रकार से
आफत सन्तोष उत्पन्न कराया था, और अतृप्तिकारी, अविचारित रम्य, तथा किपाकफल तुल्य विपय सम्बन्धी सुखमें जो विरक्त हो रही थी ऐसी विजया महादेवी स्नेह, दया, आश्वासन, दृढ़ता वैराग्य और आवश्यकके साथ अच्छी तरह आदेश दे किसी तरह राजा जीबन्धर के द्वारा अनुमति प्राप्त कर सुनन्दा के साथ-साथ दीक्षित हो गयी। यद्यपि दीक्षा के समय दोनों पुत्र, ३० स पुत्रवधुएँ और नगरवासी लोग दुःखी हो रहे थे तथापि उसने उनकी अपेक्षा नहीं की । राज्याश्रम के गुरु जीवन्धरस्वामीने ज्योंही इन दोनोंकी दीक्षाका समाचार सुना त्योंही अत्यधिक विपाद विचित्त होकर वे उनके आश्रम में पहुँचे। वहाँ दीक्षा धारण करनेवाली दोनों माताओंको देखकर ये अधिक विपाद करने लगे। वहाँ दोनों माताओंके लिए विशिष्ट संयम प्रदान करनेवाली गणितीने अपने द्वारा प्रपश्चित धर्मके वचनोंसे उन्हें उपदेश दिया ३५ जिससे कुछ-कुछ सान्त्वनाको प्राप्त होकर उन्होंने माताओंके बार-बार चरण हुए और यह
१. क० ० ० 'च' नाहित ।
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-मानुः संयमधारणवृत्तान्तः] एकादशो कम्मः
४.1 मासिका कर्तव्यो । न च स्मर्तव्यान्यत्र यात्रा' इति ययाचे । ताभ्यां च तदीयप्रश्रयबलेन 'तथा' इति प्रतिश्रुते, विश्रुतवीर्यः स विश्वंभरापतिरम्बावियोगादम्बकविहीन इत्र दोनवृत्तिः प्रतिनिवर्त्य सप्रणाम निवृत्त्याश्रमानिनावसथमशिनियत् ।
२६६. तदनु कालपाकेन स्वपाकेन शान्तस्त्रान्तरुजः कान्ताभिरमा निर्विशतस्त्रिदशाहनौख्यं त्रिशत्संवत्सरसंमिते समये समतिक्रान्ते, क्रमादात्मजेष्वप्यात्मनिविशेषेषु कलागुणैः कवच- ५ हरतां निविशमानेषु, कदाचिनितान्तक्षीबवसन्तबन्धुर्वसन्तसमयावतारः समधुक्षयदस्य जलक्रीडोद्योगम् ।
२७०. अनन्तरमानायिभिः संशोधितां स्फटिकतुलितपयःपूरां स्फुटितारविन्दवृन्दनिष्य........................ . 'अत्र नगया राजपुर्याम् मासिका निवासः कर्तण्या विधातव्या । अन्यन्न नगर्या यात्रा न च स्मर्तच्या' इति ययाचे । ताभ्यां च तदीयप्रश्रश्यलेन तदीयविनय बलेन 'तथा' इति प्रतिश्रुते प्रतिज्ञाते सति विश्रुतं प्रसिद्ध १० बीय यस्य तथाभन: स विश्वभरापति पतिः सम्भावियोगात मातविरहात भम्बकविहीन इब नेत्ररहित इव दीनवृत्तिः सन् सप्र गाम सनमस्कारं प्रतिनिवर्त्य प्रत्यावर्य ते इति शेषः आश्रमासपोवनात् निवृस्य प्रत्यावृश्य निजावसधै स्वदनम् अशिश्रियत् ।
६२६९. तदन्विति तदनु सदनन्तरं कालपान समयपाकेन च समये म्यतीते सति स्वोपयोगस्य परिवर्तनाचेत्यर्थः शान्ता स्वान्तरुक् मनोव्यथा यस्य तथाभूतस्य कान्तामिः प्रियाभिः अमा साकं १५ त्रिदशाईसौख्यं देवोचितसुखं निर्विशतो भुन्जानस्य अस्य राज्ञः त्रिंशत्संवत्सरसंमिते विशवर्षप्रमिते समये. ऽनेह सि समतिकान्ते न्यपगते सति, क्रमात् आत्मनि विशेषु स्वतुल्ये पु आस्मजेषु पुश्रेष्वपि कलागुणेः कला एवं गुणास्तैश्चातुरीगुणैः कवचहरता कवचधारणयोग्यावस्थां निविशमानेषु प्रतिपनेषु कदाचिनातुश्चित् नितान्तमत्यन्त क्षीयो मतो वसन्तबन्धुर्मदनो यस्मिन् तधाभूतो वसन्तसमयावतारः ऋतुराजप्रारम्भः जलकी डोद्योगं जलकेलिप्रयत्नं समधुक्षयत् वर्धयामास ।
६२७०. अनन्तरमिति-अनन्तरं तदनु भानायिभिर्जामधारयः संशोधितां निर्जन्तूकृताम् साल स्फटिकतुलित: स्फटिकसदृश: पयःपूरो यस्यास्तां, स्फुटितानि विकसितानि यान्यरविदानि तेषां वृन्दर
याचना की कि 'इसी नगरी में आपको रहना चाहिए । अन्यत्र जानेका स्मरण भी नहीं करना चाहिए । उनके विनयबलसे माताओंने 'तथास्तु' कहकर जब वहीं रहना स्वीकृत कर लिया तब प्रसिद्ध पराक्रमके धारक जीवन्धर स्वामी माताओंके वियोगसे नेत्ररहित के समान दीन• २५ . वृत्ति हो प्रणामपूर्वक आश्रमसे लौटकर अपने घर आये।
६२६९. तदनन्तर समय के परिमाणसे जिनके हृदयकी पीड़ा स्वयं ही शान्त हो गयी थी ऐसे जीवन्धर स्वामीके स्त्रियों के साथ देवों के योग्य सुखका उपभोग करते हुए जब तीस वर्ष प्रमाण समय निकल गया और क्रम-क्रमसे कला तथा गुणों के द्वारा अपनी समानताको धारण करनेवाले उनके पुत्र जव कवच धारण करने के योग्य अवस्थाको प्राप्त हो गये तब किसी समय ३० अत्यन्त उन्मादको प्राप्त हुए कामसे युक्त वसन्त ऋतुके प्रारम्भने इनकी जलक्रीड़ाके उद्योगको उत्तेजित किया ।
६२७०. तत्पश्चात् जालको धारण करनेवाले धीबरोंने जिसे शुद्ध किया था-हिंसक जल-जन्तुओंसे रहित किया था, जिसके जलका प्रवाह स्फटिकके तुल्य था, जो खिले हुए
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यद्यचिन्तामणिः
[ २७० जीवंधरस्यन्दिमधुबिन्दुसंदोहचन्द्रकिताममलस्फटिकशिलाघटितसोपानां प्लवमानराजहंसफेनिलतरङ्गां कूजत्कारण्डवमिथुनाधिष्ठितकूलकेतकीकुसुमधूलिधूसरपुलिनामनिभृतमीनाहतोत्पलगर्भप्रतिवद्धषट्पदझंकृतमुखरामुपरितटोद्यानवाटिकागूढां क्रीडासरसीं समदशकुन्तकुल कृजितैरिवाभिहितालोकशब्दः
समवगाहमानमा नीजिकरकारफालारमारगामिलहरीप्रवाहेणेब प्रतिगृह्यमाणः समवगाह्य वन५ करीव करिणीभिः करभोरभिरुपलक्षितः क्षालिताङ्गरागसंपर्व सवुकुमसलिलं सादुकूलादलेपस्पष्ट
दृश्योषिदवयवाकृष्यमाणात्मलोचनं सुलोचनालोवनकुचसारूप्यसाक्षाल्लक्षणसंभावनीयविकचमुकुल.
रसमूहानिध्यन्दिनी ये मथुबिन्दवो मकरन्दशीकरास्तेषां संदोहेन चन्द्रकितां व्याप्ताम, अमलामिनिर्मलाभिः स्फटिकशिलाभिः श्वेताभदृषद्भिः घटितानि रचितानि सोपानानि श्रेणयो यस्यास्ताम , प्लवमानस्तरद्धी
राजहंस: फेनिलाः सफेना तरङ्गा मङ्गा यस्यास्ताम, कूजन शब्दायमानं यकारण्डव मिथुन पक्षिविशेषयुगलं १० तेनाधिष्ठिता युक्ता या कूल केतकी तटकेतकी तस्याः कुसुमधूल्या पुष्पपरागेण धूसरः पुलिनः सैकतं यस्यास्ताम्
'तोयोस्थितं तत्पुलिनं सैकतं सिकतामयम्' इत्यमरः, अनिभृताश्चपला ये मीना मत्स्यास्त राहतानां ताडितानामुत्पलानां नीलकमलान गर्ने मध्ये बद्धा सुद्धा ये षट्पदा भ्रमरास्तेषां प्रकृतन गुन्जनरवेण मुखर शब्दायमानाम्, उपरि उपरिस्थितामिः तटोयान वाटिकामिः तीरोपवनवनीमिदा तिरोहिता ताम् क्रीडासरसी
केकिकासारम् 'कासारः सरसी सरः' इत्यमरः, सनदाः सदा ये शकुन्ताः खगास्तेषां कुलस्य कूजितरव्यक१५ पक्षिध्वनिभिः अभिहित: समुच्चरित आलोकशब्दो जयजयशब्दो यस्य तथाभूतः, समवगाहमानानां
प्रविशन्तीना मानिनीनां नारीणां निकरस्य समूहस्य करास्फालनरयेण हस्तास्फालनवेगेन तोरगामिन्यस्तटोपसगियो या लहयस्तरङ्गास्तासां प्रवाहण प्रतिगृह्यमाण इव अग्रमागस्य सस्क्रियमाण इव समवगाहा प्रविश्य करिणीभिरुपल सितो वनकरीव बनगज इव करभोरुभिः सुन्दरीभिरुपलक्षितो युक्तः सन्
मालितो धौतो योऽङ्गरागो विलेपनं तस्य संपर्केण संसगण सकुकुम सकाश्मीर सलिलं यस्मिन् कर्मणि २० तद्यथा स्यात्तथा, सास्य जलक्लिनस्थ दुकूलस्य क्षौमस्याइलेषेण स्पष्टं यथा स्यात्तथा दृष्टा विलोकिता ये
योषिता स्त्रीणाम् अवयवाः पीनस्तननितम्पादयस्तैराकृष्यमाणे हठातीयमाने आत्मलोचने यस्मिन् कर्मणि तद्यथा स्यात्तथा, सुलोचनानां वरकमानां लोचन कुचस्य नयनवशोजस्य यत् सारूप्यं सादृश्यं तस्य
-. - - -.- - - कमल-समूहसे झरनेवाली मधुबिन्दुओंके समूहसे चन्द्रकित थी-चन्द्रकाकार छपकोंसे युक्त
थी, निमल स्फटिककी शिलाओंसे जिसकी सीढ़ियाँ बनी हुई थी, जिसकी लहरें तैरते हुए राज२५ हसासे फेन युक्त हो रही थीं, शब्द करनेवाले कारण्डव पक्षियोंके युगलसे अधिष्ठिन तटवर्ती
केतकीके फूलोंकी परागसे जिसका तट मटमैला हो रहा था, चपलतापूर्वक मछलियोंके द्वारा ताडित नील कमलके भीतर रुके हुए भ्रमरोंकी झंकारसे जो शायमान हो रही थी तथा जो ऊपर तटपर स्थित बाग-बगियोंसे छिपी हुई थी ऐसी क्रीडा-सरसीमें प्रवेश कर उन्होंने अत्य
धिक क्रीड़ा की। क्रीडा-सरसा में प्रवेश करते समय जो वहाँ मदोन्मत्त पक्षियोंके समूह शब्द ३० कर रहे थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो जीवन्धर स्वामीका जय-जय शब्द ही उच्चरित
हो रहा था। प्रवेश करनेवाले स्त्रीसमूह के हाथोंके आस्फालनसे उत्पन्न वेगसे तटपर जो तरंगोंका प्रवाह आ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो तरंगोंका वह प्रवाह उनकी अगवानो ही कर रहा हो । जिस प्रकार जंगलका हाथी जंगलकी हधिनियों के साथ किसी
सरोवरमें प्रवेश करता है उसी प्रकार उन्होंने भी करभ-कलाईसे लेकर झिंगुरी तक हाथकी ३१ बाह्य कोरके समान सुन्दर जाँघोंवाली स्त्रियों के साथ उस क्रीड़ा-सरसी में प्रवेश किया। क्रोडा
के समय धुले हुए अंगरागके सम्पर्क से उस सरसीका पानी केशरसे सहित जैसा हो गया था। गीले वस्त्र के चिपक जाने के कारण स्पष्ट रूपसे दिखाई देनेवाले स्त्रियोंके अवयवोंसे उनके
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- जलक्रीडावर्णनम् ]
एकादशो कम्मः नलिनमलकानविगलदम्बुबिन्दुसंदोहसंदेहकरहारमुक्तमुक्तानिकर करविलुलितसलिलप्लवमानबिसवलयरचितचन्द्रशकलशङ्क जडसंनिधिसंजातवाग्यतवृत्तिकताविभाव्यमानसुजनकृत्यरशनाकलाप दतिमुखसिच्यमानकुङ्कुंमपङ्कसंपर्कसंभाव्यमानसिन्दुरितकुम्भिकुम्भसाम्यकुचकुम्भं च भृशमक्रीडत् ।
२७१. क्रोडावसाने च बलवदनिलचलकिसलयसमुल्लासिवेल्लल्लतालास्यलालितेऽभिनवपरागपटलस्विन्न'नागमञ्जुमरीजालजल्पाकमधुकरनिकरझंकारमुख रे गाङ्गजल इव पृथुल- ५
साक्षात् लक्षणेन दर्शनेन संभावनीयानि सत्करणीयानि विकचमुकुलनलिनानि प्रफुल्ल कुदमककमलानि यस्मिन् कर्मगि यथा स्थात्रया, अलकाग्रेभ्यः कुन्तलाग्रभागभ्यो विगलन्तो येऽम्युबिन्दुसंदोहा जलबिन्दुसमूहास्तेषां संदेह करा ये हारा मौक्तिकयट्यस्तेभ्यो मुनाः पतिता मुनानिकरा मुक्ताफलसमूहा यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्यात्नया, करैहस्तैविलुलितमालोडिन यासलिलं जलं तस्मिन् प्लवमानस्तरद्भिविसवलम्रपालकटकै रचिता का जनशकला माशिवानी जा सस्मिन् नार्मणि तद् यथा स्यात्तथा, जडस्य मुखस्व पक्षे १० जलस्य संनिधौ समीपे संजाता समुत्पना या वाग्मतवृत्तिकता मौन वृत्तिस्तया विमान्यमानं प्रतीयमानं सुजन कृत्यं साधुकस्यं यस्य तथाभूतो रशनाकलापो मंखलाकलापो यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्याप्तथा, जडसंनिशने यथा सुजनो मौनं श्रयते तथा जलसंनिवाने मेखला कलापोऽपि मौनं श्रितवान् एतलक्षणेन तस्य सुजनकृत्यत्वं प्रतीयत इति मायः, इतिमुखेन जलयन्त्रमुग्न सिच्यमानो यः कुङ्कुमपङ्कः काश्मीरदवस्तस्य संपण संभाव्यमानं समनुमीयमानं सिन्दुरितकुम्भिकुम्भसाम्यं सिन्दूरयुकगगण्डसादृश्यं १५ येषां तथाभूताः कुव कुमाः स्तनकशा यस्मिन् कर्मणि तद् यथा स्यात्तथा व भृशमत्यन्तम् भनीइन् ।
२७१, क्रीडासान इति-क्रीडावसाने च जललिबिरामं च बळवता प्रचण्डेन भनिन पवनेन चल किसलयैः चञ्चलपल्लवैः समुल्लासिन्यो विशोभिन्यो या वेल्ललता: चलदल्लयस्तासां लास्येन नृत्येन लालिते शोभिते, अभिनवपरागपटलेन नूतनरजोराशिना स्विम्ना क्लिन्ना याः पुनागमनुमजयः नागकेसरमनोहरमजस्तासां जालेन समूहेन जल्पाका गुञ्जनरवं कुर्वाणा ये मधुकरनिकरा भ्रमरसमूहा- २०
लोचन आकर्षित हो रहे थे। स्त्रियांके नेत्र और स्तनोंकी सदृशताका साक्षात् दर्शन होनेसे उसमें खिले तथा कुड़मलित कमलोंके प्रति आदर प्रकट किया जा रहा था। केशोंके अप्रभागसे झरनेवाली जल-बिन्दुओंके समूहका सन्देह उत्पन्न करनेवाले हारसे मोतियोंका समूह उस समय टूट-टूटकर नीचे गिर रहा था। हाथके द्वारा विलोये हुए पानी में तैरनेवाले मृणालक चूडासे उसमें चन्द्रमाके स्वण्डकी शंका उत्पन्न हो रही थी। जड-जल ( पक्ष में मूर्ख जन ) के २५ संनिधानसे उत्पन्न मौन वृत्ति के कारण उस समय मेखला-समूह की सज्जनता प्रकट हो रही थी। भावार्थ-जिम प्रकार मूर्ख जनके समीप सज्जन मनुष्य मौन रह जाते हैं उसी प्रकार जलके सम्पर्क से मेखलाएँ मौन रह गयी धों-उनका रुनझुन शब्द बन्द हो गया था। तथा स्त्रियों के स्तनोंपर लगा हुआ केशरका पंक महाकके अग्रभागसे सींचा जा रहा था । उससे उनके स्तनकलशों की तुलना सिन्दूरसे युक्त हाथियोंके गण्डस्थल के साथ प्रकट हो रही थी। ३०
६२७१. जलक्रीड़ाके बाद जो तीत्र वायुसे हिलते हुए पल्लवोंसे सुशोभित थिरकती हुई लताओंके नृत्यसे सुन्दर था, नूतन परागकी पटलसे युक्त पुंनाग वृक्षों की सुन्दर मंजरियोंके समूहपर गुंजार करनेवाले मर-समूहकी झंकारसे शब्दायमान था, जो गंगाके जलके
१. म. कुङ्कम गम्पर्क। २. गाम्भीयंजल इव ।
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गयचिन्तामणिः
[२७१ उद्याने - हरिसनाथे, पचेलिम कलमशालिक्षेत्र इव बहुलवनमाले, अङ्गनाङ्ग इव मृदुलपनसबहुमाने, सनीडवर्तिनि मयंदुरासदसुमनोमनोहरानोकहनियिडे क्वचिदाक्रीडे क्रीडाक्लमहरणाय विहरमाणः स धरित्रीपतिः क्वापि कोणे कौतुकविधायिकापेयविलोकनाय विलोचने व्यापारयामास ।
२७२. तत्र चातिसंधानकोविदः कोऽपि कपिरास्यस्त्रोसंगमावलोकनेन मन्युग्रस्तां मर्कटी ५ 'अवितक: को नाम निसर्गमुन्ट रीमनादत्य त्वागन्या बहमन्येत' इति प्रियवचःसहस रपि प्रकृति
मानेतुमपारयन्पारवश्यनटनेन ‘पश्य मां प्रिये, परासुरहं भवामि' इति परिवर्तितेक्षणः क्षणादेव क्षिती क्षीणासुरिव पपात । बराको तु सा वानरी वञ्चनावृतं मरणमञ्जसेति स्त्रीत्वसुलभाच्चा
स्तेषां शङ्कारेण मुखर शब्दायमाने, गङ्गाया इदं गाङ्ग तच्च तज्जलं चेति गाजलं तस्मिनिव पृथुलहरि
सनाथे पृथुकहरिभिः स्थूलतरङ्गः सनाथे सहिते पक्षे पृथुलाः स्थूला मांसला ये हरयो वानरास्तैः सनाथे १० सहि ते, १चेलिमाः पातुं योग्या ये कलमशालय षाष्टिकधान्यानि तेषां क्षेत्र इब केदार इव बहवोऽधिका
लश्नानां लबतकतृणां मालाः श्रेगयो यस्मिस्तस्मिन् पक्षे बहुला अधिका वनमालाः काननश्रेणयो यस्मिस्तस्मिन् , अङ्गनाङ्ग इव सीमन्तिमोशरीर इत्र मृदुलपन कोमल मुखेन कोमकभाषणेन वा सबहुमाने सस्मिन् , सनीलवतिनि निकटवसिनि, मागां मनुष्याणां दुरासदानि दुर्लमानि यानि सुमनांसि पुधाणि
तैर्मनोहरा रमणीया येऽनोकहा वृक्षास्तनिबिड सान्द्रे क्वचित् कस्मिन्नपि :क्रीडे-उद्याने क्रीजालमस्य १५ जलकेलिपरिश्रमस्य हरणाय दूरीकरणाय बिहरमाणो भ्रमन् स धरित्रीपतिः भूपतिः वापि कस्मिन्नपि
कोणे कौतुकविधायि कुतूहलविधायकं यत् कापेयं कपिचेष्टितं सस्य विलोकनाय दर्शनाय विलोचने न्यापारयामास घळयामास ।
६२७२. तत्रेति-तत्र चाक्रीई अतिसंधाने प्रतारणे कोविदो निपुणः कोऽपि कपिर्वानरः अन्यस्त्रियाऽपरकामिन्याः संगमस्य संसर्गस्यावलोकनेन मन्युप्रस्तां कोपकरिता मर्कटीं वानरी 'भवितको विमर्श२० शून्यः को नाम जनो निसर्गसुन्दरी प्रतिकमनीयां स्वाम् भनारस्य भन्यां स्त्रियं बहुमन्यत श्रेष्टां मन्येत ?
अपि तु न कोऽरीत्यर्थः । इति प्रियवचःसहस्त्रैरपि भनेक प्रियवचनैरपि प्रकृति स्वस्थताम् भानेतुं प्रापयितुम् अपारने असमाँ भवन् पारवश्यस्य पारतम्यस्य नटनमभिनयस्तेन 'पश्य मां प्रिये ! परागता असवः प्रागाः यस्य तथाभूत: परासुमंतोऽहं भवामि' इति प्रदश्यति शेषः परिवर्तिते घृणित ईक्षणे येन तथाभूतः सन् क्षणादेवाचिरमेव क्षीणासुरिव मृत इच क्षितौ पृथिव्यां पपात । बराकी दयनीया तु सा वानरी वचनाकृतं प्रतारणाविहितं मरणं मृत्युम् भञ्जमा यथाथम् इति स्त्रीत्वसुलभचापल्याललनाजनोचितचापल्यात् समान पृथुल-हरि-सनाथ-बड़ी-बड़ी लहरोंसे सहित था ( पक्षमें पृथुर-हरि-सनाथ-बहुत स्थल बन्दगेंसे सहित था)। पके हए धानके खेतके समान बहलवनमाल-अनेक काटनेबालों के समूहसे युक्त था । ( पक्ष में बहुत बड़े-बड़े वनकी पंक्तियोंसे युक्त था)। स्त्रीके शरीर के समान मृदुलपन सबहुमान-कोमल मुख के कारण अत्यधिक आदरसे युक्त था ( पक्ष में कोमल कटहलके वृक्षोंके कारण बहुमानसे सहित था)। निकटवर्ती था और मनुष्योंके लिए दुर्लभ फूलोंसे मनोहर वृक्षोंसे सान्द्र था ऐसे किसी उद्यान में क्रीडाजन्य थकावटको दूर करने के लिए विहार करते हुए राजा जीवन्धरने किसी कोने में कौतुक करनेवाले बन्दरोंकी चेष्टा देखने के लिए अपने दोनों नेत्र व्याप्त किये। उल
२७२. वहाँ उन्होंने देखा कि मेले करने में अत्यन्त निपुण एक वानर, अन्य स्त्रीके साथ ३५ समागमके देखने से कुपित वानरीको 'ऐसा कौन अविचारी होगा जो तुझ स्वभाव सुन्दरीका
अनादर कर अन्य स्त्रीको बहुत मानेगा' इस प्रकार के हजारों प्रिय वचनों के द्वारा भी प्रकृतिस्थ करने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा है । अन्त में जब वह समर्थ नहीं हो सका तब परवानाका
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-मसफलवृत्तान्त:]
एकादशो सम्मः
४०५
पल्याद्विश्वस्य मावेन दोघं निःश्वस्य 'हा नाथ, हतास्मि पापाहम्' इत्यालप्य सत्वरमेनं हरि धरातलादुत्क्षिप्य करतले गृह्णतो चात्मानं 'कुट्टिन्या मया पतिद्रोहः कुतः कारणात्कृतः' इति पुन: पुनः निन्दन्ती कृतगाढपरिष्वङ्गा पाणितलविकीर्यमाणपयःशीकरशीफरेण शिशिरोपचारेण चिराय जीवितेश्वरं जीवयामास । प्रियाङ्गपरिष्वङ्गेण प्रत्युज्जीवित इव प्रीणानः प्रतारणचतुरः स शाखामृगः शाखिशाखान्तरलम्बमानमम्बरव्यापिपाकसुलभसौरभरचितजिह्वाचापलं पनसफलमानोय ५ मुद्गफलानुकारिभिः कराङ्गुलीभिर्दलयन्नात्मदयिताय तस्ये ददो। तदवसरे तत्र नियुक्तो नातिबाल: कोऽपि वनपाल: पलायमिथुनमिदं फलमेतदपजहार ।
Pe
विश्वस्य विश्वासं कृत्वा भावेन हृदयेन दीर्घमायत निःश्वस्य हा नाथ ! पापा पापवती अहं हतास्मि
तास्मि' इति आलप्य सत्वरं शीघ्रम एनं हरिबानरम धरातकाप्रथिवीतलात उक्षिप्य-उत्थाप्य करसले पाणितले गृहती आत्मानं च स्वं च 'मया कुट्टिन्या पतिद्रोहः कुतः कारणात् कृतः' इति पुनःपुनभूयो १० भूयो निन्दन्ती कृतो विहितो गाढः परिष्वङ्गः परिरम्भो यया तथाभूता 'परीरम्मः परिष्वङ्गः संश्लेष उपगृहनम्' इत्यतरः, पाणितलेन हस्ततलेन विकीर्यमाणा: प्रक्षिप्यमाणा ये पयः कस जलबिन्दवस्तैः शफिरोऽतिशीतस्तेन शिशिरोपचारेण शीतलोपचारेण चिराय दीर्घकालेन जीवितेश्वरं बल्लभ जीवयामास संशित चकार । मिया या वल्लमाया अङ्गस्य परिवङ्गेण संश्लेषण प्रयुजीवित इव पुनर्जीवित इव प्रीणानः संतुष्यन् प्रतारणचनुरः कपटपटुः स शाखामृगो वानरः शासिनो वृक्षस्य शारखान्तरं शाखामध्ये लम्बमान संसमानम् , १५ अम्बरच्यापिना गगनच्यापिना पाकसुलभसारमेण परिणानसुलझसौगन्ध्येन रचितं विहितं जिह्वाया रसनायाश्चापलं सतृपगत्वं येन तथाभूतं पनसफलं कटकिफ फलम् भानीय समाहृत्य मुद्गस्य फलमनुकुवन्त्येवं शीलास्ताभिः कराङ्गलीमिहलालाभिः दल यन् खण्डयन तस्यै पूर्वोक्तायै भास्मदयिताये स्वप्रियायै ददौ । तदवसरे तत्काले तनाकोडे नियुनः प्राप्तनियोगो नातियाकः प्रोड इव कोऽपि वनपाको वनरक्षक इदं मिथुनं दम्पती पलाययन् विद्रावरन् एतत् पनसफकम् अपजहार ।। अभिनय करता हुआ बोला कि 'हे प्रिये ! मुझे देखो, मैं मर रहा हूँ' यह कहकर उसने आँखें फेर दी और क्षण-भर में ही वह मृतककी तरह पृथिवीपर गिर पड़ा। बेचारी वानरीने उस मायाकृत बनावदी मरगको सचमुचका मरण समझ लिया और वह स्त्रीपर्यायमें सुलभ चपलताके कारण लम्बी साँस भरकर कहने लगी कि 'हाय नाथ ! मैं पापिनी मर गयी। उसने शीघ्र ही इस बानरको पृथिवीतलसे उठाकर अपने हाथमें लिया और 'मुझ कुट्टिनीने पति द्रोह २५ किस कारण किया ?' इस प्रकार कह बार-बार अपनी निन्दा करने लगी। अन्त में वह गाढालिंगन कर हस्ततलसे बिखेरे हुए जलके छोटोंसे शीतल शिशिरोपचारसे बहुत देर वाद पतिको जीवित कर सकी । प्रियाके शरीर के आलिंगनसे फिरसे जीवित होते हुएके समान वह वानर बहुत प्रसन्न हुआ। अन्त में वह मायापटु वानर वृक्ष की शाखाओंके बीच लटकते एवं परिपाकसे सुलभ आकाशव्यापी सुगन्धिके कारण जिह्वाकी चपलताको उत्पन्न करनेवाले ३० कटहलके फलको तोड़कर लाया और मूंगकी फलियोंके समान आकारको धारण करनेवाली हाथकी अंगुलियोंसे विदीर्ण कर उसने वह फल अपनी प्रियाके लिए दिया। उस अवसरपर वहाँ नियुक्त किसी वनपालने जो अवस्थामें बिलकुल बालक. नहीं था अर्थात् बालक और यौवन के बीच की अवस्थाको धारण करनेवाला था, वानर-वानरियोंके इस युगलको भगाकर यह फल छीन लिया।
१. मद्गफलाकाराभिः ।
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गद्यचिन्तामणिः
[२०३ जीयंधरस्य२७३. तदेतदखिलमवलोक्य लोकोत्तरोन्नतचित्तः स जीवंधरमहाराजः सदयमना: 'जीवानामुदय एव न केवलं जीवितमपि बलवदधीनम् । दीनवृत्तिके मृगद्वन्द्वे संभवदिदं द्वन्द्व जातं किमेवं संभाव्यते । भवेऽस्मिन्नेवास्माभिर्भवभृतां वृत्तेरवस्थाविकलता किमनालोकिता ? आलोकिताप्येषा विभवदूषिकादूषितदृष्टीणां न खलु न! स्पष्टोभवति । कष्टमतः पूर्वमा चरितम् । सर्वथा काष्ठानारायते करशाखाभ्रष्टफलः शाखामृगः । अस्मद्यते नुनमाच्छोटितात्कल: स वनपाल: । फलं तु नियमेन भोगायते । गच्छतु तुच्छफलकाङ्क्षया कृच्छ्रायमाणेन मया गमित: काल: । सफलयेय पवशिष्टं वा विशिष्टतपसा । भोगेन हि भुज्यमानेन रज्यमानेनापि त्यज्यते जनः । तस्मादहमेव तावदैहिकभोगेपु मुह्यन्मनो जह्याम् । यावदमी माममी
६२७३. तदेतदिति-रादतदखिलं सर्व घटनाचक्रम अवलोक्य दृष्ट्वा लोकोत्तरं लोकश्रेष्ठमुन्नत१० चित्त मुदारहृदयं यस्य तथा भूनः स जीवंधरमहाराज: सदर्य मनो यस्य तथाभूतः सन् 'जीवानां प्राणिनाम्
उदयो वैभवमेव न केवलं जीवितमपि बलवतामधीनमायत्तमिति बलवदधीनम। दीनवृत्ति कातरवत्तियके मृगद्वन्द्व वनजन्नुयुगळे संभवत् इदं द्वन्द्वजातं दुःखजातम् एवमनेन प्रकारेण किं कथम् संभाब्यते ? अस्मिन्नेव भवे पर्याय:माभिभवमृतां जीवानां वृत्तरवस्था विकलता अस्थिरता किम भनालोकिता नो दृष्ट!
भालोकित पि दृष्टापि एषा वृत्तेस्थिरता विमत्र एवं दृषिका नेत्रमलं तया दूषिता दृष्टियेषां तेषां नोऽस्माकं २५ खलु निश्चयेन न स्पष्टोमवति । अतोऽस्मात्पूर्वम् आचरितं विषयेषु प्रवर्तनं कष्टं दुःखरूपम्। करशाखा
पोऽगुतिभ्यो भ्रष्टं फलं यस्य तथाभूतोऽसौ शाखामृगो मर्कटः सर्वथा सर्वप्रकारेण काष्टाकार इवाचरतीति झाष्टाङ्गारयते यथा शाखामृगस्य हस्तात्फलं भ्रष्टं तथा काष्टाङ्गारस्य हस्तादाज्यं भ्रष्टम् इति भावः। नूनम् निश्चयेन आच्छोत्रितं तत्फलं येन तयाभूतः स धनपालोऽस्मद्यते अहमिवाचरति । यथा मया काष्टाङ्गारस्य
राज्यमाच्छोटितं तया बनपालेनापि शाखामृगस्य फलमाच्छोटितम इति भावः । फलं तु पनसफलं तु निय. २० मन नियोगेन भोगायत भांग इवाचरति यथा फलं नई तथा भोगोऽपि नष्टो भवति । तुच्छस्य क्षुस्य फलस्य काङ्क्षया वान्छया कृच्छ्रायमाणेन कष्टमनुभवता मया गमितो ग्यतीत: कालो गच्छतु, तद्विचारेण किं साध्यमिति भावः। भवशिष्टं वा कालं विशिष्टतपसाऽसाधारणतपश्चरणेन सफलयेयम् सफलं कुर्याम् । हि यतो भुज्यमानेनानुभूयमानेन रज्यमानेनापि रागविषये गापि भोगेन पञ्चेन्द्रियविषयेण जनो लोकस्त्यज्यते ।
तस्माकारणास् अहमेव तावत् लावकालपर्यन्तम् ऐहिकभोगेषु एतलोकसंबन्धितभोगेषु मुमत् मनश्चेतो २५ जह्याम् त्यजेयम् । यावत् यावत् कालपर्यन्तम् ममी मोगा ममीमांसया अधिचारेण नूनं निश्चयेन अभि
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६२७३. यह सब देख लोकोत्तर उन्नत चित्तके धारक जीवन्धर महाराज दयालुचित्त हो विचार करने लगे कि 'न केवल जावोंका अभ्युदय ही बलवान् के अधीन है अपितु उनका जीवन भी बलवान् के अधीन हैं। दीन बृत्तिके धारक तियचों के इस युगलपर जो यह दुःख
का समूह संवदित हुआ है कि इसकी इस तरह सम्भावना थी । इस संसारमें हमने प्राणियोंकी ३० वृत्तिकी नश्वरता क्या नहीं देखी ? देखी भी है परन्तु वैभवरूपी नेत्रमलसे जिनकी दृष्टि
दूषित हो रही है ऐसे हमारे लिए बह स्पष्ट नहीं हो रही है । इसके पहले जो मैंने आचरण किया है वह अत्यन्त कष्टदायी है। जिसकी अंगुलियोंसे फल गिर गया है, ऐसा यह वानर सर्वथा काष्ठांगारके समान आचरण कर रहा है, फलको छीननेवाला वनपाल निश्चित ही
मेरे समान जान पड़ता है और यह फल नियमसे भोगोंके समान प्रतीत होता है। तुच्छ ३५ फलकी आकांक्षासे कष्ट उठाते हुए मैंने जो समय बिता दिया बह तो गया अब जो बाकी
बचा है उसे विशिष्ट तपके द्वारा सफल करना चाहिए। भोगे जानेवाले भोगके साथ कितना हो राग क्यों नहीं किया जाये परन्तु अन्त में वह भोग मनुष्यको छोड़ देता है इसलिए इस
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४०७
- विरक्तिवृत्तान्तः ]
एकादशी लम्भ:
मांसया नूनमभिलषन्तं हसन्त एवं जिहासन्ति । नियोगतश्चेद्भोगानां वियोगः स्वयं त्यागात्किमिति लोकोऽयं बिभेति ? किं च ते भजन्तमात्मानं त्यजन्तः स्वातन्त्र्यात्स्वान्तमस्य सुतरां तुदन्ति । स्वयं त्यक्तास्तु तानी मनःप्रसस्ये पुनर्मुक्तये च भोगा भवेयुः ।' इति भूयो व्यरज्यत ।
$ २७४ तथाविहितविचाराभोगं भोगाद्विरज्यन्तं योगे क्रममाणमेनं क्रमादर्ता कितदक्षि णाक्षिपन्देन किमुव्यमिति वितर्कविजृम्भित रणरण कविषोददन्तःकरणास्तदन्तःपुरसुन्दर्यः पर्यवारयन् । वैभवमहो वेराग्यस्य यती भोग्ये संनिहितेऽप्ययोग्य इवासीदस्पृहमस्य मनः । तत्त्वज्ञानविवेकतो विमलीकृतहृदया : कृतितिः खलु जगति दुष्करकर्मकारिणो भवन्ति, यस्मादमी
५
लन्तमिच्छन्तं मां हसन्त एवं जिहासन्ति दातुमिच्छन्ति मांगाना विषयाणां त्रियोगोऽभावो नियोगतो नियमेन चेद यदि तईि स्वयं स्वेच्छया त्यागात् अयं लोकः इतीत्थं किं विभेति भीतो भवति । किं च कथं च ते भोगा आत्मानं भजन्तं सेवमानं जनं स्यजन्तः स्वातन्त्र्यात् अस्य जनस्य स्वान्तं चित्तं सुतरामत्यन्तं १० किं सुदन्ति ? पीडयन्ति ? स्वयं स्वेच्छया व्यक्तास्तु भोगास्तदानी' त्यजनकाले मनःप्रसत्तये चेतः प्रसादाय पुनः पर्यायान्तरे व मुन्ये मोक्षाप मवेयुः स्युः' इतीष्यं भूयोऽत्यर्थम् व्यत्यत विरक्तोऽभूत् ।
६ २७४ तथेति तथा पूर्वकप्रकारेण विहितः कृतो विचारस्य वितर्कस्याभोगो विस्तारो पेन तथाभूतं मोगात्पञ्चन्द्रियविषयात् विरज्यन्तं विरक्रीभवन्तं योग ध्याने क्रममाणम् उयुञ्जानम् एवं स्वामिनम् क्रमात् अतर्कितमविसृष्टं यद् दक्षिणस्याक्ष्णः स्पन्दनं तेन स्त्रीणां दक्षिणाङ्गस्फुरणमहितं १५ भवतीति प्रसिद्धिः 'अयमेष विचारः क उदर्को यस्य तथाभूतः किंफलकः' इति वितर्केण विचारेण विजृम्भि यद् रणरणकमोत्कण्ठ्यं तेन विषद अन्तःकरणं मनो यासां ता अन्तःपुरसुन्दर्यो निशान्तनार्थः पर्यवारयन् परिवृत्य स्थिता बभूवुरिति भावः । अहो हृष्यन्यमाश्वर्यार्थ वैराग्यस्य वैभवं सामर्थ्यमाश्चर्यकरं वर्तत इति भावः यतो मोम्यं भोगयोग्यं वस्तुनि संनिहितेऽपि निकटस्थेऽपि अस्य स्वामिनो मनः अयोग्ये
व मोमन इत्र वस्तुनि अस्पृहमिच्छातीतम् आसीत् । तत्वज्ञानेति तत्वज्ञानमेव विवेकस्तस्मात् २० बिमलीकृतं निर्मलीकृतं हृदयं येषां तथाभूताः कृतिनः कुशला जनाः खलु निश्चयेन जगति लोके दुष्करकर्म
लोक सम्बन्धी भोगों में मोहित होते हुए मनको मुझे ही तबतक छोड़ देना चाहिए जबतक कि अविचार के कारण इच्छा करते हुए मेरी हँसी उड़ानेवाले ये भोग मुझे छोड़ना चाहते हैं । जब कि भोगोंका नियमसे वियोग होनेवाला है तब यह संसार स्वयं उनके त्यागसे क्यों डरता है ? यदि ये भोग अपने-आपकी सेवा करनेवाले मनुष्य को अपनी इच्छासे छोड़ते हैं २५ तो इसके चित्तको अत्यन्त दुःखी करते हैं और यदि भोग मनुष्य के द्वारा स्वयं छोड़े जाते हैं। तो उस समय वे उसके चित्तकी प्रसन्नता के लिए तथा मुक्तिके लिए कारण होते हैं । इस प्रकार विचार करते हुए जीवन्धर महाराज अत्यन्त विरक्त हो गये ।
७. तदनन्तर जिन्होंने उस प्रकारका विचार किया था, जो भोग से विरक्त हो रहे थे और योग धारण करनेके लिए जो व्यत हो रहे थे ऐसे जीवन्धर स्वामीको क्रम-क्रम से ३० आकर उनके अन्तःपुरकी स्त्रियोंने घेर लिया। उस समय उन स्त्रियोंको दाहिनी आँख अकस्मात् ही फड़कने लगी थी इसलिए 'इसका क्या परिणाम होगा' इस विचारसे बढ़ती हुई उत्कण्ठासे उनके हृदय विषादयुक्त हो रहे थे। आचार्य कहते हैं कि अहो ! वैराग्यक आश्चर्यकारी महिमा है क्योंकि भोगने योग्य पदार्थके निकट रहनेपर भी जीबन्धरस्वामीका मन उस तरह निःस्पृह हो गया जिस तरह कि किसी अयोग्य पदार्थ में रहता है। तत्त्वज्ञानके ३५ विवेकसे जिनके हृदय निर्मल हो गये हैं ऐसे भाग्यशाली कुशल मनुष्य ही संसार में दुष्कर
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गामिन्तामणिः
[ जीवंधरस्य - मनस्विनो मनोरथेनाप्यभावित्वादभूतत्वादननुभूभृयमानत्वाच्च वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्येव वस्तूनि परित्यक्तुमप्यपारयति लोके, तान्युपभोगभाज्येवाजसा मुञ्चन्ति । तथा हि-तत्पूर्वक्षणे ताः सुन्दरीनिरन्तरं निशामयितुमन्तरायभूतमात्माक्षिपक्षमक्षोभमप्यक्षममाणोऽयं राजर्षिर्न मष्यति स्म तदात्वे संनिधिमपि तासाम् । पुनरासीच्च महीपतेमहानुद्योगो योगोन्द्रमुखादुपश्रोतुं धर्मम् । आदिशच्च परजनम् 'जिनपूजां कल्पयितुमनल्पमुपकरणमनवद्यमानीयताम्' । इति ।
२७५, तावता संमुखागतर्मुखविकारविभाव्यमानविरक्तिपरिणाम; परिणतर्मविभिनियन्त्रणाशतेनाप्यनिवार्यमाणप्रयाणः प्रयाणदुन्दुभिमिषेगानिमेषाध्यक्षस्य यक्षस्याप्यात्मनिर्वेदं निवे
कठिनकृत्यं कुर्वन्तीत्यवंशीला भवन्ति । यस्मात्कारणात् अमी मनस्विनी विचारवन्तो जनाः मनोरथेनापि
बान्छामात्रेणापि अमावित्वात् अजनिष्यमाणस्यात् भभूतत्वाद् भजातस्थात् अननुभूयमानस्वाच्च अनुभवा१० गोचरत्वाच्च वान्छामात्रं मनोरथमात्रं परिग्रहो येषां ताति वस्तूनि अपि लोके जने परित्यक्तुं मोक्तुम्
अपारयति अशक्नुवति सति. उरभोगभामिज वर्तमानकाले उपमोगगोचरतां प्राप्तान्येव वस्तूनि अञ्जसा यथार्थ मुञ्चन्ति त्यजन्ति । तथा हि-तदेव स्पश्यति तस्मात्पुर्वक्षण इति तत्पूर्वक्षणे सद्विचारापूर्वकाले ताः पुरोचतमानाः सुन्दरील लना निरन्तरं सततं निशामयितुमवलोकयितुमन्तरायभूतं विघ्नस्वरूपम् अक्षिपश्मणां नयनलोमराजीनां क्षीममपि संचकनमपि अक्षममाणोऽसहमानोऽयं राजर्षिजीवंधरस्तदास्वे सस्मिन्
सुन्दरीणां संनिधिमपि संनिधानमपि न मप्यति स्मन शमते स्म । पुनरनन्तरं महीपते राज्ञो योगीन्द्रमुखात् मुनीन्द्रमुखारविन्दात् धर्म श्मस्वरूपम् उपश्रोतुं समाफर्णयितुं महान् प्रचुर उद्योगः प्रयास भासीच्च बभूव च । परिजनं परिकरलोकमादिशक्त निविदेश च 'जिन पूजां जिनार्ग कल्पयितुं विधातुम् अनल्पं भूयिष्टम् अनवचं निर्दुटम् उपकरणं सामग्री आनीयताम् भाद्वियताम्' इति ।
२०५. तावतेति–तावता सायकालेन संमुखागतैः पुरस्तादायातः मुखविकारेण विभाग्यमानी २० विचार्यमाणो विरक्तिपरिणामो यस्तैः परिणतवृद्धः मन्त्रिभिः सचिवैः नियन्त्रणाशतेनापि वाधशतेनारि
अनिवार्यमाणमनिषिध्यमानं प्रयाणं यस्य तथाभूतः प्रयाणस्य प्रस्थानस्य दुन्दुमयः ढक्कास्तेषां मिषेण व्याजेन अनिमेषाणां देवानामध्यक्षः स्वामी सस्य यक्षस्यापि मुदर्शन स्यापि आत्मनो निवेदस्तं स्वरैराग्यं
कठिन कार्य के करनेवाले होते हैं। जो वस्तुएँ कभी मनोर बसे भी नहीं हो सकतीं, जो पहले
कभी नहीं थी और जिनका कभी अनुभव भी नहीं किया था, केवल इच्छामात्रसे जिनका २५ परिग्रह था ऐसी वस्तुओंको भी जब संसार छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हो पाता तब ये
विचारवान मनुष्य उपभोगमें आनेवाली वस्तुओं को भी वास्तविकरूपसे छोड़ देते हैं। देखो न, इस समयसे पूर्वक्षणमें जो राजपि उन सुन्दरी स्त्रियोंको देखनेके लिए अन्तरायभूत नेत्रोंकी विरूनियों के संचारको भी सहन नहीं करता था वह अब उन स्त्रियों के सन्निधानको भी
सहन नहीं कर रहा है। तदनन्तर मुनिराजके मुखसे धर्मश्रवण करने के लिए महाराज ३० जीवन्धरका महान् उद्योग हुआ-उनके मनमें मुनिराज के मुखसे धर्मश्रवण करनेकी उत्कद
भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने परिजनों को यह आज्ञा भी दी कि जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने के लिए अत्यधिक निर्दोष उपकरण लाये जायें।
२७५. उसी समय मुखके विकारसे जिन्होंने विरक्तिके परिणाम निश्चित कर लिये थे ऐसे वृद्ध मन्त्रियोंने सामने आकर सैकड़ों मकार की नियन्त्रणाएँ बतलाकर उनके प्रयाणको ३५ रोकना चाहा पर रुक नहीं सका। प्रयाणके समय बजनेवाली दुन्दुभिके मिषसे वे देवोंके
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- विरक्तिवृत्तान्तः ]
एकादशो लम्भः दयन्निव निविष्णहृदये किंकृतविषय आसीत् । 'क्रीडानन्तरं पीडेयं प्रवृत्ता । किनिमितमेतद्विरक्तमस्य चित्तम् । कि मरमद्विषयमुतान्यनिष्पयं किंस्विदाकस्मिकम् । किमु स्वंतं किमुत दुरन्तम् । दुरन्ततामेव हि नः शुभेतरास्पिन्दः कन्दलयति' इति चिन्ताक्रान्तेन शुद्धान्तेन सममुद्यानान्नि. रयात् । अयाच्न यातयातनैस्तपोपने रब्युषितं मुषित भव्यलोकमोहव्यूहूं मोवोकृतदिनमभिमयूखैमणिभिनिमितं धमककुलभवनं जिभवनम् । अबुध्यत चात्मानम बद्धं कर्मभिः। अस्तात्रीच्यायमति- ५ तोपादपदापमात्मानं कर्तुं समर्थः स्तवैः प्रतितने कपदक्षिणक्रियाप्रणामपूर्वकपुष्पाञ्जलि: स्फान्य. परिणामशुद्धि दूरयन्तुकर्म गात्रं रोमासर ने सावधन्वागी गदग दयन्पागो मुलुलगभगवगतं परमेश्वरम्
निवेदशक्षित कय ग्रनिव निर्विगणहत्येन विरकचेसा किंजास्तुच्छता विषय पञ्चेन्द्रियभोगा यन तथा भून आसीत् । 'की डानन्तरं केल्याः पश्चात इयं पीडा वेदना प्रवृत्ता। अस्प स्वामिनः पुता चित्तं १० किनिमिस कन कारणेन बिरनम् । किमिति यिनः अस्य चितं कि दयं विषयो यस्य तयाभूतम् उताथवा अन्यविषयम् अन्यो विषयो यस्व तन् किंस्विद् अथवा आकस्मिकम् अकस्माद्भुतम् । किमु स्वन्तं सुलु अन्तो यस्य तन् यन्तं किमुत दुष्टोऽन्तो यस्य तद् दुरन्तम् । हि निश्चयेन शुभेतरोऽशुभश्वासावक्षिप्तदश्चेति शुभेत सक्षिपन्दो दक्षिणनेत्रस्पन्दनं नोऽम्मा दुरन्त गमेव दुष्परिणामतामेव कन्दल प्रति उत्पादयति' इति चिन्ताकान्तेन विचारप्रेणीमस्तेन शुद्धान्तेन अन्तरेण समं सार्धम् उद्यानात् निश्यात् निर्जगाम । १५ अयाच्चेति-श्रयाच्च जगाम च ग्राता गमा यातनाः सांगारिकवेदना येपां सेः तपोधनैरपि मुनिमिरपि अपु पितमधिष्ठिना, मुक्तिोऽपहलो भम्पन्होकानां भव्य जनानां मोहम्यूहो मिथ्यात्यसमूहा येन मत् मोचीकता व्यर्थीकता दिनननिमाया दिनकर का यौनगिमिनिर्मितं रचितं धमै रुकुलभवन धर्मका. यतनं जिनभवनं जिनमन्दिरम् । बारमानं स् कममिर्ज्ञानाबरणादिभिरष्टविधेः भयर रहितम् अवुध्यत च जानाति स्म च । अस्ताच्च स्तुति चकार च अयं जीपंधरः अतितोपान् उत्कटसंतोषात् आत्मानं स्वम् २० भपत्रोषं दोषरहितं कर्तुं विधातुं समय : स्तवैः प्रवतिता दत्ता नैकप्रदक्षिणाक्रियामणामपूर्वकं परिक्रमणकियानमस्कारपहिलं पुष्पाञ्जलयो येन तशामतः सन परिणामशुद्धि भावशुद्धिं स्कास्यन् वर्धयन् दुष्कर्म दुरितं दुरयन् . गावं शरीरं रोमाञ्चयन पुल कयन् , नेत्रे सावयन क्षस्यन्, वाणी वाचं गद्गदयन् गद्गदा कुर्वन् अधिपनि सुदर्शन यक्षको भी मानो अपने वैराग्यकी सूचना देना चाहते थे। इस तरह निर्वेदयुक्त हृदयसे वे विपयाँसे उदासीन हो गये । 'क्रीड़ाके बाद ही यह पाड़ा उत्पन्न हुई है। इनका २५ चित्त किस कारण विरक्त हुआ हैं ? क्या हम लोगोंके निमित्तसे या अन्य किसीके निमित्तसे अथवा अकम्मान किमी निमित्तके, धिना ही विरक्त हुआ है ? इसका परिणाम अच्छा होगा या युगा? हम लोगों की जो अशुभ आँख फड़क रही है वह तो बुरे परिणामको ही सूचित कर रही है। इस प्रकारको चिन्तासे आक्रान्त रियोंके साथ व उद्यानसे बाहर निकले । और उस जिनमन्दिर में पहुँचे जो सांसारिक यातनाओंसे रहित मुनियोंसे अधिष्ठित था, ३० जिसने भव्य जीवों के मोह के समृहको अपहत कर लिया था, जो सूर्य की किरणोंको व्यर्थ करनेवाले मणियोंसे निर्मित था एवं जो धर्मका अद्वितीय कुलभवन था । मन्दिर में पहुँचते ही वे अपने-आपको काँसे अबद्ध समझने लगे और अत्यधिक सन्तोपसे अपने-आपको निर्दोष करने में समर्थ स्तधनोंसे जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करने लगे। वे स्तवनके समय अनेक प्रदक्षिणाएँ देकर तथा प्रणाम कर फूलों की अंजलियाँ समर्पित कर रहे थे। परिणामोंकी ३५
१. क.म० ग. चिरक्तस्य चिनम् ।
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गद्यचिन्तामणिः
[२७६ जीवंधरस्य - ६२७६. 'यदध्रिपद्मप्रणतो प्रवीणा न कुर्वते जातु नति परेषु ।
अपारभूमानमनन्यतुल्यं श्रीवर्धमानं शिरसा नमामि ॥ २७७. यदीयपादाम्बुरुहस्तवेन क्षणावधि वा गमयन्ति कालम् ।
न ते परस्तोत्ररा इति त्वां श्रीवर्धमान स्तुतिभिर्भजामि || ६२७८. आराधयन्ति क्षणमादरेण यदविपक्रेरहमातभावाः ।
पराङ्मुखास्ते परसत्क्रियायामित्यर्चनीयं जिनमर्चयामि ।।' इति । ६२७९. तावता तत्र तत्रभवन्तो संनिहिती हितकार्यकरणायेव कायभृतां कायवद्धौ शुद्धपाणी हसा मुरुल यन् चद्धाबलिवेन कुइमलयन् भगवन्तममातिहार्यविभव विभाजिनं परमेश्वर
जिनेन्द्रम्१०६२७६. यदीति-यस्य अघ्रिपद्मयोश्चरणकमल योः प्रगती नमस्कार प्रवीणा दक्षा जा
परेषु हरिहरदिपु नति नमस्कार जानु कदाचिन् न कुर्वते न विदधति, अगरभूमानमनन्तमहिमानम् न विद्यतेऽन्यस्तुल्यो यस्य समनुपमम् तं श्रीवर्धमान महाधीर शिरसा मूर्ना नमामि वन्दे ।
२७. यदीयेति-वा अथवा, ये जना यदीयपदाम्बुरुह योर्यच्चरणकमलयोः स्तवन स्तोत्रेण क्षणावधि अणपर्यन्तमपि कालं गमयन्ति व्यता कुवन्ति वे जनाः परेषामन्येषां देवानां स्तोत्रे स्तवने परा १५ उद्यता न भवन्तीति शेषः इति हेतोः श्रिया लक्षाया वर्धत इति श्रीवर्धमान स्तधाभूतं स्वां जिनेन्द्र मनुतिभिः सबनैः मजामि संवे।
२८. आराधयन्तीति-आको तीतो मानभूना लो ये जना: भागमपि आदरेण भक्त्या यघ्रिपकरुह यादवद्मम् आराधयन्ति सेवन्ते ते जनाः परस स्क्रयायामन्य देवसत्कारे पराङ्मुखा विमुखा भवन्तीति शेषः । इति हेतोः अर्चनीयं पूज्यं जिनम् अर्चयामि पूजयामि । सर्वोपजातिवृत्तम् ।
२० इति ।
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६२७१. तातेति-तावता तावकालेन भयं राजा भवभ्रमणभीता जीवंधरः तत्र जिनभव ने त्वमवन्तौ पूज्यौ संनिहितो निकटस्थौ कायभृतां प्राणिनां हितकार्य करणायेव हितकार्यविधानायेव काय बद्धी शुद्धिको बढ़ा रहे थे, दुष्कर्माको दूर कर रहे थे, शरीरको रोमांचित कर रहे थे, नेत्रोंसे हाथ
झरा रहे थे, वाणीको गद्गद कर रहे थे और दोनों हाथोंको जोड़कर कमल की बाड़ीके आकार २५ कर रहे थे । वे कह रहे थे कि
६२७६. 'जिन चरणकमलोंकी स्तुतिमें प्रवीण मनुष्य कभी दूसरोंको नमस्कार नहीं करते, जो अपार महिमाके धारक है तथा जो अनुपम हैं उन श्रीवर्धमानस्वामीको मैं शिरसे नमस्कार करता हूँ।'
६२७७. जिनके चरणकमलों के स्तबनसे जो क्षण प्रमाण काल व्यतीत करते हैं वे फिर ३० कभी किमो दूसरेके स्तवन करनेमें तत्पर नहीं होते इसलिए मैं आप श्रीवर्धमानस्वामीकी स्तुतियोंसे भक्ति करता हूँ।
६२७:. जो उत्तम भावों को प्राप्त कर क्षण-भर भी आदरपूर्वक जिनके चरणकमलोंकी आराधना करते हैं वे दूसरोंके सत्कार से पराङ्मुख हो जाते हैं इसलिए मैं पूजनीय श्री वर्धमान जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ।
२७९. उसी समय वहाँ समागमें विद्यमान चारण ऋद्धिके धारक दो मुनिराजोंको राजा जीवन्धरने देखा। वे मुनिराज अतिशय पूजनीय थे, भव्य जीवों का हित करने के लिए
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-विरक्तिवृतान्तः]
एकादशो लम्मा
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तमतःशक्तिसिद्धां नि नसिद्धान्तस्थितिमिव निर्मला नातिविशाला कामपि स्फटिकशिलां घटितविविधोद्गमस्य विबुधत रोरधस्तादधिवसन्तौ वारिदपथसंचारचतुरचरणारविन्दो चारणपरमेष्ठिनो राजायमैक्षिष्ट । दृष्टमात्रयोरेव तयोरयं भ्रष्ट कल्मष इव प्रोतिविस्फारितनेत्रः स्तोत्रमुखरमुखः पवित्रकुसुमविसरविकिरणस्वराविह्वलकरयुगः प्रहमणिमौलि: प्रदक्षिणं भ्रमन् 'मम भवभ्रमः शाम्यनात्' इति तपःकाम्यया तपोधनयोः श्रीपादाम्भोरुह शेखरीचकार ।
६२८०. स्वोचकार च घटितकरपुटः स्फुटोच्चारित जयशब्दः 'तत्रभवतोः प्रमादतस्तथा इत्वविनथवचनः मुनिवर मुखाम्भोजभवाम् 'भो महाराज, कच्चित्ते वार्तम्' इति मधुरवार्ताम् । प्रार्थवाञ्चक्रे च बीक्षितधेनुर्बुभुवितो दत्स इव मुनिवरवात्सल्येन वधितहऽयं राजर्षिः 'महषी धृतशरीरौ घटिताः समुत्पन्ना विविधा उद्गमाः पुष्पाणि यस्मिस्तस्थ विबुधतरी: कल्पवृक्षस्य अवस्तात नीचैः शुद्धतमस्य निर्मलदमस्त्र तपसः शम्स्या सामर्थेन सिद्धां प्राप्तां निजस्य स्वस्य सिद्धान्ते स्थिति. १० तामित्र, निर्मला विमला मातिविशालां मध्यमपरिमाणां कामपि क चित् सरुटिकशिलाम् अभिवसन्ती तत्रोपविष्टौ वारिदानां मेवानां पन्था वारिदपथं तस्मिन् संचारे चतुरे विदग्धे चरणारविन्दे पादपझे ययोस्ती चारणपरमेष्टिनी चारणबिंधारकसाधुपरमेष्टिनी ऐक्षिष्ट ददर्श । तयोः चारपरमेष्ठिना मानयोरेव सतोः भयं जीवंधरो भ्रष्टकल्सर इय नष्ट दुरित इव प्रोत्या विस्फारिते नेत्रे यस्य तथामृतः स्तोत्रैमुखरं वाचालं मुसं यस्य सः, पवित्रागि पुनानि यानि कुसुमानि तेषां विसर: सहस्तस्य विकिरणस्य विक्षेपणस्य स्वरमा १५ शीघ्रतया बिहल करयुगं यस्य तथा भूतः, प्रलो नम्र भूतो मणिमौलि: रत्नमुकुट यस्य तथाभूत: प्रदक्षिणं भ्रमन् परिकाम्यन् सन् तपोधनयो नीन्द्रयोः श्रीपादाम्मोरुहं धीचरणकमलं शेखरीचकार शिरीस दधावियर्थ ।
३८०. स्वीचकारेति--सीचकार च अङ्गीचक्रे व घटित कर पुटी बद्धाञ्जलिः स्फुटं यथा स्यात्तथीरच रिती जयशदो येन तथाभूतः सन् 'तप्रभवतोः पूज्य योः भवतीः प्रसारतस्तथा इति भवितवचन २० सत्यवचनः मुनिवरमुम्बाम्भोजमयां मुनीन्द्रवदनवारिजसमुद्भताम 'भो महाराज! सं मत्रता वातं कुश कस्विकामनवेदने ।' इति मधुरवाता मनोहरवागीम् । प्रार्थयाञ्चक्रे चेनि-प्रार्थयाशके च प्रार्थयामाप्त च वीक्षिता धेनु गायन तथाभूतो बुभुक्षितः क्षुम्पारितो घरमस्तणंक इत्र मुनियरवारस ल्यन मुनीन्द्रस्ने इन ही मानो उन्होंने शरीरको धारण किया था, नानाप्रकारके फूलों से युक्त कल्पवृक्ष (?)के नीचे अत्यन्त शुद्धनपकी शक्तिसे सिद्ध स्वकीय सिद्धान्त की स्थितिके समान निमल किसी स्फदिक- २५ की उस शिलापर जो अधिक बड़ी नहीं थी विराजमान थे तथा आकाशगमनमें चतुर चरणकमलोंसे युक्त थे। उन मुनियोंके देखते ही राजा जीवन्धरने अपने आपको ऐसा समझा मानो पार नष्ट हो गये हों। उनके नेत्र प्रातिसे विकसित हो उठे, मुख स्तोत्रोंसे गुनगुनाने लगा, पवित्र फूलों का समूह निरनेको शीव्रतासे दोनों हाथ विह्वल हो गये, मणियों का मुकुद नम्रीभून हो गया और प्रदक्षिणाकार भ्रमण करते हुए उन्होंने 'मेरा संसार भ्रमण ३० शान्त हो' इस प्रकार तपकी इच्छासे उन दोनों मुनियों के श्री चरणकमलोंको अपना सेहरा बना लिया।
२०. उनके चरणों में शिर झुकाकर नमस्कार किया। उसी समय मुनिराजके मुखकमलसे रवन्न 'अये महाराज ! तेरी कुशल तो है न ?' यह मधुर वार्ता उच्चरित हुई जिसे जीवन्धर महाराजने हाथ जोड़कर तथा स्पष्ट रूपसे जय शब्दका उच्चारण कर 'आप ३५ पूजनीय मुनिवगीके प्रसादसे कुशल है' इस प्रकार सत्य वचन कहते हुए स्वीकृत किया।
१. कल्पवृक्षस्य, इति दि० । २. क. इत्यवित यवचनम् । ३. क. मुनिवरमुख.भोजभवम् ।
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गधचिन्तामणि
[ २८० जीवंधरस्यभगवन्ती, भवन्मखशतपत्रनिशामन मात्रेणेय जातसंसारप्रशमनोऽहमस्मीति प्रगणयामि । ततः पवित्रधर्मयानपात्रसमपणेन भवाब्धी विस्तृते दुस्तरतया सदा सीदन्तं मां प्रसीदताम्' इति ।
६२८१. प्रथयस्पृहणीयतदोयप्रार्थनायसाने च धमिरा वर्पण कर्मयधिमा यन्त रमम्म मलमशेषतः क्षालयिष्यन्पूर्वमपाकुर्वन्निव बाह्यमा गन्तररदनज्योत्स्नारूपाभिनभिषिञ्चन्दन* तपसोस्तयोरग्रणोतिषग्रं रामनगुणरांपत्तां रत्नदीपिका मित्र प्रकटितपदार्थबारमार्या तमोपहां
चाकठिन प्रभवत्वादिमामध्यतिशयानाम्, सुधामिव वसुबासलदुर्लभा रागनःसंभावनीयां चाक्षय
वर्धितहर्षो वृद्धिंगतप्रमोदोऽयं राजपि विंधनः भगवती मापी प्रभावशालिनी भुनीन्द्री गवतामुखशतपत्रयोवदनारविन्दयोर्निशामनमाण र दर्शनमात्रेणव जातं संसारमसमनं भरभ्र नगशान्तियम्य
सथाभूतोऽहमस्मीति प्रगणयामि जानामि । ततस्तस्मात्कारयान् पवित्रवर्ग एव यानपानं नौका तस्य १० समर्पणेन प्रदानेन विस्तृत विशाले भवाब्धी भवसागरे दुस्तातला दुःखेन तहुं शक्यो दुस्तरस्तस्य गावस्तता तया सदा सततं सीदन्तं दुःखीभवन्तं मां प्रति प्रसीदतां प्रसनो भवताम् इति ।
६२८१ प्रश्नयेति-प्रथग्रेग विनयेन स्पृहणीया या तदीया प्रार्थना सस्या अवसान विराम च धर्मामृतवर्षेण धर्मसुधाश्या अस्य सजपः का पर्यायं कर्मामिधानम् आभ्यन्तरं मलं. यापम् अशेषतः समप्र.
भावेन क्षालयिष्यन् प्रक्षालितं करिष्यन् पूर्व प्राश बाबम मलम् अपाबंलिव आभ्यनाररदनज्योत्स्वारूपानि १५ रन्तर्गतदन्तकौमुदापामिः अनिल अभिपिशन् अभिस्नपयन उनपत्रोः कटिनतपसौरतयोमहयो: 'भप्राणीः प्रधानो नातिव्य नातिव्याकुलं यथा स्वास्था समप्रगुणसम्पन्नां निखिल गुणयुगां रन दीपिकामिद प्रकटिनं पदार्शनां जीवाजीवादीनां घटपटादीनां च पारमयं यया तथाभूतां तमोर ध्वान्नापहां च मोहायहां च अकटिन प्रभावस्वात् कोमल कारणत्वात् इमामपि रहनदीपिकामपि अतिशयानाम् सनदीपिका
कठिनप्रभवा दिव्यवाचकठिनामत्रा-दयामल पुनिमानससमुत्पति र प्रतिरेक, सुधामित्र पीयूरमिव . २० वसुधातलदुर्लभ पृथिवीतलदुर्लभा प्रभूतभाग्यमधिकजनसुलभस्वादन्यपां दुर्लभां सुमनःसंभावनीया देव.
जिस प्रकार गायके देखने से भूखे बछड़ेका हर्ष बढ़ जाता है उसी प्रकार मुनिराजके वात्सल्यसे जिनका हर्ष बढ़ गया था ऐसे राजर्षि जीवन्धरस्वामीने प्रार्थना की कि 'भगवान् महर्षियो ! आप लोगोंके मुखकमलके दर्शन मात्रसे ही मेरा संसार शान्त हो गया है ऐसा मैं समझता हूँ।
अब पवित्र धर्मरूपी जहाजको समर्पण कर इस विस्तृत संसाररूपी सागर में दुस्तर होने के २५ कारण सदासे दुःखी होते हुए मुझपर प्रसन्न हूजिए।
६२८१. विनयसे स्पृहणीय जीवन्धरस्वामीकी प्रार्थनाके बाद जो धर्मरूपी अमृनको वर्षासे इनके कमरूपी आभ्यन्तर मलको सम्पूर्ण रूपसे धो डालना चाहते थे और उसके पूर्व बाह्यमलको दूर करते हुए के समान जो उन्हें भीतरी दाँतों की कान्तिरूपी जल से सोच रहे थे ऐसे
उग्र तपस्वी उन दोनों मुनियों में ज्येष्ठ मुनि, शान्तिपूर्वक समग्रगुणांसे सम्पन्न एवं भव्य जीवों३० को प्रसन्न करनेवाली मनोहर वाणी छोड़ने लगे-सान्त्वना देते हुए सुन्दर वचन कहने लगे।
उनकी वह मनोहर वाणी यद्यपि रत्नोंकी दीपिका के समान थी क्योंकि जिस प्रकार रत्नोंकी दीपिका घट-पटादि पदाथोंके यथार्थ स्वरूपको प्रकट करनी है उसी प्रकार उनकी वाणी भी जीव अजीत्र आदि पदार्थोके यथाथे स्वरूपको प्रकट करनेवाली थी और जिस प्रकार रत्नोंकी
दीपिका तम-अन्धकारको दर करनेवाली होती है उसी प्रकार उनकी वाणी भीतम-अज्ञा३५ नान्धकारको नष्ट करनेवाली थी। तथापि रत्नोंकी दीपिका कठिन-कठोर रत्नोंसे उत्पन्न हुई थी
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१. क. मलशेषं ।
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-विरनिगान्तः ]
एकादशो लम्भः कालानिधिसंगवादतोऽपि संभाधनीयाग, संजीवनीपधिमिव सकल जीवजो वातुभूतां चरणरुचिसंपादिनी च पुनर्जननक्लेशहननादतोऽपि पुरस्क्रियाहींम् , हारयष्टिमिव सुवृत्तबन्धुरा गुगानुवन्धिनी चा जडानयत्यादतोऽयधिकमीडनीयां च भव्यलोकरञ्जनीयां दिव्ययाचं मुमोच----
मकरणीयां विद्वत्सस्करणीयां च अक्षयकलानिधिसभात अक्षया कलानां वेदानां निधियाना मदपि तस्मात संभवात समुत्पन्न न पक्ष क्षयोमलक्षित कलानिधिश्चन्द्रस्तस्मान संभवाम् अपि सुचाया ५ अपि संभावनीयां सत्करण याम् संजीवनापििनव सकलमीवानां निखिलप्राणिनां जीवाभूत जावनीपरभूतां निखिलजीवरक्षभू चरणयोः पादयो रुनिसम्पादिनी पक्षे चारित्ररूचिम्पादिनी च पुन जन मामाहननात्पुनर्जन्मक्लेशरीकरणान् अतोऽपि संजीवनौषधेश पुस्क्रियाहाँ सत्कारयोग्य सनीपनाधिः न पुनर्जननक्लेवामपहरति दिव्यनाक च हस्तीति विशेषः, हारयशिरव मुकादामघ सुवृत्तवलाकारमजिभिः पक्षे सदाचारैः श्लेष्टच्छन्दोभिर्वा बन्धुरा मनोज्ञाम्, गुणानुवन्धिनी च सूत्रानुवन्धिनी सम्बश दिएण- १० वन्धिनी च अजडाश्रयत्वात अमूआंध्रयत्वात् अजलाश्रयत्वात् अतोऽपि हास्यटेरपि अधिकं यया स्यात्तथा ईडनीयां सबनीयाम, हास्यष्टिजलाश्रया दिव्ययाः च अजलाश्रया इतयारभेदात् अजहोऽमूख आश्रय आधारो यस्पास्तधाभूते ते व्यतिरेकः मत्र्यलोकबजनीनां च भव्यजनमनानन्दिनी दिव्याचे मुमोच तत्याज उदाति यावत ।
और वह मनोहर वाणी अकठिन-कोमल स्वभाव मुनिराजसे उत्पन्न हुई थी इसलिए बह रत्ना- १५ की दीपिकाको भी परास्त करनेवाली थी। अथवा उनकी वह वाणी सुधाक समान थी क्योंकि जिस प्रकार सुधा वृधिवीतलपर दुर्लभ है उसी प्रकार उनकी वह वाणी भी पृथिवीतलपर दुर्लभ थी और जिस प्रकार सुधा सुमनःसम्भावनीय-देवोंके द्वारा आदरणीय होती है उसी प्रकार वह वाणी सुमनःसम्भावनीय-विद्वानोंके द्वारा आदरणीय थी। परन्तु सुधा क्षयशील कलानिधि-चन्द्रमासे उत्पन्न हुई थी और वह वाणी अक्षय कलानिधि-अक्षय कलाओंके २० भण्डार मुनिराज से उत्पन्न हुई थी इसलिए सुधासे भी अधिक आदरणीय थी। अबधा बह वाणी संजीवन ओपधि के समान थी क्योंकि जिस प्रकार संजीवन ओपधि सकल जीवांक लिए जीवातु-जीवनयात्री है उसी प्रकार वह वाणी भी सकल जीवोंके लिए जीवातु-जीवनदात्री थी। जिस प्रकार संजीवन आपधि चरणमचिसम्पादिनी---चलने-फिरनेकी मचिको उत्पन्न करनेवाली है उसी प्रकार वह वाणी भी चरणचिसम्पादिनी-चारित्र-सम्बन्धी २५ रुचिको उत्पन्न करने वाली थी परन्तु संजीवन औषधि पुन: जन्म धारण करने रूप क्लेशको नष्ट नहीं कर सकती जब कि वह वाणी पुनर्जन्मके क्लेशको नष्ट करनेवाली थी इसलिए उससे भी अधिक सत्कार के योग्य थी। अथवा वह वाणी हारयष्टिके समान था क्योंकि जिस प्रकार हारयष्टि सुवृत्त बन्धुरा-उत्तम गोल मणियोंसे सुन्दर होती है उसी प्रकार वह वाणी भी सुवृत्तवन्धुरा-उत्तम छन्दांसे अथवा सम्यक चारित्रसे सुन्दर थी और जिस प्रकार ३० हारयष्टि गुणानुवन्धिी -सूतसे सम्बन्ध रखनेवाली होती है उसी प्रकार वह वाणी भी गुणानुबन्धिनी-सम्बग्दर्शनादि गुणों अथवा इलेष प्रसाद आदि गुणांसे सम्बन्ध रखनेवाली थी। परन्तु हास्यष्टि जडानय थी--अचेतनमणियों के आश्रय .थी अथवा जड़-खों के पास रहनेवाली थी जब कि वाणी अजाश्रय थी-चेतनमुनियोंके आश्रय थी अथवा बुद्धिमान मनुष्योंके आश्रय थी इसलिए उससे भी अधिक स्तुत्य थी।
३५
१. क ख ग 'सकलजीव नास्ति ।
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[ २८२ मुनेः
२८२. 'महाराज, श्रूयताम् । यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः । स च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकः । अधर्मस्तु तद्विपरीतः । आयुष्मन् अवगच्छसि त्वमधीती श्रुते तुच्छंदरमशेषममषां लक्षणम् । इत्थम्भूतमात्मोत्थानन्त सौख्यादिगुणनिर्माणं धर्मं बलवन्मोहकर्मादयेन यथावदवगन्तुमशक्ता अव धर्मबुद्धि धर्मे चाधर्मबुद्धि वनन्तस्तदुभयमध्ये बुध्यमानाश्च प्राणिनः ५ पृथिवीपते, विकामतीव्रनीचकर्मोदयान्निरये तिरोभूततीव्रभावपापातिरश्चि प्रवर्तितसुकृतेत रद्वयासुकृतमात्रेण सुरेषु च कृतावतारास्तावत्परिभ्रमन्ति यावन्न निर्मूलित निरवशेषकर्माणी भवेयुः । एवं निवदिता नाकनरकनरतिरश्चां भेदेन चातुविध्यं गतायां गती, हितानृतस्तेयमैथुनमात्रपरा हिंसूपत्वार्हक्रूरपरिणामा अधर्माभिवर्धिनी धर्मद्रुहश्च धर्मादिनिरयं प्रयान्ति ।
=मत्यें,
४३४
गद्यचिन्तामणिः
§ २८२. गद्दाराजेति – महाराज ! श्रूयतां समाकण्यताम् । यतो यस्मात् अभ्युदयः स्वर्गादि१० विभूतिर्निश्रेयसं मोक्षश्च तयोः सिद्धिर्यस्मात् स धर्मः । स व धर्म सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रात्मको रत्नश्रयरूप इत्यर्थः 'सदृष्टिज्ञानदृतानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । इति रत्नकरण्ड श्रावकाचारे समन्तभद्रस्वामिनां वचनम् । अधर्मस्तु तद्विपरीतों मिथ्यादर्शनशान चारित्ररूपः | आयुष्मन् ! दुर्घजीविन् ! श्रुते शास्त्रे अधीतमनेनेत्यधोती अध्ययनकुशलम् अमषां सम्यग्दर्शनादीनां तुच्छेतरम्, अनुच्छं लक्षणम् अवगच्छसि जानासि । इत्थंभूतम् एतत्प्रकारम् आत्मोध्याश्च तेऽनन्त सौख्या त्रिगुणाश्च तेभ्यो निर्माणं यस्य तं धर्म १५ मोहमदन प्रकरमोहोदयेन अधर्मे धर्मबुद्धिं धर्मे चाधर्मबुद्धिं बध्नन्तो धर्माधर्मज्ञानरहिताः
तदुभयमपि धर्माधर्मद्वयमपि अनुध्यमानाश्च अजानानाश्च प्राणिनो जीवाः पृथिवीपते ! हे राजन् ! निकामतीत्रमतिशयेन तीव्रं यत् नीचकर्म तस्योदयात् निरये, तिरोभूतस्तीभावो यस्य तिरोभूततीव्रभावं तच्च तत्पापं वेति तस्मात् अनुरकटपापकर्मोदयात्रिश्चि प्रवर्तितं यत्सुकृतेतरयः पुण्यपापयो तस्मात् म मनुष्ये, सुकृतमात्रेण पुण्यमात्रेण च सुरंषु देवेषु कृतादतारा गृहीतजन्मानः तावत् परि२० भ्रमन्ति परितो भ्रमणं कुर्वन्ति यावत् यावत्कालपर्यन्तं निर्मूलितं नष्टं निरवशेषकर्म निखिलकमं येषां तथाभूता न मत्रेयुः । एवमनेन प्रकारेण निगदितायां कथितायां नाकनरनरकतिरवां स्वर्गमनुष्यश्वभ्रतियश्वां भेदेन चातुर्विध्यं चतुःप्रकारतां गतायां प्राप्तायां गतौ हिंसानृतस्य मैथुनमात्रवस हिंसा मृषावादित्यचौर्यकुशीलमात्रलीना हिंखसत्त्वा हिंसकजन्तुयोग्याः क्रूरपरिणामा येषां तथाभूता अधर्ममभिवर्धन्त इत्यंवशीळा इत्यधर्माभित्र धर्मद्रोहिणव धर्मादिनिरयं रत्नप्रमादिनरकं प्रयान्ति प्राप्नुवन्ति ।
धर्म
२५
६ २८२. मुनिराज कहने लगे कि हे महाराज ! सुनिए । जिससे अभ्युदय - स्वर्गादिकका वैभव और निश्रेयस - मोक्ष की सिद्धि होती है वह धर्म हैं । वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यकूचारित्र रूप है परन्तु अधर्म उससे विपरीत है। हे आयुष्मन् ! तुम शास्त्र के अध्ययन में अत्यन्त कुशल हो अतः इन के समस्त लक्षण जानते हो। इस प्रकार आत्मा से उद्भूत अन्न्त सुख आदि गुणों से उत्पन्न धर्मको बलवान् मोहकर्मके उदयसे जो प्राणी यथार्थ ३० रूपसे जानने में असमर्थ हैं, वे अधर्म में धर्मबुद्धि और धर्म में अधर्म वृद्धि करते हुए तथा दोनोंको न जानकर हे राजन् ! अत्यन्त तीव्र नीच कर्मके उदयसे नरक में, जिसका तीव्र भाव छिपा हुआ हैं ऐसे पापसे तिर्यंच में पुण्य और पाप दोनोंके करने से मनुष्य में और पुण्य मात्रसे देवों में जन्म लेकर भ्रमण करते रहते हैं जबतक कि समस्त कर्माका निर्मूल नाश नहीं कर देते हैं। इस प्रकार देव नरक मनुष्य और तिर्यंचोंके भेद से गतियाँ चार ३५ प्रकारकी कही गयी हैं। जो जीव हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुनमात्रमें तत्पर हैं, हिंसक प्राणियों के समान क्रूर परिणामोंके धारक हैं, अधर्म को बढ़ानेवाले हैं और धर्मसे द्रोह
१. क० ख० ग० 'अपि नास्ति । २. म० भ्रमन्ति ।
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- धर्मोपदेशः ]
एकदशो लम्भः एवंभूतपुरोपार्जितपुण्येतरबलेन बद्धनिरयायुषो निरयं प्रयातास्ते प्राणभृतः प्राण्यन्तरमारणप्रवीणप्राकृतपूतिगन्धोद्रेकादुजनीयामुद्दामदाबज्वालालोढतालतरुसमाकारां नालिकेरफलोदररज्जुघटितभाजनमिय स्पुटितां यावदायुः केनाप्यविघटनीयां सपटल भेदसप्तपृथ्वीपु प्रथमनिरयादारभ्य क्रमादभिवृद्धेनापकर्पतः षडङ्गुलकलितत्रिहताधिक्रमप्तकेन प्रकर्षतश्च पञ्चशतेन धनुषां समुच्छ्रितां मूति मुहूर्तमात्रेणोर्ध्वगतिशोलावलम्बिन: पूर्णयन्तः शिततरनैकशस्त्राकीर्णतले ५ पातालफलानीव स्वयमेव पठन्ति । पुनरुत्पतन्ति न पनवेगेन बहुयोजनानि । बहुधा विशीर्णमप्यर्ण इव तद्गात्रं क्षणमाने पटतेत राम् । क्षाण दिनांप्रतीमागतीकारविरहादनारत
एवम्भूतं पुरोपार्जितं पूर्वसंचितं यत्पुण्यतरं पापमं तस्य बलेन बद्धं निरयायुर्यस्ते तथाभूमा निरयं ३वनं प्रयाताः प्राप्तास्ते प्राणभृतः प्राणिनः प्राण्यन्तराणाम् अन्यजीवानां मारणे प्रवीणो निपुणो यः प्राकृतपूतिगन्धः स्वाभाविकदुर्गन्धस्तस्यो कात् उद्वेजनीयां मयोत्यादिकाम्, उद्दामदावत्रालया तीव्र वनाग्निज्वालया १० लीढो व्याप्लो यस्तालतरुस्ताल वृक्षस्तद्वस्तमाकारो यस्यास्तां नाजिकैरफलस्योदररभिमध्यस्थितरश्मिभिः 'नारियलकी जटाओंसे' इति हिन्दी चरित निर्मितं यद्भाजनं पात्रं तदिव स्थपुटिका विषमां नत्तोन्नतामित्यर्थः याबदायुनीधितपर्यन्तं केनापि अविघटनीयामविशोर्यमाणां पटक भेदैः सहिताः स्पटरभेदा एकोनपञ्चाशत्पटल सहिताः सप्तपृथिव्यस्तासु 'रस्त शर्करावालुकापक्कधूमतमोमहातम प्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्टाः सप्त धोऽधः' इति सप्तभूमयः, प्रथम निस्यात्प्रथमनरकादारभ्य क्रमात् पटलं पटलं पति अभिवृद्धेन १५ वृद्धिंगतन अपकर्षसो न्यूनाम्यूनं एडङ्गलकलिता ये त्रिहस्तास्तरधिकं सप्तकं तेन प्रकर्षतश्च अधिकादधिकं पञ्चशतेन धनुषां दण्डानी 'चतुर्हस्तानामकं धनुर्दण्ड वा भवति' समुच्छ्रिता समुन्नतां मूर्ति शरीरं 'स्त्रियां मूर्तिस्न नुस्तन्ः' इति धनंजयः, मुहूर्तमात्रेण घटिकाद्वयमात्रेण पूर्णयन्तः पूर्णा कुर्वन्तः ऊर्ध्वगतिशीलमवलम्वन्त इत्येवंशीला जीवाः स्वभावत अर्ध्वगतिशीलाः सन्ति संसारदशायां तु कर्मचायतस्पेन यत्र तत्रापि गच्छन्ति', शिततरैरतितीक्ष्णैरनेकर स्कीर्ण व्याप्तं यसलं तस्मिन् पक्वानि यानि तालफलानि २० पश्चताल फलानि तहत् स्वयमंच स्वत एव स्वयमेव पान्ति । पुनरनन्तरं पतनवेगेन पतनरयेण बहुयोजनानि यावत् उत्पतन्ति च उच्छलन्ति च । बहुधानेकप्रकारेण विशीर्णमपि गलितमपि अण इव जकमिव तद्गा तच्छरीर क्षणमात्रेण धरतेतराम् अतिशयेन मिलति । क्षणेन घटितं रचितं प्रांशुप्रतीक समुन्नत शरीरं येषां तान्
--. -.---- . . ..- रखते हैं वे धर्मा आदि नरकोंमें जाते हैं। इस प्रकार पूर्वोपार्जित पाप कर्मके यलसे नरकायुका वध कर नरकमें पहुँचे हुए वे प्राणी मुहूर्त मात्र में ही उस शरीरको पूर्ण कर लेते हैं २५ जो दूसरे प्राणियों को मारने में प्रवीण स्वाभाविक दुर्गन्धके उद्रेकसे उद्वेग उत्पन्न करनेवाला होता है। जिसका आकार अत्यन्त तीव्र दावानलकी मालाओंसे व्याप्त ताइवृक्षके समान होता है । जो नारियलकी जटाओंसे निर्मित वरतनके समान ऊँचा-नीचा होता है। आयुपर्यन्त जिसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता है और जो पटलके भेदोंसे सहित सातों पृथिवियों में प्रथम नरकसे लेकर क्रमसे बढ़ता हुआ कमसे कम सात धनुप तीन हाथ छह ३० अंगुल और अधिकसे अधिक पाँच सौ धनुप ऊँचा होता है। ऊध्वगति स्वभावका अवलम्बन करनेवाले वे प्राणी उस शरीरको पूर्ण कर अत्यन्त तीक्ष्ण नाना प्रकार के शस्त्रांसे व्याप्त तलमें पके हुए ताल फल के समान स्वयं ही गिरते हैं और पबनके वेगसे रहुत योजन तक पुनः उछलते हैं। उनका शरीर अनेक प्रकारसे छिन्न-भिन्न होने पर भी पानीके समान क्षण-भरमें मिल जाना है। जिनका ऊँचा शरीर भण-भर में नैयार हो जाता है नथ: जो प्रतिकारके अभायमें ३५
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४१६ गधचिन्तामणिः
[ २८ मुनेः - मुत्पततः पततश्च नारकान्पातकाः परे पवनपथ एव मननक्षणनिष्पनिस्त्रिशेरंशतः कदलीदण्डानिव खण्डयन्ति । ताइव परे परस्परं च । कथंचिदवनी चेत्संचरेयुरमी संजातभोकरदंष्ट्राङकुरैविक्रियागतशरारुचकरूपैः परैश्चय॑न्ते । तच्चर्वणभयेन पलायमानास्ते सर्वप्रदेशसुलभाभिरय:
सूचिभिः प्रोताज्रयः कुरङ्गा इव सकीलवागुरां गताः परिस्चलनेन पतित्या तास्वेद दारुणं ५ क्रोशन्ति । कोशरभरात्रिवृततरास्यान्विधाय केचिन् 'मूढ, त्वया पुरा खादितं मुदा मांसदण्डमेला'
इलि तप्तताम्रपिण्डं बलेन खादयन्ति । परे तु परदारेष्यति कनस्तानमयतप्ततालभरिकाम् 'तब ग्रिगानेयम्' इति हादतिगाढमालिङ्गयन्ति । बद्धमन्यवः केचिदन्ये पूर्वमन्यायादस्मन्नो
प्रतीकारचिन्हा प्रतीकाराभावात अनारतं निरन्तरम् उत्पतनः समुलतः पततश्च नारायामश्च नारकान नरः
भवा नारका तान् पासका माः परे पुरातननारकाः पवनपथ एव गगन एर मननस्थ क्षणे निणन्नर्मनन- १. शानिधन्नैः संकल्पापसरनिमितः निस्विंशः कृपाणः कदलीदण्डानिव रम्भादण्डानिय वाडयन शकलयन्ति ।
तांश्च नारकान पर नारकाः खपडयन्न । परस्परं च मि ५३६ खण्डयन्ति । कथंचित् केनापि प्रकारेण भवनों पृथियां चेन् अनी नारकाः संधयुविहरेयुस्तहिं संजासाः समुत्पन भीकरा भय करा दंष्ट्रारा दंष्ट्रा प्रसंहा येपातः विक्रियागत विकिपाशप्तं यत् शाराह खण्डनशीलं चक्रं तद्वदपं येषां तैः परैरन्यारकैचय॑न्ने दस्तैदीयो । तेषां चर्यणस्य मयं तेन तचर्वणमयेन पलायमाना धावमानाः ते सर्वप्रदेशसुलभाभिः निखि स्थान प्राप्यामि । अयःसूविभिलोहसूचिभिः प्रोताङ्नयः खचितपादाः सकीलबागुगं सशायजालं गताः कुरङ्गा इब हरिणा
इन परिस्खलनेन पतित्वा तास्वे वायनीपु दारुणं कठिनं यथा स्यात्तथा कोशन्ति दधि। क्रो शरमसेन रोनासोर पितरमास्यं मुखं येषां तथाभूतान् विधान कृत्वा दे चित् मारका: 'मृढ ! अरे मूर्ख! स्वया पुरा पूर्वजन्मनि मुदा हर्षेग खादितं भक्षितम् एतत् मांस खाई पिशित उम्' इति निगद्येति
शेषः तत ताम्रपिई संतप्तताम्राकन्ध बलेन प्रसह्य स्वादयन्ति भक्षयन्ति । परे तु अन्ये तु प्रवला नारकाः २० परदारेषु १२स्त्रीपु अतिकम्रान् अत्यासमान ताम्रमयी या तप्तसाल मञ्जिका पुत्तलिका ताम 'इयं तब प्रियागना प्रियवल्लभाइ त निगोति शेषः हठात्रसभम् प्रतिगाई यथा स्यातथा आलिमपन्ति प्राइलेपयन्ति । बहो तो मन्युः क्रोधो यैस्तथाभूताः केचित् अन्य नारका पूर्व प्राग्जन्मनि अस्मत्तो मत्तोऽन्यायात वित्तमत्तेन
निरन्तर कार उछलते तथा नीचे गिरते हैं ऐसे उन नारकियों को दूसरे पापी जीव आकाश में
ही इच्छा करते ही निर्मित शत्रोंसे कदलीदण्डके समान खण्ड-खण्ड कर डालते हैं। उन २५ खण्ड-खण्ड़ करनेवालों को दूसरे नारको खण्ड-खण्ड कर देते हैं और परस्पर भी एक-दूसरेको
खण्ड-खण्ड कर देते हैं । यदि ये ना की किसी तरह पृथिवीपर संचार करने में समर्थ हो पाते हैं तो भयंकर डाँढोंके अंकुरोंको धारण करनेवाले विक्रियासे आगत हिनक जीवांका समूह उन्हें चवा डालता है । उनके चबाये जाने के भयसे वे भागते हैं तो समाल स्थानों में सुलभ लोहेकी
कोलियोंसे उ-के पैर छिद जाते हैं जिससे वे कीलसहित जाल में फंसे हुए हरिणांके समान ३० स्खलिन होकर गिर पड़ते हैं और उन्हीं भूमियों में कठोर शब्द करते रहते हैं-चिल्लाते
चीखते रहते हैं । चिल्लाहट के वेगसे जिनका मुख अत्यधिक खुल गया था ऐसा उन्हें कर कितने ही लोग 'अरे मूखे ! तूने पहले बड़े हर्षसे यह मांसका टुकड़ा खाया था यह कहकर तपे हुए तामेंका पिण्ड जबर्दस्ती खिलाते हैं। कितने ही लोग पर-स्त्रियों में आसन मनुष्योंको
तामें की संतप्त पुतलीका 'यह तुम्हारी स्त्री है' यह कहकर जबर्दस्ती गाढ आलिंगन कराते २५ है। क्रोधको धारण करनेवाले कितने ही लोग तूने पहले धनसे मत्त होकर अन्यायपूर्वक
---. -.
१.०ख० 'तर' नास्ति।
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-धर्मपिदेशः]
एकादशो लम्भः वित्तमत्तेन धनमपहृतम् । अधुना त्वयास्माभिरुपहृतमूरोक्रियताम्' इत्यङ्गारीकृतमयःपिण्डममीषां करेऽत्रर्पयन्ति । अपरे तु 'निरपराधानां नः कारयामास कारागृहनिरोध क्रूरयानया जिह्वया । जह्यात्तामधुना वा' इत्यसत्यवादिचराणां नारकाणां हठादेनामुत्पाटयन्ति । दुरापं मानुष्यं मलीमसीकृतवतः सुरापानपरान् पापिनः पावकस्वाथजलीकृतं लोहं पाययन्ति । भूतपूर्वभूतद्रुहः काश्चिदृवधिोमुवकण्टकशालिशाल्मलोद्रुममारोप्य हतप्राणिलोमगणनाप्रमाणमधोमुखमूर्ध्वमुखं ५ च केचिदाकर्षयन्ति । एवमुरसि क्षुरिकानिखननम्, शिरसि दहनप्रज्वालनम्, अङ्गुलीपु सूच्यारोपणम्, अङ्गच्छेद नमग्निकुण्डपातनमस्त्रधारावस्थापनमन्यादृशमप्यतिनुशंसकर्मपाकमेकादिश्यस्त्रिशदुदधिप्रमितकालमसंख्षदुःख मनुभवताममोपामतिमात्रभुक्षायां गन्धाघ्रायिजन्तुमरणादातधनमदमसेन सता धनमपहृतं चोरितम् अधुना साम्प्रतं बया अस्माभिः उपहृतं प्रदत्तं धनम् उरीक्रियता स्वीक्रियताम्' इति अङ्गारी कृतं संतपय्य वर्णीकृतमयःपिण्ड कोहपिण्डम् अमीषा नारकाणां करेषु हस्तेषु १० अर्पयन्ति निदधति । अपो तु अन्ये तु 'निरपरा बानां निरागला नोऽस्माकं कारागृहनिरोधं बन्दीगृहनिराध करया दुश्या अनया जिह्वया रसज्ञया कारयामास विधापयामास । अधुना वा सम्नति बा i जिह्वां जह्मात् मुशेत्' इति मागि भूतपूर्वा सत्यवादिन इत्य सत्यवादिचरास्ते पर नारकाणां हटान् प्रसभम् एतां जिह्वाम् उस्पाटयन्ति उन्मूल्यन्ति । दुरापं दुर्लभं मानुष्यं मनुष्यपर्यायं मलीमसीकृतवतो मलिनीकृत. वतः सुरापानपरान् मद्यपानाप्यमान् पावन वलिना क्वाथजलीकृतं क्वयितसलिलोकृतं 'काढाके जलरूप १५ किये हुए' इति हिन्दी लोहमयः पाययन्ति पातुं प्रेश्यन्ति । कंचित् भूतपूर्वा भूतद्रुह इति भूतपूर्वभूतद्रुहः पूर्व प्राणिनः कांश्चिद्वारकान् अवधिोमुखैः कारकैः शालते शोभते तथाभूतो यः शाल्मलीद्रुमस्तूल वृक्षस्तम आरोग्य हता मारिता ये प्राणिनो जीवास्तेषां लोम्नो रोमणां गणना संख्या तस्याः प्रमाणम् अधोमुखमुपरितो नीचैः ऊबमुख नीचस्न ऊर्वम् भाकर्षयन्ति । एवमनेन प्रकारेण उरसि वक्षस्थले क्षुरिका. निष रनम् असिधे कानिपातनम्, शिरपि मूनि दहनप्रजालनम् अग्निप्रनालनम् , अङ्गलीषु सूच्यारोपणं २० सूचीजेदनम्, अङ्गानां हस्तपादादीनां छेदनं कर्तनम्, अग्निकुण्डेऽनळवेद्यां पातनम्, अस्त्र बाससु खाद्यायुधबारारोपणम, मन्यादशमरि उक्तदुःखविभिन्नमपि अतिनृशंसकर्मपाक करतरकर्मोदयम् एक आदी येषां त एकात्यस्ते च ते त्रयस्त्रिंशदुधयश्च इत्यकादित्रयस्त्रिंशदुदय यस्तैः प्रमित: काल: समयस्तं 'कालावनोरस्यन्तसंयोगे' इति द्वितीया। असंख्यदुः उमपरिमितासौख्यम् अनुभवतां भुजानानाम् अमीषाम् अतिमात्र बुभुक्षायां तीव्रक्षुधायां सत्यो गन्धमाजिघ्रन्तीति गन्धाचा यिनः ते च ते जन्तवश्चेति गन्धाघ्रायिजन्तवस्तेषां २५
मुझसे धन हरण किया था अब तू हमारे द्वारा दिये हुए धनको स्वीकृत कर' यह कहकर उनके हाथों में अंगार रूप किये हुए लोहे के पिण्ड रखते हैं। कितने ही लोग 'तुमने इस क्रूर जिह्वाके द्वारा हम निरपराध जनों का वन्दीगृह में निरोध करवाया था, अब तो उस जिह्वाको ३, छोड़ना चाहिए' यह कहकर पूर्वभव में असत्य बोलनेवाले नारकियों को जिह्वाको जबर्दस्ती उम्बाड़ लेते हैं। दुर्लभ मनुष्य-जन्मको मलिन करनेवाले मद्यपानमें तत्पर पापी मनुष्यों को अग्निसे काढ़ा रूप किये हुए लोहेको पिलाते हैं। कितने ही लोग पूर्वभव में प्राणियों के साथ द्रोह करनेवाले कितने ही नारकियों को ऊपर तथा नीचेकी ओर मुग्यवाले कण्टकोंसे सुशोभित सेमरके वृक्षपर चढ़ाकर मृत प्राणियों के रोमोंकी गिनती घरावर ऊपर-नीचे खींचते हैं। इस प्रकार वक्षःस्थलपर छुरी गाड़ना, सिरपर अग्नि प्रज्वलित करना, अंगुलियोंपर सुई ३५ चढ़ाना, अंगच्छेदन करना, अग्निकुण्डमें डालना, शस्त्रकी धारपर रखना तथा इसो प्रकारके अन्य अत्यन्त कर कार्योंके उदयको एकसे लेकर तैतीस सागर पर्यन्त असंख्य दु:ख के साथ अनुभव करने वाले इन नागकियोंको जब अत्यन्न भूग्ब लगती है तब
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गद्यचिन्तामणिः
[ २८२ मुनेः-
गन्धगरलाहारः संपद्यते । पिपासायां प्रतिभासमान मतिमनोहर सलिलं सरः पुनरुष्णरसायते । छायाचित्तायां बहुलच्छदतया प्रतिभाताः पादपाः पात्राणि तदुत्रेषु पातयन्ति । कि बहुना । परस्परव्यसन कृतस्ते महादुष्कृततया निष्प्रतिक्रियतया क्वास्महे वत्र शयामहे व नु तिष्ठामः क्व याम इति स्फीतानुशयाः सर्वदेशे सर्वकाले च सर्वप्रकारां कारणां यावदायुरनुभवन्ति । वयमपि पुरा महाराजबहिष्कृतसन्मार्गा बहवस्तत्र वृतावताराः किं नान्वभूम | तथा महामायाजुषां तपोवनद्विषां धनैकोपानां जघनाजीविनां च जीवानां जननस्थानतया निश्चिते तिरश्चि कर्मद्वयभाविनि मानवभवे च भयेन भारवह्नेन ताडन गहनेनाभीण्डवियोगेना
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मरणं तस्मात् आत्तः प्राप्ती गन्ध गर्यो यस्य तथाभूती गरकाहारी विषाहारः संपद्यते प्राप्यते पिपासायामुद्रन्यायां प्रतिभासमानं प्रतीयमानम् अतिमनोहरम लिलं सुन्दरज टोपेतं सरः कासारः पुनः उष्णरस १० इवाचरतीति उत्तरमायते छायाचितायामनातपातियां सत्यां बहुलच्छाया बहुपत्रतया प्रतिभाताः प्रतापादपस्तस्वः पावकमयपत्राणि अग्निमयानि तद्गात्रेषु तदीयशरीरेषु पातयन्ति । किं बहुना । परस्परमन्योन्यं वपनं पोडां कुर्वन्तीति पत्रव्यमनकृतः तं नारका महादुष्कृततया महापापत्वेन निष्यति क्रियतया प्रतिकाररहितत्वेन व स्थाने आत्महे उपविशाम क्व शयामहं शयनं कुर्मः स्व तु तिष्ठामः स्थिता सवामः । त्रयामो गच्छामः इति स्फीतानुशया विततपश्चात्तायाः सन्तः सर्वदेशेऽखिलस्थान १५ सर्वकाले च निखिलानेहसि च सर्वप्रकार्य कारणां पीडां यावदायुजीवितपर्यन्तम् अनुभवन्ति । वयमपि पुरा पूर्व हे महाराज ! बहिष्कृतरव्यक्तः सन्मार्गे यैस्तयाभूताः बहुस्वोऽनेकवान् तत्र नरकेषु कृनावतारा गृहीत जन्मानः किं न अम्बभूम । एवं श्वगतिदुःखानि वर्णयित्वान्यगतिदुःखानि वर्णयितुमाह—तथेति— [ तथा तेन प्रकारंग महामायाजुषां नीयमाशचारयुक्तानां तपोधनान् द्विपन्तीति तपोधनद्वस्तेषां साधुद्वेषिणाम् धनस्यै कलोलुपः प्रमुखलुब्धास्तेषां जबनाजीविनां निकृष्टजीविकायुक्तानां २० च जीवानां प्राणिनां जननस्थानतया उत्पत्तिस्थानतया निश्चिते नियते तिर्यचि पशुयोनौ कर्मद्वयेन दुरितकर्मयुगेन भवतीत्यवंशी के तस्मिन् मानत्रम व मनुष्यपर्याय च भयेन श्रासेन मारवहन भारधारणेन ताडन सहनेन पीडनलहनेन, अमीष्टाः खीपुत्रादयस्तेषां वियोगेन विरहेण अनिष्टा:
गन्धको सूँघनेवाले जन्तुओंके मरणसे सगर्व विषमय आहार प्राप्त होता है अर्थात् उन्हें ऐसा विषमय आहार प्राप्त होता है कि जिसकी गन्धको सूचनेवाले जन्तु तत्काल २५ मरणको प्राप्त हो जाते हैं । प्यास लगनेपर सामने प्रतिभासित होनेवाला अत्यन्त मनोहर जलसे युक्त सरोवर उष्ण रसके समान आचरण करने लगता है। छायाकी इच्छा होनेपर बहुत भारी पत्तोंसे युक्तकी तरह प्रतिभासित होनेवाले वृक्ष उन नारकियों के शरीरोंपर अग्निमयपत्ते गिराते हैं। अधिक क्या कहा जाय ? परस्पर पीड़ा पहुँचानेवाले वे नारकी महापापके कारण तथा प्रतीकारसे रहिन होने के कारण 'कहाँ बैठें ? कहाँ सोयें ? ३० कहाँ खड़े हो ? कहा जायें ?' इस तरह बहुत भारी पश्चात्ताप करते हुए सब स्थानों तथा सब समय में जब तक आयु रहती हैं तब तक सब प्रकारकी पीड़ा भोगते रहते हैं । हे महाराज ! हम लोगोंने भी पहले समीचीन मार्गका बहिष्कार कर अनेकों बार उन नरकों में जन्म ले क्या उस पीड़ा को नहीं भोगा है ? तथा महामायाचारसे युक्त, मुनियोंसे द्वेष रखनेवाले, धनके लोभी और निन्द्य आजीविका करनेवाले जीवोंके उत्पत्तिस्थानके रूपसे निश्चित तिर्यञ्च गति में और शुभ अशुभ - दोनों कर्मसे होनेवाले मनुष्य भव में भय से, भार ढोने से,
३५
१. म० सुप्यामहे । २. पीडामिति दि० ।
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-धर्मोपदेशः ]
एकादशी सम्भः
T
निसंयोगेन भक्ष्यान्वेषणेन रक्षकाभावेन वृषस्यया विषसंपर्केण परस्परस्पर्धया गया गर्भव्यथया क्षुधा तृषा शुचा रुषा रुजा च महाभाग भवदिदं द्वन्द्वमिदंतया न पायंते विवरितुम् । विशेषतश्च तराणां परिभवपराराधन व वनपारुष्य मन न कालुष्य भुजिष्यद्वेष्यभावेर्ष्या दारिद्रयादिभिरुद्रे कितोज्यमुपद्रवप्रकारः प्रत्यक्षनरकायते । सुकृतोदयेन सुखायमानानां सुराणामपि परनिरपेक्षभक्षण रक्षणाद्यपाये निरपायेन निसर्गतः सिद्धेऽपि कर्मबन्ध तथा दुष्परिहारपरिभवजननी पराधीन वृत्तिर्यप्रवृत्तेरधिकतर मस्तुदा । प्रत्युत मरणभोत्या पूर्वममृता हरणादिभिरनुभूतमखिलमपि सौख्यं क्षण एव नारकदुःखायते । ततः सर्वथाप्यसारे संसारे मन्देतरभाव एवं द्वन्द्वस्य न खलु सर्वथाप्यभावः, तत्रातर्कितमरणमागतशरणमशुचिसदन मनल्पव्यसनमनेकविधापायमपि मानव कायमपवर्गापायत्या सिंहस्यावोगादयस्तेषां संयोगेन भयम्प्रेषणेन खाद्यमागे रक्षकामावेन कृषस्यया मैथुनेच्छया विषसंपर्केण गलसंयोगेन परस्परस्पर्धया मिश्रोमात्सर्येण, गर्धया लोलुपता, क्षुषा बुभुक्षया, तृषा १० पिपासया खुचा शोकेन, रुषा क्रोधेन, रुजा रोगेण व सवत् जायमानम् हर्द बन्दुःखं हे महाभाग ! हे महानुभाव ! इया हृत्थंभूतत्वेन विवरितुं वर्णयितुं न पायते न शस्यते । विशेषतश्च प्रमुखरूपेण च नराणां मनुष्याणां परिभवस्तिरस्तस पराराधनमन्प्रजन सेवनम् वचनपात्यं वचनस्य कर्कशायं मननस्य शान कालुष्यं मालिन्यं भुजिष्यैः सह द्वेष्यावः शत्रुत्वं ईर्ष्यामालयं दारिद्र्यं निर्धनत्वम् एषां सर्वेषां ते आदी येषां तथाभूतः उकिती वृद्धिंगतोऽयम् उत्पातप्रकारः उत्पातरूपं प्रत्यक्ष नरकायते १५ साक्षाच्छ्न्दाचरति । सुक्रतोदयेन पुण्योदयेन सुखायमानानां सुखमनुभवतां सुराणामपि देवानामपि परनिरासी इतरसहाय निरपेक्षश्वास भक्षणाद्युपायश्च तस्मिन् निरपायेन निर्विघ्नतया निसर्गतः स्वभावतः सिद्धेऽपि कर्मबन्धतया दुम्बरिहारोऽनिवार्यो यः परिमवस्तिरस्कारस्तस्य जननी समुत्यादिका पराधीनवृत्तिः मर्त्यप्रत्तेरपि नरप्रवृत्तेरपि अधिकतर भूमिष्टम् अरुन्तुदा मर्मस्थकपीडिका । प्रत्युत मरण
त्या मृत्युभयेन पूर्वम् अमृताहरणादिभिः सुधा मोजनप्रभृतिभिः अनुभूतम् अखितमपि सौख्यं क्षण २० एव नारदुःखमित्राचरतीति नारकदुःखायते । ततस्तस्मात् कारणात् सर्वथाऽपि सर्वप्रकारेणापि असारे सारहीने संसारे मत्रे द्वन्द्वस्य दुःखस्य मन्येतरभाव एवं हीनाविश्यमेवास्ति न खलु निश्चयेन सर्वथापि अमावो वर्तते इति शेषः । तत्र मत्रे अकिंत मरणं यस्य तथाभूतमा कस्मिकापायम् अपगतशरणं शरणरहितम् असि पवित्रतास्पदम् अनल्पयसनं भूरिदुःखम् अनेकविधा बहवोऽपाया नाशा यस्य ताडना सहन करने से, इष्ट वियोगसे, अनिष्ट संयोगसे, भोजन सामग्रीके खोजने से, रक्षकोंका २५ अभाव होने से मैथुन की इच्छासे, विषके सम्पर्क से, परस्परको ईर्ष्यासे, लालसासे, गर्भ की पीड़ासे, भूखसे, प्यास से, झोकसे, रोपसे, और रोगसे होनेवाला यह दुःख 'इस प्रकारका था ' हे महाभाग ! यह नहीं कहा जा सकता। खास कर मनुष्योंका अनादर, दूसरेकी सेवा, वचनों की परुपता, विचारकी कलुपता, सेवक जनों के द्वेष्यभाव, ईर्ष्या, तथा दरिद्रता आदिसे उद्रेकको प्राप्त हुआ यह उपद्रवका प्रकार प्रत्यक्ष नरकके समान जान पड़ता है । पुण्यके उदयसे सुखका अनुभव करनेवाले देवोंके भी परसे निरपेक्ष भोजन तथा रक्षा आदिके उपाय यद्यपि निर्विघ्न रूप से स्वतः सिद्ध हैं तथापि कर्मबन्धका कारण होनेसे दुष्परिहार पराभवको उत्पन्न करनेवाली पराधीन वृत्ति उन्हें मनुष्यकी प्रवृत्तिको अपेक्षा अत्यधिक पीड़ा पहुँचानेवाली है । बल्कि पहले अमृत भक्षण आदि भोगा हुआ सबका सब सुख मरणके भयसे क्षण भरमें ही नरक के दुःख के समान आचरण करने लगता है। इसलिए सब प्रकार से असार इस संसार में ३५ दुःखी होनाधिकता तो हो सकती है पर सर्वथा अभाव नहीं हो सकता । उस चतुर्गति रूप संसार में मनुष्य का शरीर यद्यपि अचानक ही मरणको प्राप्त हो जाता है, शरणसे रहित है,
३०
१म० पर निरपेक्षण भक्षणरक्षणाद्युपाये ।
४ १९
५
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४३०
गद्यचिन्तामणि
[ २८१ जीबंधरस्यराजेन्द्र, मनोरथेनापि दुर्लभं तोयधिमध्यमग्नमणिमिव लब्ध्वापि मोहविप्रलब्धाः केचन मुग्धा दग्धुकामा इव भस्मने मणि कामं कामसौख्यमात्रफलं कल्पयन्ति । पाथिवेन्द्र, पदार्थयाथात्म्यदृशस्तु भवादश: पुनरीदृशपारवश्यपराचीनाः परस्पराविरोधेन साधितत्रिवर्गाः स्वयमपवर्गमपि साधु साधयेयुरिति धर्मदेशनानन्तरं जन्मान्तरप्रवन्धमपि जननायनिर्बन्धेन विनीतबन्धुविचत्रे।
२ ८३. भूभृतां पुरोग, पुरा खलु भवान् धातकोखण्डललामायमानभूमितिलकाधिपते: पनवेगनाम्नो धात्रीपतेर्यशोधर इति पुत्रो भूत्वा कदाचन भूरिपरिकरेण नगरवहिरुद्याने सरस्तीरे विहरमाणस्तत्र रमणोयमालोक्य जालपादशिशु लोलार्थ वर्धयितुमेनं परिजनमुखतः पाणीकृत्य निवर्तयामास । वृत्तान्तमेतमुपश्रस्य श्रुतशाली भवन्तमामन्त्र्य भवत्पिता 'पातककृत्यमिदं चतुष्पदा
५
तथाभूतमपि मानवकायं मनुजशरीरम् सावर्गस्य मोक्षस्योपायतया हे राजेन्द्र ! मनोरथेनापि दुर्लभं दुष्प्राप्यं तोयधिमध्यमग्नमणिमिव सागरमध्यपतितरत्नमिव लावापि प्राध्यापि मोहेन विप्रजधाः प्रतारिताः केचन मुग्धा मूढा भस्मने भूत्ये मणिं स्नं दग्धुकामा इव मस्मीकर्तुमनस इव काम यथेच्छं यथा स्यात्तथा काम सौख्यमानं फलं यस्य तथाभूतं कल्पयन्ति निश्चिन्वन्ति । पार्थिवेन्द्र ! हे नृपेन्द्र ! पदार्थानां जीवा जीवादीनां याथात्म्यं पश्यन्तीति पदार्थयाथात्म्यदशस्तु मवादशस्यादृशा पुन: ईदृशपारवश्यात
एतद्वश्वपारतन्त्र्यात् परागीनाः धिमुरसः परस्पराविरोधेन मियोऽविरोधेन साधित: निवर्गो धर्मार्थकामसमूहो १५ येस्तथाभूताः सन्तः स्वयम् अपवर्गमपि मोक्षमपि साधु सम्यक साधयेयुः सिद्धं कुयुः इति धर्मदेशनानन्तरं
धर्मोपदेशात् पश्चात् विनीतानां नम्रागां बमुहितावह इति विनीतबन्धुनिः जननाथनिबन्धेन राजेश्वरजीबंधराग्रहेण मन्यत् जननं जननान्तरं जन्मान्तरं तस्य प्रबन्धस्तमपि विवये कथितवान् ।
६ २८३. भूभृतामिति-भूभृतां राज्ञां पुरांग ! शिरोमणे ! पुरा पूर्व खलु भवान धातकी खण्डस्थ तन्नामद्विसीयद्वीपस्य कलामायमान भूषणायमानं यद् भमितिलक नगरं तस्याधिपतः स्वामिनः पनवेग२० नाम्नो धात्रीपते राज्ञो यशोधर इति नामधेयः पुत्रो भूत्या कदाचन जातुचित् मरिपरिकरण महताटोपेन
नगरबहिरुद्याने पुरबाझोपवने सरस्तीरे कासारतरे दिहरमाणो भ्रमन् तन्न रमणीयं सुन्दरं जालपादशिशु मरालवालम् आलोक्य दृष्ट्वा लीलार्थ केल्यर्थ वर्धयितुम् एनं परिजनमुखतः सहयायिजनद्वारा पाणौकृत्य गृहीत्वा निवर्सयामास प्रत्याजगाम । एतं धृत्तान्त मुदन्तम् उपश्रुत्य निशम्य श्रुतशाली शास्त्रज्ञानेन
अपवित्रताका स्थान है, अत्यधिक दुःखोंसे युक्त है और अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओंसे २५ सहित है तथापि मोक्षका उपाय होनेसे हे राजेन्द्र ! मनोरथसे भी दुर्लभ है-इच्छा करनेपर
भी प्राप्त नहीं होता । समुद्रके मध्यमें डूबे हुए मणिके समान इसे प्राप्त कर भी मोहसे ठगे गये कितने ही मूर्ख प्राणी भस्म के लिए मणिको जलाने की इच्छा करते हुए की तरह स्वेच्छानुसार काम-सुखका उपभोग करना मात्र ही उसका फल समझते हैं। हे राजेन्द्र ! किन्नु पदार्थ के
यथार्थ स्वरूपको देखनेवाले आप जैस पुरुप ऐसी पराधीनतासे विमुख रहकर परस्परका ३० विरोध न करते हुए त्रिवर्गको सिद्ध करते हैं और अपवर्ग - मोक्षको भी अच्छी तरह सिद्ध कर
सकते हैं। इस प्रकार धर्मोपदेशके बाद विनीत जनों के बन्धु मुनिराजने महाराज जीवन्धरके आग्रहसे उनके जन्मान्तरकी कथा भी कही।
६२८३. उन्होंने कहा कि हे राजाओंके अग्रेसर! आप पूर्व जन्ममें धातकीखण्ड द्वीपके आभरणभूत भूमितिलक नामक नगरके स्वामी पवनवेग नामक राजाके यशोधर ३) नामक पुत्र थे। वहाँ किसी समय बहुत भारी परिकर के साथ नगरके बाह्य उद्यानमें
घूमते हुए आपने हंसका एक सुन्दर बच्चा देखा। क्रीड़ाके अर्थ बढ़ाने के लिए आप उसे परिजनके द्वारा पकड़वा कर हाथ में ले लौट आये । इस वृत्तान्तको सुनकर शास्त्रसे सुशोभित
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-जन्मान्तरवृत्तान्तः] एकादशो कम्मः
४२१ पततां च 'स्वास्पदाद्वियोजनम् । यो जनस्तथा चेष्टते स कष्टायते । आत्मज, धर्मों हि नामात्मनोऽन्यस्य च हिते प्रवृत्ति रहितनिवृत्तिश्च । तथा सति जन्तूनां छेदनरोधनताइनतापनादोनि पापनिमित्तानि त्वया परिहर्तव्यानि भवेयुः। एवमात्मप्रतिकूलाना मन्यजनेऽप्यनाचरणं गणयित्वा कारूणिकेन त्वया स्वहिंसने स्वाहितवचःकथने स्वद्रव्यापहरणे स्वस्त्रीग्रहणे च स्वस्य यथा व्यथा तथा परहिंसादिषु परेषामप्येषा स्यादिति मनीषां प्रवत्यं तन्निवृत्तिरपि कर्तव्या । अङ्ग, पुनरर्थेष्वतिमात्र- ५ लोलुपता लोकद्वयेऽप्यात्मनः कृत्स्नव्यसननिदानतया निराकरणीया। लौकिकैरपि सप्त व्यसनानीति पापहेतुतया पापधिपरदारचौर्यमुराद्यूतपिशितगणिकास्तु गणिताः । किमुत जैनः । तस्मादिह गृहशोभमानो मवरिपत्ता भवन्तम् भामन्य आकार्य 'चतुष्पदा पशूनां पततां च पक्षिणां च स्वास्पदाम्बस्थानात् वियोजनं शरणम् इदं पातककल्यं पापकार्य वर्तत इति शेषः । यो जनः पुरुषस्तथा तन प्रकारण चेष्टते पशुन् पततश्च स्वास्पदाद्वियोजयति स कष्टायतं कष्टमनुमवति । आत्मज ! हे पुत्र ! धर्मो हि नाम १० आत्मनः स्वस्यायस्य च हिते प्रवृत्तिः अहितानिवृत्तिश्चेत्यहितनिरिः। तथा सति तथात्वे सति स्वया भवता जन्तूनां प्राणिनां छेदन कर्णपुच्छादिकर्तनम् रांधनं गोष्टचादौ पञ्जादौ वा निरोधनम् तादनं शादण्डादिभिः पीटनम् तापनमुष्णशालाकादिमिहनम् एषां द्वन्द्वस्तदादीनि पापनिमित्तानि पापकारणानि परिहर्तव्यानि त्याज्यानि भवेयुः । एनमनेन प्रकारेण मारमप्रतिकूलानां स्वविरुद्धाना कार्याणाम् अन्य जनेऽपि पुरुषान्तरेऽपि अनाचरणमप्रवर्तनं चरणं चारित्रं गणयिस्वा वुद्ध्वा कारुणिकन दयालुना १५ स्वया स्वहिंसने स्वस्य हिंसायां स्वाहितबचाकथने स्वस्याहितं प्रतिकूलं यदची वचनं तस्य कथन स्व. दन्यस्यापहरणं तस्मिन् स्त्रस्य स्त्रिया ग्रहणे च स्वय्यात्मनो यथा येन प्रकारेण व्यथा पीढा भवतीति शेषः तथा तेन प्रकारेण परहिंसादिपु परवातप्रभृतिषु परेषामन्येषामपि एषा व्यथा स्याद् इति मनापां बुद्धि प्रवत्यं तस्या निवृत्तिरिति तन्निवृत्तिरपि तत्परिहारोऽपि कर्तच्या । भग्न प्रासनिकः श्लोकः-श्रूयतां धाःसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। ( महामारते) । अङ्ग ! बरस ! पुनरे- २० तदनन्तरम् अर्येषु धनेषु अतिमाअलोलुपता सातिशयतृष्णा लोकद्वयेऽपि पर्याय दयेऽपि आत्मनः स्वस्थ कृस्मध्यसननिदानतया समग्रदुःखकारगरवन निराकरणीया दूरीकरणीया । लौकिकैरपि लीकिफजनैरपि 'सप्त प्रसननानि' इति पारहेतुतया दुरितनिदानतया पापदिराखंडः परदाराः परस्त्रीसेवनम्, चौर्यमदत्तादानम्, सुरा मदिरापान चुतं द्यूतकीडनम् पिशितं मांसभक्षण' परणिका वेश्यासेवनम् एषां द्वन्द्वः पापद्धिपरदारचौर्य
आपके पिताने आपको बुलाकर समझाया कि चौपायों अथवा पक्षियोंको अपने स्थानसे २५ वियुक्त करना यह पाप कार्य है। जो मनुष्य वैसी चेष्टा करता है वह कष्ट भोगता है। हे पुत्र ! अपने तथा दूसरेके हित में प्रवृत्ति करना और अहित से निवृत्ति धर्म है। ऐसा होनेपर तुम्हें जीवोंको छेदना, ताड़ना तथा सन्तापित करना आदि पापके कार्य छोड़ देने चाहिए। इस तरह 'जो कार्य अपने लिए प्रतिकूल हैं उनका दूसरे मनुष्य के विषयमें भी आचरण नहीं करना चाहिए' ऐसा समझ जिस प्रकार अपनी हिंसामें, अपने लिए अहितकारी वचनके ३० कहने में, अपने द्रव्यके अपहरणमें, तथा अपनी स्त्रीके ग्रहण में अपने आपको पीड़ा होती है उसी प्रकार दूसरों की हिंसा आदिके होनेपर दूसरोंको भी पीड़ा होती है ऐसा विचार कर तुम्हें दयावन्त हो पर-हिंसा आदिका भी त्याग करना चाहिए । प्रिय पुत्र ! इसके सिवाय धन में जो अत्यन्त लोलुपता है वह दोनों लोकों में अपने समस्त दुःखोंका मूल कारण है अतः उसका निराकरण करना चाहिए । लौकिक जनोंने भी पापका कारण होनेसे शिकार, परस्त्री, ३५ चोरी, मदिरा, घुन, मांस और वेश्याका सेवन करना इन्हें सात व्यसन माना है फिर जैनोंकी
१ २० स्वपदात् । २ क. आत्मधर्मप्रतिकूलानाम्।
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गद्य चिन्तामणिः
[ २८३ जीवंधरस्थ
मेधिनामस्माकं जैनमार्ग क्रमादपवर्गसाधनतया कथितानि मधुमद्यमांसनिवृत्तिविशिष्टतयाष्टो मूलगुणा इति प्रपञ्चितानि पञ्चाणुत्रतानि व्रतत्वेन परिगृह्यापोह्य चापरिगृह्यकाणामपि भावयितुमक्षम म क्षपक्षपातं पातकित्त्रसंपादिवेशाभिनिवेशं च वत्स, धर्मवत्सलो भवन्भवपारावारपारप्रापणं परमेश्वरपदपङ्केरुहद्वन्द्वममन्दभक्तिभंज त्वम्' इति भवते हितमुपादिशत् ।
२८४, क्षत्रियोत्तम, तातपादेन प्रणयेन प्रणीतं वचः प्रणामाञ्जलिचुम्बितोत्तमाङ्गो भवन्भवानुत्तमपुरुषतया वित्तोपलम्भी रिक्त इव प्रीयमाणः प्रतिगृद्ध गृहस्चात्मानम् 'अनात्मज्ञेन मया कृतमज्ञानोचितम् इयमित भगवा स्वदुदितप्रायश्चित्ततया विधिना विधानस्तावत् सुराद्यूतपिशितगणिकास्तु गणिताः प्रसंख्याताः किसुन जनैः पारलौकिक हितोयते तस्मात्कारणात् इह जैनमार्गे मोक्षमार्गे अस्माकं गृहमेधिनां गृहस्थादे कनात् आवर्गसाधनतया मोक्षहेतुत्वेन कथितानि १० निर्दिष्टानि मधुमद्यमांसानां माक्षिकमदिरापिशिता निवृत्तित्यागम् हि शिष्टतया अष्टी मूलगुणा इति चितानि विस्तारितानि पञ्चायुतानि - अहिंसावतं सत्यामुचतम् अत्रणुत्रतं ब्रह्मवतं परिग्रहपरिमाणाणुवतं चेत्यणुव्रतपञ्चकम् 'मद्यमांसमधुत्यागैः सहाव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाना हुर्गृहिणां श्रमगोत्तमः । इति रत्नकरण्ड श्रावकाचारे समन्तमस्वामित्रचनम् । चतध्वेव चतरूपेण परिगृह स्त्रीकृत्य अपरिगृणामपि खीकिकानामपि जनानां मावयितुं चिन्तयितुम् अक्षममयोग्यम् अक्षेषु १५ हृषीकेषु पक्षपातोऽभिनिवेशस्तम् पातकिटवं स्वापत्वं संपादयतीत्ववंशीले यो वेशाभिनिवेशो भोगाभि
प्रायस्तं च अरोह्य त्यक्त्वा बस्स ! हे तात! धर्मवत्सलो धर्मस्नेहयुक्तां भवन् सत्र एवं पारावारो भवपारावारस्तस्य पारस्य प्रापणं प्राप्तिं परमेश्वरस्थाईतः पदपरुयोवरणाच्जयोर्द्वन्द्वं युगं च अमन्दमतिः सातिशयमक्तियुक्तः सन् त्वं भज सेवाव' इतो भनने हिदं श्रेय उपादित उपदिदेश |
५
४२२
२४. क्षत्रियतमः क्षत्रियोत्तमस्तासम्बुद्धौ हे अत्रियोत्तम ! हे नृपेन्द्र ! तातपादेन पूज्य पित्रा २० प्रगयेन स्नेहेन प्रगीतं निर्दिष्टं वचःप्रणामाञ्जलिना चुम्बितं स्पृष्टमुत्तमाङ्गं शिरो यस्य तथाभूतो भवन् भवस्वम् उत्तमपुरुषता कोकोत्तर पुरुषत्वेन वित्तोपलम्भी धनोपलम्भी रिक इव दरिद्र इत्र प्रीयमाणः प्रसन्नः प्रतिग्रहन् स्वीकुर्वन् 'आत्मानं न जानातीत्यनात्मज्ञस्तेन मया अज्ञानोचितं गूढजनाई कृतम्' इति आत्मानं निगृह्णन् दण्डयँश्च स्वदुश्वित्तस्य स्वकीयदु मनसः प्रायश्चित्ततया प्रायतित्वेन मगवतो जिनेन्द्रस्याष्टिमहर्ती विशालतराम् अपचितिं पूजां विधिना यथाविधि विधानः कुर्वाणः तावत् साकल्येन 'अधुना सम्प्रति अस्माभिः अनुभुज्य
२५ तो बात ही क्या है ? इसलिए हम गृहस्थोंके लिए इस जैनमार्ग में क्रम क्रम से मोक्षका साधन होनेसे जिनका कथन किया गया है तथा जो मधु मद्य और मसिके त्यागसे विशिष्ट होने के कारण अमूल गुण रूपसे उल्लिखित हैं ऐसे पाँच अणुव्रतोंको व्रत रूपसे स्वीकृत कर तथा अन्य धर्मियोंके लिए भी जो विचार करनेके अयोग्य है ऐसी द्यूतासक्तिको एवं पापी बनाने वाली वेश्यासक्तिको छोड़कर हे वत्स ! धर्मके स्नेही बनो और संसार सागर के पार पहुँचाने३० वाले परमेश्वर चरणकमलों के युगलकी बहुत भारी सक्ति के साथ सेवा करो इस प्रकार आपके लिए हितका उपदेश दिया।
२४. मुनिराजने कहा कि हे क्षत्रियोत्तम ! पिताने स्नेहपूर्वक जो वचन कहे थे उन्हें आपने हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर ग्रहण किया और उत्तम पुरुष होनेके कारण आप उस प्रकार प्रसन्न हुए जिस प्रकार कि धनको प्राप्त करनेवाला दरिद्र मनुष्य होता है। अपने आपका निग्रह करते हुए आपने इस विचार से कि 'मैंने आत्मस्वरूपको न जानकर अज्ञानी के योग्य कार्य किया है' अपने दुर्विचारोंके प्रायश्चित्तके रूप में भगवान् जिनेन्द्रकी बहुत बड़ी
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१० ख० ग० भावयितुं दक्षम् ।
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४२३
- जन्मान्तरवृत्तान्त: ]
एकादशो कम्म
'अधुनास्माभिरनुभुज्यमानमपि भुक्तपूर्वमेव मम पूर्वभवानामानन्त्यात् । अनन्तमपि पुद्गलाभोगं भोगोपभोगत्वेन यदहमभुक्षि । भोक्तुं भुक्तोज्झितमुच्छिष्टमिव विशिष्टेन केन विचीयताम् ।' इति विचारणीयमानवैराग्यः प्रव्रज्य तपोबलादबलाभिरमूभिः समममरसुखमनुभूय भूयोऽपि भूमी भूपतिरभूत् । राजकुञ्जर, पुरा राजहंसशिशोः पञ्जरबन्धेन बन्धुविरविधिना च लोकबन्धोतोर बन्धुवियोगेन सह बन्धः किलासीत्' इति ।
$ २८५ एवम कारणवत्वादवारणेन्द्रा कोकनदन्त्रोः कोकनदराशिरिव लक्ष्धप्रबोधः स लब्धवर्णाग्रणीर्धरणीपतिः, पीयूपे स्थिते विषमग्न इव विषोदन् साम्राज्यानवोराज्ये रज्यन्,
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मानमपि सेव्यमानमपि पूर्व मुक्तमिति शुष्कपूर्वं तदेव मुक्त पूर्वमेव मम राजपुत्रस्य पूर्वभवानां पूर्व पर्यायाणाम् श्रानन्त्यात् । यद्यस्मात् कारणात् अहं भोगोपभोगत्वेन 'भुका परिहाल्यो भोगो भुक्वा पुनश्च भव्यः । उपभोगोऽशनत्र सनप्रभृतिः पाञ्चेन्द्रियो विषयः ॥ इति रखकरण्ड श्रावकाचार योगोपभोगलक्षणम् । अनन्तमपि १० पुद्गलामो गम् अभुक्षि भुक्तवान् ततो भुक्कोज्झितं भुक्तत्यकम् उच्छिमित्र मोक्तुं केन विशिष्टेन विचीयताम् संगृह्यताम् ।' इतीत्थं विचारणेन विमशन प्रखीयमानं वर्द्धमानं राज्यं यस्य तथाभूतः सन् प्रब्रज्य दीक्षामादाय तपत्रलात् तपलः सामर्थ्यात् अमूभिरेताभिः अवलाभिरीभिः समं सार्धम् अमरसुखं देवसातम् अनुभूय भूयोऽपि पुनरपि भूमौ पृथिव्यां सूपतिः पृथिवीपतिः अभूत् । राजकुञ्जर हे नृपश्रेष्ठ ! पुरा यशोधरपर्याय राजहंस शिशोर्मराकवालस्य पञ्जरबन्धेन शलाका गृहबन्धनेन बन्धूनां मातापित्रादीनामिष्टजनानां १५ विरहो वियोगस्तस्य विधिना करणेन च लोकबन्धोतंगद्धितस्य भवतोऽपि तवापि वियोगेन दृष्टजनविरहेण सह बन्धः किलेति वाक्यालंकारे आसीद् बभूव ।
8 २८५. एवमिति - एवमनेन प्रकारंग अकारणबन्धोरतुहितकारकात् चारणेन्द्रात चारणषिप्रमुखात् कोकनदबन्धोः सूर्यात् कोकनदराशिरिव रक्तारविन्दवृन्दमिव लब्धः प्राप्तः प्रबोधः प्रकृष्टज्ञानं पक्षे विकासो येन तथाभूतः स धवर्णानां विदुषामप्रणीः प्रधानो धरणीपतिनृशे जीवंधरः पीयूपे स्थिते अमृते २० विद्यमाने विषम व गरलनिमग्न इव विषीदन् खेदमनुभवन् साम्राज्यात वोराज्ये त एव राज्यं
पूजा की। उसी समय आपने यह विचार भी किया कि 'इस समय हम जो सुख भोग रहे हैं। वह मुक्त पूर्व है - उसे हम पहले भोग चुके हैं क्योंकि हमारे पूर्वभव अनन्त हो चुके हैं । अनन्त पुद्गल के समूहका मैं भोगोपभोग के रूप में उपभोग कर चुका हूँ इसलिए यह सब भोग कर छोड़े हुएके समान उच्छिष्ट हैं। ऐसा कौन विशिष्ट पुरुष होगा जो इसे ग्रहण करेगा ?' २५ इस विचार आते ही आपका वैराग्य बढ़ गया जिससे आपने दीक्षा ले ली । तदनन्तर तपके बलसे इन स्त्रियोंके साथ स्वर्ग सुखका उपभोग कर आप पुनः पृथिवीपर राजा हुए हैं । हे राजश्रेष्ठ ! आपने पूर्वभव में राजहंसके बच्चे को पिंजड़े में बन्द किया था तथा उसे उसके . बन्धुजनों से वियुक्त किया था इसलिए लोकके वन्धुस्वरूप आपका बन्धुजनों के वियोग के साथ-साथ बन्धन हुआ ।
३०
६२८५ इस तरह जिस प्रकार सूर्य से कमलराशिको प्रबोध-विकास होता है उसी प्रकार अकारण बन्धु तथा चारण ऋद्धिधारियोंमें श्रेष्ठ मुनिराज से जिन्हें प्रबोध - सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ था, जो विद्वानों में अग्रेसर थे ऐसे जीयत्थर महाराज अमृत के रहते हुए विषमग्न के
१ म० 'मम' नास्ति
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गचिन्तामणिः
[ २८५ जीबंधरस्य - नियोज्य इब नीचेरुपचरन् वाचयमवृन्दारकम्, सार: सावरजः सवयस्यश्च सादरं सप्रणाम सविनयं सगुणस्तवं सपाचनं चापृच्छय राजपुरीमगच्छत् । तत्र चाहूतप्रविष्टान् पुरुहूतगुरुकृत्यानमात्यान् पुरौकसः पुरोधसं च पुरातननिजवंशजानामपि शमिनि वयसि योगेन तनुत्यजां प्राचुर्य प्रदर्श. यन् प्रकृतिस्थान् कृत्वा पुनः कर्तव्यं च तैमन्त्रधित्वा नियन्त्रणापूर्वकं याचितेनापि नन्दाढ्येन विरक्तिदादाद् विसृज्यमानं राज्यं कवचहाय वंश्यज्येष्ठाय श्रेष्टगुणपात्राय पैतृकं नाम संदधते गन्धर्वदत्तानन्दनाय दत्तवान् । उक्तवांश्चास्मै 'वत्स, सदा धर्मवत्सलेन प्रजानुरागिणा प्रकृतिरञ्जिना स्थानप्रदायिना न्यायार्थगवेषिणा निरर्थकविधिद्वेषिणा स्मितपूर्व भाषिणा गुणवृद्धसेविना दुर्जन जिना तस्मिन रज्य रागं कुर्वाण:, नियोज्य इव सेवक इत्र वाचंयमा मुनप्रस्नेषु वृन्दारक श्रेष्ठं चारगर्षि नीचैः ।
नम्रत्वेन उपञ्चरन् सेवमानः, दारः सह वर्तमानः सदारः सस्नोका, सावरतो कधुसनामिसहितः, सत्रयस्यश्च १. समित्रश्च सादरं स सत्कारं सत्रणामं सनमस्कार सविनयं विनयोपेतं सगुणस्त्वं गुणानां स्तवेन स्तुन्या सहितं सयाचसापथनं च आपृष्य राजपुरी स्वराजधानीम् अगाछन् । तत्र चेति-
सच राजपुर्याम् आदावाहूताः पश्चाप्रविश इत्याहूतप्रविष्टास्तान् साकास्तिकृतप्रवेशान् पुरुहूतादपि पुरन्दरादपि गुरु श्रेष्टं कृत्यं कार्य येषां तबाभूतान् अमात्यान् मत्रिणः पुरीकली नगरवासिनः पुरोधस पुरोहितं च पुरातनाः पूर्व
मवा ये निजवंशजा आत्मकुलोत्पशास्तेषामपि समिनि भन्न्ये वयसि अवस्थायां वार्धक्य इति यावत् योगेन १५ संन्यासेन तनुस्यां शरीरत्यजाम् प्राचुर्यमाधिस्यं प्रदर्शयन् प्रकृतिस्त्रान् स्त्रमावस्थान् कृत्वा विधाय तैः
सह पुनः कर्तव्यं च काणीयं कार्य व मन्वयित्व। विमा नियन्त्र गापूर्वक समाग्रहपूर्वकमपि याचितेन 'राज्यं कुह' इति प्रार्थिते र नन्दायेनापि लघुसनामिनापि विसाप्रमानं त्यज्यमानं राज्यं कब वह राय वर्मधारणयोग्याय वंशे भवा वंश्यास्तेषु ज्येष्ठः श्रेष्ठस्तस्मै श्रेष्टगुणानां पात्रं तस्मै उस्कृष्टगुणमा जनाय पैतृक पितुरागतं 'अत्यंधर' इति नाम संदधते धृतवते गन्धर्व दत्तानन्दनाय दत्तवान् । अस्मै पुत्राय इति उक्तवांश्च कथितवांश्च । इतीति किम् । वत्स ! खपा सदा एवं माग्यम् । एवमिति किम् । माह-धौ वत्सक सस्नेहसोन धर्मवरसकेन, प्रजाया भनुराग: प्रजानुरागः स विद्यते यस्य तेन प्रजास्नेहवता, प्रकृतीमन्यादीन् रजयति रकान् करोतोत्र्यवंशीलतेन, स्थान प्रदानीति स्थानप्रदायी तेन, न्यायेनार्थ गवेषयतीति तेन न्यायार्थ गोपिणा, निरकविधि नियोजन कार्य द्वेश्वोति निरर्थकविधिद्वेषी तेन, स्मितपूर्व भाषत इत्येवं
समान विषाद करते हुए, साम्राज्य से विरक्त हो तपके राज्य में राग करते हुए, भृत्यकी तरह २५ मुनिराज के प्रति अत्यन्त नम्रतासे व्यवहार करते हुए, स्त्रियों भाइयों और मित्रोंके साथ
आदर, प्रगाम, विनय, गुणोंका स्तवन, तथा याचना पूर्वक मुनिराजसे पूछकर राजपुरी गये । वहाँ उन्होंने बृहस्पतिके समान कार्य करनेवाले मन्त्रियों, नगरवासियों एवं पुरोहितोंको बुलाया। बुलाने पर वे सब प्रविष्ट हुए । 'अपने वंशमें उत्पन्न हुए पूर्व पुरुषों में अधिकता उन्हीं
की है जिन्होंने वृद्धावस्था में योगके द्वारा शरीरका परित्याग किया है' यह दिखलाते हुए उन्होंने ३०. उन सबको प्रकृतिस्थ-शान्त किया तथा उनके साथ करने योग्य कार्यको मन्त्रणा को।
उन्होंने राज्य सम्भालनेके लिए नियन्त्रणापूर्वक छोटे भाई नन्दायसे बहुत याचना की परन्तु उसने विरक्तिमें अत्यन्त दृढ़ होने के कारण राज्य छोड़ दिया-उसे लेना स्वीकृत नहीं किया । अन्तमें उन्होंने कवच धारण करने के योग्य अवस्थामें स्थित, कुलके पुत्रों में श्रेष्ठ गुणों के
पात्र एवं पितृ क्रमसे आगत सत्यन्धर नामको धारण करनेवाले गन्धर्वदत्ताके पुत्रको राज्य ३५ दिया और उससे कहा कि पुत्र ! तुझे सदा धर्मके साथ स्नेह रखनेवाला, प्रजाके साथ अनुराग करनेवाला, मन्त्रियों को प्रसन्न रखनेवाला, स्थान देने वाला, न्यायपूर्ण अर्थकी खोज
१. क. 'च' नास्ति ।
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४२५
-विरक्तिवृत्तान्तः]
एकादशो लम्मा टूरभाविवितर्किणा हिताहितजातविवेकिना विहितविधायिना शक्यारम्भिणा शक्यफलाकाङ्क्षिणा कृतप्रत्यवेक्षिणा कृतस्थापनव्यसनिना गतानुशयद्हा प्रमादकृतानुलोपिना 'सचिववचःश्राविणा पराकूतवेदिना परोक्षितपरिग्राहिणा परिभवासहिष्णुना शिक्षासहेन देहरक्षावहेन देशरक्षाकृता युक्तदण्डयोजिना रिपुमण्डलहृदयभिदा देशकालविदा लिङ्गावेद्यसंविदा यथार्थविदपसर्पण हृषीकपारवश्यमुषा गुरुभक्तिजुषा च त्वया भवितव्यम्' इति ।
5२८६. ततश्च तदिदमवबुध्य शुचा दग्धरज्जु सोदरोभूताः कृशोदरीराहूय 'प्रियाः, किमेशीलेन मधुरभाषिणा, गुणैर्दयादाक्षिण्यादिभिवृद्धाः श्रेष्ठास्तान सेवत इत्यवंशीलेन, दुर्जनान्दुर्मुखान् वर्जयति त्याजतीति तेन, दूरभाविनं दूरवर्तिनं पदार्थ वितर्क यति विचास्यति तेन हिताहितयोतिो यो विवेकः सोऽस्तीति यस्य तेन हिताहितविवेकज्ञेन, विहित शास्त्रनिर्दिष्टं विदधाति करोतीति विहितविधायी तेन, शक्यमारमत इत्येवंशीलस्तेन यावच्छक्यं तावत्कारिम्भिणा, शश्यं प्राप्यं फलं काक्षसि तेन शक्य.क. १० काक्षिणा, कृतं विहित कार्य प्रस्यवेक्षते समवलोकत इत्येवंशीलेन कृतप्रत्यवेशिणा, कृतस्य स्थापन स्थिरीकरणमेच व्यसनं कृतस्थापनन्यसनं तद्विद्यते यस्य सेन कृत स्थापनव्यसमिना, गतानां नष्टानाम नुशयं पश्चातापं गुह्यति तम गतानुशयद्गुहा, प्रमादेनानवधानतयानुलोपयतीति तेन प्रमादकृतानुलोपिना, सचिवानां मन्त्रिणां वांसि शृणोतीति तेन सचिववाभाविणा, पराकूतमितरहृदयचेष्टितं वेत्ति जानातीति तेन पराकूतवेदिना, परीक्षितं परिगृहातीति तेन परीक्षितपरिग्राहिणा, परिभवस्यासहिष्णुस्तेन अनादरा- १५ सहिष्णुना शिक्षायाः सहस्तेन शिक्षासहन गुरुजनानां शिक्षा सोढुं शक्तेन देहस्य रक्षा देहरक्षा तस्या वहस्तेन देहरक्षाबहेन शरीररक्षाकारिणा देशस्य रक्षां करोतीति देशरक्षाकृत् तेन राष्ट्ररक्षरकारिणा, युक्र दण्टुं योजयतांति युनदण्डयोजी तेन उचितदण्डदायिना, रिपुमण्डलस्य शत्रुराष्ट्रप शनसमूहस्य वा हृदयं मध्यं चित्तं वा मिनीति रिपुमण्डलहृदयभिद् तेन, देशकालौ क्षेत्रसमयौ वेत्ति ज्ञानानीति देशकाल. विद् तेन, लिङ्गेन पाह्यसाधनेनावेद्या ज्ञातुमनही संचित् ज्ञानं यस्य तेन, यथार्थविदः सत्यसमाचारज्ञा २० अपसी गुप्त चरा यस्य तेन, यथार्थविदपसण, हृषीकाणामिन्द्रियाणां पारवश्यं पारतव्यं मुरणातीति • हृषीकपारवश्यमुट देन, गुरुणा भक्ति जुषन्ते प्रीत्या सेवन्त इति गुरुभक्तिजुट तेन ।
६२८६. ततश्च- ततश्च तदनन्तरं च तदिदं वैराग्यप्रकरणम् अवयुध्य शास्था शुचा शोकेन दग्धरज्जुसोदरीभूता दग्धरश्मिसदशीः कृशोदरीस्तन्वङ्गी: आहूय 'प्रियाः ! एवमनेन प्रकारेण शालीनतया. करनेवाला, निरर्थक कार्यसे द्वेष रखनेवाला, मन्द मुसकान पूर्वक बोलनेवाला, गुणोंसे वृद्ध २५ जनोंकी सेवा करने वाला, दुर्जनोंको छोड़ने वाला, दूर तक विचार करनेवाला, हित-अहितका विवेक रखनेवाला, शास्त्र विहित कार्यको करनेवाला, शक्य कार्यका प्रारम्भ करनेवाला, शक्य फलकी इच्छा रखनेवाला, किये हुए कार्यकी देख-रेख करनेवाला, किये हुए कार्यको स्थिर रखनेके व्यसनसे युक्त, जो बातके पश्चात्तापके साथ द्रोह करनेवाला, प्रमादसे किये हुए कार्यको दूर करनेवाला, मस्त्रियोंके बचनोंको अच्छी तरह सुननेवाला, दूसरेके अभिप्रायको ३० जानने वाला, परीक्षित व्यक्तिको स्वीकृत करनेवाला, परिभवको नहीं सहनेवाला, शिक्षाको सहन करनेवाला, देह की रक्षाको धारण करनेवाला, देशकी रक्षा करनेवाला, उचित दण्डकी योजना करनेवाला, शत्र समहके हदयको भेदन करनेवाला. देश और कालको जाननेवाला. चिहोंसे अजेय अभिप्रायको धारण करनेवाला. यथार्थताको जाननेवाले गप्तचरोंसे सहित, इन्द्रियोंको पराधीनताको दूर करनेवाला तथा गुरुभक्तिसे सहित होना चाहिए।
३५ २६. तदनन्तर यह सब जानकर जो झोकसे जली हुई रसीके समान हो रही थीं १.म. सचिवचःप्रथाविणा ।
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गधचिन्तामणिः
[ २८६ जीबंधरस्यवभिभूयध्वे शालीनतया । जगति जातेवजात मृतयः के नाम । केवलं यावदापुरवस्थितास्तदनु संस्थिताश्च ननु सर्वेऽपि तनुभृतः। सर्वथा नश्वर शरीरेण यद्यनश्वरसुत्रं सिद्धयेदिदमेव ननु बुद्धिमद्भिरद्धा साध्यम् । अहो' मुग्धाः, पृथग्भावनिरसनाय बहुसिरापिनद्धकीकसे
मार्दवसंपादनाय रुधिराीकृते प्राचुर्यादन्तर्गतमलानामनन्तर्भावात्संततस्वन्दाय संकल्पितनवद्वारि ५ मांसलालगवायसादिवयसामदर्शनाय पिशिताच्छादिवर्मणि कमशिल्पिकौशलेन बहिरुज्ज्वलतरे
शरोरेऽस्मिन्किम यूयं सम्पृहाः । तहि गर्हणीयमिदं न स्यादस्यान्तरस्वरूपे बहिर्गतेऽपि प्रथिता वा यूयमेतत्प्रेक्षितुं यदि समर्थाः । ततः शरीरस्य विघटनात्प्रागेत्र घटध्वं ययमपि तपसे' इति ता:
ऽपृष्टतया किम् अमिभूयध्वे किमानान्ता भवथ । जगति कोके जातेपूत्पन्चेषु न जाता मृतिमन्युयें वां तथा.
भूताः के नाम । अपि तु न केपीत्यर्थः । ननु निश्चयेन सर्वेऽपि निविला अपि तनुभृत: प्राणिनः केवलं. १. यावदायुः जीवितं यावत् प्रवस्थित : स्थिता भवन्ति तदनु संस्थिताश्च मृताश्च जायन्ते । सर्वथा सर्व.
प्रकारेण नश्वरशरीरेण भराङ्गेन यदि अनश्वरसुखमविनाशिसुखं सिध्येत् प्रापयत इदमंब ननु निश्चयेन बुद्धिर्माद्धः अद्धा यथार्थतया साध्यं साधनीयम् । अहो मुग्धाः । अये मूर्याः । पृथग्भावस्य विकिरणस्य निरसनाय दुरीकरणाय बहुसिराभि कनाडीमि: पिनद्धानि बन्दानि कीकसान्यस्यानि यस्मिस्तम्मिन्
मादेवस्य कोमलस्वस्य संपादनाय प्रापणाय रुधिरेण रक्तेनाद्रीकृने क्लिन्ने, अन्तगतमलानाम् अन्त:स्थित. १५ मलानां प्राचुर्यादाधिक्यात अनन्तर्भावान् अन्तर्मानुमशक्यस्वात संततः शाश्वनिकः स्यन्द्रो मन प्रवहन
यस्य तस्मिन् , संकल्पितानि नबद्वाराणि नेत्रनासिकादीनि यस्मिस्तरिमन् , मांस लालसानि पिशितप्रियाणि यानि वायसादियांसि काकादिपक्षिणस्तेषाम् भदर्शनाय अनवलोकनाय ते न पश्यन्तु इति बुद्धधेति भावः पिशिलारछादि मांसाच्छादि चमत्वक यस्य तस्मिन्, कर्म शिल्पी कार्यकरस्तस्य कौशलेन
चातुर्येण बहिः उज्ज्वलतरेऽतिधवले अस्मिन् शरीरे यूयं किमु सस्पृहाः सतृष्णाः । अस्य शरीरस्य २० अन्तरस्वरूपे बहिर्गतेऽपि प्रार्थिता वा अनुरुद्धा अपि यूयम् एतच्छरीरं प्रेक्षितुं द्रष्टुं समर्थाः शमा यदि • जायेरन् इति शेषस्तहि इदं गहणीयं निन्दनीयं न स्यात् । ततस्तस्मात्कारणात् शरीरस्य विघटनाद्
-..-
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ऐसी स्त्रियांको बुलाकर उन्होंने उन्हें इस प्रकार सम्बोधित किया-अहो वल्लभाओ! तुम लोग इस तरह शोकसे क्यों अभिभूत हो रही हो ? जगत में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों में ऐसे
कौन हैं जिनकी मृत्यु न हुई हो ? यह निश्चय है कि सभी प्राणी आयुपर्यन्त ही स्थित रहते २५ हैं उसके बाद नियमसे मर जाते हैं । यदि सर्वथा नष्ट हो जानेवाले शरीरसे अविनाशी सुख
सिद्ध होता है तो बुद्धिमानोंको यह यथार्थमें सिद्ध करने योग्य है । अहो मूर्खाओ ! पृथग्भाव को दूर करने के लिए (कहीं बिखर कर अलग-अलग न हो जावे इस भयसे) जिसकी हड़ियाँ नाना प्रकारको नसोंसे बँधी हुई हैं, कोमलता प्राप्त करने के लिए जो रक्तसे गीला
किया गया है, भीतर स्थित रहनेवाले मलोंको प्रचुरतासे तथा उनके भीतर नहीं समा सकने के ३० कारण निरन्तर बहते रहने के लिए जिसमें नौ द्वाकी रचना की गयी है, मांसकी इच्छा
रखनेवाले कौआ आदि पक्षी न देख सकें इस लिए जिसके मांसको चमड़ा आच्छादित कर रहा है, और कर्मरूपी कारीगरकी कुशलतासे जो बाहर अत्यन्त उम्मल जान पड़ता है ऐसे इस शरीर में तुम लोग क्यों इच्छा रख रही हो ? यदि इसका भीतरी स्वरूप बाहर आ जाय
और तुम सब प्रार्थना करनेपर भी इसे देखने के लिए समर्थ रही आओ तो यह निन्दनीय ३५ नहीं कहलावे। इसलिए शरीरके नष्ट होने के पहले ही तुम मब भी तबके लिए तैयार हो
." .......
१. क. ख. ग. 'अहो मस्ति
।
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-विरक्तिवृत्तान्त: ]
एकादशो लम्भः संबोध्य गत्य भावात्तास्वपि तपसे समुद्यतासु जातानन्दन नन्दायेन समं रथ कट्योह्यमानमह्यार्थ्यराशिरन_शेवधिमाप्तुमटन्नश्रीक इव सभाजयन्भगवतः पारमैश्वयंश्रिया वर्धमानस्य श्रीवर्धमानस्वामिनः श्रोसभाभिमुखः प्रयातुं प्रचक्रमे ।
। २८५० साथ भीतर माननाराज कटुना प्रयाणध्वनिना प्रयाणे विश्रुते, प्रसरदश्रुजलपुरेपु पोरेपु तं प्रणाम प्रणाम तदीयगुणं स्मारं स्मारं तस्प यथोचितं वाचं वाचमने प्रयाणपथम- ५ नुप्रयाय तत्प्रयासत: प्रतिनिवृत्तेपु, सामात्यं सत्यंवरमहाराज मपि समुचित वार्तया निवर्त्य, निवृतिपरैः परःसहस्रत रैर्नरः परिगतः पर्यश्रुमुखैः पारिपद्यपाथिविहित जलिभिरभिहितालोक-' शब्दर मुद्रतो दूतं विद्रावितविश्वलोकोपद्रवं भद्रपरिणामाञ्चित भव्यलोकसेव्यमव्याजरमणीयं सकलविनाशात् प्रागेव पूर्वमव यूरमपि तपसे घटवं यानं कुररम् । इति ताः प्रियाः सम्बध्य गत्यभावात् उपायान्तरामावात् सास्वपि पियास्वपि तपसे तपश्चरणाय समुद्यतासु सतीषु जातः समुत्पन्न आनन्दो १० हों यस्य तेन तथाभूतेन नन्दाढयेन कनिष्ठेन समं रथकटयया स्यन्दनसमृहेनोह्यमानो मझ घराशिः प्रशस्ताघसमूहो यस्य तथाभूनः अनर्यशेवधिममूल्य निधि आप्तुं प्राप्तुम् अटन् गच्छन् अश्रोक इव दरिद्र इव भगवतो जिनेन्द्रान् समाजयन् पूजयन् पारमैश्वर्य श्रिया प्रातिहार्यलक्ष्म्या वधत इति वर्धमानस्तस्य समधमानस्य श्रीवर्धमानस्वामिनः पश्चिमतीर्थकरस्थ श्रीसभाभिमुखः समवसरणसंमुखः सन् प्रयातुं प्रचलितुं प्रचक्रमे तत्परोऽभूत् ।
२८७. अथेति---अथानन्तरं जीवंधरमहाराजः श्रवण। टुना कणकटुना प्रयाणस्य ध्वनितेन प्रस्थान शब्देन प्रयाणे प्रस्थ ने विव्रते प्रसिद्धे, प्रसन्न प्रवहन् अश्रुजल पूगे वामप्रवाहो येषां तेषु पोरंषु नागरिकंषु तं महाराज प्रणामं प्रणामं प्रणम्य प्रणम्य नदीयगुणं स्मारं स्मारं स्मृत्वा स्मृत्वा तस्य यथोचितं यथा वाचं वाचम् उक्त्वा उक्त्वा अनेकप्रयाणपथं नैकप्रयाणमार्गम् भनुप्रयाय अनुगम्य तस्य महाराजस्य प्रयासत: प्रयत्नतः प्रतिनिवृत्तेषु प्रत्यागतेषु सत्सु सामान्यं ससचिवं सत्यंधामहाराजमपि नूतनामि- २० पिक्त महाराजमपि समुचित वार्तया योग्यधातालापेन निवयं प्रत्यागमय निवृत्तिपर वैराग्यतस्परः पर:सहस्रतरः सहस्रादयश्चिकैः नरैः परिगत; परिवेष्टित: पर्यश्रु साश्रु मुखं घदनं येषां तथाभूतैः परिपद्यपार्थिवैः सभासदभूपतिभिः विहिताम्जलिभिवहस्तसम्पुटैः अभिहिसः कथित आलोकशब्दो जयशब्दो यैस्तथासूतैः जाओ । दूसरा उपाय न होनेसे जब ये सब स्त्रियाँ भी तपके लिए उद्यत हो गयी तब आनन्द विभोर नन्दाढ्य के साथ रथोंके समूह से ले जाने योग्य उत्तम अर्को की राशिसे युक्त हो, जिस २५ प्रकार काई दरिद्र मनुष्य अमूल्य निधिको प्राप्त करने के लिए जावे उसी प्रकार जीवन्धर स्वामी भी परम एश्वर्थ-लक्ष्मीसे बढ़ने वाले श्रीवर्धमानस्वामीकी सभाके सम्मुख प्रयाण करने के लिए लगत हुए।
६२८७. तदनन्तर कानाक लिए नाक्ष्ण लगने वाले प्रयाणा के शब्दसे जब उनके प्रस्थानकी वार्ता सब और फैल गयी तथा जिनके नेत्रोंसे अश्रु जलका प्रवाह फैल रहा था ऐसे ३० नागरिक लोग जब बार-चार प्रणाम करके, उनके गुणों का बार-बार स्मरण करके, उनकी प्रशंसामें यथा योग्य वार-चार वचन कह कर और अनेक पड़ाव तक पीछे-पीछे चलकर उनके प्रयास से लौट गये तब जीवन्धर महाराजने मन्त्रियासहित नूतन राजा सत्यन्धर महाराजको भी योग्य वातासे वापिस लौटा दिया और वैराग्य में तत्पर रहने वाले हजारों मनुष्योंसे युक्त हो वे समवसर की ओर चल पड़े। उस समय जिनके मुख आँसुओंसे युक्त थे तथा जो हाथ ३५ जोड़कर जय-जय शब्दका उच्चारण कर रहे थे ऐसे सभासद् राजा उनके पीछे-पीछे चल
१.३० तःप्रयासहित 1 २. ३० नृपः । ३. म• मंगतः ।
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गचिन्तामणिः
[ २० जीबंधरस्यसारार्थ तीर्थ करनामधेयमहाभागधेयफल विचित्रविविधगोपुरसालं शतमखशेलष सर्वसुलभपीयूषं रत्नरैरजतनिर्माण' द्विषड्योजनप्रमाणं द्वादशगणवेष्टितं शुनासोरचोदितधनदप्रतिष्ठितं प्रेक्षमाणमानस्तम्भिमानस्तम्भमभ्यथितार्थदाननिपुणनिधिकुम्भं सर्वजनजङ्घादघ्नजलोपेतजलाशयं वनशोभा
कृष्टदेवाशयं पापासवनिवारणं पुण्यककारणं सर्वलोकशरणं समवसरण मासाद्य, मणिमयमिव ५ महोमयमिवादित्यम पमिव दैत्यमयमिव खेचरमयमिव भूचरमयमिव शर्ममयमिव धर्ममयमिव
•सद्भिः अनुगतोऽनुगतो हुतं शीघ्र विवादिता दुरीला विदरलोको कदम निषि इक को येन तथा
भूतम् , भद्रपरिणामेन कुशलभावेनाजिताः शोभिता ये भव्यलोका भविकजनास्तैः सेन्यं सेवनीयम्, भव्यानरमणीयं स्वभावसुभगम् , सकलसाराः सर्वश्रेष्ठा अर्था पदार्था यस्मिस्तत् , तार्थ करनामधेयस्य
महाभागधेयस्य फलं प्रयोजनम्, विचित्रा नानावर्णा विविधा नेकप्रकारा गोपुरसाका प्रमुखद्वारपाकारा १० यस्मिस्तत् , शतमख इन्द्रः शैलूपो नटो यस्मिस्तत् , सर्वषां सुलभं पीयूषममृतं यस्मिात् , रत्नरैर जतस्वर्णनिर्माण रत्नधनरजतस्वर्णनिर्माणम् , द्विषड्यो जनप्रमाणं द्वादशयोजनप्रमाणम् बर्धमानस्वामिनः समवसरणस्य प्रमाणमेकयोजनमासीत् द्वादशयोजनपरिमितनिरूपणं भ्रान्तिमूलम् । भगवतो वृषभस्य समवसरणं द्वादशयोजनपरिमितमासीत्, द्वादशगणेदशसमामिवेधितं परिवृतम्, शुनासीरण पुरन्दरण चोदितः
प्रेरितो यो धनदः कुबेरस्तेन प्रतिष्टितं रचितम्, प्रेक्षमाणानां पश्यतां मानं गर्व स्तम्नन्ति नाशयन्ति १५ तथाभूता मानस्तम्मा यस्मिस्तत्, अभ्यर्थितस्य धाञ्छितस्यार्थस्य दान वितरण निपुणा दक्षा
निधिकुम्भाः कोषकलशा यरिंभस्तत्, सर्वजनानां निखिलनराणां जनादनेन प्रसृताप्रमाणेन जलेन सोनोपेताः सहिता जलाशया इदा यस्मिस्तत्, बनानामुद्यानानां शोभयाकृष्टो वशीकृतो देवाशयों देवाभिप्रायो यस्मिस्तत्, पापानां दुरितकर्मणामानव श्रागमनं तस्य निवारणं निरोधकम् , पुण्यस्य सुकृत
स्यैककारणं प्रमुख निमित्तम्, सर्वलोकानां निखिलजनानां शरणं रक्षितृ 'शरणं गृहरक्षिम्रोः' इत्यमरः २० समवसरणम् भासाथ प्राप्य मणिमयमिव रत्नमयमिव, महोमयमित्र तेजोमयमिक, मादिस्यमयमिव
सूर्यमयभिव, देस्यमयमिव देवधिशेषमयमिब, खेचरमयमिव विद्याधरमयमिव, भूचरमथमिव भूमिगोचरमानवमयमिव, शर्ममयमिव सुखमय मिद, धर्ममयमित्र वृषमयमिव, नृप्तमयमिव लास्यमयमिव, वाथरहे थे । वे चलते-चलते शीघ्र ही उस समवसरणमें जा पहुँचे जहाँ समस्त मनुष्योंके उपद्रव
शीघ्र ही नष्ट हो चुके थे, जो उत्तम भावोंसे युक्त भव्य जीवों के द्वारा सेवनीय था, यथार्थमें २५ रमणीय था, जहाँके पदार्थ सबमें श्रेष्ट थे, जो तीर्थकर नामक महाभागके फल स्वरूप था,
जिसका कोट चित्र-विचित्र एवं नाना प्रकार के गोपुरोंसे सहित था, जिसमें इन्द्र नट का कार्य करता था, जिसमें सबके लिए अमृत सुलभ था, रत्न स्वर्ण तथा चाँदीसे जिसकी रचना हुई थी। जो बारह योजन प्रमाण था, बारह सभाओंसे वेष्टित था, इन्द्र के द्वारा प्रेरित कुवेरने जिसकी रचना की थी, जिसके मानस्तम्भ देखनेवालोंके मानको रोकनेवाल थे, वहाँ निधियों के ३० कलश अभिलषित पदार्थ के देने में निपुण थे, जहाँ समस्त मनुष्योंके जंघा प्रमाण जलसे युक्त
सरोवर थे, जिसने वनोंको शोभासे देवोंके हृदयको आकृष्ट कर लिया था, जो पाप कर्म के आसवको रोकनेवाला था, पुण्यका प्रमुख कारण था और सब लोगों के लिए शरण था। जो मणिमयके समान, तेजोमयके समान, सूर्यमयके समान, दैत्यमयके समान, विद्याधरमयके समान, भूमिगोचरियोंसे तन्मयके समान, सुखमयके समान, धर्ममय के समान, नृत्तमयके
१. रत्नस्वर्णरजतनिर्माणमिति टि । २. देव विशेषमयमिव, टि० ।
* भगवान महावीरका समवसरण एक योजन विस्तृत था यहाँ जो बारह योजन प्रमाण कहा गया है वह सामान्य समवसरणको अपेक्षा कहा है।
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-विरक्तिवृत्तान्तः] एकादशो लम्मः
१२१ नृतमयमित्र वाद्यमयमिव गेयमयमिव गण्यमान स्थलसप्तकं यथोचितोपचारं कार कारमुल्लोकतोषादालोकमालोकमतिक्रम्य, हृदयादपि प्रागेव कृतप्रयाणाभ्यां चरणाभ्यामेव मन्देतरभक्तिर्गन्धकुटीबन्धुरं श्रीमन्दिरं मन्दरमिव सहसरोचिः सहस्रशः परीयन; वरिवस्यापर्यवसाने गणस्थानगतः स्थित्वा भगवतः श्रीमुख पद्माभिमुखं भक्तिमय इव बाष्पमय इव संभ्रममय इत्र संस्तवमय इव पुलकितमय इव पुण्यमय इव जायमानः, परायत्तो भवन्, आत्तगन्धसौगन्धिकगन्धवहे गन्धकुटी- ५ मध्ये निर्गन्धताया उपदेष्टारमध्यष्टमहापातिहार्य रलंकृतपरिसरमपाकृताखिलदोषतया व्यपेतविकृतवेषं कृतकृत्यतया कृत्यन्त रानपेक्षं प्रेक्षमाणदशां प्रोतिकरमपि दिन करव्यहातिशायिदिव्यदेहकान्ति
मयमिव वादित्रमयमिब, गंयमय मित्र गानमयमिव, गण्यमानं प्रशस्य स्थळसप्तकं यथोचितोप बार यथापिचारं कारं कारं कृत्वा कृत्या उरोकतोपात् अत्यधिकसंतोषात् आलोक भालोकं दृष्ट्वा दृष्टा अतिऋम्य समुल्लय हृदयादपि मनसोऽपि प्रागेव पूर्वमेव कृतं विहितं प्रयाणं याभ्यां ताभ्यां चरणाभ्यामद १० पादाभ्यामेव मन्देतरमन्तिः प्रचुर मक्तिः गन्ध कुटीबन्धुरं भगवदधिष्ठानक्षेत्रसुन्दर श्रीमन्दिरं समवसरणभागविशेष मन्दर मरु सहस्ररोचिरिव सूर्य इव सहस्रशः परीयन् परिक्राम्यन् वरिवस्यायाः पूजाया: पर्यवसाने विरामे गणस्थान गतो नरावस्थान कोष्ठका तो भगवतो वर्धमानस्वामिनः श्रीमुखरमाभिमुखं मुख. कमलस मुरस्थित मनिमम तालिय इल, बाप्पमय इवाश्रमय इव, संभ्रममय इव शोममय इव, संम्तवमय इव स्तुतिमय इव, पुलकितमय इव रोमाञ्चमय इच, पुण्यमय हव सुकृतमय इव जायमानः १५ परायत्तो पराधीनो भवन् , आत्तान्धस्य गृहीतगन्धस्य सौगन्धिकस्य कमकविशेषस्य गन्धं सुरमिं वहतीति तथा गन्धकुटीमध्ये निर्गन्धताया निर्गवतायाः 'गन्धी गन्धक आमोरे लेशे सम्बन्धगर्वयोः' इत्यमरः उपधारमपि अथवा निग्रंन्यताया निष्परिग्रहताया उपदेशरमपि अष्टमहाप्रातिहारष्टमहाविभूषणैः पक्षेऽशोकपादप-सिंहासनछत्रनय • चतुःषष्टिचमरमामण्डलदिव्यध्वनिपुष्पवृष्टिदुन्दुमिनादाभिधारष्टमातिहार्य: अलंकृतः शोमितः परिसरोऽभ्यर्णन देशो यस्य तम्, अपाकृता दूरीकृता अखिल दोषा येन तस्य २० मावस्तता तया व्यपेतो बिनटो विकृतवेपो यस्य तथाभूतम् कृतकृष्यतया कृतार्थत्वेन कृत्यन्तरस्य कार्यान. रस्थानपेक्षा विद्यते यस्य तं प्रेक्षमाणानां पश्यतां दृशां नेत्राणां प्रीतिकरमपि प्रीत्युत्पादकमपि दिनकरव्यूहाति
समान, वादिनमयके समान और गेयमयके समान जान पड़ते थे ऐसे वहाँके सप्त स्थलोंको यथा योग्य उपचार कर-करके तथा अत्यधिक सन्तोषसे देख-देखकर उन्होंने उल्लंघन किया । तदनन्तर हृदयसे भी पहले प्रयाण करनेवाले चरणांसे चलकर अत्यधिक भक्तिसे युक्त हो २५ उन्होंने गन्धकुटीसे सुन्दर श्रीमन्दिरकी उस तरह हजारों परिक्रमाएँ दी जिस तरह किं सूर्य सुमेरु पर्वतकी देता है। पूजाके बाद वे मनुष्यों के कोठेमें भगवान्के श्रीमुखारविन्दके सम्मुख खड़े होकर ऐसे हो गये मानो भक्तिमय ही हों, अश्मय हो, सम्भ्रममय ही हों, स्तवनमय ही हों, रोमांचमय ही हो, और पुण्यमय ही हो । भक्तिसे परतन्त्र होते हुए वे उन भगवानकी मधुर स्वर में स्तुति करने लगे कि जो सुगन्धसे युक्त सौगन्धिक-लाल कमलों की गन्धसे ३० सहित गन्धकुटीके मध्यमें विराजमान थे, निम्रन्थताके उपदेशक होकर भी जो अष्टमहो प्रातिहार्योंसे अलंकृत समीपवर्ती प्रदेशसे सहित थे। समस्त दोषोंको दूर कर देने के कारण जो विक्रत वेपसे रहित थे. तक्रत्य होने के कारण जो अन्य कार्योसे निरपेक्ष थे, दर्शक लोगोंके नेत्रोंको प्रीति उत्पन्न करनेवाले होकर भी जिनकी दिव्य देह की कान्तिरूपी गंगाका
१. ० निर्ग्रन्थतायाः ।
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गधचिन्तामणिः
{ २८. जीवंधरस्यमन्दाकिनीप्रवाहं मन्दरस्योपरि मन्दरमिव मध्येसिंहासनं भासमानं भगवन्तं भासुरया गिरा गोर्वाणानामपि गीतिस्पृहां कुर्वन्मष्टमसौ तुष्टाव६२८८. 'स्वहस्तरेखासदृशं जगन्ति विश्वानि विद्वानपि वीर्यपूतिः ।
अनान्तमूतिर्भगवान्स वीर: पुष्णातु नः सर्वसमीहितानि ।। २८९. यदाननेन्दोविबुधैकसेव्या दिव्यागमव्याजसुधा सवन्ती ।
भव्यप्रवेकान्सुखसाकरोति पायादसौ वीरजिनेश्वरो नः ।। २६०. अभानुभेद्यं तिमिरं नराणां संसारसंक्षं सहसा निगृह्णन् ।
अस्माकमाविष्कृतमुक्तिवर्मा श्रीवर्धमानः शिवमातनोतु ।' शायी 'दिव्य देहकान्तिमन्दाकिनीप्रवाही दिव्यपरमौदारिकशरीरकान्तिवियद्गङ्गाप्रवाहो यस्य तं मन्दरस्य १० सुमेरोरुपरि मन्दरमिव सुमेरुमिघ मध्यसिंहासनं सिंहासनस्य मध्ये 'पार मध्ये षष्टया वा' इत्यव्ययीमाव
समास: भासमानं शोभमानं मगवन्तं वर्धमानजिनेन्द्र भासुरया समुघलया गिरा वाण्या गीर्वाणानामपि देवानामवि गीतिस्पृहां गानेच्छां कुर्वन् विदधत् मृष्टं मधुरं यथा स्यात्तथा तुष्टात्र अस्तावीत् ।
२८. स्वहन्तेति-वीर्यस्य पराक्रमस्त्र पूतिर्यस्य तथाभूतो यो विश्वानि निखिलानि जगन्ति भुवनानि स्वहस्तरेखासदृशं निजकरतलरेखाल्पं यथा स्यातथा विद्वानपि जाननपि अश्रान्ता अखिमा १५ मूर्तिः शरीरं यस्य तथाभूतः स वीरः पश्चिमतीर्थकरो नाऽस्माकं सर्वसमाहितानि निखिलमनोस्थान पुष्णानु पुष्टानि करोतु ।
१. यदाननेन्दोरिति-यस्यागनमवेन्दुर्यदाननेन्दुस्तस्माद यन्मुखमृगातात् सवन्ती शान्ती, विबुधैकसेव्या विद्वज्जनसेवीया पक्ष देवसेवनीया दिव्यागमध्याजसुधा दिव्यशास्त्रच्छल पीयूपं भव्य
प्रवेकान् भव्यश्रेष्टान् सुखाकरोति सुखाधीनान् करोति असो वीरजिनेश्वरः सन्मतिजिनेन्द्रो नोऽस्मान् २० पायाद रक्ष्यात् ।
६२९०. अभानुभेद्यमिति- मानुना सूर्यण भेत्तुमर्हमित्यभानुभद्य संसारसंक्षं संसारनामधेय नरामा जनानां तिमिरं मोहध्वान्तं सहसा समिति निगृह्णन् दूरीकुर्वन् आविष्कृत मुनिमा प्रकरितमोक्षमार्ग: श्रीवर्धमानो महावीरो मगवान् अस्माकं शिवं कल्याणं मोक्षं वा. भातनोतु विस्तारयतु । सर्वत्रोप
जातिवृत्तम् ।' इति २५ प्रवाह सूर्य के समूहको अतिक्रान्त करने वाला था और जो सुमेरु पर्वतपर स्थित सुमेरु पर्वतके समान सिंहासनके मध्य में देदीप्यमान थे। स्तुति करते समय जीवन्धर महाराज अपनी सुन्दर वाणीसे देवोंको भी गाने की इच्छा उत्पन्न कर रहे थे। वे कह रहे थे कि
६२९८, 'जो समस्त संसारको अपने हाथी रेखाके समान जानते हुए भी कभी श्रान्त हार नहीं होते हैं तथा वीर्य की पूर्णतासे सहित हैं वे महावीर भगवान् हमारे ३० समस्त मनोरथोंको पुष्ट करें।'
२८९. 'जिनके मुख रूपी चन्द्रमासे झरती हुई एवं विद्वानोंके द्वारा प्रमुख रूपसे सेवनीय दिव्यागमरूपी सुधा श्रेष्ठ भन्योंको सुखी करती है वे वर्धमान जिनेन्द्र हमारी रक्षा करें।
६२६०. 'जिन्होंने सूयके द्वारा अभेद्य, मनुष्यों के संसाररूपी अन्धकारको सहसा ३५ नष्ट कर दिया है तथा जिन्होंने मोक्षका मार्ग प्रकट किया है ऐसे वर्धमान जिनेन्द्र हमारे कल्याणको विस्तृन करें ।'
१. क० ग प्रतिस्पृहाम् । २. मधुरं यथा था। ३. म० बायमूर्तिः ।
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-विरक्तिवृत्तान्तः ]
एकादशो लम्भः ६२६१, इति । व्यजिज्ञपच्च विनयावनम्रमौलि: कुड्मलितकरपुटः 'कौरव: काश्यपगोत्रजो जीवको नाम जिननायक, प्रमोद प्रव जामि" इति | लेभे च हितमेतत्' इति हितमितमधुरस्निग्धगम्भीरां दिव्यां गिरम् ।
२९२. एवं लब्धमहाप्रसादः प्रसभं प्रणम्य सविनयं तस्मानिवृत्य निगलमोचनाय चलनिगलितचरण इव हर्षलस्तपोधनपरिषदि तस्थिवान् । इह तत्त्वसर्वस्वं सर्वज्ञोपज्ञमज्ञानां ५ श्रोनणां यथाश्रुतं बिस्तरतो व्याकुर्वाणं साश्यसाम्राज्ययौ व राज्यपदे तिष्ठन्तमिव गणनायकमुपतिष्ठमान: प्रकृष्टमनाः स्पष्टया वाचा यथेष्टं नत्वा श्रुत्वा च तत्वमनुजेन मनुजपतिभिश्च परैः सार्ध परायंकेशाभरणवसनमाल्याङ्गरागादिकं रागद्वेषमाहादिकं च बाह्याभ्यन्तरमपोह्य ग्रन्थं निरन्था
२१. व्यजिज्ञपच्चेति-व्यजिज्ञपञ्च न्यवेदय च विनयाननमौलिविनयावनतमस्तकः कुड्मलितकरपुटो मुकुलीकृत्तकरयुगः, काश्यपगोत्रजः काश्यपगोत्रोत्पनो जीवको नाम कौरवः कोरववंशीयः--'जिन- १० नायक ! हे जिनेन्द्र ! प्रसीद प्रसनो भत्र प्रव्रजामि दीक्षा गृहम' इति । लेभे च प्राप च हितमेतत् प्रवजन श्रेयस्करम्' इतीत्थं हिता कल्याणकरी, मिताल्पाक्षरा, मधुरा मृष्टाक्षरा, स्निग्धा स्नेह पूर्णा, गम्भीरा गम्भीरार्थोपेता च तां दिव्यां गिरम् दिव्यध्वनिम् ।
६२९२. एवमिति–एवमनेन प्रकारेण लब्ध पासो महाप्रा हो ये तयार पदम सह्य पलादिस्यर्थः सविनयं सादरं प्रणम्य नमस्कृत्य तस्मात् स्थानात् नियुत्य प्रत्यागम्य निगलमोचनाय निगड. १५ त्यागाय चलन निगलित चरण इव बद्धपाद इब हर्षलो हर्षयुः तपोधनपरिपदि साधुस मायां तस्थिवान् अस्थात् । इह तपोधनपरिषदि सर्वजोपझं सर्वनेनादितो निरूपितं तश्वसर्वस्वं तत्वगुप्तधनम् अज्ञानामजानता श्रोतां यथा श्रुतं श्रुतमनतिक्रम्येति यथाश्रुतं यथाणितं यथा स्यात्तथा विस्तरतो च्यासात् व्याकुर्वाणं व्याख्यानं कुर्वन्तम्, सावश्यमेव साम्राज्यं सार्वग्यसाम्राज्यं तस्य यौवराज्यस्य पदे तिष्ठन्तमिव विद्यमानमिव गणनायकं गणधरम् उपतिष्टमानः प्रकृष्टमना: प्रहृष्टचेता: स्पध्या वाचा यथेष्टं नत्वा नमस्कृत्य अनुजेन २० नन्दावन परश्च मनुजपतिभिर्न पैः साध तवं धमरहस्यं श्रत्वा च समाकण्यं च परायः श्रेष्ठाः केशाभरणवसनमाल्यारागाः कचालंकारवस्त्रसविलेपनानि आदी यस्य तथाभूतं रागद्वेषमाहा आदी यस्य तथाभूतं च बाह्याभ्यन्तरं-द्विविधं ग्रन्थं परिग्रहम् अपोह्य त्यस्वा निर्ग्रन्थार्हाणि दिगम्बरयोग्यानि महाईफलं मोक्षो
६२९१. स्तुति के बाद उन्होंने विनयसे मस्तक झकाकर तथा हाथ जोडकर प्रार्थना की कि 'हे जिननायक ! कुरुवंशी, एवं काश्यप गोत्रमें उत्पन्न हुआ मैं जीवक दीक्षित हो रहा २५ हूँ प्रसन्न हूजिए' 1 उक्त प्रार्थना के बाद उन्होंने 'यह हित है' इस प्रकार हित मित मधुर, स्निग्ध और गम्भीर दिव्यध्वनिको प्राप्त किया।
६२९२. इस प्रकार जिन्होंने महाप्रसादको प्राप्त किया था ऐसे जीवन्धरस्वामी भगवानको बार-बार प्रणाम कर तथा विनयपूर्वक वहाँ से लौट कर जिस तरह वेडीसे बद्धचरण मनुष्य वेड़ीको छोड़ने के लिए चलना है उस तरह चलकर बड़े हर्षसे युक्त हो ३० तपस्वियों के समूह में आ खड़े हुए। यहाँ अज्ञानी श्रोताओंके लिए जो सर्वज्ञपणीन तत्वका रहस्य दिव्यध्वनिमें श्रवण किये हुए के अनुसार विस्तारसे निरूपित कर रहे थे तथा जो सर्वज्ञतारूपी साम्राज्यके युवराज पदपर मानो विराजमान थे ऐसे गणधरके समीप स्थित हो उन्होंने स्पष्ट शब्दोंसे इच्छानुसार नमस्कार किया, तत्वोपदेश सुना और छोटे भाई नन्दाढ्य तथा अन्य अनेक राजाओं के साथ श्रेष्ठ केश, आभूपण, वस्त्र, माला तथा अंग- ३५ रागादिक बाह्य और राग द्वेष मोह आदिक आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़कर निम्रन्थ पदके
१.क.वा. प्रत्रज्याभि, दति।२ मा गन्धं ।
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४३२
गचिन्तामणिः
[२९२ जीवंधरस्य
हाणि महार्ह फलमूल्यानि - मूलोत्तरगुणरत्नानि बहुप्रयत्नरक्षणीयान्यषणमञ्चितमनोवाक्कायः पञ्चगुरुसाक्षिकं परिगलानः परमसंयम दधौ ।
२९३. संनिदधे च तदन्तरे सान्द्र चन्द्रिकासब्रह्मचारिचारु निजशरीरप्रभाविक्षेपेण वलक्षयनन्तरिक्षं तत्क्षणे यक्षेन्द्रः । विदधे च विविधां स्तुतिम् । तिरोदधे च कृतज्ञप्राग्रह! कृतज्ञ५ चरः स सारमेय भवरचितमहोपकारविवरणपरैः परःमहसगुणस्तवैः परावर्तमानोऽपि नावं नावं नाम नाम चनुतनतपोधनम् ।
$ २९४. ततश्चायमाश्चर्यकरदुश्चरतपश्चरणचिताभिसंधिर्जीवंधरमहामुनिर्यमे नियमे स्वाध्याये ध्याने चावबद्धो यथाविधि यथाकालं यथादेशं यथायोग्यमप्रमत्तः प्रवर्तमानः, प्रमत्ततायां
मूल्यं येषां तानि बहुभिः प्रग्रस्ने रक्षणीयानि पालनीयानि मूलोत्तरगुणा एवं रत्नानि मूलोतरगुणानि १० अष्टाविंशतिमूल गुणाश्चतुरशीतिलक्षामिता उत्तरगुणा अश्रूणं निरतिचारं पञ्चगुरुसाक्षिक पञ्चपरमेष्टि
साक्षिपूर्वम् अञ्चिताः प्रास्ता मनोवाकाश येषां नियोगा ग्रस्य तथाभूतः सन् परिगृह्णानः स्वीकुर्वाणः परम संयमं सकलचारियं दधौ तवान् ।
२९३, संनिदधे चेति-संनिदधे च निकटस्थो बभूव च तदन्तरे तन्मध्ये सान्चन्द्रिकायाः सधन योत्स्नायाः सब्रह्मचारिणी सरशी या चारुनिजशरीरप्रभा सुन्दरस्वशरीरसुपमा तस्या विक्षेपेण प्रसारण १५ अन्तरिक्षं गगनं वलायन् धवलयन् तत्क्षणे यक्षेन्द्रः सुदर्शनः । विविधा नेकप्रकारां स्तुतिं च विदधे
च चक्रे च । तिरोदधे पान्तहितश्च बभूव कृतज्ञप्राग्रहरः कृतमुपकारं मन्यमानानां श्रेष्टः भूतपूर्वः कृतज्ञः कुक्कुर इति कृतज्ञचरः स सारमेयभचे रात्रिजागरपर्याये रचितो यो महोपकारो महामन्त्रधावणरूपस्तम्य विवरणे निरूपणे परास्तैः परसहनगणनः सहमाधिकापास्तवनैः पराधर्तमानोऽपि निवृत्यागच्छमापि नूतनसपोधनं जीवंधरमहामुनि नावं नावं नुत्वा नुस्वा नाम नामं नत्वा नत्वा च ।
-६६९४, ततश्चेति-ततश्च तदनन्तरं च आश्चर्यकरे विस्मयावहे दुश्चरसपश्चरणे कठिनतपस्यायां चितोऽभिसन्धिरभिप्रायो यस्य तथाभूतो जीवंधरमहामुनिः यमे यावज्जीवं परित्यागे नियमे सावधौ त्यागे 'नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते' इति यमनियमयोलक्षणम्, स्वाध्याय वाचनाच्छ. नादिपञ्चभेदात्मके स्वाध्याये ध्याने च चित्तैकाम्ये च 'उत्तमसंह ननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमुह
योग्य मोझफलके मूल्य स्वरूप एवं अनेक प्रयत्नोंसे रक्षा करनेके योग्य मूलगुण तथा उत्तर २५ गुणरूपी रत्नोंको निरतिचार स्वीकृत करते हुए, उत्तम मन वचन कायसे युक्त हो पंच परमेष्ठीकी साक्षीपूर्वक परमसंयम धारण किया ।
६२६३. उसी बीचमें उस समय वहाँ सघन चन्द्रिकाक समान सुन्दर अपने शरीरको प्रभाके विस्तारसे आकाशको धवल करता हुआ यक्षोंका इन्द्र सुदर्शन आ पहुँचा। आकर
उसने नाना प्रकारसे स्तुति की। कृत उपकारको माननेवालों में श्रेष्ठ वह कुत्तका जीव यक्ष, ३० कुत्तेको पर्यायमें कृत महान उपकार के प्रकट करनेमें तत्पर हजारों गुणोंके स्तवनसे लोट-लौटकर उन नूतन तपस्वीको बार-बार स्तुति कर तथा बार-बार प्रणाम कर अन्नहित हो गया।
६२६४. तदनन्तर आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले कठिन तपश्चरणमें जिन्होंने अपना अभिप्राय लगा रखा था ऐसे जोवन्धर महामुनि यममें, नियममें, स्वाध्याय में और ध्यानमें
लीन हो विधि, काल, देश और अपनी योग्यताके अनुसार निष्प्रमाद प्रवृत्ति करते थे। ३५ यदि कदाचित् उन्हें मत्त इन्द्रियोंकी परतन्त्रतासे प्रमत्त दशाको शंका होती थी तो ये आहार
१. क. 'च' नास्ति । २. कम्ब० म० नूतनं तपोधनम् ।
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-तपश्चर्यावृत्तान्त:]
एकादशो उम्मः कदाचन मत्तेन्द्रियपारतन्त्र्येण परिशङ्कनोयायां परित्यजन्नाहारम्, अनशनेन 'शरीरावसादे नानुकूल्यमनुष्ठानस्याशने तु स्यादिन्द्रियदर्प इति यथा प्रसपंति मतिस्तथा काशनं कल्पयन्, शयनासनस्थानेषु नियतस्थानेषु सत्सु तत्र सङ्गस्य प्रसङ्गे जन्तुसंदोहोपद्रवसंदेहे च भवन्ननियतदेशः, प्रायेण वृष्यमिति भाष्यमाणं भूयस्तथानुभूयमानमस्तोकरसं च वस्तु प्रस्तुतानुगुणं वर्जन्, निर्जनस्थाने कृते सत्यवस्थाने प्रकृतिस्थता स्यादिति विविध्य विविक्तशयनासनं विरचयन्, उदन्यादैन्यकृति ५ नसंरचयांमुमति पायकप्रयाणपरिपन्थिनि स्विन्नखिन्नदेहिनि मृगतृष्णकाकरणनिष्णाते निदात्रे
ति' इति ध्यानलक्षणम् आत्तरीधर्म्य शुक्लभेदेन तस्य चत्वारो भेदाः सन्ति भवबद्धो लीनो यथाविधि विधिमनतिकम्य यथाकालं यथादेशं यथायोग्यं यथाहम् अप्रमत्तः सावधानः सन् प्रवर्तमानः, कदाचन जातुचित मसेन्द्रियाणां पारतन्न्यं परायसत्वं तेन प्रमत्ततायो परिशक्कनीयायां सस्याम् आहारं परित्यजन् अनशनामिधानं तप. कुर्वन्नित्यर्थः । भन्शनेन सर्वधाहारस्यागेन शरीरावसादे सति शरीरशैथिल्ये प्रति १० अनुटामा सामाविषयानमारकाय कायस्पानुभूयमानुरूप्यं न भवेदिति शेषः अशने नु भोजने तु इन्द्रियदों हृषीकोत्तेजनं स्यात् इति यथा येन प्रकारेण मतिविना प्रसर्पति तथा काशनमवमौदर्य कल्पयन् कुर्वन् , शयनं चासनं च स्थानं चेति शयनानस्थानानि तेषु स्वापोपवेशनस्थानेषु नियतं स्थानं
षां तेषु सत्सु तत्र तत्तस्थानेषु सङ्गस्यासको प्रसङ्गे जन्तुसंदोहस्योपद्वा उत्पातरस्तेषां संदः संशयस्तस्मिश्च सति निग्रतो देशो यस्य तथाभूतो नियतीकृतगमनागमनादिक्षेत्रो भवन् वृत्ति परिसंख्यानं विदधत् १५ इत्यर्थः, प्रायेगा बाहुल्येन वृष्यं गरिष्ठमिति माग्यमाणं निगद्यमानं भूयोऽनन्तरं तथा परिष्त्वेनानुभूयमानम् अस्तो करसं भूरिर सोपेतं प्रस्तुतानुगुणं प्रकृतानुकूलं च वस्तु वर्जन् स्यजन् रसपरित्यागं कुर्वन्नित्यर्थः, निर्जन. स्थाने विविनक्षेत्रेऽयस्थाने शयनासनादिक कृते सति प्रकृतिस्थता स्वभावस्थता स्यादिति विविच्य विचार्य विविके पूतविजने स्थाने शयनासने यस्मिस्तद् विविक्तशयनासनं सवामधेयं तपो विरचयन् कुर्वन् , उदन्यया पिपासया दैन्यं कातयं करोतीति उदन्यादैन्यकृत् तस्मिन्, नखंपचा: पांसवो धूलयो विद्यन्ते २० यस्मिस्तस्मिन्, पधिकानामध्नगानां प्रयाणस्य गमनस्य परिपन्थिनि विरोधिनि स्विनाः स्वेदयुक्ताः विनाश्च खेड्युकाश्च देहिनः प्राणिनो यस्मिस्तस्मिन्, मृगतृष्णिकाया मृगमरीचिकाया: करणे निष्णाते का शिलकुल त्याग कर देते थे अर्थात् उपवास तप करते थे। जब कभी यह विचार आता था कि सर्वथा अनशन करनेसे शरीरका नाश होता है अतः अनुष्ठानमें अनुकूलता नहीं बैठती और आहार ग्रहण करनेसे इन्द्रियोंमें दर्प उत्पन्न होता है तब वे ऊनोदर करते थे २५ अर्थात् क्षुधासे अल्पाहार ग्रहण करते थे। 'सोना, बैठना और खड़ा होना नियत स्थानों में होनेपर संगका प्रसंग तथा जीवसमूह के विघातका सन्देह उन्हीं स्थानोंमें होता है। ऐसा विचारकर उन्होंने अपना शयन-आसन आदिका देश निश्चित कर लिया था । जो वस्तु प्रायः कर वृष्य-गरिष्ठ कही जाती है पहले जिसका बार-बार उपभोग किया है और जो अधिक रसीली है एसी वस्तुको अपने प्रारब्ध तरके अनुरूप वे छोड़ देते थे अर्थात् रस ३० परित्याग नामका तप करते थे। 'निर्जन स्थानमें स्थिति करनेसे स्वभाव स्वस्थ रहता है। यह विचार कर वे विविक्तशय्यासन तप करते थे। जो प्याससे दीनता उत्पन्न करनेवाला है, नखोंको पकानेवाली धूलिसे युक्त है, पथिकोंके प्रस्थानका विरोधी है, जिसमें शरीर पसीनासे युक्त तथा खिन्न हो जाता है, और जो मृगतृष्णाके उत्पन्न करने में निपुण है ऐसा ग्रीप्मकाल
१. क. शरीरावसा दनानुकूल्य-। २. निरशनम् इति टि० । *. यहाँ बत्तिपरिसंख्यान तापके बदले 'नियत देश' बाह्य तपका वर्णन किया गया जान पड़ता है।
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गद्यचिन्तामणिः
[२९४ जीवंधरस्य
सत्यमोधमेघोपरोधशीलं शिलोच्चयमुच्चैर्मनाः समारोहन नातपत्रमातपयोगमातन्वानः, अपवरकशरणायिशरीरिणि दन्तवपुःकम्पकारिणि धारासंपातबधिरितश्रवास प्रावृडारम्भे वीताम्बरोऽपि विगतहृदयश्रमस्तरुमूलमाश्रयन्, अकाण्डपलितशङ्काबहमूर्धजलानमिबिन्दुपिशुनितवार्द्धके वर्षायमाणहिमानोजनितशेत्योद्रेकद्रवीभवदस्थिचणि हेमन्तसमये निर्ममतामङ्गयष्टौ स्पष्टयन्निब केवल. माकाशमेवावकागोकुर्वन्, एवं दुर्बहबाह्यतपोभिरपवाह्य स्वातन्त्र्यमिन्द्रियाणामात्मस्वातन्त्र्ये निष्पन्ने निष्प्रत्यूहमनन्तरमाभ्यन्तरतपांसि तरसा कुर्वन्, चतुर्विधाराधनपर्यायचतुरङ्गबलश्रेणिक:
दक्षे निदाये ग्रीष्मकाले सति अमोधमध्यर्थ मेवोपरोधो धनोपरी २: शीलं यस्य तथाभूतं शिलोच्चयं पर्वतम् उस्मना उदात्तचेताः सन् समारोह न् समुन्टन् अनातपत्रं छवाहितम् आतपयोग घमयोगम् आतन्वानों
विस्तारयन् , अपवरक कुसूल गृह निर्यातस्थानं तदेव शरणं रक्षितृस्थानं तस्याश्रयिणः शरीरिणः प्राणिना १० यस्मिंस्तस्मिन् , दन्तव:कम्पं रदनशरीरवेपथु करोतीत्येवंशीलस्तम्मिन् , धारापातेनासारवृष्टया वधि
रितानि श्रवणशक्तिशून्यीकृतानि प्रवासि श्रोत्राणि यस्मितस्मिन् , प्रावृहारम्भे रिम्भे बीताम्बरोऽपि निरम्बरोऽपि विगतो दूरीभूतो हृदयस्य चेतसः श्रमः खेदो यस्य तथाभूतः सन् तरुमूलं वृक्षमूलम् आश्रयन् तत्र स्थित इन्यथः, अकाण्डेऽसमये यत् पलितं जरसा केशानां शौक्स्यं तस्य शङ्कावहेपु संशयधारकेपु
मूर्धजेषु केशेषु लानाः स्थिता ये हिमबिन्दवस्तुपारशीकरास्तैः पिशुनितं सूचितं वार्धक वृद्धत्वं यस्मिस्त१५ स्मिन् , वर्षाप्रमाणया हिमान्या महता हिमेन जनितं समुत्पादितं यच्छैत्यं तस्योद्रेकेणाधिक्यन दूर्वाभवत्
निस्यन्दीभवद् भस्थिचर्म की कसत्वग् यस्मितस्मिन् , हेमन्तसमये शीतकाले अङ्गयष्टी शरीरे निर्ममतां स्नेहामा स्पश्यचिव प्रकाशित लेवलं पात्र शाकमेव नगलमे पानीकुर्वन् स्थानीकुवन् निरा. घरणाम्बरे नियसन् इत्यर्थः प्रीष्मवर्षाशीतयोगैः कायक्लेशाभिधानं तपो विदधदिति यावत् । एक्मनेन
प्रकारेण दुर्वहानि कठिनानि यानि बाह्यतासि तैः इन्द्रियाणां हृषीकाणां स्वातन्त्र्यं स्वाच्छन्यम् अपवाह्य २० दूरीकृस्य आरमनः स्वातन्त्र्यं तस्मिन् निप्पन्ने सति अनन्तरं तदनु निष्प्रव्यूई निर्वि यथा स्यात्तथा
आम्र प्तपांसि प्रायश्चिचादीनि 'प्रायश्चित्तविनययावत्यपाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्' इति पद भाभ्यन्तरतपांसि तरसा बलेन कुर्वन्, चतुर्विधाराधनानि सभ्यग्दर्शनशान नारिनतपांसि पर्याय! यस्यास्तधाभूता चतुरङ्गबलश्रेणियस्य सः अपकणि चारित्रमोहस्य क्षपणायां निमित्तभूनां भावसन्ततिम् आरह्य
होनेपर वे मेघोंका वास्तविक उपरोध करने वाले-गगनचुम्बी पर्वत पर उदात्त चित्त हो २५ आरोहण करते हुए बिना किसी छायाके आतापत योगको विस्तृत करते थे। जिसमें प्राणी
मध्यगृहकी शरणका आश्रय लेते हैं, जो दाँतों तथा शरीर में कम्पन उत्पन्न करनेवाला है, और अखण्ड जलधागके पड़ने से जिसमें कान बहरे हो रहे हैं ऐसी वर्षा ऋतुके प्रारम्भमें वे
वस्त्र रहित होनेपर भी हृदय में किसी प्रकार के भयका अनुभव नहीं करते हुए वृक्ष के नीचे . विराजमान रहते थे। असमय में प्रकट सफेद बालोंको शंकाको उत्पन्न करनेवालं केशों में २० लीन बर्फके बिन्दुओंसे जिसमें बुढ़ापा सूचित हो रहा है, और वर्षा के समान आचरण
करनेवाले बहुत भारी तुषारसे उत्पन्न शीतलता उद्रेकसे जिसमें हड्डी और चमड़ा द्रवीभूत हो रहा है ऐसे हेमन्त के समय शरीरयष्टिमें ममताके अभावको प्रकट करते हुए के समान वे केवल आकाशको ही अपना अवकाश बना रहे थे-खुले आकाश में स्थित रहते थे।
१.म० बरकाशरणायिश गिणः । अपवनम-कसूर गहभिति टि।
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-तपश्चर्यावृत्तान्तः ]
एकादशो कम्मः क्षपकश्रेणिमारुह्य प्रक्षयितुं कमरिपून्यथाक्रमं प्रक्रममाणः, स्वयं पाणी कृतेन यत्नकृतावधानत्सरुकेणे काग्रयातिशयधारेण वीर्यगुणप्रष्ठ पुत्रेत भावनापर्यायनिशान जनैशित्येन निर्मलज्ञाननिर्माणेन परमकारुपयोगर्भे ग बहलावरणनि बोलोखातेन मैत्रोस्नेहोपलिप्तेन रत्नत्रयातिरायरूपेण परमशुक्लध्यान कौक्षेपण क्रमेण धर्मवैरिणः सर्वकर्मनिर्माणस्य दुर्मोनस्य मोहनोयकर्ममहारा नस्य मोलभूतत्वाद व समनायाः साहसोः सहसा नासीरता प्राप्ताः सप्त प्रकृतीनिहत्य निरुपमनिजात्म- ५ स्वभावविधातिनि धाति कमवतुष्टयप समू लयात हते, निहत कमरिण मेन मुनिराज पुजयितुं पुजी भूतैरकम शक वक्र वरपरणेन्द्रप्रभु वसुरासुतर बरे करपीडाहमहाईकल्याणविधी विधीयकर्माण्यव रिपयः शन्न बस्तान प्रक्षयितुं प्रक्षपयितुं यथाक्रमं प्रक्रममाण उद्यज.नः, स्वयं स्वत: पाणी हस्तेकृतेन तेन बन्नेन कृतमवधानमैकामयमंव समुष्टिका यस्य तेन, एकाग्याति राय पर धारा यस्य तेन, वीर्यगुण पत्र प्रष्टप्टष्टं श्रेष्टपृष्टं यस्य तेन, भावना पायो यस्य तथाभूतं यत् निशानं तीक्षमीकरणसाधनं १० त नैशियं तैइण्यं यस्य तेन, निर्मलजानन मिथ्यावरहितबोधेन निर्माणं यस्य तेन, परमकारुण्यमेव पयो जलं गौं यस्य तेन, बहुलावरणमध निचोल को शस्तस्मात् उखातेन उद्धृतेन मैथ्येव स्नेहस्तैले तेन लिप्तेन, रत्नत्रयातिशयः सम्यगदर्शनशानचारित्राभिधानरत्ननयमको रूपं यस्य तेन, परम शुक्लध्यानमंत्र कोक्षेयक कृपाणस्तेन क्रमण धर्मवैरिण आत्मस्वमायशत्रीः सर्वकर्मणां निर्माणं यस्मात्तस्य दुर्मो बस्य दुःखन मोक्तुं शक्यस्य मोहनीय कमैंव महाराजो राजाधिराजस्तस्य मौलभूतःवात् मन्ध्यादिमूल वर्गवात् अजस्त्रसहाया ११ निरन्तरसहाया. साहलोः सहस्त्रावान्तर दयुमाः सहसा झटिति नापीरतां प्रबभटता प्रासा: सप्त प्रकृती: मिथ्यात्वं सम्पमिथ्यावं सम्यक्त्वम् अनन्तानुबन्धिक्रोध-मान-मामा-लोमाश्चेति सप्त प्रकृतयः निहस्य नाशयित्या निरुपममनु म निजात्मस्वभावं विधातयतीति तथा सस्मिन् बातिकमणी ज्ञानाचरण दर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां चतुष्टयं तस्मिन्नपि समूलं हत्वेति समूल वातं ते क्षपिते सति, निहताः कर्मवैरिणः कमरिपवो येन तथा भूतम् एनं मुनिजं जबरमहा मुनि पूजयितुनर्वयितुं पुम्जोभूतैरे कंत्रापस्थितः अक्रम २० युगपत् शक इन्द्रः, 'चक्रवाचकवी, धणेन्द्रो भवनबासोन्द्रः तं प्रमुखाः प्रधाना येषु तथाभूता ये इस प्रकार दुर्वह बाह्य तपोंके द्वारा इन्द्रियों की स्वतन्त्रताको दूर कर आत्मस्वतन्त्रताके निष्पन्न होनेपर बिना किसी विघ्न-बाधाके लगातार आम्वन्तर तपोको जो बलपूर्वक कर रह थे, तथा चार प्रकारकी आराधना ही जिनकी चतुरंगिणी सेना थी ऐसे जीवन्धर महामुनि क्षपक श्रेणिपर आरूढ हो कर्म रूपी शत्रुओं का क्षय करने के लिए यथाक्रमसे उद्यत २५ हो रहे थे। जिसे स्वयं हाथ में धारण किया था, यत्नपूर्वक की हुई निष्प्रमाद वृत्ति ही जिसकी मूट थी, एकाग्रताका अतिशय ही जिसकी धारा थी, वीय गुण हो जिसका श्रेष्ठ पृष्ठ भाग था, भावना रूप सानसे जिसमें नोगता उत्पन्न की गयी थी, निर्मल ज्ञानसे जिसको रचना हुई थी, परम दयाभाव रूप पानी जिसके ऊपर चढ़ाया गया था, अत्यधिक आवरण रूपी म्यानसे जा निकाला गया था, मैत्रीरूपी चिकनाईसे जो उपलिन था, और रत्नत्रय ३० ही जिसका अतिशय रूपं था ऐसे परम शुक्ल ध्यान रूपी कृराणसे वे क्रम-क्रमसे धर्म के वैरी, समस्त कमाँ की रचना करनेवाले, कठिनाईसे छूटने योग्य मोहनीय कमरूपा महागजको मूलभूत होनेसे निरन्तर सहायता करनेवाली हजार रूपताको धारण करनेवाली एवं सेनाको प्रमुखताको प्राप्त सात प्रकृतियों को नष्ट कर जब अनुपम आत्म-स्वभावक घातक चार घातिया कर्म भी समूल नष्ट हो गये तब कर्मरूपी वैरीको नष्ट करनेवाले इन मुनिराजको ३५ पूजा करने के लिए एक साथ एकत्रित हुए इन्द्र चक्रवर्ती धरणेन्द्र आदि सुर असुर मनुष्य
१. म० प्रक्षेतुं । २. द.० बहुलावरण ।
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गचिन्तामणिः
[ ६९१ जीवंधरस्यमाने, ध्यानाग्निसाक्षिकमात्मसामर्थ्यादात्मनैवात्मने वितीर्णा पूर्णनिखिलगुणां प्रगुगरमणीयस्व. भाववेषभूषां योषान्तरासंभवदनुभवपौनःपुन्येनाप्यखिनामन्योन्यमन्यूनानतिरिक्तरतिशालीनतया समानभर्तृशीलामतीव केवलां कैवल्यवधू विधिवदुपयम्य सदाप्यनुपरतकाम्ययाप्यनघया तयवा
घातिचतुष्टयेऽपिघातिते प्रतिघरहितसुबहेतुसमृद्ध सिद्धिगृहोदरमासाद्यानवद्यमात्मसंवेद्यमात्मसंभवमा५ त्मस्वभावमात्माह्लादनमनन्तमनन्तरायमनन्तकालस्थितिकमनन्तज्ञानवोर्यदशात्मकमनन्तकर्मक्षया - पेक्षमनन्तपूर्व नननानुपलब्धपूर्व' पुनरनुत्पाद्यमनुपरममनुपममनुत्कर्षमनपकर्षमनुक्षणसुलभं सुम्समनुबोभूयते । सुरासुरनरख चरा देवदानव मानवविद्याधरास्त: करपोडाहः पाणिरोडन योग्यो महाह कल्याणविधिः तस्मिन्
विधीयमाने क्रिपमागे ध्यान मेवाग्निानाग्निः स साक्षो यस्मिन् कमणि वद्यया स्यात्तथा आत्मसामर्थ्यात् १० आमनैव स्वेनैव प्रारमने स्वस्मै बितीणां द तां, पूर्गा निखिल गाः समममा यस्यास्ता, मणरम गोया
सातिशयसुमगा स्वभाववेशभूषा निसर्गनेपथ्यालकारा यस्यास्ताम् , योषान्तरायामन्यस्त्रि पामसंभवद् यद् अनुभवस्योपभोगस्य पौनःपुन्यं तेनापि अस्निनां खेदरहिताम् , अन्योन्यं मियो अन्यूना अहोना अनतिरिका अनधिका या रतिस्तया शालीनतया अपृष्टतथा समानं भर्तृशोलं अस्पाताभूतामित्र केवलामवितीयां
कैवल्यवधू केवलज्ञानयोषां विधिवद् यथाविधि उपयम्य विवाह्य सदापि सर्वदापि अनुयरत काम्यं यस्या. १५ नयाभूयापि अनवया निष्पापया तपैर कैवल्यवाद अवातिचतुष्टयेऽपि वेदनीयायुर्नामगोत्रचतुष्टयेऽपि
घातिते क्षपिते प्रतिवरहितं प्रतिरक्षातीतं यस्तु तस्य हेतुना समृद्धं समन्नम् , सिद्धिगृहोदरं मुकिमन्दिर मध्यम आसाद्य प्राप्त अनवयं निर्दुटम् प्रारमसंवेद्यं स्वेन संवेतुं योग्या, भात्मसंमर्च स्त्रोत्पन्नम्, भारमा हाई स्वहर्ष शारगम् , अनन्त मन्तातीतम्, अनन्तरायं निर्विघ्नम् , अनन्तकालं स्थितियस्य तत् , अनन्तज्ञान
वीर्यदश आस्मा स्वरूपं यस्य तत्, अनन्तकर्मक्षयमपेक्षत इस्य नमसम्मभयापेक्षम् , अनन्तेषु पूर्वजननेपु २० पूर्वजन्मसु पूर्व प्र.ग्न लावमित्यनन्तपूर्वजन नानुपकब्धपूर्वम् , पुनरनन्तरम् अनुत्यायम् उत्पादयितुमनहम,
अनुपरमं विनाशरहितम् अनुस्कर्ष मुस्कर्षरहितम् अनपकर्ष हानिरहितम् अनुक्षण सुलभं प्रतिक्षणसुलम सुखम् अनुबाभूयतेऽत्यर्थमनुभवति ।
और विद्याधरोंने विवाह के योग्य महाकल्याण किया और उन्होंने ध्यानरूपी अग्निका
साक्षीपूर्वक उस एकाकी कैवल्य-केवलज्ञान रूपी बधू को विधि-पूर्वक विवाहा कि जो २५ अपनी सामर्थ्यसे अपने आपके द्वारा अपने आपके लिए दी गयी थी, जिसके समस्त गुण
पूर्णताको प्राप्त थे, जिसका स्वभाव और वेषभूषा अत्यन्त रमणीय थी, जो दूसरी स्त्रियोंमें सम्भव नहीं होनेवाले अनुभव की पुन -पुनः प्रवृत्तिसे भी खिन्न नहीं होती थी और परस्पर हीनाधिकतासे रहित रतिसे सुशोभित होने के कारण जो पतिके समान हो स्वभावको धारण
करनेवाली थी। इच्छाके सदा अनुपरत रहनेपर भी जो निर्दोप थी एसी उसी कैवल्य३. वधूके द्वारा चार अधातिया कर्मो के नष्ट होनेपर वे निर्वाध सुखके कारणोंसे समृद्ध सिद्धि
रूपी घरके मध्य भागको प्राप्त कर उस सुखका अनुभव करने लगे कि जो निष्पाप था। अपने आपके द्वारा संवेद्य था, आत्मस्वभाव रूप था, आत्माको आह्वाद देनेवाला था, अनन्त था, अन्तरायरहित था, अनन्त काल तक स्थित रहनेवाला था, अनन्त ज्ञान, बल और
दर्शन स्वरूप था, अनन्त कर्मों के क्षयकी अपेक्षा रखनेवाला था, अनन्त पूर्व जन्मों में जो 3 पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुआ था, जिसे फिर कभी उत्पन्न नहीं करना है, जिसका कभी
उपरम---अभाव नहीं होता है, जो अनुपम है, जिसमें कभी न उत्कर्ष होता है और न कभी
१.म. विज्ञान।
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एकादशी सम्म
ક
२९५ इति श्रीमद्राभ सिंह सूरिविरचित गद्यचिन्तामणो मुक्तिश्री कम्मो नामैकादशो रूम्मः ॥ गद्यचिन्तामणिः सम्पूर्णः ॥
-मोक्षप्राप्तिवृत्तान्तः ]
$ * २९६ श्रोमहादोर्भासहेन गद्यचिन्तामणिः कृतः । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थान भूषणम् || २२७. स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृतः । गद्यचिन्तामणिर्लोके चिन्तामणिरिवापरः ॥1
$ २९५ इति श्रीमद्वादीमसिंह सूरिविरचित गद्यचिन्तामणौ मुक्तिश्रीरुम्भो नामैकादशी सम्भः । ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः
$ २६. श्रीमदिति — श्रीमद्वादोभसिंहेन वादिन एवेभा गजास्तेषां सिंहो वादी सिंहः श्रीमावासी वादांभसिंहश्वेति श्रीमद्वादमसिंहस्तेन 'वादोमासह' इत्युपाधिचारिणा ओडवदेवेन तन्नाम्ना वार्येण विराय चिरकालपर्यन्तम् आस्थानभूषणं समाभूषणं गद्यचिन्तामणिस्तम्नाम ग्रन्थः कृतो रचितः ।
९७. स्थेयादिति - त्रादीभहरिणा 'वादी सिंह' इत्युपाधिधारिणा भोडयदेवेन कृतो रचितो - १० परो द्वितीयश्चिन्तामणिरिव गद्यचिन्तामणिः तसामग्रन्थो ढोके स्थेयात् स्थिरो भूयात् ।
टीकाकर्तृ प्रशस्तिः—
द्वितीयज्येष्ठमासस्य कृष्णपक्षस्य सतिथौ । चतुर्दश्यां तथा सोमवासरे दिनपोदये ॥ १॥ वीरनिर्वाणः पश्चाद्गतेव्वन्देषु सत्क्रमात् । साष्टवेयुग्मेषु मध्ये सागरवासिना ॥ २ ॥ गल्कीलाखतनूजेन जानक्युदरसंभुवा ।
पारामसमुद्भूत पनालालेन धीमता ॥ ३० गद्यचिन्तामणेष्टीका रचितापधियां कृते । 'वसन्ती' संशिता होषा चिरं स्थेयान्मुद्दे सताम् ॥४॥ सूरिर्वादभ सिंहोऽसावखिला गमवारिधिः । काव्यशास्त्ररहस्यज्ञः क्षमतां स्वदितं मम ॥५॥
अपकर्ष, तथा जो प्रतिक्षण सुलभ रहता है ।
२६५. इस प्रकार श्रीमद्वादीभसिंह सूरि-द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिमें मुक्तिलक्ष्मी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला ग्यारहवाँ लम्भ पूर्ण हुआ ।
२६६. 'जो श्रीसम्पन्न वादीरूपी हाथियों को जीतने के लिए सिंहके समान थे ऐसे ओडयदेव के द्वारा रचा हुआ सभाका भूषणस्वरूप यह 'गद्यचिन्तामणि' ग्रन्थ चिरकाल तक स्थिर रहे ।
२७. 'वामसिंह पदके धारक ओडयदेव के द्वारा रचित यह गद्यचिन्तामणि ग्रन्थ दूसरे चिन्तामणिके समान लोक में स्थिर रहे' |
५
१ म० भूषणः । २ इदं पद्यद्वयं 'क' प्रतो नास्ति ।
* इमौ श्लोको तञ्जपुरवर्ति सरस्वती महालय स्थयोः पुस्तकयो रेकस्मिन्नेव प्राचीनभूते दृश्येते । अनंन कवरस्य 'ओडयदेव इत्यपि नामान्तरमासीदिति प्रतिभाति ।
१५
२०
२५
३०
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परिशिष्टानि
१. क्षत्रचूडालंकारः ( गद्यचिन्तामणिसार: )
२. गद्यचिन्तामणिस्थाः काश्चित्सूक्तयः ३. गद्यचिन्तामणिगत व्यक्तिवाचकशब्दा:
४. गद्यचिन्तामणिगतभौगोलिकशब्दाः
५. गद्यचिन्तामणिगतपारिभाषिकशब्दाः ६. विशिष्टसाहित्यशब्दाः
७:
गद्यचिन्तामणिगत विशिष्टशब्दाः
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१. क्षत्रचूडालंकारः ( गद्यचिन्तामणिसारः ) जम्बूद्वीपलसल्ललामविषये हेमाङ्गदे संबभ
राजा राजपुरी पुरी शुभधरीं सत्यंधरो धारयन् । तासीद्विजयायाहि महिषी रक्तः स तस्यां भवन्
काष्टाङ्ग रसखाय राज्यमखिलं दत्त्वा निशान्तं गतः ॥ १ ।। रात्री स्वप्न त्रिबुद्धनेजमरणो ज्ञात्वा च पुत्रोद्भवं
कान्ताश्चाष्ट मुतस्य संगतिमयं प्रापद्विषादान्ययोः । वारस्य प्रतिहारसंभ्रम गिरा श्रुत्वा स पापं ततः
काष्टाङ्गारनृपस्य सुग्वमहिषीं खं के किनाजोगमत् ।। २ ।। गन्ना संगणं विधाय समरक्षेत्रं हृतं प्रापयन्
योद्धन् कालकालकालवसति ध्यात्वा च मोघं रणम् । प्राप्तोऽमन्दसमाधिसन्निधिभरं भृत्वा स नाकं गतः
सायं के विनिपातिता पितृवने प्राभूत राज्ञी सुतम् ।। ३ ।। तं पुत्रं मुनिवाक्यतो मृतसुतं त्यक्त्वा श्मशाने भ्रमत्
Marati fha नायको निजगृहं प्रीत्या हि नीत्वा ततः । रक्षां संविद तथा च विजयां प्रापय्य यत्याथमं
पुण्यप्रेरितदेवता ननु मनाक् संतोषमासादयत् ॥ ४ ॥ सोऽश्रुतसारत स्वनिवये विद्यालये ह्येकदा
श्रीमद्भिर्गुरुभी रहः सह निजोदन्तेन संबोधितः । त्वं सत्यंधरभूपतेरसि सुतो गन्धोत्कटाऽऽरक्षितः
काष्ठाङ्गार इहाभवत्पितृविनाशेमारिस्थिं तद ।। ५ ।। श्रुत्वा क्रोधविडम्बितः करमतं कृत्वा कृपाणं तदा
पुत्रः शत्रुममुं व्ययान्तु निजं वध्यं क्षणात्त्रागपि । पर बारसूर सुधक्तिशान्तहृदयो ह्यावर्षकालं द
नो स्वाभि रिपोर्वधे मन इतीमं संगरं सत्वरम् || ६ || तस्मै सूरिरयं ततो बहुविधं दत्त्वा सदुपदेशनं
भूयश्चापि मुनिर्बभूव सुभगो जातच मुक्तिप्रियः ।
पुत्रजीवकनामको गुरुवियोगाग्निप्रदग्धो भवन्
तत्वज्ञानजलेन शान्तदहनः कृत्यं स भेजे पनः ॥ ७ ॥ व्याधा जोवनहारका दृढतमा: कालस्य छूता इत्रा
थास्मज्जीवनगोसमूहमखिलं संहृत्य कच्छं गताः । इथं भूपतिमन्दिराङ्गणगता गोजीविनश्चुकुशु
स्तेनोल्लोहितलोचनेन पृतना संप्रेषिता तन्मुखम् ॥ ८ ॥ सा सेना विजिता पलायितवतो व्याधैर्यदा काननांद्
गोपानां वरनायकेन च तदा नन्दाभिधानेन वै ।
देया हाटसप्तमूतिभिरहो पुत्री निजा नाशिने
व्याधानामिति घोषणा निजपुरे संदापितोद्दीपिता ॥ ९ ॥
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४४०
गद्यचिन्तामणिः
श्रुत्वेमां परिघोषणां सखिगणरामण्डितः पण्डितो
गत्वा तत्र निहत्य काननचरानाच्छिद्य गोमण्डलम् । ' ननु जीवकः प्रणिहितां गोदावरी देहजां
दत्तां गोपवरेण गोतयशसं पद्मास्यमग्राहयत् ।। १० ।। गोविन्दां परिलम्य भोगभविको भोग्यां सिपेवे स तां
श्रीतोऽय विवार्य वित्तजननं वित्ते समुद्रेण वै । रत्नद्वीपमगाद् गृहीतविभवः प्रत्यागतो नोकया
आयातो
छिन्नायां निजनाविर्ती रमगमद् वंशस्य खण्डेन सः ॥ ११ ॥
बलायां जलधेर्धरेण भ्रमता विद्याधरेणाखिलं
वृत्तं बुद्धिविनिर्मितं प्रगदितं संबोध्य नीतस्ततः । नित्या लोकपुरी पुनर्गरुडवेगेनादृतो भूरिशो
वीणावादिवरस्य मार्गणकृते संप्रार्थितोऽयं वणिक् ।। १२ ।। तेनायं बहुमानितो निजपुरों कन्यां तदीयां ।
पुनह्यगित्याथ विवाय व प्रविपुलं स्वायंवरं मण्डपम् । वीणावादनलब्बकीतिरुभये जीवधराय क्षणं सोत्साह
तत्रादाद् बहुभूपभूषितदिशे गन्धर्वदतां सुताम् ॥ १३ ॥ एवं प्रस्फुट फुल्ल काननवरे पुष्पाकरे ह्यागते वसंत हादियां जलकेलिदत्तमनसस्ते जग्मुरानन्दिताः । लोका आत्मसः सुशोभिसविध जीवंधरोऽपि व्रजन्
कान्तारं च मुमूर्षवे तदयने मन्त्रं शुने संयदान् ।। १४ ।। मृत्वासी सरमासुतः खलु नगे चन्द्रोदये मन्त्रो
यक्षेन्द्रो जनिष्ट सत्त्वरमयं चागत्य जीवंधरम् । त्या चाथ विनृत्य भक्तिनिभृतो भूयो गतः स्वालयं
चूर्ण तत्र सुहीनमाह गुणवित्स्वर्मञ्जरीनिर्मितम् ।। १५ ।। arraat aaररिपुर्मार्गे महादन्तिना
व्यापन्नां परिरक्षति स्म स महान् कन्यां वणिग्भूपतेः । कालज्ञश्च तयोरनङ्गशबरी बाणान्मुमोचाखिलान्
पश्चात्कीरकदूतकेन नितरां व्यावधि तन्मन्मथः ॥ १६ ॥ * देवाद्योगमवाप्य तौ च निपुण मोदं परं प्रापतु
स्तन्मातङ्गशिरोमणिश्च हननाद् ग्रासं न लेभे स्था । काष्टाङ्गारनृपस्ततश्च नितरां तस्मै विक्रुद्धो भव
न्नाहूयाच कुमारमा रणमनाश्चाण्डालकानादिशत् ।। १७ ।। सुन्धाबद्धकरः कुमारनृपतिः किचिन्न कुर्वस्तदा
दध्यौ देवमसी तदेव स सुरः खे प्रोद्भवन् जीवकम् । आदायाथा गतः स्वकीयवसति चाण्डालदृष्टास्ततों
भीत्याकान्तहृदस्तदेव च शिरः कस्यापि राज्ञे ददुः ।। १८ ।। नीत्वा तत्र कुमारकं स हि सुरश्चन्द्रोदयं पर्वतं
चक्रेऽतिसुषाभिरद्भिरभितः पुण्याभिषेकं ततः ।
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५६
परिशिष्टशनि
ज्ञात्मं परिगन्तुमिच्छुपमरो मन्त्रत्रयं चादिशत्
सोऽयं तेन सुसत्कृतो ह्यनुमतो देशान् दिदृक्षुर्ययो ॥ १९ ॥ मध्ये मार्ग वनाग्निपतितान् दध्यौ गजान् लोकयन्
हस्तिव्याधिविनाशदत्तहृदयः कारुण्यभाग्देवताम् । ध्यानानन्तरमेव वारिदगणाः खे प्रोल्लसन्तोऽनिता
वृष्टया प्राञ्जलवारया दवदवं शान्तं द्रुतं चक्रिरे ॥ २० ॥ किंचिद्दुरगतस्ततः खलु वनाज्जीवंधरोऽयं हितः
संभ्रान्तान् द्रुतगामिनोऽसितमुखान् दृष्ट्वा जनान् प्रावदत् । प्रोर्गुणसन्निवान ! विषये हा पल्लवाख्ये चिरं
वास्तव्पस्य नृपस्य तस्य दुहिता पद्मादिष्टा हता ।। २१ ।। गत्या जीवय तत्र तां यदि भवान् कौशल्यमत्राश्रित:
सोऽथाप्याह चलन् दिशन्तु पदवों गत्वा च भूपालयम् । सौन्दर्येकनिवासिनीं नृपसुतां दृष्टया पव सादरं
देवात्सापि सतना किल सतां पत्थिता ततः ।। २२ ।। तद्भ्रातुदच पितुः समाग्रवशात्कन्यां पद्म ततो
लब्ध्वा तत्र चिरं वसन् बहुविधं निर्विण्णचित्तस्ततः । एकस्यां निशि संचचाल निपुणः प्रच्छशकायोऽब्रुवन्
ज्ञात्वा तहिरहं तशेयललना शोकान्विमग्नाभवत् ।। २३ ।। सोऽयं भूपतिमार्गितोऽपि पिहितो गच्छन्नवचित्कान ने
दृष्ट्वा जैननिकेतनं बहुविधं तुष्टाव भक्त्या भृतः । तद्भक्त्या स्फुटितं कपाटयुगलं वाजं तदीयं तदा
ह्यागत्याच पपात पूतमनसः पादाब्जयुग्मे नरः ।। २४ ।। ज्ञात्वा तेन ततो दन्तमखिलं गत्वा सुभद्रालयं
क्षेमं क्षेमपुरीसमाश्रितमभूत्तत्कन्यकात्रल्लभः । क्षेमश्रीरमणस्ततोऽपि विहितोऽयासीद्यथेच्छं वनं
प्रादात्र सुदानदत्तहृदयो जनाय भूपां विजाम् ।। २५ ।। कान्तारे क्वचिदेकधामनि गतो दृष्ट्वा स्त्रियं पुंश्चली
भूत्वायं हि पराङ्मुखस्तदनु तत्कान्तं रुदन्तं तथा । कृत्वा नैकवित्रोपदेश निलयं तस्माद्गतश्चाग्रतः
संस्थाथ कुमार मस्त कुशलं च सवाणं ह्ययात् ।। २६ ।। पश्चात्प्रार्थना कुमारकृतया गत्वा तदीयां पुरीं
पित्रा तत्र सुसत्कृतः कृलहितो जीवः सुतान् पाठयन् । वि.चित्कालमृबास पूतहृदयो ह्यन्ते च राज्ञः सुतां
शुम्भत्स्मेरमुखी शुभां कनकमालाख्यां खलु प्राप्तवान् ॥ २७ ॥ नन्दादयोऽपि समागतः कथमपि प्रादान्मुदं स्वामिने
तत्रैव बभूव मित्रघटनं जीवस्य जीवंकरम् | पद्मास्येन च मातृजीवनकथां विजाय जीवंधरः
स्नेहान्तमना विहाय महिलां दण्डावों संग्रयी ।। २८ ।।
५-४१
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गवचिन्तामणिः
नित्यं शोकभरान्धचेतसमसौ दृष्ट्वा निजां मातरं
तत्रासोत्सुखदुःखपूरितमना मुग्धः क्षणाज्जीवकः । स्नेहालापसुधासुदिग्वजननीस्वान्तस्ततः केनचित्
कार्यानण गतः स्वकीयवसति भ्राता च मित्रैर्युतः ।। २९ ॥ सोऽयं राजपुरी प्रवेशनिपुणः प्रापद् बणिग्भूपतेः
पुत्री चन्द्रमुखों मनोज्ञरदनां कान्तां ततः कान्तिभाक् । नाम्नाहो ! सुरमञ्जरी गुणधरी मुद्वाह्य संमोदिती
कृत्वा कार्यपटुः स्वकीयपितरो शीघ्र विदेहं गतः ।। ३० ॥ गोविन्देन हि मातुलेन सहितो मन्त्रं चिरं जीवक
स्तत्रायं च चकार चारकुशलो मित्रयुतो घोहितः । आगत्याय पुनः स मातुलसुतां राज्ञः पुरी वीर्यभाग्
वैवाहे किल मण्डपे च विधिना जमाह कौशल्यत: ।। ३१ ॥ कन्याद्वाहनरुष्टदुष्टकुमति युद्धाय बद्धोद्यति
काठाङ्गारमसो निहत्य समरे स्वाधीनतां प्राप्नुवन् । यक्षेणाभिकृताभिषेकसुमहः संगत्य मात्रा ततः
कान्ताभिः कमनीयकान्तिकलिताभिष्टिभिः संयुतः ।। ३२ ।। कालं दीर्घमजीगमज्जनहितो जैनेन्द्रभक्त्या भृतो
मान्यान्धर्मधरान्मुनोनवहितान्समानयन्सादरम् । उद्यानेऽथ विरागकारणमभिप्रेक्ष्यैकदा जीवको
वैराग्याभिभृतस्तपः खलु चरन्मोक्षं सुधी: संययौ ।। ३३ ।।
सागर चैत्र शुक्ला विक्रमसंवत् १९९०
रचयिता पन्नालालो जनः
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२. गद्यचिन्तामरिणस्थाः काश्चित्सूक्तयः
'स्नेहप्रयोगमनपेश्य दशां च पात्र
धुन्वस्तमांसि सुजनापररत्नद्वीपः । मार्गप्रकाशनकृते यदि नाभविष्यत्
सन्मार्गगामिजनता खलु नाभविष्यत् ।।' ग० चि० पीठिका श्लोक ७ 'इयं हि स्वभावारलनि जहृश्य जनिता सर्वविश्वासिता विश्वानर्थकन्दः' परा ९ पृष्ट ३८-३९ 'पुरातसुकृतेतर कर्मपरिपाकपराधीनायां विदि विषादस्य कोऽवसर: ?' पैरा १८ पृष्ठ ५० 'विषयासङ्गोषोऽयं त्वयंव विषयी कृतः । साम्प्रतं वा विष प्रख्ये मुचात्मविषये स्पृहाम् ।।' पैरा ३१ पृष्ठ ६९ 'दुर्लभाः खलु हेयोपादेयपरिशानफलाः शास्त्रावगतीनिश्चिन्वामा विपश्चित:' पैरा ५५ पृष्ठ १०३ 'खल जनकण्टकखि लोकृताः खलु महीभृतामास्थानमण्डपोद्देशाः' पैरा ६० पृष्ठ १०१ "किमस्ति मस्तकमणि फणिपतेरपहर्तुं समर्थो जनः' परा ७८ पृष्ठ १३२ 'दारिद्रयादपि धनार्जने सस्मादपि तद्रक्षणे ततोऽपि परिक्षये परिक्लेशः सहस्रगुणः प्राणिनाम्'
पैरा ७८ पृष्ठ १३३ 'धृतिम तो हि निजोपान्तगतां पोडामेव पीडयन्तः परपीडामपि विभजेरन्' पैरा ९१ पृष्ठ १४९ 'संसारासारभावोऽयमहो साक्षात्कृतोऽधुना । यस्मादन्यदु 'क्रान्तमन्यदापतितं पुतः ॥' पैरा ९२ पृष्ठ १५० 'प्रज्ञापरिबहविरहिता हि पराक्रमा न क्रमन्ते क्षेमाय' पैरा १४५ पृष्ठ २१९ 'न शाम्यति हि कर्मोपशमादृते दुर्मोचोऽयं रागरोग:' पैरा १८९ पृष्ठ २८९ 'रागान्धो ह्यखिलेन्द्रियेणाप्यदर्शनादाबादपि महानन्ध:' पैरा १८१ पृथु २८४ अरुच्यं तु भैषज्यमपि नोपभुज्यताम्' पैरा २५९ पृष्ठ ३८४ 'जीवानामुदय एव न के बले जीवितमपि बलवदधीनम्' पैरा २७३ पृष्ठ ४०६ 'भोगेन हि भुज्यमानेन रज्यमानेनापि त्यज्यते जनः परा २७३ पृष्ठ ४०६ नियोगतश्चेद् भोगानां वियोगः स्वयं त्यागारिकमिति लोकोऽयं विभेति ? पैरा २७३ पृष्ठ ४०७
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३. व्यक्तिवाचक शब्दकोष अंजनगिरि-एक हाथी
२४९।३६९ दृढमित्र-हेमाभपुरीका राजा १९११२८७ अनङ्गतिक का-एक पुंश्चलो विद्याधरी १८८०२८३ धनमित्र-राजा दृढ़मित्र का पुत्र १९१।२८८ अनङ्गमाला-काठाङ्गारको एक वेश्या जो आगे धर-बडवेग विद्याधरका मन्त्री ९५।१५५
चकर जीवको स्नेह करने पर सजा सत्यन्धरका मन्त्री २५।६० • लगी थी १४४।२१७ धारिणी-रुडवेगको स्त्री
९४१५३ भरविन्दरा-ब्रह्मा
९१३९ नन्दगोप-राजपुरीका प्रधान गोप ७७५१३२ अार्यनन्दी-जीवन्धरके गुरु
४४८७ नन्दादय-गन्धोत्कटका निजी पुत्र १९८०२९६ ओहयदेव-वादीसिंहका जन्म-नाम २९६१२९७ नरपतिदेव-क्षेमपुरीका राजा १७३।२६१ कनक्रमाला-राजा दृढमित्रको पुत्रो, जीवन्धरको नलिनी-राजा दृढमित्रकी स्त्रो १९१.२८८ स्त्री
१९४.२९२ नधुति-राजा गोविन्दकी स्त्री २६२१३९३ कमळा-सागरदत्त वश्यकी स्त्री २१३१३१७ निवृति-सुभद्र सेठको स्त्री
१७७।२६९ कालमेघ--एक हाथीका नाम २४९५३६९ पद्ममुख पद्मास्य-जीवन्धरका मित्र
८७५१४३ काष्टाङ्गार-राजा सत्यन्धरका मन्त्री ८.३८ पमा-लोकपाल की पुत्री-जीवन्धरको स्त्रो १५५।२३४ काष्टाङ्गाररिपु-जीवन्धर १६८१२५४ पद्मादयित-जोवन्धर
१६५।२४९ कुबेरदत्त-सुरमतरीका पिता २२७।३३६ परनवेग-धातकी खण्ड-भूमितिलकका कुबेरमित्र-गुणमालाका पिता १४०।२१४
राजा
२८३१४२० क्षेमश्री-नरपति देवकी पुत्री
पवित्रकुमार-जीवन्धर
१९१६२८७ क्षेमश्रीवल्लभ-जीवन्धर
१८५।२७७ पुप्प सेन-बादीभसिंहके गुरु पीठिका श्लोक ६ गन्धर्वदत्ता-राजा गरुडवेग की पुत्री ९४।१५३ प्रियंवदा-गुणमालाको दासी १३०।२०१ गन्धर्वदत्तादयित-जीवन्धर १५७।२३९ बुद्धिषेश-जीवन्धरका मित्र
२१५६३२१ गन्धोत्कट-राजगृहीका सेठ ३८७८ मथन-काष्टाङ्गारका साला
२७.६२ गन्धोत्कटनन्दन-जीवन्धर
१२८५१९९ यशोधर-राजा पवनवेगका पुत्र ( जीवन्धरगरुड़वेग-मित्यालोकका राजा ९४.१५३
का पूर्वभवका नाम) २८३।४२० गरुड़वेगसुता-गन्धर्वदत्ता
१०७१७५ लक्ष्मणा-राजा गोबिन्द की पुत्री २६२१३९४ गुणमह-मरपतिदेवका भृत्य १७४२६२ नोकपाल-आर्यनादीगुरुका पूर्व नाम ५०९४ गुणमाला-जीवन्धरकी स्त्री
१२७११९७ लोकपाक-चन्द्राभनगर का राजा १५५।२३४ गोदावरी-नन्दगोरकी पुत्री
__ वर्धमान-अन्तिम तीर्थकर पीठिका १० गोविन्द-जीवन्धरके मामा-विदेहके राजा २३५।३४८ बादामसिंह-बादीरूपी हाथियोंको नष्ट करने के गोबिन्दा-नन्दगोपको पुत्री
८७४१४३
लिए मिह्के समान दलेपसे चम्पकमाला-विजयारानीकी एक दासीके वेपमें
गचिन्तामणिके कता । पीठिका ६ स्थित यक्षो विजया-सत्यन्धरको स्त्री
७.३० जयलक्ष्मी-एक हस्तिनी २५४।३७७ विजयासूनु-जीवन्धर
१६३।२४६ जीवकस्वामी-जीवन्धर
६६।११८ विनयमाला--गणमालाको माता १४०।२१४ जीवन्धर-सत्यन्धरके पुत्र (कथानायक ) विमला-सागरदत्तकी पुत्री
२१२।३१७ पीठिका श्लोक ९ श्रीदत्त-राजपुरीका सेठ
८९।१४५ तथागह-वृद्ध ९४० श्रीदत्ततनया-गन्धर्वदत्ता
१०४।१७१ सर्वत्र पेराग्राम और पृष्ठोंके दिये गये हैं।
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परिशिष्टानि श्रेणिक-राजगृहीका राजा दूसरा नाम
सुदर्शन-कुत्तेका जीव यक्ष बिम्बसार पीठिका
११ सुदर्शनसुहृद्-जीवन्धर सत्यन्धर-राजपुरीके राजा
५.२९ सुनन्दा-गन्धोत्कटकी स्त्री सत्यन्धर-गन्धर्वदत्ताका पुत्र २८५।४२४ सुनन्दासुत-जोवन्धर सत्यन्धराङ्गज-जीवन्धर
१३४।२०७ सुभद्र-क्षेमपुरीके सेठका सेवक समन्तभद्र-एक प्रमुख आचार्य पीठिका ५ सुमति-सुरमजरीकी माता सागरदत्त-विमलाका पिता
२१२।३१६ सुमित्र-दृढमित्रका पुत्र सात्यन्धरि-जीवन्धर
१९३।२९१ सुरमञ्जरी-जीवन्धरकी स्त्री
१२६:१९५ १५१।२३०
३८७८ १४९।२२४
२२९।३३५ १९२।२८८ १२८।१९९
११८
४. भौगोलिक शब्दकोष क्षेमपुरी १७३।२६१ पल्लव
१५२१२३३ राजा नरपति देवको राजधानी दक्षिण
दक्षिण भारतका एक देश । भारतको एक नगरी। इसके वर्तमान
मारत नामका विचार प्रस्तावनामें देखें।
___ जम्बूद्वीपका भरतक्षेत्र । चन्द्राम
१५३।२३३ राजपुरी
३२४ पल्लव देशका एक नगर ।
हेमाङ्गद देशको राजधानो । चन्द्रोदय
१४८.२२३
विजयाधं गिरि एक पर्वत, जिसपर सुदर्शन यक्ष रहता था।
९३।१५३ चित्रकूट
१६७.२५३
विशावरोंका निशसभूत पर्वत। पल्लवदेशकी सीमा में स्थित तापसोंका विदेह
२३११३४२ एक आश्रम ।
एकदेश-दरभंगाका समीपवर्ती प्रदेश । जम्बाप
१२८ माङ्गद मध्यलोकका प्रथम द्रोप।
भरतक्षेत्रका एक देश सम्भवतः मैसूर का धरणीतिलक
२३२।३४३
कोई प्रदेश । विदेह जनपदको राजधानी ।
हमाभपुरी
१९१४२८३ नित्याकोक
मध्यदेशकी एक नगरी राजा दृढ़रयकी विजयाध पर्वतका एक नगर ।
राजधानी
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५. पारिभाषिक शब्दकोष
धर्मादिनिरय
२८२।४१४
मेरुपर्वत से एक हजार योजन नीचेसे लेकर अधोलोक शुरू होता है उसकी ऊँचाई सात राजु है । उसमें हैं जिनके रूढिगत नाम १ घर्मा, २ वंशा, ३ मेघा, ऊपरकी छह राजु प्रमाण ऊँचाई में सात पृथिवियाँ ४ अंजना, ५ अरिष्टा, ६ मघवा और, ७ माघवी है। इन्ही सार्थक नाम १ रत्नप्रभा २ शर्कराप्रभा, ३ बालुकाप्रभा, ४ पच प्रभा, ५ धूमप्रभा, ६ तमः प्रभा औरं७ महातमः प्रभा है। ये हो सात नरक कहलाते हैं विशिष्ट अध्ययन के लिए राजवातिकका (तृतीयाध्यायप्रारम्भिक भाग ) देखें ।
२८७|४२६
अष्ट प्रातिहार्य तीर्थंकरके समवसरणमें निम्नांकित आठ प्रातिहार्य होते हैं
१ अशोक १हाल, ६ वय ४ भामण्डल, ५ दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, ७ चौंसठचमर, ८ दुन्दुभिवाद्य अष्टमूल गुण २८३१४२२ श्रावकके आठ मूलगुण -- अवश्य करने योग्य कार्य ये हैं -
१ मचत्याग, २ मांसत्याग, ३ मधुत्याग ४ अहिंसाणुव्रत, ५ सत्याणुत्रत, ६ अ बौर्याणुव्रत, ७ ब्रह्मचर्याणुव्रत ८ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । ये समन्तभद्र के मत से हैं । गद्यचिन्तामणिकारने भी इसी मतका उल्लेख किया हैं। जिनसेनाचार्यने मद्यत्यागको मांसत्यागमें गर्भित कर उसके स्थानपर द्यूतत्यागको रखा है। सोमदेवने मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग और बड़, पीपर, कमर, कमर तथा अंजीर इन पांच उदुम्बर फलोंके त्यागको आठ मूलगुण कहा है। पीछे चलकर आशाबरजीने किसी अन्य आचार्यक मतसे निम्नांकित आठ मूलगुण परिगणित किये हैं-१ मद्यत्याग, २ मांसत्याग, ३ मधुत्याग, ४ निशाभोजन त्याग, ५ पंजोदुम्बरफलीत्याग, ६ जीवदया, ७ जलगालन और ८ देव दर्शन
कर्माष्टक ६७।११९ आत्मा रागादि विभाव भावोंका निमित्त पाकर कार्मण वर्गणारूप पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाता है उसके मूलभेद बाय हैं
१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और अन्तराय । इनके उत्तर भेद १४८ होते हैं । विशेष परिज्ञानके लिए तत्त्वार्थसूत्रका अष्टमाध्याय देखें ।
गणधर पीठिका श्लोक १४ तीर्थकर के समवसरण धर्मसभा में जो चार ज्ञानके धारक पदवीधर मुख्यमुनि हैं वे गणधर कहलाते हैं भगवान् महावीर स्वामोके समवसरण में थे जिनमें इन्द्रभूति ( गौतम )
११ गणधर
प्रमुख थे ।
पीठिका १२
चतुराश्रम
१ ब्रह्मचर्याश्रम, २ गृहस्थाश्रम, ३ वानप्रस्थाश्रम और ४ संन्यासाश्रम ये चार आश्रम हैं। इनके कर्तव्य तथा विधि-विधान के विशिष्ट अध्ययन के लिए महापुराण द्वितीय भाग देखें।
चतुर्गति
२८२।४१४
१ नरक, २ तियंत, ३ मनुष्य और ४ देव ये चार गतियाँ हैं । संसारी जीवको दशाविशेषको गति कहते हैं । नियम
२६४।४३२ किसी वस्तुका कालको अवधि लेकर त्याग करना नियम कहलाता है ।
मूलमन्त्र
'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरोयाणं । १२५/१९६ णमो उवज्झायाणं णमो लोए सबसाहूणं ।' है तथा सब विघ्न नष्ट करनेवाला है । जैनधर्म में इस मन्त्रका बड़ा प्रभाव है। यह मन्त्रराज
यस
२९४/४३२ किसी वस्तुका जीवन पर्यन्तके लिए त्याग करना यम कहलाता है ।
व्यसन
बुरे कार्योंमें मानवको आसक्तिको व्यसन कहते हैं । २८३४२१ ये सात है-
१ शिकार, २ परस्त्रीसेवन, ३ चोरी, ४ मदिरापान, ५ द्यूत, ६ मांसभक्षण और ७ वेदयासेवन ।
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;
1
षडङ्गुलकलितत्रिहस्ताधिकसप्तकेन २८२|४१५ प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तारं नारकियोंके शरीरकी ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल है । नीचे नीचे नरक में दूनी-नी होती हुई यह ऊँचाई सातवें नरक में पाँच सौ धनुष हो जाती है। एक अनुप चार हाथका होता है । प्रस्तारवार वृद्धिका अध्ययन करने के लिए राजदार्तिक तृतीयाध्याय, हरिवंश पुराण और त्रिलोकप्रज्ञप्ति देखें ।
सम्यग्दर्शन
५६।१०३ जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात प्रयोजनभूत तत्त्वोंकर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । तत्वोंका विशिष्ट अध्ययन करने के लिए दशाध्याय तस्वार्थ सूत्र | अथवा सच्चें देव सच्चे शास्त्र देखें
1
প্স
अकाण्ड-असमय १/१३ अकाण्डपलित-असमय में प्रकट बालोंकी सफेदी २९४/४३४ अकुतोभया-सत्र ओरसे निर्भय
७७।१३१
अग्रजन्मन् ब्राह्मणं १२५/१९४
३७७७
अङ्गुलीयक- अंगूठो अङ्गविवर्तन - करवट
१२२.१९०
अचण्डभानत्रीय-सूर्य की किरणोंसे भिन्न ६०.१०९ अरमा - बिजली १८०१२७३ अञ्जन शिखरिदेशीय-अंजनगिरिके समान ५३/९९ अतिवेलम् - बहुत समय तक १२२।१९१
परिशिष्टानि
और सच्चे गुरुका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । सच्चे देव आदिका स्वरूप जानने के लिए रत्नकरण्डश्रावकाचार देखें ।
अतिपेलव- अत्यन्त सुन्दर
१४८।२२३ अतिसंधान - अधिक ठगाई
६०।१११
अथवा परपदार्थोंसे भिन्न आत्माको दृढ़ प्रतीति होना सम्यग्दर्शन है। इसके विशिष्ट अध्ययन के लिए समयसार देखें |
सम्यग्ज्ञान
५६।१८३
संशय, विपर्यय और अनध्यवसायसे रहित जीवादि पदार्थोंका जानना सम्यग्ज्ञान है ।
सभ्यकुचारित्र
५६।१०३
संसार के कारणभूत क्रोधादि कषाय तथा हिंसादि पाँच पापोंका त्याग करना सम्यक् चारित्र है ।।
६. कतिपय विशिष्ट शब्दकोष
अधरबन्धु-अधरोष्ठ के समान ३०१८ अधरता - नीचता, नीचेका ओठ
४.२६
१।१३
१९
अध्वन्य-पथिक
मध्युषित-अि
अनङ्गार्तदुस्तर - कामरूपी भँवर से दुस्तर अनमिनन्दित-अस्वीकृत
५९/१७८
२९।६४
३९/७९ अनवद्य:- निर्दोष २२३/३३१ अतिकमणिदर्पण - समीपस्थ मणिमय दर्पण अन्तर्वलो गर्भिणी २०१५४ अन्धः संमार- भोजन सामग्रीका ५३११०० समूह अमादरवहन - उपेक्षा पूर्वक
बांधना
४४०
३।२४
५८।१०७
अनास्था अनादर अनास्थेया- अनादरणीय
.१६५।२५१
अनिमेषाध्यक्ष- देवोंका स्वामी २७५/४०८ अनिमेषवृन्दारक- इन्द्र
२३२ ३४२ अनुप्रेक्षा- विचार ७८११३३ अनुयात्रा - अनुगमन – पीछे
चलना
१।१४
अनूप - समीपवर्ती प्रदेश १।१३ अनुसारथि - सूर्य अनेकप- हाथी
१३.४३ १३१/२०३
३८।७७
अपगतासु-मृत अपचितिविधिज्ञ - पूजाकी विधि जाननेवाला १६९।२५८
अपनीतनिमेष मेष- टिमकाररहित १११।१७८ अपर्यवसायिन् - समाप्त नहीं होनेवाला अनन्त - अपसर्प-गुप्तचर
२६६१ ९७११५९
अपाङ्गविक्षेप-कटाक्ष संचार
अपूप-माल पुवा
२२१।३२८ ५४/१००
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________________
-
४४८
१९
अभिहित - कथित - अभीशुजात - किरणोंका समूह
६०११०९
अभ्यागत अतिथि
१८
११८
भमरमहीरुह-कल्पवृक्ष अमृतकर मित्र-चन्द्रमा के समान
१०४।१७०
अमृता शिन्- देव, सुदर्शनयक्ष
१४९।२२५
३।२३
श्रम्बक-नेत्र
अस्त्रक युग-नेत्र युगल
१२५।१९५
४८ ९०
३।२३
९।३९/
अम्बुजासन - ब्रह्मा
अयुग्मशर - कामदेव
अरविन्दसद्मन् - ब्रह्मा अश्शुिद्धान्तावशेष - शत्रुके
अन्तःपुरको छोड़कर २५०।३७२
अवनेमि - पृथिवी अर्णवाम्बरा - पृथिवी अर्थश्रेष्ठ - वैश्यशिरोमणि
६२ ११३ ३६।७५
९२ १५१
अलक-व - चूर्णकुन्तल- आगे के बाल
९९ १६४ अलंकर्माण कार्य करने में समर्थ ७८।१३३
भळिकतद- ललाटतट
२१६१३२२ अलिकतट विलुमित- ललाटतटपर बिखरे हुए अवरजा - छोटी बहिन
४३।८२
अवसित-सुशोभि
१०३.१६८
अवनीरुयतन - वृक्षका गिरना १५/४८ अविरामम् - निरन्तर १९७ । २९३ अव्याजरमणीया स्वभाव सुन्दरी १९६ २९३ अग्रजिन-निष्पाप १६९।२५९ अशिवशिवा-अमाङ्गलिक शृगाली
१५७१२३७
३५/७३
गद्यतामणिः
अश्वीय श्रोड़ोंका समूह २२०५५ अष्टापद-स्वर्ण २३८५७
अतितृण करीर - हरे हरे तृणोंके अग्रभाग १०१४
अहर्मुख - प्रातःकाल ६९।१२० महाय - शीघ्र
१३४/२०७
आ
आकल्पान्तर दूसरा आभूषण
६०१०९
आकामासुरा - आभूषणोंसे सुशोभित
२६२३९१
आकल्पम्-कल्पकाल तक २४३।३६० आखण्डलकोदण्ड- इन्द्रधनुष
१८०।२७१
छोट-छुड़ाना ३०१८ आयताजात मौज्य - धनवत्ता के कारण उत्पन्न मूर्खता ६३।११५ भादयपरिवृढ-यति ४२।८१ आत्मनिष्ठ अरिवदूवर्ग-काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य ये छह अन्तरंग शत्रु हैं
२६६१३९८
आदक्षितारोपण विवाहके समय
एक नेग २६२/३९० आधिक्षीणा - मानसिक उपधासे १३२।२०४ आधोरण - महावत १४४।२१७ आधोरणानुगुण्य- महावतको
कृश
अनुकूलता
९५।१५४
२७.६२ आभिजात्य - कुलीनता ९०११४६ आभिरूप्य सुन्दरता ९० । १४६ भाग्रेडित- पुनरुक्त आयल्लक काम १३७/२०९ आयल कमर- कामजन्य उत्कण्ठाका समूह १७७/२६८ भारणित - शब्दायमान
आरसित - शब्द
३।१९
१.१२
आराम-उपवन आकोकशब्द-जय-जय शब्द
-
१।११
२१९/३२५
आळी - बाण चलाने का एक
आसन
१९१।२८७ भावमान दो जाती हुई
४०१८०
अश्यानता - शुष्कता ४४२५ आशुशुक्षणि- आग २०७।३०७ भास्थान मण्डपोदेश सभा
मण्डपका स्थान ६०।११० आहार्याहरणविषणा - आभूषण
लानेका अभिप्राय २४१।३५४
उ
उजाङ्गण - झोपड़ीका मांगन १६८/२५५
उड्डीयमान उड़ते हुए ३।१९ म्मित खड़े किये हुए
उदश्वित्-छाँछ
उदन्या-प्यास
५१।९६ उत्तरच्छद-विस्तरका चादर
१२२/१९०
उत्तमाङ्ग - शिर १००११६५ उस्को चोपजीविन् - घूससे जी बिका करनेवाला ६४।११६ उसप्तहाटक-तपाया सुवर्ण
३२१,२२
७७/१३०
१।१३
उद्गमोत्कण्ठमानकळकटी
फूलों के लिए बेचैन स्त्रियाँ
२१०:३१३ उन्नता - उदार, ऊंची १७९१२७० उत्पीड-समूह
३५०७३
उन्मस्तक - खूब बढ़ी हुई
१५०१२२७
उपघ्न- आश्रय १६५।२५१
-
- उपहर-एकान्त स्थान ५६।१०४ उभयसविभगत- दोनों ओर
स्थित
२९/६३
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परिशिष्टानि
४१३
उपरत-अभाव कण-अंगदेशका राजा-महा- काष्ठा-दिशा
२३१५७ उपकार्या-कपड़ेके तम्बू
भारतका एक पात्र ५।२९ - कांदिशीक-मयसे भागा हुआ २४१३५६ कर्णधार-खेवद ९११४८
२४॥५८ उपामकाध्ययन--गृहस्थ धर्मका -कर्णीसुस-चौर्यशास्त्रके प्रवर्तक किंवदन्ती-अफवाह ७५३१२७ वर्णन करनेवाला सप्तम अंग
२७.६२ किरणमालिन्-सूर्य ३४७० ५५।१०२ कर्मण्य-समर्थ २३२।३४२
कीनाश-यमके समान अत्यन्त उर्वीधर-पर्वत कर्मास्तिक-नौकर १३९।२१२
२०७।३०७ उल्लाधता-स्वस्थता १६७।२५३ करिकरट-हाथियोंके गण्डस्थल
कुक्कुटसंपास्य ग्रामपुर-पासऊधस्य-दूध ७७५१२९
४/२५
पास बसे हुए गांव और नगर उरम्यसूनु-वैश्यपुत्र ११६६१८१ करेणुका-हस्तिनी ८३७
२३११३४० ऊपमल-गरम १६२।२४५ कलकण्ट-कोयल १२३।१९१ कुटमलिन दूर किया गया।
-काशनय--अगस्त्मदिर
कलशभवसहस-हजारों अगस्त्य १४१४७
कुट-घड़ा कङ्कलि-अशोक
२४२॥३५६ ऋषि
५८।१०६ कुटिलता टेढ़ापन, मायापारिता कब्जासमावल्लम-लक्ष्मीपति
कविन्ददुहित-यमुना नदी २३८६३५०
१२१।१८९ कुहिमी-वेश्याओंकी दासी कठिनता-निर्दयता, कर्कशता -हार-श्वेत कमल श१
२४२३५७ ४॥२६ कल्याणमय सप्तपुत्रिका
कुण्डल-हायका कड़ा कण्ठदन-कण्ठ प्रमाण स्वर्णनिर्मित सात पुतलियो
१४३३२१६ ७४।१२५
७७।१३२
कुण्डकित कुण्डल-कामरणके कबन्ध-शिररहित पड़ कवचहर दारक-कवच धारण
समान गोल
॥१४ ११६।१८३ करने के योग्य अवस्थावाला पुत्र कुमार-कार्तिकेय ५२८ कवरी-चोटी १३।४४
१९७।२९३
कुलिशपतन-वज्रपात ३३१७ कमलसन्मन्-ब्रह्मा ७।३४ कचित-व्याप्त २३५०
कुवलयानन्दिकरप्रचार-नील कमला-लक्ष्मी
१।११ कशिपु-अन्न वस्त्रादि ९७।१६०
कमलोंको आनन्दित करनेवाली कमलाकर-लक्ष्मीके हाथ, कमल- - काकपेया-गहरी नदी ७५॥१२७ किरणोंके प्रचारसे युक्त, पृषिवी.
५।२९ काच-नेत्रका रोग-काचियाविन्द मण्डलको हर्षित करनेवाले करकोका-ओलों का समूह
५८।१०६ टैक्स के प्रचारसे युक्त ५५२९ १५२।२३१ - काण्डपरिका-परदाका वस्त्र कुवलयैकमोहन-पृथिवीतलको करणबन्ध-नृत्यके विशिष्ट प्रयोग
३३१७० मोहित करनेवाला २२२१३३१
कातरता-भोरुता, चंचलता कुशेशयभू-ब्रह्मा ३१६ करदीकृत-टैक्समें दिये हुए
४.२६ कुशेशयालम कुटुम्बिनी३।१६ कादम्बकदम्बक-हंसोंका समूह सरस्वती ४६६८९ करभोर-करम (मणिबन्ध कलाई
कुसुमकोदण्ड-कामदेव से लेकर छिगुरी तक हायको कामन द्विप प्रतिग्रह-जंगलो
१२१११८९ बाह्य कोर) के समान जाँघों- हाथोके पकड़ने में २४१२३५५ कुसुमशरसहचर वसन्त ऋतु वाली स्त्रियाँ २७०।४०२ कापरिक-मायावियोंमें श्रेष्ठ
१२३३१९२ करवाल-तलवार ३१६६
२३९।३५१ कृर्चकझाप-डांडीके बालोंका करशाखा--अंगुली १८६।२७७ काश्यपी-पषिवी ३१०६९
समूह ५७
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________________
४५.
गचिन्तामणिः
कूलंकष कुल्या-लबालब भरो
खड़गकालिन्दी- तलवाररूपी हुई नहर ३॥१८
घनसार-कपुर १९२।२८९ कृकवाकु-मुर्गा ११०
· यमुना नदी ५।२७ धर्मबिन्दु-पसीना १२२।१९० कृतकशिपु जो भोजन कर चुका
खरखरखावधरा-तीक्ष्ण खुरोंसे घर्माभिधान रसातल-धर्मा२१९१३२६
खुदी पृश्निदो २०४।३०३ रत्नप्रभा नामक नरककी भूमि कृतनप्रष्ट-अत्यन्त कृतन खिलीकृत-उपद्रुत ६०।१०९
१५०१२२८ खलुरी-सेनाका अभ्यास स्थान, घुसूण-केशर १९२१२८९ कृतज्ञचर-पहलेका कुता
दलहन-परछो १।१३ २५२१३७५ खलूस्किा-सेनाका अभ्यास स्थान
- चक्षुप्य-प्रोतिपात्र १७३१२६२ कृतज्ञमानहर-कृत उपकारको
चटुलाचल-चंचलपर्वत 'माननंबालों में श्रेष्ठ २५२५३७५
९१.१४८ कृतहस्त-कार्य करने में समर्थ गगनधुनी-आकाशगंगा
धपद्धांशु-सूर्य ८३।१३७ . ..
७७१३२ कृषीनि अस्ति
माकाशरूपी विष्णु
चतुग्ण-बल-हाथी, घोड़ा, रथ केदार-खेत
और पयादे इन चार अंगोंसे १।१२ कैलिशिखावल-क्रीड़ा मयूर . गनिमीलन-उपेक्षा१३३१२०६
सहित सेना ३०६५ !.
३।२२ गणकगण-ज्योतिषियोंका समह - चतुरम्तयान-पालकी १०५।१७३ केशहस्त-केशपाश -- ७:३६
११९११८६
चतुरूपाय-साम, दान, दण्ड, केशाकशिता-बालोंको पकड़कर गणरात्र-बहुत-सी रात्रियोंका
भेद
८३८ होनेवाला युद्ध ७५॥१२७ समूह ११९६१८६ ।।
चरीरुश्चक्र-भ्रमरसमूह केसरसंकटा-केसरसे व्याप्त
डकी गोलगोल
१२३।१९२ १।१२ चट्टानें . १४८।२२२ चन्द्र शाला-महलका उपरिमकैरवाकर-कुमुदवन १४४६ गीर्वाणगिरि-सुमेरु पर्वत
माग
११।४२ कोकप्रिया-चकवी १६६।२५२
१५२१२३२
चन्द्रोपक-चदेवा ९७।१५८ कोशनिहित-म्यानोंमें रखे हुए गुण-धनुषकी डोरी, दया आदि।
चरू-नैवेद्य
२०१५ ४६२८९
९६६१५७
चमरज-वर ९७१५९ कोहल-सुपारीके फूल १।१२।। गुणनिका-अम्यास ४७१९२ चम्पकचन्द्र-यम्पाके वृक्षोंका कौक्षेयक-तलवार १९:१६२ ।। गृहमधिधर्म-गृहस्थ धर्म
समूह
११० कौटिल्य-मायाचार-टेदापन
५५३१०१ धामीकरकिरीट-स्वर्णमुकुट १७९।२७० गो-पृथिवी, गाय ११४
१५।४८ कौतुकागार-रतिगृह १२१।१९० गोपतित्व-पृथिवीका राज्य, बैल- चामीकरकरण्ड-सोनेकी डिबिया कौवेरककुम-उत्तर दिशा पना
६२१११३
१८११८८ गोमिन-गायौंका स्वामी धामीकरपर्यक-सुवर्णके पलंग क्रमलक-ऊँट ९।१५१
१८००२७२
५१२९७ केङ्काराराव-कांसे के बरतनोंमें । गोसर्ग-प्रातःकाल १९७।२९६ - चिकोट-गिलहरी ११२
आघात लगनेपर निकलने- गोसंन्य-गोपाल ८७:१४२ चित्रीयाविष्ट-आश्चर्यसे युक्त वाला शब्द ३।२१ । गोसंख्य प्रकाण्ड-गोपालोंमें श्रेष्ठ
५४।१०० क्षत जवाहिनी-खूनकी नदी
७७।१३२ चूर्णविगान-चूर्णको निन्दा ११५।१८४ ग्राम-स्वरोंका समूह १०९।१७६
१२९।२००
गड
गुण
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________________
परिशिष्टानि
ज
तुहिनसानुमत-हिमालय पर्वत दृपयच्छावर-दुष्ट बैल जगपरमसमग-प्रलयकाल
६६३११७
१६८/२५६ विकरणशुद्धि-मन, वचन. काय
देहज-कामदेव १४०।२१३ जगतीमत-पर्वत ८.३८
को बुद्धि १६९।२५८ देवन-ज्योतिषी १७३।२६२ जलसदारुण
निपुणतिरस्करिणी-तीन सह- दोर्दगर-भुजदण्ड ३०६५ जलाध्यिास-मास १।१३
बाला परदा १६२१२४४ - दोगल्य-दरिद्रता २।१४ जम्बालजालमग्न. शेबालके.
त्रिविक्रम-नारायण २४५।३६२ द्युमधि:-सूर्य १६२।२४४ सगरमे फंसा हुआ ५८१०७
ज्यक्ष-महादेव १४४१२१८ द्रविण-धन ५५.१०२ जातरूप-स्वर्ण १६८१९५७
त्र्यम्बक-महादेव ३:२३ द्विगुणितस्तवरकोपधान-दुहरे जान्नद स्वर्ण १४।४७
अवगेने युवत तकिय जिधर-पकड़ने की इच्छा १५१२
१०४।९७० दम्य-बछड़े ७७.१२९ ।
द्विजपति चन्द्रमा, द्राह्मण जोषम-चुपचाप १०९।१४६ दम्भोलि-वज्र ८३.६
१६१।२४३ त
दरिद्रता-कृशता, निर्धनता तथागत-बुद्ध ९।४०
४.२६
धव-पति दवदहन-वनकी अग्नि १७४९
१६५५२५० तदात्वसंपादित-तत्काल बने हुए ५४११०० दृशनच्छद-ओठ
धवळवितान-सफेद चंदेवा
५६।१०४ सनुतरा-पतली कृश १७९।२७० दान जलवेणिका-मदरूपी जलका
४६.८२ तनुश्या-पहली कमरवाली
प्रवाह ३।१७
धरशीनर-माहाण १२५॥१९८ १४२।२१६ डाधिक-दहीगे न ले हुए ५५११.४।
धान्यकट-अनाजकी राशियाँ तपनीयगन्तिका-सोनेकी दावधिग्रभानु-दावानल
२.१४ झारी ११९३२६
१५२।२३१
धाराककाहलारसित -- लगातार तरणि-सूर्य दासेरक-दासीपुत्र २४२।३५७
बजनेवालो तुहियोंका शब्द
४।२५ सरणि-जहाज ९१.१४९ ।
दिगन्त दन्तारल-दिग्गज तर्णक-बछड़े १।१४
धीरेय-प्रमुख ७१११३४ तकिमसविध-शरमाके समीप दीनार-स्वर्णमुद्रा ९७४१५९
१६५।२५० दीपमण्डितदीपदह-दीपकसे. - न पम्प व-गरम १८०२७२ तापनाम दर्तीकर-गरमीले घट- सुशोभित समाई १५७१२४१ नमश्चाधीश सुता-गधर्वदत्ता प्टाते हुए माप १५०।२२७ दीघनिद्रा- मृत्यु ७७१३१
१९८।२९६ ताम्बलदल वारिका-पानका दुरन्त-खोटे फलवाला २४।५८ नभोग-विदाधर १८९.२८४
बीड़ा १२१,१८९ दुर्गत-दरिद्र ५१९६ नमुचिमधन-इन्द्र तारापथ-आकाश ८८८४
२०१५४ नरेन्द्र-राजा १५५१२३५ सालम्तग्राहिण-पत्र कालने दुवह मोगभीमभोगी-भारी फनो
नरेन्द्र-विएवंद्य ५६।१०५ वाली ५८
से भयंकर सांप १५०।२२९ नरेन्द्रत्व-गाजपना, विपबद्यतिरीपल-कण्टक, लगाम दुविनीत-उद्दण्ड ४।२५ पना,
६१११३ ७६१२८ दशवादन-रावण ४।२५ नर्तनप्रिय-मयूर १९७।२९४ तुहिनकर-चन्द्रमा ३१९ - दुर्ललित-सुन्दर
नाफल-शिकारी ५५॥१०३ सुहिन किरणबिन-चन्द्रमण्डल दुष्ट शाश्वर-दुष्ट बैल २४१३५४ नालनिष्कृषितनलिन- इण्टलसे
१७५४९ दृषिका आँखका कोचर
तोड़ा हआ कमल १५४।२३३
निग्राद्या-दगडनीय १६५/२५१ नुलाकोटि-सपुर १११
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________________
१५२
गचिन्तामणिः
- निचुलित-आवृत ९३।१५१
प
परिवादपवि-निन्दारूपी वज्र नितान्तजनन-तोतवेग
पङ्कजासना लक्ष्मी २०१५
२४१५८ ९१११४७ पचेकिमफक-पर्व फल ३१७
परिवादिनी--पीणा १००११६६ निद्राण सोते हुए ११३
परिष्कृत-शोभित पनवाणलीला-कामक्रोडा४।२६ निरस्त नीरदावस्थ-दात रहित - पञ्चशाख-हाथ १८२०२७४
परिष्का -घिरी हुई ३३१७ अवस्यासे दूर, मेघोंको स्थितिपञ्चानन-सिंह
परिसर-निकट
२०१५ से रहित १९७१२९३
परतवास-शान ३५१७४ पटवास-पबासित चूर्ण निळूण-निर्दय ९१४९४८
पल्ल वापी-नवीन कोरलोंका
१९२ २८९ निर्वापित-वुझा हुआ १८५१ पटह-नगाड़ा
१।१० १९१:२८६
समूह नियूह-छज्जा ३।२२
पजविन-द्धिगत १०२।१६८ पटिष्ट-प्रत्यन्त चतुर २४०५७ निलिम्पग्रामणी-इन्द्र पीरपङ्क-घिसा हुआ चन्दन ।
परी-अहीरोंको बस्ती
८१.१३५ १०१।१६६
१४०।२१३
पक्षधर-लया १८७१२८३ निशान्त-अन्तःपुर १३११२०३ पण्य योषिद्-वेश्या ५७२ निशामन-अवलोकन
परनपथ-आकाश ९१।१४७ पतङ्ग-सूर्य १६४।२४७
पवनसख-अग्नि ८०११३४ १३१।२०२ पतङ्गमाव-सूर्यकान्तमणि निशित-तीक्षण
पवित्रकुमार-जीवघर २६०६१ १६२।२४५
१९११२८७ निशितशेमुषी-तीक्ष्णबुद्धि
पत्रल-पत्तोंसे युक्न १६२१२४५ पाककपिशकणिशभर-पकनेसे ४४८७
पत्रिन्-बाण २४७१३६६ - निशीथिनी-रात्रि १२१४३
पीली बालोंका समूह १।११ पद्मिनीसहचर-सुर्य २९६६३ - पाल-हाधीकाज्यर १४३।२१६ निषङ्ग-तरकश ७९५१३४
परमपरिट-शेषनाग ९।४० निषादिन्-महावत १४४।२१७
पाकशालिता-निष्ठा-मर्यादासे पयोधर-स्तन, मेघ ९५।१५४
शोभितपना ६३० निष्कपनिषाद-निर्दय भील
परभृत-कोयल ३१७ २४४५८
पाशासन-इन्द्र २९।६३ पराकान्त-शत्रुके आक्रमणसे निष्कण्टकता-क्षुद्र शत्रुओंसे
पाकशासनसरासन-इन्द्रधनुष युक्त १८०।२७३
५०१९५ रहितपना ६।३१ परागपटल-धूलिका समूह १।१४ निष्णासा-निपुणा १८६।२८०
पाटल-कुछ लाल ३८१७७ पराचीन-चराङमुख १८०.२७३ निष्प्रतिघ-निविरोध२४८।३६७ ।।
पाटली-गुलाब परिकर्मविकल-आभूषणोंके । निसृष्टार्थ-राजदूत २४५३३६३
पाणिगृहीतो-कन्या १७३।२६२ प्रकार
१३९४२१२ निहत नियन्तृक-जिनका सारथि
पाश्रीराशि-समुद्र १११ परिक्षेप-घेरा
१८
पाद-किरण, पैर ५२९ मारा गया है. ७५।१२७ परिजिहो-दूर हानेको इच्छा
पायस-दूधसे बने हुए पेड़ा नीराजन-आरती ११०
आदि
५४११०० नीरन्धित-ध्याप्त ३२० परिदेवननिदान-विलापका
पार्थिव-राजा २५.६० नीवी-स्त्रीके अधोवस्त्रको गाँठ
कारण १६६०२५१
पार्थिव-क्षत्रिय १०९.१७७ परिणत-परिपक्व १९५२ नृकरोटिकपर-मनुष्य के शिरको
पिच्छिल-कोच मे युक्त-गोला परिणमन-विवाह १४२१२१५
३।१७ खोपड़ी ३५१७३ परिवुभूषा-तिरस्कारकी इच्छा पिटातक-दुल्दोका चूर्ण ३५।७२ नैरात्म्यवादिन्-मात्माकी सत्ता
पुण्डरीकासना- लक्ष्मी १८ को नहीं माननेवाला ५५।१०२ परिमल-सुगन्धि ११३ पुनरमिहित-गुन रुक्त न्यक्कस-तिरस्कृत १८६।२७९ परिवाद-निन्दा १०९:१७६
१२२।१९०
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________________
Jas
-
पुरन्धीवात - सौभाग्यवतो
स्त्रियोंका समूह १७७ २६८ पुरस्क्रिया - सत्कार १४८/२२३
पुरस्क्रिया - भेंट के समय आगे रखने योग्य ७७।१३० पुराणपुरन्ध्री-वृद्ध स्त्रियाँ
३५/७३
पुरुषोत्तम - विष्णु, श्रेष्ठ पुरुष ६०।१११
पुरुहूत पुरोधस् - वृहस्पति ८३७ पुरोनिहित पृथुतरामत्रपातितसामने रखे अत्यन्त विस्तृत पात्र में परोसा हुआ ५३१९९ पुष्कर - सूँडका अग्रभाग
१४३।२१६
पुष्प रिछोली- फूलों का समूह
१११०
पुष्पकाबीजन - फूल तोड़नेवाली
३।१३
स्त्रियाँ पुष्पवती - फूलोंसे युक्त, रजस्वला स्त्री १५९,२४१ पूगवाटिका सुपारी बाग
११३ पूर्वज-बड़े भाई २०० २९८ पौरोगव - रसोइया ५३४९८ पृथ्वीसुर ब्राह्मण १०९/१७७ पृष्टाष्टक - पीठकी हो
११६।१८३
८३।१३७
प्रकीर्णक- चमर प्रजा मन्त्री बादि प्रमुख वर्ग
प्रजावती - भावन-गन्धर्वदता
५।२७
२००/२१९ प्रताप - तेज, प्रकृष्ट ताप- गरमी १८०/२७३
प्रतारण प्रावीण्य - ठगने की
चतुराई २६५।३१८
प्रत्यासन्न - निबटस्थ २१९ ३२५
3
परिशिष्टानि
५५।१०३
प्रत्यर्थिन् - शत्रु
५६।१०४
प्रतिवळ जलधि - शत्रुरूपी समुद्र
८.३७
३१.६६
२४६३६४
- प्रतीक्ष्य-पूज्य
१७३/२६२
प्रतीपगामिनू - उलटा चलनेवाला
1
प्रत्यासन्नभव्य निकटभव्य
प्रतिभट - शत्रु प्रतिष्क-जावक
२८/६२
प्रदीपादोपकोंसे युक्त अट्टःलिका १६५२५० प्रद्युम्न गरल वेग-कामरूपी विपका वेग १५७/२३८ अपा-प्याऊ १।१३ प्रभूतप्रभृत-बहुत भारी भेंट
१३९/२१२
प्रकयरणिपरिषद् - प्रलयकालीन
सूर्यका समूह ५८।१०६ धूमकेतु - प्रलयकालोन
अग्नि
३१।६६
प्रत्रयस्-वृद्ध
९९/१६२
प्रवाल- मूंगा के दण्ड ४४।८५ प्रशस्तकर्म-हवन आदि उत्तम
कार्य
१०१४
१।१०
प्रसर-फूल - प्रस्तुतस्तनी - जिसके स्तन से दूघ झर रहा हो ऐसी स्त्री ३७/७६ प्रस्विन्नदेह पसीना से युक्त शरीर
३१,६६ १४।४५
- प्रसृमर-फैलनेवाला
प्राज्याज्य-श्रेष्ट की ५३।९९ प्रांशुपुरुष - ऊंचा पुरुष
१९२१२८९
पूर्णपात्र हर्ष के समय मित्र जनोंके द्वारा जबर्दस्ती लिया हुआ उपहार प्रेक्षावत्-बुद्धिमान् प्रेतावास श्मशान
३५१७२
९.४०
३८।७७
व
४५३
कोट- बगुला बन्धुजीवबन्धुर- दुपहरिया के
१।१२
फूलों व्याप्त ३|१८ ३।१८
- बन्धुर-ऊंचे-नीचे
बल निघून पुरोधस् इन्द्रका
पुरोहित वृति ५८०१०६ बलभिदुप-इन्द्रनीलमणि
३.२२
बलमथन-इन्द्र
९/३९
बालेयी-गधी
९।४०
बज्रवदुन- बलवान् सौड़ १११४ बहलिमा अधिकता १।१३ बहिडिम्बर- मयूरपिच्छोंका समूह ७३६
बृहद्वृती-बड़ी-बड़ी ककड़यी ५३।९९
ㄓ
- कायर, झूठे योद्धा
७५/१२६ सार्थ भव्यजीवों का समूह
४४१८६ भस्मक-भस्म व्याधिनामक रोग
भानुमालिन् -सूर्य
भुजान्तर वक्ष स्थल
५१।९६ मागविर - भाग्यते रहित
अभागा १८८।२८३ ४१२४
३५/७२
भुजिष्य-सेवक
१७३.२६२
भुजिष्या - सेविका
२४१/३५४
भूनन्दन - मंगलग्रह पृथिवीको आनन्दित करनेवाला २३३३४५ भूभृत्-पर्वत, राजा ५/२८ भोगावती नागके रहने की
पातालपुरी ३।१५ मोगावली - विरुदावली, कोचि
गाया ६।३० भोजनामत्र - भोजन के पाश्र
५२/९८
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________________
१५३
गद्यचिन्तामणिः
यावक-महावर, रिवाया गेम लगाया जानेवाला साल
२२।५६ - योग्या-अभ्याग १९७२९४
रंग
रक्ता-अनुरागस युः, लालवर्थ
रजनीमुख-तका प्रारम्भ गाग
रणजिका-उत्कण्टा ५९.१०८ श्योगमिथुन-यात्रा चकवी
स्थयूबर-रयका धुग रथक त्या-रथों का समूह
३।२२
भोजनास्थानमण्डप-भोजन- महाह-महामन्य ३७१७७ शालाका स्थान ५२।९८ महावाहिनी-बड़ी सेनाए, बड़ी
नदियाँ २३१६४१
बापता-प्राणता मखाशन-देव १०९.१४७ मणिबन्ध-कलाई १२४।१९३
अत्यधिक शक्तिसे युक्त मणिपरिहार्य-मगियोंके आभूषण होना ५९:१०७
३.११ महिषी-- मुव रानी, विजया मणीचक निचय-भारतीक
३६१७६ फूओं का समूह १०५।१७१ महीक्षित्-राजा १०९।१७६ मण्डलाम-तलवार २०६५ महीपत्य नुमरण-राजाके पंछे मत्त काशिनी-पुन्दरी ६०११०
मरना
३४।७० मदिराक्षी-मादक नेत्रों से युक्त माधवी-मधुकामिनीलता ११०
१३२।२०४ मानसौकस्-हंस १८०२७२ मधुकर मन्नुशि अत मुखरित- मार-कामदेव ६८।१२०
भ्रमरों की सुन्दर इनफारसे माय-चिकनाई ५९५१०८ शब्दायमान १२६।१९२
मीमांसा-मीमांसकमत, विचारमधुकरनिकुरम्ब-नमरसह
शवित
९९।१६२ मुकारत-दूर हुआ १८ मथुप-भौंरा, मदिरा पीनेवाला __मूछना-स्वराका आरोहाबरोह १५१२४३
१०९।१७६ मधुलिह -भ्रभर १२७:१९२ मूपिकावड-चुहियाका विष मनसिजविजयभागावली-सम
२०१।३०० देवकी विजय प्रशस्ति १.९
मृगमद-कस्तूरी १९१२८९ मनुमहिम्ना-मन्त्र की महिमा से,
मंखलाबन्ववन्धुर करधनीकी
कमसे ऊँचे-नीचे १२४११९३ मन्प्रिकृय-मन्त्रवादियों का कार्य,
मंच किंज-श्यामवर्ण १२१४१८९ मन्त्रियों का कार्य ६२१११३
मदुरित-वृद्धिंगत १।११ मन्द्रघोष-जोरदार शब्द ३।२२
मोहतिक-ज्योतिषो ९८।१६१ मन्दप्राण-परणोन्मुख
यमधर-मुनि मन्दरमहीभृत-मेरुपर्वत ५.२७ यन्त्रकलापिन्-मयूगकार यन्त्र मन्दाक्ष-लज्जा १२२.१९० जो आकाशमें उड़ता था मन्दारगरिमा कलरवृक्षका गौरव
२०१५४ ५।२८
यामिकयुवति जन-पहरेपर रहने मस्त-हवा, देव १६२।२४५
वाली स्त्रियाँ १३।४४ मलख-अग्नि १५०।२२७ यामिनीनगयिन-चन्द्रमा मलयजस्थासक-वन्दनका तिला १८४.२७६
यामिनीस्वामिन-चन्द्रमा मलिम्लु-चोर १८०१२१३
१५९।२४१
राजहंस-बड़े-बड़े राजा, जिनके
चांच और पांव लाल हा
एनेस ५/८२ राजभाव-राजपना,चन्द्रपना
६२१११३ राजपरिवह-राजाके उपकरण
राजन्वती-योग्य राजासे युक्त
राजन्य-गजकुमार ४.२५ रुन्द्रस्वन-जोरदार शब्द
१२९।२०० रुरुगण-मृगोंका गड
१६८०२५५ रोलम्धकदम्ब-श्रमर समूह
१४२१२१५
लरह-मुन्दर ११११८५ लव्धव-विद्वान् १२७।१९८ लालाटिक-संवक २०५३०४ लोकोत्तर-सर्वश्रेष्ठ १५७२३९
तिलक ८४
वक्रित-दो वदन शोधु-मुख मदिरा ६०।११०
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परिशिष्टान
पदान्य जन-दानगोल मनुष्य चारि-पानी, हाथी बाँधनका विश्वकर्मन्-ब्रह्मा २०५४
३२० स्थान [ वारी] १८०।२७३ विश्वम्भरा-मित्रो ५८५१०७ बनायुज-घोड़े १०३.१६९ बालधि-पूंछ १२५।१९५ विशिम्पमाल-बाणों को पवित वीपक-याचक ५।२७ चाम-सुन्दरो १८६।२८०
१०६।१७४ वको कम्म-भील ८१।१३५ बाहरिन्-भैमा १६४।१४८
विशीयमाणचिकुरमार-बिखर वराह-उत्तमदिन २४२।३५८ वाहिनी निव-सेनाका समूह हुए बालोंका सम ह १८२।२७४ बराह नय-सूवार के तीन पुतले
७५.१२८ विशेषक-तिलक २१४।३१९ २४२१३५८ विकच विचकिल-फूली मालती विषमेपु-काम २१५।३२० अणिन्-ब्रह्मचारी,साधु ५४।१००
२२०३२७ विषाण-सींग १।१४ वपंधर-खोजा १५६।२३६
विधुन्तुद-राहु ७३१ विष्किर-पक्षी १६२।२४५ घलक्षित-सफ़ेद ९३३१५१ विधेयीकृत-अनुकूल ५४२७
चिसपिन-फैलनेवाला ५८।१०६ वलभी-गोपानसी, मकानकी विचक्षण-विद्वान ७८.१३३
विसमर-फैलनेवाला२४१।३५५ छपरी विचेयता-विरलता १३.४३
विरम्भ--विश्वास ३१६७ चल्गुरख-सुन्दर शब्द २२९।३३८ विजम्मित-विस्तार १४१३
वीचि-सन्तति चलकी वादन-वीणाका बजाना विजम्भिस--वृद्धिगत ८३८ - वीध्र-सफ़ेद २५२।३७५
१०९.१७६ विद्राण-भागते हा १६४४२४८ कट कम-मणिको चमकदार वल्लरीतलज-थेष्ठ लताएं विद्भावित-दूर हटाया १५१३
बनानेके लिए सानपर १६९.२५८ वित्तमदाचन विवेक-धनके
चढ़ाना ६६.११८ वहवरलमा-गोपियाँ
मदसे जिसका विवेक नष्ट हो वेतपड-हाथी ११६:१८२
८७ १४३ गया है ६४११७ - रैजयन्तीदुकूल-पताका वस्त्र वसुधामुर-ब्राह्मण्य ४४८७ विपन:-बोणा १०५।१७३
२२१।३३८ वहिव-नाव २४१५३५५ विपणिपथ-वाचारकी गली
वैदेशिक-परदेशी १५८०२४० म्यजनजात-शाकका समूह
३२१
यात्य-होठपना ४८.९२ विपिन-वन ५६।१०४
चैलक्ष्य-लज्जा १९०।१९. व्याकांश-खिले हुए २९.६३ ।। विबुधराज-इन्द्र ३।२२
वैशारय-पाण्डित्य १०९।१७७ वाचाल-शब्दायमान १९ . विमावरीरमण-चन्द्रमा
बंश्यप्रतीक्ष्य-वैश्योंमे पूज्य श्रीदत्त वाचार-शब्दायमान ३५१७३
१८००२७२
संट ९३।१५१ वाच्यसंपर्क-निन्दाका संयोग विभ्रमहाधिका-छोटी नहर के
वृत्त-गोल, चारित्र ९६।१५७ . १६५।२५१ आकारके बने हए कृत्रिम
वृपशब्द-धर्मा शब्द, बलका वाइव कृपाटयोनि-बड़वानल जलाशय १५२-२३१ विलय विहित-अविनायो
वृषस्था-सम्भोगकी इच्छा वाताकिन्-वात रोगवाला
१९१:२८५
५५॥१.३ १८०।२७२ विलुधिजास्थित-लोटकर उठे। ज्याकांश-खिले हुए २९६६३ वातायन-झरोखा ५०९४
२४२१३५६ धारणपरिवृत-गजराज
विशङ्कर पीठ-बड़ो चौकी शनि-पराक्रम, शक्ति नामक २४२।३५७ शस्त्र
५।२८ दारवाण-कवच ९९.१६२ विशर पंटक-बड़ी पेटियां शतमख-इन्द्र
५.२८ चास्वामनयना-वेदया ३२४
३।२० शतांग-रथ १२३११९३ वारपुवति-श्या २९/६३ -विशरारु-नरवर
शकर-मछली
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४५६
शब्दशासन- व्याकरण ४८/९२ शख्य-निशाना २४५।३६२ शरगुणनिका बाण चलानेका
अभ्यास
२४३।३५९
पिशितमुका मांस
शाखामृग-बन्दर
शाणोपल सीटो
शातकुम्म स्वर्ग शातकुम्भ गिरि-सुमेह
१०९ १७७ ३१।६७
शांतीदरी-कृशोदरी
बलतृण- हरी-हरी घास १।१३ शालिस्तम्- धान के पौधे १.११
१.११
शालेय - धान के खेत शिजित - आभूषणों का शब्द
३५७३
३।१८
४४१८७
९७ । १५८
शिळीमुद्राण
शिलीमुख- अमर शीकर - अधिक शुण्डाकौरस - हाथियोंके बच्चे
२०४/३०३ ३।१८ १६६।२५२
४/२६
१५१२३२
शेषा-पूजा के बाद बच्चे अक्षत
घ
१८५१ शोकधूमध्वज - शोकरूपी अग्नि
२४३३५८ शक्तिकनिकर- मोतियोंका समूह
१५२।२३१
श्वाविधू शिकारी-भोल
षट्चरणचक्र-भ्रमरसमूह
१५०।२२८
१६४/२४८
स
विघटित - सदा खुले हुए
५१:९६ सत्-नक्षत्र, सज्जन ६२/११३
गद्य चिन्तामणिः
सत्यापयामि सत्य सिद्ध करता
१२७।१९८
हूँ सनामि-समान
सनाभि-भाई
सनीडगत - समोपमे स्थित
१५९/२४१
सप्तस्वर-निषाद, ऋषभ, गान्धार,
पड्ज, मध्यम, धंवत और पंचम ये सात स्वर हैं
७.३४
३९१७९
१०२।१७६
सब्रह्मचारिन् सदृश १४/४५ समरहर्षलमदवद्दिम--युद्ध से महावी समाध्मापितम्पादककामको प्रज्वलित करने२२२३३० सम्पराय ( साम्पराय ) - युद्ध, कलह ३.१८ सम्यक्त्वधन- सम्यग्दर्शन रूपो
वाला
धन
४९।९४ सरसीरुहासन विलासिनी-सरस्वतो सर्वसहा- पृथिवी १७६/२६६ सलिलकर्मान्तिक-पानी पड़े
१५३४८
५३।९९
सहकार - सुगन्धित आम के वृक्ष
३०१७
सहस्ररोचिषु-सूर्य १७६।२६६ सहस्राक्षता-हजार नेत्रों युक्त१।११ संपदाभोग - सम्पत्तिका विस्तार ३।१५
पना
संयुगसंनाह-युद्ध की तैयारी
२००/२९९
संस्थित मृत संसृति-संसार सात्यन्धरि- जोबन्धर
सानुक्रोशं दयासहित
* २४८ ३६७ ९८५१
१३२।२०५
१२५/१९४
साभोगा विस्तृत, स्थूल
१७९/२७
साम्प्रतिक आधुनिक आजका
९८।१६६
सायकमष्टश्रेष्ठवाण
सारणी-नहर
सारमेय- कुत्ता
सापिंष्क - घी से बने हुए
२४५/३६३
१/१२
१२५९/१९४
५४।१००
सार्वभौम - महाराज, सत्यन्धर
३४.७०
सांयात्रिक-नावका व्यापारी
सांस संसर्ग - कन्धासे कन्धा
९६।१५५
मिलाकर अत्यन्त निकट १९९/२९८
सिद्धमातृका - अकारादि वर्ण
माला
४४१८८
सुतसुधासूति - पुत्ररूपी चन्द्रमा ३५.७१ सुनासीरदन्तावक इन्द्रका हाथी
७/३३
सुप्रतिष्ठक-तोर्यपाश्र, ठौना
सुमनस-पुष्प, विद्वान्
सुरसरित-गंगा नदी
९७ १५९
९६।१५७ सुमनस्-देव, विद्वान् ५।२८ सुरत दौर्लालित्य - सम्भोगमें अनुकूलताका अभाव २२९/३३७ सुरपतिदेशीय इन्द्रतुल्य
१७३ । २६१
१२१।१८९ सुवृत्त - गोलटिपकी, सदाचार १७९।२७१ सौतिक सुखसे सोये ? यह पूछने वाला १६८२५५
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________________ परिनियानि 112 सौखरात्रिक-रात्रि सुलसे बीती? स्पर्शन-स्पर्श, दान 179 / 270 यह पूछनेवाला 185 / 278 स्फीतफलस्तवक-बड़े-बड़े फलोंसौरमेयी-गाय 205:304 के गुच्छे 1620245 सौबिदरुक-अन्तःपुरमें काम रफीतपरिकर्म-भारी सजावटः / करनेवाला वृद्ध कंचुकी 35172 103 / 169 साहित्य-तृप्ति 54 / 101 / / स्फुटित पाटलीकुसुम-फूल हुए सृणि-अकुश 2661 123 / 192 स्कन्धाबार राजधानी 94 / 153 स्मयापस्मार-अहंकाररूपी स्तनित-मेघ गर्जना 207 / 387 मिरगीका रोग 585106 रतवरकनिचोक-आवरा वा वस्त्र स्याद्वादवज्र-अनेकान्त वादरूपी 46 / 89 4487 स्थपुटित-नतोन्नत 3572 स्वन्त-अच्छे फलबाला 24158 स्थलपुण्डरीक-सफेद गुलाब हरिदन्तराल-दिशाओंका मध्या वकाश हरिदिभ-दिमाज 1171184 हरिविष्टर-सिंहागन 235 / 347 हर्षकष्ट कित-दर्षसे रोमांचित 38 / 78 हर्षकाष्टा-हर्षको चरमसीमा 148 / 224 हस्तिपक-महावत 238350 हाटकपतद्ग्रह-सोने का पीकदान 121519. हिमानीबिन्दुदन्तुरित-ओसकी बूंदोंसे व्याप्त 1831275 हीरारि-रस्सी अथवा जंजीर 215 / 321 स्नुषा-पुत्रवधू 268 / 400 स्निन्धा-स्नेहयुक्त, चिकनी 179 / 270 हरिताश्व-सूर्य 44 / 86 हरिताश्वोदयहरित-पूर्वदिशा 44186