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________________ गधचिन्तामणिः { २६५ जीवंधरस्ययौवनं विभ्रमाणां वैदग्ध्यं वदान्यताया अवसानमनुक्रोशस्य दिष्टिवृद्धि प्रियवादिताया गाढरक्तां पाणिपादाधरे भर्तरि च, अधिकय क्रां पश्मरति कुन्तलकलापे पापसत्त्वे च, निकामतृङ्गां स्तनजघने मानसे च, अतिगम्भीरां नाभिमण्डले भाषिते च, विपुलां विलोचनयोनाम्नि च, दीर्घा भुजलतयोः प्रणतरक्षणे च, सूक्ष्मां महिम्नि करचरणरेखासु च, चारुवृत्तां जङ्घयोश्चरित्रे च, अत्यन्तमृद्वी तनुलतायां गमने च, अतिदरिद्रां मध्ये नैगुण्ये च, आभिजात्येनाभिरूप्येण पावन कृत्येन पातिव्रत्येन च विशिष्टाम्, अष्टधा भिन्नामध्ये कोभावं गतां देवोपरिषदं यथोचितं साकूतस्मितैरपाङ्ग विभ्रमाणां विलासानां यौवनं तारुण्यम्, वदान्यताया उदारताया बैदग्ध्यं नैपुण्यम्, अनुक्रोशस्य कृपायाः 'कृपानुकम्पानुक्रोशो हन्तोनिः करुगा दया' इत्यमरः अवसानं विरामम् प्रियवादिताया मधुरमाषिताया दिष्टिवृद्धि माग्यवृद्धिम्, पाणी च पादौ चाधरश्चेति पाणिपादाभरम् प्राण्यङ्गत्वादेकवचनम् तस्मिन् मतरि १० वल्लभे च गादरताम् भतिलोहितवर्गाम् पक्षे गादमत्यन्तं रनामनुरागयुक्ताम्, पक्षमवति नपने कुन्तल कलापे अककसमूहे पापसत्वे च पापप्राणिनि च अधिक वक्रामति कुटिलाम् अधिकमराम्, अतिनिर्दयाम, स्तनजघने वक्षोजनितम्बे मानसे चेतसि च निकामतुङ्गामस्युन्नतामत्युद्वारा च, नाभिमण्डले तुन्दिको भाषिते च कथने च अतिशम्भीराम भायगाथाम् अतिप्रगलमा च, विलोचन योनयनयोः नाम्निच विपुल दोघां विशालां च, भुजलतयोर्बाहुवर ठयोंः प्रणतरक्षणे च दीर्घामायताम् औदार्यपूर्णा च, महिग्नि माहात्म्य १५ करचरणस्य रेखारतासु च पाणिपादलेखासु सूक्ष्मामबुद्धिगोचराम् अल्पांच, जङ्गयोः प्रस्तयोः घरिने च सदा चारे च चारुवृत्तां सुन्दरयतुंलो प्रशस्ताचारां च, तनुलतायां देहवाल्यां गमने घ भत्यन्तमृद्धीम् भतिकोमलस्पर्शाम, कोमलाङ्गत्वेन गमनासमां च, मध्ये कटिनशे नैपुण्ये च अतिदरिद्रामतिकृशाम् भतिशून्यां च, आमिजात्येन की लीन्येन आभिरूप्येण सौन्दयेण पावन कृत्येन पविनकार्येण पातियायेन च सतीस्वेन च विशिष्ट सहिताम् ष्टधा अष्टप्रकारेश मिनामपि विभानामपि एकीभावम् एकत्वं गतामिति विरोधः पक्ष ऐकमस्यं गतां प्राप्तां देवीपरिषदं राजीसमूहम् यथोचितं यथायोग्यम् भाकून हस्चेष्टितं स्मितं मन्दहसितं भाग्यवृद्धि रूप यौवनको धारण कर रही थी, जो हाथ पैर और अधरोष्ठ तथा भर्ता में अत्यधिक रक्ता-लालवर्ण (पक्षमें गाढ़ प्रीतिसे युक्त ) थी। विरूनियोंसे युक्त नेत्रमें; केशकलापमें एवं पापी जीव में अधिक वक्र थी ( नेत्रा में कटाक्षसे युक्त, केशकलापपक्षमें धुंघरालेपनसे सहित और पापी जीव पक्षमें कठोरतासे युक्त थी)। स्तन, जघन तथा मन में अत्यन्त उन्नत २५ थी (स्तन और जघन नितम्ब पक्षमें अत्यन्त स्थूलतासे युक्त और मन पक्ष में अत्यन्त उदार थी) नाभिमण्डल और भाषणमें गम्भीर थी (नाभिमण्डल पक्ष में गहराई तथा भाषण पक्ष में सारगर्भतासे सहित थी)। नेत्री और नाममें विशाल थी। (नेत्र पक्ष में बड़े-बड़े नेत्रोंसे युक्त थी और नामपक्ष में ख्यातिसे युक्त थी)। बाहुलताओं तथा नम्रीभूत प्राणीकी रक्षा करने में दोषं थी (वाहुलता पक्षमें दीर्घभुजाओंसे सहित और नम्रीभूत प्राणीकी रक्षामें उदार एवं दीर्घकालतक संरक्षण देनेवाली थी)। महिमा तथा हाथ और पैरोंकी रेखाओंमें सूक्ष्म थी ( महिमा पक्षमें अचित्य महिमासे युक्त तथा हाथ पैरकी रेखाओंके पक्ष में सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार सूक्ष्म रेखाओंसे सहित थी)। जंघाओं और चरित्रमें चारवृत्ता थी। (जंघापक्षमें सुन्दर और गोल पिंडरियोंसे सहित थी तथा चरित्र पक्षमें सुन्दर चारित्र-निर्दोष आचारको धारण करने वाली थी)। शरीर लता और गमन में अत्यन्त मृदु थी ( शरीर लता पक्षमें अत्यन्त सुकुमार ३५ , और गमनपक्षमें अत्यन्त असमर्थ थी)। कमर और निर्गुणत में अत्यन्त दरिद्र थी ( कमर आर पक्ष में अत्यन्त पतली कमरसे युक्त और निर्गुणताके पक्ष में निर्गुणतासे रहित-गुणोंसे युक्त थी। नो कुलीनता सुन्दरता पवित्रता और पातिव्रत्य धर्मसे विशिष्ट थी और जो आठ भेदों
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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