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चिन्तामणिः
faureमूर्तिरिव भोगकाङ्क्षाप्रवर्तनी कटुकपाका च ।
S $ ६१. एवं परगतिविरोधिन्या फलदव्ययबहिर्भूतया भूतचतुष्टयमयकायमात्र पुष्प्रिपश्या परार्घ्यचरित्रचर्वण्या चार्वाकमत सब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगृहीताः क्षितिपतिसुताः क्षण एवं तस्मियाकिनिदिए निर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव प्राक्तनमपि गुणप्रतानं वितानीकृत्य जडात्मतामेवात्म५ सात्कुर्वन्ति, कापिलकल्पितपुरुषा इव जडबुद्धेरेवात्मानं घटयन्ति, सदाहंकारसंगतप्रकृतयः प्रकृति
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[ ६१ आर्यनन्दिगुरुणा -
६१. एवं परगतिविरोधिन्येति-- पुत्रमित्थम् परगतिविरोधिन्या अन्य जनसंचारविरोधिन्या १० पक्षे स्वर्गादिपरलोकविरोधिन्या, फलदव्ययात्सार्थकव्ययाद् बहिर्भूतया निष्फलव्ययलीनयेति यावत् भूतचतुष्टयमय काय मात्रस्य पृथिव्यादि भूतचतुष्कनिर्मितशरीरमात्रस्य पुष्टी पोषणे परया सक्कया, परार्ध्यचरित्रचर्वण्या श्रेष्ठाचारविघातिन्या चाकमत सब्रह्मचारिण्या लोकायतिक मत सरक्षया राजश्रिया परिगृहीताः स्वीकृताः क्षितिपतिसुता राजपुत्रास्तस्मिमेव क्षणे राज्य श्रीप्रापणावसर एव नैयायिकैर्निर्दिष्टं प्रदर्शित निर्वाणपदं मंक्षपत्रं तस्मिन् प्रतिष्ठिता इव प्राप्तप्रतिष्ठा इव प्रातनमपि निर्वाणप्राकालिकमपि गुणप्रतानं बुद्धिसुखप्रभृतिगुणसमूहं शून्यीकृत्य पक्षे राज्यारोहणप्राकाखिकमपि सौजन्यादिगुणसमूहं वितानीकृत्य शून्यीकृत्य जडारमतामेव मूर्खतामेव पक्षे निर्गुणतामेव भरमसारकुर्वन्ति 'बुद्धधादिगुणोच्छेदो हि मोक्षः' इति नैयायिका मन्यन्ते का पिल्लकल्पितपुरुश इव सांख्याङ्गीकृतपुरुषा इव जटयुद्धेरेव निश्चेतनबुद्धेरेव पक्षे
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क्षणमात्र मल्पकालपर्यन्तं दर्शिता उन्नतिरुचैरुवं पक्षे वैभवातिशयो यया तथाभूता च, किंपाकमूर्तिरिव विषफलाकृतिरिव भोगका साया भोगाभिलाषस्य प्रवर्तनी कटुकपाका च कुत्सितपरिणामा च अस्तीत शेषः ।
जडप्रभावा----जलप्रभावा - जलके ऊपर प्रभाव रखता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी जडप्रभावा - मूर्ख जनपर प्रभाव रखती है और जिस प्रकार बबूला क्षण भर के लिए अपनी उन्नति दिखलाता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी क्षण-भर के लिए थोड़े समय के लिए अपनी उन्नति दिखलाती है । अथवा यह लक्ष्मी किंपाकफलके समान है क्योंकि जिस प्रकार किपाकफल भोगोंकी इच्छाको प्रवृत्त करता है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी भोगों की इच्छाको प्रवृत्त करती है--बढ़ाती हैं। किंपाकफल जिस प्रकार कटुकफला - मृत्यु रूप फलसे युक्त है उसी प्रकार यह लक्ष्मी भी कटुकफल - दुःखदायी परिणाम से सहित है ।
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६१. इस प्रकार परगतिविरोधिनी - दूसरेकी उन्नतिसे विरोध रखनेवाली ( पक्षमें स्वर्गादि परगतियों से विरोध रखनेवाली ), फलदायक व्ययसे दूर रहनेवाली, पृथिवी आदि भूतचतुष्टयसे निर्मित शरीर मात्रके पोषण में तत्पर रहनेवाली, और श्रेष्ठ चरित्रको नष्ट करनेवाली, चार्वाक मतके सदृश राजलक्ष्मीसे परिगृहीत राजपुत्र उसी क्षण नैयायिकों के द्वारा निर्द मोक्षपदको प्राप्त हुएके समान पूर्ववर्ती गुणसमूह को भी नष्ट कर केवल जडस्वरूपताको अपने आधीन करते हैं। भावार्थ -- नैयायिक दर्शन में मोक्षमें बुद्धि सुख आदि गुणोंका अभाव माना जाता है सो जिस प्रकार नैयायिक दर्शन में निरूपित मोक्षको प्राप्त हुए मनुष्य अपने पूर्व गुणों को नष्ट कर अपने आपको निर्गुण बना लेते हैं उसी प्रकार राजलक्ष्मीको प्राप्त राजपुत्र अपने पूर्ववर्ती दया दाक्षिण्य आदि गुणोंको नष्ट कर जड़ अवस्था - निर्गुण अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । अथवा सांख्योंके द्वारा कल्पित पुरुषोंके समान अपने-आपको जडबुद्धि - हिताहितके विवेक से रहित बुद्धिसे युक्त करते हैं। भावार्थ -- सांख्य दर्शनमें पुरुषको चैतन्यरूप ३५ तथा बुद्धिको जड - अचैतन्य रूप माना गया है और यह भी माना गया हैं कि संसार दशा में चैतन्य पुरुषका जड़बुद्धिके साथ सम्बन्ध रहता है और सांख्य दर्शनमें कल्पित पुरुषों के समान