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________________ * - विवाहवृतान्तः ] दशमी म्भः वीची विमलनोवो विनिहितैककरपल्लवाभिः परेणकरपङ्कजेन कलहंसमिव परिमललोभपतितमुच्चालयन्तीभिश्चामरं वामनयनाभिः कल्पशाखिनमिव कनकलताभिः परिवृत्तम्, उत्तप्ततपनीयदण्डविधारितेन सुमेरुशिखर विलसदुडुपतिमण्डल विडम्बकेन बिमलातपत्रेण तिलकितोपरिभागम्, अनुपरिपाटि स्थिर्तराहित करकमलकलितकनक किरीटेरसकृदभिधीयमानजय जीवशब्दरं सतटलुटित मणिकुण्डलम - चिपर्याकुललोचने रभिनव गगन समुदिततारका निकरानुकारिणा हारेण पुलकित पृथुलवक्ष:- ५ स्थलरवनिपतिभिरारादासेव्यमानम् आहितरत्न केयूरकिरणपाटलितेनाध्यक्षो भवदभङ्गरप्रतापेन भुजयुगलेन चमत्कुर्वाणम्, शारदजलवरघवलाम्बरपरिबेषदर्शनीयं दुग्धजलधिजलपूरमधिशयान मित्र याङ्गिनम्, नभोऽङ्गणे तारागणैरिव तारापति वरापतिभिः संसदि विराजमानं राजानमुपसृत्य तरङ्ग इव विमला धवला या नीवी अधोवस्त्रग्रन्थिस्तस्यां विनिहितः स्थापित एककरपल्लव एकपणिकिमल्यो यामिस्तामिः परेण द्वितीयेन करपङ्कजेन पाणिपद्मेन परिभललोभपतितं सौगन्ध्यलीमपलितं १० कलहंसभित्र कादम्बमिव चामरं वालव्यजनम् उच्चाकयन्तीभिरुत्क्षिपन्तीभिः वामनयनाभिः कनकलताभिः भर्मत्रलरीभिः परिवृतं कल्पशासिनमिव देवद्रुमभिव परितं परिवेष्टितम् उत्तप्तेति --- उत्तप्तपनीयस्य संतप्तस्वर्णस्य दण्डेन विधारितं तेन, सुमेरुशिखरे देवाविशृङ्गे विलसत् शोभमानं यद् उडुपतिमण्डलं agri तस्य विकमनुकारकं तेन विमळातपत्रेण शुक्लच्छत्रेण सिल किंदः शोभित उपरिभागी यस्य तम्, अनुपरिपार्टीति - अनुपरिपाटि अनुपरम्परं स्थितैविद्यमानैः श्राहितेन घृतेन करकमलेन पाणिपद्मेन कलितं सहितं कनककिटस्वर्णमकुटं येषां तैः अलङ्कृत् पुनः पुनरभिधीयमानाः कथ्यमाना 'जय' 'जीव' शब्द येस्तैः सदयोः कम तीरयोर्लुतियो मणिकुण्डलयो रत्नकर्णाभरणयोर्मरीचिभिः किरणैः परकुले व्यग्ने लोचने नयने श्रेयां तैः अभिनवगगनस्य नूतननभसः शङ्कया सन्देहेन समुदितो यस्तारकानिकरो नक्षत्रनिचयस्तस्यानुकारिणा हारेण मुकादाम्ना पुलकितं रोमाचितं पृथुलं विस्तीर्ण वक्षस्थलं भुज:न्तरं येषां तैः भवनिपतिभी राजभिः आराद्दूरेण आसेव्यमानम् आहितेति-महितं घृतं यद् रत्नकेयूरं २० मणिमयाङ्गदं तस्य किरणैः पाटलितेन श्वेतरक्तेन अध्यक्षोभवन् प्रत्यक्षीभवन अमरप्रताप स्यन भुजयुगलेन बाहुयुगेन चमरकुर्वाणम् शारदजलधर इव धवलं शुक्लं यदम्बरं वस्त्रं तस्य परिवेषेण दर्शनीय सुन्दरम् दुग्धजलवेः क्षीरसागरस्य जलपूरं पयःपूरम् अशियानं तत्र शयनं कुर्वाणं शार्ङ्गिणमित्र विष्णुभिव नभोऽङ्गणे गगनाङ्गणे तारागणैर्नक्षत्र समूहस्तारापतिमिव चन्द्रभित्र संसदि समायां धरापतिमी राजभिः १५ २५ ३० गाँठपर जिनका एक करपल्लव रखा हुआ था और दूसरे करकमलसे जो सुगन्धि के लोभ से पड़े हुए कलहंस के समान चामरको ऊपर की ओर चला रही थीं। तपाये हुए स्वर्णदण्डपर धारित एवं सुमेरु पर्वत के शिखरपर सुशोभित चन्द्रमण्डलको तिरस्कृत करनेवाले निर्मल छबसे जिनका उपरितन प्रदेश सुशोभित हो रहा था। जो परिपाटीके अनुसार स्थित थे, जिनके स्वर्णनिर्मित मुकुट जोड़कर लगाये हुए करकमलोंसे सहित थे, जो बारवार जय जीव आदि शब्द कह रहे थे, कन्धोंके तटपर लटकते मणिमय कुण्डलोंकी किरणोंसे जिनके नेत्र व्याकुल हो रहे थे, नूतन आकाशकी शंकासे उदित ताराओंके समूहका अनुकरण करनेवाले हार से जिनका विशाल वक्षःस्थल व्याप्त हो रहा था ऐसे राजा लोग समीपमें जिनकी सेवा कर रहे थे । धारण किये हुए रत्नोंके बाजूबन्दोंकी किरणोंसे कुछ-कुछ लाल तथा प्रकट होते हुए अविनाशी प्रतापसे युक्त भुजाओंके युगलसे जो चमत्कार उत्पन्न कर रहे थे। जो शरद ऋतु के मेघों के समान सफेद वस्त्र के परिधानसे सुन्दर थे और श्रीरसागर के जलके ३५ पूर में शयन करनेवाले कृष्ण के समान जान पड़ते थे और जिस प्रकार आकाश रूपी अंगण में ताराओं से सुशोभित चन्द्रमा होता है उसी प्रकार जो राजाओंसे सभामें सुशोभित थे। ऐसे
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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