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________________ २३१ - वृत्तान्तः ] पञ्चमी लम्भः तावता ववृषुः परुषतरालोकनिमीलिताम्ब कानामम्बरमा लिम्पता मकालबालातपरुचां शम्पासहाणामजस्रोन्मेषणमण्डिताः शुण्डालौर सशुण्डादण्डप्रकाण्डतुल्यस्थौल्यनोरधारा निरन्तरितान्तरिक्षाः प्रतिक्षणसुलभफणिपतिरणरणकवितरणचतुरगम्भीर गर्जितजर्जरितश्रवसः पर्जन्याः । $ १५२. तदनु च निजोद रनिलीनसानुमति सलिलाह्रणधिषणागतनी रदाय मानद्विरदपरिषदि बाडवकृपीटयोनितुलित विलविवरपीयमानपयसि शौक्तिकनिक रानुकारिकर कोत्क रहारिणि विडम्बि - ५ विद्रुमलतायितानद्रुम किसलयापशीमिनि सागर सत्रह्मचारिणि प्रवति या प्रवाहे दावचित्रभानोः परित्रातानालोक्य गजान्गजेन्द्रगामी गतानुशयः शनैरतिक्रम्य मरुभुवं गत्वा गव्यूतिमात्रं तत्रैव सावत्कालेन च पर्जन्या मेवा ववृपुरिति कर्तृक्रियासम्बन्धः । अथ पर्जन्यानां विशेषणान्याह - परुत्रतरेण तीक्ष्णतरेण आलोकंन प्रकाशेन निमीलितानि अस्वकानि नेत्राणि येस्तेषाम् अम्बरं गगनम् आलिम्पताम्, अकालवालात इव अकाण्डप्रभातात इव रुक् कान्तिर्येषां तेषां शम्पासहस्राणां विद्युत्सहस्राणाम् अजस्रं १० निरन्तरं यदुषणं तेन मण्डिताः शोभिताः, शुण्डालानां गजानां य औरसा बालकास्तेषां गुण्डादण्डप्रकाण्डानां श्रेष्ठशुण्डादण्डानां तुल्यं समानं स्थौल्यं यासां तथाभूता या नीरवारास्वाभिर्निरन्तरितमन्तरीक्षं वैस्तथाभूताः प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रति सुलभं फणिपतेः शेषनागस्य रणरणकवितरणे चतुरं निपुणं गम्भीरं सातिशयं च यद् गर्जितं स्तनितं तेन जर्जरितानि जीर्णीकृतानि श्रवांसि श्रोत्राणि यैस्तं । ६ १५२. न्विति तदनु तदनन्तरम् निजोदरे निजमध्ये निलीनोऽन्तर्हितः सानुमान् पर्वतो येन १५ तस्मिन् सलिकाहरणस्य जलग्रहणस्य धिषणया बुद्धया आगता ये नीरा मेघास्तद्वदाचरती द्विरदपरिषद् गजघटा यस्मिंस्तस्मिन् बाडवकृपीटयोनिना बडवानलेन तुलितैः शैलविवरैर्विकः पीयमानं पयो यस्य तस्मिन् भौतिकनिकरानुकारिणो मौक्तिकसमूहानुकारिणो ये करका वर्षांपास्तेषामुत्करेण समूहेन हारिणि मनोहरे, विडम्बितास्तिरस्कृता विद्रुमलताघिताना प्रवालवल्लीसमूहा यैस्तथाभूता ये डुम किसलया वृक्षपल्लवास्तैरुपशोभत इत्येवंशीले, सागरसब्रह्मचारिणि सिन्धुसदृशे पयःप्रवाह पानी पूरे प्रवहति सति, २० दात्रचित्रभानोर्दावानलात् परित्रावान् रक्षितान् गजान् आलोक्य गजेन्द्र इव गच्छतीत्येवंशीलो गजेन्द्रगामी जीवंधरी गतानुशयां विगतपरितापः शनैर्मन्दम् महभुवं रजःस्थानम् अतिक्रम्य व्यपगमय्य गत्यूवि fer करनेवाली, आकाशको लिप्त करनेवाली और असमय में प्रकट हुए प्रातःकालके नाम के समान कान्तिको धारण करनेवाली हजारों बिजलियोंके निरन्तर होनेवाली कौंध से सुशोभित थे । हाथियोंके बच्चों शुण्डाइण्ड के समान मोटी-मोटी जलकी धाराओंसे जिन्होंने आकाश- २५ व्याप्त कर रखा था और क्षण-क्षण में सुलभ एवं शेष नागको उत्कण्ठा उत्पन्न करने में चतुर गम्भीर गर्जनासे जिन्होंने कान जर्जर कर दिये थे ऐसे मेघ बरसने लगे । १३२. तदनन्तर जिसने पर्वतोंको अपने उदर में विलीन कर लिया था, जिसके बीच हाथियों का समूह पानी लेने की बुद्धिसे आये हुए मेघों के समान जान पड़ता था, बडवानल के समान त्रिलोके छिद्रोंसे जिसका पानी पिया जा रहा था, जो मोतियोंके समूहका अनुकरण ३० करनेवाले ओलोंके समूह से सुशोभित था, जो मूँगाकी लताओंको विडम्बित करनेवाले वृकी लहलहाती लाल-लाल कोंपलोंसे सुशोभित था और सागर के समान जान पड़ता था ऐसा जलका प्रबाहु जब बहने लगा तब उन हाथियों को दावानलसे सुशोभित देख गजराज के रहत समान गमन करनेवाले जीवन्धरकुमार पश्चात्तापसे महित हो धीरे-धीरे उस स्थलको लाँचकर दो कोश आगे गये होंगे कि उन्होंने एक पर्वत देखा । वह पर्वत महावंशतया - बड़े- ३५
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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