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________________ गद्यचिन्तामणिः [ १५१ दावानलोपशास्तिगृहातिशायिना, सुजनलोकेनेव पांसुलस्थले स्पर्शरहितेन, गुणराशिनेव वंशोत्कर्षप्रकृष्यमाणेन, तस्करेणेव रक्षाभूयिष्ठे निवृत्तसंरम्भेण दाबपावकेन परितः परीततया परितापपराधीनान्कृपाधीन. मनाः स दोनोद्धरणोचितः कुमारः शतह्रदाशतवलयितानिव वलाहकाननेकपानक्षिष्ट । १५१. दृष्टमात्रेष्वेव तेषु स्वगात्रस्पृगुपद्रवादिव दूयमानः सुतरां सुदर्शनमुहृदयं तदुपद्रव५ परिहृतये हृदयनिहितजिनपतिपदपङ्कजः सुप्तमोनहद इव निभुतनियन्दाक्षिपक्ष्मा क्षणमस्थात् ! MP वेषान्तरणव नेपथ्यान्तरंगेय वेश्याजनाऽपि यः किल प्राप्ती भवति तं स्वमायया दूषयनि, दुष्प्रवेशत्वात दुःखेन प्रवेष्टुं शक्यत्वात् माध्यगृहातिशायिना धनिकजनगृहमतिक्राम्यता धनिकजनगृहमपि रक्षकजनावृतच्याद् दुःपवेशं भवति, सुजनलोकने व सत्पुरुषेणेघ पांसुलस्थले पापस्थाने पक्षे सधूलिस्थाने स्पर्शरहितेन ग्रन्त्र पांसबो मन्ति तत्रानलो न प्रसरतीति लोकसिकम् ' गुणराशिनेव गुणसमूहनेन वंशस्य कुलस्योत्कण १० श्रेष्ठत्वेन प्रकृप्यमाणो बर्धमानस्तन पक्षे वेणूकप्रकृष्यमाणेन, तस्करणेत्र चारेणे। रक्षाभूयिष्ठे रक्षा बहुले स्थान निवृत्त: संरभो यस्य तेन पक्षे भस्मबहुले स्थाने निवृत्तसं रम्भेण दूरीकृतोद्योगेन । एवंभूतन दाबपात्रके न दावानलेन परितः समन्तात् परीततया व्याप्ततया परितापेन संतापन पराधीनास्तान , शतहदा. शतेन विद्युत्समूहेन वलयितान् युक्तान् बलाहकानित मेधानिय लनेकपान करिणः कृष्णधीनं मनो यस्य तश्राभूतो दयालुचित्तः दीनानामुद्धरण उचित इति दीनोद्धरणोचितः अथवा उचितमभ्यस्त दीनोद्धरणं यस्य १५ तथाभूतः बाहिताग्न्यादित्वात्परनिपात: कुमारी जीबंधर ऐक्षिष्ट ददर्श । ६१५१. दृष्टमात्रग्वेवेति-तेयु अनेकपषु दृष्टमानेष्वेव स्वगानस्पृग् स्वशरीरस्पशी य उपद्वस्तस्मादिव सुतरामत्यन्तं दूयमानः परितप्यमानः अयं सुदर्शनसुहृद् सुदर्शनयक्षस खो जीवंधरः तदुपद्रवपरिहृतये गोपद्वपरिहाराय हृदयं चेतसि निहिते स्थापिते जिनपतेरहतः पदपङ्केजे चरणारविन्दे येन तथाभूतः सुप्ता मीना मत्स्या अस्मिस्तयाभूनो हद इत्र जलाशय इव निभृतमत्यन्तं निप्पन्दं निश्चेमक्षिपक्ष्म नयन२० रोमराजियस्य तयाभूतः सन् अणम् अस्थात् क्षणं यावन्निश्चलोऽभूदिति यावत् । तावतेति-जावत्ता था। जो तृप्तिसे रहित होने के कारण अत्यन्त लोभी मनुष्यके समान जान पड़ता था । जो प्राप्त हुए पदार्थ में दोष लगा देनेके कारण वेश्याजनोंके दूसरे वेषके समान जान पड़ता था। जो दुःखसे प्रवेश करने के योग्य होने के कारण धनाढ्य मनुष्यक घरको भी अतिक्रान्त करनेवाला था। जो सजन मनुष्यों के समान पांसुल स्थल-पापी मनुष्योंके स्थल में स्पर्शसे रहित २५ था ( पक्षमें धूलिपूर्ण स्थल में स्पर्शसे रहित था)। जो गुणराशिके समान वंशोत्कर्षसे प्रकृष्य. माण था-चाँसोंकी अधिकतासे बढ़ता जाता था (पक्षमें कुलकी उत्कृष्टतासे बढ़नेवाला था)। और जो चोरके समान था क्योंकि जिस प्रकार चोर रक्षाबहुल स्थानमें--पहरेदारोंसे युक्त स्थानमें प्रवृत्तिसे रहित होता है उसी प्रकार वह दावानल भी रक्षाबहुल स्थानमें अधिक तर भस्मसे युक्त स्थानमें प्रवृत्तिसे रहिन था। उक्त दावानलके द्वारा चारो ओरसे घिरे होनके कारण वे हाथी सन्तापसे युक्त थे तथा सैकड़ों बिजलियोंसे घिरे हुए मेघोंके समान जान पड़ते थे। जीवन्धर स्वामी दीन प्राणियोंका उद्धार करने के अभ्यस्त थे इसलिए उन हाथियों को देख उनका हृदय दयाके अधीन हो गया। . १५१. उन हाथियों के दिखते ही जीवन्धरकुमार इतने अधिक दुःखी हुए मानो वह उपद्रव स्वयं उनके शरीरपर ही हो रहा हो । उनका उपद्रव दूर करने के लिए चे हृदय में जिनेन्द्र ३५ भगवान्के चरणकमलोको विराजमान कर क्षण-भरके लिए स्थिर खड़े हो गये । उस समय उनके नेत्रोंकी बरौनियाँ अत्यन्त निश्चल थी और उससे वे उस सरोवरके समान जान पड़ते थे जिसमें कि मछलियाँ सोयी हुई हो। उसी क्षण जो अत्यन्त तीक्ष्य प्रकाशसे नेत्रों को निमी.
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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