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________________ २२६ -वृत्तान्त:] पचमो लम्मः चषकपुटेषु कृतमधुरसास्वादनमदवशादिव प्रतिदिशं पतता, साटोपं कबलयता स्वाहितवलाहकगृह्य तागहोव बहिणव्यूहान्, वैरिवारिसंभवरुषेव शोषितसरसीगर्भस्थितानि वारिजजालानि लेलिहता, गृहीतगरुडस्वभावेनेव निर्विशङ्कचऱ्यामाणदुर्वहभोगभीमभोगिना, निजजीवितापहारिजीमूतमूलच्छेदेच्छयेव स्फुलिङ्गव्या र चियक्ति समुद्ग छला, दुकालोच लुच्छेतरधूमप्रच्छादितद्यावापृथिवीविभागेन, पात्र दानेनेव भूतिविधायिना, बौद्धेनेव लब्धसर्वस्वभक्षिणा, तत्त्वज्ञानेनेव ५ तमोपहेन, अतृप्तिमत्त्वादतिगृध्नुजनदेशीयेन, प्राप्तदूषणाद्वेश्याजनवेषान्तरेण, दुष्प्रवेशत्वादाढयपुप्यायव चषकपुटानि पानपात्रस्थलानि तय कृतं विहितं यन्मथुरसस्यास्वादनं तन मदी मोहस्तस्य वशादिव प्रतिदिशं प्रतिकाप्ट पतता, सालोपं साम्बरं यथा स्यात्तथा स्वरय दावपावकस्याहिताः शत्रवो ये वलाहका मेवास्तवां गृह्यता मित्रता तस्या गहयेव निन्दयेव बहिणव्यूहान कला पिकलापान कबलयता नसता, वैरिवारिषु शत्रुभूतसलिलपु संभवः समुत्पत्तिस्तस्य रुपेत्र क्रोधेनेव शोपिता निर्जलाकृता याः सरस्यः १० कासारास्तेषां गर्भ मध्य स्थितानि वारिजजालानि नीरजनिकुरम्माणि लेलिहता जिह्वाविषयीकुर्वता, गृहीतो गरुडस्य ताक्ष्यस्य स्वभावो यन तथाभूतेनेव निर्विशङ्क निर्भयं यथा स्यात्तथा चयमाणा दन्तैः शकलीक्रियमाणा दुबहभागीमा विपुलफणा भयंकरा भोगिनः सर्पा येन तेन, निर्जीवितस्य स्वकीयमाणानामहारी यो जीमूतो मंघस्तस्य भूळच्छेदस्वेच्छयेव वान्छयत्र स्फुलिङ्गम्याजेन अनलकणकपटेन वियति नभसि समुद्गच्छता समुत्पतता, दुष्टः कालो दुष्काळस्तेनेव कुकालेनेव तुच्छेतरण महता धूमन प्रच्छादितो १५ यावापृथिव्योराकाशावयार्वि मागो येन तेन, पात्रदानेनेव मुन्यायिकाप्रभृतियोग्यपानदान व भूतिविधायिना संपत्तिविधायिना पक्षे भस्मविधायिना 'भूनिर्भस्मानि संपदि' इत्यमरः बौद्धनेव ताथागतेनेव लब्धं प्राप्त सर्वस्वं भक्षयति खादतीत्येवंशीलस्तेन पक्षे यत्प्राप्त तत्सर्व दग्धं शीलेन, तत्त्वानि जीवाजीवास्तवबन्धसंबरनिर्जरामोक्षाभिधानानि तेषां ज्ञानेनेव तमोपहन मोहापहारिणा पभे तिमिरापहारिणा, अतृप्तिमत्वात् संताप. रहितत्वाद् भतिगृनुजन देशीयन औदारिकजनतुल्येन, प्राप्तस्य दृषणं तस्माद् वेश्याजनस्य कुलटाजनस्य २० रहा था । फूलरूपी प्यालियों में किये हुए मधु रसके आस्वादनसे उत्पन्न नशासे विवश होने के कारण ही मानो जो प्रत्येक दिशामें गिर रहा था। अपने अहितकारी मेघोंकी मित्रताजन्य निन्दाके कारण हो जो मानो मयूरोंके समूहको बड़े आडम्बरोंके साथ ग्रस रहा था । जो सूखे हुए सरोवरोंक मध्यमें स्थित कमलों के समूहको बार-बार चाट रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो 'ये कमल हमारे शत्रुस्वरूप जलसे उत्पन्न हुए हैं। इस क्रोध से ही मानो उन्हें २५ चाट रहा था । गरुड़के स्वभावको ग्रहण किये हुए के समान जो बिना किसी शंकाके दुर्वह फनोंसे भयंकर साँपोंको चबा रहा था। अपने जीवनको हरण करनेवाले मेघोंका मूलच्छेद करनेको इच्छासे ही मानो जो तिलगोंके बहाने आकाश में उड़ा जा रहा था। दुकालके समान जिसने बहुत भारी धुएँ से आकाश और पृथिवीके विभागोंको व्याप्त कर रग्गा श्र: । जो पात्र दानक समान था क्योंकि जिस प्रकार पात्र दान भूतिविधायी-नाना प्रकारकी सम्पत्ति- ३० को करनेवाला है उसी प्रकार वह दाबानल भी भूतिविधायी था-भस्मको उत्पन्न करनेवाला था। जो बौद्ध के समान लब्धसर्वस्वभक्षी था अर्थात् जिस प्रकार बौद्ध अनित्येकान्तवादी होनेसे प्राप्त हुए समस्त पदार्थोंको झणभंगुर वर्णन करता है अथवा आचार-विचारसे रहित होने के कारण जो कुछ भी मिलता है उस सबको खा जाता है उसी प्रकार वह दावानल भी लन्धसवस्वभक्षी था अर्थात् जो भी पदाथे प्राप्त होता था उस सबका वह जला देता था। ३५. जो तत्त्वज्ञान के समान तमोपह-अन्धकारको दूर करनेवाला (पक्ष में मोहको दूर करनेवाला) १. क० बारिजदलानि । २. क० ख० म० समुपगच्छता ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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