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________________ २२८ गद्यचिन्तामणिः [1५० दावानल - भोकरशत्कारकान्दिशीवश्वाविधि, मगगणनिसिताकृतमगयोपेक्षाब भक्षितवनौकसि. वनदहनदह्यमानवंशपरिपाटीपाटनप्रभवझटझटारवचकिताध्वगमनसि: दीनताशान्तवानरकुललीलाकर्मणि ,धर्मसमयारम्भसमधिकदु:सहोम'धर्माभिधानरसातलज्येष्ठे मरुपृष्ठे, निश्चरचिश्छटाबलोढवेणस्फोटस्फुटपुरःपटहेन शुष्काण्यपि शिरांसि महीरुहां ज्वालाभिः किसलयितानि कुर्वाणन, दन्द ह्यमान - ५ नोडोडीननिरालम्बाम्बरभ्र मणखेदपतितपत्रिपत्रपालीचटचटायितरटितवाचाटेन विपिनसत्त्वसंतानविविधवसागन्धानुबन्धविममायेय सपदि निर्दग्धस्निग्धकालागुरुतगहनैरात्मानं धूपयता, कुसुम दुःखीभवन्ता यं दुर्वी कराः सस्तियां भीकरशन्कारेण भयावहशूत्कारशब्दन कान्दिशीका भय द्रुताः इवावियश्वाण्डाला यस्मितस्मिन् , मृगगगस्य हरिणसमूहस्य निमांसतया काश्योतिशयेन मांसहिततया कृता विहिता या मृगयोपेक्षा आखेटोरक्षा तया भुक्षिताः क्षुधातुरा वनीकसी बनेचरा यनिमस्तस्मिन् , वनदहन १० दावाग्निना दह्यमाना भस्मीक्रिपमाण। या वंशपरिपाटो वेणुसंततिस्तस्याः पाटनं विदारणं प्रभवः कारणं यस्य तथाभूती यो झरझटारवो झामटाशन्दस्तेन चक्रितानि प्रस्तानि अध्वगमनांसि पथिकजनचतासि यस्मिंस्तस्मिन् , दीनतया दौर्बल्यजनितदन्येन शान्तानि वानरकुलस्य कपियूथस्य लीलाकर्माणि क्रीडाचेष्टितानि यस्मिस्तस्मिन् , धर्मसमयस्य निदाएकालस्यारम्भण समधिकं यथा स्यात्तथा दुःसही य अप्मा औपयं तेन धर्माभिधानरमानलात् स्नप्रभापृथिवीतलादपि ज्येष्ठोऽधिकस्तस्मिन् । तथाभृते मरुपृष्ठे १५ दावपावकेन दावानलेन इति विशेषणविन्यसम्बन्धः । अथ 'दावपावन' इत्यस्य विशेषणान्याह निश्चरन्ति निर्गच्छन्ति ग्रान्यचीपि ज्यालास्तेषां छटया समूहेनावलीढा व्यापता ये वेणदो बंशास्तेषां स्फोटाः स्फुटनशब्दा एवं स्फुटाः स्पष्टाः पुरपटहा अनेचरवाद्यानि यस्य तथाभूतेन, शुक्रायपि अनायिपि महोल्हां तरुणां शिरांसि शिवराणि ज्वालाभिः किसलयितानि पल्लवितानि कुर्वाणेन, दन्दह्यमाना अतिशयेन दयमाना ये नीताः कुलायास्तभ्य उईना उत्पतिता निराकम्बाम्बानमणखेदपतिता निराधारगगनभ्रमण१० खेदपतिता ये परिणः पक्षिणस्तेषां पत्रपाल्या: पक्षसन्ततेश्चटचटायितरटितेन चटचटाशदन बाचाटो वाचालस्तन, विविधसत्वानां नानावनजन्तूनां संतानस्य समूहस्य या विविधा नानाप्रकारा बप मेदासि तासां गन्धस्तस्यानुबन्धः संस्कारस्तस्य विगमार्यत्र दूरीकरणायेव सपदि शीघ्र निर्दग्धाः स्निग्धा य कालागुरुतरवः कृष्णागुरुचन्दनवृक्षास्तेषां गहनैवनैः आत्मानं स्वं धूपयता धूपन सुगन्धिं कुर्वता, कुसुमानि छटपटाते हुए साँपोंकी भयंकर सूसूफारसे जहाँ शिकारी भयसे भाग रहे थे। मृगसमूह के २५ मांसरहित होने के कारण की हुई शिकारको उपेक्षासे जहाँ बनवासी लोग भूखसे युक्त हो रहे थे। बनको दावानलसे जलते हुए वंशसमूहके फटनेसे उत्पन्न झटझटा झन्दसे जहाँ पथिकोंके मन चकित हो रहे थे। जहाँ दीनताके कारण वानरसमूहको लीलाएँ शान्त हो गयी थी । और प्रोष्म ऋतुके प्रारम्भ होनेसे अधिकताको प्राप्त हुई दुःसह गरमीके कारण जो धर्मानामक पहलो पृथिवीसे भी कहीं अधिक जान पड़ता था। उस मरुस्थलमें उन्होंने उस . दावानलसे घिरे हुए अनेक हाथी देखें कि जिसके आगे-आगे निकलती हुई बालाओंकी छटा से व्याप्त वाँसोक चट स्पनेसे मामो बाजे ही बज रहे थे । जो वृक्षोंके सूखे शिखरोंको भी ज्वालाओंसे पल्लवित कर रहा था | जलते हुए घोंसलोंसे उड़े और निराधार आकाशमें भ्रमण करनेके खेदसे पतित पक्षियोंके पंखों की चटचदा ध्वनिसे जो शब्दायमान हो रहाथा। जंगलके प्राणीसमूहकी नाना प्रकार की गन्धका संस्कार दूर करनेके लिए ही मानो जो अपने-आपको ५ शीध्र जलाये हुए स्निध कालागुरुकं वृक्षों के बनसे धूप दिखा रहा था-धूपसे सुगन्धित कर १. क० ख० ग• दुःसहे धर्माभिधान रसातलज्येष्टे । २. क० ख० ग. दह्यमान। .
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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