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________________ -दावानलवृत्तान्तश्च पञ्चमो लम्भः १५०. ततश्चानतः चिदुग्रत रोमदुष्प्रापे विस्फुलिङ्गायमानपासूत्करे करिनिष्टयूतकरशीक रावशिष्टपयसि , निःशेषपर्णक्षयनिविशेषाशेपविटपिनि, निर्द्रवनिखिलदलनिर्मितममररवरितहमिलि मशाना साहाचा पसरति नरेशुलापहरणकृते निजकायच्छायाप्रदायिदन्तिनि वारणशोणितपारणापरायणपिपासातुरकेसरिण्युदन्यादैन्यप्रपञ्चवञ्चितहरिणगणलि ह्यमानस्फटिकद्दपदि मरकतमयूखरेखापरहरिताकु रहि मृगतृष्णिकाविलोकनोन्मस्तकसलिलतृपि.गुल्मसंदेहसमापादन चतुरबर्हि- ५ वहन्तिःप्रविशदातपयलान्तबालफणिनि, भक्ष्यभिक्षतानुपलक्षित व माहाकुक्षिणि तारता यद्दीकर. १५०. सतश्चायत इति-ततस्तदनन्तरम् क्यचिन कुवापि मर भास्थले इति विशेविशेग्यसम्बन्धः । अथ मस्पृष्टस्य विशेषणान्याह-उनतरंण तीतरंग मा निदापत्वेन दुप्पा दुलझे, विस्फुलिङ्गायमानः वह्निकणवावरन् पांसूरकरी धूलि समूहो यस्मिस्सस्मिन् करिभिहस्तिभिः निष्टयता विमुक्ता ये करशीकुराः शुण्डादण्डसलिलकणास्त एयावशिष्टं पयो यस्मितस्मिन् , निःशेषरनामखिल. १० पत्राणां भर्यण निविशेपाः सदृशा अशेषविरपिनो निखिलद्रमा अरिमस्तस्मिन् , निवाणि शुष्काणि यानि निखिलदलानि समयपर्णानि तैनिर्मितो यो मर्मस्वस्तन भरिता हरिती दिशा यस्मिस्तस्मिन् , मसरवस्य वढेः सब्रह्मचारी समानो महावनो यस्मिंस्तस्मिन् , करणाहस्तिन्यास्तापी धर्मजन्यम्लेशस्तस्य हरणकृत दूरीकरणाय निजकायस्य छायां प्रदद्वतीत्येवंशःला दन्तिनो गजा स्मितस्मिन् , धारणशोणितेन गजरुधिरेण पारणायां भोजने परायणास्तत्परा: पिपासातुरा उदन्यापीड़िता: केसरिणः सिंहा यस्मिस्तस्मिन् , १५ उदन्यया पिपासया यो दैन्यप्रपञ्चो दीनगाविस्तारस्तेन वशित; प्रतारिनो यो हरिणगणो मृगसमूहस्तन लिह्यमाना जिलया स्पृश्यमानाः स्फटिकदषदः श्वेतोपला चस्मिस्तस्मिन् , मरकतमयूखरंखापरा मरकतमणिकिरणरेखासदृशा ये हरितारास्तेषां ध्रुक तस्मिन् , मृगतृपिकाया मृगमरीचिकाया विलोकनेनोन्मस्तका वृद्धिंगता सलिलतृट् पानीयपिपासा यस्मिस्वस्मिन् , गुल्माना दुपाणां संदेहस्य संशयस्य समापादने चतुराणि दक्षाणि यानि बहिबर्हाणि मयूरपिच्छानि तपामन्तमध्ये प्रविशन्त आतपक्लान्ता धर्मपीडिता २० बालफणिनो बालसर्प यस्मिस्तस्मिन् , भक्ष्यस्य खाप्रपदास्य दुभिश्नतया दुर्लभतयानुफ्लक्षिताः कृशत्वे. नादर्शनार्थी बनमहिषाणां काननसैरिमाणां कुभयो जठराणि यस्मिस्तस्मिन् , तापेन धर्मातिशयन ताम्यन्ता ----. ... . . .-.-- .---- - ६ १५०, तदनन्तर चलते-चलते उन्होंने कहीं एक ऐसा मकस्थल देखा जो अत्यन्त तोत्र गरमीके कारण दुष्प्राप्य था-जहाँ पहुँचना कठिन था। जहाँ धूलिका समूह अग्निके तिलगोंके समान आचरण करता था। पानी के नामपर जहाँ हाथियोंके द्वारा उगले हुए हूँड़के २५ छींटे ही अवशिष्ट थे। समस्त पत्तों का क्षय हो जाने से जहाँ सब वृक्ष एक समान हो गये थे। सूखे हुए समस्त पत्तोंक द्वारा निर्मित मर्मर शब्दसे जहाँ दिशाएँ भरी हुई थीं। जहाँ अग्निके समान वायु बह रही थी । जहाँ हस्तिनीका सन्ताप हरनेके लिए हार्थी अपने शरीरको छाया । प्रदान कर रहे थे । हाथियों के रुधिर के भोजन करने में तत्पर सिंह जहाँ प्याससे पीड़ित हो रहे थे । ग्याससम्बन्धी दीनताके विस्तारसे ठगे हुए हरिगोंके समूह जहाँ स्फटिकमणिक ३० पत्थरोंको चाट रहे थे । जो मरकत मणियों की किरणरेखाके समान हरे अंकुरोके साथ द्रोह कर रहा था। मृगतृष्णाके देखनेसे जहाँ पानीकी प्यास और भी अधिक बढ़ रही थी। खाने योग्य पदार्थोकी दुर्लभतासे जहाँ जंगली भैंसोंके पट दिखाई ही नहीं पड़ते थे । गरमासे १. ख० ग० हरिताहि , क. हरिताकानगुहि, म० हरिताङ्करहि ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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