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________________ २२६ गचिन्तामणिः [१४९ जीबंधरस्य यात्राप्रस्खलितपद: स्वपदाभिमुखस्तन्यपदे पदे पृष्ठावलोकनं साहाय्यमनुष्ठातुमनुचरमिव कुमारस्य कुवलयितकुवलयं लोचनयुगल प्रेरयन्प्रचुरानुशयः शनैः शनैनिजशैलमशिथियत् । एवं चिरा दधिरुह्यान्तरिक्षमन्तहिते यक्षेन्द्रे, मृगेन्द्र इव वीतभीतिः स्ववीर्यगुप्तः स कुरुकुलकुमुदेन्दुरप्यमन्दादरा दरण्यशोभापहितेक्षणों विहरन्विगतातपत्रमेनमातपात्त्रातुमिव निराकृतातपान्मार्गपादपानिरन्तर५ निपतन्निर्झरनिभेन निसहायकुमारनि रोक्षणदाक्षिगयविगलदविरलाश्रप्रवाहरांभृतानिव महीभृतश्च गोशमा प्रत्यासित मितचिम महान्तं कान्तारपथमल घयत् । पुनरपि अनुसृतानि कतिपय पदानि ग्रेन तथाभूतोअनुगाकतिपयपदः प्रतिनिवृत्य प्रत्यावृत्य प्रस्सक्तिं पदं यस्य तथाभूतः प्रतिपनित चरणः स्वपक्षाभिमुखों निजनि केन नाभिमुखः पदे पद चरणे चरण पृष्टावलोकन पश्चादवलोकनं वितन्वन् कुर्वन कुमारस्य साहाय्यम् अनुष्ठातुं विधातुम् अनुचरमिव सेवकमिव कुवलयितं १० कुवलयानि नीलारविन्दानि संजातानि यस्मिन्नन् तथाभूतं कुवलयं भूमण्डलं येन तत् लोचनयुगलं नयन युगं पोरयन् चलयन् प्रचुरानुशयो विपुलपश्चातापयुतः शनैः शनैः मन्द-मन्दं निजशैलं स्वासगिरिम् भशिश्रियत् । एवमिति-वमनेन प्रकारेण चिराद् दीर्घकालानन्तरम् अन्तरिक्षं गगनम् अधिरा यक्षेन्द्रे मुदर्शनेऽन्तहित तिरोहिते सति, मृगेन्द्र इव सिंह इब वोनभीतिनिर्भय: स्ववीर्यगुप्त: स्वपराक्रमपालित: स पूर्वोक्तः कुरुकुलकुमुदेन्दुः कुरवंशकुमुदकलाधरोऽपि अमन्दादरान प्रचुरादरात भरण्यशोभायां काननसुपमायां १५ प्रहित ईक्षणे नयने येन तथाभूतो चिहरन विगतं दुरीभूतमातपयं छन्नं यस्य तयाभूतम् एनं कुमारम् आतपाद् धर्मान, वातुभिध रक्षितुसिव निराकृत भातपो यैस्तान दूरीकृतधर्मान् मार्गपादपान् बत्मविनिरुहान् , निरन्तरं यथा स्यात्तथा निपततां निराणां वारिप्रवाहाणां निभेन व्याजेन निःसहायस्य एकाकिनः कुमारस्य जीवकस्य निरोक्षगे चद् दाक्षिण्यं सरलत्वं तेन विगलन् पतन् योऽविरलाअग्नवाहस्तेन संभृतानिव पूर्णानिव महीभृतश्च गिरीश्च प्रेक्षमाणी विलोकमानः प्रत्यक्षि तानि प्रत्यक्षं दधानि यशोदितःनि सुदर्शन यक्षनिवेदितानि २० चिहानि यस्मिस्तम् महान्तं दीर्घ कान्तारपथं वनमार्गम् अहाय झगिति अलङ्घ यत् अस्यकमीत् । - -- लौट आना था तथा कुछ कदम उनके पीछे-पीछे चलने लगता था। चलते समय उसके पैर लड़खड़ा जाते थे। यद्यपि वह अपने निवास स्थानकी ओर जा रहा था तथापि पद-पदपर पीछेकी ओर देखता जाता था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुमार की सहायताके लिए सेवकके समान कुवलय-पृथिवी मण्डलको कुवलयित-नील कमलोंसे व्यात-जैसा २५ करनेवाले नेत्रयुगलको प्रेरित कर रहा था। इस तरह बहुन भारी खेदसे युक्त होता हुआ वह धीरे-धीरे अपने पर्वत पर जा पहुँचा। इस प्रकार बहुत देर बाद वह यक्षेन्द्र जी आकाशमें अधिरूद्ध होकर अन्तर्हित हो गया तब सिंहके समान निर्भय और अपने पराक्रमसे सुरक्षित कुमकुलकुमुदचन्द्रमा जीवन्धरम्वामी भी बहुत भारी आदरसे वन की शोभा देखने के लिए नत्राको प्रेरित करते हुए विहार करने लगे। बिहार करते हुए वे छत्ररहित अपने ३० आपको घामसे बचाने के लिए ही मानो घामको दूर करने वाले मार्ग के वृक्षों को और निरन्तर पड़ते हुए झरनोंके बहाने सहायरहित कुमारको देखनेके कारण सरलतावश झरनेवाले अविरल . आँसुओंके प्रवाहसे युक्त पर्वतीको देखते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। इस तरह उन्होंने जहाँ यनके द्वार। कहे हुए चिह्न प्रत्यक्ष दिवाई दे रहे थे ऐसे वहुंन भारी जंगली मागको शीर ही पार कर दिया। १. कानन पटावलोकन । २. क. ग. देशाधिरह्म ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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