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________________ गद्यचिन्तामणिः २०२-२०९. इसी बीच जीवन्धरके मित्र पद्मास्य वगैरह गायोंके अपहरणका व्याज करते हुए वहां आ पहुंचे। सब मित्रोंसे मिलकर जीवन्धरको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन मित्रोंसे उन्हें यह भी मालूम हुबा कि मेरी माता विजया दण्डक वनकेतपोवनमें विद्यमान है। माताका समाचार पाकर जीवन्धरका हृदय मात-दर्शनके लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो उठा और वे सब मित्रों के साथ चलकर माता विजयाके पास जा पहुंचे। चिर विमुक्त माता पुत्रके मिलनने तपोवनका वातावरण आनन्दमय कर दिया। तदनन्तर माताको अपने मामाके घर भेजकर जीवन्धर राजपुरीकी ओर चल पड़े। २१०-२१३. तदनन्तर राजपुरीमें एक सेठके घरके सामने निकलते समय उन्होंने मकानकी छत से किसी कन्या हायसे नीचे पड़ती हुई गेंद देखी। गेंदको देखकर ज्यों ही उनकी दृष्टि उस कन्यापर पड़ी त्योंही उसके प्रति उनका अनुराग बढ़ गया। वे वहीं रुक गये। उनके पुण्य प्रभावसे कन्याके पिता सागरदत्त सेठके वह रत्न जो बहुत समयसे पड़े थे बिक गये । सेठ सागरदत्त उन्हें बड़े सम्मानके साथ भीतर ले गया और कहने लगा कि मेरी कन्या विमला है। निमित्तज्ञानियोंने कहा था कि जिसके आनेपर तुम्हारे रत्न बिक जायेंगे वही इसका पति होगा। आपके भवनके निकट आते ही मेरे सब रल बिक गये । इसलिए आप इस कन्याको स्वीकृत कीजिए। सागरदत्त सेठ की प्रार्थना स्वीकृत कर उन्होंने विमलाके साथ पाणिग्रहण किया। ३१३-३१७ नवम लम्भ २१४-२२४. विमलाके साथ रात्रि पतीत कर जब जीवन्वर अपने मित्रोंके पास पहुंचे तब सब मित्र इनके सौभाग्यकी प्रशंसा करने लगे। परन्तु एक बुद्धिषे मित्रने व्यंग्य कसते हुए कहा कि जिन्हें कोई नहीं पूछता था ऐसी लड़कियों के विवाह लेने में क्या सोभाग्यकी बात है। यदि ये सुरमंजरीको विवाह लें तो इन्हें सोभाग्यशाली समझा जाये । जीवन्धरको बुद्धिषेकी बात लग गयी और वे एक वृद्धका रूप बनाकर सुरमंजरीके घर पहुंचे। प्रतिहारियोंके रोकने पर भी ये भवनके भीतर घुस गये। प्रतिहारियोंने सुरमंजरीके पास इसकी खबर भेजी। सुरमंजरीने वृद्धवेषो जीवन्धरको प्रेमसे भोजन कराया। भोजनके बाद वह वहीं सो गये । मध्यरात्रिके समय इन्होंने मधुर संगीत छेड़ा। इनके संगीतसे प्रमावित होकर सुरमंजरीने पूछा कि जिस तरह आपका संगीतपर अद्भुत अधिकार है इसी तरह अन्य कार्योंपर भी होगा? उन्होंने कहा कि है । तब सकुचाती हुई उसने कहा कि जीवन्धरके साथ मेरा सम्बन्ध होना क्या शक्य है ? जीवन्धरने उत्तर दिया कि यदि मेरी बात माननेमें तत्पर होओ तो अवश्य शक्य है और बात यह है कि समस्त वरदानोंके देनेमें दक्ष कामदेवका मन्दिर है। वहाँ आप चलें। वहाँ तुम्हारा सब मनोरथ पूर्ण होगा। जीवन्धरकी बात सुनकर सुरमंजरी कामदेवके मन्दिर में जाने के लिए तत्पर हो गयी। ३१८-३३३ २२५-२२८. वृद्धवेषी जीवन्धरके साथ सुरमंजरी कामदेवके मन्दिरमें पहुंची शौनामदेवकी प्रतिमा के समक्ष विनीतभावसे प्रार्थना करने लगी कि मुझे जीवन्धरकी प्राप्ति हो । वहां पहले से ही छिपे हुए एक मित्रने आकाशवाणीके रूपमें प्रकट किया कि तुम्हें 'तुम्हारे इष्ट वरकी प्राप्ति हो चुकी' इसी समय वृद्धवेषी जीवन्धर अपना वृद्धवेष छोड़ असली वेष में प्रकट हो गये। सुरमंजरी जीवन्धरको सामने खड़ा देख सहम गयी। अन्तमें सुरमंजरीके साथ जीवन्धरका विवाह उल्लासपूर्वक हुआ । सुरमंजरीका पिता कुबेरदत्त सेठ भी अपनी पुत्रीके इस सम्बन्धसे अत्यन्त प्रसन्न हुआ। ३३३-३३६ दशम लम्भ २२९-२३२. तदनन्तर जीवन्धर सुमतिकी पुत्री सूरमंजरीको सुखोपभोगसे सन्तुष्ट कर अपने मित्रोंसे प्रशंसित होते हुए गन्धोत्पाट और सुनन्दासे मिले। गन्धर्वदत्ता और गुणमालाको प्रसन्न
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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