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विषयानुकमणिका
१६७-१७२. चलते-चलते जीवन्धर तापसोंके तपोवनमें पहुंचे। वहां उन्होंने उन्हें हिंसामय तपसे विरक्त होनेका उपदेश दिया। तापसोंने उनका उपदेश सुन जैनधर्म स्वीकृत किया। उन्होंने यहीं रात्रि व्यतीत की। तदनन्तर अनेक सघन वनोंको देखते हुए वे एक मन्दिरमें पहुंचे। उनके पहुंचते ही मन्दिरके किवाद स्वयं खुल गये। भक्तिविभोर होकर जीवन्धरने जिनेन्द्रदेवकी स्तुति की।
२५३-२५९ १७३-१७८. ज्यों ही ये पूजन कर बाहर गाये में ही एक समुन्ध :न करणोमें आ पड़ा। पूछनेपर उसने अपना परिचय दिया कि यहाँसे समीप ही क्षेमपुरीमें नरपतिदेव राजा रहते हैं। उनके राजथेष्ठीका नाम सुभद्र है । सुभद्रके क्षेमश्री नामकी पुत्री है। निमित्तज्ञानियोंने बतलाया था कि जिसके आनेपर मन्दिरके किवाड़ स्वयं खुल जावें वही इसका पति होगा । उसीकी खोज में मैं यहाँ रहता हूँ। मेरा नाम गुणभद्र है। अब मैं राज्यश्रेष्ठीको खबर देनेके लिए जाता है। गुणभद्र-द्वारा जीवन्धरके आनेका समाचार सुनकर राज्यश्रेष्ठी सुभद्र सपरिवार मन्दिर में आया और जीवन्धरसे मिलकर अत्यन्त प्रसन्न हुमा तया बड़े वैभवके साथ उन्हें अपने घर ले गया। वहाँ सुभद्रने अपनी पुत्री क्षेमश्रीका जीवन्धरके साथ पाणिग्रहण कराया। २५९-२६९
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सप्तम लम्भ १६९-१८४. जीवन्धरकुमार क्षेमश्रीके साथ सुखोपभोगमें निमग्न हो गये। धीरे-धीरे पावस ऋतु आ गयी। आकाशमें घनघटा छा गयी। जीवन्धरका अनुराग क्षेमश्रीके प्रति और भी अधिक बढ़ गया। एक दिन जीवन्धर रात्रिके तृतीय प्रहरमें क्षेमधीको छोड़ अचानक बाहर निकल पड़े। उनके विरहमें क्षेमश्री बहुत दुःखी हुई, परन्तु अन्तमें माता-पिताके आश्वासनसे जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंका हृदय में ध्यान करती हुई रहने लगो।
२७०-२७७ १८५-१९०. जीवन्धर कुमार एक हरे-भरे वनमें पहुंचे। वहकते हुए पक्षियोंकी बोली-वारा वह वन मानो इनका स्वागत ही कर रहा था। वहाँ एक किसान मिला। उसे उन्होंने गृहस्थ धर्मका उपदेश देकर अपने सब आभूषण दानमें दे दिये। आगे चलकर एक विद्याधरी मिली जो कि जीवन्धरको सौन्दर्यसुघाका पान कर उनपर मोहित हो गयी थी। उससे बचकर तथा उसके असली पतिको हितका उपदेश देकर जीवघर आगे बढ़े।
२७७-२८५ १९१-१९५ तदनन्तर हेमाभपुरी नगरीके निकट पहुंचे। वहाँ एक राजपुत्रको उन्होंने देखा कि वह बाणोंके द्वारा एक आम्रफलको तोड़ना चाहता है पर तोड़ नहीं पा रहा है। जीवन्धरने उसके हायसे धनुष-बाण लेकर अनायास ही आम्रफल तोड़ दिया। राजपुत्र इनके कौशलसे बहुत प्रभावित हुआ और किसी तरह प्रार्थना कर अपने घर ले गया। वहाँ राजपुत्रके पिता दृढ़मिश्ने जीवन्धर कुमारको बड़ी विनयके साथ रखा तथा उनसे अपने पुत्रोंको कोण विद्याकी शिक्षा दिलायी। राजा दृढ़मित्र जीवन्धरसे इतना अधिक प्रसन्न हुआ कि उसने अपनी पुत्री कनकमालाका इनके साथ विवाह कर दिया।
२८५-२९२ अष्टम लम्भ १९६-२०१, जीवन्धर वहाँ सुखसे रह रहे थे। नन्दादय भी वहीं जा पहुंचा। नन्दाढयके द्वारा जीवन्धरके वंश वैभवको जानकर राजा घमित्रके यहाँ बड़ी प्रसन्नता हुई। जीवन्धरके पूछनेपर नन्दाढयने बताया कि मैं गन्धर्वदत्ताको मन्त्रशय्यापर शयन कर यहाँ आया हूँ। नन्दाढयके साथ गन्धर्वदत्ताने एक पत्र भी भेजा था, जिसमें गुणमालाको विरह दशाके व्याजसे अपनी बिरह दशाका वर्णन किया था। उस पत्रको पढ़कर उन्होंने अपने घर वापिस जानेका निश्चय किया।
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