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________________ १३७ पि गरः प पनि रिच मिः -विजयवृत्तान्तः ] द्वितीयो सम्भः नुकूल पलापमानवमितपशिलादिगतसंरम्भ आसीत् । ६८३. पुनरशरणशरण्योऽयमरण्यान्याः प्रतिनिवृत्य प्रतिलब्धजीवितानां गोधनाजीविनामच्चावचां प्रीतिवाचमुपशृण्वन्, विदारितद्विरदनखरायुधनखरादातरवशिष्टासुप्रणयिशबरदत्तमुक्ताप्रकररिव रणलक्ष्मीसंभोगसंभवामन्दस्वेदबिन्दुभिरलंकृतवक्षःस्थलः, मरुदान्दोलिताङ्केलिकोमलप्रबालेविपिनदाहिविपिनेचरजीवितहरणतृप्तवनलक्ष्मीवितीर्णैः प्रकीर्णकरिव वीज्यमानः, खरसररथ- ५ तुरगखुरपुटखननसमुद्भवदविरलधवलधूलीमण्डलेन चण्डांशोरंशुमभिभावुकेन भाविपतिवत्सलधात्रीसमर्पितधवलातपत्रेणेव समेतः, प्रथमतरोदयसंरम्भसाफल्यपल्लवितरागैरनारतमजहद्वृत्तिभिरंशैरिव इति विचार्य निजशौर्यानुकूलं स्वकीयपराक्रमानुरूपं पलायमाना ये विपिने वराः किरातास्तेषां विशसनं विधातस्तस्माद् विगतः संरम्भो यस्य विगतकोध आसीत् । नरिति-पुनरनन्तरम्, अशरणानां शरण्य इत्यशरणशरण्यः, अयं जीवंधरी महदरण्य-, मरण्यानी तस्याः प्रतिनिवृत्य प्रत्यागल्य प्रतिलब्धं पुनःप्राप्तं जीवितं येषां तेषां गोधनाजीविना गोपालानाम् उच्चावचा समुस्कृष्टां प्रीतिवाचं स्नेहभारतीम् उपशृण्वन् आकर्णयन् विदारिता द्विरदा गजा पैस्ते तथाभूता ये नखरायुधाः सिंहास्तषां मखराद् आ गृहीतैः भवशिष्टानामसूनां प्राणानां प्रणयिनः स्नेहमाजो ये शबरास्तैर्द तैः, मुकाप्रकरैरिव मुक्ताफलसमूहरिव, रणलक्ष्या रणश्रिया संभोगेन संभवाः समुत्पन्ना येऽभन्दाः स्वेदबिन्दवस्तरलंकृतं वक्षःस्थलं यस्य सः, मरुता वनवायुना आन्दोलिताः १. कम्पिता ये ककेलीनामशोकानां कोमलप्रवाहा मृदुलकिसलयास्तैः, विपिने दहन्तीत्येवंशीला विपिनदाहिनो घनदाहिनो ये विपिनेघराः किरातास्तेषां जीवितहरणेन प्रापापहारेण तृप्ता संतुष्टा या वनलक्ष्मीस्तया बितीण: प्रदत्तः प्रकीर्णकैरिव चामरैरिब बीज्यमानः प्रकीर्यमाणः, खरतरैस्तीक्ष्णतरै रथतरगाणां खरपुटैः रपननेन समजवत् समस्पधमानं यद भविरलं निरन्तरं धूलीमण्मुलं तेन चण्डांशोः सूर्यस्य अंशु किरणम् अमिभावुकेन तिरस्कारिणा ' लोकाग्ययनिष्ठाखकर्थतनाम्' इति कृयोगषष्ठीनिषेधः भाविपती भविष्यदमणे वत्सला स्नेहसम्पन्ना या धात्री मही तया समर्पितं प्रदर्स धवलातपत्रं सितच्छग्रं तेनेव समेतः सहितः, उदयाय संरम्म उदयसंरम्मोऽभ्युदयोद्योगः प्रथमतर आपतरो य उदयसंरम्भस्तस्य साफल्येन पलवितो वृद्धिंगतो रागः स्नेहो येषां तैः पक्षे प्रथमतरस्योदयसंरम्भस्य साफल्येन पल्लवितः किसलयलोगोंसे क्या प्रयोजन है ? कौओं के समान दीन-हीन लोग इच्छानुसार जावें' ऐसा विचारकर अपने पराक्रमके अनुरूप भागते हुए भीलोंकी हिंसासे निवृत्त हो गये। ६८३. तदनन्तर अशरणोंको शरण देनेवाले कुमार अटवीसे लौटकर नगरके समीप आ । गये। उस समय वे जिन्हें मानो प्राण ही वापस मिल गये थे ऐसे गोपालोंके ऊँचे-नीचे प्रेमके वचन सुनते जा रहे थे। रणरूपी लक्ष्मीके संभोगसे उत्पन्न अत्यधिक पसीनाकी उन यूँदोंसे उनका वक्षःस्थल अलंकृत हो रहा था जो हाथियोंको विदीर्ण करनेवाले सिंहोंके नखोंसे छीने एवं मरनेसे बाकी बचे प्राणप्रेमी भीलोंके द्वारा दिये हुए मोतियों के समूहके समान जान पड़ते थे । हवासे हिलते हुए अशोक के कोमल पत्तोंसे उन्हें हवा की जा रही थी जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो बनको जलानेवाले भीलोंके प्राण हरनेसे सन्तुष्ट वनलक्ष्मीके द्वारा दिये हुए चमरोंसे ही उन्हें हवा की जा रही थी। रथके घोड़ोको अत्यन्त तीक्ष्ण टापोंसे खुद जानेके कारण उठती हुई लगातार सफेद-सफेद धूलीके मण्डलसे वे सहित थे और उससे ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य की किरणोंको तिरस्कृत करनेवाले, होनहार पति के साथ स्नेह करनेवाली , पृथिवीके द्वारा समर्पित सफेद छत्रसे ही मानों सहित थे। जिस प्रकार सूर्य, कभी अपना साथ न छोड़नेवाली लाल-लाल किरणोंसे दोषास्पद-रात्रिमें स्थित रहनेवाले राजा-चन्द्रमा ताश्च -धनेन जनं वन रथ कर णोंसे करने चाको नदी नापी-- - जा - इन
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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