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________________ १५८ [१७ विजयाधआत्मदुरासदमालोक्य नित्यालोकं नितरां व्यस्मेष्ट । व्यतनिष्ट च विशिष्टसुकृतोदयागताप्यापन्मम संपदे जाता' इति सानन्दश्चिन्ताम् । 5 ९७. तदनु प्रविशतां निष्पततां च निरवधिकतया तत्र तत्र स्थितैरिव सर्वद्वीपराष्ट्रभवै. जनः सृष्टिस्थानमिवाधिष्ठितमुपसृत्य राजद्वार दौवारिकमहत्तरेण धरचोदितेन विज्ञापिताहूतः ५ सकौतुकं राजगृहमवगाहमानस्तत इतोऽप्यदृष्टपूर्वतया दृष्टिं व्यापारयन्नपरिमितानि व्यतीत्य कक्ष्या न्तराणि नातिदवोयसि प्रदेशे शातकुम्भस्तम्भशुम्मिनश्चन्द्रातपच्छेदच्छविचन्द्रोपकचुम्बिताम्बरस्य निष्टप्ताष्टापदघटित कुट्टिमनिर्यत्तरुणतरतरणिकिरणायमानमरीचिमञ्जरीपिजरितहरितः खेचरेन्द्रातमसा तिमिरण नाभिभूना नाकान्तास्तैः पदं तमोगुणानाकान्तः जन की अलंकृतं शोभितम् आत्मदुरा सदम् स्वदुर्लभम् । व्यतनिष्ट च चकार च विशिष्टसुकृतोदयात्सातिशयपुण्योदयात् भागतापि प्राप्तापि १० आपद् मम संपदे लामाय जाता' इति सानन्दः सहयः चिन्ताम् विचारम् । ६९७. तदन्विति तदनु तदनन्तरं प्रविशतां प्रवेशं कुर्वतां निष्पातां निर्गच्छतां च जनानामिति शेषः निरवधिकतया निःसीमतया तत्र तत्र तत्तत्स्थानेषु स्थितैरिव विद्यमान रिष सर्वद्वीपराष्ट्रभवैरखिलद्वीपदंशसमुत्पन्नः जनः अधिष्टितं सहितमत एवं सृष्टिस्थानमिव ब्रह्मणः सृष्टिनिर्माणस्थानमिव राजद्वारं नरेन्द्र मन्दिरद्वारम् उपसृस्य प्राप्य धरचोदितेन धरप्रेरितेन दौवारिकमहत्तरेण प्रधानद्वारपालेन १५ आदी विज्ञापितः पयादाहूत इति विज्ञापिताहतो निवेदिताकारितः सकातुकं सकुतूहलं राजगृहं नृपतिसदनम् अवगाहमानः प्रवेशं कुर्वाणः तत इतोऽपि यत्र तत्र अदृष्टपूर्वतया पूर्वमनालोकित्वेन दृष्टिं व्यापारयन् चलयन् अपरिमितानि बहनि कक्ष्यान्तराणि प्रकोष्ठविवराणि व्यतीत्य समतिक्रम्य नातिदवीयसि नातिदूरतरे समाप इति पावत् शासकुम्मस्तम्मैः सुवर्णस्तम्भः शुम्भतीत्यवंशीलस्तस्य, चन्द्रातपस्य कौमुद्याश्छेदाः खण्डानि तद्वच्छवियंस्य तथाभूतेन धन्द्वोपण वितानेन चुम्बितमाश्लिष्टमम्बरं गगनं यन २० तस्य, निष्टप्तन नितरां . तप्तेन भधापदेन स्वर्णन घटितं निष्पादितं यत्कुष्टिमं मयाभोगस्तस्माभिर्यन्तो निर्गच्छन्तो ये तरुणतरणिकिरणा मध्याह्नदिनकरदीधितयस्तद्वदाचरन्स्यो या मरीचिमनों रश्मिततय अथवा दिनोंके समान अतमोऽभिभूत थे अर्थात् जिस प्रकार दिन अनमोऽभिभूत-अन्धकारसे आक्रान्त नहीं रहते उसी प्रकार वे मनुष्य भी अतमोऽभिभूत-तमोगुणसे आक्रान्त नहीं थे। उस नगरको श्रोदत्त अपने लिए दुरासद-दुष्प्राप्य समझता था । 'प्राप्त हुई २५ आपत्ति भी विशिष्ट पुण्य के उदयसे मेरी सम्पत्तिके लिए हो गयी' इस प्रकार आनन्दसे विभोर श्रीदत्त मन ही मन विचार कर रहा था। ७. तदनन्तर वह राजद्वार में पहुँचा । राजद्वार समस्त द्वीप और समस्त राष्ट्रोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंसे अधिष्ठित था इसलिए मृष्टिके स्थानके समान जान पड़ता था। वहाँ प्रवेश करनेवाले और बाहर निकलनेवाले लोगोंकी बहुलतासे ऐसा जान पड़ता था कि सब३० लोग जहाँ के नहीं खड़े ही हैं। धाविद्याधरसे प्रेरित होकर प्रधान द्वारपालन राजाको खबर दी। तदनन्तर बुलाये जानेपर उसने बड़े कौतुक के साथ राजमहल में प्रवेश किया। बैसी सुन्दर रचना उसने पहले कभी देखी नहीं थी इसलिए प्रवेश करते समय वह अपनी दृष्टि इधर-उधर चला रहा था। अनेक कझाओंके अन्तरको पार कर वह उस विशाल मण्डपमें पहुँचा जो कुछ ही दूरवर्ती स्थानपर स्वर्ण के खम्भोंसे सुशोभित था। चाँदनीके टुकड़ों के समान कान्निवाले ३५ चदोवासे जो आकाशको चूम रहा था। अत्यन्त तपाये हुए स्वर्णसं निर्मित फर्श से निकलने वाली एवं मध्याह्नके सूर्य की किरणों के समान आचरण करनेवाली किरणावलीसे जो दिशाओं
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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