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________________ वृतान्तः ] तृतीयो लम्भः १० रन्तीनां विद्युल्लतानामिव विद्याधरीणामलक्तकरसाञ्चित चरणन्यासेन रञ्जितं स्वयमपि रागातुरमिव निरूप्यमाणम् इन्दुभिरिव नन्दितोदये रुदधिभिरिवोत्तालसत्त्वैर्मन्त्रिभिरिव मन्त्रसिद्धेः पारिजातैरिव परिपूर्णितार्थिजालैः सुव्यक्तमुक्ताफलैरिव वृत्तोज्ज्वलशरीरैः कोदण्डदण्डेरिव गुणावनम्रै राजमगलैरिव सुगति सुन्दरैर्मधुकरैरिव सुमनोन्तरङ्गे बसि रैरिवातमोभिभूतैर्जनैरलंकृतम्, कदलीपलाशानि मोचादलानि तेषां संशीतिः संशयस्तस्याः संपादिनं विधायकम्, सर्वतश्च समन्ततश्च ५ सविश्रमं सविलासं यथा स्यात्तथा विहरन्तीनां विद्युल्लतानामिव तडिहारीणामित्र विद्याधरीणां खेचराङ्गनानाम् अलककरसेन यावकेनाञ्चिताः शोभिता ये चरणाः पादास्तयां न्यासेन निक्षेपेण रञ्जित रक्तवर्णीकृतम् अतएव स्वयमपि रागानुरमित्र प्रेमपीडितमित्र निरूप्यमाणं दृश्यमानम् इन्दुभिरिव सुधासूतिमिवि नन्द्रितः प्रशंसित उदद्य उद्गमनं पक्षेम्युदयो वैभवं वा येषां तैः उदधिभिरिव सागरैरिव उत्ताला उत्कटाः सुरक्षाः प्राणिनः पक्ष स्वभावो येषां तैः 'सत्वं जन्तुषु न स्त्री स्यात्सध्धं प्राणात्मभावयो:, इति विश्वलोचनः, मन्त्रिभिरिव सचिवैरिव मन्त्रे विमर्श सिद्धास्तैः पक्ष सिद्धानि मन्त्राणि श्रेयां तः 'वाहिताग्न्यादिषु' इति निष्टान्तस्य चैकल्पिकः परनिपातः, पारिजातैरिव कल्पवृक्षैरिव परिपूर्णितं कृतार्थीकृतमर्थिनां याचकानां जालं समूहो यैस्तैः सुव्यक्तमुक्ताफलैरिव सुप्रकटितभांतिकैरिव वृत्तं वर्तुलमुज्ज्वलं देदीप्यमानं शरीरं येषां तैः पक्षवृत्तेन सदाचारेणोज्ज्वलं निर्मलं शरीरं येषां तैः कोदण्डदण्डेरिव धनुर्दण्डैरिव गुणेन मौन्यत्रनम्राणि तैः पक्षं गुणैईयादाक्षिण्यादिभिरवनम्रा विनीतास्तैः, राजमरालैरिव राजहंसपक्षिभिरिव सुगत्या १५ सुन्दरगमनेन सुन्दरास्तैः पक्षे सुगत्या सुष्टुज्ञानेन शोभनदशया वा सुन्दरा मनोहरास्तैः, मधुकरैरिव भ्रमरैरिव, सुमनसां पुष्पाणामन्तरङ्गेर्मध्यगतैः पक्षे सुमनसां विदुषामन्तरभैरवायैः, वासरेरिव दिवसेंरिव फर्श से असमय में भोजनशालाकी भूमि में फैलाये हुए केले के पत्तोंका संशय उत्पन्न कर रहा था। और सब ओर हाव-भावपूर्वक विहार करनेवाली बिजलीकी लताओंके समान विद्यावरियोंके महावर के रंगसे सुशोभित पैर रखने से लाल-लाल हो रहा था जिससे स्वयं रामसे २० पीडितके समान दिखाई देता था। वह नित्यालोक नगर उन मनुष्योंसे अलंकृत था जो चन्द्रमाओंके समान नन्दितोदय थे अर्थात् जिस प्रकार चन्द्रमा आनन्ददायी उदयसे सहित होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य भी आनन्ददायी वैभव से सहित थे । अथवा समुद्रों के समान उत्ताल सत्य थे अर्थात् जिस प्रकार समुद्र उत्ताल सत्त्व -- मगरमच्छ आदि भयंकर प्राणियोंसे सहित होते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी उत्तालसत्त्व-अधिक पराक्रमके धारक थे। अथवा २५ मन्त्रियों के समान मन्त्र सिद्ध थे । अर्थात् जिस प्रकार मन्त्रबादी लोग मन्त्र सिद्ध-मन्त्रोंको सिद्ध करनेवाले होते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी मन्त्रसिद्ध — गुप्त विमर्शसे कृतकृत्य थे । अथवा कल्पवृओंके समान परिपूर्णार्थजात थे अर्थात् जिस प्रकार कल्पवृक्ष याचक समूहको सन्तुष्ट करनेवाले होते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य भी याचक समूहको सन्तुष्ट करनेवाले थे । अथवा अच्छा तरह प्रकट हुए मुक्ताफलोंके समान वृत्तोज्ज्वलशरीर थे अर्थात जिस प्रकार मुक्ताफल ३० वृत्तोज्ज्वलशरीर- गोल और देदीप्यमान शरीर के धारक होते हैं उसी प्रकार से मनुष्य भी वृत्तोज्ज्वलशरीर - चरित्रसे निर्मल शरीरके धारक थे। अथवा धनुर्दण्डके समान गुणाबनम्र थे अर्थात् जिस प्रकार धतुर्दण्ड गुगावनम्र - डोरीस नम्रीभूत रहते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी गुणाचनम्र-विद्या-बुद्धि-विनय आदि गुणोंसे नम्रीभूत थे । अथवा राजहंसों के समान सुगति सुन्दर थे अर्थात् जिस प्रकार राजहंस सुगति सुन्दर-सुन्दर बालसे मनोहर ३५ रहते हैं उसी प्रकार वे मनुष्य भी सुगति सुन्दर - उत्तम दशा से मनोहर थे । अथवा भ्रमरोके समान सुमनोऽन्तरंग थे जिस प्रकार भ्रमर सुमनोऽन्तरंग - फूलोंके भीतर गमन करनेवाले होते है उसी प्रकार वे मनुष्य भी सुमनोऽन्तरंग - विद्वानों के भीतर गमन करनेवाले थे । १५७
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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