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________________ -त्रिवाह वृत्तान्तः ] चतुर्थों लम्भः बध्नाति' इति स्फारमुपलाल्य दुहितरं तत्कल्याणपरायणायभृताम् । प्राहिणुतां च गन्धोत्कटसविधे विविध_दुष्यावामुप्यावणी वर्षीयांसी पुरुषो। तावधि सादरभरमभ्येत्य तमिभ्यपतिमियत्तादूरमितरासंभवं तेन संभावितौ च 'तत्रभवतोः किमत्रागमने प्रयोजनम् ? नियोजयतां समोहिते मां कर्मणि' इति सानुनयमनुयुक्तो छ मुहुर्ववतुमीप्सितमुपाक्रमाताम्--'अयि महाभाग, धात्रीतले 'तव पुत्राय नः पुत्री समर्पयाम इति न प्रसति व्यवहारः । नापि भवतस्तनयस्य ५ भुवनप्रतीक्ष्यत्वादपेक्ष्यतेऽस्माभिरयमर्थः । श्रुत्वेदमत्रभवान् प्रमाणम्' । इति सकृपणं राप्रणयं च प्रकारंण योग्य भाग्याहत देवा बिना दुलं दुमय वल्लपबुन्द्रि भाभियं नाति' इगि स्फारमत्यन्त या स्यात्तथा दुहितरं पुनीम उपलाल्य :शस्य तस्याः कल्याणं तत्कल्या नमिन परायणी अभूताम् । प्राहिणुतां च प्रपयामास तुश्च गन्धोत्कटसविधे वैश्यपति रमापं विविधबंदुप्यो नानाप्रकारपाण्डित्यो आमुन्यायणी कुलीनी वर्षीयान्सौ वृद्ध तरी पुरुपौ। तावपीति-तौ पुरूमावपि तं पूर्वोक्तम् इम्यपति १० धनिकुपति गन्धोत्कटं सादरभरम् श्रादरातिशययुन. यथा स्यात्तथा अभ्यत्य संमुखं गत्वा इयत्तादूरं मर्यादातीतम् इनरासंभवम् अन्जनासाधारणं तेन वैश्यपतिनासंभावितौ सत्कृती च तत्रभवतोमाननीययोर्भवतीः अत्रागमनं कि प्रयोजनम् । मां समाहितऽभिलषिते कमगि नियोजयताम् जियुवा , इ नर सस्नेहं मुहुः पुनः पुनः अनुयुक्तौ पृष्टौ च इप्सितमभिलषितं वन्तुम् उपार्कसाताम् तत्परावभूताम्अयि महामाग, अये महाशय, धात्रीतले पृथिवीनले 'तव पुत्राय जीवंधराय नोऽस्माकं पुत्री रस्मर्पयामः' १५ इति व्यवहारो न प्रसर्पति तथापि भवतस्तनयस्य पुत्रस्य भुवनम्नतीक्ष्यत्वा जगत्पूज्यत्वात अस्माभिः अयमर्थः अपश्यतेऽमिलप्यते । यद्यपि 'तव पुत्राय वयं स्वपुत्रों समर्पयामः' इति व्यवहारो न योग्यो विद्यतं भवदपेक्षयास्माकं होनशक्तिवान् । तथापि भवतस्तनयस्य भुवन प्रतीक्ष्यवादमामिरपि पुत्र:समर्पगाय तदपंक्षा क्रियत इति मावः । इदं श्रुत्वा समाकार्य अत्रमवान् माननीयस्त्वम् अन्न विषये प्रमाणम्' इतीअं सकृपणं सदैन्यं सप्रणयं सस्नेहं ताभ्यां वर्षीयोभ्याम् प्रणीतं निवेदितं प्रतीच्छन् अभिलपन् २० और.भाग्यके बिना दुर्लभ पुरुपमें ही वल्लभको बुद्धि धारण कर रही है इसलिए यह गुणमाला सचमुच ही गुणों की माला ही है। इस प्रकार उसकी बहुत भारी प्रशंसा कर उसके कल्याण करने में विवाह करने में तत्पर हो गये। उन्होंने नाना प्रकार के पाण्डित्यको धारण करने वाले अपने पक्षके दो वृद्ध पुरुप गन्धोत्कट के समीप भैजे । दोनों वृद्ध पुरुष बहुत भारी आदर के साथ वैश्यशिरोमणि गन्धोत्कट के निकट गये । गन्धोत्कटने दोनोंका मर्यादासे २५ रहित तथा अन्य मनुष्योंके लिए. दुर्लभ सत्कार कर उनसे विनयपूर्वक पूछा कि आप महानुभावोंके यहाँ आनेका प्रयोजन क्या है ? आप हमें अभिलपित कार्यमें नियुक्त कीजिए। इस प्रकार गन्धोत्कट ने जब बार-बार प्रेमपूर्वक पूछा तब वे इस प्रकार अपन! मनोरथ कहनेके लिए तत्पर हुए। उन्होंने कहा कि 'हे महानुभाब ! हम आपके पुत्रके लिए पनी पुत्री समर्पण करते हैं। यह व्यवहार यद्यपि पृथ्वीतलपर नहीं फैल रहा है तथापि चूँ कि आएका ३० पुत्र संसार के द्वारा पूज्य है, इसलिए हम यह कार्य चाहते हैं। भावार्थ-अपनी अयोग्यता देखते हुए तो यह कहनेका साहस नहीं होता कि हम अपनी पुत्री आपके पुत्र के लिए समर्पित कर रहे हैं परन्तु आपके पुत्रकी जगन्मान्यता देख हम लोग चाहते हैं कि यह कार्य हो जाये तो अच्छा है । यह सुनकर इस विषय में आप ही प्रमाण है', इस प्रकार दीनता और स्नेहके साथ उन दोनों वृद्ध पुरुषों के द्वारा कथित प्रार्थनाको 'दोनांका विवाह सम्बन्ध हो क्या दोष ३५ १. म०पलाल्य तत्पल्याण' ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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