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________________ - स्वप्नफलकथनम् ] प्रथमो लम्भः षदभिभाबुकपलाशपटल कवचितवपुषमरणकिरणशोणकिसलयप्रसूनदशिताकालसंध्यं कमप्यशोकशाखिनमवालोकिषि । स च क्षणेन क्षोणीरुहः कुलधरणीधर इव कुलिशपतनेन शतधा शकलीवृततनुरपतदवनीपृष्ठे । समुदतिष्ठच्च तस्य तरो लादकठोरदलपुटलुटितेन लोहितिम्ना लिम्पंल्लोचनपथमधरितदिवसकरबिम्बन जाम्बूनदघटितेन किरीटेन शोभितशिखरभागस्तुङ्गविशालविटपकवलितवियदन्तराल: कोऽपि कङ्केलिः । तत्र च प्रालम्बिष्ट प्रथमानपरिमलतरलमधुकर- ५ माल मालाष्टकम् । तथाविधं तमनुभूय स्वप्नवृत्तान्तं प्रवृत्तहर्षविषादा च तरक्षण एवं निद्राममुञ्चम् । आचश्व फलममुष्य' इति ॥ सान्द्रीकृतो वियदामोगी गगनविस्तारी येन तम् , अभिनवा नृतना समलेति यावत् या घनपरिषद् मेघसमूहस्तस्या अभिभायुकेन तिरस्कारकेण पलाशपटलेन पत्रमचयेन कवचितं व्याप्त वपुर्यस्य तम्, अरुणकिरण इव बालसूर्य रश्मिरिव शोणा रकवर्णानि यानि किसलयप्रसूनानि पल्लवपुप्पाणि तैर्दर्शिताऽकाल- १० संध्याकाण्डपितृप्रसूर्यन तम्, कमप्यनिर्वचनीयम् अशोकशाखिनं कङ्केलिपादपम् अवालोकिषि अदर्शम् । स चेति--सच क्षोणीरुहोऽशोकपादपः क्षणेन कुलिशपतनेन पविपातेन कुलधरणीधर एव कुलाचल इव शतधा शकलीकृता तनुर्यस्य तथाभूतः खण्डितशरीरः सन् अवनीपृष्ठे भूतले अपतत् । समुदति ष्टश्चेतितस्य पूर्वोक्तस्य तरोमलाल अकठोरटलएरेषु कोमलपत्रपुटेषु लुठितो व्याप्तस्तेन, लोहिनिम्ना रकत्वेन लोचनपथं नयनमार्ग लिम्पन्, अधरितं दिवसकरबिम्ब येन तेन तिरस्कृतादित्यमण्डलेन जाम्बूनदघटितेन १५ काञ्चनरचितेन किरीटेन मकुटेन शोणितो लोहितः शिखरभागो यस्य तम्, तुङ्गा उन्नता विशाला विस्तृताश्च ये विटपाः शाखारत कवलितं व्याप्तं वियदन्तरालं गगनान्तरं येन तथाभूतः कोऽपि कश्चित् कलिरशोकतरुः समुदतिष्ठच्च समुस्थितश्चाभूत् । तत्र चेति-तत्र च तस्मिन् च कङ्कश्यनोकहे प्रथमानेन प्रसरता ... परिमलेन सौगन्ध्यातिशयस्तेन तरला चपला सतृष्णीकृतेति यावत् मधुकरमाला भ्रमरश्रेणियन तत् तथाभूतं मालाष्टकं सगष्टक प्रालम्बिष्ट प्रलम्बते स्म । तथाविधमिति-तथाविधं तादृशं तं पूर्वोक्तं स्वप्न- २० वृत्तान्तम् अनुभूय प्रवृत्तौ संजातौ हर्षविषादी यस्यास्तथाभूता चाहं तत्क्षण एव तत्काल एव निद्रां स्वापम् अमुजम् । 'अमुप्य स्वप्नस्य फलं साध्यम आचक्ष्व कथय' इति । लाँघनेके लिए बड़े वेगसे ऊपरकी ओर बढ़ती हुई शाखाओंसे जिसने आकाशके मैदानको व्याप्त कर दिया था, नूतन मेघसमूहको तिरस्कृत करनेवाले पत्तों के समूहसे जिसका शरीर । व्याप्त था, और प्रातःकालिक सूर्यकी किरणों के समान लाल-लाल पल्लवों एवं फूलोंके २५ समूहसे जो असमय में ही सन्ध्याको दिखला रहा था। जिस प्रकार वन के गिरनेसे कुलाचलके सैकड़ों टुकड़े हो जाते है उसी प्रकार वनके गिरनेसे वह अशोक वृक्ष भी क्षण भरमें खण्ड-खण्ड हो पृथ्वीपर गिर पड़ा और गिरे हुए उस अशोक वृक्षकी जड़से जो कोमलकोमल पत्तोंकी पुट में बिखरी हुई लालिमासे नेत्रोंके मार्गको लिप्त कर रहा था, सूर्यबिम्बको तिरस्कृत करनेवाले स्वर्णनिर्मित मुकुटसे जिसके शिखरका अग्र भाग सुशोभित हो रहा ३० था, और जिसने अपनी ऊँची विशाल शाखाओंसे आकाशके अन्तरालको व्याप्त कर रखा था ऐसा कोई अशोकका वृक्ष उठकर खड़ा हो गया। उस अशोक वृक्षपर फैलती हुई सुगन्धिसे चपल भ्रमरोंके समूहसे युक्त आठ मालाएँ लटक रही थीं। उस प्रकार के स्वानको देखकर :: हर्प और विषादका अनुभव करती हुई मैंने उसी क्षण निद्राका परित्याग कर दिया। आप उस स्वप्नका फल कहिए ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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