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________________ or - गोहरणवृत्तान्स: ] द्वितीयां लम्भः नाञ्जलिम् ललाटघटित भयावह भ्रुकुटिश्चापमिव स्वयं समराय दधत् तीक्ष्णनिपातेन निरीक्षणपुङ्खना पुरीस्थित पुलिन्दसंदेहादिव प्रहितेन वित्रस्तपरिजनेन परिहृतपुरोभागः, प्रसर्पतः परितः प्रचुरपलांहितलोचनरोत्रियो मध्यमध्यासीनः क्षोत्रक्षोदीयां रचितनिजप्रतापक्ष यमक्षमः सोहमनी निमग्न इव लक्ष्यमाणः, श्रमजलविन्दुदन्तुरारीरयष्टिरन्तस्तापशमनाय स्नातोत्थित इव भासमान: शगादतिपरिचितरपि पार्श्वचरैस्तदानीमन्य इवामन्यत । नातिविराच्च नतिता- ५ धरपल्लवनियांताकिरणव्याजेन प्रजानुरागमिव प्रदर्शयन् 'प्रहीयतां तत्र दण्ड : ' इति भाविभित्र पिशुनानिपतनदायिना धारतरेण स्वरेणादिस्य गोविदल्लं प्राहिणोत् । ។ १२३ भयावहा कुटियन सः अत एव समराय युद्धाय स्वयं चापं धनुदिव तीक्ष्णनिपातन निशितनिपातन वामनाधिक्यात पुरोऽवस्थिता अग्रे विद्यमाना ये पुलिन्दाः शयरास्तेषां सन्देहादिव प्रहितन प्रेरितन निरीक्षणापाणन वित्रस्तां विभातीय परिजनस्वेद परिहृतस्त्यकः पुरोभागी यस्य सः परितः १० समन्तात् प्रसर्पतः प्रसरतः प्रचुरपेण तीवकांचे लोहितयो रक्तयोर्लोचनयो यद् विस्तस्य मध्यम् अध्यासीनोऽविष्टित अत एव यदीयमिततर रचितो विहितो यो निजप्रतापक्षयः स्वकीय तेजोऽपकर्षस्तं संातुम् अक्षमोऽसमर्थः सन् अग्नी वहाँ निमग्न इव तन्मध्यस्थित इव लक्ष्यमाणां दृश्यमानः, श्रम जलविन्दुमिः स्वकणिकाभिईन्तुरा व्याप्ता शरीरयष्टिर्यस्य सः अत एवं अन्तस्तापशमनाय मनस्ताप - विध्यापनाय आदी स्नातः पश्वादुस्थित दाँत स्वानोथित इव भासमानः प्रतीयमानः, क्षणादलांनैव कालेन १५ अतिपरचितैरपि पार्श्वचरः समीपस्थायिभिर्जनैः तदानीं तस्मिन् समयेऽन्य इव भिन्न इवामन्यत । क्षणादेव धरणापतिः क्रोधाद्विकृतवेषोऽभूद्येन परिचिता अपि तं नो परिचिक्युरिति भावः । नातिभिराञ्च क्षिप्रमेव च नर्तितः क्रोधेन प्रस्फुरितो योऽधरपल्लो दशनच्छद किसलयस्तस्मान्निर्याता निर्गता येऽरुणकिरणा रक्कमयू वास्तेषां व्याजेन प्रजानुरागं जनतास्नेह प्रदर्शयति प्रकश्यभित्र 'तत्र कान्तारे दण्डः सैन्यं ग्रहीयताम् प्रप्यताम् इतीत्थं भाविपरिभवस्य पिशुनं सूचकं यदशनिपतनं वज्रपतनं तस्य संदेहं ददातीत्येवं २० शीलं तेन धीरतरंण उच्चैस्तरेण स्वरेण आदिश्य आशय सौविदलं प्रतीहारं प्राहिणोत् प्रजिघाय ! १. ० ० ० लक्ष्यमाणः । रहा हो। उसके ललाटपर भयंकर भौंह उठ खड़ी हुई और उससे वह ऐसा जान पड़ने लगा मानो युद्ध के लिए स्वयं धनुष ही धारण कर रहा हो। 'सामने मील खड़े हैं.' इस संदेह से ही मानो उसने अपने नेत्ररूपी पैने बाण आगे चलाये थे और उससे भयभीत होकर ही सेवकजनीने उसके आगेका स्थान छोड़ दिया था - सेवक भयभीत होकर इधर-उधर २५ भाग गये | वह सब और फैलनेवाली तोत्र क्रोधसे लाल नेत्रोंकी किरणोंके बीच में बैठा था और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानों पागल एवं क्षुद्र जनों के द्वारा किये हुए अपने प्रताप के क्षयको सहने के लिए असमर्थ होता हुआ अग्निके मध्य में ही निमग्न हो गया हो । पसीनाकी बूँद से उसका शरीर व्याप्त हो रहा था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो अन्तःकरण के नापको सान्त करने के लिए स्नान करके ही उठा हो । और अत्यन्त परिचित सेवकों द्वारा भी ३० वह उस समय क्षण-भर में अन्यका अन्य माना जाने लगा । उनने शीघ्र ही नाचते हुएक्रोधातिरेक से हिलते हुए अधररूप पल्लवसे निकली लाल-लाल किरणांके बहाने प्रजाके अनुरागको प्रकट करते हुए के समान 'वहाँ शीघ्र ही सेना भेजी जाये', इस प्रकार होनहार पराजय के सूचक वज्रपात के संदेहको देनेवाले अत्यन्त गम्भीर स्वरसे आज्ञा देकर द्वारपालको वापस भेजा । ३५
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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