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________________ गद्य चिन्तामणिः [ ७०-७१ पुछिन्दैः कृत - बद्धकराः प्रलम्बिता इवानुकम्प्यमानाः प्रम्लानवदनसूचितान्तः शोकप्राग्भाराः, प्रजृम्भमाणोत्थितस्थूलसिराजालजटिलितवपुषः, प्रकामविवृतास्यक्षरल्ला लाजलापदेशेन पीतमपि पयःपूरममन्दस्वान्तसंतापादुमन्त इव जुगुप्स्यमानाः केचन गोदुहः क्रोशन्ति" इति । 1 i ७१. तथा शंसत्येव तस्मिनश्रुतपूर्वेण श्रवणकटुकतद्वचनेन धरणीपतिः फणिपतिरिव ३. फणामण्डलप्रहारेण प्रज्वलितकोपाग्निः सत्वरोन्नमित पूर्वशरोरः, सुदुरोत्क्षिप्त वैकक्ष्यताडितोर:- माला कवाट:, सोपस्थूलनिःश्वासतरलित वक्षःस्थलः संधुक्षयन्निव हृदयगतरोषाशुशुक्षणिम्, अतिमात्रगात्रभञ्जन त्रुटितोरः स्थलहारविनिर्गलदविरल मुक्ताफलप्रकरेण प्रयच्छन्निव समरदेवतायै प्रसू १२२ शाखासु बद्धक श्रद्धहस्ताः प्रलम्बिता इव दीर्घीकृता इवानुकम्प्यमानाः प्रग्लानवदनैः निश्रीक मुम्बैः सूचितः प्रकटितोऽन्तः शोकमाम्मारी हृदयस्थितशोकसमूहो मैस्ते, प्रजृम्भमाणोत्थितेन विस्तृतोत्थितेन १० स्थूलसिराजालेन स्थूलनाडीनिनयेन जटिलितं वपुर्येषां ते प्रकाममत्यन्तं विवृतानि व्यात्तानि यान्यास्यानि सुखानि तेभ्यः शरद् यालाजलं तस्यापदेशेन व्याजेन पोतमपि पयःपूरं जलप्रवाहम्, अमन्दस्वान्तसंतापात् प्रचुरचित संतापाद उद्वमन्त उन्निरन्त इव जुगुप्स्यमाना जुगुप्साविषयीभूताः । १. तथेति तस्मिन् प्रतीहारे तथा पूर्वोक्तप्रकारेण शंसत्व कथयत्येव सति, पूर्व न श्रुतमि श्रुतपूर्वं तेनानाकर्णित पूर्वेण श्रवणयोः कटुकं श्रवणकटुकं तस्य वचनं तद्वचनं श्रवणकटुकं यशद्वचनं तेन १५ धरणीपतिः काष्टाङ्गारः फणामण्डलप्रहारेण भोगचक्रवाल कुट्टनेन फणिपतिरिव नागेन्द्र इव प्रज्वलितः कोपाशिर्यस्य स वृद्धोधानलः, सत्वरं सव्यमुत्रमितं पूर्वशरीरं येन सः, सुदूरोत्क्षिप्तेन चैकक्ष्येण मालाविशेषेण ताडित उरःकवाटो वक्षःकपाटो यस्य सः, 'प्रालम्बभृजुलम्बि स्यात्कण्ठाद्वैकक्षिकं तु तत् । तिर्यक क्षिप्तमुरसि इत्यमरः सोध्मणा सौष्ण्येन स्थूलनिश्वासेन दीर्घश्वासेन तरलितं चञ्चलं वक्षःस्थल यस्य सः, रोष एवाशुशुणिरिति रोषाशुशुक्षणिः हृदयगतश्रासौ रोषाशुशुक्षणिश्चेति हृदयगतशेषाशुशुafred हृदयस्थितकोपानलं संधुक्षयशिव प्रज्वलयन्निव अतिमात्रमत्यधिकं गात्रभञ्जनेन शरीरमञ्जनेन त्रुटितः खण्डितोय उरःस्थलहारस्तस्माद्विनिर्गल संपतन् योऽविरल मुक्ताफलप्रकरो निरन्तर मौकिकसमूहस्तेन समरदेवतार्थं रणदेव्यै प्रसूनाञ्जलिं पुष्पाञ्जलिं प्रयच्छवि प्रदददिव, ललाटे निटिलतटे घटिता २.० और उससे उनके शरीर अत्यन्त क्षीण जान पड़ते हैं, 'कहीं ये जाकर दूसरोंको खबर न कर दें इस भयसे भीत भीलोंने कितने ही ग्वालोके हाथ वृक्षोंकी शाखाओं में बाँधकर उन्हें २५ नीचे लटका दिया था और इस कारण वे अत्यन्त दया के पात्र जान पड़ते हैं। उनके मुर झाये हुए मुखोंसे अन्तःकरण में स्थित शोकका समूह सूचित हो रहा है। बढ़ती एवं उभरी हुई मोटी नसके समूह से उनके शरीर व्याप्त हैं तथा अत्यन्त खुले हुए मुम्बसे झरनेवाली लाररूपी जलके बहाने वे अत्यधिक हार्दिक सन्तापसे पहले पिये हुए भी जलके समूहको उगलते हुए के समान ग्लानिके पात्र है । ३० ७१. द्वारपालके ऐसा कहते हो उसके अश्रुतपूर्व कर्णकटुक वचनोंसे काष्टाङ्गारकी क्रोधामि उस तरह प्रज्वलित हो गयी जिस तरह कि फनपर प्रहार करनेसे नागराजकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठती हूँ । उसने अपने शरीरका पूर्व भाग बड़ी शीघ्रतासे ऊपर की ओर उठा लिया अर्थात् वह तनकर बैठ गया। बहुत दूर तक उठी हुई निरही मालाओंसे उसका किवाड़ के समान चौड़ा वक्षःस्थल ताड़ित होने लगा, गर्म और मोटी श्वासोंसे उसका वक्षःस्थल चंचल हो उठा और उससे वह हृदयमें स्थित क्रोधरूपी अग्निको धौंकते हुएके समान जान पड़ने लगा । बहुत भारी अंगड़ाई लेनेसे टूटे हुए वक्षःस्थलके हारसे गिरनेवाले लगातार मोतियो के समूह से वह ऐसा जान पड़ने लगा मानो युद्ध के देवताके लिए पुष्पाञ्जलि ही दे ३५
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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