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________________ ३४ गद्यचिन्तामणिः [ ७ सत्यंवरस्य वर्तमण्डलेन मदनमतङ्गज निगलकटकेन कान्तनयनशफर विहरणतडागेन' सौन्दर्यमहानिधिगर्तसनाभिना नाभिचक्रेण चरितार्थीकृतलोकलोचना, नितान्तपीवर नितम्ब निष्पादनजनितपरिखेदपरिणततन्द्रालुभावेन कमलसाना कृशतरमुपपादितेनेव दुर्बह्पयोधरयुगलवहनकातरतया नाभिहद निमग्नेने वानुपलक्षितरूपेणातितनीयस्तया घटितपटबन्धेनेव त्रिवलीव्याजेन मध्यदेशेन दर्शित५ सौभाग्या, सौकुमार्यं सरश्चक्रवाक मिथुनेनेव मीनकेतनकरिकुम्भसहचरेण श्रृङ्गारनटरङ्गपीठेन विलाससरसी समुत्पन्न सरसिज मुकुल कोमलेन कुचद्वयेन किंचिदवनतपूर्वकाया, कदर्थित कमलमृणाल कृपाणलता खड्गवली तस्या लावण्यमपहसतीत्येवं शीला तया रोम्णां राजिका तया उदरस्थुलोमपङ्क्त्या विराजन्ती शोभमाना । रामणीयकेति - रामणीयकमेव सोन्दर्यमेव सरितस्या आवर्तमण्डलं तेन, मदनमतङ्गजस्य कामकरिणो निगलकटकेन बन्धनवलयेन, कान्तस्य वल्लभस्य नयनशफराणां नेत्रमीनानां १० विहरणाय तडागस्तेन, सौन्दर्यमेव महानिधिस्तस्य गर्तस्य सनाभिना दर्शन नाभिचक्रेण नाभिमण्डलेन चरितार्थीकृतानि लोकलोचनानि यया सा । नितान्तेति - नितान्तपीवरस्यातिस्थूलस्य नितम्बस्य कटि पश्चाद्भागस्य निष्पादनेन निर्माणेन जनितः समुत्पन्नो यः परिखेदस्तेन परिणतः प्राप्तस्तन्द्रालुभाव आलस्यं यस्य तेन कमलसनना ब्रह्मणा कृशतरं यथा स्यात्तथा उपपादितेनेव रचितेनेव दुर्वहं दुःखेन बोढुं शक्यं यत्पयोधरयुगलं तस्य बहने धारणे कानरतया मीरतया, नामिरेव ददस्तस्मिन् निमग्नेनैवानुपलक्षित१५ रूपेणादृष्टाकारेण अतिशयन तनुः इत्यतितनीयान् तस्य भावस्तथा अतिकृशतया त्रिवलीव्याजेन रेखात्रितयव्याजेन घटितो विहितः पटवन्धो यस्य तेन तथाभूतेनेव मध्यदेशेन कटिप्रदेशेन दर्शितं सौभाग्यं यस्याः सा । सौकुमार्येति — सौकुमार्यमेव मृदुत्वमेव सरः कासारस्तस्य चक्रवाकयोमिथुनेनेव युगेनेव, मीनकेतनकरिणो मदनमतङ्गजस्य कुम्मौ गण्डौ तयोः सहचरेण सदृशेन शृङ्गार पुत्र नटस्तस्य रङ्गपीठेन नृत्यस्थलेन, विलाससरस्यां विश्वमकासारे समुत्यन्ने ये सरसिजमुकुले कमलकुड्मले द्वन्दकोमलेन कठिनेन २० कुचद्वयेन स्तनयुगलेन किंचिदवनतो मनाग्भुझः पूर्वकायो यस्याः सा । कदर्थितेति - कदर्शितं तिरस्कृतं नम्र किया था और जो त्रिभुवनको विजयके लिए तैयार हुए कामरूपी योद्धाके हाथमें स्थित तलवाररूपी लताके सौन्दर्यकी खिल्ली उड़ा रही थी ऐसी रोमराजीसे सुशोभित थी। जो सौन्दर्यरूपी नदी भँवर के समान जान पड़ता था, कामरूपी हाथीको बेड़ी के कड़े के समान था, पति नेत्ररूपी मछलियोंका क्रीडासरोवर था अथवा सौन्दर्यरूपी महानिधि के गर्त के ६५ समान था ऐसे नाभिचक्रसे वह मनुष्योंके नेत्रोंको चरितार्थ कर रही थी। वह जिस दुबलीपतली कमर से अपना सौभाग्य दिखला रही थी वह ऐसी जान पड़ती थी मानो अत्यन्त स्थूल नितम्बों के बनाने से उत्पन्न थकावट से आलम्य आ जानेके कारण ब्रह्माने उसे अत्यन्त कृश बना दिया था अथवा बहुत भारी स्तन युगलको धारण करनेसे भीरु होने के कारण मानो वह नाभिरूपी सरोवर में डूबी जा रही थी । अत्यन्त कृश होनेके कारण उसका स्वरूप दिखाई ३० नहीं देता था तथा त्रिवलिके बहाने वह वस्त्रकी पट्टी बाँधे हुएके समान जान पड़ती थी । जो सौन्दर्यरूपी सरोवर के चकवा चकवीके मिथुन के समान थे कामदेवरूपी हाथी के दो गण्डस्थलोंके समान थे, शृंगाररूपी नटकी रंगभूमि स्वरूप थे, और बिलासरूपी सरोवर में उत्पन्न कमलकी बोड़ी के समान थे ऐसे दोनों स्तनोंसे उसके शरीरका ऊर्ध्वभाग कुछ-कुछ नीचे की ओर झुक रहा था । जिन्होंने कमलके मृणाल सम्बन्धी सौकुमायको तिरस्कृत कर दिया था, जो १ क० ख० ग० तटावेन । २० सनाभिनाभिचक्रेण । ३ म० अ० मिथुनेन ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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