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________________ -वृत्तान्तः । द्वितीयो लम्भः १२० च्छलानुपत-पातिप्रचय प्रज्छादितावनुषि प्रावतलहननसंधाभिपतदुपरत करधृतकरवालदारितप्रत्यथिनि पापतररोपदष्टोतमुखरीक्ष्यवीक्षण भयापक्रामत्क्रव्यादि पर्यायप्रवृत्तोभयबलविजयपोहपिता से करिघटा टनस्फुटित मुक्ताफलतुलितास्तोकश्रमजलकलितहस्तवति भूरिति रीफालतयथावस्थिनवाई जनि, शिलीमुखविद्धमुखविनिर्षदविरलधिरधारापुनरुक्तसिन्दूरितद्विरदवपुषि नहनियन्तनात गोपनीतग्थहरालोलुपप्रतिबलकलकलरवमनोहारिणि काकपेयशोणितापगा- ५ प्रवाहपमितरण यि , भिवानमनपरसभरवताभिमुख प्रतियितदेशो यशरशयनशायियोधके यानं केगाणितया प्रमजति, तहणायाम् 'स्वदेशगत: शशः कृजरातिमाया' इति किंवदन्ती मुचितमपहात अंयितं अस्तथाभृतः ये मायका बाणा तपां गवेषणस्यान्वेषणम्य या भनीषा बुद्धि स्तरमाआलेमानुएनन्माउनुगच्छन्ती ये पदात यो मृन्यास्नेपा नचयन समूहन प्रमादिना हवभृद्धभूमिप्रस्मिन् सम्मिन प्राकने--प्रामा पूर्वप्रतिनी या हननसम्धा मारणाभिप्रायस्तनाभिपतनिःसंमुखमागच्छद्भिः १० उपरतफरतकस्वालमृतहस्तशृतकृपाणेदारिताः स्वण्डिताः प्रत्याधिनो रिपबो यस्मिन् तस्मिन् , परुपतरेतिपरपकरण तीव्रतरंग रोगन नष्ट ओष्ठोऽसी यस्मिन् तथाभूतं यत् प्रेतमुखं मृतवदनं तस्य रक्ष्यस्य क्षमवलोकनं तस्य मयनापामतः व्यादी मांसभोजिनो यस्मिम् तस्मिन् , पर्यायेति -पर्यायेण क्रमेण प्रवृत्तो जातो य उभयबलस्य विजयस्तस्य घोपेण हर्षिता पहारो यस्मिन् तस्मिन् 'नयतत्र' इति कप , कनिकरिघटाया गजसमृहस्य पाटनेन विदारणेन स्फुटितानि प्रकटितानि यानि मुक्ताफलानि १५ मौक्तिकानि तैस्तुलितानि यानि अस्तोकश्रमजलानि भूरिस्वेदजलबिन्दवस्तैः कलिला युक्ता हस्तवन्तः कुशल जना यस्मिन् मस्मिन् , भूरितिरी फलैः कविकारूपका कता अत एवाय स्थिता एकत्रस्थिता वाजिनी हया यस्मिन् सम्मिन , शिलीमुखेति-शिलीमाविद्धभ्यो मुरली बिनियन्ती या बिरलरुधिरधारा तथा पुनरुतं यथा स्यात्तथा सिन्दुरितानि द्विरदवषि गजशरीराणि यस्मिन् तस्मिन् , निहतेति--निहतो गृतो नियन्ता सारथिर्यष तथाभूतैस्तुरगैरुपनीयमानी यो ग्थस्तस्य हरणे स्वसास्करणे लोलुप टपटं यत्न- २० तिबलं शत्रुसैन्यं तस्य कलरवेण कलकलशब्देन मनो हरतीत्येवं शीलं तम्मिन , काकपेयेति-काकपेया गभीरा याः शोणितापगा रुधिरमद्यस्तासा प्रचाहेण प्रशमितं रणरजी यस्मिन सस्मिन , परिभवेतिपरिभवस्य तिरस्कारस्य निरसने दूरीकरण परं तत्परं यत्समरदैवतं युद्धदेवता तस्याभिमुखं पुरस्तात प्रतिपहारी वाणोंक खोजनेकी बुद्धिसे छलपूर्वक इधर-उधर चलनेवाले सरकांक समूहस जिसमें युद्धकी भूमि आच्छादित हो रही थी, मारने के पूर्ववर्ती अभिप्रायसे सामने आनेवाले मृत २५ मनुष्य के हाथ में स्थित तलवारसे जिस में शत्रु विदीर्ण हो रहे थे, अत्यधिक तीक्ष्ण क्रोधसे ओठको उसनेवाले मृत मनुष्य के मुखकी रूक्षताके देखने के भयसे जिस में मांसभोजी जीव भाग रहे थे । क्रम-क्रमसे प्रवृत्त दोनों पक्षकी विजय घोषणासे जिसमें प्रहार करनेवाले हर्षित हो रहे हाथोंका कौशल दिखाने वाले मनुष्य हस्तियों के समूह अथवा उनके गण्डस्थलों के चीरने से निकले हुए मोतियोंके समान अत्यधिक पसीनासे युक्त थे, लगामरूप काँटोके ३० पकड़नेस जहाँ बहुत भारी घोड़े यथास्थान स्थित थे, बाणों के द्वारा बायल मुखस निकलती हुई मधिरकी अविरल धारासे जिसमें हाथियोंके सिन्दूरसे रंगे झर्ग:र. पुनरुक्त है। रहे थे. सारथिर हित घोड़ों के द्वारा लाये हुए रथोंके छीननेके लोभी झनुसेनाकी कलकल ध्वनिसे जा मनोहर था, कौओंके द्वारा पाने के योग्य खूनकी अगाध नदियोंसे जहाँ युद्ध की धूलि शान्त हो गयी थी, और जहाँ बाण-शय्यापर शयन करनेवाले योगा पराभव के दूर करने में समर्थ युद्ध- ३५ १. तरीफलं कण्टकम् इति टिप्पणी । २. के० ख० ग० 'वि' नास्ति ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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