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प्रस्तावना
लेप उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या, विरोधाभास तथा उल्लेख आदि अलंकारोंके पटने गद्यकी सभा चार चाँद लगा दिये है। बाणने श्रीहर्षचरितम आदर्श गद्य के जिन गुणोंका वर्णन किया है वे नवीन अर्थ, अग्राम्य जाति, स्पष्ट श्लेष, स्फुटरस और अक्षरकी विकटबन्धता गद्यचिन्तामणिमें सबके सब अवतीर्ण है। अटवीमें झाड़-झंखाड़ोंका कोई व्यवस्थित क्रम नहीं रहता परन्तु मनुष्यकृत उद्यानमें पुष्पितपल्लवित लताओं, हरे-भरे वृक्षों और आवश्यकतानुसार निर्मित पादपकेदारिकाओंका एक व्यवस्थित और सुन्दर क्रम रहता है जिससे उसकी शोभा निखर उठती है। गद्य और पद्य काव्यमें भी कवि अपनी वर्णनीय उत्तओंको इस सून्दर क्रमसे सजा-सजाकर रखता है कि वह एकदम सहृदय मनुष्योंके हृदयको आह्लादित करनेवाली हो जाती है। हम प्रतिदिन देखते है कि प्राचीमें सूर्योदय हो रहा है, आकाशमें रात्रि के समय असंख्य तारोंका समूह और उज्ज्वल चन्द्रमा चमक रहा है, कल-कल करती हुई नदियाँ बह रही हैं, वनके हरे-भरे मैदानों में हरिणोंके झण्ड चौकड़ियां भर रहे हैं, मकानके छज्जोंपर बैठे कबूतरोंको पकड़नेको घातमें बिल्ली दुबककर बैठी हुई है, पूँछ हिलाता और लोद करता हुआ एक घोड़ा हिनहिना रहा है और बिजलीको कौंधसे बच्चे तथा स्त्रियाँ भयभीत हो रही हैं, पर उन सब दृश्यों में आह्लाद कहाँ ? दर्शकके हृदय में रस कहाँ उत्पन्न होता है? किन्तु यही सब वस्तुएं जब किसो कविकी लेखनीरूपी तुलिकासे सजाकर रख दी जाती है तो काव्य बन जातो है और श्रोताओंके हृदयमें एक अजीब-सा रस-आह्लाद उत्पन्न करने लगती हैं। गद्यचिन्तामणिमें भो कविने इन सब चीजोंको ऐसा संभालकर रखा है कि देखते ही हृदय आनन्दसे भर जाता है। कवि जहाँ स्त्री-पुरुषोंका नख-शिख वर्णन करता हुआ उनके बाह्य सौन्दर्यका वर्णन करता है वहां उनकी आभ्यन्तर पवित्रताका भो वर्णन करता चलता है। 'राजा सत्यन्धरका पतन उनकी विषयासक्तिका परिणाम हैं। यह बतलाकर भो कवि उनकी श्रद्धा और धार्मिकताके विवेकको अन्त तक जागत रखता है। युद्धके मैदान में भी वह सल्लेखना धारण कर स्वर्ग प्राप्त करता है ।
गद्यचिन्तामणिको रीढ-जो विजया प्रातःकाल राज्य-महिषीके पदपर आरूढ थो वही राजा सत्यन्धरका पतन हो जाने पर सायंकाल स्मशानभं गड़ा है और राक घनघोर अन्धकारमें मोक्षगामी कथानायक जीवन्धरको जन्म देती है। रानी विजयाको आँखों में अपने पुत्रके जन्मोत्सवको सकी झल रही है और वर्तमानकी दयनीय दशापर भेत्रोंसे मांस बरस रहे है। उस समयका बह दृश्य कितना करुणाबह और कितना वैराग्यजनक बन पड़ा है इसे प्रत्येक सहृदय व्यक्ति समझ सकता है। अपने सद्योजात पुत्रको दूसरेके लिए सौंपनेपर भी उसके हृदयमें वह विकलता कविने नहीं आने दी है जो अन्य माताओंमें देखी जाती है। विजया अपने भाई विदेहाधिप गोबिन्दके घर जाकर अपमानके दिन बिताना पसन्द नहीं करता है किन्तु दण्डक वनके तपोवनमें तापसोके वेपमें रहकर अपने विपत्तिके दिन काटना उचित समझती है। क्षत्रचड़ामणि कविने बहत सन्दर कहा है कि. 'जो रानी पहले शय्यापर पडे फुलको बोंडोसे भी कराह उठती थी वह आज घास-फूसकी शय्याको बड़ा मान रही है। और तो क्या अपने हाथरो काटा हुआ नीवार.-जंगलो घान्य ही उसका आहार है।'.."यह सब विपत्ति बह भोग रही है फिर भी अपने मनोमन्दिरमें जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंका ध्यान करती रहती है। माताका वात्सल्यसे परिपूर्ण हृदय चाहता है कि मैं अपने पुत्रको खिला-पिलाकर आनन्दका अनुभव करूं । दण्डकवन में विजया माता हरोहरी दूबके अंकुरोंको उखाड़कर हरिणोंके बच्चोंको खिला-खिलाकर हृदयमें यथा-कथंचित् सन्तोष धारण करती है। आगे चलकर उसी दण्ड कवनों जीवन्धरके सखा-साथियोंसे जब काष्ठांमारके द्वारा उसके प्राणदण्डका अपूर्ण समाचार सुनती है तब उसका हृदय भर आता है; आँखोंसे सायनको झड़ी लग जाती है और दण्डकवनका तोवन एक आकस्मिक करुण क्रन्दनसे गूंजने लगता है। पुत्रके प्रति माताको ममताको मानो कविने उडेल
1. नवोऽर्थी जातिरग्राम्या श्लेषः स्पष्टः म्फुटो रमः । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ॥ इपंचरित । २. अनल्पतूलतल्पस्य सन्तपसवादपि । निर्भरं हन्त सदस्य भशस्याप्यरोचत १०३|| स्वहस्तलूननीवारोऽप्याहागेऽस्याः परेण किम् । अवश्यं हनुमोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥१४॥
-क्षम्रचूडामणि, कम्ब।