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गश्चिन्तामणिः
कर रख दिया है। अन्तमें पूर्ण समाचारके सुननेपर उसका हृदय सन्तोपका अनुभव करता है। सखाओंद्वारा माताके जीवित रहनेका समाचार प्राप्त कर जीवन्धरका हृदय भी माताका पवित्र दर्शन करने के लिए अघोर हो उठता है। वे सास-श्वसुर और श्वसुरालयके सभी लोगों के रोकनेपर भी अपने सखाओंके साथ माताके पास दुतमतिसे आते हैं और माताके दर्शन कर गद्गद हो जाते है। यह प्रकरण गचिन्तामणिकी रोढ़ है । कविने इतनी कुशलतासे इसका वर्णन किया है कि पाठकका हृदय आनन्दसे विभोर हो जाता है।
गद्यचिन्तामणिका प्रकृति-वर्णन-संस्कृत साहित्यमें प्रकृति-वर्णनके लिए महाकवि भवभूतिकी प्रसिद्धि है, परन्तु जब हम गद्यचिन्तामणिका प्रकृति-वर्णन देखते हैं तब कहीं उससे भी अधिक आनन्दका अनुभव होता है। निर्मल 'अन्तरिक्षमें फैली हुई चाँदनी, रात्रिका धनघोर अन्धकार, सूर्योदय, सूर्यास्त, राणा हुआ मुर, पाताना मन्द तीनल और सुगन्धित समीर, पक्षियोंका कलरव, हरे-भरे कानन, आकाशमें छायी हुई श्यामल घनघटा; दावानल और उसके बीच में रुके हुए हाथियोंके झुण्ड, जन-जनके मानसमें आनन्द उत्पन्न करनेवाला वसन्त, मेघटिके बाद बहता हआ पानीका प्रवाह, ग्रीष्मके रूक्ष दिन और पावसके सरस दिन-इन सबका कविने जितना सरस वर्णन किया है उतना हम अन्यत्र कम पाते हैं। सबके उद्धरण देना यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी कुछ पंक्तियां उद्धृत करनेका लोभ संवरण नहीं कर सक रहा हूँ। देखिए छठे लम्बमें जीवन्धर कुमार एक तपोवनसे आगे चलकर कतिपय काननोंको दृष्टिगोचर कर रहे हैं।
'विहितप्रगेतनविधिस्ततो विनिर्गत्य सात्यन्बरिरन्धकारितपरिसराणि-क्वणदलिकदम्बकबलितशिखरकुसुमतुङ्गतरुसहस्राणि, विशृङ्खलखेलत्कुरङ्ग-खुर पुटमुद्रितसिकतिलस्थलाभिरम्याणि, स्वच्छसलिलसरःसमुद्भिन्नकुमुदकुवलयमनोज्ञानि, विमलवनापगापुलिनपुज्जितकलहंसरसितरञ्जितश्रवणानि, दृप्यच्छावरशृङ्गकोटिविघटनविषमिततुङ्गकच्छानि, विचित्रसुमनःपरिमलमांसलसमीरसंचारसुरभोकृतानि, कानिचित्काननानि नयनयोरुपायनीचकार।
गद्यचिन्तामणिका रस परिपाक-शब्द और अर्थ काव्यके शरीर है, तो रस उसको आत्मा है । साहित्यमें श्रृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वोर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ रस हैं। मरत मनिने वात्सल्य नामक दसवा रस भी माना है। इन सभी रसोंका गद्यचिन्तामणिमें अच्छा परिपाक हा है । कथानायक जीवन्धर कुमारको गन्धर्वदत्ता आदि आठ नयी नवेलो वधुएं हैं। उनके साथ पाणिग्रहणके बाद शृंगारका अच्छा परिपाक हुआ है पर खास बात यह है कि कविने उस शृंगारवर्णनमें कहीं भी अश्लीलता नहीं आने दो है। नवम लम्भमें जीवन्धर कुमार एक जर्जरकाय वृद्धका रूप बनाकर जब सुरमंजरीके घर पहुंचते हैं और 'कुमारीतीर्थको प्राप्तिके लिए घूम रहा हूँ' इन शब्दों-द्वारा अपने आगमनका प्रयोजन बताते हैं तब मानो हास्यका झरना ही फूट पड़ता है। वे अपने दिव्य संगीतसे सुरमंजरीको प्रभावित कर तथा मनचाहा वर प्रदान करनेका प्रलोभन दे अनंगगहमें ले जाते हैं और अनंग प्रतिमाके सामने सुरमंजरीके द्वारा चिरकांक्षित जीवन्धरके प्राप्त होनेको प्रार्थना की जाती है तथा छिपे हुए बुद्धिषेणके द्वारा 'लब्धो घर:' का उच्चारण होनेपर जब जर्जर-शरीर वृद्ध, जोबन्धर कुमारके वेषमें प्रकट होता है तब रोनी मुद्रावाले मनहूस पाटक भी एक बार खिलखिला उठते हैं । विजया माताके चित्रण तथा द्वितीय लम्भमें भीलों-द्वारा मोपोंकी गायोंके चुरा लिये जानेपर कविने जो गोपोंवी वसतिका वर्णन किया है तथा माताओंके अभावमें भूखसे पीड़ित गायोंके दुधमुंहे बछड़े जब गोपियोंके स्तनोंपर अपने मुख लगा देते हैं तब करुष्य रसका परिपाक सीमाके बाँधको लांघ जाता है और बवादपि कठोर मनुष्यके नेत्रोंसे शोकके गरम-गरम
आँसू निकल पड़ते हैं । काठांगारकी क्रूरता जब हितावह मार्गका प्रदर्शन करनेवाले धर्मदत्त आदि सचिवोंका वध करता है तथा अपने उपकारी राजा सत्यन्धरको मारकर अपनो कृतघ्नताका परिचय देता है तब रौद्ररस अपनी रुद्रतासे सत्पुरुषों के हृदयमें भय उत्पन्न कर देता है। गन्धबंदत्ता तथा लक्ष्मणाक स्वयंवरके बाद जोवन्धर कुमारने युद्धोंमें जो अपनी शूरता दिखायी है और काष्टांगारको मारनेके बाद भी उसके परिवारको