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प्रस्तावना
जो राजमहल में ही रहनेको उदारता प्रदर्शित की है उससे वीररसका उत्तम परिपाक हुआ है । चतुर्थ लम्भमें वनक्रीडासे लौटते समय काष्ठांगारका अशनिघोष हायी रुष्ट होकर गुणमालाके प्रति झपटा चला आ रहा है । भयसे भोत हो उसके सखा-साथी तथा शिविकाके बाहक भी भाग गये है, और भयसे काँपती हई गुणमाला एक बड़ा धायके पीछे खड़ी-खड़ो अनाशंसित मृत्युकी प्रतीक्षा कर रही है"यह भयानक रसका कितना पार वर्णन है। श्मशान में जलती हुई चिताओं और उनकी लपट में जलते हर नर-शवोंका वर्णन बीभत्स राका दश्य सामने रखता है तो लक्ष्मणाके स्वयंवर में जीवन्धर कुमारके द्वारा सहसा चन्द्रकबेधका होना अदभत रसको उपस्थित कर देता है । अन्तिम लम्भमें वनपालके द्वारा वानरीके हाथसे तालफल छीन लिया जाता है इस दश्यको देखकर जीवन्वरके मुखसे निकल पड़ता है-'मद्यते वनपालोऽयं काष्टाङ्गारायते हरिः' और उनका हृदय संसारकी दशा देख वैराग्यसे सराबोर हो जाता है। मुनिराजके मुखसे धर्मोपदेश होता है और जोबन्धर स्वामी सब राज्यपाट छोड़ दैगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं यह सब शान्त-रसका परम परिपाक है। इस तरह गद्यचिन्तामणिमें अंगोरस शान्तरस है और अंगरूपमें शेष आठ रस स्थान-स्थानपर अपनी गरिमा प्रकट कर रहे हैं। विजयाके चरित्र-चित्रणमें वात्सल्य रस भी अपनी आभा दिखला
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गद्यचिन्तामणि तथा क्षत्रचूडामणिपर अन्य कवियोंका प्रभाव-चिन्तामणि तथा क्षत्रचूड़ामणिको देखनेसे लगता है कि कान्यके विषयमै इनपर पूर्ववर्ती कालिदास, बाण, सुबन्धु तथा दण्डी आदि. का प्रभाव है तो धर्म और दर्शनमें समन्तभद्र, पूज्यपाद, शिवायं और अकलंकका प्रभाव परिलक्षित है। यहां कुछ तुलनात्मक उद्धरण देखिए१. 'प्रजानां विनयाधानाद्रक्षणाद्धरणादपि । स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतवः' ।।
-रघुवंश सर्ग, १, श्लोक २४ सुझादुले प्रजानी लाभूतां प्रजापतेः । प्रजानां जन्मवर्ग हि सर्वत्र पितरो नृपाः ।।'
-क्षत्र०, लम्भ ११, श्लोक ४ 'रात्रिदिवविभागेषु यदादिष्टं महीक्षिताम् । तसिषेवे नियोगेन स विकल्पपराङ्मुखः ।'
-रघुवंश सर्ग, १७, श्लोक ४९ 'रात्रिदिवविभागेषु नियतो निर्यात व्यधात् । कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ॥'
क्षत्र०, लम्भ ११, श्लोक ७ 'स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् । अनन्यशासनामुरु शशासकमहीमिव ।'
-रघुवंश, सर्ग १, श्लोक ३० 'प्रबुद्धेऽस्मिन् भुवं कृत्स्ना रक्षत्येकपुरोमिव । राजन्वती च भूरासीदन्वयं रत्नसूरपि ॥'
–क्षत्र, लम्भ ११, श्लोक ९ २. 'अनित्याः शत्रयो बाह्या विप्रकृष्टाश्च ते यतः । अतः सोऽभ्यन्तरान्नित्यान् घट्पूर्वमजाविता ॥४५॥
कातर्य केवला नीति: शौर्य' श्वापदचेष्टितम् । अत: सिद्धि समेताभ्यामुभाभ्यामन्वियेष सः ॥४७॥ न तस्य मण्डले राज्ञो न्यस्तप्रणिधिदीधितेः । अदृष्टमभवत्किचिचभ्रस्येव विवस्वत: ॥४८॥ रात्रिदिवविभागेषु यदादिष्टं महीक्षिताम् । तसिषेवे नियोगेन स विकल्पपराङ्मुखः ॥४९॥ कामं प्रकृतिवैराग्यं सद्यः समयितुं क्षमः ! यस्य कार्यः प्रतीकार्यः सः तन्नवोदपादयत् ।।५०॥'
-रघुवंश, सर्ग १७ 'असौ राजा बाह्यममित्रजातमध्रुवमतिविप्रकृष्टं चेत्यात्मनिष्ठमरिषड्वर्ग व्यजेष्ट । असहाया नीति: कातर्यावहा शोर्य' च श्वापदचेष्टितमित्यभीष्टसिद्धिमन्विताभ्याममभ्यामाकाङ्क्षीत् । सप्रणिधानं प्रहित
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